Friday, February 16, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-43) सदभावना

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-43) सदभावना
स्कूल की छुट्टियाँ होते ही बच्चे अपने मामा जी के घर जाने का प्रोग्राम बनाने लगते हैं | परन्तु जब मैं छोटा था तो अपने मामा जी के यहाँ न जाकर अक्सर अपनी बड़ी बहन जी के यहाँ जाया करता था | इसके कई कारण थे| पहला, मेरे मामा जी का घर दिल्ली से दूर अमृतसर में था | दूसरे, मेरी बहन जी तथा मेरी उम्र में १७ साल का अंतर था इसलिए वे मेरे लिए एक ममता की मूर्ति थी | तीसरे, शादी के दस वर्ष बीत जाने पर भी उन्हें संतान प्राप्ति का सुख नहीं मिल पाया था, उनकी गोद खाली थी | चौथे, दिल्ली के प्रदूषण भरे माहौल से दूर शामली के हरियाले लहलाते खेत, खुली हवा, नहरों में बहता ठंडा जल, आम के बगीचों में गूंजती कोयल, मैना तथा तोतों की आवाज, खुले वात्तावरण में नाचते मोर मन को प्रसन्नचित्त कर देते थे |
मेरे जीजा जी शामली के मेंन चौराहे पर एक जनरल स्टोर के मालिक थे | उनकी दुकान के सामने काफी जगह खाली थी जहां मुस्लिम समाज के चार युवक फड़ लगाकर, सामान बेचकर, अपने परिवार का भरण पोषण करते   थे | वही युवक मेरी बहन जी के घर का ऊपरी काम भी कर दिया करते थे | वे मुझे भी अपना मेहमान समझकर बहुत खातिरदारी किया करते थे | वे बहन जी के परिवार से ऐसे घुलेमिले रहते थे जैसे वे अलग न होकर उसी परिवार का हिस्सा थे | मेरे जीजा जी और बहन जी धर्मपरायण तथा सभी के लिए सदभावना रखने वाले व्यक्ति थे अत: आपस में उनका कोई धार्मिक भेदभाव दिखाई नहीं देता था |
मुस्लिम त्यौहारों पर मेरी बहन जी उन मुस्लिम व्यक्तियों के लिए सेवईयां बनाना नहीं भूलती थी | शायद उन मुस्लिम लोंगों की दुआओं का ही असर रहा होगा कि भगवान की कृपा से समय के साथ मेरी माँ सरीखी बहन की गृहस्थी बढ़नी शुरू हो गई | उनके चार बच्चे एक लड़का तथा तीन लडकियां हुई | चारों बच्चो के लालन पालन में उन मुस्लिम परिवार का बहुत बड़ा योग दान रहा तथा वे उनकी गोद में ही पल बढ़ कर बड़े हुए |
बड़ा होकर मैनें भी दिल्ली की तंग गलियों से निकलकर गुडगांवा के स्वच्छ वातावरण में अपने दो लड़कों की सोचकर एक दुमंजिला मकान बना लिया था | परन्तु परिस्थिति वश बड़ा लड़का दिल्ली में ही रहने लगा इसलिए मैनें मकान की पहली मंजिल किराए पर उठाने की मंशा बना ली | जल्दी ही एक अरूण शर्मा, अपने एक साथी के लिए, जो स्टेट बैंक ऑफ मैसूर में आने वाला था, के लिए मकान देख गया | अचानक मुझे किसी काम से अपनी पत्नी के साथ देहली जाना पड़ गया और हम अपने बड़े लड़के के पास ही ठहर गए | इस दौरान मेरे छोटे लड़के पवन ने फोन पर बताया, नए  किराएदार किराए की अग्रिम राशी देने आए हैं |
मैनें कहा, ले लो | और फोन काट दिया |
यह सुनकर मेरी पत्नी का कौतुहल जगा कि किराएदार कौन है तो मैंने फिर फोन पर पूछा, किराएदार का नाम क्या है?
