Tuesday, January 30, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्मकथा- 40) ऊंचे लोग

 जीवन के रंग मेरे संग  (मेरी आत्मकथा-  40) ऊंचे लोग
पुराने जमाने में समाज के कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिए लोगों ने आपस में काम बाँट लिए | इसके लिए क्षत्रियों को शहर की सीमा की रक्षा की जिम्मेदारी दी गई | वैश्यों का काम व्यापार को देखना था जिससे आर्थिक उन्नति हो सके | ब्राह्मणों को वैदिक कार्यक्रम तथा पूजा पाठ का जिम्मा सौंपा गया तो शूद्रों को साफ़ सफाई पर लगाया गया | परन्तु धीरे धीरे यह प्रावधान बच्चे के जन्म को प्रभावित करने लगा | जो जिस कुल मैं पैदा होता उसे मजबूरन वही कार्य करना पता था जो उसके पूर्वज करते आ रहे थे | आहिस्ता आहिस्ता समाज सदा के लिए चार वर्णों में बंट गया |
इसी प्रकार यह संसार धर्मों में विभाजित हो गया | भगवान ने तो इंसान बनाया था | इन्सान ने अपने आपको  हिंदू, मुस्लिम, शिख, ईसाई, पारसी इत्यादि धर्मों में विभाजित कर लिया | हालाँकि सभी मानते हैं कि सब का मालिक एक है फिर भी अपने अपने धर्म को सर्वोपरिय मानने की नियति किसी से छुट्ती नहीं | इतना ही नहीं इन्सान ने अपने अहंकार वश अपने को न जाने और कितने ही अनगिनित वर्गों में बाँट लिया | सबसे ज्यादा अहंकार लोगों के मन में उनकी अपनी आर्थिक स्थिति एवं ओहदों से पैदा हुआ | इसके तहत पूरा समाज उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा गरीब वर्ग में बंट गया | इन्हीं वर्गों से जुडा मुझे एक किस्सा याद आ रहा है |
हमारा एक मध्य वर्गीय परिवार था | गाँव में चार भाईयों के परिवार का रूतबा भी कम न था | औम प्रकाश की एक लड़की बचपन में ही पोलियो की शिकार हो गई थी | जिसकी वजह से उस लड़की का एक तरफ का अंग मारा गया | फिर भी शुक्र इतना रहा कि वह लकी अपने सारे काम अपने आप करने में सक्षम थी | वह थोड़ा लचक कर चलती थी | पोलियो से ग्रसित हाथ को दूसरे हाथ का सहारा देकर धीरे धीरे वह एक गृहिणी के सभी कार्य कुशल पूर्वक निबटा लेती थी | पोलीयो का असर उसकी जबान पर अधिक न था इसलिए बोलने में उसके शब्दों का उच्चारण बिलकुल साफ़ था | फिर भी अपंगता तो अपंगता ही होती है | और लड़की की अपंगता उसकी शादी की राह में बहुत बड़ा रोड़ा बन जाती है |
कहते हैं भगवान संसार के हर प्राणी के लिए जोड़ा जरूर भेजता है | एक दिन औम प्रकाश  ने अपने भाईयों के पास खबर भेजी कि उसकी लड़की के लिए लड़का मिल गया है अत: रोकने के लिए जाना है | अगर आप यह जानते हैं की आप जो कर रहे हैं उसे कोई भी सराहेगा नहीं तो बेहतर यही रहता है कि उस काम को करके ही दूसरों को बताया जाए चाहे वह अपना सगा ही क्यों न हो | इसी को बुद्धिमानी कहते हैं | ऐसी ही बुद्धिमानी औम प्रकाश  ने भी निभाई |
औम प्रकाश  अपने भाईयों को लेकर लड़के वालों के निवास स्थान के लिए चल दिया | गर्मी का मौसम था | रास्ता लंबा था इसलिए भौर में ही घर से निकल पड़े थे क्योंकि इस समय मंद मंद समीर चलने से मौसम सुहाना बना रहता था | सुबह सवेरे जल्दी चलने तथा समय पर वापिस लौटने के कारण जल्दी में सभी केवल चाय पीकर ही घर से निकले थे अत: रास्ते में नौ बजते बजते सभी भाईयों के पेट में चूहे कूदने लगे थे | यह समय ऐसा था कि किसी भी होटल पर चाय बिस्कुट के आलावा कुछ नहीं मिल सकता था | गाँव वालों की कहावत है कि ‘हाली के पेट सुवाली से नहीं भरते’ उन्हें तो भर पेट नहीं तो कम से कम पेट में कुछ असर करने लायक तो चाहिए ही |
औम प्रकाश  के भाई चरण सिंह की पत्नी का हमेशा से यह ध्येय रहा है कि जब भी घर से यात्रा के लिए निकलो तो अपने साथ खाने का जरूर कुछ बाँध कर चलो | जब उनको पता चला कि चार आदमी जाने वाले हैं तो उन्होने सुबह ब्रह्म बेला में उठकर चारों के लिए आलू के परांठे, चटनी, अचार एवं सब्जी बनाकर डब्बा अपने पति को थमा दिया था |
अपने भाईयों की एक आवाज के साथ ही मैंने एक होटल पर गाड़ी रूकवाई और अपनी पत्नी द्वारा दिया डब्बा खोल कर अपने भाईयों के सामने मेज पर रख दिया | डब्बे के खुलते ही आलू के पराठों की भीनी भीनी सुगंध के साथ आम के अचार की खट्टी खट्टी मन लुभावनी महक ने सभी की भूख को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया | खाने पर सभी ऐसे टूट पड़े जैसे न जाने कितने दिनों से भूखे थे | देखते ही देखते डब्बा पूरा खाली हो गया था | अपनी भूख से तृप्ती मिलने के बाद ही सभी को उसकी याद आई जिसके कारण उनको तृप्ती मिली थी |
सफर के रास्ते में औम प्रकाश  ने बताया था कि लड़का महिर्षी दया नन्द यूनिवर्सिटी के आधीन एक कालेज में प्रोफ़ेसर लगा हुआ था | वह भी उनकी लड़की की तरह अपंग है | उसे रोहतक में यूनिवर्सिटी की तरफ से एक बंगला मिला हुआ था | लड़के के पिता जी नेताओं की संगत में रहकर बड़े बड़े विभागों में उच्च ओहदों का पदभार संभाल चुके हैं | लड़के का बड़ा भाई हरियाणा सरकार में उच्चपद पर आसीन है | लड़के के दादा-दादी भी हैं और दो बहनें भी हैं जो शादी शुदा हैं | इसी तरह की और बातें करते करते हम चंडीगड़ पहुँच गए |
चारों भाई जब अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे तो औम प्रकाश  का होने वाला समधी, समधन एवं लड़के का बड़ा भाई इंतज़ार कर रहे थे | समधी, राधे श्याम गोयल उर्फ़ चौधरी, के माथे की शिकन दर्शा रही थी कि उन्हें हमारा इंतज़ार करना गले नहीं उतर रहा था परन्तु समय की नाजुकता को भांपते हुए उन्हें मजबूरन ऐसा करना प रहा था | शायद उन्हें इंतज़ार करवाने की आदत थी परन्तु आज पासा पलटा हुआ था | आज उन्हें खुद किसी का इंतज़ार करना पड़ गया था |         
राम राम श्याम श्याम तथा हलके जलपान के बाद लड़के को रोकने का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ | एक एक करके घर के सदस्य आकर ड्राईंग रूम में बैठने लगे | लड़के के दादा जी, दादी जी, माता जी, दो बहनें आ चुकी तो लड़का अपने दोस्त के साथ अंदर दाखिल हुआ | लड़का दोनों बगलों में बैसाखी का सहारा लेकर चल रहा था | उसके बैठने के लिए भी एक खास ऊंचा सिंघासन बनाया गया था क्योंकि वह जमीन पर ही नहीं बल्कि नीची कुर्सी पर भी नहीं बैठ सकता था | उसको देखते ही औम प्रकाश  के सभी भाईयों ने आपस में एक दूसरे की तरफ अचरज भरी निगाहों से देखा | उनकी भाव भंगिमा से जाहिर हो रहा था कि वे इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनकी भतीजी इतनी अपाहिज नहीं थी कि ऐसे व्यक्ति को जीवन साथी बना दिया जाए जो ठीक से चल भी न सके | परन्तु सभी अपनी जबान न खोलने के लिए मजबूर थे | क्योंकि उनको औम प्रकाश  अपने साथ केवल लड़का रोकने के लिए ले गए था | लड़का देख कर उसके प्रति अपनी राय प्रकट करने के लिए नहीं | भाईयों को तो मूक दर्शक बन कर वह सब करना था जो उनका भाई औम प्रकाश  चाहता था |     
