Tuesday, October 20, 2020

लघु कहानी (टूटी चप्पल)

 टूटी चप्पल

जून का महीना था | लगभग बारह बजे का समय था जब सूरज सिर पर होता है | चिलचिलाती धूप पड़ रही थी | लू का प्रकोप था | ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सारा वातावरण आग  से घिरा हो | सड़कों पर मृग तृष्णा की लहरें सी बन रही थी | ठेली वाले, रिक्सा वाले, पानी बेचने वाले, तथा सड़कों के किनारे बैठकर सामान बेचने वाले जहाँ तहाँ पेड़ों की छाया को ढ़ूँढ़कर उनके नीचे जमघट लगाने पर मजबूर थे | 

श्याम अपनी पानी की रेहड़ी कलेज के गेट के पास लगाता था | वैसे तो दोपहर के वक्त उसके उपर पेड़ की छाँव रहती थी परंतु उगते सूरज तथा डूबते सूरज के समय उसकी रेहड़ी धूप से नहा जाया करती थी | उससे बचने के लिए श्याम ने अपने पास एक छतरी भी रखी हुई थी | 

लम्बी छुट्टियों के बाद आज कालेज खुले हुए तीन दिन ही बीते थे | नव जवान लड़के लड़कियाँ नए नए रंग बिरंगे परिधानों में कालेज की रौनक बढ़ा रहे थे | अधिअकतर विद्यार्थी चार पाँच के गुटों में बंटे नजर आ रहे थे | कुछ के चेहरों पर कालेज में पहली बार आने की खुशी झलकती थी तो कुछ अपने नए साथियों का साथ पाने की लालसा लिए चक्कर काट रहे थे | ऐसा लगता था जैसे नव जवानों के जोश के सामने चिलचिलाती गर्मी की लू तथा इतनी भयंकर उष्णता भी अपने को शर्मिन्दा महसूस कर रही थी | सभी ऐसे घूम रहे थे जैसे हताश करने वाली गर्मी न होकर वह बसंत ऋतु हो | हाँ, नव युवतियों पर गम्री के प्रकोप की झलक देखने को मिल जाती थी | 

शवेता ने इस कालेज में पाँच वर्ष बिताए थे | आज वह अपनी स्नातकोत्तर की डिग्री लेने कालेज आई थी | शवेता जब तक कालेज में पढ़ी उसने अपने नाम के स्वरूप सफेद कपड़े पहनना ही पसन्द किया | उसके दूसरे साथी रंग बिरंगे, चमकीले तथा भड़कीले परिधान पहन कर आते थे परंतु शवेता हमेशा शवेता ही बनी रही | वैसे शवेताके उपर सफेद रंग का पहनावा फबता भी खूब था | आज भी वह सफेद कुर्ता, सफेद चुड़ीदार सलवार,सफेद चुनरी तथा सफेद चप्पल पहनकर आई थी |

हालाँकि शवेता ने स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल कर ली थी परंतु कद काठी से वह ऐसी लगती थी जैसे कोई नई लड़की कालेज में दाखिला लेने आई हो | डिग्री लेकर वह वापिस अपने घर जाना चाहती थी | कालेज के गेट तथा कालेज की मुख्य इमारत के बीच लगभग आधा किलोमीटर का फासला था | शवेता ने गर्मी की तपन से बचने के लिए चुनरी से अपना सिर तथा मुहँ ढ़क लिया | आँखों पर धूप का चश्मा चढ़ाया तथा हिम्मत करके कालेज के गेट की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए | अभी उसने आधा रास्ता ही पार किया होगा कि उसकी एक चप्पल की तनी टूट गई |          

तपती दुपहरी,लू का प्रकोप, जमीन भी खुद सूरज की तरह आग का गोला बनी हुई थी | शवेता ने बेबस नजरों से चारों और देखा परंतु ऐसा कोई दिखाई नहीं दिया जो उसकी सहायता कर सकता हो | मरती क्या न करती साहस करके शवेता ने उन टूटी चप्पलों के सहारे ही उस आधा किलोमीटर जलते रेगिस्तान को पार करने की ठान ली | वह मुश्किल से दस कदम ही आगे बढ़ी होगी कि उसकी लचक लचक कर चलने वाली चाल देखकर मनचले युवकों का एक झुंड आया और फबती 'जरा धीरे रे चलो मेरी बाँकी हिरनियाँ ' कसता तथा हँसता हुआ आगे निकल गया | 

अगर किसी को पहले से ही यह ज्ञान हो कि अगले पल उसके साथ क्या व्यवहार होने वाला है और अगर उसके साथ वास्तव में ही वह घटना हो जाती है तो उस व्यक्ति विशेष को इतना दुख या महसूस नहीं होता क्योंकि वह तो उसे झेलने के लिए तैयार ही रहता है | शवेता को भी उन नौजवानों के व्यवहार से अधिक दुख नहीं हुआ क्योंकि वह जानती थी कि कालेज में पढ़ने वाले अधिकतर नौजवानों का एक जवान लड़की के प्रति कैसा रवैया रहता है |   

अचानक शवेता की नजर अपनी सलवार्,जम्फर तथा कंधे पर लटकती हुई चुनरी के पल्लू पर पड़ी | शायद उसकी टूटी चप्पल के कारण उसके चलने से जमीन की मिट्टी ने उछल उछल कर उसके सफेद कपड़ों पर दाग बना दिए थे | वह झुककर अपने सफेद कपड़ों पर लगे इन मिट्टी के दागों को झाड़कर साफ करने का प्रयास कर रही थी कि पास से गुजरते लड़कों ने एक और फबती 'हाय लागा चुनरी में दाग मिटाऊँ कैसे' यही नहीं एक  तो उसकी टूटी चप्पल देखकर उसकी सहायता करने के बजाय हँसता हुआ और कहता हुआ कि 'अब घर जाऊँ कैसे' आगे निकल गया | इसी तरह की न जाने कितनी हृदय बेधक  फबतियाँ शवेता को सुननी पड़ रही थी | 

श्याम ने दूर से शवेता की बेबसी को भाँप लिया | वह विद्युत वेग से अपनी सीट से उठा और अपना छाता लेकर शवेता की और दौड़ पड़ा | पलक झपकते ही वह शवेता के सामने जाकर खड़ा हो गया | शयाम ने अपनी पहनी हुई चप्पलों को उतार कर शवेता के आगे रखा तथा छाता खोलकर उसके उपर फैलाते हुए बड़े ही मार्मिक श्ब्दों में, जैसे उसका दिल शवेता की व्यथा को देखकर बहुत दुखी था, अपनी चप्पलों की तरफ देखकर बोला, "दीदी आप इन्हें पहन लो |"

शवेता ने पहले अपने सामने रखी श्याम की चप्पलों की तरफ देखा और फिर उसके नगें पैरों को निहारा | तपती जमीन के कारण श्याम कभी अपने पंजों पर खड़ा हो रहा था तो कभी अपनी एडियों पर खड़ा हो रहा था | उसकी हालत देखकर शवेता बोली,"आप कैसे जाओगे ?"

"आप मेरी चिंता न करें |"


"अरे जो मेरी इतनी चिंता कर रहा है भला मैं उसकी चिंता क्यों न करूँ ?"

"दीदी, गरीब के शरीर को हर प्रकार के अंगारे सहन करने की आदत हो जाती है |"

"फिर भी.....|"

"दीदी जल्दी करो, यह छाता पकड़ो, मेरी चप्पल पहनो और अपनी चप्पलें मुझे दो |"

शवेता को न जाने क्या हुआ कि वह श्याम की हर बात मानती रही और फिर पलक झपकते ही श्याम शवेता की टूटी चप्पलें हाथ में लिए नंगे पैरों अपनी पानी की रेहड़ी की तरफ दौड़ पड़ा |

शवेता चलते चलते सोचने लगी कि आजकल के पढ़े लिखे नौजवानों तथा इस अनपढ़ लड़के के व्यवहार,सोच एवं जज्बातों के बीच कितना बड़ा अंतर है |   

शवेता ने मनो विज्ञान की डिग्री में स्वर्ण पदक हासिल किया था | वैसे भी वह इतनी गुणी थी कि अब उसने आई.ए.एस्. की परीक्षा भी पास कर ली थी तथा इसी महीने शवेता को अरूणाचल में जाकर डिप्टी कलेक्टर का पद भार सम्भालना था | शवेता आज इसी वजह से कालेज से अपनी स्नातकोत्तर की डिग्री लेने आई थी | क्योंकि उसकी डिग्री देखकर ही उसे उसकी नौकरी का पदभार सम्भालने का फरमान दिया जा सकता था | कालेज के गेट पर पहुँचते पहुँचते शवेता ने अपने मन में एक दृड़ निशचय कर लिया था | 

शवेता को देखकर श्याम बोला,"दीदी मैं आपकी टूटी चप्पल अभी सिलवा कर ला देता हूँ | आप थोड़ी देर यहीं छाँव में रूको |" 

"नहीं, श्याम इसकी जरूरत नहीं है | ये पुरानी हो चुकी हैं | वैसे मैं नई चप्पलें खरीदने की सोच ही रही थी |"

"दीदी, अभी तो ये भी नई......|"

शवेता ने श्याम को बीच में ही टोककर पूछा," तुम कितने पढ़े लिखे हो ?" 

"दीदी, इस वर्ष दसवीं की परीक्षा दी है | परिणाम घोषित होने ही वाले हैं |" 

"कैसे पढ़ते हो ?"

"जब कालेज बन्द हो जाता है तो उसके बाद ही समय मिल पाता है |"

"कहाँ बैठकर पढ़ते हो ?"

"यहीं बैठकर और रात हो जाने पर इसी बिजली के खम्बे के नीचे बैठकर |"

"क्यों यहाँ क्यों ? घर में पढने की सहुलियत नहीं है क्या ?"

" घर में बिजली का कनेक्शन नहीं है |"

"कहाँ तक पढ़ने की आशा रखते हो ?"

"जहाँ तक मेरी कमाई मेरा साथ देगी |"

" कमाई के पीछे अपनी तमन्नाओं का गला घोट दोगे क्या ?"

""दीदी, मजबूरी सब कुछ करा देती है |"

"अगर तुम्हें कोई मजबूर न होने दे तब ?"

आज तक न जाने कितने ही लोग श्याम को ऐसा आशवासन दे चुके थे परन्तु किसी  ने भी उसे पूरा नहीं किया था इसलिए अपने मन के संशय को उजागर करते हुए श्याम ने कहा ," दीदी मैं आपकी बातों का आशय बखूबी समझ सकता हूँ परंतु  माफ़ करना ऐसा आशवासन मुझे बहुत बार मिल चुका है | अंजाम वही निकला है 'ढ़ाक के तीन पात ' | अपनी आँखों से औझल होते ही मैं उनके मन से भी औझल होकर रह जाता हूँ |"

शवेता ने बड़ी  द्रड़ता से जवाब दिया ," परन्तु मेरा दिया हुआ आशवासन मिथ्या नहीं होगा |"

जैसे दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता है श्याम भी इतनी जल्दी शवेता की बातों पर विश्वास करने को राजी नहीं था अत पूछा ," वैसे दीदी मेरे किस व्यवहार ने आपको इतना प्रभावित कर दिया है कि आप इतनी बड़ी जिम्मेवारी का बोझ उठाने को उतारू हो गयी हैं |"

शवेता ने बड़ी शालीनता से धीरे धीरे कहा ,"श्याम इसके बहुत से कारण हैं परन्तु इनमें सबसे अहम मेरा अपना स्वार्थ है |"

श्याम आश्चर्य से शवेताकी और देखकर,"आपका अपना स्वार्थ ! "

"हाँ मेरा अपना स्वार्थ |"

" क्या मैं जान सकता हूँ कि वह क्या है दीदी"

शवेता ने बड़े ही मार्मिक होते हुए बताया," मुझसे राखी बंधवाने वाला कोई नहीं है |" और कहते कहते उसका गला भर आया |

श्याम को अभी भी  जैसे शवेता के कहने पर विश्वास नहीं हो रहा हो उसने जानना चाहा ," परन्तु मुझ जैसे गरीब ,काले कलूटे तथा एक अनजान बच्चे के बारे में आपने इतना बड़ा निर्णय लेने का कैसे सोच लिया |"

शवेता ने श्याम को समझाते हुए कहना शुरू किया | देखो श्याम तुम मेरे लिए अनजान नहीं हो | मैंने इस कालेज में पांच वर्ष गुजारे हैं | हालांकि मैं तुम्हारी इस पानी की रेहड़ी पर मुश्किल से ही कभी आई हूँगी परन्तु आते जाते तो तुम पर निगाह पड़ ही जाती थी | मैनें कभी भी तुम्हें समय को बेकार गवांते नहीं पाया था | तुम किसी न किसी काम में तल्लीनता से उलझे हुए ही दिखाई देते थे |इसमें तुम्हारा पढ़ना भी दिखाई देता था | काम के प्रति तुम्हारी लग्न को भांप कर मेरे मन में तुम्हारे प्रति अनजानी हमदर्दी बढ़ती गयी | और आज तो तुम्हारी हमदर्दी, इंसानियत तथा सेवा भाव देखकर मैनें प्रत्यक्ष ही महसूस कर लिया है |      

अब बात आती है काले कलूटे की | तो मनुष्य की चमड़ी का रंग उसके गुणों को नहीं ढांप सकता | भगवान राम , कृष्ण  तथा शिव शंकर भी तो काले थे | हम तुम तो उनकी तुलना में कहीं नहीं आते | इसको समझाने के लिए मैं तुम्हें एक गुब्बारे बेचने वाले का किस्सा सुनाती हूँ |  

एक गुब्बारे बेचने वाला रंग बिरंगे गुब्बारे बेच रहा था | उसके पास हरा,लाल,नीला, सफ़ेद, बैंगनी  इत्यादि रंगों के गुब्बारे थे परन्तु उनमें काले रंग का कोई गुब्बारा नहीं था | उसके अधिकतर गुब्बारे आकाश की और उड़ने की कोशिश कर रहे थे परन्तु उनमें से कुछ ऐसे भी थे जो ऊपर उड़ने की बजाय नीचे की तरफ लटके हुए थे | उनमें कोई भी काले रंग का गुब्बारा न देख एक बच्चे ने गुब्बारे वाले से जिज्ञासावश पूछा," क्या आपके पास काले रंग का गुबारा नहीं है ?"

"है बेटा काले रंग का गुब्बारा भी है |”

"तो आपने उसको यहाँ क्यों नहीं लटकाया | क्या वह इन रंग बिरंगे गुब्बारों की तरह ऊपर उड़ेगा नहीं  ?"

गुब्बारे वाले ने बच्चे को समझाते हुए कहा,"बेटा, गुब्बारे को ऊपर उड़ाने में उसके रंग का कोई महत्त्व नहीं होता | महत्त्व तो उस वस्तु का है जो गुबारे के अन्दर विद्यमान है | गुब्बारे के अन्दर भरी वस्तु ही उस गुब्बारे को आसमान की ऊंचाईयों छूने में सहायता करती है |"  

शवेता ने आगे कहा,  मैंने मनोविज्ञान पढ़ा है | इसलिए मैनें तुम्हारे अन्दर के उन गुणों को परख लिया है जो एक मनुष्य को गुब्बारे की तरह  शिखर तक पहुंचाने में सहायता करते हैं |

 शायद तुम नहीं जानते कि एक व्यक्ति के आचरण को तीन चीजें प्रभावित करती हैं | 

१. व्यक्ति के आस पास का माहौल जहाँ वह अपने जीवन का अधिक समय व्यतीत करता है |

२. उसकी सगत कि वह कैसे लोगों के साथ रहता है |

३. उसकी शिक्षा प्राप्त करने की लग्न |

मैनें महसूस किया है कि ये तीनों स्थिति तुम्हारे पास हैं जिनके कारण तुम उन्नति के पथ पर अग्रसर होने में सक्षम हो सकते हो | अगर थोड़ी सी आर्थिक सहायता के साथ साथ तुम्हें मार्ग प्रशस्त कराने वाला कोई मिल जाए |

तुम तो किसी के आश्रित नहीं हो परन्तु मैं तो अभी तक अपनी मम्मी जी पर आश्रित थी | अत: चाहकर भी मैं किसी की आर्थिक सहायता नहीं कर सकती थी | परन्तु अब मुझे एक अच्छी नौकरी मिल रही है | अब मैं किसी की आर्थिक सहायता करने में समर्थ हो जाऊँगी | 

तुमने अपनी नेक नियति, मृदुल भाषा, निस्वार्थ भाव, एवं सज्जनता के व्यवहार से मेरा मन जीत लिया है | मैनें यह भी जान लिया है कि तुम एक सर्वगुण संपन्न व्यक्ति हो | तुमने मुझे दीदी कहा है और एक आर्थिक स्थिति से मजबूत होने जा रही बहन का भाई गरीब नहीं हो सकता |

श्याम जो मूक द्रष्टि से अभी तक  सुनता रहा था शवेता द्वारा अपने लिए भाई का शब्द सुनकर भाव विभोर हो गया | उसकी आँखों से खुशी की अश्रुधारा बह निकली और आगे बढकर श्याम ने अपनी बहन के चरण छू लिए | शवेता ने श्याम को कंधों से पकड़कर ऊपर उठाया और गले लगाकर उसके सिर पर ममतामयी हाथ फेरने लगी | 

कालिज के गेट के बाहर पेड़ों की छाँव में  आराम कर रहे ठेले वाले,रिक्शा वाले इत्यादि तथा  कालेज के सभी विद्यार्थी जो वहां खड़े थे उनका मिलन देखकर आशचर्य चकित थे | वे लड़के जिन्होंने शवेता पर फब्तियाँ कसी थी अपने ऊपर ग्लानी महसूस करने लगे थे | जब शवेता ने जमा भीड़ को देखकर अपनी नजरें चारों और घुमाई तो उन लड़कों ने अपनी नजरें झुका ली |  उनकी जबान पर ताला पड़ गया था तथा सिर पर घड़ों पानी | अब  वे अपनी हरकत से जो उन्होंने शवेता के साथ की थी बहुत शर्मिन्दा जान पड़ते थे | 

इसके बाद शवेता ने श्याम को कुछ हिदायतें दी | उसका पता लिया और सामने की दुकान से नई चप्पलें पहन कर अपने घर की और चल दी | शवेता ने अपनी टूटी चप्पलों के बारे में कुछ नहीं पूछा तथा न ही श्याम ने इस बारे में उसे याद दिलाना उचित समझा | 

जैसे श्याम के व्यवहार ने शवेता के दिल में जगह बना ली थी उसी प्रकार शवेता के वचनों ने श्याम को बहुत उत्साहित कर दिया था | श्याम ने शवेता को अपने लिए एक देवी का प्रतिरूप समझते हुए, जैसे भरत ने अपने बड़े भाई श्री राम चन्द्र जी को अपना ईष्ट देवता समझते हुए उनकी खडाऊं को अपने सिर पर धारण कर लिया था उसी प्रकार, श्याम ने शवेता की टूटी चप्पलों को अपने सिर पर धारण कर लिया |       

 यही नहीं जिस प्रकार से  भरत ने अयोध्या जाकर श्री राम चन्द्र जी की खडाऊओं को सिंहासन पर विराजमान करके उनकी पूजा की थी उसी प्रकार श्याम ने भी शवेता की टूटी चप्पलों को अपने घर के एक आले में रखकर उनके सामने नित नेम अपना शीश झुकाने लगा तथा अपनी उन्नति की दुआ माँगने लगा |  

साथ साथ जैसे अरूणाचल में रहते हुए श्याम की बहन अपने  वचन को नहीं भूली तथा श्याम को उसकी जरूरतों के अनुसार आर्थिक सहायता भेजती रही | वैसे ही श्याम भी शवेता की आर्थिक सहायता के प्रति वफादार रहा और अपना फर्ज पूरा करते हुए देखते ही देखते मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने में सफल हो गया | 