जवाब मिला, कोई साहीन है|
साहीन! साहीन तो कुछ मुस्लिम सा नाम लगता है ? मेरे यह कहने से मेरी पत्नी के कान खड़े हो गए और वे हमारा वार्तालाप बड़े ध्यान से सुनने लगी |
हाँ, मुस्लिम लड़की ही है |  
यह जानकर हिन्दू रीतिरिवाजों के अनुसार पूजा पाठ करके पली बढी मेरी पत्नी विचलित होकर बोली, नहीं, नहीं हम किसी मुस्लिम को अपने घर में नहीं रखेंगे | उससे कह दो उसके पैसे वापस कर दे |
फिर से पवन को फोन मिलाने पर पता चला कि वह एडवांस देकर चली गई थी | इस पर मैं दुविधा में पड़ गया | क्योंकि मेरे संस्कार कहते थे कि जिसके लिए जबान दे दी हो उसे निभाना चाहिए और पत्नी के संस्कार कहते थे कि किराए के लालच की खातिर एक मुस्लिम परिवार को अपने घर में रखकर वे भ्रष्ट नहीं हो सकती |
मैंने पत्नी को समझाते हुए उन्हें याद दिलाया, देखो, हम शामली गए थे न ?
हाँ गए थे |
वहाँ बहन जी के घर का सारा काम कौन लोग कर रहे थे ?
पत्नी ने अपना तर्क दिया, वे काम ही तो कर रहे थे, घर में बस तो नहीं गए थे |
हम भी उन्हें अपने साथ थोड़े ही रख रहे हैं, वे तो ऊपर रहेंगे |”
पत्नी ने अपनी चिंता जताई, मौहल्ले पडौस वाले क्या कहेंगे ?
मैनें मौहल्ले पडौस वालों के कारनामें बताने के लिहाज से कहा, उनकी चिंता की क्या बात करती हो | वे तो पैसों कि खातिर अपने बच्चों को सारे दिन के लिए निम्न वर्ग के लोगों के सहारे छोड़कर चले जाते हैं | क्या एक मुस्लिम को किराएदार रखना इससे बदतर है क्या ?
पत्नी अपनी असमंजस्ता जाहिर करते हुए, मुझे तो कुछ जँच नहीं रहा फिर भी आपके हामी भरने का ख्याल रखकर इतना जरूर चाहूंगी कि वे घर में कुछ गंदा न पकाएं |
मेरे आशवासन दिलाने पर कि मैं सुनिश्चित करूँगा कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे मेरी पत्नी मान तो गई परन्तु साथ में कहा, मैं उनसे कोई संपर्क नहीं रखूँगी |
जिस दिन हम देहली से वापिस आए उसी दिन साहीन भी अपनी माँ तथा भाई के साथ सारा सामन लेकर आ गई | गर्मी का मौसम, मुजफ्फर नगर से गुडगाँवा का लम्बा रास्ता, वे प्यास से व्याकुल दिख रहे थे | अपनी खिड़की से उनका चमचमाता चेहरा देखकर मेरी पत्नी से बर्दास्त न हुआ | उन्होंने फ्रिज से एक ठन्डे पानी की बोतल मुझे थमाते हुए कहा, ऊपर दे आओ |
मैनें अपने चेहरे पर मुस्कान लाकर उनकी दूसरों के प्रति सम्मान रखने की भावना तथा मिलनसार प्रवृति को ध्यान में रखकर कहा, अतिथी देवो: भव: ?