सभी भाईयों का मत था कि औम प्रकाश  की लड़की की अपंगता को देखते हुए उसके लिए एक स्वस्थ वर मिलना मुश्किल नहीं था परन्तु शायद औम प्रकाश  को लड़के और उससे ज्यादा उसके पिता जी का रूतबा इतना पसंद आया कि उन्होंने सभी और से अपनी आँखें बंद करली और रिश्ता बना लिया | हालाँकि गोयल जी को भगवान का शुक्र गुजार होना चाहिए था कि उनके लड़के के लिए, जिसको हमेशा किसी के सहारे की जरूरत थी को, एक सुन्दर एवं शरीर से स्वस्थ के बराबर लकी मिल गई थी | परन्तु उनके के व्यवहार तथा भाव-भाव भंगिमा से ऐसा लगता था कि उन्हें अब भी अपने लड़के का रिश्ता एक मध्य वर्गीय परिवार से लेने का मलाल था तथा वे रिश्ता लेकर लड़की वालों पर  एक एहसान कर रहे हैं |  
वैसे तो कहा जाता है कि इस संसार में, ईश्वर के अलावा, सर्वगुण संपन्न व्यक्ति कोई भी नहीं है परन्तु शरीर से पूरक मनुष्य अनगिनित होते हैं | राधे श्याम जी के परिवार के सदस्यों को निहारने से ऐसा महसूस होता था कि उस परिवार में कोई भी व्यक्ति पूरक नहीं था | उनका खुद का बदन चिट्टा हो गया था, लड़का जिसकी शादी होनी थी पैरों से अपाहिज था, लड़के की बहन का चेहरा दर्शा रहा था कि वह दिमागी तौर पर स्वस्थ नहीं थी, बड़ा लड़का, जो हरियाणा सरकार में एक उच्च अधिकारी था, ने आजीवन ब्रम्हचारी रहने का प्रण कर लिया था | इसीलिए उसने अभी तक शादी नहीं की थी |
एक मनुष्य की असलियत या तो वह खुद जानता है या फिर उसका रचियता अर्थात भगवान | वैसे उसके घर वाले भी उसके बारे में बहुत कुछ जानते हैं परन्तु समाज में बात फ़ैलने के डर से उसकी बुराईयों तथा कमियों पर पर्दा डालने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं | ऐसा ही शायद बड़े लड़के राकेश के बारे में छुपाया जा रहा था |
राकेश के पास सभी सुख सुविधा होने के बावजूद उसने शादी नहीं की थी तथा न ही करना चाहता था | वैसे उसकी बोली का ढंग, चाल एवं हावभाव दर्शाते थे कि कहीं न कहीं उसके शरीर में कुछ कमी थी जिसे वह यह कहकर छुपाने की कोशिश कर रहा था कि उसने तथा उसके एक दोस्त ने आजीवन कुवांरा बना रहने की कसम खाई है |
कसम खाने या प्रण लेने का कुछ न कुछ तो कारण तो होना ही चाहिए जैसे भीष्म पितामह ने प्रण लिया था | भीष्म पितामह के पिता राजा शांतनु थे | उन्होंने भीष्म पितामह को युवराज घोषित किया हुआ था | एक बार राजा शांतनु वन में शिकार खेलने गए तो वहाँ शांतनु को एक लड़की, सत्यवती से आशक्ति हो गई थी | जब राजा ने सत्यवती के पिता से उसकी लड़की के साथ शादी की पेशकश की तो उन्होंने एक शर्त रखी कि राजा शांतनु के बाद अगर उसकी पुत्री सत्यवती का लड़का राज गद्दी का वारिश घोषित किया जाए तो वह ऐसा करने को तैयार है | शांतनु ऐसी शर्त मानने को राजी नहीं था |
समय के चलते भीष्म ने अपने पिता की उदासीनता तथा बिगड़ते स्वास्थ्य को भांपते हुए पता कर लिया कि उसका कारण वह खुद था | अपने पिता जी की खुशी के लिए भीष्म पितामह ने प्रण ले लिया था कि वह आजीवन कुवांरा रहेगा तथा राजगद्दी पर नहीं बैठेगा | जिससे उसके पिता सत्यवती से शादी कर सकें और सत्यवती की संतान ही राजगद्दी पर बैठे | और भीष्म पितामह ने पूरे जीवन अपना वचन नहीं तोड़ा |
परन्तु राकेश अपने प्रण लेने का कोई ठोस कारण नहीं बता पाता था कि वह शादी क्यों नहीं करना चाहता था इसलिए वह सभी के विचारों में शक के घेरे में था |          
औम प्रकाश  की लड़की की शादी दिसम्बर में होनी निश्चित हो गई | तय हुआ कि शादी चंडीगढ़ से होगी इसलिए वधु पक्ष के ठहराने आदि का इंतजाम वर् पक्ष को करना था | नेताओं को तैयारी तो कुछ करनी नहीं होती उनको तो बस जुबान हिलाने का काम होता है करने वाले तो उनके पिछलग्गू बहुत होते हैं | उनके एक इशारे से सारी सरकारी मशीनरी हरकत में आ जाती है और आनन फानन में सब तैयारियां मुफ्त में ही हो जाती हैं |
वधु पक्ष के लोगों के ठहराने का इंतजाम हरियाणा सरकार के गेस्ट हाऊस में किया गया था जबकि शादी  धर्मशाला में संपन्न होनी थी | नेताओं के बच्चों की शादी का समारोह निराला ही होता है | वहाँ असली हीरो-हिरोईन दुल्हा और दुलहन नही होते | उनकी और किसी भी मेहमान या मेजबान की खास तवज्जो नहीं होती | मेहमानों और मेजबानों को इंतज़ार रहता है बड़ी बड़ी हस्तियों के आने का | उनका तो एक ध्येय बन जाता है कि किसी तरह बड़े नेता के साथ उनका फोटो खिंच जाए | ऐसा ही माहौल इस शादी में भी देखने को मिला |
वर-वधू को आशीर्वाद देने हरियाणा के तत्कालीन मुख्य मंत्री आने वाले थे | इस वजह से वर पक्ष के सभी व्यक्ति उनकी आवभगत में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं छोडना चाहते थे | उनका ध्यान केवल मुख्य मंत्री की राह पर था | आए हुए रिश्तेदारों के लिए मेहमान नवाजी की तरफ से उन्होंने आँख लगभग भींच रखी थी | शायद वे सोच रहे थे कि एक तो लड़की वाले ऊपर से मध्य वर्गीय लोग, उन्हें उनकी फ़िक्र करके क्या मिलेगा परन्तु अगर किसी बड़े नेता की नज़रों में चढ गए तो वारे के न्यारे हो जाएंगे | इंतजाम सब था परन्तु मेहमानों के लिए मेहमान नवाजी करने वाला कोई नहीं था |       
औम प्रकाश  की लड़की की शादी सम्पन्न हो गई | वह ससुराल चली गई | ससुराल में उसको ‘भाग्यलक्ष्मी’ नाम से नवाजा गया | समय के साथ वास्तव में ही वह अपनी ससुराल के परिवार के लिए अपने नए नाम के अनुराम  ही  भाग्यलक्ष्मी साबित हुई | जिस घर में अभी तक कोई पूरक मनुष्य नहीं था भाग्यलक्ष्मी ने उस परिवार को दो सुन्दर रत्नों को जन्म देकर वशं बढोतरी में सहयोग दिया |
भाग्यलक्ष्मी अपने सास ससुर के साथ साथ अपने ददिया ससुर एवं ददिया सास का भी बहुत ख्याल रखती थी | घर में नौकर चाकर होने के बावजूद तथा खुद अपाहिज होने पर भी भाग्यलक्ष्मी अपने बड़ों की सुख सुविधा तथा बच्चों के लालन पालन का भार स्वंय सम्भाले हुए थी | धीरे धीरे बच्चे बड़े हुए और उन्होंने स्कूल जाना शुरू कर दिया | भाग्यलक्ष्मी इस दौरान ठाली रहने लगी | समय का सदुपयोग करने के लिए उसने स्कूल में अध्यापिका बनने की इच्छा जाहिर की | उसके ससुर के लिए उसे सरकारी स्कूल में नौकरी दिलाना कोई बड़ी बात नहीं थी | भाग्यलक्ष्मी की मनोइच्छा की पूर्ति कर दी गई |भाग्यलक्ष्मी के पति को रहने के लिए यूनिवर्सिटी की तरफ से उसके प्रांगण में एक बंगला मिल गया | इस तरह उनका जीवन बहुत खुशहाल चल रहा था |
एक दिन औम प्रकाश  ने, जिसका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं चल रहा था, मुझे बुलाकर कहा, भाई भाग्यलक्ष्मी की सास गुजर गई है |
कब ?
