Thursday, November 17, 2011

पति-पत्नी


पति-पत्नि
सर्दियों का मौसम था | वर्त्तमान समय में हर और ऊंची ऊंची इमारतों की वजह से सर्दियों के मौसम में अधिक तर लोग धूप सेकना तो दूर की बात है उसे देखने के लिए भी तरस जाते हैं| परन्तु मालती इस बारे में भाग्यशालिनी थी क्योंकि उसके घर के सामने लान में सुबह सूरज की किरण फूटती थी और शाम तक रहती थी | इस लिए आस पडौस की औरतें अपना काम निबटा कर इसी लान में आकर बैठ जाती थी | आज भी मालती के घर के बाहर लॉन में मौहल्ले की बहुत सी औरतें बैठी धूप सेक रही थी | ऐसा लगता था जैसे औरतों के तीन समूह बने हैं | एक बुजूर्ग औरतों का जो शायद पोते-पोतियों वाली हो चुकी थी | दूसरा वह जो अपने बच्चों को पालपोस कर बड़ा करने में मश्गूल रहती होंगी  तथा तीसरा वह जिसमें नई ब्याही औरतें थी  या वो जो अभी माँ बनने का इंतजार कर रही थी |
मालती एक होनहार इंजिनियर की होनहार पत्नि थी | उसके मात्र तीन बच्चे थे | बड़ी लड़की की शादी हो चुकी थी | दूसरे नम्बर पर लड़का था जो जयपुर में डाक्टरी का कोर्स कर रहा था | तीसरे नम्बर वाली लड़की ने हायर सैकेंडरी की परीक्षा दी थी तथा वह भी डाक्टरी कोर्स की तैयारी कर रही थी
मालती की एक भतीजी थी, संतोष | उसकी शादी हुए अभी दो तीन महीने ही बीते थे | उसका पति अच्छे खाते- पीते परिवार से था | पति की  नौकरी भी बैंक की थी जो उस जमाने की एक बेहतरीन नौकरी मानी जाती थी | संतोष भी और सभी औरतों की तरह अपना काम निबटा कर अपनी बुआ के आंगन में धूप सेकने के लिये जाती थी |
इन दो तीन घंटों में, जब तक वहाँ औरतें रहती थी, जाने कितने प्रकार की बातों का निचोड़ निकलता था | रोजमर्रा की छोटी मोटी घरेलू बातों एवं समस्याओं का निदान तो अधिकतर एक दूसरे के सहयोग तथा जिवन के तजूर्बों की बिना पर वहीं हल हो जाता था | जटिल समस्यों का एक दूसरे को पता चल जाता था तथा शाम को जब आदमी लोग आफिस से वापिस आते थे तो उन सभी के पास उस जटिल समस्या की खबर पहुँच जाती थी | इस के बाद रविवार को जब सभी आपस में मिलते थे तो उस जटिल समस्या का भी कुछ कुछ समाधान ढूंढ ही लिया जाता था |
मालती से यह छुपा रह सका कि उसकी भतीजी के चेहरे पर वह आभा नजर नहीं आती जो एक नई नवेली दुल्हन के मुख पर विराजमान होनी चाहिये | वह जानती थी कि संतोष का पति एक नेक, सादा एवं सरल जिवन व्यतीत करने वाला सच्चा इंसान है | उसमें कोई बुरी आदत या लत भी नहीं है | उसके घर में हर प्रकार  का वह सामान उपलब्ध है जो एक गृहस्थी चलाने के लिए जरूरी होता है | वस्तुतः फ्रिज, टेलिविजन, एयरकंडीशनर, वाशिंग मशीन तथा टेलिफोन इत्यादि | रूपये पैसौं की भी उसके पास कोई कमी थी | परंतु मालती जब भी अपनी भतीजी की तरफ देखती तो  उसे वह कुछ अपने में ही खोई नजर आती थी | ऐसा लगता था कि वह वहाँ होने वाली बातों में भी किसी प्रकार का कोई आनन्द महसूस नहीं करती थी | वहाँ चलते हँसी मजाक के दौर में भी वह गुमसुम बैठी रहती | मालती उसकी यह दशा अधिक दिनों तक बर्दास्त कर सकी | अतः एक दिन जब सब औरतें धूप सेक कर अपने अपने घरों को जाने लगी तो मालती ने संतोष को रोक लिया और पूछा, संतोष, क्या बात है ?