मेरी पत्नी मुस्करा दी और मैं पानी की बोतल लेकर ऊपर चढ गया | मेरे हाथ में पानी की बोतल देखकर आने वालों के चेहरे पर मिश्रित भाव देखने को मिले | उन्होंने एक बार आपस में एक दूसरे को देखा, आखों ही आँखों में बात हुई और उनके साथ आए बुजुर्ग ने पानी की बोतल के लिए हाथ बढ़ा दिया | बातों ही बातों में पता चला कि शाहीन के पिता जी गूजर चुके थे | उसका एक ही भाई है जो साथ रहता है | साहीन ने अपने दम पर यह मुकाम हासिल किया है | उनका परिवार मांस-मच्छी इत्यादि का सेवन नहीं करता | उनका पहनावा तथा रहने का अंदाज भी वर्त्तमान युग के पढ़े लिखे लोगों की तरह है जिससे मुस्लिम समाज की छाप नजर नहीं आती |
ये बातें, खासकर साहीन के सिर पर पिता का साया न होना, मेरी पत्नी के मन में उसके प्रति संवेदना भर गई | उनकी धारणा में बहुत बड़ा बदलाव आया और उन्होंने उस परिवार की हर संभव सहायता करनी शुरू कर दी | थोड़े दिनों के अंतराल में ही मेरी पत्नी के मन में बसा मजहब और धर्म का भेदभाव मिटता नजर आया | उनके व्यवहार से ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे वे संदेशा दे रही हो कि भगवान, ईशवर, अल्लाह, परमात्मा आदि सब एक हैं तो फिर इंसान मिलजुल कर, एक होकर क्यों नहीं रह सकते | धर्म चाहे कोई हो मनुष्य के मन में एक दूसरे के प्रति इंसानियत और सदभावना हमेशा कायम रहनी चाहिए |             
चरण सिहँ गुप्ता
डब्लू.जैड.-653, नारायणा गाँव
नई देहली-110028
फोन:9313984463
Email: csgupta1946@gmail.com


   

Sunday, February 11, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-42)जब यम हार गया

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-42)जब यम हार गया
दुनिया में ऐसे कई किस्से हैं जब यम को हार माननी पड़ी और मजबूरन किसी की जान बख्स कर उसे बैरंग वापिस लौटना पड़ा | इनमें सती सावित्री, सती अनुसुईया इत्यादि की कहानियां तो आप सभी ने पढ़ी होंगी | मेरे साथ भी एक ऐसी ही घटना घटी जब लगभग यम हमारे साथ साथ तीन घंटे तक चला और उसे खाली हाथ वापिस लौटना पड़ा |
मैं अपनी पत्नी के साथ अपने ससुर की तेरहवीं पर ग्वालियर गया था | अपने घर से हम दोनों स्कूटर पर निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुँच गए | हमारा ऐसा करने का कारण था कि हमें उसी दिन वापिस लौटना था और ग्वालियर से वापिस निजामुद्दीन पहुँचने में देरी हो जाएगी अत: अपनी सवारी होगी तो हम रात को अपने घर आराम से पहुँच जाएंगे |
वापिस आने के लिए दोपहर दो बजे के लगभग जब हम ग्वालियर स्टेशन पर आए तो वहाँ लोगों का जनसमूह देखकर हैरत में पड़ गए | सोचा शायद प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति आ रहा होगा परन्तु कोई सुरक्षा व्यवस्था का इंतजाम न देखकर विचार बदला कि हो सकता है ग्वालियर के महाराजा माधव राव सिंधिया पधार रहे होंगे | और वहाँ की जनता उनके दर्शानार्थात एवम स्वागर्थात इकट्ठा हो गई होगी | किसी तरह धक्का मुक्की सहते हम प्लेट फ़ार्म पर पहुंचे तो पता चला कि झांसी और ग्वालियर के बीच दो रेलगाडियां आपस में टकरा गई हैं इसलिए रास्ता अवरुद्ध हो जाने के कारण पिछले तीन घंटे से देहली की तरफ जाने वाली कोई गाड़ी नहीं आई है | यह भी पता चला कि अभी रास्ता साफ़ होने में कम से कम तीन घंटे और लगेंगे |