कल की तेरहवीं है |      
अच्छा ! तो कब जा रहे हो | मैं भी चल दूंगा |
औम प्रकाश  ने अपनी असमर्थता जताकर कहा, गर्मी बहुत पड़ रही है | मैं तो जा नहीं सकता क्योंकि पहले ही स्वास्थ्य ठीक नहीं है और अगर गया तो और लेने के देने पड़ने का खतरा है |
तो बताओ क्या करना है ?
तुम और तुम्हारा भतीजा चला जाएगा |
ठीक है हम दोनों चले जाते हैं | वैसे किस समय तथा कहाँ जाना है |
सिरसा जाना है |
सिरसा क्यों ?
क्योंकि भाग्यलक्ष्मी के ददिया सास एवं ददिया ससुर अपने पैतृक मकान में वहीं रहते हैं | और ददिया सास का देहावसान भी वहीं हुआ है |
रास्ता लंबा तय करना था इसलिए मैं अपने भतीजे लक्ष्मण के साथ अपनी गाड़ी में सुबह नौ बजे चल पड़ा जिससे ढाई बजे के लगभग सिरसा  पहुँच कर पगड़ी की रस्म में शामिल होकर रात तक अपने घर वापिस लौट सकें | गर्मी का मौसम, चिलचिलाती धूप, लू का प्रकोप, साधारण गाड़ी, लंबा रास्ता, सिरसा पहुँचने की जल्दी सब मिलाकर अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचते पहुंचते सबका बुरा हाल हो गया था |
धर्मशाला जहां रस्म पगड़ी होनी थी पुलिस वालों ने एक किले की तरह घेरा हुआ था | चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात थी | लंबी लंबी गाडियां जिन पर लाल बतियाँ चमकने के साथ साथ दिल दहला देने वाले हूटर की आवाज बता रही थी कि उनमें सरकार के उच्च अधिकारी हैं एक के पीछे एक आ रही थी | इन गाड़ियों के लिए रास्ता साफ़ कर दिया जाता था | जितनी बड़ी गाड़ी, उसके अंदर बैठने वालों को पुलिस वालों के उतने ही अधिक सैल्यूट मिल रहे थे | छोटी गाड़ी में आने वाले मेहमानों की कोई कदर नहीं थी फिर भला हमारी कैसे होती | वैसे भी जब अपने रिश्तेदार ही अपनों का आदर न करें तो दूसरा तो उन्हें पहचानेगा भी नहीं |
पुलिस वालों की पैनी तथा तीखी नज़रों को झेलते हुए हम धर्मशाला में जाकर ऐसे बैठ गए जैसे चलता फिरता कोई व्यक्ति मरने वाले के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए थोड़ी देर ठहर जाता है | उस अनजान व्यक्ति की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता तथा उसकी कोई अहमियत नहीं होती | काम पूरा होने के बाद वह चुपचाप वहाँ से निकल जाता है |
मुझे वहाँ रस्म पगड़ी का एक नया ही रिवाज देखने को मिला | पगड़ी केवल उसे ही नहीं बांधी जा रही थी जिसने मरने वाले को दाग दिया था परन्तु सभी पगड़ी देने वाले व्यक्तियों को अपने अपने मेहमानों को ही पगड़ी देनी थी | लिहाजा हमारी पगड़ी की भेंट भाग्यलक्ष्मी के पति को गई |   
हम सुबह घर से जो थोड़ा बहुत नाश्ता करके चले थे अभी तक उस पर ही थे | देहली से सिरसा तक हम यही सोचकर रास्ते में कहीं नहीं रुके कि पगड़ी के नियत समय पर पहुँचने में कहीं देर न हो जाए | वैसे हमने अच्छा ही किया अन्यथा देरी हो ही जाती और पछताना पड़ता | रस्म पगड़ी होने के बाद भाग्यलक्ष्मी के अनुरोध पर हम दोनों उनके पैतृक मकान को देखने चले गए |
जिस गली में उनका मकान था अब वह पूरा बाजार अर्थात मार्किट बन चुकी थी | वहाँ पुराने जमाने की हवेलियों की जगह वर्त्तमान युग की नामी कंपनियों के शोरूम बन गए थे | इक्का दुक्का हवेली ही बची थी जो अपना सिर ऊंचा किए अपनी पुरानी शान दिखा रही थी | इनमें से एक भाग्यलक्ष्मी की ससुराल भी थी | अंदर बीच में लंबा चौड़ा दलान, दलान में खुलता एक शहंशाही दरवाजा, दालान के चारों तरफ बड़े बड़े कमरे, मेहमानों के बैठाने के लिए एक लंबी चौड़ी बैठक तथा पुराने जमाने की याद ताजा कराते हुए बैठने के लिए मुढे, कुर्सियां तथा मेज |
हम जाकर हवेली की बैठक में बैठ गए | उस समय वहाँ पहले से ही एक और व्यक्ति बैठा था | हमें आया देख भाग्यलक्ष्मी तीन कप चाय तथा एक प्लेट में कुछ नमकीन लाई तथा कहकर चली गई कि हम तीनों नाश्ता कर लें | मैंने उस अनजान की तरफ चाय की मेज पर चलने का इशारा ही किया था तथा खुद उठकर मेज की तरफ जाने का उपक्रम करने का मन बनाया ही था कि श्री राधे श्याम गोयल जी अपने दो मित्रों के साथ बैठक में दाखिल हुए | वे सीधे चाय की मेज पर आकर बैठ गए | उन्होंने ने एक एक कप अपने साथियों के सामने खिसका दिया तथा तीसरा कप स्वंयम लेकर चाय की चुस्कियां लेने लगे |
कमरे में खड़े तीन अन्य लोगों की तरफ देखकर भी उन्होंने उनकी उपस्थिति का आभाष करने की कोई जरूरत नहीं समझी | शायद वे इंसान, अपने रिश्तेदार, सगे संबंधी तथा इंसानियत से ज्यादा अपने ओहदे को अहमियत देते थे | तभी तो उन्होंने ईर्षा वश अपने मेहमानों को अनदेखा करके यह भी पूछना उचित नहीं समझा कि वे भी चाय लेने में उनका साथ दें | बैठक में पहले से ही मौजूद तीन व्यक्ति और तीन ही कप चाय के प्यालों को देखकर भी उन्होंने इतना भी नहीं सोचा कि उनके आने से पहले ही मेज पर चाय के प्याले कैसे सज गए थे | शायद उनके मन में ऊंचे लोगों की परिभाषा यही थी कि किसी काम न आने वाले व्यक्ति को, चाहे वह अपना हो या पराया, नजर अंदाज करना ही बेहतर होता है | इस प्रकरण ने राधे श्याम जी के आचरण का चिट्ठा खोल दिया था |
