Saturday, August 29, 2020

उपन्यास 'आतम तृप्ति' (भाग - XIX)

 XIX

इसी समय दरवाजे की घंटी टनटनाने लगती है | वरूण उठकर दरवाजा खोलता है |

आगंतुक का नमस्कार स्वीकार करते हुए वह अन्दर दूसरे कमरे में चला जाता है | वरूण के चेहरे पर उड़ती हवाईयाँ, संतोष का काँपता शरीर, रात का सन्नाटा तथा कमरे में अकेले जवान नन्देऊ तथा सलेज, माहौल ऐसा था कि गुलाब के स्थान पर कोई और होता तो शंका, भ्रम तथा अविशवास का घरौन्दा बन जाता | हालाँकि गुलाब के मन में भी इनके अंकुर फुटने शुरू हुए थे परंतु उसके दिल ने अपनी संगिनी पर ये लांछन लगाने गँवारा नहीं किए | गुलाब ने सोचा कि उसने भी तो संतोष की बुआ को गर्त के गड्ढे में गिरने से बचाया था जब की वे अपनी तरफ से आत्म समर्पण कर चुकी थी | इसके फल स्वरूप गुलाब को भगवान पर पूर्ण विशवास था कि उसने संतोष के साथ ऐसी वैसी घटना घटित होने से पहले ही उसे वहाँ भेज दिया था | वैसे गुलाब को अपनी पत्नि संतोष पर भी अटूट विशवास था कि वह कभी भी विशवासघात नहीं कर सकती | इसीलिए वह अपनी पत्नि को चुपचाप उस परिस्थिति से उभरते हुए देखता रहा |  पहले तो संतोष कुछ विचलित सी नजर आती है परंतु वह जल्दी ही अपने को सम्भाल लेती है |  

अचानक गुलाब को अपने सामने देखकर उसे अपनी आंखो पर विशवास नहीं हो पाया तथा जब वह आशवस्त हो गई तो आगे बढकर उसकी छाती पर अपना सिर टिका दिया | गुलाब ने भी उसे अपनी बाहों में समेट लिया | संतोष का दिल जो कुछ देर पहले बड़े जोरों से धड़क रहा था अब शांत होने लगा | उसे लगा जैसे कुछ क्षण पहले इस घर में जो तूफान आने को था और जिससे दो गृहस्थियाँ बरबाद हो सकती थी गुलाब के आने से सब कुछ बच गया है | संतोष को बहुत राहत मिली | अगली सुबह गुलाब संतोष को लेकर अपने घर आ जाता है |            

रात का समय है | जैसे नारायणा की गलियाँ सुनसान पड़ी हैं वैसे ही अन्दर भी सन्नाटा छाया है | गली में कभी कभी एक दो कुत्तों के भौकने की आवाज आ जाती है | गुलाब अपनी पत्नि संतोष के साथ गली में लगती बैठक में लेटा हुआ है क्योंकि अभी उसके लिये घर में ऐसी उठने बैठने की कोई जगह नहीं थी जिसे वह अपना कमरा कह सकता था | संतोष गुलाब की छाती पर अपना सिर रखे आधी लेटी सी है | संतोष निःस्तब्धता तोडती है, "अब कितने दिनों की छुट्टियाँ आए हो ?”

“कुछ कह नहीं सकता |”

“फिर भी कुछ तो अन्दाजा होगा |”

“शायद एक सप्ताह ही रूक पाऊंगा |”

“अबकी बार मुझे भी साथ ले चलो |”

“तोषी (संतोष) मैं तुम्हें अभी साथ नहीं ले जा सकता क्योंकि अभी तो मेरे सर्विस रिकार्ड में ही नही है कि मैं शादी शुदा हूँ |”

संतोष उठकर सीधी बैठते हुए, “तो क्या इसकी इजाजत लेनी पड़ती है कि तुम शादी कर रहे हो ?”

“हाँ | मेरी उम्र अभी 25 वर्ष नहीं हुई है तथा मिलिट्री में अगर आप पहले से शादी शुदा नहीं हैं तो आपको शादी करने की मंजूरी लेनी आवशयक है |” 

“तो ले लो मंजूरी, इसमें क्या अड़चन है ?”

