Thursday, December 14, 2017

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-36) अमिट छाप


जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-36) अमिट छाप
समय बितता गया | चरण सिंह की शादी हो गई | वह तीन बच्चों का बाप भी बन गया | वह अपनी फौज की नौकरी छोड़कर घर आ गया | यहाँ आकर उसने काफी अच्छी तरक्की कर ली तथा अपने को इस काबिल बना लिया कि अपने परिवार के लिये हर जरूरत का सामान जुटा सके | देखते ही देखते उसने अपनी लड़की की शादी भी एक सभ्रांत परिवार में कर दी |
वैसे तो चरण सिंह (मैं) और उसकी बड़ी बहन इन्द्रा की उम्र में लगभग 18 साल का अंतर था परंतु किसी कारणवश उसकी बहन के बच्चे अब शादी लायक हुए थे | जब चरण सिंह अपने बड़े लड़के की शादी की सोच रहा था तो बड़ी बहन जी की लड़की बबलीका रिस्ता पक्का हो गया | अतः भात भरने की बात उठी जो चरण सिंह समेत उसके तीनों बड़े भाईयों को मिलकर भरना था | इसके लिये एक दिन चरण सिंह के फोन की घंटी टन टनाई  | चरण सिंह ने चोगा अपने कान पर लगाया तो उसे आवाज सुनाई दी, हैलो, हैलो ! कौन, चरण सिंह |
चरण सिंह अपने भाई ज्ञान चन्द की आवाज पहचान कर,” नमस्ते भाई साहब |”
नमस्ते, अच्छा ऐसा है कि हम तीनों यहाँ बैठे हैं | बड़ी बहन जी की लड़की बबली के भात के बारे में बातें करनी हैं इसलिये तुम भी आ जाओ |”
भाई साहब अभी मैं यहाँ अकेला हूँ | घर पर कोई नहीं है | आप लेने देने का जो फैसला करो कर लो मुझे मंजूर होगा | अगर यहाँ कोई आ गया तो मैं आ जाऊंगा |”
ज्ञान चन्द टेलिफोन रखते हुए, अच्छा ठीक है |”
लगभग आधा घंटा व्यतीत होने पर एक बार फिर चरण सिंह के टेलिफोन की घंटी टन टनाई टर्न टर्न |
चरण सिंह ने टेलिफोन उठाकर, हैलो |”
दूसरे छोर से चरण सिंह के भाई ज्ञान चन्द बोले, हाँ भाई हमने फैसला कर लिया है कि हम भात नहीं भरेंगे तथा न ही हममें से कोई शादी में जाएगा |” 
चरण सिंह अपने भाई साहब के ऐसे वचन सुनकर सकते में आ गया | उसे विशवास ही नहीं आ रहा था कि उसके तीनों बड़े भाई ऐसा फैसला भी ले सकते हैं | उसने तो यह सोचकर उनसे कह दिया था कि जितना खर्चा करना है इसका फैसला वे कर लें उसे मान्य होगा | चरण सिंह ने यह तो सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके भाई अपनी सगी भांजी के विवाह के लिये ऐसा रूख अपनाएंगे | अपने भाईयों का फैसला जानकर चरण सिंह का रक्त प्रवाह एक दम बढ़ गया | उसके दिमाग की नसें फटने सी लगी | चरण सिंह ने टेलिफोन का रिसीवर रखते हुए इतना ही कहा, “ठहरो मैं आता हूँ फिर बातें होंगी |”
इसके बाद चरण सिंह ने फटाफट अपनी दूकान बन्द की | घर में ताला लगाया तथा अपने भाईयों के पास जा पहुँचा | चरण सिंह आराम से बैठकर, हाँ भाई साहब अब बताओ कि क्या फैसला किया ?”
औम प्रकाश :-यही कि न तो हम भात देंगे तथा न ही हम शादी में जाएंगे |
चरण सिंह कुछ सोचकर, आप लोगों की शादी में न शरीक होने की बात तो एक बार को मान भी ली जा सकती है क्योंकि हो सकता है आप लोगों को उस दिन इस काम से भी ज्यादा जरूरी काम हो परंतु आप अपनी भांजी के कन्यादान के लिये कुछ नहीं भेजोगे यह बात तो कुछ जँचती नहीं |”
इसमें जँचने ओर न जँचने की क्या बात है ?”
चरण सिंह थोडा रूककर, बात है | मैं आप से एक बात पूछता हूँ | अगर आपके यहाँ किसी नाई, धोबी, चमार या राजपूतों के घरों से किसी की लड़की की शादी का कार्ड आता है तो क्या आप उसके लिये कन्यादान नहीं भेजते ?”
चरण सिंह के तीनों भाई एक साथ बोले, “भेजते हैं परंतु वह और बात है |”
और बात है ! मैं नहीं समझ पा रहा कि आप लोगों को क्या हो गया है ? जब आपके यहाँ किसी गैर जात का कार्ड आ जाता है तो आप उनके यहाँ कन्यादान भेजना नहीं भूलते और जब आप लोगों की खुद की सगी भांजी की शादी का कार्ड आया है तो आप भात देने से तो कतरा ही रहे हो उसमें कन्यादान देना भी तुम्हे अखर रहा है |”
शिव चरण :-उन्होंने काम ही ऐसा किया है कि वे कन्यादान लेने के भी काबिल नहीं हैं |
ऐसा उन्होंने क्या कर दिया मैं भी तो जानूं, चरण सिंह ने जानना चाहा |
औम प्रकाश :- बहन जी हमारे यहाँ भात नौतने नहीं आई | जब भात ही नहीं नौता तो हम भात क्यों भरें ?