मैनें चोर नज़रों से देखा कि भाग्यलक्ष्मी बाहर दालान में अपने मन में कुछ परेशान सी एक छोर से दूसरे छोर की फेरी लगा रही है | वह पिंजरे में बंद एक शेरनी की तरह बेचैन नजर आ रही थी | उसका सारा ध्यान हमारी बैठक में हो रही गतिविधियों पर केन्द्रित था जैसे वह अपने ससुर के उसके अपने पीहर वालों के प्रति ईर्षालू व्यवहार से वाकिफ थी तथा उनके अपने मेहमानों के साथ वहाँ आ जाने से क्या घटित होने वाला है | जब भाग्यलक्ष्मी ने देख लिया कि उसके ससुर अपने मेहमानों को अनदेखा करके चाय की चुस्कियां लेने लगे हैं तो उससे यह बर्दास्त न हुआ | वह तुरंत आई और उस(हमारे लिए अनजान) व्यक्ति, अपने भाई एवं मुझे कहा, आप मेरे साथ अंदर चलिए |
इस पर गोयल जी ने अपनी पुत्र वधु की तरफ नफ़रत भरी निगाहों से ऐसे देखा जैसे कह रहे हों, तुम्हारी और इनकी हैसियत ही क्या है जो हमारे साथ बैठ सकें |
अहंकार एक प्राकृतिक भाव है जो मनुष्य में हमेशा रहता है | मनुष्य अपने पद, प्रतिष्ठा, धन, बल, विद्या, राम  और यौवन प्राप्त हो जाने पर अमूमन अहंकारी हो जाता है | अहंकार मनुष्य के आतंरिक सौंदर्य, प्रेम, करूणा, सदाचार, तथा परोपकार को घृणा के बादलों से ढक देता है | अहंकार के वशीभूत मनुष्य मान मर्यादा, इंसानियत, समबन्ध, रिस्ते नाते, सब कुछ भूल कर उनको दरकिनार कर देता है | और अहंकार से उपजती है ईर्षा |        
कहना न होगा कि भाग्यलक्ष्मी ही ऐसी लड़की थी जिसने गोयल जी की वंश बेल को सुचारू रूप से आगे बढ़ाया था | फिर भी उनके व्यवहार से ऐसा लगता था कि वे भाग्यलक्ष्मी के शुक्रगुजार होने की बजाय उसकी तथा उसके मेहमानों की तरफ हीन भावना से देखते थे | शायद उनका मत था कि भाग्यलक्ष्मी के परिवार में उनकी हैसियत की समानता वाला एक भी व्यक्ति नहीं है | उनके लिए इंसानियत कोई मायने नहीं रखती थी | वे अपने मद में चूर आपसी संबंधों को कोई मान्यता नहीं देना चाहते थे | ईश्वर की कृपा तथा भाग्यलक्ष्मी के गुण एहसान की तरफ से उन्होंने आँखें बंद कर ली थी | उनके विचार में मध्य वर्ग के आदमी की लड़की भाग्यलक्ष्मी को अपने घर की बहू बना कर उन्होंने उस पर बहुत बड़ा उपकार किया था | 
यहाँ आने से पहले एक दो बार मेरी मुलाक़ात भाग्यलक्ष्मी के पति ऋषी  से हो चुकी थी | उनकी बोलचाल, व्यवहार, मान मर्यादा रखने का सलीका इत्यादि परखने के बाद मन में जो दुविधा उन्हें पहली बार देखने के बाद उठी थी वह समाप्त प्राय: हो चुकी थी | जब भाग्यलक्ष्मी के कहने से हम अंदर कमरे में पहुंचे तो वहाँ ऋषी  के साथ उसके चार चचेरे भाई पहले से ही विद्यमान थे | चाय के दौर के साथ उनमें बातें शुरू हो गई |
ऋषी :-राहुल अब आप अमेरिका में किस ओहदे पर काम कर रहे हो ?
मैं कंपनी का वाईस चेयर मैंन हूँ | इस बार आऊँगा तो आपको चेयर मैंन बनने की खुशखबरी मिल जाएगी |
कितना कुछ मिल जाता होगा ?
राहुल ने बड़े व्यंगात्मक आवाज में बताया, उसकी क्या पूछते हो ? बंगला, गाड़ी, नौकर चाकर इत्यादि सभी कुछ तो है |बहुत मस्ती की जिंदगी कट रही है |
ऋषी :-और अपनी सुनाओ संजय ?
मुझे भी किसी बात की कोई कमी नहीं है | अब आया हूँ तो दस लाख छोड़कर जाऊंगा | इसी से अंदाजा लगालो कि जब डेढ़ साल में इतना है तो क्या कुछ मिलता होगा |
दीपक अपने आप ही बोल उठा, मेरी स्थिति तो आप सभी से छुपी नहीं है कि मैं किसी से कम नहीं |
दीपक के कहने पर सभी जोर का ठहाका लगाते हैं परन्तु मुझे उनमें मियाँ मिट्ठू बनने की गंध महसूस हुई | और इसके बाद ऋषी  ने जो कहा उससे तो मैं अचम्भित रह गया तथा सोचने लगा कि क्या यह वही ऋषी  है जिसके कुशल व्यवहार ने मेरे दिल में उसके परिवार वालों से अलग प्रशंशात्मक जगह बना ली थी | ऋषी  ने कहा, भाई हमारे सभी चाचा, ताऊ तथा बुआ आदि के परिवार में किसी के पास किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है | सभी अच्छे एवं उच्च ओहदों पर काम कर रहे हैं | हममें से किसी ने कभी भी बाहर वाले से किसी भी सहायता की गुजारिश नहीं की | परन्तु न जाने क्यों लोग हमारे पास आकर अपनी सिफारिश के लिए गिड़गिडाते हैं | वे अपने संबंधों का नाजायज फ़ायदा उठाना चाहते हैं | वे सोचते हैं कि हींग लगे न फटकरी रंग चोखा हो जाए | अर्थात हमारी सिफारिश से उन्हें पकी पकाई मिल जाए | इतना कहकर ऋषी  ने मेरी और ऐसे देखा जैसे पूछ रहा हो, क्यों मैं सही कह रहा हूँ न ?
