Friday, September 22, 2017

मेरी आत्मकथा-8 (जीवन के रंग मेरे संग) फ़ौज से स्वतंत्रता

मेरी आत्मकथा-8 (जीवन के रंग मेरे संग) फ़ौज से स्वतंत्रता
जैसे एक शेर जंगल का राजा कहलाता है उसी तरह एक आफिसर कमांडिंग अपनी यूनिट का राजा माना जाता है | जैसे जंगल में शेर की दहाड़ सुनकर कुछ देर के लिए और जानवरों में भगदड़ जाती है तथा फिर खामोशी छा जाती है | उसी प्रकार माथुर की चिल्लाहट सुनकर उसकी पूरी यूनिट में सन्नाटा व्याप्त हो गया | जैसे एक शेर के शिकार को खाना तो दूर उसकी और कोई जानवर आँख उठाकर भी नहीं देख पाता उसी प्रकार माथुर के प्रकोप के डर के कारण यूनिट के मेरे सभी साथियों ने मुझ से बात करना तो दूर मेरे नजदीक आने में भी अपनी भलाई न समझी | मैं अपनी यूनिट में एक अकेला अलग-थलग पड़ गया था |         
यह धारणा है कि जिस साँप का फन पीट दिया गया हो वह उस व्यक्ति की तस्वीर अपनी आँखों में बसा लेता है तथा फन पीटने वाले से हमेशा बदला लेने की फिराक में रहता है | वह व्यक्ति चाहे कितनी भी दूर जाकर छिप जाए साँप उसे ढ़ूंढ़ ही निकालता है और मौका मिलते ही  उस व्यक्ति को डस लेता है | माथुर के लिए तो यह बहुत आसान था |
माथुर जानता था कि मैं अपने परिवार के साथ रह रहा था तथा मेरे दोनों बच्चे स्कूल जाते थे | हमारी यूनिट से दो सैनिकों को राजा शाँसी-अमृतसर हवाई अड्डे पर अस्थाई तौर पर तीन महीने के लिए भेजना था | ऐसी अस्थाई ड्यूटी के लिए अमूमन कवांरे सैनिकों को ही भेजते हैं परंतु माथुर ने अपनी खीज मिटाने तथा मन की जलन को शांत करने के लिए अमृतसर जाने को मेरा नाम भेज दिया | शायद माथुर सोच रहा था कि अपना नाम अस्थाई डयूटी की जानकर मैं उसके सामने जाकर गिड़गिड़ाऊँगा, अपने बच्चों से अलग होने की दुहाई दूँगा, प्रार्थना करूँगा कि वह मुझे माफ कर दे ...इत्यादि | हालाँकि सैनिक के पास ऐसी सूचना चपरासी लेकर जाता है परंतु बिना देर लगाए माथुर ने बड़े खुशी मन से चपरासी के हाथ सन्देशा भिजवाया कि मैं उसके आफिस में अभी हाजिर हो जाऊँ |
मैं बिना देर लगाए माथुर के आफिस में जा पहूँचा, "साहब जी आपने मुझे बुलाया है |"
"हाँ |"
जब मैनें माथुर के चेहरे पर नजर डाली तो वह सुबह के सूरज की तरह खिला हुआ दिखाई दिया |उसके चेहरे की प्रत्येक झुर्री मुस्कराती महसूस हो रही थी | ऐसा लगता था जैसे अपने मन की खुशी अन्दर रखने में वह नाकामयाब नजर आ रहा था | तभी तो वह आभा उसके चेहरे पर झलक आई थी | मुझे अन्देशा तो हो गया था कि जरूर माथुर के शैतानी दिमाग में कुछ् चल रहा है | फिर भी पूछना तो था ही, "साहब कहिए क्या काम है ?"
 "तुम्हे अस्थाई डयूटी पर जाना है", कहते कहते माथुर ने अपनी नजरें मेरे चेहरे पर ऐसे गड़ा दी जैसे उस पर अपनी बात का असर देखना चाहता हो |    
मैनें उसकी चालाकी को अपने पर भारी नहीं पड़ने दिया और सहज स्वभाव पूछा, "साहब कहाँ जाना है ?"
माथुर लगातार मेरे चेहरे के भावों को परखना चाह रहा था | परंतु मेरे मुख मंडल पर रत्ती भर भी शिकन न पा वह बोला, "राजा साँशी हवाई अड्डा अमृतसर |"
मैनें अपनी मायूसी भाँपने का कोई मौका नहीं दिया और पूछा, "साहब कब जाना है ?"