संतोष आखें चुराते हुए, कुछ नहीं बुआ जी |
मालती अपनी भतीजी के चेहरे पर नजरें गडाकर, कुछ तो है ? मैं कई दिनों से देख रही हूँ कि तुम बुझी-बुझी सी रहती हो |
संतोष ने बाट टालने के अंदाज में कहा, ऐसी कोई बात नहीं है, बुआ जी | बस यूँ ही |              
"बस यूँ ही, तो कोई कारण नहीं हुआ |
संतोष जो अभी तक अपने को, नीची निगाह रखकर, बहुत संयम में रखने की चेष्टा कर रही थी उसके सब्र का बाँध टूट गया तथा  उसकी आँख का एक मोती टप से जमीन पर टपक कर चमकने लगा | संतोष का आंसू देखकर मालती भी किसी अनजान शंका से विचलित हो गई |
मालती ने संतोष की ठोडी पर हाथ  रखकर ऊपर उठाने की कोशिश की, संतोष,ऊपर देखो |
संतोष  जो गला भर आने से कुछ बोल पाई अपनी बुआ जी के कंधे से लग कर सुबक पड़ी
मालती ने संतोष के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए, “मुझे बता क्या हुआ ?
कुछ नहीं, बुआ जी |
क्या उसने तुझे मारा है ?
नहीं |
धमकाया है ?
नहीं |
तेरे घर में किसी चीज की कमी है ?
नहीं |
तेरी तबीयत तो ठीक है ?
हाँ |
तेरे पीहर में सब ठीक है ?
हाँ |
घर की याद रही है ?
नहीं |
तो फिर क्या बात है जो तू इतना खोई खोई रहती है ?
इस बार संतोष के चेहरे पर अचानक लालिमा छा गई | यहाँ तक कि उसके कानों के निचले हिस्से भी लाल हो गये | उसके चेहरे की रौनक एकदम बदल गई थी | उसके चेहरे के हावभाव से ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह जो कहना चाहती थी उसको कहने के लिये उसे कुछ शर्म महसूस हो रही थी परंतु साथ साथ उसका मन वह बात बताने को भी उसे विवश कर रहा था
मालती की पारखी आखें सब समझ गई थी फिर भी संतोष के मुँह से जानने के लिये उसने (मालती ने) उसे उकसाया,बोलो बोलो शर्माओ मत |
बुआ जी, कहते हुए संतोष, मालती के आँचल में अपना मुँह छिपाने की चेष्टा करती है  |
मालती, संतोष की पीठ पर अपना ममतामयी हाथ फेरते हुए, बताओ क्या बात है ? यहाँ मुझ से नहीं कहोगी तो फिर किस से कहोगी ?