इन सात साल के लम्बे अरसे के दौरान वैसे तो शवेता एवं श्याम के बीच पत्र व्यवहार होते रहे थे परन्तु आपस में मिलना न हो सका था | श्याम के कालिज में दिक्षांत समारोह होने जा रहा था | इस वर्ष पास हुए विद्यार्थियों को डिग्रियां प्रदान की जानी थी | कालेज के उन सभी पुराने विद्यार्थियों को, जिन्होंने पिछले दस सालों के दौरान इस कालेज से डिग्री हासिल की थी, निमंत्रण पत्र भेजे गए थे | हालांकि शवेता भी कालिज की तरफ से निमंत्रित थी परन्तु श्याम ने भी अपनी तरफ से शवेता को एक मार्मिक पत्र लिखाकर उसे दिक्षांत समारोह में उपस्थित होने का आग्रह कियाथा|

निश्चित समय पर दिक्षांत समारोह का शुभारम्भ हो गया था | एक एक करके विद्यार्थियों के नाम पुकारे जा रहे थे | उन्हें डिग्रियाँ प्रदान की जा रही थी | श्याम बार बार मुड़ मुड़कर  हाल के दरवाजे की और देख रहा था | वह अपनी दीदी शवेता का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था | डिग्री हासिल करने के लिए उसका नाम कभी भी पुकारा जा सकता था | परन्तु उसकी देवी ने अभी तक दर्शन नहीं दिए थे | उसका दिल रोने को कर रहा था | अचानक  उद्यघोषणा हुई, " श्याम सुन्दर गुप्ता, स्वर्ण पदक विजेता |"

पूरा होल तालियों  की गड़गड़ाहट  से गूँज उठा परन्तु स्वर्ण विजेता होने के बावजूद श्याम अपना नाम सुनकर अपने स्थान से ऐसे उठा जैसे उसे अतिरिक्त नंबर देकर डिग्री लेन योग्य बनाया गया हो | डिग्री प्राप्त करने का हर्षोल्लास उसके चहरे तथा शरीर से नदारद था | उसकी गर्दन झुकी हुई थी | कदम ऐसे पड़ रहे थे जैसे  उसके शरीर में जान ही न थी |  ऐसा जान पड़ता था जैसे वह बहुत दिनों से बीमार चल रहा था तथा शरीर  में शक्ति  न के बराबर होने के कारण अब गिरा की तब गिरा | 

अचानक श्याम के पीछे एक शोर उठा तथा घोषणा हुई की हमारे बीच अरूणाचल की कलेक्टर कुमारी शवेता गुप्ता, जो हमारे ही कालिज की भूतपूर्व विद्यार्थी रही हैं, हमारे दीक्षांत समारोह की शोभा बढाने के लिए अभी अभी उपस्थित हुई हैं | कालिज की तरफ से उनका हार्दिक अभिनन्दन है | पूरा होल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो उठा | जैसे वर्षा के आने से सूखे पेड़ पौधों यहाँ तक की हर प्राणी में निखार आ जाता है और प्राणी का मन हर्षोल्लास से भरकर पुलकित हो उठाता है उसी प्रकार शवेता के आ जाने से श्याम जो अभी तक निर्जीव सा जान पड़ रहा था अचानक उसमें चेतना जागृत हो गई | वह पलक झपकते ही मंच पर जा पहुँचा | कालेज के गेट पर पानी लगाने वाले श्याम को मंच पर देखकर सभी लड़के हैरत में आ गए | किसी को भी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था | बहुतसे लड़कों ने तो अपने को चिऊटी काटकर विश्वास करना पडा की वे कोइ सपना नहीं देख  रहे हैं बल्कि उनके सामने एक हकीकत थी | उनकी समझ से बाहर की बात थी की कैसे एक रेहड़ी पर पानी बेचने वाला गरीब लड़का स्नातकोत्तर की डिग्री वह भी स्वर्ण पदक लेकर हासिल कर सकता है | सभी इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे कि कालिज के उपकुलपति ने अपना हाथ श्याम से मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया | तत्पशचात उपकुलपति ने श्याम की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए उसका स्वर्ण पदक तथा स्नातकोत्तर की डिग्री उसकी तरफ बढ़ाई | जब श्याम ने उनको ग्रहण करने के लिए कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई तो होल में उपस्थित सभी व्यक्तियों के अचरज का पारावार न रहा | इससे भी ज्यादा आशचर्य तो उन्हें तब हुआ जब श्याम ने आगे बढ़कर यह घोषणा की कि ' मैं समझता हूँ कि इस स्वर्ण पदक एवं डिग्री को प्राप्त करने का असली हकदार मैं नहीं बल्कि मेरे लिए देवी शरीक मेरी दीदी शवेता गुप्ता हैं' |       

 श्याम के शवेता  गुप्ता के नाम लेने से सारे होल में फुसफुसाहट फ़ैल गयी तथा उनकी  निगाहें शवेता के लिए  पूरे होल के चप्पे चप्पे को खोजती हुई सी नजर आने लगी | किसी को यह रती भर भी गुमान न था कि जिस शवेता गुप्ता के  आने का ऐलान अभी कुछ देर पहले हुआ था श्याम ने उसी का सम्बोधन किया था | और लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब वास्तव में ही यह घोषणा हुई कि शवेता गुप्ता, कलेक्टर अरूणाचल प्रदेश, कृप्या मंच पर आ जाएं | शवेता के अपनी सीट से उठते ही होल में उपस्थित सभी व्यक्तियों की निगाहें शवेता का पीछा करने लगी तथा पूरा हाल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो गया | 

कालेज के उपकुलपति ने जैसे ही श्याम द्वारा अर्जित स्वर्ण पदक तथा स्नातकोत्तर  की डिग्री शवेता के हाथों में थमाई वैसे ही श्याम ने शवेता की पुरानी चप्पलों को अपने सिर पर धारण करते हुए कहा," मेरा असली स्थान यही है |"

फिर श्याम ने अपनी पूरी कहानी सुनाई कि कैसे शवेता के कारण वह आज इस मुकाम पर पहुँचने में सफल हुआ है | श्याम के  पूरी दास्तान बयान करने के बाद पूरा होल शवेता की जय जयकार से भर गया |                      

 शवेता ने अपनी टूटी चप्पलों को, जिनको श्याम ने अपने सिर पर धारण कर लिया था, झपट कर नीचे फेंक दिया तथा श्याम को अपने गले से लगाते हुए भाव विभोर हो उठी | ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे श्री राम चन्द्र जी के अयोध्या लौटने पर ही सिंहासन से उनकी खडाऊं हटाई गयी थी उसी प्रकार आज श्याम की देवी स्वरूप शवेता के आने पर श्याम को शवेता की टूटी चप्पलों को तिलांजलि देनी पड़ी | जब श्याम  ने झुककर शवेता के चरण छूने चाहे तो शवेता ने  एक झटके से उसकी कलाई पकड़ी और राखी बाँध दी| 

इसके बाद शवेता श्याम के हाथ को पकड़ कर उसे अपने साथ ले चली | श्याम भी गाय के साथ एक अबोध बछड़े की तरह, बिना किसी हुज्जत के, शवेता के साथ खिंचा चला गया | शवेता एवं श्याम को अपने पीछे होल में तालियों की गड़गड़ाहट तथा उनकी गूँज दूर तक सुनाई देती रही |     


Sunday, October 18, 2020

लघु कहानी (श्रवण बाप)

 श्रवण बाप

गुडगावां, हरियाणा प्रदेश का दिल्ली से सटा इलाका, किसानों के आगमन के साथ साथ खरीदारों की भारी भीड़ से पूरे दिन गुले गुलजार रहता था | सुबह भौर से ही आसपास के गावों से गुडगावां अनाज मंडी की और जाती बैल गाड़ियों के पहियों की गड़गडाहट, बैलों के गले में बंधी घंटियों की टनटनाहट तथा किसानों की हांकते हुए बैलों की गुनगुनाहट मन को मोहित कर लेती थी | 

गुडगावां के आसपास के गाँव से किसान अपना अनाज, फल तथा सब्जियां लाकर गाड़ियों को खाली करके, मंडी के बीच लम्बे चौड़े फर्श पर, ढेरियों में तबदील कर देते थे | जब तक बाजार के आढती अपनी पूजा अर्चना से निवृत हो अपनी अपनी गद्दियों पर विराजमान नहीं हो जाते थे तब तक किसान लोग अपने बैलों को चारा पानी देकर खुद भी सुस्ता लेते थे | इतने में ग्राहकों का आवागमन शुरू हो जाता था | 

सामान की ढेरियों की बोली लगती एक रूपया, एक रूपया...पांच रूपये, पांच रूपये......दस रूपये और जिसकी सबसे ज्यादा बोली होती माल उसका हो जाता | इसके बाद तराजुओं से माल की तुलाई शुरू हो जाती | यह अधिकतर पांच सेर की होती थी जिसे धड़ी कहते थे | याद रखने के लिए तौलने वाला, एकम, एकम..दोकम, दोकम..तीनकम, तीनकम....इत्यादी गुनगुनाता रहता था | तुलाई के बाद जब तक ढुलाई होती तब आढती लेने देने का हिसाब किताब करते और दोपहर तक मंडी का लम्बा चौड़ा मैदान साफ़ हो जाता |

इसी मंडी में रूप नारायण नाम का एक प्रसिद्द आड़ती था | उसके तीन पुत्र थे राम प्रसाद, शिव प्रसाद और गोपाल प्रसाद | तीनों पुत्र अपने व्यवहार में भी अपने नाम के अनुरूप ही थे | राम प्रसाद राम चन्द्र जी की तरह पक्का पितृ भक्त था, शिव प्रसाद शिव जी की तरह बिल्कुल भोला भंडारी था तो गोपाल प्रसाद श्री कृष्ण जी की तरह बहुत चंचल प्रवर्ति का लड़का था | 

रूप नारायण के ससुर मुंशी राम का सदर बाजार में एक जनरल स्टोर था | उसका काम बहुत अच्छा चल रहा था | उसके पास सुख सुविधा का हर सामान मौजूद था परन्तु उसके कोई संतान नहीं थी जो उनके बाद उनका कारोबार संभाल सकता | अपनी इकलौती बेटी की शादी करने के बाद अकेलेपन का एहसास करते करते मुंशी राम स्वर्ग सिधार गए | मुंशी राम की पत्नी अनारो बहुत दृड़ निश्चय एवम निडर महिला थी | अपने पति की मृत्यु के बाद उसने उसका कारोबार बिखरने नहीं दिया और बहुत अच्छे ढंग से चलाया | 

धीरे धीरे अनारो की बढ़ती उम्र उस पर हावी होने लगी | वह अब इतनी मेहनत करने में असमर्थ होती जा रही थी जितनी एक जनरल स्टोर को सुचारू रूप से चलाने के लिए चाहिए थी | इसलिए अनारो ने अपने बुढापे का सहारा ढूँढने की कवायद शुरू कर दी | अनारो की खोज अपने धेवते अर्थात अपनी लड़की के मंझले लड़के शिव प्रसाद पर जाकर खतम हो गई | अनारो ने शिव प्रसाद को गोद ले लिया | 

अनारो के पति को गुजरे हुए २० वर्ष हो चुके थे | वह तभी से अकेली रह रही थी | जनरल स्टोर से उसे फुर्सत नहीं मिलती थी इसलिए घर की देखभाल न होते देख उसने अपना आशियाना बेच दिया था तथा जनरल स्टोर के एक हिस्से में ही अपने खाने-पीने, रहने-सहने, नहाने धोने तथा सोने का प्रबंध कर लिया था | अब उसका जनरल स्टोर ही उसका संसार रह गया था | 

शिव प्रसाद अपनी नानी जी के काम में सहारा तो बन गया परन्तु रहने की उचित व्यवस्था न होने के कारण वह गुडगावां और सदर बाजार के बीच लुढकता पत्थर बन गया था क्योंकि कुंवारा होने की वजह से उसने अपने लिए सदर में किराए का मकान लेना उचित नहीं समझा था | शिव प्रसाद की परेशानियों को भांपकर उसके घर वालों ने एक सुयोग्य कन्या देखकर जल्दी ही उसकी शादी कर दी | शादी के बाद शिव प्रसाद अपनी पत्नी सहित सदर बाजार में एक किराए के मकान में रहने लगा | 

अब शिव प्रसाद को अपना काम बढाने के लिए काफी समय मिलने लगा | वह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा | समय के साथ उसके घर दो रूपों में लक्ष्मी बढ़ने लगी | एक तरफ जहां उसके पास धन लक्ष्मी बढ़ रही थी वहीं उसके परिवार में लड़की रूपी लक्ष्मी की भी बढोतरी हो रही थी | मतलब यह कि शिव प्रसाद ५ वर्ष के अंदर ही तीन देवियों का पिता बन चुका था | शिव प्रसाद और उसकी पत्नी ने हर प्रकार की मन्नतें माँगी, डाक्टरों को दिखाया, नामी ग्रामी दाईयों के बताने के अनुसार आचरण किया परन्तु ईश्वर के आगे किसी की न चली | अनारो ने भी हताश होकर अपने भाग्य को कोसना शुरू कर दिया कि न तो उसने खुद अपने लड़के का मुंह देखा न अब अपने पोते का मुहं देख पा रही हूँ | वह अंदर ही अंदर घुलने लगी थी | 

भगवान की करनी की थाह कोई नहीं जानता कि किस के पिटारे में कब क्या भर दे | शायद अनारो देवी को अपनी खुद की वंश बेल को फलते फूलते देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं था | वह अपने पोते को देखने की अभिलाषा को मन में लिए ही स्वर्ग सिधार गई | 

परमपिता की अनुकम्पा से अनारो देवी की मृत्यू के एक वर्ष बाद शिव प्रसाद को पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गई | नवजात दीपक का आगमन बड़ी धूमधाम से मनाया गया | शिव प्रसाद तीन बहनों में एक भाई पर सब्र न कर सका | वह अपना परिवार बढाता रहा और इस प्रकार वह पांच लड़कियों और एक लड़के का बाप बन गया |

पांच दूसरों की अमानतों के बीच अकेला कुल का चिराग होने की वजह से ‘दीपक’ को हाथों पर रखा जाने लगा | उसकी हर छोटी बड़ी ख्वाहिश तत्काल पूरी कर दी जाती थी | घर के बाकी सात सदस्य सारा दिन दीपक की सेवा सुश्रा में लगे रहते थे | स्कूल में जाने लगा तो कोई उसके जूते पालिस करता, कोई कपड़े पहनाता, कोई नाश्ता लगाता, कोई बस्ता तैयार करता वह तो बस टूकुर टूकुर सब को काम करते देखता ही रहता | यह देख वह घर के दूसरे सदस्यों अर्थात अपनी बहनों से एक मालिक और नौकर जैसा व्यवहार करने लगा | धीरे धीरे, एक तानाशाह की सोच उसकी आदत में शुमार हो गई | अब वह घर में आए मेहमानों के साथ खुद भी एक मेहमान सा दिखाई पड़ता था | 

ऐसे मौज मस्ती, लाड-प्यार एवम आराम परस्ती के माहौल में वह अधिक पढ़ लिख न सका फिर भी गनीमत यह रही कि घर के लाड़ले ने कोई बुरी लत मसलन जुआ, शराब, बीड़ी. सिगरेट, गुटखा इत्यादी तो नहीं पाली अपितु उसने अपने माँ-बाप की सेवा करने की बजाय उनसे अपनी सेवा कराने की सबसे बुरी लत पाल ली | बड़े होने के साथ साथ वह अपने जन्म दाताओं को हीन भावना से देखने लगा | उसके इस आचरण पर उसके माँ-बाप ने कभी कोई प्रतिकूल प्रक्रिया जाहिर नहीं की जिससे वह उन पर दिन प्रतिदिन हावी होता चला गया | 

जवान होने पर दीपक की शादी कर दी गई | शुरू शुरू मे नई दुल्हन सुनीता ने अपने सास-ससुर की बहुत सेवा की | अपनी ननदों से भी उसका व्यवहार अपनी सगी बहनों की तरह रहा | परन्तु पति की संगत ने उसे बिगाड़ने में देर न लगाई और उसने भी अपने पति के पद चिन्हों पर चलना शुरू कर दिया | अब शिव प्रसाद, अरूणा तथा पाँचों लडकियां दीपक और सुनीता की सेवा में लगे रहते और वे दोनों मौज मस्ती करते रहते | 

दीपक जनरल स्टोर के काम को एक निम्न कोटि का काम समझता था इसलिए इसकी गद्दी सम्भालने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी | वह तो उच्च कोटि का काम करने की ख्वाहिश रखता था जिसमें उसे मेहनत न करनी पड़े और बैठे बिठाए अच्छी खासी कमाई हो जाए | 

दीपक का एक साढू था, संदीप, जिसके पास घी, तेल, नमक, आटा, बिस्कुट इत्यादि की बहुत सी एजेंसियां थी | जब कभी दीपक अपने साढू से मिलता वह दीपक के सामने फूली फूली हांकता और दिखाता कि उसके साथ सब कुछ ठीक चल रहा है तथा उसका काम तो केवल बैठकर एवम आराम करते हुए देखभाल करना है | सारा मेहनत का काम उसके नौकर ही करते हैं |   

अपने साढू की बात सुनकर दीपक बहुत प्रभावित हो जाता और मन ही मन सोचता कि काश उसे भी ऐसा कुछ करने को मिल जाता तो उसके भाग्य जाग जाते | दीपक का साढू संदीन बड़ा घाघ था | उसने दीपक की दुखती रग को पहचान लिया | संदीन की दो तीन एजेंसियां कुछ लाभ का सौदा नजर नहीं आ रही थी | उन पर उसकी लागत भी बहुत थी | इन एजेंसियों की वस्तुओं का नाम तो बहुत प्रचलित था बिकती भी बहुत थी परन्तु मेहनत, ऊपरी खर्च तथा लागत को मिलाकर मुनाफ़ा शिफर ही आता था | अर्थात नाम बड़े और दर्शन छोटे |

संदीन इन एजेंसियों से छुटकारा पाना चाहता था | जैसे गर्म लोहे को चोट मारने से उसे अपने तरीके से ढालने में अधिक जोर नहीं लगाना पड़ता उसी प्रकार दीपक की भावनाओं का फ़ायदा उठाने की गरज से संदीन ने उसके सामने प्रस्ताव रखा, “दीपक मेरे से सारी एजेंसियों का काम ठीक से संभल नहीं रहा | मैं दो तीन एजेंसियां छोडने का विचार कर रहा हूँ |”

संदीन की बात सुनकर दीपक विचारों में खो गया | सही समय और स्थिति को भांप संदीन बोला, “अगर चाहो तो उन एजेंसियों को आप ले लो |”

संदीन की बात सुनकर दीपक के मन में लड्डू फूटने लगे | उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था कि इतनी जल्दी उसे जनरल स्टोर से छुटकारा तथा मन की मुराद मिल जाएगी | परन्तु वह यह समझ कर सहम गया कि उसके जनरल स्टोर का क्या होगा | दीपक की मनोभावना को समझ कर संदीन ने एक और वार किया, “अरे भाई अपने जनरल स्टोर में सुबह से शाम तक खटते रहोगे | न ढंग का पहन पाओगे न कहीं मन के मुताबिक़ आ जा सकोगे परन्तु एजेंसियों की तो सप्लाई होती है अगर एक दिन न गई तो दूसरे दिन चली जाएगी | ग्राहक तो टूटेगा नहीं |”

दीपक असमंजसता में धीरे से बोला, “परन्तु मैं अकेला कैसे कर पाऊंगा ?”