चरण सिंह ने अपना तर्क पेश किया, “ठीक है | बहन जी हमारे यहाँ भात नौतने नहीं आई तो क्या आप में से किसी ने इतनी तकलीफ उठाई कि उनसे पूछ लेते कि बहन जी भात नौतने क्यों नहीं आई, क्या कारण है ? हो सकता है उनकी कुछ मजबूरी रही हो |”
औम प्रकाश :-चरण सिंह तू उनके इतनी फेवर वाली बात क्यों कर रहा है ?
शिव चरण :-बिलकुल सही | यह तो सरासर फेवर वाली बात है |
फेवर, फेवर, इसमें मैने ऐसी कौन सी बात कह दी जो यह दरसाती हो कि मैं उनका फेवर कर रहा हूँ | जैसे वह तुम्हारी बहन है वैसे ही मेरी भी है | मुझे वह अलग से खोए के लड्डू नहीं खिला रही जो आप लोगों को नहीं मिले |
फिर चरण सिंह ने अपना दो टूक फैसला सुनाते हुए कहा, “सभी सुंन लो कोई जाए या न जाए मैं तो शादी में अवशय जाऊँगा |”
एक बार को चारों ओर खामोशी छा गई | सभी अपने अपने विचारों में खो गये | चरण सिंह  एक एक करके सभी के चेहरों पर उतरते हाव भाव परखने लगा | चरण सिंह के ऐसे दो टूक जवाब की शायद किसी भी भाई को आशा न थी | थोड़ी देर की निस्तब्धता के बाद :
शिव चरण :- क्या हमनें किसी की खाट के नीचे आग बाल (जला) दी थी जो दिल्ली आकर भी वे (जीजा जी) हमसे मिलने नहीं आते | और तो और खुद कार्ड देने भी नहीं आए |
यह तो मुझे नहीं पता कि किसने किस की खाट नीचे आग जला रखी है परंतु इतना अवशय जानता हूँ कि शादी का कार्ड देने खुद मनीष आया था | और शायद आप सभी के यहाँ भी वही खुद कार्ड देकर गया होगा |”
ज्ञान चन्द :-वह तो कार्ड दे गया परंतु जीजा जी खुद तो नहीं आए ?
शिव चरण :- यही तो मेरा कहने का मतलब था कि वे क्यों नहीं आ सकते थे ?
चरण सिंह सभी भाईयों को सम्बोधित करते हुए, वैसे मुझे कहना तो नहीं चाहिये क्योंकि फिर आप सब यही कहोगे कि मैं बहन जी का फेवर कर रहा हूँ परंतु जब बात उठी है तो कहना भी पडेगा | अच्छा एक बात बताओ | आप सभी ने अपने अपने बच्चों की शादी कर ली है | क्या कभी आप में से एक बार भी कोई खुद कार्ड देने अपनी गरीब बहन के पास शामली गया है ?
असली प्रश्न का मुद्दा छोडकर सभी भाई एक साथ, तेरे गरीब बहन कहने का क्या मतलब है ?
चरण सिंह ने अपने भाईयों के उपर खोजी नजर डालते हुए कहा, “आप सब का दिल अच्छी तरह समझता हैं कि मैने ऐसा क्यों कहा है | और हाँ हो सकता है वह भात नौतने भी इसीलिये न आई हो क्योंकि उसे भी आभाष है कि उसके भाई उसके बारे में क्या सोचते हैं | परंतु मेरे विचार से वह गरीब नहीं है क्योंकि उसका मन गरीब नहीं है | गरीब आप सब लोग हो क्योंकि आप लोगों का मन गरीब है | आप अपने आप को किस लिये धन्ना सेठ समझते हो ? क्या कभी किसी ने तुम्हारे सामने सहायता के लिये हाथ फैलाया है | शायद यही सोचकर कि उसका भात नौतना उसके भाईयों को उसका हाथ फैलाना ही लगेगा वह नहीं आई होगी |”
चरण सिंह की बात सुनकर जैसे तीनों भाईयों को साँप सूंघ गया हो | किसी को भी जवाब देते न बन पडा | जवाब देते भी कैसे जो चरण सिंह ने बातें कही थी वे बिलकुल सही थी |
कहते हैं एक खून को परास्त होते देख उसका अपना दूसरा खून जोश मारता है | वही हुआ | स्शिव चरण का लड़का राकेश अपने पिता जी की चुप्पी सहन न कर सका | वह बौखलाया हुआ एकदम आपे से बाहर होकर बोल उठा, "सभी बुआ तो चाहती हैं कि उनका तो कुछ लगे नहीं और हम उन्हें सब कुछ देकर हरिद्वार चले जाएँ |”   
चरण सिंह जिसे राकेश की बात बहुत अखरी, उसकी तरह आपे से बाहर होते हुए, अरे तू अपनी बहन को तो चवन्नी दे नहीं सकता तू अपनी बुआओं को क्या देगा ? नहीं तो बता ,आज तक तूने, अपनी बुआओं की बात छोड़, अपनी बहनों को क्या दिया है ?”