यात्रियों के पास ग्वालियर से देहली जाने के लिए केवल एक ही विकल्प था, ताज एक्सप्रेस जो शाम को पांच बजे गवालियर से छूटती थी | सभी उसी का इंतज़ार कर रहे थे | यही कारण था कि रेलवे स्टेशन यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था | इसी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि दस गाडीयों की सवारी अगर एक में घुसने का यत्न करें तो क्या हाल होगा | खैर एक टांग पर खड़े होकर सफर शुरू हुआ | आगरा के स्टेशन राजा की मंडी को गाड़ी पार करना ही चाहती थी कि अमर्जैन्सी ब्रेक लगाकर गाड़ी घिसटती हुई खड़ी हो गई | गाड़ी के अंदर यात्री एक दूसरे के ऊपर लुढक गए | ऊपर रखे सामान के गिरने से कई मुसाफिरों को चोटें भी आ गई | भारी वर्षा के चलते एक मकान की दीवार गिरने से रेल की पटरी मलबे से भर गई थी | खैर जल्दी ही सफाई हो जाने से सफर फिर शुरू हो गया था |वैसे तो गाड़ी अमूमन १०.३० पर निजामुद्दीन स्टेशन पहुँच जाती है परन्तु उस दिन वह रात के १२.०० बजे पर निजामुद्दीन स्टेशन पहुँची |
बिन मौसम की भारी बरसात के कारण शायद गाड़ी इतनी देरी से पहुँची थी | प्लेटफार्म से बाहर आने पर स्टेशन के बाहर हमने पाया जैसे यमुना नदी ने बाँध तोड़कर अपना बहने का रूख बदल लिया था इसलिए वहाँ से बह रही हो | चारों और घना अंधियारा व्याप्त था | हर जगह की बत्तियाँ गुल होने की वजह से दूर दूर तक कुछ दिखाई नहीं दे रहा था | काले बादलों की गडगडाहट वातावरण को भयावह बना दे रही थी | बीच बीच में जब बादलों के टकराने से आसमान चमक उठता था तो चारों और दूर दूर तक फैला पानी सामने समुद्र सा नजर आ रहा था |
ऐसे मौसम में अपने दुपहिया स्कूटर से नारायणा जाना खतरे से खाली नहीं था | इसलिए मैनें तिपहिया स्कूटर लेना ही उचित समझा | सोचा था कि अपना दुपहिया स्कूटर अगले दिन आकर ले जाऊंगा | हमने लगभग पौना घंटे इसी में बिता दिए कि शायद कोई स्कूटर मिल जाए परन्तु व्यर्थ | स्कूटर क्या किसी टैक्सी के दर्शन भी दुर्लभ हो रहे थे | मजबूरन, बारिश थोड़ी हल्की होती महसूस हुई तो अपने स्कूटर पर ही जाने का मन बनाना पड़ा |
स्टेशन के सामने बह रही जल की नदी को पार करके हमने अपना स्कूटर लिया और निकल पड़े समुन्द्र का मंथन  करने | अभी आश्रम का पुल पार ही किया था कि तूफानी हवा के साथ आसमान से इतना पानी गिरने लगा जैसे कोई बादल फट गया हो | हमारे ऊपर पानी ऐसी मार करने लगा था जैसे कोई आग बुझाने वाले इंजन की धार हमारे ऊपर केंद्रित कर दी गई हो | पलक झपकते ही सड़क पर इतना पानी हो गया कि स्कूटर चलाना दुशवार हो गया | और यह क्या ढर्र ढर्र करके स्कूटर का इंजन बीच सड़क में बंद हो गया |
स्कूटर से उतर कर पता चला कि सडक पर बहते पानी का स्तर घुटने से थोड़ा सा ही नीचे रह गया था | मेरे अकेले धकेलने से स्कूटर टस से मस नहीं हो पा रहा था इसलिए मेरी पत्नी के धक्का लगाने से ही हम उसे किनारे पर ला सके | इस बीच कई गाडियां जो हमारे पास से गुज़री उन्होंने हमें भिगोने में कोई कसर नहीं छोड़ी परन्तु हमें कुछ महसूस नहीं हो रहा था क्योंकि आसमान से ही इतना पानी पड़ रहा था कि उछल कर आता पानी उसके सामने कुछ मायने नहीं रखता था | अगर हलकी बारिश में ऐसा हो जाता तो पास से गुजरने वाली गाड़ी के ड्राईवर को दो चार अपशब्द सुनने को अवश्य मिल जाते |