संदीन जैसे जानता था कि दीपक यह प्रश्न करेगा उसने बिना कोई देर लगाए फट से रास्ता सुझाया, “अपने पापा को मनाना ही पड़ेगा | वैसे इसमें तुम्हें दिक्कत नहीं आएगी | क्योंकि तुम्हारे पापा तुम्हारी कोई बात नहीं टालते |”

संदीन का सुझाव सुनकर दीपक का हौसला बढ़ गया | उसने अपने पापा को सदियों पुराना बखूबी चलता कारोबार छोड़कर अपने साढू की एजेंसियां लेने की मंशा से कहा, “पापा जी आपके इस काम में मेहनत ज्यादा और मुनाफ़ा बहुत कम है |”            

“तूने कैसे जाना ?”

“अपने घर की हालत देख कर |”

“क्या मतलब ?”

“हमारे पास इतना पैसा भी नहीं है कि एक चार पहियों की गाड़ी भी खरीद सकें | बस खाने पीने का गुजारा तो किसी तरह चल रहा है |”

“क्या तुम्हें यह नहीं दीखता कि इसी धंधे की बदौलत मैनें छः बच्चों की शादी कर ली, अपना घर बना लिया, अच्छा खा पी रहे हैं | तुम्हें और क्या चाहिए ?”

दीपक अपनी बात पर जोर देकर बोला, “हाँ, यही तो मैं समझाना चाह रहा हूँ कि सुबह से रात तक मेहनत करने पर भी हम केवल खाने पीने लायक ही रह जाते हैं |”

“तो तू क्या चाहता है ?”

“मैं चाहता हूँ कि हम भी संदीन की तरह का कोई काम क्यों नहीं कर लेते ?”

शिव प्रसाद ने समझाना चाहा, “बेटा एक तो हमारे लिए वह नया काम होगा दूसरे उसके लिए पैसा भी बहुत लगाना पड़ेगा और तीसरे वह स्थान हमारे घर से बहुत दूर पड़ेगा |”

दीपक तो हसीन सपने संजोए था अत: बोला, “पापा जी हम वहीं रहकर अपना काम शुरू करेंगे |”

“वह कैसे ?”

“पापा जी गुडगांवा हमारा अपना मकान बाजार में है | उसमें नीचे अपना काम करेंगे और ऊपर रिहाईस रहेगी |”

“फिर यहाँ के मकान का क्या करेंगे ?”

“बेच देंगे |”

दीपक ने तो ऐसे कह दिया जैसे अब उस मकान की कोई अहमियत नहीं रह गई थी परन्तु शिव कुमार अपने लाडले की बात सुनकर एक बार को सुन्न हो गया | उसने कितने अरमानों से वह मकान बनवाया था और उसके लाड़ले लड़के ने कितनी आसानी से उसे बेचने को कह दिया था | अपने पिता जी को चुप देख दीपक ने झकझोरा, “क्या हुआ पापा जी ?”

शिव कुमार अपने होश मे आकर, “तुमने क्या कहा इसे बेच देंगे ?”

“हाँ पापा जी जब हम यहाँ रहेंगे ही नहीं तो मकान का क्या करेंगे ?”

“यह किराए पर भी तो दिया जा सकता है ?”

“आपके विचार दुरूस्त हैं परन्तु गुडगावां का मकान ठीक कराने और एजेंसी का माल भरने के लिए पैसा चाहिएगा वह कहाँ से आएगा ?”

“तेरी बात ठीक है परन्तु........?”

अपने पापा जी की बात पूरी न सुनकर दीपक ने टोका, “पापा जी इस मकान के लिए अपना मोह त्याग दो क्योंकि आने वाली तरक्की के लिए कार्यरत होना ही हितकर है | मकान तो भविष्य में और भी खरीदे जा सकते हैं |” 

“अच्छा इस दुकान का क्या होगा ?”, पूछा शिव प्रसाद ने |

“इसका भाग्य भी मकान जैसा ही बनेगा परन्तु अभी इसमें देर लगेगी |”

शिव प्रसाद ने दिल पर पत्थर रख कर अपने लाड़ले के सामने घुटने टेक दिए | चलती दुकान बंद कर दी गई, मकान बेच दिया गया तथा परिवार के सभी सदस्य गुडगांवा जाकर रहने लगे | संदीन ने तीन एजेंसियों का कारोबार दीपक को सौंप दिया | शिव प्रसाद की सारी जमा पूंजी एवम मकान का पूरा पैसा गुडगावां के मकान को रहने लायक बनाने में तथा एजेंसियों के माल भरने पर ही खर्च हो गया | जो थोड़ा बहुत पैसा बचा था वह सबके सामने उजागर हो गया था | 

एजेंसियों का काम शुरू हुआ तो दीपक के होश फाकता हो गए | सदर बाजार के जनरल स्टोर पर तो वह यदा कदा  ही जाता था और कभी जाता भी था तो बना ठना महाराजा की तरह गद्दी पर बैठ कर नौकरों को हरीदेता रहता था | परन्तु यहाँ तो गुडगावां के आसपास के इलाकों से उसे माल का आर्डर लाना, सप्लाई का सामान भिजवाना फिर उगाही के लिए जाना इत्यादि बहुत से काम निभाने पड़ते थे | हालाँकि शिव प्रसाद कहीं नहीं जाता था परन्तु उसे भी ठीये पर दिनभर के लिए बंध कर बैठना पड़ता था | दीपक के सारे सपने हवा बन कर जल्दी ही उड़ने लगे | जिसने सारी जिंदगी मौज मस्ती में गुजार दी हो वह कड़ी मेहनत का बोझ कैसे सहन कर सकता था | थोड़े दिनों में ही दीपक को दिन में तारे नजर आने लगे और वह पस्त होकर अपने पापा से बोला, “पापा जी नाहक ही आपने सदर का जनरल स्टोर बंद किया |”

शिव प्रसाद अपना सब कुछ गवांकर अपने ऊपर लगे इल्जाम को भांपकर बहुत आहत हुआ | उसने दीपक को बताया, “बेटा ऐसा करने के लिए तुमने ही तो मुझे मजबूर किया था |”

“पापा जी ठीक है इन्होने कहा था परन्तु आप तो बड़े थे | आपको तो सोचना चाहिए था कि ऐसे अच्छे चलते काम को बंद करना बुद्धिमानी नहीं होगी” ,पीछे खड़ी हुई दीपक की पत्नी सुनीता ने जवाब दिया |  

“बेटा मेरी तो उम्र हो गई है अगर दीपक तरक्की करना चाहता था तो इसमें मेरा क्या कसूर रहा ?”

सुनीता अपना माथा ठोककर, “कसूर तो किसी का नहीं मेरे भाग्य का है |”  

“इसमें तुम्हारा भाग्य कहाँ से बीच में आ गया जो कोस रही हो ?”

“और क्या करूँ | अब हमारा क्या होगा ?”

“सदर की दुकान तो अभी बेची नहीं है ?”

शिव प्रसाद के मुहं से सदर की दुकान का नाम सुनते ही सुनीता की बांछे खिल गई | उसे अपनी चाल कामयाब होती नजर आई | घर की पूरी धन राशी के साथ साथ अपने सास ससुर से अपना पिंड छुडाने का रास्ता साफ़ होता दिखाई दिया | वैसे तो उसकी बाछें खिल गई परन्तु अपनी भावनाओं को दबाकर उसने पूछा, “तो पापा जी  |”

“दोबारा उसे शुरू कर देते हैं |”

“परन्तु पापा जी घर तो हमने बेच दिया है ?”

“फिलहाल किराए पर ले लिया जाएगा |”

अपने मन की दबी इच्छओं को अमली जामा पहनाने का प्रयास करते हुए सुनीता बोली, “इतने बड़े परिवार के लिए मकान भी तो बड़ा चाहिएगा |”

“सुनीता के इरादों से अनभिज्ञ शिव प्रसाद ने उसका समर्थन किया, “हाँ वह तो है |”

शिव प्रसाद की भल्मान्सियत का फ़ायदा उठाकर सुनीता तपाक से बोली, “पापा जी हम ऐसा करेंगे |”

“कैसा ?”

मन में वर्षों से दबी लालसा को सुनीता ने बाहर निकालने में कोई देर न लगाई, “फिलहाल आप और मम्मी जी यहीं रहना | हम सदर जाकर छोटा सा मकान किराए पर ले लेंगे | जब दुकान का काम जम जाएगा तो बड़ा मकान ले लेंगे तब आप भी वहाँ आ जाना |”

सुनीता के मन में छुपी दुर्भावना को न समझ शिव प्रसाद ने हामी भरते हुए कहा, “हाँ यह ठीक रहेगा |”

एजेंसियों का काम बंद कर दिया गया | शिव प्रसाद और अरूणा को छोड़ दीपक का पूरा परिवार सदर जाने के लिए अपना बोरिया बिस्तर बाँध कर तैयार हो गया | शिव प्रसाद जनरल स्टोर तीस साल से चला रहा था | उसे पूरा मालूम था कि स्टोर को दोबारा शुरू करने में कितनी लागत लगेगी | उसी अनुसार उसने दीपक को रकम थमाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, “लो इनसे जनरल स्टोर के लिए माल खरीद लेना |”

दीपक अभी रकम पकड़ना ही चाहता था कि सुनीता ने जल्दी से अपना हाथ बढ़ाकर उन्हें पकड़ लिया और पूछा, “ये कितने है पापा जी ?”

“दस लाख |”

“बस दस लाख ?”

“हाँ बस दस लाख |”

अपने सपनों में अडंगा लगते देख सुनीता ने बिना किसी हिचकिचाहट के पूछा, “परन्तु आपके पास तो बीस लाख रूपये हैं ?”

“हाँ हैं, तो क्या ?”

सुनीता अपना हाथ बढ़ाकर बोली, “वे भी हमें दे दो |”

“क्यों ?”

“आप उनका क्या करोगे ?”

“क्या हमें अपने खर्चे के लिए पैसा नहीं चाहिएगा ?”

“खाने पीने की भरपाई हम करते रहेंगे |”

“खाने पीने के अलावा और भी बहुत से खर्चे होते हैं जैसे लड़कियों के तीज त्यौहारों का खर्चा, दवाईयों का खर्चा और घुमने फिरने का खर्चा इत्यादि |”

“लड़कियों के लेन देन के खर्च एवम अपनी दवाई की चिंता आप क्यों करते हैं वह हम करेंगे | हाँ घुमने फिरने का फिजूल खर्चा हम बर्दास्त नहीं करेंगे |”      

शिव प्रसाद ने अपनी पुत्र वधू से अधिक जबान लड़ाना ठीक न समझ अपने पुत्र दीपक की तरफ मुखातिब होकर बोला, “दीपक तू चुप क्यों खड़ा है, अपनी बहु को समझा न |”

“मैं उसे क्या समझाऊँ पापा जी, समझ तो आप नहीं रहे |”

दीपक के कहे शब्दों से साफ़ जाहिर था कि दीपक और सुनीता की, शिव प्रसाद और अरूणा से पूरा पैसा लेकर, अपना पिंड छुडाने की मिली भगत थी | वे उन्हें कंगाल छोड़कर सदर जाकर अलग बस जाना चाहते थे | शिव प्रसाद अपने बेटे के मुख से ऐसे शब्द सुनकर स्तब्ध रह गया और पूछा, “तेरा क्या मतलब है ?”

“मतलब साफ़ है कि आपको हम पर भरोसा नहीं है |” 

दीपक की कही शिव प्रसाद को अंदर तक आहत कर गई | उसने अपना माथा पकड़ कर पूछा, “तू यह क्या कह रहा है दीपक ?”

दीपक तो मुंह फेरकर खड़ा हो गया परंतु सुनीता ने आगे बढ़कर प्रश्न किया, “आप भरोसे की बात कह रहे हैं तो हम आप पर भरोसा कैसे कर लें की आप ये रूपया बेफिजूल नहीं उड़ाओगे |”

”तुम ऐसा किस बिना पर कह रही हो ?”

”थोड़े दिनों पहले आपकी लड़की सरोज आपको 35000/- रूपये देने आई थी | हमें तो पता नहीं की आपने यह रकम उसे कब, क्यों और कितनी दी थी |”

”उसे जरूरत थी तो मैंने दे दिए थे |”

”हमें भी तो अब जरूरत है |”

”तुम्हारी जरूरत के अनुसार तुम्हें भी दे तो दिए हैं |”

”नहीं हमें सारे रूपये दो वरना पता नहीं तुम कहाँ कहाँ लुटा दोगे |”

अपनी पुत्र वधू को अपने ससुर के सामने बेधड़क बोलते देख अरूणा को नागवार गुजरा वह आगे बढ़ी और बहू के सामने खुद मोर्चा संभाल कर तैश में बोली, “बदतमीज लुटाती तो तू है अपनों पर |”

”आप ये कैसे कह रही हो, मैंने ऐसा कब क्या कर दिया?”

”जब धैर्य का कुआं पूजन हुआ था तो तेरी मौसियां उसके लिए लाई तो धेले का भी नहीं और तुमने उन्हें साड़ियाँ, बच्चों के कपड़े और भाजी भर भर दे दी थी |”

”तो क्या उन्हे भाजी न देकर खाली हाथ भेज देती ?”

”देनी तो थी परंतु तुम्हारी तरह लुटाकर नहीं |”

सुनीता तिलमिलाकर, ”मम्मी जी आप यह बेकार का इलज़ाम लगा रही हो |”

अरूणा आग बबूला हो अपना आपा भूल गई और उसके मुंह से गाली निकलते निकलते रह गई | वह चिल्लाई, ”बाप की....तू क्यों ज्यादा जबान चला रही है | बाप बेटा आपस में सुलट लेंगे |”

”ये सुलटते नही तभी तो मुझे जुबान चलानी पड़ रही है |”

”तुझे काहे की चिंता है जो इतनी बेशर्मी पर उतर आई है कि सारी लिहाज शर्म ही ताक पर रख दी ?”

”हर माँ की तरह मुझे अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है |”

”चिंता करने से ही काम नहीं चलता और न ही दूसरे के पैसों पर आँख गड़ाने से, कुछ मेहनत करो जैसी हमने की थी |”

धीरे धीरे पैसे के पीछे सास बहू में तकरार इतनी बढ़ गई कि दोनों ने आपस में बोलना छोड़ दिया | बहू ने अपने ससुर को भी नहीं बक्सा और यहाँ तक कह दिया, ”बूढ़े इन पैसों को तू अपनी अर्थी के साथ ले जाना |”

शिव प्रसाद के पोता पोतियों ने भी अपने दादा दादी से किनारा कर लिया या उनसे करवा दिया गया | सुनीता ने सास ससुर का चाय, पानी, खाना, पीना, कपड़े इत्यादि धोना बंद कर दिया | दीपक ने अपनी पत्नी के साथ अपने बूढ़े माँ बाप से पिंड छुड़ाने का अच्छा अवसर पा लिया था | सास बहू की आपसी लड़ाई का सहारा लेकर वह केवल अपने परिवार के साथ सदर जाकर बस गया |

जैसे शुरू शुरू में गुम चोट का पता नहीं चलता है परंतु दो चार दिनों में ही वह इतनी दुखने लगती है कि उसके दर्द को सहन करना मुश्किल हो जाता है उसी प्रकार थोड़े दिन तो शिव प्रसाद ने अपने लाडले को बिना देखे गुजार लिए परंतु धीरे धीरे उसके मन में दीपक के प्रति मोह पनपने लगा | और मोह की भावना इतनी प्रबल हो गई कि वह अपने ऊपर दीपक एवं सुनीता द्वारा लगाए गए लांछनों एवं घर्णात्मक रवैये को दर किनार करके उनसे मिलने को तड़पने लगा |

जैसे हर मायनों में समर्थ होते हुए भी एक भौंरा अगर कमल के फूल में बंद हो जाता है तो भी मोह वश वह कमल के फूलों की पंखुड़ियों को चीर कर बाहर निकलने की कोशिश नहीं करता और फूल को नुकसान पहूंचाने की बजाय अंदर ही प्राण त्यागना बेहतर समझता है उसी प्रकार शिव प्रसाद भी अपने बेटे बहू के द्वारा तिरस्कार किए जाने के बावजूद चाहकर भी एवं जीवन को अकेले सुचारू रूप से चलाने में समर्थ होते हुए भी अपने पुत्र के प्रति मोह का त्याग न कर सका |

शिव प्रसाद यह बखूबी जानता था कि जनरल स्टोर जो सुबह से रात तक खुलता है उसमें कितनी मेहनत करनी पड़ती है | एक अकेले व्यक्ति को इसे चला पाना असंभव सा हो जाता है | यही सोचकर उसने अपने लड़के की सहायता करने की ठान ली | अपने गिरते स्वास्थय तथा बढ़ती उम्र की परवाह न करते हुए शिव प्रसाद रोजाना भौर सवेरे उठकर, तीन बसों को बदल कर, दो घंटे का सफर तय करके गुड्गांवा से सदर जाने लगा |

अपने ससुर को बिना बुलाए मेहमान की तरह जान सुनीता की बौहे चढ़ गई | शिव प्रसाद की भावनाओं की कद्र न करके उसने ऐलान कर दिया कि वह उनके लिए खाने वगैरह का इंतजाम नहीं करेगी | यहाँ तक की उसने दीपक को भी ताकीद कर दी कि वह भी उन्हे चाय वगैरह की फिजूल खर्ची के लिए भी पैसा न दें |

इतनी जिल्लत और यातनाएँ सहने के बाद भी शिव प्रसाद का अपने पुत्र के प्रति मोह भंग नहीं हुआ | वह बेनागा आंधी, तूफान, बारिश, गरमी, सर्दी आदि की परवाह किए बिना गुडगावां घर से खाना बनवा कर जाता रहा | जब सुनीता ने महसूस किया कि उसका ससुर तो जोक की तरह उनसे चिमट गया है तो उसने एक घिनौनी चाल का मसौदा बना लिया | अपनी मंशा को कार्यान्वित करने के लिए उसने सास ससुर को रहने के लिए अपने पास बुला लिया |

सास बहू में बोलचाल अब भी नहीं थी | सुनीता ने खाना देने के लिए जेल में कैदियों की तरह रवैया अपना लिया, थाली में रखा और सरका दिया | अपनी सोची समझी चाल के अनुसार एक दिन जब शिव प्रसाद और अरूणा सुबह की सैर पर गए थे तो सुनीता ने डुप्लीकेट चाबी का प्रयोग करके उनकी अलमारी से सारे गहने निकाल लिए |घर में हंगामा खड़ा हो गया | दीपक दुकान पर शिव प्रसाद का इंतजार कर रहा था |जब शिव प्रसाद बहुत देर तक दुकान पर नहीं पहुंचा तो वह दुकान नौकरों के सहारे छोड़ भुनभुनाता हुआ घर आ धमका और अपने पिता को खड़ा देख गुस्से में गुर्राया, ”आज दुकान क्यों नहीं आए ?”

“अपनी बहू से पूछ |”

“बहू से क्या पूछूं, खाना खाकर आराम फरमा रहे होंगे | दूसरे के बारे में कुछ सोचने की क्या जरूरत है कि उसे भी खाना चाहिए |”

”आज अभी खाना मिला ही कहाँ है ?”

सुनीता आगे बढ़कर शिव प्रसाद के सामने खड़ी हो हाथ नचाकर बोली, “मिलेगा भी नहीं | आज दुकान पर काम ही नहीं किया तो खाने को कहाँ से आएगा ?”