राकेश पहले की तरह वैसे ही तैश में आंखे तरेर कर, ना हम तो किसी को कुछ देते ही नहीं |”
चरण सिंह जो राकेश की आंखे सहन न कर सका, खड़े होकर, अबे ये अंडे जैसी आंखे उनको दिखाना जिन्हें इनको सहन करने की आदत पड़ चुकी है | मेरे सामने ऐसा किया तो आंखे निकालकर हाथ में दे दूंगा | कहीं अपने को गामा समझता हो |”
इसके बाद चरण सिंह के तीनों भाई तथा उसकी बड़ी भाभी एकदम चरण सिंह के चारों और खड़े होकर कहने लगे कि, गाली नहीं, गाली नहीं | चरण सिंह का तमतमाया चेहरा देखकर किसी अनहोनी घटना को टालने के लिये राकेश को चरण सिंह के सामने से हटा दिया गया | शायद चरण सिंह ने अनजाने में किसी गाली का प्रयोग कर दिया था | चरण सिंह का रक्त चाप बढ़ गया था अतः उसने रक्त चाप की दो गोलियाँ ली तथा जब राहत महसूस हूई तो अपना निर्णय सुनाते हुए बोला, "खैर जो हुआ सो हुआ | मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मैं तो बबली की शादी में अवशय जाऊंगा तथा कन्यादान भी अवशय दूंगा | आगे आप अपनी जानो |”
(कहना न होगा समय पर चरण सिंह अपनी भानजी की शादी में गया और उसके भाईयों ने भी उसका अनुशरण किया था)
इसके लगभग एक साल बाद चरण सिंह के बड़े लड़के की शादी तय हो गई थी | चरण सिंह एवं उनके बड़े भाई औम प्रकाश में कुछ मन मुटाव चल रहा था | चरण सिंह को यह कभी समझ नहीं आया कि आखिर उसके भाई  की नाराजगी का कारण क्या था | शायद चरण सिंह की अप्रत्याशित उन्नति ने औम के मन में ईर्षा का बीज बो दिया था, जो भगवान की अनुकम्पा से उसे मिली थी परन्तु वे पचा नहीं पा रहे थे |


इतना होने पर भी, छोटा भाई होने के नाते चरण सिंह अपने बड़े भाई को हर पल की खबर देता रहता था फिर भी औम प्रकाश के व्यवहार से हमेशा उनके रूखेपन का आभास हो जाता था |
चरण सिंह के लड़के के चाक पूजन का समय भी आ गया | सभी मेहमान एकत्रित थे | परंतु अपने भाई औम  प्रकाश के परिवार का उपस्थित न होना चरण सिंह को चैन नहीं लेने दे रहा था | खुशी के माहौल में उसका मन दूखित था | अतः एक दो मेहमानों के साथ वह अपने भाई के घर उनको बुला लाने के लिये गया | घर के अन्दर उसने देखा कि उसकी बड़ी भाभी तथा उनका लड़का राकेश उनके भाई के अगल बगल बैठे थे | चरण सिंह सीधे स्वभाव वहाँ गया था तथा उसे किसी प्रकार का कोई अन्देशा नहीं था
नमस्ते भाई साहब |”
नमस्ते | कह कैसे आया ?”
भाई साहब चलो, चाक पूजने की तैयारी हो गई है |”
औम प्रकाश जो शायद ईर्षा से भरा बैठा था, तू मुझे बुलाना ही नहीं चाहता |”
चरण सिंह आश्चर्य परंतु बड़े ही निर्मल स्वर में बोला, “भाई साहब यह आप क्या कह रहे हो | मैं तो हर बात से आपको सूचित करता आ रहा हूँ |”
औम थोडा गुस्से में, यह सब दिखावा है | असल में तू मेरे परिवार को बुलाना ही नहीं चाहता |” और अचानक जैसे वे आपे से बाहर हो गये, तू कुत्ता है | कुत्ते मैं तूझे जानता हूँ | तू घुन्ना है | कुत्ते तू अपने को क्या समझता है | कुत्ते तेरे पास थोडा सा पैसा क्या आ गया तू अपने को धन्ना सेठ समझने लगा | तू माँ का सारा पैसा हड़प गया कुत्ते | तेरे जैसे कुत्तों को मैने बहुत देखा है | कुत्ते तुझे तो मैं ही ठीक करूंगा, कुत्ते |”
जब औम प्रकाश, चरण सिंह के प्रति कुत्ते कमीने जैसे श्ब्दों की बौछार लगा रहा था तो उसकी अगल-बगल में बैठे उसकी भाभी तथा भतीजे राकेश के चेहरों पर मुस्कान बिलकुल साफ नजर आ रही थी |  औम प्रकाश ने उनके सामने ही चरण सिंह को सैकडों बार कुत्ता कमीने की उपाधि दी परंतु उन दोनों में से एक बार भी किसी ने भी, झूठे से भी, औम प्रकाश को ऐसा कहने से रोका नहीं | इसके विपरित जब बबली के भात को लेकर, चरण सिंह के मुहँ से अनजाने में राकेश के लिये, जिसका चरण सिंह को ज्ञात भी नहीं था कि वह क्या थी, एक गाली निकल गई थी तो सभी एक साथ भड़क उठे थे |
सोच विचार के बाद चरण सिंह को यह बात तो साफ पता चल गई कि उसकी भाभी ने चरण सिंह  को अपने लड़के को दी गई एक गाली के बदले उसे सैकडों गालियाँ दिलवा दी थी | हालाँकि राकेश को अपने मम्मी पापा एक आंख न भाते थे तथा हमेशा उनके बीच कहा सुनी होती रहती थी | छोटी छोटी बातों पर वह उनको आंखे दिखाता रहता था | फिर भी अपना खून तो अपना ही खून होता है | परंतु चरण सिंह की समझ में यह नहीं आया कि उसके भाई औम प्रकाश ने, जिसका खून उसके खून से मिलता था, बीच में भांड का रोल किस लिये अदा किया | शायद चरण सिंह की समानता वाला खून ईर्षा के कारण जल-भुन कर खत्म हो चुका था  |   