"कल तीन महिनों के लिए |" माथुर के चेहरे की मुस्कान बता रही थी कि मैं उसकी यह बात बर्दास्त नहीं कर पाऊँगा | इधर मैं भी उसके सामने किसी प्रकार भी कमजोर नहीं पड़ना चाहता था | उसे बड़ा आश्चर्य हुआ जब मैं निशचल भाव धन्यवाद कहकर बाहर आने के लिए मुड़ने लगा | वापिस मुड़ते मुड़ते मैनें माथुर के चेहरे के भाव पढ़े | जो थोड़ी देर पहले सुबह के उगते सूरज की तरह लालिमा लिए था वह काला पड़ रहा था | उसके चेहरे की मुस्कान तथा मन की खुशी दुख में परिवर्तित होती नजर आ रही थी | वास्तव में मुझे दुखी देखकर जो खुशी वह हासिल करना चाहता था वह खुशी पाने में माथुर असमर्थ रहा था | मैं जानता था कि माथुर के सामने कुछ भी सफाई देने से खुद को अपमानित करवाने के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा | क्योंकि माथुर हर हाल में 'अंधे के आगे रोए अपनी आँखें खोए' वाली कहावत ही चरितार्थ करके रहेगा | यही महसूस करते हुए कि मेरे साथ ऐसा ही कुछ होने वाला है मैं पहले से ही आपदा को झेलने को तैयार था | परंतु माथुर दूसरे के दुख में अपना सुख ढ़ूढ़ते-2 अचानक खुद दुखी होकर रह गया था
माथुर को नहीं पता था कि मैं देहली का ही मूल निवासी था | यहाँ मेरा अपना खुद का मकान था | मेरे बच्चे एयरफोर्स स्कूल सुब्रतोपार्क में पढ़ रहे थे | मेरे पीछे से मेरे परिवार को देखने वाले मेरे तीन बड़े भाईयों के भरे पूरे परिवार थे | इसलिए नि:संकोच मैनें अमृतसर जाना स्वीकार कर लिया था |
लगभग दो महीनो तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा | एक दिन पता चला कि माथुर अपनी पूरी यूनिट के साथ राजा सांसी हवाई अड्डे पर आ धमाका है | वह आते ही मेरे साथ फिर वैमनस्व वाला व्यवहार करने लगा था | और कोई चारा न देख मैंने भी यही सोचकर कि ‘ओखली में सर दिया तो धमाकों का क्या डर’ अपने कमांडिंग आफिसर को छकाने की सोच ली | अपनी पूरी यूनिट के आने से पहले मैं अमृतसर में, अस्थाई डयूटी पर होने की वजह से, अपने परिवार के साथ बाहर नहीं रह सकता था | परन्तु अब तो मेरी पूरी यूनिट यहां आ चुकी थी | अब मैं कानूनी तौर पर अपने परिवार के साथ रह सकता था | इसलिए मैनें अपने परिवार के साथ रहने की अर्जी डाल दी| मेरी अर्जी देखते ही माथुर बिलबिला उठा और उसका शीर्षक देखकर ही उसने उसे ना मंजूर कर दिया |
जब मैनें उसके द्वारा मेरी अर्जी को ना मंजूर करने का कारण पूछा तो उसका जवाब सुनकर मैं हैरान हो गया उसने कहा,मेरी मर्जी |   
मैनें तो पहले से सोच ही लिया था कि माथुर की तानाशाही का डटकर मुकाबला करूँगा इसलिए निडर होकर कहा, साहब गलत कामों में आपकी मर्जी नहीं चल सकती | मैं परिवार के साथ रहने वाले लोगों के कोटे में आता हूँ इसलिए अपने परिवार के साथ रहने का मुझे पूरा हक है |
माथुर चिङकर बोला, मुझे समझाने की जरूरत नहीं है | मैं सब जानता हूँ |
साहब अगर जानते हैं तो मेरी अर्जी ना मंजूर क्यों कर दी, मैंने पूछा |
माथुर खीजते हुए, अच्छा बाहर जाकर इंतज़ार करो |
जैसी मुझे उम्मीद थी वैसा ही हुआ | मुझे अपने परिवार के साथ पूरा भत्ता मिलते हुए बाहर रहने की मंजूरी मिल गयी | मुझे अपना परिवार लाने के लिए उसे दस दिनों की छुट्टियाँ भी प्रदान करनी पङी | मैंने अपने घर जाकर दस दिनों की छुट्टियाँ बिताई और बिना परिवार लिए वापिस आकर बाहर रहने लगा | दो तीन महीने तो मैंने बहुत आराम से ऐसे ही काट लिए परन्तु इसके बाद कुछ चुगलखोरों ने माथुर के पास खबर पहुँचा दी कि मैं अपने परिवार के साथ नहीं बल्कि अकेला रह रहा था |                  
माथुर तो इसी इंतज़ार में था की मेरे खिलाफ कुछ खबर मिले तो वह मुझे फंसाए | सूचना मिलते ही उसने मुझे बुला भेजा और मेरे सामने होते ही पूछा, सुना है तुम बिना परिवार के अकेले बाहर रह रहे हो ?