अपनी पुत्र वधू के कड़वे शब्द सुनकर शिव प्रसाद जलभुन गया परन्तु कुछ बोलता इससे पहले ही दीपक ने जले पर नमक छिडकते हुए कहा, “मुफ्त की रोटी तोड़ने की आदत पड़ गई है |”

अपने बेटे बहू द्वारा अपने पति के साथ बदतमीजी अरूणा बर्दास्त न कर सकी और वह भडक उठी, “अरे बेशर्मों कुछ तो इंसानियत रखो | ये तुम्हारे बाप हैं | जो भी आज तुम हो इनके कारण ही हो | इतनी उम्र में स्वास्थ्य ठीक न रहते हुए भी ये तुम्हारा पूरा सहयोग कर रहे हैं | फिर भी तुम्हें उनका कोई गुण एहसान नजर नहीं आता | उनकी सेवा करने के बजाय तुम तो उनके साथ एक दास से भी बदतर सलूक कर रहे हो |”

सुनीता ने अपनी सास की आवाज से थोड़ी ऊंची आवाज में जवाब दिया, “कौन सा बाप किसका बाप होगा जिसका होगा | और फिर मैनें क्या गलत कह दिया, हम भी तो सारा दिन खटते रहते हैं तब जाकर कहीं दो जून की रोटी नसीब होती हैं |”

“नहीं गलती तुम दोनों ने नहीं हमने किया है जो तुम्हें पूरी दुकान संभाल दी |”

सुनीता हाथ मटका कर बोली, “छूछा छूछा हमें दे दिया माल तो अपनी अंटी में लगा रखा है |”

दीपक ने अपनी पत्नी की जबान तो बंद करवाई नहीं ऊपर से उसकी मन की भाषा एवम भावना को उजागर कर दिया जब उसने सुनीता का समर्थन करते हुए कहा, “पापा जी आप वे दस लाख इसे दे क्यों नहीं देते ?”

शिव प्रसाद ने पहले तो दीपक की अपनी पत्नी के सामने चुप्पी साधने फिर दस लाख मांग कर उसकी मनोइच्छा को उजागर करने से भांप लिया कि अब उसका बेटा उसका नहीं रहा अत: पूछा, “अभी तुम्हारा हमारे साथ इतना घिनौना सलूक है अगर मैनें दस लाख तुम्हें दे दिए तो तुम तो हमें धक्के मार कर बाहर का रास्ता दिखा दोगे ?

सुनीता जिसके अंदर का लावा उबलकर अभी तक बाहर नहीं निकला था, यह जानकर कि उसे दस लाख नहीं मिलने वाले हैं, फूटकर बाहर निकल आया और वह चिल्लाकर आगे बढ़ी तथा अपने ससुर की अटैची को उठाकर कमरे से बाहर फेंकते हुए गुर्राई, “लो अब बाहर तो तुम्हें वैसे भी जाना ही होगा | समेटो अपना बोरिया बिस्तर और दफ़ा हो जाओ यहाँ से |”

दीपक ने सुनीता को एक बार भी नहीं टोका कि वह अपनी जबान पर लगाम ले | जब शिव प्रसाद ने उसकी तरफ देखा तो दीपक ने अपनी नजरें फेर ली | इससे शिव प्रसाद को आभाष हो गया कि उसके बेटे की भी सुनीता से सहमती थी | यह शिव प्रसाद और अरूणा के जीवन पर दीपक और सुनीता के प्रहार की पराकाष्ठा थी | आज उसे महसूस हुआ कि उसका मकान, दुकान, पुत्र, पुत्र वधू, पौत्र और पौत्री होते हुए भी कुछ नहीं था | 

अपने पुत्र की खुशी के लिए तथा उसके प्रति अपना मोह कायम रखते हुए शिव प्रसाद ने सब कुछ उनको सौंप कर सभी का त्याग करने की मन में ठान ली | अपने पुत्र की चाहत को अमली जामा पहनाने के लिए वह अपनी पत्नी के साथ किराए का मकान लेकर रहने लगा | वह टेलीफोन पर यदाकदा अपने पुत्र की कुशलक्षेम पूछ लेता था परन्तु दीपक की तरफ से ऐसा प्रयास कभी नहीं किया गया |

दीपक अपने परिवार में मग्न एवम खुश था परन्तु शिव प्रसाद को चैन न था | वह अंदर ही अंदर घुट रहा था | उसकी रातों की नींद उड़ चुकी थी | वह हमेशा दीपक के बारे में ही सोचता रहता था कि न जाने उसे समय पर खाना, नहाना, सोना आदि मिल रहा होगा या नहीं | कुछ ही दिनों में वह अपनी मान, मर्यादा, आदर, सत्कार जो उसने खोया था उसे भूल चुका था केवल उसे अहसास हो रहा था अपने लाड़ले दीपक की अदृश्य कठिनाईयां का जो वास्तव में वह झेल ही नहीं रहा था |

अपने मन की व्यथा को शांत करने तथा अपने पुत्र की सहायता करने के विचार से शिव प्रसाद ने एक दिन दीपक को टेलीफोन मिलाया, “दीपक मैं वापिस आना चाहता हूँ |”

दीपक ने साफ़ शब्दों में टका सा जवाब देते हुए कहा, “यहाँ से जाने का फैसला भी आपका ही था आने का भी आप पर निर्भर करता है | और हाँ सुनलो मैं आपको लेने नहीं आऊँगा और न आने में किसी प्रकार की सहायता करूँगा |”

एक दिन शिव प्रसाद के सब्र का बाँध टूट गया और मोहवश वह बिना किसी को बताए, अपने बेटे को गले लगाने को दौड़ पड़ा | शिव प्रसाद तो गले लगकर फूट फूट कर रोने लगा परन्तु दीपक की आँखों में खुशी के आंसू तो दूर उस  के मुहं से सांत्वना का न तो कोई शब्द निकला तथा न ही उसके हाथ अपने बूढ़े पिता को अपने सीने से लगाने को उठे | वह मूर्ति बना निश्छल खड़ा रहा | थोड़ी देर में शिव प्रसाद ने अलग होकर दीपक का चेहरा अपने हाथों के बीच लेकर भावानात्मक पूछा, “तू कैसा है, दीपक ?”

दीपक ने उल्टा प्रश्न दागा, “आपको यह गलत सूचना किसने दी कि मुझे कुछ हो गया है ? आपको दिख नहीं रहा कि मैं स्वस्थ आपके सामने खड़ा हूँ ?” 

एक पिता अपने पुत्र के प्रति मोहवश एक बार फिर जीवन रूपी दलदल में फंस गया |

यह यही दर्शाता है कि वर्त्तमान युग में श्रवण पुत्र नहीं मिलते बल्कि श्रवण बाप मिलने लगे हैं |         


Saturday, October 17, 2020

लघु कहानी (तीन चूड़ियाँ)

    तीन चूड़ियाँ

दास गुप्ता के दो लड़के थे | प्रवीण एवं पवन | दोनों शादी शुदा थे | प्रवीण नारायणा-दिल्ली में रहता था | उसकी पत्नि चेतना थी |  लड़की चक्षु एवं लड़का नयन मात्र 6 एवं 4  वर्ष के थे | पवन गुड़गाँवा 973 सै.23 ए में रहता था | उनके मम्मी-पापा अपनी इच्छानुसार कभी नारायणा तथा कभी गुड़गाँवा रहते थे | परंतु तीज त्यौहार मनाने, दास गुप्ता की पत्नि संतोष, अकसर नारायणा ही पहुँच जाती थी | कारण, गाँव में त्यौहार मनाने का आनन्द कुछ और ही होता है | 

सैक्टरों में न कभी भीड़ दिखाई देती है न वह रौनक हो पाती है | वहाँ के वासी सब अपने में लगे रहते हैं वह भी अधिकतर अपने घरों के अन्दर | वहाँ चाचा, ताऊ, दादा, दादी,बुआ या मौसी शब्दों को सुनने के लिए कान तरस जाते हैं जिनका उच्चारण ही मन में अपने पन का एहसास दिला देता है | वहाँ सभी अंकल तथा आंटी ही होते हैं | वहाँ एक दिखावटी पन सा महसूस होता है | आपस के मेल मिलाप में सच्चे प्रेम भाव का अभाव साफ झलकता है |  थोड़ी बहुत रौनक देखने को मिलती है तो केवल सैक्टरों की मार्किटों में जो अधिकतर् रिहायसी जगह से काफी दूर एकांत में होती हैं |

गाँव की गलियों की हर दूकान पर नयापन दिखाई देता है | जैसा त्यौहार वैसी सजावट | गलियाँ भीड़ से भरी दिखाई देती हैं | हर प्रकार एवं हर मजहब के लोग आते जाते दिखते हैं | गलियों में रेहड़ी पर सामान बेचने वालों का आवागमन बढ जाता है | गाँव का हर वाशिन्दा एक दूसरे को बखुबी जानता है अतः सारे दिन ,राम-राम,नमस्ते तथा दुआ-सलाम चलती रहती है | अतः कुछ न करते हुए भी आपका समय गाँव में एक दूसरे से मिलने मिलाने में ही कट जाता है | 

पहले तो नारायणा गाँव के बाहर एक निमड़ी हुआ करती थी | यह गाँव के बाहर वह जगह थी जहाँ नीम के बहुत सारे पेड़ लगे थे | तीजों के दिनों में इनकी डाल पर रस्सों के झूले डाल दिये जाते थे तथा गाँव की औरतें इन झूलों पर झूलकर भरपूर आनन्द लिया करती थी | औरतें ही क्या नौजवान भी झूलों की ऊँची-ऊँची पींगे बढाकर श्रावण के मेले की रौनक बढा देते थे | गाँव में रहने वाला हर वर्ग का आदमी आपस में ऐसे घुल मिलकर त्यौहार मनाते थे जैसे सभी एक ही परिवार से सम्बंध रखते थे |  परंतु वर्तमान युग की चाल के साथ साथ नारायणा गाँव ने भी करवट बदलनी शुरू कर दी | जैसे सम्मिलित परिवारों का नामो निशान मिट गया, देखते ही देखते नीमड़ी का नामोनिशान भी मिट गया | वहाँ के सब पेड़ काट दिये गए | उनकी जगह ऊंची ऊंची इमारतों ने ले ली | हालाँकि गाँव के बाहर तीजों का मेला अब भी लगता था परंतु अब औरतें और बच्चे उन स्वछ्न्द झूलों का आनन्द लेने से वंचित हो चुके थे | अब तो सबको कृत्रिम तथा बनावटी झूलों पर ही निर्भर रहना पड़ता था | 

आज तीज का पर्व था | औरतों ने व्रत रखा था तथा अपने अपने रसूलों के अनुसार पूजा- अर्चना करने की तैयारियाँ कर रही थी | वैसे तो गावँ की गलियाँ भीड़ी ही थी परंतु केवल दास गुप्ता के घर के सामने गली काफी चौड़ी थी | पूरी गली में यही एकमात्र स्थान था जहाँ रेहड़ी पर सामान बेचने वाले थोड़ी राहत महसूस करते थे | यहाँ वे रेहड़ी को एक तरफ लगा कर कुछ देर के लिये खडे होकर अपनी थकावट मिटाने का प्रयास कर लेते थे | फल,सब्जी,श्रंगार के सामान से भरी रेहडियों पर से लोग सामान खरीद रहे थे | एक ने गली के बीचों बीच रस्सी बाँधकर साडियों की सेल भी लगा दी थी | इतने में आवाज आई तथा गली में गूंजने लगी | चूड़ीवाला ,चूड़ीवाला | चूड़ियाँ लो रंग-बिरंगी चूड़ियाँ | सुन्दर पक्की चूड़ियाँ | पक्के मीने की चूड़ियाँ | चूड़ियाँ लो चूड़ियाँ |     

चूड़ीवाले की आवाज संतोष के कानों में भी पड़ी | उसने पहले अपने हाथों में पहनी चूडियों पर नजर डाली | सभी चूड़ियाँ ठीक ठाक थी | फिर संतोष ने अपनी बड़ी बहू चेतना को आवाज लगाई, “चेतना,चेतना |” 

चेतना जो उपर रसोई में काम कर रही थी, अपनी साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती नीचे आई और बोली, "हाँ मम्मी जी क्या बात है ?” 

“बात क्या बस यह पूछना था कि चूडीवाला आया है | नई चूड़ियाँ पहनोगी क्या ?” 

चेतना अपने हाथों में पहनी चूडियों की तरफ देखते हुए तथा उन पर हाथ मारते हुए, “मम्मी जी देख लो अभी तो ठीक सी हैं |”

संतोष ने अपनी बहू चेतना को समझाते हुए कहा, “ठीक सी ही तो हैं | सारी पूरी तो नहीं | चल नई पहन ले |” 

संतोष एवं चेतना दोनों नीचे गली में आ जाती हैं | चेतना अपने दोनों हाथों में नई चूड़ियाँ पहन कर वापिस उपर आ जाती है | इसके बाद तीज का त्यौहर मनाकर संतोष वापिस गुड्गावाँ लौट जाती है | रक्षाबंधन के त्यौहार पर संतोष फिर जब नारायणा पहूंचती है तो क्या देखती है कि चेतना के हाथों में अब केवल तीन-तीन चूड़ियाँ ही बची थी |

संतोष चेतना के हाथों को देखकर, “चेतना,यह क्या !” 

चेतना संतोष का आशय न समझते हुए उतने ही आश्चर्य से, “क्या मम्मी जी ?”

“तेरे हाथों की बाकी चूड़ियाँ कहाँ गई ? क्या आधी उतार कर रख दी ?”     

“नहीं मम्मी जी |” 

“फिर ?”

चेतना थोड़ासकुचाते हुए, “मुल गई |” 

संतोष थोड़ागुस्सा दिखाकर, “ऐसा कौन सा कैसा  काम करती हो जो 10-12 दिनों में ही तुम्हारी इतनी चूड़ियाँ मुल गई ?”

“मम्मी जी आप भी कैसी बात करती हो | अब मैं कैसे बताऊँ कि कैसे मुल गई |” 

त्यौहार पर संतोष ने अधिक पूछताछ करना अच्छा न समझ चेतना को और नई चूड़ियाँ पहनवा दी तथा अपने काम में लग गई | हालाँकि संतोष के अपने हाथों में केवल तीन तीन चूड़ियाँ ही थी फिर भी उसने और चूड़ियाँ नहीं पहनी क्योंकि अपनी उम्र के अनुसार उसके लिये इतनी चूड़ियाँ ही काफी थी | 

दोपहर का समय था संतोष अपने दिवान पर, जिसे वह तख्त कहती थी, आराम से लेटी हुई थी | उसका पौत्र नयन अपनी अम्मा यानी संतोष के पेट पर बैठा खेल रहा था | 

अपनी अम्मा के पेट पर एक चोट का निशान देखकर नयन ने बडे भोलेपन से पूछा, “अम्मा आपके पेट पर ये क्या हो गया ?”

“कहाँ  बेटा ?” 

नयन अपनी उँगली से अम्मा के पेट की तरफ इशारा करते हुए बोला, “ये देखो आपके पेट पर सफेद सफेद दाग से बहुत हो रहे हैं |” 

संतोष उचक कर अपना पेट देखकर, “वो मैं मोटर साईकल से तेरे बाबा ने गिरा दी थी ना |ये उसी चोट के निशान हैं |” 

नयन ने ऐसा मुँह बनाया जैसे उसे चोट के दर्द का आभाष हो रहा हो, “अम्मा, बहुत चोट लगी होगी |” 

“हाँ बेटा, पर अब तो ठीक हो गई है |”

“अम्मा देखो मेरे भी चोट लग गई है |” 

संतोष ने अपने पोते को ममता दिखाई, “अरे दिखा तो सही कहाँ लगी |” 

नयन ने अपनी एक उँगली उपर उठाते हुए, “अम्मा देखो इस उंगली के उपर |”

संतोष ने नयन की उंगली को देखने के लिये अपने पौत्र का हाथ पकड़ा | उसने अपने पौत्र की उस उंगली का निरीक्षण किया जो उसने चोट लगने के कारण उठाई हुई थी | परंतु संतोष को कोई भी चोट का निशान नहीं दिखाई दिया फिर भी अपने पौत्र का दिल रखने के लिये झूठ्-मुठ ही कहने लगी कि हाय कैसे लगी ? जब से क्यों नहीं बताया ला मूव लगा देती हूँ | जल्दी ठीक हो जाएगी | 

अनायास ही नयन की निगाह अपनी अम्मा के हाथों में पहनी हुई चूडियों पर पड़ी | 

नयन अम्मा के हाथ में पहनी चूडियों को गिनते हुए, “अम्मा जी आपके हाथ में वन, टू, थ्री चूड़ियाँ हैं |”

अम्मा अपने पौत्र का हौसला बढाते हुए, “वेरी गुड़, ओ हो मेरे लाडेसर को तो गिनती भी गिननी आती हैं  |” 

नयन इतरा कर, “अम्मा मैं टूवंटी तक गिन लेता हूँ |” 

“अच्छा, मेरा बेटा तो बहुत होशियार हो गया है |” 

नयन अचानक गम्भीर होकर बोला, “पर अम्मा सुनो |”

“हाँ बेटा बोलो |”

नयन बडे भोलेपन से, “आप तीन चूड़ियाँ ही पहनती हो ?”

संतोष अपने पौत्र के मन की बात जानने के लिए झूठ बोलते हुए, “हाँ पर क्यों ?”  

संतोष की उत्सुकता जागी कि इतना छोटा बच्चा ऐसा सवाल क्यों कर रहा है | उसे अपने पौत्र से ऐसी कोई भी बात सुनने की कतई भी आशा नहीं थी परंतु जब उसने अपने पौत्र के चेहरे को ठीक से निहारा तो उसने महसूस किया कि नयन के दिमाग में सचमुच ही कोई अजीब प्रशन उठ रहा था | अतः संतोष ने नयन से फिर पूछा "हाँ बेटा बोल तू क्या कहना चाहता है ?"

“अम्मा जी आप तीन चूड़ियाँ ही क्यों पहनती हो ?” 

“बस यूँ ही क्योकि मुझे अधिक चूड़ियाँ पहनना पसन्द नहीं |” 

नयन तपाक से, “फिर तो आप भी बच्चों को मारती होंगी |” 

अपने पौत्र की बात सुनकर संतोष सकते में आ गई | वह उठकर बैठ गई | बडे प्यार से उसने अपने पौत्र को गोदी में बिठाया और पूछा, "क्यों बेटा तूने ऐसा क्यों कहा ?”

नयन अपने मन का डर खोलने लगा, “अम्मा जी मेरी मम्मी जी भी तीन चूड़ियाँ ही पहनती हैं |” 

संतोष जिसकी अपने पोते के दिल की बात जानने की जिज्ञासा बढती जा रही थी , “तो क्या बेटा?”