अपनी माँ सी भाभी एवं भाई के व्यवहार को महसूस करते करते चरण सिंह का मन ग्लानि से भर गया तथा उसकी यह ग्लानि उसकी आंखो के रास्ते अश्रुओं के रास्ते बाहर  निकलने को बेताब हो गई | इसके साथ ही चरण सिंह को एक बुजूर्ग के 30 साल पहले कुत्तों के बारे में कहे शब्द अपने कानों में गूंजने का आभास हुआ, “कुत्तों की जाती सा आभाष कहीं-कहीं अपनी जात में भी होता है .........मैं उन लोगों को कुत्तों की जात में ही शामिल करता हूँ तथा ऐसे लोगों से घृणा करता हूँ | मैं उनसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहता |”
अचानक चरण सिंह को अपने कंधे पर किसी के हाथ का स्पर्श मह्सूस होने से उसकी तंद्रा टूटी | उसने अपने चारों और देखा | सभी मौन खड़े थे | चरण सिंह ने बाहर आने को अपने कदम बढाए ही थे कि उसके सामने उसके जीजा जी कृष्ण कुमार जी आ गये | उनको देखते ही चरण सिंह के दिमाग ने पलटा खाया तथा उसे उनके (कृष्ण कुमार जी के) पिता जी द्वारा कही बहुत पुरानी एक कहावत याद आ गई कि चलना सड़क का चाहे फेर क्यों न हो और बैठना भाईयों का चाहे बैर क्यों न हो’| हालाँकि चरण सिंह का मन अपने भाई के मुख से अपशब्द सुनकर ग्लानि से भरा था फिर भी इस कहावत के याद आते ही वह पलट कर एक बार फिर कोशिश करने लगा कि उसके भाई का परिवार उसकी खुशी में शामिल होना ही चाहिए |
अपने भाई के परिवार के, उसके टेहले में, सम्मिलित होने से चरण सिंह की खुशी का पारावार न रहा | सब कार्य खुशी-खुशी सम्पन्न हो गए | परंतु अब भी चरण सिंह जब अकेला बैठता है तो उसे अपने भाई के कहे "कुत्ते" शब्द की गूंज अपने कानों में सुनाई देने लगती है | तथा मन में एक टीस सी भर देती है | उसे ऐसा महसूस होने लगता है जैसे सैकडों बार कहे उनके कुत्ते शब्द ने उसे हर बार काटा था | और वह काटना उसके शरीर पर तथा मन पर कई गहरे घाव छोड़ गया है जो अभी तक हरे हैं |
ये घाव अपने हैं क्योंकि इनको अपनों ने दिया है | इनसे खून नहीं बहता परन्तु रह रहकर टीस उठती है जैसे इनमें मवाद भर गई हो | शब्दों की चोट सीधे दिल पर लगती है और जिंदगी भर के लिए नासूर बन जाती है क्योंकि शब्दों की मार तलवार से भी अधिक धारदार होती है |
कई बार तन्हाई में बैठने पर चरण सिंह की आँख से निकले आँसू भी अभी तक उसके दिमाग में लगी उस छाप को धो नहीं पाए हैं | चरण सिंह को अब ऐसा लगता है कि जैसे उसके भाई द्वारा ईर्षावश दी गई उपाधि की यह छाप आजन्म उसके दिलो दिमाग पर छाई रहेगी अतः बन गई है एक अमिट छाप |


Thursday, December 7, 2017

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा -35) संगत और संस्कार का असर



जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा -35) संगत और संस्कार का असर
कोई मनुष्य चाहे कितना भी निष्ठावान, सहनशील, अहिंसावादी, मृदुल भाषी एवं परोपकारी क्यों न हो सांप की तरह प्रवृति रखने वाले उसकी खिलाफत तथा ईर्षा करने वाले बहुत मिल जाते हैं |
मनुष्य के जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जब लोग बेवजह ईर्षावश उसे नुकसान पहुंचाना चाहते हैं | उसके खिलाफ साजिस रचकर उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने में नहीं चूकते | एक बार चरण सिंह के  खुशहाल जीवन में भी उसके एक अपने ने उसके खिलाफ ऐसा ही माहौल बना देने का प्रयास किया था |
एक दिन चरण सिंह अपने मकान, जो गुडगाँवा में है, बैठा था कि मैडम सुमन का फोन आया | वैसे तो अक्सर मकान के बारे में उनका फोन आता रहता था परन्तु आज उनकी आवाज कुछ घबराई हुई सी महसूस हो रही थी | उनके लंबे सांस लेने की आवाज उसे फोन पर साफ़ सुनाई दे रही थी | उनकी आदत थी कि चरण सिंह की और से हैलो कहते ही वह, भाई साहब नमस्ते कहना कभी नहीं भूलती थी परन्तु आज सीधे ही बोली, भाई साहब एक बुरी खबर है |
चरण सिंह नें पूछा, क्यों क्या हो गया ?
सुमन की घबराहट शायद बढ़ती जा रही थी इसलिए उसकी जबान लड़खड़ा रही थी | चरण सिंह ने प्रशन किया, ऐसा क्या हो गया | क्या हम वहाँ आएं ?
नहीं आपको आने की जरूरत नहीं है |
फिर क्या बात है ?
दरअसल मेरे पुराने मकान मालिक के लड़के लाला राम का फोन आया था |
तो ?