उन दिनों मेरा लड़का पवन देहली में एक प्राईवेट कंपनी कॉम्पैक कम्प्यूटर में काम कर रहा था | उसने हार्डवेयर में कमप्यूटर का डिपलोमा किया हुआ था | वह किसी सरकारी संस्थान में नौकरी करने का इच्छुक था | उसकी इस बारे में कभी ऋषी  जी से बात हुई होगीं | ऋषी  ने कहा था, HSIDC में अगर भर्ती होती हों तो बता देना | वह अपने पिता जी से कहकर उसका काम करा देंगे |
मैं अपने मन में यह धारणा बना कर गया था कि अगर मौक़ा मिला तो मैं ऋषी  को पवन के साथ हुई बातों का समरण करा दूंगा क्योंकि HSIDC में भर्ती होनी थी | परन्तु यहाँ के रंग ढंग तथा पिता बेटे की विचारधाराओं को परखते हुए मैनें कुछ भी कहना उचित नहीं समझा | ऐसे घुटन भरे माहौल में एक कप चाय भी मेरे कंठ से नीचे न सरक सकी |    
शाम के चार बजे तक आने वाले सभी विदा हो चुके थे | हम भी वापिस चल दिए | ऋषी  और भाग्यलक्ष्मी को भी वापिस रोहतक आना था अत: वे भी अपनी गाड़ी में हमारे साथ ही चल दिए | रास्ते में ऋषी  के आचरण में अप्रत्याशित बदलाव आ गया था | उसने बड़े ही नम्र एवं कोमल भाव से हमें अपने घर चलने का निमंत्रण दिया | जिसे मैं यह सोचकर टाल न सका कि कुछ स्थान, कुछ संगत तथा कुछ लम्हे ऐसे होते है जिससे मनुष्य की मति मारी जाती है | ऐसे में अहंकार की देन ईर्षा वश उसे सुध नहीं रहती की वह किसके सामने क्या कह रहा है | गोयल जी  के बारे में तो मैं कुछ कह नहीं सकता परन्तु सिरसा में ऋषी  के साथ शायद ऐसा ही कुछ हुआ था | अन्यथा वह ऐसा न था |
वापिसी में रास्ते भर क्या अब भी जब कभी सिरसा की याद आ जाती है तो मेरा मन एक अजीब सी उत्सुकता से भर जाता है | मैं कई प्रशनों का उत्तर ढूँढना चाहता हूँ परन्तु ढूंढ नहीं पाता | क्या आजकल सभी लोग ऐसे होते हैं जो अपने ओहदे, अपनी दौलत, के मद में इतने लिप्त हो जाते हैं कि वे ईर्षावश अपने रिश्ते नाते यहाँ तक कि इंसानियत को भी भूल जाते हैं |


Saturday, January 27, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-39) फ़ौजी हुक्मरान की ईर्षा-2

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-39) फ़ौजी हुक्मरान की ईर्षा-2
मुझे दिचाऊं कला दिल्ली की यूनिट में आकर पता चला कि वहाँ का माहौल मेरे कारनामे, जिसे मेरी करतूत समझा जा रहा था, के कारण बहुत बदल चुका था | चारों और खामोशी थी जैसी किसी बड़े भयानक तूफान आने से पहले व्याप्त हो जाती है | मेरे से सभी सैनिक साथी कन्नी काटते से नजर आ रहे थे | कमांडिंग आफिसर माथुर ने मुझे भगौड़ा घोषित कर दिया था | सिविल पुलिस को इसकी सूचना भेजने की तैयारी चल रही थी |
जैसा कि एक तानाशाह के राज्य में होता है ठीक उसी प्रकार फौज में भी देखने को मिल जाता है | फर्क इतना होता है कि एक तानाशाह अपने सैनिक को बागी घोषित करार देकर मौत के घाट उतार सकता है परंतु फौज में एक यूनिट का कमांडिंग आफिसर इस हद तक न जाकर अपने आधीन सैनिक से रूष्ठ होने पर उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी नरक बना सकता है |   
अर्थात यूनिट के कमांडिंग आफिसर के व्यवहार से उस सैनिक पर चारों और से कहर सा टूट पड़ता है | उस सैनिक के साथी उससे किनारा करने लगते हैं क्योंकि उसका हर सैनिक साथी इस बात से डर जाता है कि कहीं उस खास साथी से बात करने पर वह भी अपने कमांडिंग आफिसर की नजरों में न आ जाए और बेवजह से उसके कोप का भाजन बनना पड़े | इसलिए, कारण कुछ भी हो, जो सैनिक अपने कमांडिंग आफिसर की नजरों में गिर जाता है वह अकेला पड़ जाता है | मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ |
जैसा की फौज में होता है कि जब कोई सैनिक छुट्टियों के बाद या टैम्परेरी डयूटी से वापिस लौटता है तो उसके सभी संगी साथी उसे घेर कर उससे पूरी जानकारी लेकर ही दम लेते हैं हाँलाकि मेरे सभी साथियों ने मुझे यूनिट में देखा जरूर परंतु किसी की भी मेरे नजदीक आकर यह पूछने कि हिम्मत नहीं हुई कि मैं इतने दिन रहा कहाँ | मुझे अपने साथियों के ऐसे दयनीय एवं दास्ताँ जैसे व्यवहार पर बहुत रोष तो आया परंतु फौज के वातावरण को सोचकर अपने में रह गया कि कोई नहीं चाहेगा 'आ बैल मुझे मार' |
सुबह की हाजिरी परेड़ में मुझे उपस्थित देखकर शायद मेरे आफिसर से सहा नहीं जा रहा था | मैं साफ भाँप सकता था कि मुझे देखकर माथुर का चेहरा एकदम तमतमा गया था | उसके जबड़े भींच गए थे | हाथ की मुठ्ठियाँ बन्द हो जाने से उसकी नसें फूल गई थी | उसकी जबान कुछ कहना चाहती थी परंतु दिमाग द्वारा कहने का सही समय न समझ कुछ बोल न सकी | माथुर अपनी व्यग्रता दबाने पर मजबूर था | मैं महसूस कर रहा था कि मेरे सभी साथी चोर नजरों से कभी माथुर को देख रहे थे तो कभी मुझे निहार रहे थे शायद माथुर को मेरी उपस्थिति बर्दास्त नहीं हो पा रही थी इसीलिए उसने पूरे काम का निपटारा किए बिना ही परेड़ का विसर्जन कर दिया था हाजिरी परेड़ के विसर्जन पर माथुर के फूले नथुने और छाती में चलती धौकनी साफ बता रही थी कि वह कितने गुस्से में था वह केवल इतना कहकर कि चंद्रकांत,  इसके बाद आप मेरे आफिस में हाजिर हों, पैर पटकता हुआ, जल्दी जल्दी, अपने आफिस में घुस गया |  
पहले से ही मेरे साथी मेरे बारे में सहमें हुए थे कि माथुर के आज के रवैये को देखकर तो सभी की सिटी-पिटी गुम हो गई | सभी की मूक नजरें दर्शा रही थी कि जैसे कह रही हो, " चरण सिंह आज तो तू गया काम से |"
परंतु मेरा चेहरा देखकर मेरे सैनिक साथियों को आश्चर्य के साथ साथ सांत्वना मिली होगी क्योंकि वह बयाँ कर रहा था कि मुझे किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं थी तथा मैंने कोई गल्त काम नहीं किया था | मैं निर्भिक अपने साथियों को अपनी चिरपरिचित मुस्कान दिखाते हुए आफिसर कमांडिंग माथुर के आफिस की और बढ़ गया |
मैंने सल्यूट मारकर अपने कदम अन्दर रखे ही थे कि यूनिट के एडजूटैंट ने सवाल किया, "जानते हो तुम भगौड़े घोषित हो चुके हो ?"
अपनी अनभिज्ञता जताते हुए मैंने जवाब दिया, "नहीं साहब |"
माथुर जिससे निचलाया बैठा नहीं जा रहा था चिल्लाया, "यही सत्य है |"
मैंने कोई उत्तेजना न दिखाई तथा बड़ी सहनशीलता से बोला, "होगा साहब |"
मुझे किसी प्रकार भी विचलित होते न देख माथुर गुर्राया, "लगता है तुम्हें अपनी गल्ती की कोई परवाह नहीं है ?"