नयन अपने मन की व्यथा को उडेलते हुए बोला, “वे जब चाहे मुझे तथा चक्षु को थोड़ी सी बात पर ही थप्पड़ मार देती हैं |” 

अपने पौत्र की बात सुनकर संतोष ने उसे अपने सीने से लगा लिया और बोली,"नहीं बेटा मैं ऐसी नहीं हूँ | क्या आज तक मैनें कभी तुम्हे मारा है ? नहीं ना |”

नयन भी अपनी अम्मा के सीने से ऐसे चिपक गया जैसे कि अम्मा के मना करने पर उसे बहुत बड़ी राहत मिल गई हो | संतोष को भी अब चेतना की तीन चूडियों का राज पता चल गया था जिन्होंने उसके पोते के कोमल मन में एक प्रकार की गल्त धारणा से दहशत बना रखी थी | 

संतोष ने चेतना को बुला कर आईन्दा से बच्चों पर हाथ उठाने की बिलकुल मनाही कर दी तथा समझा दिया कि हर छोटी-छोटी बात पर मारने से बच्चे ढीठ बन जाते हैं | बच्चों को डराने के और भी कई तरीके हैं | फिर बच्चे इस उमर में शैतानी नहीं करेगें तो कब करेंगे ? और हाँ सुन ((चेतना को शख्त ताकीद करते हुए) आईन्दा से तेरे हाथ में तीन चूड़ियाँ नजर नहीं आनी चाहिये | समझे |

नयन जो अपनी अम्मा की गोदी में दुबका यह सब बातें सुन रहा था बहुत संतुष्ट नजर आया परंतु फिर भी उसका अपनी मम्मी जी की तरफ देखते हुए ऐसा लग रहा था जैसे कह रहा हो मम्मी जी मुझे माफ कर देना मैनें नाहक ही आप पर डाँट पड़वा  दी |      


Friday, October 16, 2020

लघु कहानी (ममता)

    ममता


दिनेश आज बहुत दिनों बाद अपने दोस्त राकेश से मिलने जा रहा था | इन दोनों ने सोलह साल एक साथ एक ही नौकरी में गुजारे थे | दिनेश राकेश से दो साल पहले ही नौकरी छोड़ आया था तथा अपने पैतृक मकान, जो देहली में था, रह रहा था | राकेश हाल ही में नौकरी छोड़कर आया था तथा एक वकील के तौर पर फरीदाबाद कोर्ट में कार्यरत हो गया था | फरीदाबाद पहुंच कर दिनेश ने दूर से देखा कि राकेश के घर के दरवाजे पर कई लोग मुँह लटकाए मातम करने जैसी मुद्रा में बैठे हैं | ऐसा देखकर दिनेश का माथा ठनका | एक अनजान आशंका ने उसे जकड़ लिया | तरह तरह के कई विचार उसके मन में उठने लगे | उसे ज्ञात था कि उसके बड़े लड़के की बहू को पूरे दिन चढे हुए थे | उसके मन में ख्याल आया कि कहीं उसके साथ तो कुछ गड़बड़ नहीं हो गई है | वह एक बार को काँप गया | उसने अपने आप को सम्भाला तथा तेज कदमों से राकेश के घर की और बढ़ने लगा | 

राकेश के घर के दरवाजे पर उसके मामा जी खड़े थे अतः दिनेश ने उन्हीं से पूछा, "क्या हुआ मामा जी ?"

मामा जी ने घूरती निगाहों से प्रताप की तरफ देखा तथा बोले, "क्या बताऎं , कुछ भी तो नहीं हुआ |"

इस पर दिनेश ने प्रताप की और मुखातिब होकर पूछा, "प्रताप कुछ तू ही बता | सब खामोश क्यों बैठे हैं ?"

प्रताप जो राकेश का लड़का  था जल्दी से उठकर  दिनेश के कंधे पर अपना सिर रखकर रोने लगा | 

दिनेश प्रताप के सिर पर हाथ फेरते हुए, "ऐसा क्या हो गया जो तू रो रहा है ? सभी रिस्तेदारों के चेहरे भी ढ़लके हुए हैं |”

प्रताप उसी दशा में रोते रोते कहने लगा, "अंकल मैं बर्बाद हो गया |"

दिनेश ने इधर उधर देखा अधिकतर रिस्तेदारों के चेहरे मुरझाए हुए थे |

परंतु जब उसे राकेश दिखाई नहीं दिया तो वह प्रताप से बोला, "तुम तो पहेलियाँ सी बुझा रहे हो | तेरे पापा कहाँ हैं ,मैं उससे ही पूछ लेता हूँ कि माजरा क्या है ?" 

दिनेश घर के अन्दर प्रवेश करते हुए कहता जा रहा था, “अरे वकील साहब कहाँ हो ? क्या बात हो गई ? घर में ऐसी मुर्दानगी क्यों बिखरी हुई है ?” 

अपने दोस्त की आवाज पहचान कर राकेश बाहर आते हुए बोला, " आओ दिनेश भाई | अबकी बार तो बहुत दिनों बाद आना हुआ |” 

“हाँ, बस कुछ काम ऐसे निपटाने पड़ गए कि आना ही न हो सका | वैसे सब कुशल से तो है ?”

“आओ बैठो | फिर बताता हूँ |”

“वकील साहब मैं बैठ तो जाऊँगा परंतु पहले मेरे मन की दुविधा को दूर करो |” 

“किस दुविधा की बात कर रहे हो, दिनेश भाई |”

“वकील साहब बाहर सभी मुहँ लटकाए बैठे हैं | बल्कि वह तुम्हारा प्रताप तो रो रहा है |”

राकेश थोड़ा तैश में आकर, “साले सब कमीने हैं | बेवकूफ हैं |” 

दिनेश ने बड़ी सरलता से कहा, “होंगे | परंतु वकील साहब बात बता कर मेरे मन का उतावलापन तो दूर करो |” 

राकेश ने ऐसे अन्दाज में कहा जैसे उसे अपने लड़के प्रताप की नासमझी पर शर्मिन्दगी उठनी पड़ गई हो, "दिनेश भाई बात कुछ भी नहीं है | प्रताप की बहू ने दूसरी लड़की को जन्म दिया है |"

दिनेश एक लम्बी साँस छोड़ते हुए, “मैं तो सभी की मुर्झाई हालत देखकर बहुत घबरा गया था कि न जाने क्या हादसा हो गया है |” 

अपने मित्र राकेश के विचार सुनकर दिनेश को बहुत सांतवना मिली | हालाँकि उसे गुस्सा भी आया परंतु मौके की नजाकता को भाँपते हुए हल्कि सी झिड़की से ही काम चलाते हुए प्रताप को बहुत कुछ समझा दिया | मसलन, भगवान के दिए हुए दो ही रूप होते हैं | एक लड़का दूसरी लड़की | वैसे सभी यही आशा लगाए रहते हैं कि उनके यहाँ लड़का ही होगा परंतु हर एक को दूसरे रूप को भी सहर्ष स्वीकार करने को तैयार रहना चाहिए | फिर आजकल के जमाने में लड़का हो या लड़की सब बराबर है | यह तो बच्चे के माता-पिता के दम खम की बात होती है कि वह लड़की को पढ़ा  लिखा कर कितना ऊचाँ चढ़ा  सकता है | अतः ये दकियानूसी की बातें दिल से निकाल दो और खुशी खुशी सारे काम पूरे करो | और हाँ अगर एक बार फिर बच्चे की लालसा करो तो किसी भी तरह के परिणाम के लिए तैयार रहकर ही आगे बढ़ना | क्योंकि तुम्हारी किस्मत में जो लिखा है उससे अधिक तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला | तभी तो कहते हैं कि ‘होय वही जो राम रची राखा’ | 

इसके बाद प्रताप और दो लड़कों का पिता बन गया | प्रताप ने अपने दूसरे लड़के निरंजन के नाम एक मकान बनवा दिया था | एक मकान उसके पास पहले से ही था जो उसने अपने छोटे लड़के को देने के लिए सोच रखा था | 

जीवन सुचारू रूप से चल रहा था | दिन बितते रहे | बच्चे बड़े होते गए | लड़कों को हर प्रकार की छूट मिली थी | न उनके पहनने पर कोई रोक थी | न उनके खाने पर कोई पाबन्दी | दोनों लड़कों का न रात को घर आने का कोई समय था न सुबह सोकर उठने का | वे स्कूल या कालेज से आकर कहाँ जाते हैं तथा क्या करते हैं इसकी किसी को परवाह न थी | लड़कों द्वारा टेलिविजन पर आ रहे गानों पर मटकने पर प्रताप एवं पार्वती बहुत खुशी जाहीर करते थे | उन्हें महसूस होता जैसे उनके बेटे बड़े ही होनहार तथा बुद्धिमान हैं जो समय के साथ चल रहे हैं | अतः प्रताप या उनकी माता जी पार्वती ने उनके किसी भी काम में कभी भी कोई दखल अन्दाजी नहीं की | इसके विपरीत लड़कियों पर हर प्रकार की पाबन्दी थी | देर से आना तो दूर्, बचपन से ही थोड़ी देर के लिए भी घर से बाहर वे अपनी सहेलियों के साथ खेल भी नहीं सकती थी | स्कूल से आते ही वे घर की चार दिवारी के अन्दर बन्द होकर रह जाती थी | प्रताप की बड़ी लड़की प्रभा स्वछन्द विचारों की एक हंसमुख लड़की थी | किसी तरह अपने माता पिता को समझा बुझाकर उसने स्नातक की डिग्री हासिल कर ली | बचपन से ही उसमे ललक थी कि वह अपने जीवन में ऊचाँईयों को छूकर रहेगी | उन्नति के शिखर पर पहुँचने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी | स्नातक करने के बाद अब वह अपने मन में वर्षों से संजोई ड़गर पर चलना चाहती थी | अतः अपने मन की बात प्रभा ने अपनी माँ से कही, "माँ मैं अब एक कोर्स करना चाहती हूँ |" 

माँ ने सरल भाव से पूछा, "बेटी, कैसा कोर्स ?"

“उसके लिए मुझे पूना जाना होगा |”

अपनी बेटी की बात सुनकर माँ ऐसे लहजे में बोली जैसे प्रभा ने कोई बड़ी अनहोनी बात कह दी हो, "तू पूना जाएगी, अकेली जाएगी ?" 

प्रभा ने बड़े ही आत्म विशवास से कहा, "माँ, अकेली जाने में हर्ज ही क्या है ?"

माँ ने लगभग गिड़गिडाते हुए अपनी बेटी को समझाना चाहा, "बेटी तूने जिद करके कालेज पढ़ लिया | तू अपने बाप को तो जानती ही है | अगर उन्हें तेरे इरादों का पता चल गया तो घर में तूफान आ जाएगा |"

प्रभा अपनी माता पार्वती की बातों से विचलित नहीं हुई तथा अपने श्ब्दों की दृडता को कायम रखते हुए कहा, "माँ देखो मैं साफ साफ कहे देती हूँ | मैने वर्षों से मन में ठान रखी है कि मैं पूना के फिल्म आर्ट स्कूल में दाखिला लूंगी |"

प्रभा का निश्चय जानकर पार्वती कुछ काँपते हुए, "तू .. तू फिल्मों में काम करेगी ?"

“हाँ माँ ” ,प्रभा का छोटा सा जवाब था |

“परंतु तेरे बाबू जी तो तेरे हाथ पीले करने की जुगत लगा रहे हैं |” 

माँ के जवाब में प्रभा ने अपना अटल फैसला सुनाते हुए कहा, “माँ मुझे अभी इस झंझट में नहीं पड़ना | और सुनो माँ, अगर बापू ने मेरे साथ इस मामले में कोई जबर्दस्ती करनी चाही तो मैं घर छोड़कर चली जाऊँगी |”         

इतने में प्रभा के बाबू जी, प्रताप, घर के अन्दर प्रवेश करते हुए अपनी बेटी के आखिरी शब्दों "चली जाऊँगी" को सुनकर, " कहाँ जा रही हो बेटी ?"

प्रभा पहले अपनी माँ की तरफ देखती है जो डर से काँप रही थी | फिर भी अपना साहस कायम रखते हुए, "कोर्स में दाखिला लेने |"

प्रताप ने अपनी बेटी को घूरती सी निगाहों से देखकर कहा, "कैसा कोर्स | लड़कियों के लिए तो इतना पढ़ना भी ज्यादा है जो तू पढ़ चुकी है | अब आगे कोई कोर्स वोर्स नहीं |"

“परंतु बापू.........|”

प्रताप ने हाथ के इशारे से प्रभा को रोक कर उसे उसकी बात पूरी भी न करने दी तथा अपना फैसला सुना दिया, "अब तो मुझे तेरे हाथ पीले करने की फिक्र है | कोई खानदानी अच्छा सा लड़का मिल जाए तो मैं मुक्ति पा जाऊँ |"

प्रभा जो शायद अपने भावी जीवन का पक्का फैसला ले चुकी थी बड़ी निडरता से बोली, " बापू मुझे अभी इस बंधन में नहीं बंधना है |"

अपनी बेटी की बात सुनकर प्रताप को जैसे किसी बिच्छु ने डंक मार दिया हो वह तिलमिलाकर गुर्राया, "क्या कहा, तेरी इतनी हिम्मत हो गई कि तू अपने बापू से जबान लडाने लगी है |" 

बात को बढ़ता देख पार्वती आई और प्रभा को बाँह से पकड़ कर अन्दर ले गई | अगली सुबह आफिस जाते हुए प्रताप जोर जोर से कहता गया, “कोर्स पर जाकर मेरी नाक कटाएगी, देखता हूँ कैसे कोर्स करेगी |” 

अपने बापू के चले जाने के बाद प्रभा सुबक सुबक कर बहुत देर तक रोती रही परंतु ज्यों ज्यों उसके आँसू सुखते गए उसका निश्चय दृड होता गया | वह एक झटके से उठी | उसने अपना सारा रूपया जो उसने अभी तक बच्चों को टयूशन पढ़ा कर इकट्ठा किया था एक थैले में डाला | अपने एक दो जोड़ी कपड़े भी थैले में रखे और घर छोड़ने के इरादे से मौके का इंतजार करने लगी | 

दोपहर का समय था | उसके दोनों भाई बाहर गए हुए थे | माँ थककर सो गई थी | बापू आफिस में थे | गलियाँ सुनसान थी | प्रभा ने चुपके से तैयार थैला उठाया और घर से बाहर निकल गई | 

शाम को प्रताप जब आफिस से लौटा तो उसकी पत्नि ने रो रो कर अपना बुरा हाल कर रखा था | रोने से उसकी आँखे सूज गई थी | शायद वह बहुत देर से रो रही थी | प्रताप घबराकर पूछने लगा, " क्या बात है पार्वती ?"   

अपने पति को देखकर पार्वती उठी तथा उसके सीने से लगकर बेदम सी आवाज में बोली, " वो चली गई |"

प्रताप ने अपनी पत्नि की बात न समझ उसे झंझोड़ कर पूछा, " कौन चली गई ?" 

"वह घर छोड़कर चली गई | हमारी प्रभा हमें छोड़कर चली गई" ,रोते रोते पार्वती निढ़ाल हो रही थी |

प्रताप ने अपनी पत्नि को सहारा देकर एक बार फिर पूछा, "कहाँ चली गई ?" 

इस बार पार्वती एक कागज प्रताप को थमा देती है | प्रताप जल्दी जल्दी उस पर लिखा हुआ पढ़ता है |

पूज्य पिता जी एवं माता जी,

इस संसार में बहुत सी और औरतों की तरह मैं भी अपने जीवन में उन्नति करना चाहती हूँ | अपने पैरों पर खड़ा होकर अपने मकसद में कामयाब होना चाहती हूँ | मैं ऊचाँईया छूना चाहती हूँ | मैनें जान लिया है कि आपके यहाँ रहते हुए मैं अपने लक्ष्य को नहीं पा सकती अतः मैं जा रही हूँ | मुझे ढूढ़ने की कोशिश न करना | अगर मुमकिन हुआ तो मैं स्वयं किसी न किसी तरह आपकी खैर खबर लेती रहूँगी | अगर मुझे कभी ऐसा मालूम पड़ा कि आपने मुझे माफ कर दिया है तो मैं आपसे मिलने आ जाऊँगी अन्यथा मैं समझूंगी कि मैं इस दुनिया की भीड़ में अकेली हूँ | नमस्ते |

आपकी बेटी

प्रभा 

पत्र पढ़कर प्रताप अपना सिर पकड़ कर बैठ गया | उसका सार शरीर जड़वत सा हो गया | वह बड़बडाने लगा, “ऊचाँईया छूना चाहती है | छू ऊचाईयाँ और ऊचाईयाँ छूते छूते समा जा आसमान में | अब यहाँ जमीन पर तूझे किसी की खबर लेने की जरूरत नहीं | तू हमारे लिए मर चुकी है |” कहते कहते वह प्रभा की चिट्ठी के टुकड़े टुकड़े करके जमीन पर फेंक देता है | आस पडौस के लोगों तथा  रिस्तेदारों ने भी प्रभा की खुले दिल से भर्तसना करने में कसर न छोड़ी तथा उसे धिक्कारा |   

समय बीतने लगा | प्रभा को वहाँ के लोग क्या सगे सम्बधी भी भूलने लगे | प्रताप अपनी नौकरी से रिटायर हो गया | वह कुछ बिमार भी रहने लगा था | उसकी पत्नि के अलावा उसका दुख दर्द सुनने वाला तथा उसको सहारा देने वाला भी अब कोई नहीं था | क्योंकि प्रताप का बड़ा लड़का अरब देशों में ऐसा गया कि वहीं का होकर रह गया | उसका छोटा लड़का आवारा किस्म का निकला और मौहल्ले की ही एक लड़की से विवाह रचाकर न जाने किस देश में कहाँ जाकर रहने लगा था | 

प्रभा ने अपना कोर्स बहुत मेहनत तथा लग्न से पूरा कर लिया | उसकी काबिलियत के कारण उसे हॉलिवुड में फिल्मों के लिए चुन लिया गया | प्रभा ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करनी शुरू कर दी | ऐसा दिन कोई न जाता जब अखबारों में उसकी कोई खबर न छपी होती | 

एक तरफ प्रभा ऊचाईयाँ छूती जा रही थी दूसरी और उसके गाँव में उसके घर की हालत दिन ब दिन बदतर होती जा रही थी | प्रताप ने चारपाई पकड़ ली थी | घर में फाके होने शुरू हो गए थे | कोई उनकी खबर लेने वाला न था | मौहल्ले पडौस के लोगों के साथ साथ उनके रिस्तेदारों ने भी उनकी तरफ से अपनी नजरें चुरानी शुरू कर दी थी | 

एक दिन समाचार पत्रों में खबर छपी कि हॉलिवुड की मशहूर अभिनेत्री प्रभा दलित बच्चों के लिए भारत के फरीदाबाद कस्बे के पास एक "फन एंड फूड" संस्थान का उदघाटन करने आ रही है | खबर जानकर प्रभा के गाँव के लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गई | सब उस समय की उतावलेपन से इंतजार करने लगे जब वे प्रभा के दर्शन पाकर अपने को भाग्यवान समझेंगे जिससे आज से दस वर्ष पहले वे अचानक घृणा करने लगे थे | सभी लोगों ने एकमत होकर फैसला किया कि प्रभा को अपने गाँव लाया जाएगा | इसलिए पूरे गाँव की साफ सफाई खूब जोर शोर से प्रारम्भ कर दी गई | हर आदमी अटकलें लगाने लगा कि किसी तरह प्रभा उसके घर अवशय आए | देखते ही दखते वह दिन भी आ गया जिसके लिए गाँव दुलहन की तरह सज गया था | 

खबर से पार्वती का मन भी हिलौरें मार रहा था | उसने अपने बिमार पति से कहा, " क्यों जी ! आज तो हमारी प्रभा आ रही है |"

प्रताप ने बड़े ही बुझे मन से जवाब दिया, " हाँ, आ तो रही है | पर उससे क्या |"

पार्वती ने अपनी जिज्ञासा छिपाते हुए पूछा, "क्यो क्या वह हमसे मिलने नहीं आएगी ?"    

प्रताप ने अपने मन की शंका उडेली, " वह हमसे घृणा करती होगी |"

माँ की ममता उफान ले रही थी, "आप ऐसा क्यों सोचते हो ? अगर बुरा न मानों तो एक बात कहूँ ?” 

प्रताप अपने को बहुत निर्बल महसूस कर रहा था | वह धीरे से बोला, " कहो ! अब अपने आखिरी समय में बुरा मान कर क्या करूंगा |"

पार्वती को अपने पति द्वारा आखिरी समय कहना अच्छ न लगा अतः तपाक से बोली, " ऐसा क्यों कहते हो जी | मैं तो पूछ रही थी कि मौहल्ले पडौस के सभी मर्द तथा औरतें यहाँ तक की बच्चे भी प्रभा को देखने जा रहे हैं | क्या मैं भी......?"