संतोष अपने मन में साहस बटोरा फिर भी शर्माते हुए तथा आखें झुकाए हुए, बुआ जी, वे मुँह अंधेरे आफिस चले जाते हैं | सुबह का नाश्ता करने का भी उनके पास समय नहीं होता | दोपहर का खाना भी वे साथ ले जाते हैं | रात देर से आते हैं | इतने थके हुए होते हैं कि खाना खाते खाते उन्हें निंद्रा देवी सताने लगती है  ओर वे बिना कुछ बात किये नीदं के आगोश में समा जाते हैं |
संतोष की बात सुनकर मालती के मन से एक अनजान सा भारी बोझ जो वह महसूस कर रही थी एकदम रफूचक्कर हो गया | उसके बाल धूप में सफेद नहीं हुए थे | वह एकदम समझ गई थी कि उसकी भतीजी की उदासीनता की जड़ क्या थी | जो अनजाना डर उसके दिल में बैठा था संतोष की समस्या उसकी तुलना में लेशमात्र भी थी | मालती के चेहरे पर एक ममतामयी मधुर मुस्कान फैल गई | मालती के चेहरे पर ऐसी गौरवमयी मुस्कान एवं लालिमा देखकर संतोष ने अन्दाजा लगा लिया कि उसकी बुआ जी ने उसकी समस्या को भाँप लिया है | फिर अपनी बुआ जी को कुछ अजीब सी मुद्रा में अपनी और निहारते हुए देख संतोष ने शर्मा कर अपना चेहरा अपने दोनों हाथों से ढाँप लिया तथा गर्दन नीची कर ली
मालती ने बड़े प्यार से संतोष की बाँह पकड़ी तथा उसे अन्दर ले गई | थोड़ी देर बाद जब संतोष बाहर निकली तो उसके चेहरे से वह मुर्दानगी एवं उदासीनता नदारद थी जो हमेशा उसके चेहरे से झलकती थी | अब वह एक खिले गुलाब की तरह महक रही थी | जब वह अपने घर की तरफ जा रही थी तो ऐसा प्रतित हो रहा था जैसे वह चलकर नहीं बल्कि उड़कर जा रही हो | शायद अपनी बुआ की घुट्टी पीकर वह हर प्रकार से संतुष्ट नजर रही थी |
अगले दिन
घड़ी सुबह के नौ बजा रही है | रणजीत आराम से रजाई की गरमाई  में सोया पड़ा है | संतोष के चेहरे पर एक शैतानी-चंचल मुस्कान उभरती है | वह सोए हुए  रणजीत को बड़े अदब और प्यार से जगाती है |
संतोष, रणजीत की बाँह को स्पर्श करते हुए, क्यों जी आज आफिस नहीं जाना क्या ?”
रणजीत उबासी लेकर तथा अंगड़ाई लेते हुए, क्या समय हो गया है ?
संतोष ने शैतानी मुस्कराहट बिखेर कर,नौ बज गये हैं |
नौ का नाम सुनकर रणजीत को जैसे जोर से करंट का एक झटका लग गया हो | वह एकदम रजाई  एक तरफ फैंक बिस्तर से बाहर निकल आया | उसने आश्चर्य से दिवार पर टंगी घड़ी पर नजर डाली | वास्तव में सुबह के नौ बज रहे थे |
रणजीत जल्दी-जल्दी में बाथरूम की ओर जाते हुए, मैं शौच आदि से अभी निवृत्त होकर आता हूँ | आप मेरे कपड़े तैयार कर दो प्लीज |(खुद कुछ बड़बड़ाता हुआ) आज तो बहुत देर हो गई | जाने आगे काम बनेगा या नहीं | मुझे तैयार होने में ही आधा घंटा लग जाएगा फिर आफिस पहूँचने में भी रास्ते का आधा घंटा तो चाहिये ही | नौ बजे तो मुझे आफिस में होना चाहिये था और नौ यहीं बज गये |
वह बाथरूम से बहुत जल्दी करके निकल आया था | शायद वह आज नहाने की बजाय शरीर की ड्राइक्लिनिग से ही काम चलाना चाहता था क्योंकि आज उसे समय के अभाव के कारण  नहाने की फुर्सत नहीं थी | बाथरूम से बाहर निकलकर उसने संतोष को सामने खड़े पाया, आज मैं नहाया नहीं केवल ड्राइक्लिनिग कर ली है |”
संतोष अपनी बुआ के बताए नुक्षे का असर भांप कर मुस्कराते हुए, सर्दियों में कभी कभी यह भी चलता है |
रणजीत इधर उधर देख कर, मेरे कपड़े कहाँ हैं ?
संतोष  कुछ नजाकता से, क्यों क्या बात है ? आज कुछ जल्दी है आफिस जाने की ?
चरण, संतोष की आंखों में एक कशिश तथा शरारत भरी मुस्कान देखकर, क्या बात है मजाक उड़ा रही हो क्या ?
संतोष अपने दोनों कानों पर हाथ लगाकर, भला मेरी क्या बिसात आप की मजाक उड़ाने की |
अरे मुझे देरी हो रही है और तुम्हे बात बनाने की सूझ रही है | जल्दी दो मेरे कपड़े |
अन्दर रखे हैं | खुद पहन आओगे या लाकर मुझे पहनाने पडेंगे |
रणजीत झुंझलाता हुआ, अन्दर कपड़े क्या कर रहे हैं ? क्या कोई उन्हें "सह" रहा है ?