स्कूटर को स्टार्ट करने की हर कोशिश नाकामयाब साबित हुई | किसी तरह स्कूटर को धक्का मारकर सड़क के किनारे थोड़ी दूर पर लगे एक पेड़ के नीचे तक ले जाने की कोशिश कर ही रहे थे कि धम्म की आवाज आई और स्कूटर मेरे ऊपर गिरते गिरते बचा | शुक्र रहा कि उस गड्ढे में स्कूटर का पहिया ही गया | अगर स्कूटर एक फुट और सड़क की तरफ होता तो मेरा ही पैर उस गड्ढे में जाना था और मैं आश्चर्य जनक स्थितियों में विलुप्त हो जाता | वास्तव में वह महज एक गड्ढा न रहकर गटर का मेनहाल था जिसका ढक्कन नदारद था | इसका मुझे उस समय पता चला जब मैं अगले दिन अपना स्कूटर लेने वहाँ गया |
गहन वर्षा, रात का समय और घुप्प अन्धेरा होने के कारण दो फुट आगे की वस्तु भी दिखाई नहीं दे रही थी | जब हम गड्ढे में से अपना स्कूटर निकालने की कोशिश कर रहे थे तो एक कार ने हमारे स्कूटर को हलकी सी टक्कर मार दी | हम दोनों स्कूटर की बाजू में थे अत हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचा अलबत्ता हमें स्कूटर को गड्ढे से बाहर निकालने में मदद मिल गई | इस बार फिर हम चोट लगने से बच गए थे |
किसी तरह मेहनत करके मैनें अपना स्कूटर पटरी पर चढ़ा कर पेड़ के नीचे खड़ा कर दिया | वर्षा रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी | स्कूटर स्टार्ट नहीं हो रहा था | चारों और गुप्प अन्धेरा था | पेड़ के नीचे खड़े होने से हम किसी को नजर नहीं आ रहे थे | हमने सोचा कि स्कूटर को भगवान के भरोसे पेड़ के नीचे छोड़ हमें किसी तिपहिए का सहारा लेना उचित रहेगा | हम पेड़ के नीचे व्याप्त भयावह कालेपन से बाहर आकर इक्का दूक्के आते जाते  तिपहिए को रूकने के लिए हाथ दिखाने लगे | बहुत देर बाद एक तिपहिए वाले को शायद जो उसी रास्ते जा रहा था जिस तरफ हमें जाना था हम पर दया आ गई | उसने हमें बिठाया तथा स्कूटर को सरपट दौडाने लगा | उसकी जल्दबाजी से ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ठग को उसका शिकार मिल गया था | वह बिना पूछे उसी दिशा में भगा रहा था जिस तरफ मेरी पत्नी ने इशारा किया था |मेरे मन में शंका के बादल तो उमड़ने वाजिब थे क्योंकि हमें वह रास्ता पार करना था जिस पर दिन दहाड़े बसों को भी लूट लिया जाता था | मेरी पत्नी इस बारे में अनभिज्ञ थी | वे निश्चिन्त बैठी थी | मैनें उनकी निश्चिन्तता भंग करना उचित न समझ खुद को किसी भी आपदा से निबटने के लिए चौकन्ना और तैयार कर लिया |
भगवान की दया से रात के दो बजे भी इस सुनसान एवम भयावह रास्ते पर हमारे ऊपर कोई आपदा नहीं आई तथा हम सकुशल अपने गाँव की सीमा में घुस गए | अब मेरी बात समझ में आई कि शायद स्कूटर वाला भी जानता था कि धौला कुआँ से बरार स्कवेयर का रास्ता पार करना खतरे से खाली नहीं होता वह भी रात के दो बजे  इसीलिए वह अपने स्कूटर को पूरी रफ़्तार से दौड़ा कर लाया था |