प्रताप ने बड़े टीस भरे अन्दाज में कहा, "अब वह तुम्हे क्या पहचानेगी ? लोगों को उसके पास तक फटकने भी नहीं दिया जाएगा | मिलना तो दूर तुम्हें दूर से भी उसके दर्शन नसीब नहीं होंगे |” 

"फिर भी मन में लालसा तो है ही",पार्वती का दिल अपने पति की आज्ञा पाने को आतुर होता जा रहा था | 

 मन तो प्रताप का भी बहुत था कि वह भी अपनी बेटी को देख आए परंतु वह अपने स्वास्थ्य के कारण लाचार था |  वह अपना मन मसोस कर बोला, "देख लो तुम्हारी मर्जी |"

 फिर अपनी पत्नि को हिदायत देते हुए कहा कि वह भीड़ से थोड़ा हट कर ही रहे कहीं बुढ़ापे में बेटी को देखने के चक्कर में अपनी हड्डी पसली न तुड़वा बैठे | और हाँ अगर उससे मिलन हो जाए तो मेरी और से माफी.....|” प्रताप के दोनों नेत्रों में पानी भर आता है और गला अवरूद्ध हो जाता है | वह हाथ के इशारे से अपनी पत्नि को जाने के लिए कह देता है | 

पार्वती ने अपनी सोटी उठाई | बगल में एक पोटली दबाई और निकल पड़ी उस राह पर जिस तरफ लोग सैकडों की तादाद में लपके जा रहे थे | चलते चलते पार्वती के मन में तरह तरह के विचार उमड़ रहे थे | आज उसके शरीर में एक नया जोश दिखाई दे रहा था तभी तो चलते हुए एक बार भी उसके पैर लड़खडाए नहीं थे | न ही उसकी चाल धीमी हुई थी | गंतव्य स्थान पर जाकर देखा तो वह आश्चर्य चकित रह गई | अपने जीवन में उसने पहली बार इतना हज्जूम देखा था | प्रत्येक व्यक्ति सबसे आगे पहुँचने की चेष्टा करता दिखाई दे रहा थ जिससे वह उसकी प्रभा को ठीक से निहार सके | इसलिए भीड़ में धक्का मुक्की सी होती प्रतीत हो रही थी | 

पार्वती का मन भी सबसे आगे जाने को  उतावला था परंतु उसके बूढे शरीर में इतनी सामर्थ नहीं थी कि वह अपनी बेटी तक पहुँचने के लिए वहाँ उमड़ी भीड़ को चीर पाती | अतः उसने पीछे से ही एक टीले पर चढ़कर प्रभा को निहारना उचित समझा |  

प्रभा को देखकर पार्वती का मन उमड़ पड़ा | अपने आप ही उसकी आँखे झरझर बहने लगी | पार्वती ने महसूस किया कि प्रभा की निराश सूनी नजरें इतनी भीड़ में किसी अपने को खोज रही हैं | उसका मन उद्दघाटन करने में बिलकुल भी उतावला प्रतीत नहीं हो रहा था |  न ही मौहल्ले पडौस के और लोगों को देखकर उसके चेहरे पर कोई लम्बी मुस्कान दिखाई दी थी | उसने बुझे मन से रीबन काट कर उद्दघाटन तो कर दिया परंतु उसकी आँखे भर आई | प्रभा ने ढीले हाथों से लोगों का अभिवादन स्वीकार किया और उनकी तरफ से अपना मुँह एकदम फेर लिया | 

लोगों की भीड़ छटने लगी | थोड़ी देर में ही मैदान खाली होता सा नजर आया | पार्वती दूर टीले पर खड़ी भीड़ को छँटता देख रही थी | प्रभा के नाश्ते पानी का प्रोग्राम भी समाप्त हो गया | वह वापिस जाने के लिए बाहर आई | इसी समय पार्वती अपने को सम्भालते हुए टीले से नीचे उतरने लगी | ढ़लान के कारण वह बगल में दबाई अपनी पोटली को सम्भाल न पाई | पोटली लुढ़क कर खुल गई | हवा के तेज झोंके के कारण उसमें से एक लाल साड़ी उड़कर साथ वाले पेड़ में अटक गई तथा लहराने लगी | 

प्रभा की नजर अचानक उस लहराती साड़ी पर जाकर टीक गई | उसके मानस पटल पर बचपन की बातें उभरने लगी | उसे याद आया कि उसकी माँ कभी कभी खास मौकों पर उसी तरह की साड़ी पहनती थी | साड़ी को लहराती तथा टीले से एक कंकाल जैसी मूर्ती को उतरते देखकर प्रभा के शरीर में एक दैव्य शक्ति का सा संचार हुआ और वह माँ कहती हुई उस दिशा की और दौड़ पड़ी | प्रभा के सभी साथी एवं सक्योरीटी गार्ड शक्ते में रह गए | 

प्रभा अपनी माँ से लिपट जाती है तथा माँ ..माँ कहते हुए रोने लगती है | 

पार्वती इतनी भाव विभोर हो जाती है कि अपनी बेटी के सिर पर केवल ममता भरा हाथ फेरती रहती है | उसकी आँखो से अश्रुधारा बहती रहती है परंतु मुख से एक शब्द भी नहीं निकल पाता |  

माँ बेटी का ऐसा हृदय स्पर्शी मिलन देखकर वहाँ जमा सभी अपने को रोक न सके तथा उनकी आँखे भी इस मधुर बेला को देखकर बहने लगी | 

थोड़ी आस्वस्त हो जाने पर प्रभा को अपने बापू की याद आई तो उसने पूछा , "माँ बाबू जी कहाँ हैं ?"

“क्या बताऊँ बेटी वे तो अवशय आते परंतु...... |”

प्रभा अपनी माँ के परंतु शब्द से अधीर होते हुए, "परंतु क्या ? बोलो न माँ ?" 

पार्वती ने बड़ी मुशकिल से बताया, “उन्होने बहुत दिनों से खटिया पकड़ रखी है |” 

“क्यों क्या हुआ मेरे बापू को ?”

“पता नहीं बेटी |”

प्रभा कहना ही चाहती थी कि क्या उन्होने डाक्टर को नही दिखाया परंतु अपनी माँ की हालत निहार कर वह ऐसा पूछ नहीं पाई और बात बदल कर पूछा, "माँ मेरे दोनों भाई कहाँ हैं ?"

पार्वती बेटी की बात सुनकर मुहँ पर अपना पल्लू लगा कर रोने लगती है तथा कुछ जवाब नहीं देती | 

प्रभा ने कुछ सोचकर अपनी माँ से पूछा, "क्या बाबू जी ने मुझे माफ कर दिया है माँ ?"

माँ जैसे अपनी बेटी के मन की बात समझ गई थी कि वह अपने बाबू जी से मिलने को बहुत व्याकुल है एक्दम बोली, "बेटी उन्होने तो मुझे खुद कहा था कि अगर प्रभा से भेंट हो जाए तो मेरी और से माफ..........|"

प्रभा अपनी माँ का आशय समझ कर उसके के मुहँ पर हाथ रख देती है जिससे  उसकी माँ का वाक्य अधूरा ही रह जाता है | प्रभा ने जल्दी से अपने ड्राईवर को बुलाया | वह माँ के साथ गाड़ी में बैठी और उसका काफिला उसके पुराने गाँव की और बढ़ गया | 

गाँव के अन्दर घुसते घुसते वहाँ की साफ सफाई तथा सजावट देखकर प्रभा ने अन्दाजा लगा लिया था कि गाँव वालों को उसके आने का बेसब्री से इंतजार था | उन्होने उसे माफ कर दिया था तथा उन्हें अपनी गल्ती का एहसास हो गया था कि केवल लड़कों को ही नहीं अपितू लड़कियों को भी अपनी प्रतिभा दिखाने का पूरा मौका मिलना चाहिए | 

प्रभा ने दूर से देखा उसका पुराना घर जर्जर हालत में हो गया था | उसके रख रखाव पर कोई ध्यान न देने से वह गिरने की हालत में था | अन्दर उसके बापू चारपाई पर बदहवाश से लेटे थे |  प्रभा भागकर अन्दर पहुँच गई | अपने बापू की आँखें बन्द सी देखकर वह थोड़ी ठिठकी परंतु शायद बापू भी अपनी बेटी के पदचाप की आहट अभी तक भूले नहीं थे अतः धीरे से उन्होने अपनी बाहें फैला दी | हालाँकि प्रताप ने उठने की कोशिश की परंतु प्रभा भागकर उनकी फैलाई बाहों में समा गई | जब प्रभा का मन शांत हो गया तो उसने काफिले के साथ आए डाक्टर को बुलाकर कहा, "डाक्टर साहब ! जरा जाँच करके बताओ कि मेरे बाबू जी की हालत कैसी है ?"

डाक्टर ने जाँच करके बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है | उम्र के तकाजे के साथ साथ उनके बाबू जी को केवल थोड़ा सदमा है | 

इस पर प्रभा ने डाक्टर से जानना चाहा कि क्या उसके बाबू जी उसके साथ चलने में समर्थ हैं ?  

डाक्टर जैसे पहले से ही भाँप चुका था कि प्रभा उससे ऐसा प्रशन करेगी वह फट से बोला, "क्यों नहीं क्यों नहीं मैड़म | आप बहुत अच्छा निर्णय ले रही हैं | आपके साथ रहकर ये फिर से अपने खोए कुछ साल वापिस पा सकेंगे |"

डाक्टर का आशवासन पाकर प्रभा ने अपने बाबू जी को बड़ी आत्मियता परंतु दृड़ शब्दों में कहा कि उन्हें अब उसके साथ जाना है | प्रभा ने जब अपनी माँ से भी तैयार होने को कहा तो वह बड़े ही दीन शब्दों में बोली, "हमें तैयार क्या होना है बेटी, हमारे पास है ही क्या जो बटोरना है ?" 

अचानक जैसे प्रभा को कुछ याद आया | उसने घर के हर हिस्से में अपनी नजर दौडाई जैसे कुछ ढूंढ़ रही हो | जब उसने अपने मन की चाहत को कहीं नहीं पाया तो उसे  अधीर होकर अपनी माँ से पूछ्ना पडा, "माँ मेरे दोनों भाई नरेंद्र और सुरेंद्र कहाँ हैं ?"

अपनी बेटी प्रभा का प्रशन सुनकर पार्वती कुछ बोल न पाई अपितू अपने मुँह को अपने आँचल के पल्लू से ढ़ककर सुबक पड़ी | प्रभा किसी अनजान आशंका से विचलित होकर एकदम उठी तथा माँ को झकझोरते हुए बोली, "क्यों क्या हुआ माँ ?"

“कुछ नहीं |”

“तो फिर वे कहाँ हैं ?”

“वे अब यहाँ नहीं रहते |” 

“तो फिर कहाँ रहते हैं ?”

“बाहर के देशों में |”

“आप से कब मिले थे ?”

“नरेंद्र तो छः साल पहले तथा सुरेंद्र चार साल पहले जब हमने उन्हे विदेश जाने के लिए विदा किया था | उसके बाद.........(कहते कहते पार्वती की आवाज भर्रा गई और वह कुछ देर के लिए आगे कुछ कह न पाई) | 

अपने को सम्भालने के बाद पार्वती ने आगे कहा कि बेटी तुम तो जानती हो कि बचपन से ही तुम्हारे भाईयों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने में तुम्हारे पिता जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी | बेटी तुम्हारे पिता जी को उनकी रिटायर्मैंट पर जो पैसा मिला था उसके सहारे तुम्हारे बड़े भाई नरेंद्र को विदेश भेज दिया था | फिर तुम्हारा छोटा भाई भी अपनी पढ़ाई पूरी करके जिद कर बैठा कि वह भी विदेश जाकर नौकरी करेगा | हम मरते क्या न करते | अपने खेतों का कुछ हिस्सा बेचकर उसका भी इंतजाम कर दिया | परंतु बाहर जाकर उन्होने वह कहावत चरितार्थ कर दी कि "आँखों से ओझल मन से ओझल" | हमने उन्हें कई फोन किए, पत्र लिखे तथा सन्देशे भिजवाए परंतु उनका कोई जवाब नहीं आया | मैनें तेरे बाबू जी को बहुत समझाने की कोशिश की कि उनकी अधिक चिंता न करें परंतु ये माने ही नहीं तथा हृदय रोग लगा बैठे | एक साल पहले इनकी बाईपास सर्जरी करनी पड़ी थी | पैसे तो पल्ले थे नहीं इसलिए जमीन का जो आधा टुकड़ा बचा था वह धन सिहँ को, जो हमारी जमीन बटाई पर बोता था, बेच दिया | उसी की भलमानसता के कारण ही आज तुम्हारे बाबू जी जिन्दा हैं | क्योंकि उसी ने तुम्हारे बाबू जी का इलाज कराया तथा जी जान से उनकी सेवा की थी |    

बेटी इतनी अच्छी शिक्षा देने के बावजूद न जाने हमसे क्या कमी रह गई कि उन्होने हमारे साथ ऐसा सलूक किया | शायद बचपन से ही उनके दिल में पनपती पश्चिमी देशों की सस्कृति को हमने रोका नहीं | जब वे कोई मैच देख रहे होते थे या कोई खेल खेल रहे होते थे तथा उनसे या उनकी टीम के किसी साथी से कोई गल्ती हो जाती थी तो उनके मुँह से निकलता था "ओ शिट" | पहले तो हमें समझ ही नहीं आती थी कि वह "ओ शिट" क्या होती है परंतु जब समझ भी आई तो भी हमने उन्हें नहीं समझाया कि उस शब्द के बजाय "ओ गॉड" या "हे राम" का उच्चारण करना अच्छा रहेगा |  हम खुद ही अंग्रेजी धुनों पर उनके थिरकते पैरों को देखकर लुत्फ उठाया करते थे तथा हँस हँस कर उनका प्रोत्साहन बढ़ाया करते थे | फिर उनकी शिक्षा पूरी होने के एकदम बाद हमने यहाँ के संस्कारों की शिक्षा सिखाए बिना ही उन्हें विदेश भेज दिया | शायद यही कारण रहा कि उन्होने विदेश के संस्कार पाल लिए और हमें भूल गए | 

अपनी माँ के वचन सुनकर प्रभा अवाक, सन्न तथा ठगी सी रह गई | माँ ने अब भी कितनी सरलता से अपने लड़कों का पक्ष लेकर उनको दोष मुक्त कर दिया था | 

एक औरत(माँ) की आँखों में जब दुसरी औरत(बेटी प्रभा) ने झाँका तो उन मासूमियत भरी आँखो से उसे महसूस हुआ  जैसे कह रही हों कि बेटी मैं मानती हूँ कि एक बेटे का दायित्व होता है कि वह अपने माँ-बाप की सेवा करके उनका ऋण चुकाए परंतु हर इंसान को अपने कर्मों का फल भी तो भोगना पड़ता है | इसके लिए हमें दूसरों में अवगुण निकालकर उनको कसूरवार नहीं ठहराना चाहिए | अब देखो न शायद हमारे भाग्य में यही तय था कि तुम्हारे माध्यम से ही हमारी मुक्ति होगी | प्रभा ने महसूस किया कि उसकी माँ की आँखो में उसके भाईयों के प्रति कोई मलाल नहीं था |    

 फिर भी अपनी माँ के दिल की दर्द भरी आवाज को पहचान कर तथा उसके खोए सम्मान को प्रतिष्ठित करने के लिए प्रभा ने एकदम उठकर अपनी माँ के कंधों को पकड़ कर कहा, "माँ अभी भी तुम्हारे पास बहुत कुछ है | बाहर चलो मैं दिखाती हूँ |"

अन्दर से सभी लोग प्रभा तथा उसकी माँ के साथ बाहर आ जाते हैं | बाहर पहले से ही गाँव के बच्चे, औरते, जवान तथा बुजूर्ग लोग भारी मात्रा में एकत्रित हो चुके थे | प्रभा ने भीड़ में से, हाथ जोड़कर विनती करते हुए, एक बुजूर्ग को अपने पास आने का इशारा करते हुए कहा, " बाबा जी इधर तो आना |"

बूढ़ा आगे बढ़कर, "कहो बेटी |"

प्रभा ने बैंक का एक चैक और कुछ कागजात बूढे की तरफ बढ़ा दिए | 

बूढे ने उनको थामते हुए बड़े विस्मय से पूछा, "बेटी यह क्या है ? "     

प्रभा ने उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए कहना शुरू किया कि मेरे बाबू जी अपना घर सभी गाँव वालों के इस्तेमाल के लिए दान में देते हैं और मेरी माँ इसके साथ एक लाख का चैक दे रही हैं जिससे इस जमीन पर एक धर्मशाला जिसका नाम ‘प्रताप घर ‘ रखा जाएगा, बनवाई जाएगी | इस धर्मशाला के नाम पर मैं एक लाख रुपया बैंक में और जमा करा रही हूँ जिसके ब्याज से धर्मशाला के रख रखाव का काम हमेशा सुचारू रूप से चलता रहे | 

सभी जमा व्यक्तियों ने प्रताप की जय, पार्वती की जय के नारों से आसमान गुंजा दिया | इसके बाद प्रभा ने अपने बाबू जी और अपनी माँ को साथ लिया तथा उनका विमान चन्द मिंटों में ही आसमान की ऊँचाईयों में विलीन हो गया |   

लोग कहते हैं कि पृथ्वी सहनशीला है, सागर अथाह है, आकाश अनंत है परंतु शायद ये कहावते वही कहते हैं जो माँ की ममता से वंचित रहे होंगे | क्योंकि जैसे ब्रह्मांण्ड में आसमाँ का कोई अंत नहीं उसी प्रकार संसार में माँ की ममता का समापन नहीं |     

Thursday, October 15, 2020

लघु कहानी (उजाड़)

 उजाड़

शिवम देहली से बस में सवार हुआ | उसने फरीदाबाद से आगे बल्लभगढ़ का टिकट लिया था | बल्लभगढ़ पर उतर कर उसने एक फल वाले से पूछा, "क्यों भाई साहब क्या आप बता सकते हैं कि तिगाँव को कौन सा रास्ता जाता है ?”

फल वाला अपनी उंगली का इशारा करते हुए, “उस चौराहे से बाँए हाथ को जो सड़क कट रही है वह सीधे तिगाँव जाती है |”

“यहाँ से तिगाँव कितना दूर होगा ?”

“यही कोई तीन कोस |” 

शिवम अपना हिसाब लगाकर, “लगभग पाँच किलोमीटर होगा ?”

“साहब हमें तो देशी हिसाब ही आता है उसी अनुसार आपको बता दिया | अब आप जानो कि कितना दूर होगा |” 

“अच्छा वहाँ जाने के लिये कोई सवारी मिल जाएगी या नहीं ?”

फलवाला आसमान की और देखकर, “साहब सूरज सिर पर है | कोई डेढ़ बजा होगा | तीन 

बजे से पहले आपको कोई सवारी नहीं मिलेगी |” 

“क्या कोई बस भी जाती है ?”

“न साहब न | आपको तांगा मिल जाए वही गनीमत समझो |”

“तिगाँव के रास्ते में और भी तो गाँव पड़ते होंगे ?”

“हाँ साहब रास्ते में पाँच छः गाँव पड़ते हैं |” 

“तो क्या उस रास्ते पर जाने वाली सवारियाँ कम आती है ?”

“ऐसी भी कोई बात नहीं है साहब |”

“तो फिर क्या बात है जो यात्रियों को यहीं दो-दो घंटे इंतजार करना पड़ता है ?”

“साहब समय समय की बात है | पहले यहाँ से तांगे तथा टम्पू खूब मिलते थे |” 

“फिर ऐसी क्या बात हो गई जो अब नहीं मिलते ?”

“साहब इसका श्रेय हमारे चीफ मिनिस्टर को जाता है |”

शिवम आश्चर्य से, “चीफ मिनिस्टर ! भला चीफ मिनिस्टर ने इस बारे में क्या किया होगा ?”