यही समझ लो |
रणजीत, संतोष का उत्तर सुनकर सकते में गया अगर वह जल्दी में होता तो आज घर में बखेड़ा खड़ा हो जाता | रणजीत ने गुस्से में जब संतोष की तरफ देखा तो उसके चेहरे पर एक शरारत भरी लम्बी मुस्कान देखकर और भी तनाव में जाता है | वह पैर पटकता हुआ अन्दर कमरे में अपने कपड़े लेने चला जाता है | संतोष भी झट से उसका अनुशरण करती है तथा कमरे में जाकर अन्दर से दरवाजे को बन्द करके चटकनी चढा देती है
रणजीत संतोष को ऐसा करते देख, यह क्या कर रही हो ?
संतोष बहुत ही भोलेपन से बोली, जो आपको करना चाहिए था आपके पास समय ही नहीं  रहता वह करने के लिए, इसलिए आज मैंने बहुत सोच समझ कर आपके बहुमूल्य समय में से थोड़ा सा समय निकाल लिया है जिससे आप अपना वह छोड़ा हुआ काम पूरा कर सकें | फिर दरवाजा बंद करने में डर कैसा, हम दोनों ब्याहता हैं | 
रणजीत जो संतोष के इस अजीबो गरीब व्यवहार को समझ पा रहा था थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए बोला, देखो बहुत मजाक हो चुका | मुझे पहले ही बहुत देर हो चुकि है| जाकर मेरे नास्ते का प्रबंध करने से तो रही उल्टी ऊल-जलूल बातें कर रही हो |वह तौलिया हटाकर पहनने के लिये अपनी पैंट उठाने की कोशिश करता है |
संतोष झपटकर पैंट एक तरफ फैंक देती है तथा रणजीत को हल्का सा धक्का देती है जिससे रणजीत अपने को सम्भाल नहीं पाता तथा बिस्तर पर गिर जाता है |
रणजीत असमंजस से, आज तुम्हे क्या हो गया है | अब और अधिक नहीं | हटो मुझे जाने दो |
संतोष  को जैसे आज  किसी का कोई डर नहीं था, क्यों हट जाऊँ | जब आपके पास समय नहीं होता तो क्या मैं आपसे कुछ कहती हूँ | उल्टा आपको घर से जल्दी निकलने में सहायता ही करती हूँ कि लेट पहूंचने पर कहीं  दफ्तर में आपको किसी की डाँट खानी पडे | परंतु आज जब आपके पास समय ही समय है फिर भी इतनी जल्दी मचा रहे हो |
रणजीत अपनी पत्नी की पहेली न समझते हुए बोला, क्या पागलों की सी बातें कर रही हो | आज सचमुच तुम्हारा दिमाग ठिकाने नहीं लगता |
संतोष अपने चेहरे पर लालिमा का आवरण लिये हुए  तीखी निगाहों से रणजीत की तरफ देखते हुए, अगर मेरे पर भरोसा नहीं है तो खुद ही देख लो |
रणजीत ने कमरे में टंगी घड़ी की और देखा तो देखता ही रह गया | वह साढे सात बजा रही थी | जब तक उसने संतोष की तरफ देखा तो वह बिस्तर में दुबक चुकी थी | रणजीत का गुस्सा एकदम रफूचक्कर हो गया तथा अपने माथे पर हाथ मारते हुए अपनी हँसी रोक सका | उसे अचानक अपनी गल्ती का, जो वह बहुत दिनों से करता रहा था, एहसास हुआ | वह सोचने लगा कि कितनी सरलता एवं सरसता से संतोष ने अपने दिल की वह बात कह डाली जिसकी उसे खुद पहल करनी चाहिए थी | उसका रोम-रोम  गद्धगद्ध हो उठा | उसने धीरे से रजाई उठाई और संतोष के साथ साथ खुद भी उसमें समा गया | वे बहुत दिनों बाद आज फिर से बन पाए थे पति-पत्नि |