गाँव के रास्ते कुछ उबड खाबड़ तथा संकीर्ण होने की वजह से स्कूटर की चाल बहुत धीमी हो गई थी | परन्तु ज्यों ही स्कूटर हमारी गली में मुड़ा एक टक की आवाज के साथ स्कूटर का अगला पहिया जमीन में धंस गया | इस झटके से हम दोनों स्कूटर के ड्राईवर की पीठ से टकराते टकराते बचे | नीचे उतर कर देखा तो रूह कांपकर रह गई | स्कूटर के अगले पहिए का इकलौता नट टूट गया था और पहिया लुढक कर दूर जा गिरा था | यह सोचकर पूरा बदन काँप गया कि धौला कुआँ के रास्ते पर, जब हमारा स्कूटर पूरी रफ़्तार से भाग रहा था, अगर उस समय यह नट जवाब दे जाता तो हमारी क्या दशा होती | अगर उस समय ऐसा हो जाता तो इसमें शक नहीं था कि हमारी आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती | 
एक ही रात में तीन तीन बार मौत के मुहं में जाने से बच जाने का ख्याल आते ही हम दोनों के हाथ जुडकर आखों के साथ आसमान की और उठ गए और मुहं से निकला, परवरदिगार वास्तव में ही मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है | साथ ही साथ मेरे मन में ख्याल आया कि शायद मेरा बचाव मेरी धर्म पत्नी के मेरे साथ होने के कारण रहा था | क्योंकि एक बार मेरे साढू स्वर्गीय श्री राजेन्द्र कुमार ने उनका हाथ देखकर उनके बारे में टिप्पणी की थी कि ‘आपकी उम्र बहुत लंबी है, आप मारे नहीं मरोगी’ |         

        

Monday, February 5, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-41) अकेला

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-41) अकेला
प्रकृति अत्यंत सरल है | इसकी सभी क्रियाएँ बड़ी सरलता के साथ होती हैं | सूर्य का उदय होना, तारों का टिमटिमाना, नदियों का निरंतर बहना, हवा का चलना, वृक्षो का फूलना फलना, रात और दिन होना,पर्वत व चट्टानें बनना, प्राणियों में वंश वृद्धि इत्यादि सब कुछ स्वयं ही होता है | 
कहा गया है कि मनुष्य इस संसार में अकेला आता है और अपने जीवन का समय पूरा करने के बाद अकेला ही पाँच तत्वों में विलीन कर दिया जाता है | यह प्रकृति का नियम है कि एक औरत एक आदमी के सहवास से गर्भ धारण करती है और बच्चे को जन्म देती है | नवजात शिशु पहले अपनी माँ से जुडता है फिर अपने पिता से इसके बाद वह अपने भाई बहन तथा घर के अन्य सदस्यों से जुड जाता है | जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है उसकी दूसरों से जुड़ने की परिधी भी बड़ी होती जाती है | ज्यों ज्यों मनुष्य दूसरों की संगत में आता है वह मोह, माया, रिस्ते-नाते, आदर-सत्कार, अपना-पराया वगैरह की पहचान करने लगता है तथा उनके कई गुणों के साथ कुछ विकारों को भी अपना लेता है |
समय के साथ प्रत्येक के जीवन में बदलाव आता रहता है | राजा रंक हो जाते हैं तो रंक राजा बन जाते हैं | इसलिए जीवन में आने वाले बदलाव के लिए हर समय तैयार रहना चाहिए | ऐसी तैयारी से अचानक आए बदलाव अर्थात सुख या दुःख को मनुष्य आसानी से झेल लेता है | इसी आदर्श को अपनाने के कारण, अब हर प्रकार से समर्थ, मुझे कोई बड़ा झटका नहीं लगा जब धीरे से मेरे भतीजों ने एक समारोह में, जिसमें हमें एकता दिखानी चाहिए थी, मुझे अकेला छोड़ दिया |