“साहब उसने किया कुछ नहीं परंतु उनकी नीतियों के कारण यह हो गया |”

फल वाले की बात बडी दिलचस्प लग रही थी अतः शिवम की उत्सुक्ता पूरा किस्सा जानने के लिए बढ़ गई | इसलिए उसने कहा, "अभी मुझे यहाँ एक घंटा और इंतजार करना है | दोपहर की गर्मी होने की वजह से आपके पास भी ग्राहक नहीं हैं | मैं तुम्हारी पहेली ठीक से समझ नहीं पा रहा | अतः मुझे विस्तार से बताओ कि यहाँ से आने जाने के साधन मिलने इतने कम क्यों हो गए ?” 

 फलवाले ने कहना शुरू किया तो शिवम बड़े ध्यान से सुनने लगा, “साहब जी बात यह है कि चीफ मिनिस्टर जी ने शराब निषेद्ध कानून के तहत हरियाणा राज्य के सारे शराब के ठेके बन्द करवा दिये हैं |” 

“भाई, शराब के ठेके बन्द होने से सवारी के साधनों के कम होने का क्या सम्बंध?” शिवम ने बहुत ही आश्चर्य से पूछा |

फलवाला अपनी बात पर जोर देते हुए तपाक से बोला, “सम्बंध है | देखो न घोड़े तांगे वाले या टम्पू वाले सारा दिन अपना गला फाड़-फाड़कर सवारियों को बुलाते हैं |”

शिवम ने फल वाले की बात से सहमती जताई, “यह तो दूरूस्त है |” 

“साहब जी एक आदमी कितनी देर चीख सकता है | अपनी आवाज को दुरूस्त रखने के लिये वे इन शराब के ठेकों का सहारा लिया करते थे | शाम को जब गला सूख जाता था तो शराब से अपना गला तर कर लिया करते थे | ऐसा करने से गला ठीक होने के साथ साथ उनके शरीर में स्फूर्ती भी आ जाती थी |”

शिवम जो फल वाले के इस तर्क से शायद सहमत नहीं था बोला, “परंतु अपने अन्दर स्फूर्ती लाने के और भी तो कई तरीके हैं जो अपनाए जा सकते थे |”

“अपनाए जा सकते थे परंतु यहाँ के लोगों की मनोदशा तथा कार्य शैली के अनुसार शराब के सेवन से कारगर तरीका और कोई नहीं है साहब |”

शिवम तांगा स्टैंड की तरफ नजर दौड़ाकर, “अच्छा भाई अब चलता हूँ | लगता है कोई तांगा आया है | कहीं निकल न जाए | वापिस भी आना है | बाकी की बातें तांगे में बैठकर सफर के दौरान ही पता कर लूंगा |”     

शिवम तांगे के पास आकर खड़ा हो जाता है | वहाँ एक औरत भी खड़ी थी | और किसी को नजदीक न देख शिवम ने उस औरत से ही पूछा," क्या यह तांगा तिगाँव भी जाएगा ?”

“हाँ बाबू जी जाएगा, “फिर औरत ने बड़े विशवास से जैसे उस इलाके के सभी व्यक्तियों को जानती हो प्रशन किया, “इस इलाके में नये आए हो ?”

“हाँ जी | बस तिगाँव तक जाकर वापिस आना है |” 

“क्यों वहाँ क्या बात है ?,” फिर जैसे उस औरत को अपनी भूल याद आई हो उसने झट से दूसरा प्रशन किया, "वैसे आपको किसके यहाँ जाना है ?”

“मुझे सेठ धर्मदास जी के यहाँ जाना है |” 

“साहब, क्या आप उनके कोई रिस्तेदार लगते हैं ?” 

“नहीं | उनका लड़का मेरे साथ एयरफोर्स में नौकरी करता है | उसने थोड़ा सा सामान भेजा है | वह देना है तथा उनके घर की खैर खबर भी लानी है |” 

“हाँ उनके घर तो मर्द लोग मिल ही जाएँगे, ”कहकर औरत एक लम्बी सांस लेकर छोड़ती है तत्पशचात उसके कंठ से एक आह सी निकलती है | 

इतनी देर में और कई सवारियाँ आ जाती हैं | इनमें सभी औरतें व बच्चे ही थे | तांगा भर जाता है | परंतु विनोद को यह देखकर आश्चर्य होता है कि वही औरत जिसके साथ वह अभी तक बातें कर रहा था, तांगा चालक की सीट पर आकर बैठ गई और चाबुक उठाकर तथा घोड़े की लगाम पकड़कर जोर से बोली, "चल मेरी रानी |”

एक औरत को ताँगा हाँकते देख शिवम विस्मय से भर गया, “अरे तो क्या आप ही...?”

“क्यों आश्चर्य हो रहा है न एक औरत को तांगा हाँकते देखकर ?” 

“हाँ जी बात तो कुछ ऐसी ही है | फिल्मों में तो हमने ऐसी बातें देखी थी |” 

“हाँ बाबू आपने ‘शोले’ पिक्चर देखी होगी | उसमें हेमा मालिनी (बसंती) तांगा हाँकते हुए कहती है ‘चल मेरी धन्नो’ और उसकी धन्नो तांगा लेकर सरपट दौड़ने लगती है |”

तांगे में बैठे सभी लोग मुस्कराने लगते हैं तथा वह औरत एक जोर का ठहाका लगा कर हँसने लगती है | परंतु शिवम ने भाँप लिया कि उस औरत के हँसी के ठहाके के पीछे एक वेदना छिपी महसूस हो रही थी क्योंकि तभी तो हँसी के साथ साथ उस औरत की आंखों में पानी छलछला आया था | जिसको उसने अपने आंचल से बडी खूब सूरती से छिपा कर पौंछ लिया था तथा किसी को पता भी न चला था | 

तांगा आगे बढ़ता रहा | रास्ते में दो गाँव पड़े जहाँ एक दो सवारी उतर गई | शिवम ने देखा कि सारा रास्ता सुनसान पड़ा था | कभी कभी कोई एक-आद व्यक्ति दूर जाता हुआ दिखाई दे जाता था अन्यथा गावों के बाहर भी विरानापन महसूस होता था | अचानक शिवम के जहन में एक बात का विचार आया |  

शिवम तांगे वाली की और देखकर, “आपने बड़े बैठे हुए दिल से अभी थोडी देर पहले यह कहा था कि ‘हाँ उनके घर तो कोई न कोई मर्द मिल ही जाएगा’ उसका क्या तात्पर्य  था ?”

“साहब अभी तक आपने भी अन्दाजा लगा लिया होगा कि इस इलाके में मर्द बहुत कम दिखाई दिये होंगे |” 

“सो तो है | परंतु इसका कारण समझ नहीं आया |” 

“देखो साहब जहाँ आप जा रहे हो वह बनियों का घर है | और बनिये लोग इस पीने पिलाने से दूर ही रहते हैं | अतः अधिकतर अपने घर ही रहते है जब तक उन्हें बाहर कोई काम न हो |” 

“अच्छा-अच्छा यह बात है |” 

तांगे वाली एक गाँव के बाहर तांगा रोककर, “आप यह जगह देख रहे हो ? कभी यहाँ शराब का ठेका हुआ करता था | शाम को यहाँ लोगों का जमघट लग जाता था | लोग शराब का जाम लगाते लगाते खूब हंसी मजाक करते रहते थे जिसकी गूंज दूर तक सुनाई देती रहती थी | उनका यही हंसी मजाक गाँव के छोटे-छोटे बच्चों तथा औरतों का कभी कभी मन बहलाने का अच्छा साधन बन जाता था | शराब पिये हुए लोगों की कभी कभी हाथापाई भी हो जाया करती थी | (उसने हाथ की अंगूली से थोडी दूर इशारा किया) वह देख रहे हो न, वह मेरा मकान है | मेरा मकान थोड़ा उंचाई पर होने की वजह से यहाँ का नजारा वहाँ से साफ नजर आता है | जब यहाँ मर्दों का जमघट लगा होता था तो वहाँ गाँव की औरतों का जमाव हो जाया करता था | वहाँ से शराबियों की हंसी ठिठोलियों का वे सब सम्पूर्ण आनन्द लिया करती थी |  मर्द लोगों में से कोई पीकर लुढ़क जाता तो कोई लड़खड़ाते कदमों से अपने घर पहुँच जाता | जो लुढ़क जाता था उसके घर वाले उसे सहारा देकर अपने घर ले जाते थे | इस तरह जितने भी मर्द वहाँ होते थे रात होते होते अपने अपने  घर पहुँच जाया करते थे | इसलिये गाँव आबाद से दिखाई दिया करते थे | 

यही नहीं, वह देखो हमारे यहाँ की चौपाल का क्या खस्ता हाल हो गया है | कभी यह सजी संवरी आने वाले हर पथिक का ध्यान अपनी और खिंच लेती थी परंतु अब इसमें झाडू लगना भी नसीब नहीं है |” 

फिर तांगे वाली ने तांगा हांकते हुए कहा,"चल रानी देर हो रही है | साहब को छोड्कर वापिस भी आना है |”

“क्या आप वहाँ मेरे लिये थोड़ा इंतजार कर सकती हो ? क्योंकि मुझे वहाँ अधिक समय नहीं लगेगा |”

“मैं वहाँ अपनी घोडी को चारा-पानी दूंगी जिससे उसकी थकावट उतर जाए | इसमें आधा घंटा तो लग ही जाएगा | अगर इतने समय में आप आ गये तो मैं आपको वापिस भी ले जा सकती हूँ |” 

“वैसे तो मैं पूरी कोशिश करूंगा की समय पर पहुँच जाऊं परंतु फिर भी आप मेरा इंतजार कर लेना | वैसे अभी आपकी उस बात के रहस्य से पर्दा नहीं उठा है कि यहाँ के शराब के ठेके बन्द होने से गाँव के मर्द लोग कहाँ चले गये | यह भी कि यहाँ की धर्मशालाओं या चौपालों पर इसका कुप्रभाव कैसे पड़ा |  अतः वापिसी में इनका भी आपको खुलासा करना है |”

शिवम की बात सुनकर औरत मुस्करा दी तथा उसका इंतजार करने की हामी भरने के  लहजे में अपनी गर्दन हिला दी |

(तिगाँव से वापिसी पर)

तांगे में बैठते ही अपनी जिज्ञासा का निवारण करने हेतू शिवम ने पूछा, “हाँ तो पहले वह पहेली सुलझाईये कि यहाँ की चौपालें क्यों सुनसान तथा विरान सी रहने लगी है |”

तांगेवाली भी जवाब देने को तैयार थी, ”बाबू जी आप आजकल के ब्याह शादियों में प्रचलन के बारे में तो अच्छी तरह जानते होंगे |  नौजवानों का उसमें नाचना एक प्रथा सी बन गई है | और इस नाच के लिये उनके पैरों का ठुमका तभी लगता है जब उनके पेट में दो पैग शराब के जा चुके होते हैं | यहाँ हरियाणा में  आप न तो शराब ला सकते हैं तथा न पी सकते हैं | अगर ऐसा करते पकड़े गये तो सीधी जेल की हवा खानी पड़ेगी | इसलिये नौजवानों का यह शौक तो तभी पूरा हो सकता है जब शादी ब्याह हरियाणा की सीमा से बाहर हो | दिल्ली की सीमा यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है अतः आजकल सारे शादी ब्याह वहीं बार्डर पर फार्म हाऊसों में निपटा लिये जाते हैं | इसलिये यहाँ की चौपालों तथा धर्मशालाओं में धूल जमी है |”

“चलो यह बात तो साफ हो गई कि यहाँ कि चौपालों में रौनक क्यों नहीं रही परंतु यह तो मेरे लिये अभी तक पहेली ही बनी हुई है कि यहाँ शराब के ठेके बन्द होने से यहाँ के मर्द लोग कहाँ चले गये ?”

“साहब मर्द लोग चले कहीं भी नहीं गये | सब के घर यहीं हैं परंतु अब उनकी रातें अधिकतर बाहर ही कटती हैं |” 

शिवम आश्चर्य से, ”रातें  बाहर कटती हैं ?”

तांगेवाली ने अपनी बात साफ करते हुए कहा, “हाँ बाबू जी | सुबह से दोपहर तक तो  मर्द लोग यहाँ दिख जाते हैं | वे थोड़ा बहुत काम भी करते हैं | परंतु दोपहर बाद ज्यों-ज्यों शाम होने लगती है उनका पलायन शुरू हो जाता है | वे हरियाणा-देहली के बार्डर पर पहुँच जाते हैं | जैसा कि मैनें पहले भी बताया था कि वहाँ शराब पर कोई पाबन्दी नहीं | अतः वहाँ जाकर वे अपनी लत की पूर्ति करते करते शराब के नशे में धूत हो जाते हैं | फिर किसको खबर रहती है घर की, बीवी की तथा बच्चों की | अगर खबर रहे भी तो वापिस घर पहुँचना मुशकिल हो जाता है | इसलिये सभी इकट्ठा होकर वहीं रैन बसेरों में रात गुजारते हैं |” 

अब आई बात समझ में कि चीफ मिनिस्टर के मदिरा निषेद्धाज्ञा कानून लागू करने के कारण ही कैसे यहाँ के घर विरान, सूने एवं गाँव दिखने लगे हैं उजाड़ |  


Wednesday, October 14, 2020

लघु कहानी (सहारा)

   सहारा 

टर्न - टर्न -टर्न - टर्न, सुरेंद्र सिहँ के फोन की घंटी टनटनाई |

उसने अपने नौकर बहादुर सिहँ से कहा ," देख बहादुर किसका फोन है?”  

फोन पर दूसरे छोर से सुरेंद्र का लड़का मंजीत बोल रहा था |

बहादुर के बताते ही सुरेंद्र के मुख पर रौनक आ गई | वह झटपट उठा तथा फोन पकड़ लिया | 

“पापा जी , सत-श्री-काल , मैं मनजीत .... |”

“हाँ पुत्र सत-श्री-काल | बोल पुत्र बोल,” सुरेंद्र का मन खुशी से उछल कर बाहर आने को हो रहा था | 

“पापा जी आपकी बहुत याद आ रही है |” 

“पुत्र मेरा भी यही हाल है | तीन साल हो गए हैं तेरा मुँह देखे | और हाँ यह तो बता कि मेरा पोता कैसा है ?”

“पापा जी आपको यही तो बताना चाहता हूँ कि वह ढाई महीने का हो गया है | आपको बहुत याद करता है |” 

सुरेंद्र सिहँ जानते हुए भी कि ढाई महीने का वह बच्चा उसे कैसे याद कर सकता है जिसके ऊपर अभी तक उसकी परछाई तक भी न पड़ी हो | फिर भी बेटे का यह कहना ही सुरेंद्र के दिल की गहराईयों में उतर गया | उसने गदगद होकर कहा,"पुत्र मेरे पोते से कह कि अब उसके याद करने की घडियाँ खत्म होने वाली हैं | उसका दादा जल्दी ही उसके पास अमरीका आने वाला है |” 

मनजीत तीन साल पहले शादी करके अमरीका जा बसा था | वह वहाँ एक अच्छी कम्पनी में इंजिनीयर लगा हुआ था | उसकी पत्नि भी नौकरी कर रही थी | अतः दोनों खुशहाल जिन्दगी जी रहे थे | 

सुरेंद्र यहाँ भारत में भारतीय स्टेट बैंक में एक आफिसर था | उसकी पत्नि का स्वर्गवास हो चुका था | मनजीत उसकी इकलौती संतान थी | अकेले होते हुए भी सुरेंद्र ने मनजीत की देखरेख में कोई कमी न रहने दी | उसने अपने लड़के के लिए अच्छा खाना, उसकी पसन्द के अच्छे कपडे, सब सुविधाओं से लैस मकान, तथा उच्च शिक्षा दिलाने के लिए मनजीत की इच्छानुसार खुलकर खर्च किया था | हालाँकि सुरेंद्र चाहता था कि मनजीत उसके पास ही रहे परंतु शायद वर्तमान युग की दौड़ में वह पिछड़ना नहीं चाहता था | सुरेंद्र के समझाने की लाख कोशिशों के बावजूद कि यहाँ भी उसे पैसों की कोई कमी नहीं रहेगी मनजीत का विदेश जाने का भूत न उतरा | अतः अपने और जवान साथियों की तरह जिद करके वह अपना भविष्य सुधारने के लिए विदेश चला गया | शुरू शुरू में बिलकुल अकेला सुरेंद्र बहुत उदास रहता परंतु समय ने उसके मन के घाव भर दिए तथा उसे अकेला रहने की आदत पड़ गई | अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी के कामों में  हाथ बटाने के लिए उसने एक छोटा सा लड़का बहादुर अपने पास रख लिया | बहादुर सुरेंद्र के घर की देखभाल करने के साथ साथ उसके कपडे धोना, खाना बनाना इत्यादि काम भी कर दिया करता था | 

पहले तो मनजीत के फोन यदा कदा ही आया करते थे परंतु अब दो तीन महीनों से जब से उसके लड़का हुआ था मनजीत का फोन हर दूसरे तीसरे दिन आ जाता है | हालाँकि मनजीत को पता था कि उसके पापा जी की रिटायरमेंट में अभी तीन साल बाकी हैं फिर भी अब हर बार वह फोन पर अपने पापा को अपनी नौकरी छोड़ आने की सलाह देने लगा था | सुरेंद्र की समझ में नहीं आ रहा था कि पिछले तीन सालों में तो मनजीत ने एक बार भी मुझे बुलाने की इतनी व्यग्रता नहीं दिखाई फिर अब तीन महीनों में ऐसा क्या हो गया जो मुझे बुलाने के लिए वह इतना उतावलापन दिखा रहा है | फिर यही विचार लगा कर उसके मन में गुदगुदी सी होने लगी कि जैसे वह अपने पोते को देखने को लालायित रहता है शायद वैसे ही मनजीत भी दादा पोते का मिलन देखने को बहुत उत्सुक होगा |   

सुरेंद्र 57 बसंत देख चुका था | उसके बाल धूप में सफेद नहीं हुए थे | वह जानता था कि एक मनुष्य का अचानक दूसरे को महत्व देना शुरू करने का क्या अर्थ हो सकता है | चाहे महत्व देने वाला उसका अपना सगा सम्बंधी ही क्यों न हो | मनजीत के रवैये के कारण पुराने जमाने से चली आ रही कहावत कि चापलूसों से सावधान रहना चाहिए सुरेंद्र के जहन में उभर आई | हालाँकि मनजीत उसका अपना बेटा था फिर भी उसके मन में अपने पापा के लिए अकस्मात उपजी हमदर्दी को भाँपते हुए सुरेंद्र ने अपने भविष्य के लिए एतियात बरतना जरूरी समझा | मनजीत उसे नौकरी छोड़कर अमरीका आने की जिद कर रहा था परंतु सुरेंद्र के मन में उपजी आशंका के चलते उसने 6 माह की छुट्टी ले अपने बेटे मनजीत के पास जाने का प्रोग्राम बना लिया |