मैनें बिना किसी झिझक के जवाब देते हुए उलटा प्रश्न किया, साहब मैं अपने परिवार के साथ रह रहा हूँ | आपको किसने बताया की मैं अकेला रहता हूँ |
अगला प्रश्न पूछते हुए माथुर मेरे चहरे पर नजर गङाकर ऐसे देख रहा था जैसे वह मेरी झूठ पकङने को बहुत आतुर था, कहाँ रहते हो ?
पुरानी बजाजी मार्किट, अमृतसर |
पता |
 माथुर पूछे जा रहा था और मैं बिना किसी झिझक या रूकावट के बताए जा रहा था, एम.653, मार्फ़त श्री नानक चंद गुप्ता |जब माथुर ने भांप लिया की वह मुझ से कुछ नहीं उगलवा पाएगा तो कहा, ठीक है जाओ |   
माथुर को और रास्ता तो कोई सूझा नहीं उसने मेरे बताए पते पर जांच पङताल के लिए पुलिस भेज दी | मैनें जो पता लिखवाया था वह मेरे मामा जी के घर का पता था | उनका एक लड़का मेरी हम उम्र का था तथा उसके पास भी मेरी तरह एक बच्चा था | जांच पड़ताल करने गयी पुलिस का पेटा यह बता कर भर दिया गया कि उसकी पत्नी मेरी पत्नी है | माथुर ने पुलिस की रिपोर्ट देखकर अपना माथा पीट लिया | माथुर अब बेबस हो चुका था | कहावत है कि खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे उससे और तो कुछ बन नहीं पड़ा उसने मेरी पोस्टिंग सख्त एरिया समझे जाने वाले स्थान बागडोगरा में करवा दी |
बागडोगरा में जाना मेरे लिए कवि हरी ओम उपाध्याय की कविता एक बूँद में उस बूँद के सामान वरदान साबित हुआ | कवी ने वर्णन किया है कि एक वर्षा की बूँद जब आसमान से पृथ्वी की और चलती है तो उसके मन में हजारों विचार उठते हैं | नीचे आते आते वह सोचती रहती है कि न जाने उसके भाग्य में क्या बदा है, मैदान में गिरना लिखा है, आग में गिर कर जलना लिखा है, पहाड़ों की चोटी पर गिर कर बर्फ बनाना लिखा है या फिर समुन्द्र के अंदर समा जाना लिखा है | परन्तु ऐसा कुछ न होकर वह एक सीप के मुहं में गिरकर मोती बन जाती है | मेरे लिए भी बागडोगरा जाना एक वरदान साबित हुआ क्योंकि वहाँ जाकर मुझे मेरी मन की मुराद पूरी होने का रास्ता मिल गया था |
मैं एक दमे का मरीज था | इसका उल्लेख मेरे सर्विस रिकार्ड में भी था | क़ानून के अनुसार मेरी बदली बागडोगरा जैसे सख्त स्थान पर नहीं होनी चाहिए थी | परन्तु फ़ौज में एक यूनिट के कमांडिंग आफिसर की आज्ञा का पालन तो आँख बंद करके करना ही पड़ता है | उसके कहे की अवहेलना करने में किसी का साहस नहीं होता | इसीलिए कहा जाता है कि फौज में हमेशा यस सर कहने वाला ही फलता फूलता है | हांलाकि की इस बदली का मैं विरोध कर सकता था परन्तु न जाने क्यों मैनें ऐसा नहीं किया और इस बार मैं भी यस सर कहने वालों की जमात में शामिल होकर बागडोगरा पहुँच गया |
बागडोगरा दमें के मरीजों के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है | वहाँ पहुँचने के एक सप्ताह बाद ही मुझे दमे का दौरा पड़ गया और मैं बागडोगरा के मिलिट्री अस्पताल में भर्ती हो गया |
अस्पताल में डाक्टर ने पूछा, “ यह बीमारी आपको कब से है ?”
साहब नौ साल से |”
कहाँ शुरू हुई थी ?”
बंगलौर में जब १९६५ में मैं दूसरी बार वहाँ गया था |”
आपकी पोस्टिंग तो किसी गर्म प्रदेश में होनी चाहिए थी ?”
साहब इसी बीमारी के कारण मुझे देवलाली से जोधपुर के गर्म इलाके में भेजा गया था |”
फिर यहाँ कैसे आ गए ?”