मैंने अपने अन्दाज में जवाब दिया, "साहब, जब मैंने कोई गल्ती की ही नहीं है तो मुझे किस बात का डर होगा |"
गुस्से में माथुर से बोला नहीं जा रहा था | वह बेचैन होता जा रहा था | इसलिए एडजूटैंट ने पूछा, "तुमने कोई गल्ती नहीं की ?"
"नहीं साहब |"
"तुम्हें केवल तीन दिनों की छुट्टियाँ प्रदान की गई थी न ?"
"हाँ साहब |"
"और तुम आज एक महीने बाद आए हो ?"
"हाँ साहब |"
"यह गलती नहीं है तो क्या है, वैसे तुम इतने दिन कहाँ थे ?"
मैने बिना किसी झिझक के जवाब दिया,अपनी एम.ए.फाईनल की परिक्षाएँ दे रहा था |"
आफिसर ने आँखे तरेर कर कहा, "तुम्हें जरा भी डर नहीं लगा कि तुम बिना छुट्टियों की मंजूरी के ठहर कर परीक्षा दे रहे हो ?"
"साहब मैं फौज से अनुपस्थित नहीं था |"
"क्या पहेलियाँ बुझा रहे हो, साफ साफ बताओ ?"
मैनें सभी को एक जोर का झटका धीरे से देने के अन्दाज में बताया, "साहब मैं बिमार था और जोधपुर अस्पताल में भर्ती था |"
वास्तव में ही जैसे तीनों आफिसरों के सिर पर कोई वज्रपात हो गया हो, "क्या !" कहकर तीनों के मुहँ खुले के खुले रह गए तथा अपना अपना सिर पकड़ कर एक दूसरे का मुहँ ताकने लगे |
कमरे में थोड़ी देर के लिए मौत जैसा सन्नाटा व्याप्त हो गया | फिर मैने अपनी जेब से दो कागज निकालकर एडजूटैंट की तरफ बढ़ाकर मौन तोड़ते हुए कहा, "साहब ये हैं मेरे अस्पताल में भर्ती होने तथा अस्पताल से छुट्टी मिलने के प्रमाण पत्र |"
मरे हाथों से, जैसे उनमें थोड़ी देर पहले दिखाई देने वाला जोश समाप्त हो चुका था, आफिसर ने दोनों कागजों को लेकर पढ़ा |
पढ़कर थोड़ी देर के लिए तीनों आफिसर किंकर्तव्यमूढ़ होकर रह गए | परंतु बाद में माथुर ने कुछ सोचकर पूछा, "हाँ, तो तुम अपनी परिक्षाएँ कैसे दे पाए क्योंकि अभी तुमने बताया था कि तुमने अपनी एम.ए. की परिक्षाएँ दी हैं ?"
वह बोलता गयाजब तुम अस्पताल में भर्ती थे तो .......?
जब मुझे लगा कि माथुर आगे नहीं बोलेगा तो मैनें बड़ी बेतकुल्लफी से बताया, "साहब शक्कर खोरे को शक्कर मिल ही जाती है | मैं नहीं जानता कि मैनें परिक्षाएँ कैसे दी, बस दे दी |"     
मेरे कहने का अन्दाज देखकर तीनों आफिसर जलभुन कर रह गए और आपस में मंत्रणा करने लगे | इसके बाद माथुर गुस्से में आग बबूला होकर चिल्लाया, "आई विल गेट यौवर एगजाम कैंसल्ड (मैं तुम्हारी दी हुई परीक्षा को रद्द घोषित करवा दूगाँ)|”
मैं अपने कमांडिंग आफिसर के गुस्से में अनाप-सनाप बिना सोचे कहने की मूर्खता पर मन ही मन बिना हँसे रह न सका | फिर अपना संयम बरतते हुए बड़ी नर्मी से निवेदन किया, "साहब जोधपुर यूनिवर्सिटी आपका महकमा नहीं है जहाँ आप जो चाहें कर सकते हैं | मैनें खुद परीक्षा दी हैं चाहे जैसे भी दी हों | आप मेरी परीक्षा को किसी हालत में भी रद्द नहीं करा सकते अन्यथा कोशिश करके देख लो |"
मेरी ऐसी वाणी सुनकर माथुर आपे से बाहर हो गया | वह अपनी कुर्सी से ऐसे उठा जैसे किसी ने नीचे से कील चुभा दी हो तथा दहाड़ा, "यू गेट आउट(तुम बाहर निकल जाओ) |" 
जैसे एक शेर जंगल का राजा कहलाता है उसी तरह एक आफिसर कमांडिंग अपनी यूनिट का राजा माना जाता है | जैसे जंगल में शेर की दहाड़ सुनकर कुछ देर के लिए और जानवरों में भगदड़ जाती है तथा फिर खामोशी छा जाती है | उसी प्रकार माथुर की चिल्लाहट सुनकर उसकी पूरी यूनिट में सन्नाटा व्याप्त हो गया | जैसे एक शेर के शिकार को खाना तो दूर उसकी और कोई जानवर आँख उठाकर भी नहीं देख पाता उसी प्रकार माथुर के प्रकोप के डर के कारण यूनिट के मेरे सभी साथियों ने मुझ से बात करना तो दूर मेरे नजदीक आने में भी अपनी भलाई न समझी | मैं अपनी यूनिट में एक अकेला अलग-थलग पड़ गया था |         
यह धारणा है कि जिस साँप का फन पीट दिया गया हो वह उस व्यक्ति की तस्वीर अपनी आँखों में बसा लेता है तथा फन पीटने वाले से हमेशा बदला लेने की फिराक में रहता है | वह व्यक्ति चाहे कितनी भी दूर जाकर छिप जाए साँप उसे ढ़ूंढ़ ही निकालता है और मौका मिलते ही  उस व्यक्ति को डस लेने की कोशिश करता रहता है | माथुर के लिए तो यह बहुत आसान था |
माथुर जानता था कि मैं अपने परिवार के साथ रह रहा था तथा मेरे दोनों बच्चे स्कूल जाते थे | हमारी यूनिट से दो सैनिकों को राजा शाँसी-अमृतसर हवाई अड्डे पर अस्थाई त्तौर पर तीन महीने के लिए भेजना था | ऐसी अस्थाई ड्यूटी के लिए अमूमन कवांरे सैनिकों को ही भेजते हैं परंतु माथुर ने अपनी ईर्शावश खीज मिटाने तथा मन की जलन को शांत करने के लिए अमृतसर जाने को मेरा नाम भेज दिया | शायद माथुर सोच रहा था कि अपना नाम अस्थाई डयूटी की जानकर मैं उसके सामने जाकर गिड़गिड़ाऊँगा, अपने बच्चों से अलग होने की दुहाई दूँगा, प्रार्थना करूँगा कि वह मुझे माफ कर दे ...इत्यादि | हालाँकि सैनिक के पास ऐसी सूचना चपरासी लेकर जाता है परंतु बिना देर लगाए माथुर ने बड़े खुशी मन से चपरासी के हाथ सन्देशा भिजवाया कि मैं उसके आफिस में अभी हाजिर हो जाऊँ |
मैं बिना देर लगाए माथुर के आफिस में जा पहूँचा, "साहब जी आपने मुझे बुलाया है |"
"हाँ |"
जब मैनें माथुर के चेहरे पर नजर डाली तो वह सुबह के सूरज की तरह खिला हुआ दिखाई दिया |उसके चेहरे की प्रत्येक झुर्री मुस्कराती महसूस हो रही थी | ऐसा लगता था जैसे अपने मन की खुशी अन्दर रखने में वह नाकामयाब नजर आ रहा था | तभी तो वह आभा उसके चेहरे पर झलक आई थी | मुझे अन्देशा तो हो गया था कि जरूर माथुर के शैतानी दिमाग में कुछ् चल रहा है | फिर भी पूछना तो था ही, "साहब कहिए क्या काम है ?"