“मैनें अर्जी डाल रखी है | अबकी बार जब आऊंगा तो तुम्हें शायद साथ ले जा पाऊँ |” 

“अच्छा एक बात बताओ, अब लडाई तो नहीं चल रही ?”

“नहीं तो |”

“क्या आपको युद्ध के समय आगे जाकर दुशमनों से आमने सामने लड़ना पड़ता है ?” 

“नहीं तोषी, हम तो लड़ाई के मैदान से कई किलोमीटर दूर अन्दर अपनी सीमा के अंदर  रहते हैं |” 

“फिर तो आपको कोई खतरा नहीं रहता होगा ?”

“खतरा तो आजकल हर जगह तथा हर पल रहता है | हालाँकि हम लड़ाई के मैदान से इतना दूर रहते हैं फिर भी खतरा सबसे ज्यादा रहता है |” 

“वह कैसे ?”

“मेरा काम राडार का है | यह हवाई जहाजों की पोजिशन बताता है | अतः दुशमनों के लड़ाकू जहाजों का काम सबसे पहले राडार को उड़ाने का होता है | जिससे वे बे रोक-टोक किसी भी इलाके पर बमबारी कर सकें |” 

“तो क्या पिछली पाकिस्तान के साथ लड़ाई के दौरान आप के राडार पर ऐसा घातक हमला हुआ था ?”

“हाँ 1965 की बात है | मैं जम्मू में था | पाकिस्तान युद्ध के समय मैं राडार ड्यूटी पर था | अचानक राडार टयूब पर मुझे पाँच तेज गति वाले हवाई जहाज दिखाई दिये........ |”                            (बीती यादे)

पलोटींग बोर्ड पर स्थिति जांचने के बाद उनकी सन्देहास्पद उड़ान को देखकर कमांडर ने इंटर कॉम पर गुलाब को हिदायत दी कि उन पाचों हवाई जहाजों का तत्परता से मुआईना करता रहे | 

अतः गुलाब उन जहाजों का खास ख्याल रखते हुए उनकी ताजा स्थिति देता रहा | उसने महसूस किया वे पाचों जहाज बड़ी तेजी से उसके खुद के राडार की तरफ बढे चले आ रहे हैं | परंतु न जाने क्यों अभी तक उनको मार गिराने के लिये अपने लड़ाकू जहाजों का कहीं अता-पता नहीं था |

गुलाब अन्दर केबिन में राडार टयूब पर बैठा झुंझला उठा कि न जाने कमांडर क्या कर रहा है जो अभी तक अपने लड़ाकू विमानों को दुशमनों के जहाजों को खदेड़ने की आज्ञा नहीं दी | यह उसके दायरे से बाहर था कि वह अपने कमांडर से पूछ सके कि वह ऐसा क्यों कर रहा है |  उसने अपनी बात की एमर्जैंसी दिखाने के लिये माईक पर चिल्लाकर कहा, "सन्दिग्ध जहाज सिर के ऊपर आ गए हैं |”

तभी गुलाब को अपने कमरे (राडार कैबिन) की खिड़कियों के जोर से खड़कने की आवाज आई | पलक झपकते ही बिल्डिंग का आधा हिस्सा तेज आवाज करता हुआ जमीन पर लुढक गया | जमीन से उठी मिट्टी और धूल तथा बम के फटने से निकले धुएँ के कारण चारों ओर अंधकार छा गया | बम वर्षक जहाज दिखाई तो नहीं दिये परंतु दूर क्षितिज में विलीन होती उनकी आवाज जरूर सुनाई दी | अभी तक कोई अन्दाजा भी नहीं लगा पाया था कि कितना नुकसान हुआ होगा कि एक और बम फटा तथा गुलाब मलबे के नीचे दब गया | उसके बाद गुलाब को कुछ पता नहीं कि क्या हुआ |      

                          गुलाब का घर

गुलाब के पिताजी ने अपनी बेटी कविता को आवाज लगाई, "बेटा कविता, जरा इधर आना |” 

कविता अन्दर आकर, "क्या बात है पिता जी ?”

“क्या समय हो गया है ?”