जैसे जैसे जाने का समय नजदीक आता जा रहा था उसके मन का उतावलापन बढता जा रहा था क्योंकि वह पहली बार हवाई यात्रा पर जा रहा था | सुरेंद्र नियत समय पर हवाई अड्डा पहुँच गया | विमान में बैठते ही उसने वे सब एतियात बरतनी शुरू कर दी जो और अनुभवी लोगों द्वारा उसे समझाई गई थी | वह निश्चिंत होकर बैठ गया परंतु जब विमान ने उड़ने के लिए हवाई पट्टी पर दौड़ना शुरू किया तो मन में उपजे भय के कारण उसने अपनी सीट को कसकर पकड़ लिया | और जब विमान उड़ान भरने लगा तो उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे उसके अन्दर का सब कुछ उसके गले से बाहर आने की चेष्टा कर रहा है | परंतु जहाज ऊचाईयाँ पाकर जब समतल उड़ने लगा तब कहीं जाकर सुरेंद्र को चैन पड़ा | जब वह आशवस्त हो गया तो उसने जहाज की खिड़की से नीचे झांका | उसे जमीन पर लम्बी लम्बी सड़कें केवल आड़ी तिरछी रेखाओं की तरह दिखाई दी | उन सड़कों पर दौड़ रही गाडियाँ भी मात्र चिटियों के रेंगने जैसी प्रतीत हो रही थी | बड़ी बड़ी अट्टालिकाएँ बच्चों के खिलौनों के समान दिखाई दे रही थीं | उसे ये सब नजारे देखकर अपने मन में हँसी आ रही थी | वह इन दृश्यों का भरपूर आनन्द ले रहा था कि अचानक ये सब दृश्य उसकी आँखो से ओझल हो गए | उसकी समझ में नहीं आया कि वह कैसा जादू सा हो गया जो सब कुछ एकदम गायब हो गए | उसने अपने अगल-बगल झांका | सब सह यात्री शांत बैठे थे | किसी के चेहरे पर भी किसी प्रकार की कोई विस्मता नहीं थी | इसलिए उसने इस जादू के बारे में किसी से कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा तथा चुपचाप खिड़की से बाहर देखने लगा | सुरेंद्र आश्चर्य चकित रह गया जब एक बार फिर धीरे धीरे नीचे का दृश्य पहले की तरह साफ नजर आने लगा | अबकी बार वह अपने आप पर हँसने लगा जब उसने अपनी खिड़की के पास से गुजरते बादलों को देखा जो जमीन के नजारों के साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहे थे | उसे पता चल गया था कि वह क्या जादू था | 

धीरे धीरे अंधेरा होने लगा था | नीचे जमीन पर ऊपर आसमान की तरह अनगणित तारे झिलमिलाने लगे थे | सुरेंद्र असमान से पृथ्वी की इस छटा को देखकर बहुत खुश हो रहा था | वह इस मनोहारी दृश्य का हर पल अपनी आँखो में समा लेना चाहता था | जब वह यह सब देखते देखते थक गया तो उसने अपना सिर पीछे सीट पर टिका लिया और आँखे बन्द कर ली | 

सुरेंद्र अतीत में खो गया जब मनजीत पैदा हुआ था | मनजीत के दादा जी को कितनी अपार खुशी हुई थी | मौहल्ले भर में खबर देने के लिए उन्होने कांशी की थाली बजवाई थी | थाली के बजते ही सभी को खबर हो गई थी कि मौहल्ले में फलाँ के घर पोता हुआ है | देखते ही देखते बधाईयाँ आनी शुरू हो गई थी | सभी खुशी दिखा रहे थे तथा मन ही मन एक पक्की दावत का इजहार कर रहे थे | मेरे पिता जी ने दावत भी कितनी शानदार दी थी | लोग आज भी उस दावत को याद करके उसका गुणगान करते हैं | पहले तो घर में पूरे पाँच दिनों तक औरतों के गाने बजाने होते रहे थे फिर आखिरी दिन आसपास के सभी गाँवो के लोगों को दावत दी गई थी | सुरेंद्र को फिर याद आया मनजीत का घुटनों चलना , फिर उसका ठुमक- ठुमक कर पैदल चलना , तुतलाकर बा..बा..,पा..पा..आदि बोलना तथा उसका मुझे बाहर जाते देख मचलना इत्यादि | सुरेंद्र ने सोचा कि उसके पिता जी कितने खुश नसीब थे जिन्होने अपने पोते की हर कला को उभरते हुए देखकर उसका पूरा आनन्द लिया था | परंतु यह सोचकर वह कुछ उदास सा हो गया कि शायद वह अपने पोते की इन सब अवस्थाओं को निहारने से वंचित ही रह जाएगा | ऐसा सब सोचते सोचते सुरेंद्र को नींद आ गई | जहाज में लगे छोटे से झटके ने सुरेंद्र की झपकी तोड़ दी | जहाज में बोल रहे लाउड स्पीकर से पता चला कि हवाई जहाज अमरीका न्यूयार्क हवाई अड्डे पर उतर गया है |  

आज सुखबीर 2महीने 27 दिन का हो गया था | वह भी अपने दादा जी को लेने हवाई अड्डे आया था | मनजीत की गोदी में उसे देखकर सुरेंद्र की खुशी का पारावार न रहा | उसने झटपट आगे बढकर सुखबीर को अपनी गोदी में लेते हुए कई बार चूम लिया | ऐसा लगता था जैसे अढाई महीने की कसर वह अभी पूरी कर लेना चाहता हो | 

घर पर तीन दिनों तक सुरेंद्र की खुब सेवा सुश्रा हुई | तीसरे दिन बातों ही बातों में मनजीत ने कहा," पापा जी मैं और जीतो तो बहुत परेशान एवं चिंता ग्रस्त हो गए थे कि पता नहीं आप आओगे भी या नहीं |” 

सुरेंद्र अपने बेटे मनजीत की दिल की गहराईयों से अनभिज्ञ बडे सरल भाव से बोला,"इसमें चिंता करने की क्या बात थी ?” अपने पोते के पास आने का दिल तो मेरा तभी से कर रहा था जब से यह पैदा हुआ है | 

अपनी मनोइच्छा की पूर्ति होते जान मनजीत बहुत प्रसन्न होकर चहकते हुए बोला," पापा जी अब आप किसी प्रकार की कोई चिंता न करना | अब आराम से यहाँ हमारे साथ रहो हमारी भी सारी समस्यों का हल हो जाएगा |”

अपने पुत्र तथा पुत्र वधू का स्नेह भरा व्यवहार पाकर तथा अपने पोते के साथ खेल खाकर पता ही न चला कि तीन दिन कैसे गुजर गए थे |   

चौथे दिन सुबह सवेरे से ही घर में गहमा गहमी देखकर सुरेंद्र अचरज में पड़ गया | उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि आखिर आज उसका बेटा तथा बहू इतनी जल्दी उठकर तथा नहा धोकर कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हैं | 

सुबह के आठ बजते बजते तथ्य सुरेंद्र के सामने आ गए जब जीतो ने उसे हिदायतें देनी शुरू कर दी | “पापा जी मैनें सुखबीर को हग्गीज पहना दी है | वैसे तो मेरे आने तक आपको जरूरत नहीं पड़ेगी फिर भी अगर किसी कारण वश जरूरत हो भी जाए तो टायलैट पेपर का इस्तेमाल कर लेना | सुखबीर के दूध की बोतल भी भर कर रख दी है | एक बारह बजे पिला देना तथा दूसरी चार बजे पिला देना | आपकी कॉफी के लिए भी फ्रिज में दूध रख दिया है जब भी मन आए बना लेना | आपका खाना बना कर माईक्रोवेव ऊवन में रख दिया है | जब आपको भूख लगे तो गर्म करके खा लेना | झूठे बर्तन मशीन में डाल देना मैं आकर साफ कर लूंगी |” ऐसी ही कई और हिदायतें देने के बाद जितो ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को निहारा तथा यह कहते हुए,”अच्छा पापा जी मुझे देर हो रही है मैं जा रही हूँ, बाहर निकल गई |”

 सुरेंद्र का लड़का मनजीत पहले ही यह कहते हुए घर छोड़ चुका था कि आज मेरी मेटर्निटी छुट्टियाँ खत्म हो रही हैं अतः आफिस जा रहा हूँ | 

सुरेंद्र को एक झटके में ही पता चल गया था कि मेरे यहाँ न आने तक उसके पुत्र तथा पुत्र वधू को चिंता ने क्यों घेर रखा था | उसने समझ लिया कि वर्तमान मशीनी युग के नौजवानों ने पैसा कमाने की होड़ में अपनी संस्कृति,विवेक,अच्छे बुरे का ज्ञान,आपसी प्यार,सदभाव,मान-मर्यादा,आदर सत्कार इत्यादि सब कुछ भुला दिया है | जानदार होते हुए भी अब वे एक बेजान मशीन बन चुके हैं | 

अपनी बीती हुई जिन्दगी के बारे में सोचते हुए उसने पाया कि जो काम उसने इस उम्र तक कभी नहीं किए वे काम उसे अब इस उम्र में करने पडेंगे | सुरेंद्र ने याद किया कि कैसे उसकी पत्नि मनजीत को तैयार करके उसके बाबा के हवाले करती थी तथा अगर मनजीत कुछ गन्दा कर देता था तो उनकी आवाज के साथ ही वह मनजीत को दुरूस्त करने के लिए एकदम हाजिर हो जाती थी | यहाँ तक की मुझे भी उसने इस काम के लिए कभी भी हाथ नहीं लगाने दिया था | 

सुरेंद्र ने महसूस किया कि उसके बच्चे अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए उसके स्वाभिमान को गहरी ठेस पहुचाँ रहे हैं | उसने यह सोचकर कि अभी वह अपने आप में हर प्रकार से पूरा समर्थ है तथा किसी भी रूप में उनके आश्रित नहीं है मन में एक पक्का निश्चय कर लिया |

एक सप्ताह ऐसे ही बीत गया | सुरेंद्र पूरे दिन सुखबीर के साथ घर में अकेला रहता | वह पूरी तरह से सुखबीर की आया बन चुका था | सुरेंद्र बड़े  उतावलेपन से अपने बेटा-बहू का शाम होने तक इंतजार करता | वे आफिस से थके माँदे आते, डब्बे का खाना बनाते, खाते, दो चार बातें करते और सो जाते | सुरेंद्र एक तरह से बिलकुल अकेला रह गया था | घर के अन्दर ही क्या बाहर भी बोलने वाला कोई नहीं था |      

आज रविवार था | जहाँ रोज सुबह से ही गहमा गहमी होने लगती थी | आज सब कुछ शांत था | सड़कें सूनी थी | सुरेंद्र अपनी चाय बनाकर घर की बाल्किनी में बैठा उसकी चुस्की लेते हुए सोच रहा था कि चलो आज तो घर में बहू के हाथ का बना खाना खाने को मिलेगा | डब्बों का खाना खाते-खाते वह उकता चुका था | उसके बहू बेटा उठे | मनजीत ने अपने पापा के पास आकर कहा," पापा जी तैयार हो जाओ | बाहर घूमने चलेंगे | आज खाना भी बाहर का खाएँगे |”

मनजीत की बात सुनकर सुरेंद्र के मन में उपज रही घर के बने खाना खाने की सारी इच्छाएँ एकदम दब कर रह गई | वह अवाक अपने बेटे का मुँह ताकता रह गया | उसकी समझ में नहीं आया कि क्या वह पिछले छः दिनों से घर का खाना खा रहा था जो आज उसका लड़का कह रहा है कि पापा जी आज बाहर का खाना खाएँगे |

डेढ महीना तो सुरेंद्र ने अमरीका में किसी तरह रो-पीटकर गुजार लिया परंतु अब दिन प्रति दिन उसके लिए यहाँ ठहरना दूभर होता जा रहा था | हालाँकि वह छः महीनों की छुट्टी लेकर आया था परंतु अब आगे छः दिन भी काटने उसे नाकों चने चबाने जैसा प्रतीत हो रहा था | अतः दो महीने खत्म होने से पहले ही, अपने मन में लिए निश्चय के अनुसार, एक दिन उसने मनजीत से कहा," बेटा अब मुझे जाना होगा |”

मनजीत को जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो | उसके मुँह से निकला ‘क्या’ ! ओर उसका मुँह खुला का खुला रह गया | 

जीतो भी भागी हुई अन्दर से ऐसे आई जैसे उसे बिजली का करंट लग गया हो | वह काँपती सी बोली," पापा जी आप यह क्या कह रहे हैं ?”

“मैं जो कह रहा हूँ ठीक कह रहा हूँ |”

“पर पापा जी क्यों ?”

“क्योंकि मेरी छुट्टियाँ समाप्त हो गई हैं |” 

मनजीत ने बड़े  ही बुझे मन से पूछा," तो क्या पापा जी आप नौकरी छोड़कर नहीं आए थे?”

“नहीं मैने अभी ऐसा नहीं किया था |”

“क्या आप को यहाँ किसी चीज की कमी है, हमारे पास ऐशो आराम की हर वस्तु है | हमारे पास पैसा है जो जिवन में सबसे अहम भूमिका निभाता है |” 

“मेरे लिए पैसा इतनी अहमियत नहीं रखता |”

“तब फिर क्या है ?”

“मेरा स्वाभिमान जो मैं यहाँ खोता जा रहा हूँ |”

मनजीत अपने स्वार्थ को सिद्ध होते न जान एकदम से बिफर पड़ा,"पापा जी आपने हमें गल्त फहमी में रखा | धोखा दिया |”

"मैनें तो नहीं अपितू तुम दोनों ने मुझे अवश्य यहाँ के बारे में अनभिज्ञ रखा |”

जितो ने बात आगे बढाते हुए कहा," पापा जी आप हमें मझ्धार में धकेल कर जा रहे हैं|”

“तुम दोनों तो खुद पहले से मझदार में बह रहे थे | मैं तो तुम्हें निकालने की नियत से यहाँ आया था | परंतु एक तो तुम उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहते दूसरे अब मेरे अन्दर इतना सामर्थ नहीं है कि मैं जबरदस्ती तुम्हें इस मझ्धार से निकाल सकूँ |”

खैर अधिक बात बढाने से कोई फायदा नहीं क्योंकि तुम दोनों की रगों में यहाँ का वातावरण, संस्कृति तथा दिनचर्या ऐसे रम गए हैं कि अब इस धरती को अपने आप छोड़ना तुम्हारे लिए मुमकिन नहीं | मैं स्वदेश वापिस जा रहा हूँ | अगर कभी याद आ जाए या आने का मन करे तो तुम्हारे लिए मेरे घर के दरवाजे हमेशा खुले रहेंगे | 

मनजीत ने भी अपना फैसला सुनाते हुए कहा," पापा जी जब आप यहाँ आए हुए ही वापिस जा रहे हो तो फिर हम यहाँ अपना काम छोड़कर वहाँ आकर क्या करेंगे |”

सुरेंद्र ने भारी मन से कहते हुए ," जैसी तुम्हारी मर्जी |" उनसे अलविदा ले ली | 

विमान में बैठने तक सुरेंद्र के मन पर मनों बोझ जैसा प्रतीत हो रहा था परंतु विमान जैसे ही उड़कर आसमान में पहुँचा तो उसे ऐसा लगा जैसे वह भी खुले आकाश में एक उन्मुक्त पक्षी की तरह उड़ान भर रहा है | सुरेंद्र का दिल प्रसन्नता से झूम उठा  और अचानक उसके मुख से निकला ," सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा |” 

सुरेंद्र को अचानक अपने सामने खड़ा पाकर बहादुर की आँखे फटी की फटी रह गई | थोड़ी देर तो वह स्तब्ध देखता रहा परंतु चेतना जागने पर उसने आगे बढकर अपने मालिक के चरण छू लिए | सुरेंद्र ने उसे बाँह पकड़ कर उठाया तो देखा बहादुर की आँखे नम थी | सुरेंद्र ने घर का मुआईना करने के लिए चारों ओर नजर घुमाई तो पाया कि उसकी अनुपस्थिति में भी बहादुर ने घर की देखरेख बहुत अच्छे ढंग से की थी | फिर सुरेंद्र को जैसे अपने पेट में चूहे कूदते महसूस हुए हों , अपने पेट पर हाथ फेरते हुए बोला," बहादुर, घर का खाना खाए बहुत दिन हो गए हैं |”

सुरेंद्र का इशारा एवं आशय समझते ही बहादुर हरकत में आ गया तथा थोड़ी ही देर में सुरेंद्र अब भरे पेट पर हाथ फेर रहा था |   

हालाँकि मनजीत तथा जितो ने सुरेंद्र पर लाछन लगाए थे इसलिए वह अमरीका से कुछ रूष्ठ होकर आया था परंतु एक पिता चाहे वह कितना भी कठोर दिल क्यों न हो अपने बच्चों , खासकर अपने पोते, के लिए अन्दर से लालायित तो रहता ही है | इसी तरह सुरेंद्र बाहर से तो अपने आपको बहुत सुखी तथा खुशहाल दिखाता था परंतु वास्तव में अन्दर ही अन्दर उसके मन को कुछ कचोटता रहता था | शायद इसी वजह से धीरे धीरे उसे हृदय रोग लग गया | एक रात उसकी इतनी हालात खराब हो गई कि बहादुर की सहायता से उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा | बहादुर के अलावा सुरेंद्र को सहारा देने वाला कोई न था | बहादुर ने भी अपने मालिक की जी जान से सेवा की तथा किसी प्रकार की कोई कसर न छोड़ी | सुरेंद्र स्वास्थ्य लाभ पाकर जब वापिस घर आया तो अमरीका से मनजीत का फोन आया | कह रहा था," पापा जी काम की व्यस्तता के कारण आपके बिमार होने पर मेरा आना न हो पाया तथा अभी निकट भविष्य में भी आने की कोई सम्भावना नहीं है |” 

सुरेंद्र चुपचाप अपने बेटे की बात सुनता रहा | मनजीत अब भी कहे जा रहा था," आप वहाँ अपनी सेवा सुश्रा के लिए किसी को रख लेना क्योंकि अभी आपको सहारे की जरूरत है | आप हमारी चिंता बिलकुल न करना | आप तो यहाँ आकर देख ही गए हैं कि हम यहाँ कितने मजे में हैं |” 

बेटे की बात सुनकर सुरेंद्र का मन रो पड़ा | उसकी जबान को जैसे काठ मार गया था | सुरेंद्र को कुछ जवाब देते न बन रहा था कि अचानक डाक्टर की कही बातें उसे याद आ गई | अतः धैर्य रखते हुए उसने मनजीत से कहा ," बेटा तुम्हारे कहने से तो मेरी चिंताएँ खत्म न होती परंतु डाक्टर साहब के कहने से मैनें चिंता करना बिलकुल छोड़ दिया है | और हाँ रही सहारे की बात तो वह मुझे मिल गया है |” 

मनजीत ने बड़ी उत्सुक्ता से पूछा," पापा जी वह कौन है ?” 

सुरेंद्र ने बिना किसी हिचकिचाहट के," तुम्हारा सौतेला भाई |” 

क्या ! जैसे मनजीत को अपने कानों पर विशवास न हुआ हो," मेरा सौतेला भाई |”

“हाँ, तेरा सौतेला भाई”, कहते हुए सुरेंद्र ने बड़ी आत्मीयता से बहादुर की तरफ देखा | 

मनजीत अभी भी जो अस्मंजस्ता से बाहर न आ पाया था," परंतु आपने तो आज तक नहीं बताया कि मेरा कोई सौतेला भाई भी है |”  

"मुझे खुद पता नहीं था | हालाँकि वर्षों से वह मेरे सामने ही रह रहा था परंतु मैं भी अब तक उसे पहचान नहीं पाया था |”

मनजीत ने अधीरता दिखाते हुए, "पापा जी प्लीज जल्दी बताईये कि वह कौन है?”

सुरेंद्र ने बड़े  ही संयम तथा पक्के इरादे से धीरे धीरे ऐसे कहा जिससे उसका बेटा मनजीत अच्छी तरह सुन ले, " ब-हा-दु-र  सि-हँ  क-पू-र |”     

इतना कहकर सुरेंद्र ने टेलिफोन का चोगा रख दिया तथा अपने बिस्तर से उठकर पास खड़े  बहादुर को अपने सीने से लगा लिया | फिर उसके कंधे का सहारा लेते हुए, अपना सिर उस पर टिका कर , फफक-फफक कर रो पड़ा | आज, सुरेंद्र के विचलित मन को सांत्वना मिल गई थी, उसने अपने बुढापे का सहारा चुन लिया था |