 "तुम्हे अस्थाई डयूटी पर जाना है", कहते कहते माथुर ने अपनी नजरें मेरे चेहरे पर ऐसे गड़ा दी जैसे उस पर अपनी बात का असर देखना चाहता हो |    
मैनें उसकी चालाकी को अपने पर भारी नहीं पड़ने दिया और सहज स्वभाव पूछा, "साहब कहाँ जाना है ?"
माथुर लगातार मेरे चेहरे के भावों को परखना चाह रहा था | परंतु मेरे मुख मंडल पर रत्ती भर भी शिकन न पा वह बोला, "राजा साँशी हवाई अड्डा अमृतसर |"
मैनें अपनी मायूसी भाँपने का कोई मौका नहीं दिया और पूछा, "साहब कब जाना है ?"
"कल तीन महिनों के लिए |" माथुर के चेहरे की मुस्कान बता रही थी कि मैं उसकी यह बात बर्दास्त नहीं पाऊँगा | इधर मैं भी उसके सामने किसी प्रकार भी कमजोर नहीं पड़ना चाहता था | उसे बड़ा आश्चर्य हुआ जब मैं निशचल भाव धन्यवाद कहकर बाहर आने के लिए मुड़ने लगा | वापिस मुड़ते मुड़ते मैनें माथुर के चेहरे के भाव पढ़े | जो थोड़ी देर पहले सुबह के उगते सूरज की तरह लालिमा लिए था वह काला पड़ रहा था | उसके चेहरे की मुस्कान तथा मन की खुशी दुख में परिवर्तित होती नजर आ रही थी | वास्तव में मुझे दुखी देखकर जो खुशी वह हासिल करना चाहता था वह खुशी पाने में माथुर असमर्थ रहा था | मैं जानता था कि माथुर के सामने कुछ भी सफाई देने से खुद को अपमानित करवाने के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा | क्योंकि माथुर हर हाल में 'अंधे के आगे रोए अपनी आँखें खोए' वाली कहावत ही चरितार्थ करके रहेगा | यही महसूस करते हुए कि मेरे साथ ऐसा ही कुछ होने वाला है मैं पहले से ही आपदा को झेलने को तैयार था | परंतु माथुर दूसरे के दुख में अपना सुख ढ़ूढ़ते-2 अचानक खुद दुखी होकर रह गया था
माथुर को नहीं पता था कि मैं देहली का ही मूल निवासी था | यहाँ मेरा अपना खुद का मकान था | मेरे बच्चे एयरफोर्स स्कूल सुब्रतोपार्क में पढ़ रहे थे | मेरे पीछे से मेरे परिवार को देखने वाले मेरे तीन बड़े भाईयों के भरे पूरे परिवार थे | इसलिए नि:संकोच मैनें अमृतसर जाना स्वीकार कर लिया था |
लगभग दो महीनो तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा | एक दिन पता चला कि माथुर अपनी पूरी यूनिट के साथ राजा सांसी हवाई अड्डे पर आ धमाका है | वह आते ही मेरे साथ फिर वैमनस्व वाला व्यवहार करने लगा था | और कोई चारा न देख मैंने भी यही सोचकर कि ‘ओखली में सर दिया तो धमाकों का क्या डर’ अपने कमांडिंग आफिसर को छकाने की सोच ली | अपनी पूरी यूनिट के आने से पहले मैं अमृतसर में, अस्थाई डयूटी पर होने की वजह से, अपने परिवार के साथ बाहर नहीं रह सकता था | परन्तु अब तो मेरी पूरी यूनिट यहां आ चुकी थी | अब मैं कानूनी तौर पर अपने परिवार के साथ रह सकता था | इसलिए मैनें अपने परिवार के साथ रहने की अर्जी डाल दी| मेरी अर्जी देखते ही माथुर बिलबिला उठा और उसका शीर्षक देखकर ही उसने उसे ना मंजूर कर दिया |
जब मैनें उसके द्वारा मेरी अर्जी को ना मंजूर करने का कारण पूछा तो उसका जवाब सुनकर मैं हैरान हो गया उसने कहा,मेरी मर्जी |   
मैनें तो पहले से सोच ही लिया था कि माथुर की तानाशाही का डटकर मुकाबला करूँगा इसलिए निडर होकर कहा, साहब गलत कामों में आपकी मर्जी नहीं चल सकती | मैं परिवार के साथ रहने वाले लोगों के कोटे में आता हूँ इसलिए अपने परिवार के साथ रहने का मुझे पूरा हक है |
माथुर चिङकर बोला, मुझे समझाने की जरूरत नहीं है | मैं सब जानता हूँ |
साहब अगर जानते हैं तो मेरी अर्जी ना मंजूर क्यों कर दी, मैंने पूछा |
माथुर खीजते हुए, अच्छा बाहर जाकर इंतज़ार करो |
जैसी मुझे उम्मीद थी वैसा ही हुआ | मुझे अपने परिवार के साथ पूरा भत्ता मिलते हुए बाहर रहने की मंजूरी मिल गयी | मुझे अपना परिवार लाने के लिए उसे दस दिनों की छुट्टियाँ भी प्रदान करनी पङी | मैंने अपने घर जाकर दस दिनों की छुट्टियाँ बिताई और बिना परिवार लिए वापिस आकर बाहर रहने लगा | दो तीन महीने तो मैंने बहुत आराम से ऐसे ही काट लिए परन्तु इसके बाद कुछ चुगलखोरों ने माथुर के पास खबर पहुँचा दी कि मैं अपने परिवार के साथ नहीं बल्कि अकेला रह रहा था |                  
माथुर तो इसी इंतज़ार में था की मेरे खिलाफ कुछ खबर मिले तो वह मुझे फंसाए | सूचना मिलते ही उसने मुझे बुला भेजा और मेरे सामने होते ही पूछा, सुना है तुम बिना परिवार के अकेले बाहर रह रहे हो ?
मैनें बिना किसी झिझक के जवाब देते हुए उलटा प्रश्न किया, साहब मैं अपने परिवार के साथ रह रहा हूँ | आपको किसने बताया की मैं अकेला रहता हूँ |
अगला प्रश्न पूछते हुए माथुर मेरे चहरे पर नजर गङाकर ऐसे देख रहा था जैसे वह मेरी झूठ पकङने को बहुत आतुर था, कहाँ रहते हो ?