मैनें बिना किसी झिझक के बताया, “साहब बुरा मत मानना, ऐसा एक आफिसर की मेरे साथ खुनश के कारण हुआ है |”
मेरी बात सुनकर आफिसर के चेहरे पर ऐसे भाव उभरे जैसे उसे मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था | तभी तो उसने कहा,  “फ़ौज में ऐसा भी होता है क्या ?”
इसके बाद मैंने अपनी पूरी कहानी उसे विस्तार से सुनाई | आफिसर ने बड़े ध्यान पूर्वक सब कुछ सुनने के बाद मेरे से सवाल किया,  “तो तुम आगे वायु सेना की नौकरी नहीं करना चाहते ?”
मैनें तपाक से कहा,  “हाँ श्री मान जी ऐसा ही है |”
आपकी क्वालिफिकेशन क्या है ? फिर जल्दी से अपनी भूल सुधारते हुए उसने खुद ही जवाब दे दिया
अरे हाँ अभी तो आपने बताया था कि आपने एम..की परीक्षा दी थी | आपके परिणाम का क्या रहा ?”
साहब मैं परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया हूँ |”
 आफिसर थोड़ा सोचकर बोला, “अगर आपने स्नातकोत्तर की परिक्षा पास कर ली है तो नौकरी से बाहर जाने के आपके रास्ते खुल गए हैं |”
आफिसर की बात सुनकर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा | मैनें बड़े उत्साह और उतावलापन दर्शाते हुए पूछा,  “कैसे साहब |”
आपने पढ़ा नहीं अभी एक नोटिस निकला था | उसमें लिखा था,  “A soldier who has the qualification required for a direct commission but is medically permanent unfit for the commission can seek discharge from service.” अर्थात जिस सैनिक की क्वालिफिकेशन इतनी है कि वह फ़ौज में कमीशन आफिसर की परिक्षा में बैठ सकता है परन्तु स्वास्थ्य के आधार पर यदि  वह ऐसा नहीं कर सकता तो वह नौकरी छोड़ सकता है |
आफिसर की पूरी बात ध्यान से सुनने के बाद मैं मायूस होकर बोला,  “परन्तु साहब मैं.......?”
मेरी बात समझकर की मैं क्या कहना चाहता था उसने बीच में ही मुझे टोकते हुए कहा,  “उसकी चिंता मत करो |”
मेरा असमंजस बरकरार था | मैंने कहा,  “फिर साहब कैसे होगा ?”
शाम को मेरे आफिस में आकर मिलना”, कहकर वह चला गया |
डाक्टर के जाने के बाद मैं इसी उधेड़ बुन में लग गया कि न जाने यह कैसे होगा ? क्योंकि उन दिनों टेक्नीकल ट्रेड वाले सैनिकों को सर्विस से बाहर जाने पर प्रतिबन्ध था | बहुत से सैनिक इसी प्रतिबन्ध के चलते मजबूरी में नौकरी कर रहे थे | फिर भी यही सोचकर की एक डाक्टर की बात में कुछ तो दम होगा मैं शाम होने की इंतज़ार करने लगा | शाम ढलते ही मैं डाक्टर के कमरे में चला गया | मुझे देखकर वह सीधा अपने मुद्दे पर बोला,  “मैं तुम्हें मेडिकली कैट ‘सी’ बना देता हूँ | इससे तुम्हारी सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा |
मुझे डर लग रहा था कि कहीं कैट ‘सी’ बनने से मैं बाहर जाकर भी सर्विस करने के लिए अयोग्य घोषित न कर दिया जाऊं | मेरी इस उलझन का निवारण करने के लिए डाक्टर ने मुझे समझाया कि यह कैट ‘सी’ का ठप्पा केवल फ़ौज में चलता है सिविल सर्विस में इसका कोई फर्क नहीं पड़ता | डाक्टर के आश्वासन पर मैनें कैट ‘सी’ बनना स्वीकार कर लिया और उसी के आधार पर सर्विस से बाहर जाने की अर्जी लगा दी वास्तव में ही मेरी योग्यता तथा फ़ौज के कैट ‘सी’ का ठप्पा मेरी नौकरी छुडवाने में बहुत कारगर सिद्ध हुए | मेरी अर्जी के आधार पर पहले तो मेरी बदली बागडोगरा से कानपुर कर दी गयी फिर कुछ ही दिनों में मेरा फ़ौज की नौकरी से इस्तीफा भी मंजूर हो गया | और स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1979 को मैं फ़ौज से स्वतन्त्र होकर अपने घर आ गया |                     

         

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