वह कह रहा था कि मौहल्ले की सारी औरतें हमारे यहाँ इकट्ठा हो रही हैं | आप भी आ जाओ |
तो ?
उसने कहा कि आज वे प्रवीण की पिटाई करेंगे |
इस प्रत्याषित बात ने चरण सिंह को अंदर तक झकझोर दिया | उसने उतावलेपन से पूछा, क्यों, उसने ऐसा क्या कर दिया ?
कह रहा था कि आपने कोई किताब लिखी है जिसमें मौहल्ले की औरतों के कई आपत्ति जनक नाम हैं, उसके कारण |
अच्छा ठीक है, कहकर चरण सिंह ने फोन काट दिया तथा अपने लड़के प्रवीण  को फोन मिलाया |
प्रवीण  ने बताया कि तीन चार दिनों से हमारे खिलाफ यहाँ कोई षडयंत्र रचा जा रहा है | कभी सत्य   प्रकाश के यहाँ, कभी लक्ष्मण  के यहाँ तो कभी जय सिहं के यहाँ मौहल्ले की औरतों एवं आदमियों की बैठक हो रही हैं | अधिकतर औरतों ने बहिष्कार सा अपना कर मेरी दुकान पर आना छोड़ दिया है | आप सुबह एक बार यहाँ आ जाना |
सुमन के बताने तथा प्रवीण  के कहने से चरण सिंह ने अंदाजा लगाया कि मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर बन गया लगता है | परन्तु अंदाजा न लगा पाया कि इसका मूल कारण क्या हो सकता है | फिर यही सोच कि अफवाह ईर्षा या बुराई को पनपने से पहले ही दबा दिया जाए तो बेहतर होता है, चरण सिंह शाम को ही प्रवीण के पास जाने के लिए निकल पड़ा |
चरण सिंह गाँव के बाहर ही पहुंचा था कि एक व्यक्ति ने कहा, सेठ जी अंदर ज़रा संभल कर जाना |
क्यों भाई खून के जुर्म में मुझे पुलिस पकने के लिए बैठी है क्या ?
नहीं ऐसी तो बात नहीं है, सेठ जी |
फिर कैसी बात है ?
घर जाकर देख लेना, कहकर वह आगे बढ़ गया और मैंने अपनी राह पकड़ी |
चरण सिंह चार कदम ही चला था कि दूसरे ने कहा, सेठ जी आपके घर के सामने वाली औरत कुछ अनाप सनाप बक रही थी |
मुझे इससे क्या, बोल रही होगी किसी के बारे में”, कहता हुआ चरण सिंह चलता गया |
तीसरे ने बताया, सेठ जी आपका नाम लेकर उलटा सीधा इल्जाम लगा रही थी |
चरण सिंह ने समझाया, देखो इस मौहल्ले में मेरे नाम के और भी तो व्यक्ति रहते हैं | मैं क्यों मानूं कि वह मुझे ही कह रही थी |
आगे चलकर चौथे ने कहा, लाला जी सामने वाली जोर जोर से चिल्ला रही थी कि बनिए के को मैं  बताऊँगी कि दूसरे का नाम कैसे उछालते हैं |
भाई साहब बनियों के तो साथ साथ कई मकान हैं फिर भला मैं कैसे मान लूं कि वह मुझे ही कोस रही है | और बेकार में झगड़ा मोल लूं | यह तो वही बात हुई कि आ बैल मुझे मार |
ऐसी कई आपत्ति जनक बातें सुनता सुनता चरण सिंह अपने घर पहुँच गया | वैसे उसे भनक तो थी कि जैसा लोगों के मुहं से सुन रहा था वैसा ही कुछ हो रहा था परन्तु फिर भी निर्भीकता दिखाते हुए पहले अपने लड़के की ज़ुबानी सारा किस्सा सुनकर आशवस्त होना चाहता था | उसे प्रवीण  ने बताया कि वास्तव में ही ऐसा हो रहा है जैसा चरण सिंह ने रास्ते में लोगों के मुख से सुना था | उसने यह भी बताया कि दो दिनों से वह सामने औरतों का जमघट लगा कर बैठ जाती है तथा मेरे खिलाफ भड़का रही है | उसकी वजह से मौहल्ले की औरतों ने मेरी दुकान से सामान खरीदने का एक प्रकार से बहिष्कार सा कर दिया है |
प्रवीण  से मौहल्ले की पूरी जानकारी लेकर मौहल्ले के आचरण का जायजा लेने के लिए चरण सिंह उसकी  दुकान के बाहर चबूतरे पर खड़ा हो गया | चरण सिंह सोचने लगा कि बनियों और पंडितों के बीच तो हमेशा से ही चोली-दामन जैसा साथ रहा है | पुराने जमाने में पंडितों के घर का खर्चा तो अधिकतर अपने जजमान बनियों की दान दक्षिणा से ही चलता था | परन्तु अब नए परिवेश में पंडित रहे ही कहाँ हैं | बनियों ने तो अपना व्यापार का काम धंधा बदला नहीं तथा न ही अपनी दान दक्षिणा देने की आदत परन्तु आज पंडित बहुत बदल गए हैं | अब उन्होंने धर्म कर्म के काम छोकर नौकरी या फिर और काम अपना लिए हैं | उनके मतानुसार विद्या उपार्जन के बाद अब वे दूसरे के रहमो कर्म पर जीने में विश्वास नहीं रखते |
मौहल्ले में एक विधवा पंडिताईन रहती थी | भगवान ने चरण सिंह के माध्यम से उस पर भी बहुत एहसान किए थे | उसके आदमी के रहते जब उसके परिवार पर फाके की नौबत आ गई थी तो उसने ही उनके घर का खर्चा उठाकर उनको सहारा दिया था | पंडित एक पक्का सरकारी मुलाजिम था | अगर वह सीधे राह चलता तो अपनी पारिवारिक नैया को आराम से खींच ले जाता | वह एक रंगीन मिजाज का व्यक्ति था | उसने अपनी एक अलग टोली बनाकर एक ड्रामैटिक क्लब की नीवं रख दी | इसमें चरण सिंह का भाई औम प्रकाश भी एक मुख्य कार्यकर्ता था |
पंडित की ड्रामेटिक क्लब ने जगहों जगहों पर अपना मंचन शुरू कर दिया | लोगों को रिझाने के लिए बाहर से लकियों का भी इंतजाम किया गया और टिकट भी लगाए गए | परन्तु खर्चों को देखते हुए आमदनी बहुत कम हुई | औम प्रकाश ने तो अपनी जात के कथानुसार अपने कदम फूंक फूंक कर रखे उसी प्रकार पंडित ने, जो अपने को बहुत बड़ा विद्वान समझता है इसी मत को सिर पर चढ़ाकर, सोचा कि वह तो एक बहुत बड़े ड्रामैटिक क्लब का मालिक बन गया है अत: सरकारी नौकरी उसे शोभा नहीं देती | पंडित ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया था |