वैसे भी मैं वर्त्तमान युग के प्रचलन का बहुत बारीकी से अध्ययन करके उसी अनुसार अपने व्यवहार को ढालता आया था | मैंने महसूस किया था कि आजकल के अधिकतर नौजवान दम्पतियों का दायरा अपने परिवार तक ही सीमित रह गया था अर्थात पति, पत्नी और उनके बच्चे | अपने जन्मदाता का भी उनके जीवन में अधिक महत्त्व नहीं रहता है | कुछ किस्सों में तो ऐसा भी हुआ है कि मरणोपरांत हर वर्ष भारतीय संस्कृति के अनुसार पंडित को अपने परिजनों की आत्मा की शान्ति के लिए भोजन कराना भी नागवार है | नौजवान इससे छुटकारा पाने के लिए ‘गया’ जाकर पिंडदान करके हमेशा के लिए अपने पूर्वजों से छुटकारा पा लेते हैं |
हुआ यूं कि श्री भगवान की अनुकम्पा से वह दिन भी आ गया, जिसकी सब ने आस छोड़ दी थी, जब मेरी छोटी बहन अनीता  के लड़के वरुण  का रिस्ता पक्का हो गया | वरुण  की शादी से पहले अनीता  की एक भाभी जी तथा एक जवान भतीज बहू का देहांत हो गया था | हालाँकि इन दोनों के यहाँ मरने वालों की तेरहवीं तथा वर्षी कर दी गई थी फिर भी  उनके यहाँ भात नौतने में वह सकुचा रही थी | मेरे भाई औम प्रकाश के लड़के लक्ष्मण से मेरे  तनाव पूर्ण रिस्ते थे | इसलिए उसके सामने यह समस्या आ गई कि भात कैसे तथा कहाँ नौता जाए |
एक दिन बातों ही बातों में अनीता  ने बताया कि आपसी मनमुटाव को दरकिनार करके लक्ष्मण भात सभी के एक साथ मिलकर भरने की इच्छा रखता है | इसे सुनकर मुझे आश्चर्य के साथ खुशी भी हुई | लक्ष्मण की इच्छापूर्ती के लिए सर्वसम्मति से तथा अनील की सहमती से, जिसकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था, यह तय हुआ कि अनीता  अनील के यहाँ आएगी और भात एक जगह नोत देगी | परन्तु भात नौतने के एक दिन पहले घटनाक्रम ने अप्रत्याशित मोड़ ले लिया | अनील ने अपने यहाँ भात नुतवाने में असमर्थता व्यक्त कर दी |
मैं अपने यहाँ भात नुतावा नहीं सकता था क्योंकि उसमें लक्ष्मण शामिल नहीं होता | और अगर अनील तथा राकेश उसके यहाँ आते तो लक्ष्मण अपने को अकेला महसूस करता | अत: यह फैसला लिया गया कि अनीता  सबके यहाँ अलग अलग चली जाए परन्तु भात सब मिलकर एक साथ भरेंगे |  फैसला यह भी हुआ कि जिसकी जो मर्जी रकम लगाए बाकी पूर्ति चरण सिंह कर देगा | वादे के अनुसार मेरे सभी भतीजे भात देने के समय एक जगह एकत्रित हो गए परन्तु अनीता  के अपने भाई-भतीजों को टीके करने के समय अचानक माहौल ऐसा दिखने लगा जैसे मेरा परिवार अकेला रह गया था |   
मेरे बचपन के दिनों में ‘बाप बड़ा न भईया सबसे बड़ा रुपय्या’ गाना बहुत प्रचलित था | जब मैंने जवानी में कदम रखा तो ‘कसमें वादे प्यार वफ़ा सब वादे हैं वादों का क्या, कोई नहीं है अपना जगत में नाते हैं नातों का क्या’ भी बहुत प्रसिद्द रहा था |
जब मैंने अपनी गृहस्थी शुरू की थी तो अपने दूसरे भाईयों से मेरी आर्थिक स्थिति कुछ कमजोर थी फिर भी हर सम्मिलित  कामकाज के लिए मैं अपने भाईयों के बराबर योगदान देता था | बहुत बार भाईयों के बीच आपसी मन मुटाव भी दुसरों के सामने अलगाव दिखाने का सबब नहीं बना | परन्तु आज २४ जनवरी २०१५ को अचानक ऐसा क्या हो गया था कि मैं अपने को अकेला महसूस कर रहा था | मैंने सोचा उसके सभी भतीजे आर्थिक दृष्टि से समर्थ थे, उनपर किसी प्रकार का दबाव भी नहीं डाला गया था, उन्होंने वादे भी किए थे, रिस्ता-नाता भी था फिर उनका एकजुट होकर उसे अकेला छोडने का क्या कारण हो सकता है |