पुरानी बजाजी मार्किट, अमृतसर |
पता |
 माथुर पूछे जा रहा था और मैं बिना किसी झिझक या रूकावट के बताए जा रहा था, एम.६५३, मार्फ़त श्री नानक चंद गुप्ता |जब माथुर ने भांप लिया की वह मुझ से कुछ नहीं उगलवा पाएगा तो कहा, ठीक है जाओ |   
माथुर को और रास्ता तो कोई सूझा नहीं उसने मेरे बताए पते पर जांच पङताल के लिए पुलिस भेज दी | मैनें जो पता लिखवाया था वह मेरे मामा जी के घर का पता था | उनका एक लड़का मेरी हम उम्र का था तथा उसके पास भी मेरी तरह एक बच्चा था | जांच पड़ताल करने गयी पुलिस का पेटा यह बता कर भर दिया गया कि उसकी पत्नी मेरी पत्नी है | माथुर ने पुलिस की रिपोर्ट देखकर अपना माथा पीट लिया | माथुर अब बेबस हो चुका था | कहावत है कि खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे उससे और तो कुछ बन नहीं पड़ा उसने मेरी पोस्टिंग सख्त एरिया समझे जाने वाले स्थान बागडोगरा में करवा दी |
बागडोगरा में जाना मेरे लिए कवि हरी ओम उपाध्याय की कविता एक बूँद में उस बूँद के सामान वरदान साबित हुआ | कवी ने वर्णन किया है कि एक वर्षा की बूँद जब आसमान से पृथ्वी की और चलती है तो उसके मन में हजारों विचार उठते हैं | नीचे आते आते वह सोचती रहती है कि न जाने उसके भाग्य में क्या बदा है, मैदान में गिरना लिखा है, आग में गिर कर जलना लिखा है, पहाड़ों की चोटी पर गिर कर बर्फ बनाना लिखा है या फिर समुन्द्र के अंदर समा जाना लिखा है | परन्तु ऐसा कुछ न होकर वह एक सीप के मुहं में गिरकर मोती बन जाती है | मेरे लिए भी बागडोगरा जाना एक वरदान साबित हुआ क्योंकि वहाँ जाकर मुझे मेरी मन की मुराद पूरी होने का रास्ता मिल गया था |
मैं दमे का मरीज तो था ही | इसका उल्लेख मेरे सर्विस रिकार्ड में भी था | क़ानून के अनुसार मेरी बदली बागडोगरा जैसे सख्त स्थान पर नहीं होनी चाहिए थी | परन्तु फ़ौज में एक यूनिट के कमांडिंग आफिसर की आज्ञा का पालन तो आँख बंद करके करना ही पड़ता है | उसके कहे की अवहेलना करने में किसी का साहस नहीं होता | इसीलिए कहा जाता है कि फौज में हमेशा यस सर कहने वाला ही फलता फूलता है | हांलाकि की इस बदली का मैं विरोध कर सकता था परन्तु न जाने क्यों मैनें ऐसा नहीं किया और इस बार मैं भी यस सर कहने वालों की जमात में शामिल होकर बागडोगरा पहुँच गया |
बागडोगरा दमें के मरीजों के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है | वहाँ पहुँचने के एक सप्ताह बाद ही मुझे दमे का दौरा पड़ गया और मैं बागडोगरा के मिलिट्री अस्पताल में भर्ती हो गया |
अस्पताल में डाक्टर ने पूछा, “ यह बीमारी आपको कब से है ?”
“साहब नौ साल से |”
“कहाँ शुरू हुई थी ?”
“बंगलौर में जब १९६५ में मैं दूसरी बार वहाँ गया था |”
“आपकी पोस्टिंग तो किसी गर्म प्रदेश में होनी चाहिए थी ?”
“साहब इसी बीमारी के कारण मुझे जोधपुर के गर्म इलाके में भेजा गया था |”
“फिर यहाँ कैसे आ गए ?”
मैनें बिना किसी झिझक के बताया, “साहब बुरा मत मानना, ऐसा एक आफिसर की मेरे साथ खुनश के कारण हुआ है |”
मेरी बात सुनकर आफिसर के चेहरे पर ऐसे भाव उभरे जैसे उसे मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था | तभी तो उसने कहा,  “फ़ौज में ऐसा भी होता है क्या ?”
इसके बाद मैंने अपनी पूरी कहानी उसे विस्तार से सुनाई | आफिसर ने बड़े ध्यान पूर्वक सब कुछ सुनने के बाद मेरे से सवाल किया,  “तो तुम आगे वायु सेना की नौकरी नहीं करना चाहते ?”
मैनें तपाक से कहा,  “हाँ श्री मान जी ऐसा ही है |”
आपकी क्वालिफिकेशन क्या है ? फिर जल्दी से अपनी भूल सुधारते हुए उसने खुद ही जवाब दे दिया, 
“अरे हाँ अभी तो आपने बताया था कि आपने एम.ए.की परीक्षा दी थी | आपके परिणाम का क्या रहा ?”
“साहब मैं परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया हूँ |”
 आफिसर थोड़ा सोचकर बोला, “अगर आपने स्नातकोत्तर की परिक्षा पास कर ली है तो नौकरी से बाहर जाने के आपके रास्ते खुल गए हैं |”
आफिसर की बात सुनकर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा | मैनें बड़े उत्साह और उतावलापन दर्शाते हुए पूछा,  “कैसे साहब |”
“आपने पढ़ा नहीं अभी एक नोटिस निकला था | उसमें लिखा था,  “A soldier who has the qualification required for a direct commission but is medically permanent unfit for the commission can seek discharge from service.” अर्थात जिस सैनिक की क्वालिफिकेशन इतनी है कि वह फ़ौज में कमीशन आफिसर की परिक्षा में बैठ सकता है परन्तु स्वास्थ्य के आधार पर यदि  वह ऐसा नहीं कर सकता तो वह नौकरी छोड़ सकता है |
आफिसर की पूरी बात ध्यान से सुनने के बाद मैं मायूस होकर बोला,  “परन्तु साहब मैं.......?”
मेरी बात समझकर की मैं क्या कहना चाहता था उसने बीच में ही मुझे टोकते हुए कहा,  “उसकी चिंता मत करो |”
मेरा असमंजस बरकरार था | मैंने कहा,  “फिर साहब कैसे होगा ?”
“शाम को मेरे आफिस में आकर मिलना”, कहकर वह चला गया |
डाक्टर के जाने के बाद मैं इसी उधेड़ बुन में लग गया कि न जाने यह कैसे होगा ? क्योंकि उन दिनों टेक्नीकल ट्रेड वाले सैनिकों को सर्विस से बाहर जाने पर प्रतिबन्ध था | बहुत से सैनिक इसी प्रतिबन्ध के चलते मजबूरी में नौकरी कर रहे थे | फिर भी यही सोचकर की एक डाक्टर की बात में कुछ तो दम होगा मैं शाम होने की इंतज़ार करने लगा | शाम ढलते ही मैं डाक्टर के कमरे में चला गया | मुझे देखकर वह सीधा अपने मुद्दे पर बोला,  “मैं तुम्हें मेडिकली कैट सी’ बना देता हूँ | इससे तुम्हारी सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा |
मुझे डर लग रहा था कि कहीं कैट ‘सी’ बनने से मैं बाहर जाकर भी सर्विस करने के लिए अयोग्य घोषित न कर दिया जाऊं | मेरी इस उलझन का निवारण करने के लिए डाक्टर ने मुझे समझाया | यह कैट ‘सी’ का ठप्पा केवल फ़ौज में चलता है | सिविल सर्विस में इसका कोई लेना देना नहीं है | डाक्टर के आशवासन देने पर मैनें कैट ‘सी’ बनना स्वीकार कर लिया और उसी के आधार पर सर्विस से बाहर जाने की अर्जी लगा दी | वास्तव में ही मेरी क्वालिफिकेशन तथा कैट ‘सी’ का ठप्पा मेरी नौकरी छुडवाने में बहुत कारगर सिद्ध हुए | मेरी अर्जी के आधार पर पहले तो मेरी बदली बागडोगरा से कानपुर कर दी गयी | फिर कुछ ही दिनों में मेरा नौकरी से इस्तीफा भी मंजूर हो गया | और १५ अगस्त १९७९ को, स्वतंत्रता दिवस के दिन मैं भी फ़ौज से स्वतन्त्र होकर, अपने घर आ गया |
एक पत्र लिख कर मैनें फ़ौजी हुक्मरान माथुर को यह जता दिया कि जो कुछ होना है वह ऊपर वाले की दया द्रष्टि तथा जिसके साथ हो रहा है उसकी नेक नीयत पर निर्भर होता है | किसी मनुष्य का अहंकार एवम ईर्षा किसी दूसरे के विनाश का कारण नहीं बन सकते |