आर्थिक अभाव के कारण ड्रामैटिक क्लब अधिक दिन टिक न सका | पंडित के साथ भी वही कहावत हुई कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का | अर्थात नौकरी के त्याग पत्र तथा ड्रामैटिक क्लब के बंद हो जाने से धीरे धीरे वह कंगाल हो गया और इसी झटके के कारण वह बीमार होकर चल बसा | यही कारण रहा था कि इंसानियत के नाते चरण सिंह नें बिना किसी लालच के पंडिताईन के छोटे छोटे बच्चों का कुछ दिनों के लिए भरण पोषण किया था | औम प्रकाश ने जो कभी उसकी रोटी काटे का साथी था  इस मामले में न तो अपनी अधिक पूंजी लगाई थी और न ही अपनी नौकरी छोने की बेवकूफी की थी इसलिए अपने सारे नुकसान को झेल गया |    
पंडिताईन के बारे में सोचने के बाद चरण सिंह का ध्यान उसके घर के सामने रहने वाले तंवर परिवार की और गया | इस समय इसका मुखिया सत्य प्रकाश था तथा उसकी पत्नी राज थी | सत्य प्रकाश बहुत ही शरीफ इंसान था | उसकी उंची बोल शायद ही किसी ने कभी सूनी होगी | सत्य   प्रकाश के माता पिता बहुत ही मिलनसार प्रवृति के व्यक्ति थे | इसी वजह से हमारे परिवार के साथ उनके घर जैसे रिश्ते बनें हुए थे | मौहल्ले में सत्य   प्रकाश की माँ दादी के खिताब से जानी जाती थी | हांलाकि दादी की पुत्र वधु देखने में अच्छी खासी सुन्दर, व्यवहार कुशल, नरम दिल एवं आदर सत्कार करने में निपुण थी परन्तु थोड़ा उकसाने पर उसका मिजाज गर्म हो जाता था और‌ इस स्थिति में  वह बिना वास्तविक कारण जाने किसी से भी उलझने को तैयार हो जाती थी | इसी बहाव में वह आस पडौस के सभी परिवारों के उस पर किए गुण एहसान भूलकर एक ही डंडे से हांकना शुरू कर देती थी | सारे मौहल्ले की औरतें, भेड़ों के झुण्ड में अपनी मुखिया भे की तरह, उसका अनुशरण करने लगती थी |
चरण सिंह भी सत्य   प्रकाश की तरह शांत स्वभाव का व्यक्ति था | अधिकतर अपने काम से काम रखता था  | मौहल्ले में किसी की किसी प्रकार की किसी से कोई नुक्ताचीनी नहीं करता था | परन्तु मौक़ा मिलने पर दूसरों के दुःख दर्द में उनकी भरपूर सहायता करने से पीछे नहीं हटता | इसके साथ ‘नेकी कर कुँए में डाल’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए की हुई नेकी का गुणगान भी नहीं करता | इसका यह कतई मतलब नहीं कि चरण सिंह डरपोक, दब्बू, या किसी के दबेल में रहकर अपना जीवन निर्वाह करता था | इससे पहले कि पानी सिर से ऊपर जाने लगे चरण सिंह उसका इंतजाम भी कर देने की क्षमता रखता था |
पता चला कि पंडित नौनन्द की कुछ पुत्र वधूवें भी चरण सिंह के खिलाफ आवाज उठा रही थी | उसकी  समझ नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है ? सभी, पंडित, रये, कुम्हार, खाती, अपने भाई बंधू, यहाँ तक की उनके किराएदारों की औरतों का एक साथ उसके खिलाफ इस अभियान को छेने की जड़ से चरण सिंह अनजान था |
चरण सिंह अपनी दुकान के चबूतरे पर लगभग आधा घंटा खड़ा रहा | परन्तु इस दौरान न तो उसके  खिलाफ किसी की जुबान खुली तथा न ही कोई सामने आया | वैसे उसने भांप लिया था कि कोई अपने मकान की खिडकी से तो कोई दूर से टेढी एवं चोर निगाहों से मुझे खड़ा देख रहा था | जब थोड़ा सा अन्धेरा घिर आया तथा उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठी तो उसनें खुद ही सारे मामले की तहकीकात करने का मन बना लिया |
चरण सिंह नें अपने लड़के प्रवीण  को सत्य   प्रकाश के घर से राज को, जो दो दिनों से सुबह से शाम तक अपने दरवाजे पर मौहल्ले की औरतों का जमघट लगाकर उसके खिलाफ अनाप सनाप बोलते न थकी थी, बुलाने के लिए भेजा | प्रवीण  ने आकर बताया कि वह रात के नौ बजे के बाद, जब उसका पति सत्य   प्रकाश नौकरी से वापिस आ जाएगा तो उसके साथ आएगी |  
चरण सिंह नें रात के दस बजे तक उनके आने का इंतज़ार किया और जब वे नहीं आए तो चरण सिंह खुद ही उनके घर चला गया | अपनी आशाओं के अनुकूल, दादी एवं मौहल्ले की मान मर्यादा रखते हुए, राज ने उसे  पूर्ण सम्मान दिया | चरण सिंह को सोफे पर बैठाकर जब वह उसके चरण छूने को झुकी तो, दूसरों के मुख से सुनकर अपने मन में उसके प्रति चरण सिंह के मन में जो गलत विचार उत्पन्न हो गए थे उनसे उसे  अपने पर बहुत ग्लानी महसूस हुई | राज के इस कृत्य ने जाहिर कर दिया था कि उसके मन में चरण सिंह के प्रति अभी तक कोई दुर्भावना नहीं है तथा वह पूरा किस्सा जानकर ही आगे कुछ कदम उठाना चाहती है | राज ने घूंघट के पीछे से प्रशन किया, जेठ जी आपने यह कैसे लिख दिया ?