मनुष्य के अंदर विराजमान आग में जीवन के लक्ष्य को पाने की एक अदभुत ललक होती है | परन्तु यह मनुष्य की सोच पर निर्भर करता है कि वह अपना लक्ष्य पाने के लिए ज्ञान व अज्ञान, पाप व पुण्य, सृजन व विधवंस, सफलता व असफलता, जीत व हार, संतोष व असंतोष. प्रेम व बैर, यश व अपयश, जुल्म व दया, अहंकार व सदभावना, दान व लालच इत्यादी में से किसका दामन थामता है |
बहुत चिन्तन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पुरानी कहावत के अनुसार ‘दो तो चून के भी भारी पड़ते हैं’ | यहाँ भी ईर्षा और कंजूसी ने मिलकर यह खेल खेला था और देखते ही देखते भेड़ों जैसा झुंड बना लिया था | परन्तु जैसे एक माँ अपने प्रत्येक बच्चे के चालचलन और मिजाज को अच्छी तरह जानती है उसी प्रकार मैं भी अपने भतीजों की रग रग से वाकिफ था अत: जब उन्होंने भात भरने के समय मेरा बहिष्कार सा कर दिया था तो मुझे कोई दु७ख नहीं हुआ बल्कि यह साफ़ पता चल गया कि भविष्य में उसे ‘खामाँ-खां’ की उपाधी लेने से बचना चाहिए |
ईर्षा एक मानसिक विकार है | ईर्षालू व्यक्ति मौन रहकर भी हानि पहुँचा सकता है | ऐसा व्यक्ति सामने वाले के हर कदम पर बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करता है तथा ऐसा करने में वह अपने को हर्षित महसूस करता है |  एक सामूहिक खर्च के हिस्से को देने से बचने के लिए एक कंजूस व्यक्ति हर संभव कोशिश करता है | वह ईर्षालू और नासमझ व्यक्तियों के कंधे पर बन्दूक चलाकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करने लगता है तथा ऐसे लोग उसके झांसे में आकर भेड़ की तरह उसका अनुशरण करने लगते हैं |  
अभिमान और ईर्षा की तरह नासमझी, लालच और कंजूसी मनुष्य के आतंरिक सौंदर्य, प्रेम, करूणा, सदाचार, तथा परोपकार को घृणा के बादलों से ढक देता है | इसके वशीभूत मनुष्य मान मर्यादा, इंसानियत, समबन्ध, रिस्ते नाते, सब कुछ भूल कर उनको दरकिनार कर देता है | परन्तु वह यह नहीं झुठला सकता कि ‘जाको राखे साईंया मार सके न कोय, बाल न बांका कर सके चाहे जग बैरी होय’ | और फिर यह तो विधी का विधान है कि जीव इस संसार में खाली हाथ अकेला आता है, किस्मत के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है और निश्चित समय पर खाली हाथ ही अकेला पंच तत्वों में विलीन हो जाता है |  ईर्षा, द्वेष, मोह, माया, लालच, कंजूसी, अभिमान, जैसे विकार मन में घृणा, जलन और चिंता को पनपाकर मनुष्य को अपनी उम्र से पहले ही चिता पर लिटाने का काम करते हैं अत: अपना विवेक जागृत रख कर ऐसे विकारों से लिप्त व्यक्तियों से बचकर अकेला रहना ही हितकर है | 
मेरे साथ यह गनीमत थी कि मेरे दोनों पुत्र अपनी माता जी की तरह पुरानी भारतीय संस्कृति के पक्षधर थे अत: घर का वातावरण बहुत ही सौहार्द पूर्ण बना रहता था | अपने पुत्रों के पूरे सहयोग के कारण भी मुझे अपने भतीजों का असहयोग ज्यादा खला नहीं | फिर भी यह सोचकर मुझे दुःख था कि उन्हें समझाने वाला कोई नहीं था कि एक प्रतिष्ठित परिवार के सदस्यों के आपसी सम्बन्ध टूटने की दलक पूरा समाज महसूस कर लेता है | जो किसी के लिए भी सुखद नहीं होता |
इसी सोच के मद्देनजर मैंने, रिश्ते में मेरे दामाद लगने वालों के कुछ टीके अपने भतीजे राकेश से करवाए |