मैनें, मैनें क्या लिख दिया ?, मैनें उल्टा प्रशन किया |
आपने अपनी कहानी में मेरा नाम लिख दिया |
आपका नाम तो राज कुवंर है ?
नहीं अब राज रानी कहते हैं |
मैनें अगला प्रशन किया,  “आप किसकी पत्नी हैं ?
सत्य   प्रकाश की |
जो मैनें कहानी लिखी है उसमें आपके पति का नाम क्या लिखा है ?
पता नहीं |
तो आपने यह कैसे मान लिया कि मेरी कहानी में आपका ही नाम है ?
परन्तु राज रानी तो मेरा ही नाम है |  
क्यों क्या इस संसार में राज रानी कोई और नहीं हो सकती ?
राज सकपका कर, हो सकती हैं |
अच्छा यह बताओ, क्या आप सत्य   प्रकाश की बजाय धर्म प्रकाश की पत्नी कहलाना पसंद करोगी ?
राज थोड़ा विचलित हुई और पूछा, आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ?
उसके यह प्रशन करने से ही चरण सिंह समझ गया था कि उसने पूरी कहानी नहीं पढ़ी है और केवल अपने नाम के चक्कर में  दूसरे के बहकावे में आकर बिना कुछ दरियाफ्त किए उसने मेरे खिलाफ झंडा बुलंद करने का मन बना लिया था | राज के प्रशन के उत्तर में चरण सिंह नें उसे बताया, क्योंकि मेरी लिखी कहानी में राज रानी का पति धर्म प्रकाश संबोधित किया गया है |
चरण सिंह की सुनकर अचानक राज एवं उसके पति सत्य   प्रकाश के मुख से निकला, क्या ! इसका मतलब हमें तो बहकाया गया है |       
इतने में राज की जेठानी बोली, तो फिर आपकी कहानी में मेरा नाम अंगूरी कहाँ से आ गया ?
जब चरण सिंह नें उसे बताया कि मेरी बहन का नाम भी अंगूरी है तो वह चुपचाप एक तरफ होकर ऐसे बैठ गई जैसे उसके ऊपर सैकड़ों घड़े पानी पड़ गया हो | आखिर में चरण सिंह नें उन्हें समझाया, आप इतने समझदार होते हुए भी जाने क्यों नाम के चक्कर में फंस गए | इतना हो हल्ला मचाने से पहले मेरे से एक बार पूछ तो लिया होता कि यह सब क्या है | और फिर इस दुनिया में जाने इस नाम के कितने ही व्यक्ति होंगे | आपका नाम कोइ रजिस्टर्ड तो है नहीं फिर आपने यह कैसे मान लिया कि मैनें आपके बारे में ही लिखा है | इसको महज एक  कहानी के रूप  में पढो तब आपको पता चलेगा कि मेरा मकसद क्या है |"
सभी एक साथ बोले, "हमें तो हमारे नाम पर गोला मारकर दिखाया गया था की यह हमारे बारे में लिखा गया है |"
"और आपने आँख बंद करके मान लिया कि ऐसा ही है जबकि लिखा हुआ आपके सामने था |"
"हमसे यही गलती हो गयी | हमें माफ़ कर दो |" उनको मेरी बात समझ गयी थी तभी तो उनके चेहरों पर संतुष्टी झलकने लगी थी
जब से मेरे पिता जी का स्वर्गवास हुआ था तभी से कनागदों में चरण सिंह अपने खानदानी पंडित को ही खाने पर निमंत्र्ण देता है | वे भी उसके अलावा किसी और के यहाँ खाने पर नहीं जाते  | अत: वे उसके लिए पूजनीय हैं | चरण सिंह को समाचार मिला था कि उनकी मंझली बहू भी उसकी कहानी में छपे नाम 'ताई सरती'  को लेकर कुछ खफा थी | इसलिए उनकी नाराजगी जानने के लिए चरण सिंह उनके घर गया | उसने उन्हें बताया  कि वह सरस्वती की जगह सरती  छप जाने के कारण है | दूसरे राज और सरती ने तो एक दूसरे को देखा भी नहीं है क्योंकि सरती तो राज के यहाँ आने से पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थी  फिर आप ने कैसे मान लिया कि यह वही ताई सरती है |  वैसे  पंडित की बहु द्वारा उसकी कहानी को उपन्यास संबोधित करने से ही उसने अंदाजा लगा लिया था कि वे साहित्य के बारे में कितना जानती हैं | अब  इतना तो निशचित हो गया था कि किसी ने मौहल्ले वालों को उसके खिलाफ बरगलाया है और वे सभी बहकावे में आकर ईर्षा करने लगे हैं
पंडित जी के घर से वापिस आते हुए रास्ते में विधवा पंडीताईन से टकराव हो गया | चरण सिंह को देखते ही उसने हाथ जोड़कर कहा, "चाचा नमस्ते |"
नमस्ते का जवाब देकर चरण सिंह नें उससे पूछा, "सुना है आप मेरे खिलाफ कुछ बोल रही थी ?"
वह छूटते ही बोली, "ना चाचा भगवान जानता है मैंने तो कुछ नहीं कहा |"
"परन्तु मैंने सुना है कि आप कह रही थी कि मेरे खिलाफ ढोल बजवाओगी और उन्हें पैसे भी आप चुकता करोगी |"
वह इस बात से साफ़ मुकर गयी और बोली, "ना चाचा मैं भला ऐसा क्यों करूंगी | आपके तो हम पर बहुत एहसान हैं |'
चरण सिंह को अपने मुहं से पंडिताईन को याद दिलाने की जरूरत नहीं पडी | जबकि उसने कबूल ही लिया था तो चरण सिंह ने भी आगे कुछ कहना उचित समझ अपने घर की राह पकड़ी |    
नाई जात को तो सदा से ही माना गया है कि वे रिश्तों में दरार डालने में बहुत माहिर होते है | अपने फायदे के लिए वे एक के खिलाफ दूसरे के कान भरने से कभी चूकते नहीं |  एक नाईन लक्ष्मण  के यहाँ काम करती थी | पता चला था कि मेरे खिलाफ भड़की ज्वाला में वह भी आग में घी का काम कर रही थी | चरण सिंह नें अपने भतीजे राकेश के साथ उसके घर जाकर जब पूछा तो वह भी पंडिताईन की तरह मुकर गयी | चरण सिंह ने भी आगे अपनी कोई प्रतिक्रिया दिखाई और वापिस घर चल दिया
एक दिन चौराहे से ही दिखाई दिया कि चरण सिंह के घर के सामने काफी भीड़ इकट्ठी थी | उसके वहां पहुंचते ही सामने वाली राज बोली, "जेठ जी मैं कह रही हूँ कि मेरा इस किस्से से कोई लेना देना नहीं है फिर भी जाने क्यों मौहल्ले वाले मुझे भड़काकर आपके खिलाफ ड़ा करना चाहते हैं |"
चरण सिंह के एक बार कहने से ही, "आप आराम से जाकर अपने घर बैठो", और वह अपने बच्चों को लेकर घर के अन्दर चली गयी
इसी प्रकार पंडित जी का परिवार भी अपने घर की तरफ मुड़ गया | उन्हें चुपचाप जाता देख तथा अपने मन की मुराद पूरी होते जान लक्ष्मण  अचानक भड़क उठा | वह आगे बढकर चरण सिंह के सामने ड़ा हो गया और गुर्राकर बोला, "तो तू बता ये दीपिका कौन है ?"
चरण सिंह नें संयम बरता और जवाब दिया, "मैं तूझे बताना जरूरी नहीं समझता |"
चरण सिंह नें देखा लक्ष्मण  की सारी मांशपेशियां तनी हुई थी | एक झटके से अपनी उंगली का इशारा मेरी और करके वह चिल्लाया, "तू बताएगा भी कैसे | मैं जानता हूँ कि तूने किसके बारे में लिखा है |"
चरण सिंह ने अबकी बार भी शांत स्वभाव कहा, "जब तू जानता ही है तो मेरे से पूछता ही क्यों है ?"
एक भतीजा राकेश जो दूसरे भतीजे लक्ष्मण  का चाचा के प्रति सभी के सामने नीचता का व्यवहार देखकर चुप रह सका और आँखे तरेर कर बोला , "अरे लक्ष्मण  कुछ तो शर्म कर |"
राकेश का इतना ही कहना था कि जय सिहं लक्ष्मण  के सामने आकर ऐसे ड़ा हो गया जैसे उस पर वार होने से  वह ढाल बनकर लक्ष्मण  को बचा लेगा | परन्तु उसके इस कृत्य से यह उजागर हो गया था कि फिसाद की जड़ कौन है और उसे कौन सींचकर ईर्षा फैला रहा है | इतने में, बनिए परिवार की सारी शर्म हया उतार कर, दीपिका, लक्ष्मण  की पत्नी  गली में आई और चरण सिंह की तरफ इशारा करके अपने पति के स्वर में ईर्षावश जोर से बोली, "शर्म काहे की | इन्होंने ही तो हमें पिटवाया था |”    
मेरा मानना है कि दीपिका अपने सास-ससुर की संगत में रहकर हमारी बुराईयाँ सुनकर भर चुकी थी तथा अब भारतीय संस्कृति के अनुसार अपने पति, जो पला बढ़ा ही ईर्षालू वातावरण में था, का साथ देना उसकी मजबूरी थी |