“पिता जी बारह बजने को हैं |” 

इतने में गुलाब की माताजी जिनके चेहरे पर उदासीनता साफ झलकती नजर आ रही थी अन्दर आकर, "आज तो मेरा मन बहुत उदास हो रहा है | ऐसा लगता है कि यह कुछ ही क्षणों में बन्द हो जाएगा |” 

गुलाब के पिता जी अपनी पत्नि को समझते हुए, "अरी तू इतनी क्यों चिंता करती है | उपर वाला सब ठीक करेगा |  उस पर भरोसा रख |” 

“एक सप्ताह से ज्यादा हो गया है | गुलाब की कोई खबर नहीं | (अपनी आंखों में अश्रु भर लाती हैं) दिन रात मुझे उसकी चिंता लगी रहती है कि न जाने कैसे रहता होगा | खाने पीने को ठीक से मिलता भी होगा या नहीं |” 

“माँ, भाई को वहाँ सब तरह के आराम हैं | बस तुम उसकी चिंता छोड़कर अपनी सेहत का ख्याल रखो |”

नारायण ने कविता का समर्थन करते हुए कहा, “तेरी माँ को तो उठते बैठते बस गुलाब का ही ख्याल आता रहता है | इसे कितनी बार समझा दिया है कि भारतीय वायु सेना में किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता परंतु इसकी समझ में नहीं आता | गुलाब की तरफ से दिन में बीसियों बार आखें भर लाती है |”

अपने पति की बातों को सुना अनसुना करते हुए, "आज सुबह से मेरी बाँई आंख फड़क रही है | न जाने क्या होने वाला है ?”

नारायण को जैसे कुछ याद आया, “बेटा कविता, देख बारह बज गए होंगे | रेडियो आन कर दे | समाचार आ रहे होंगे |” 

“पिता जी विविध भारती पर हिन्दी में  खबरें तो शायद 12.30 पर आती हैं |”

“हाँ बेटे | परंतु अब 1200 बजे रेडियो पाकिस्तान से खबरें आती हैं | हालाँकि उनकी खबरों में सच्चाई कम और अफवाह ज्यादा होती हैं फिर भी सुने तो सही कि वे लड़ाई के बारे में क्या कह रहे हैं |”

“पिता जी वे तो हमेशा अपनी बढा-चढा कर ही कहते हैं | इस समय मेरा भाई जम्मू सैक्टर में है | कहीं पाकिस्तान रेडियो ने वहाँ के बारे में अगर कोई उल्टी सीधी खबर दे दी तो माँ को सम्भालना मुशकिल हो जाएगा |” 

“बेटा यह तो मैं भी जानता हूँ परंतु इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि उनकी खबरों में एक दो प्रतिशत सच्चाई तो होगी ही |” 

“ठीक है पिता जी आप वहाँ की खबरें अकेले ही सुन लेना | मैं माँ को बाहर ले जाती हूँ तथा आपके लिये रेडियो को धीमी आवाज में चला देती हूँ |” 

(माँ के साथ कविता का प्रस्थान)

यह रेडियो पाकिस्तान है | अभी आपने अहम खबरें सुनी | अब आप इनका खुलासा सुनिये | आज तड़के हमारे लडाकू विमानों ने हिन्दुस्तान के जम्मू इलाके में भारी बमबारी की | हमारी खुफिया एजैंसी के अनुसार हिन्दुस्तान में जम्मू इलाके के शाम्भा कस्बे से लेकर जम्मू तक की एकमात्र सड़क को पूरी तरह बरबाद कर दिया गया है | जम्मू शहर के निकट सतवारी क्षेत्र में स्थित हवाई अड्डे के साथ साथ वहाँ की राडार यूनिट को भी तहस नहस कर दिया है | हमारी खुफिया एजैंसी ने यह भी पक्का दावा किया है कि दुशमनों के कई हवाई जहाजों को उड़ा दिया गया है तथा राडार यूनिट के साथ उसमें तैनात सभी जवान हलाक हो गए हैं | हमारी ओर से कोई जान माल की हानि नहीं हुई है तथा हमारे सभी लड़ाकू विमान अपना काम निपटा कर सकुशल वापिस लौट आए हैं | 

पाकिस्तान रेडियो से खबरें सुनने के बाद गुलाब के पिता जी का पूरा शरीर पसीनों से तर बतर हो गया | उन्हें बहुत बेचैनी महसूस होने लगी | उन्होने रेडियो बन्द कर दिया तथा कमरे में इधर उधर टहलते हुए 12.30 बजे का इंतजार करने लगे जब भारत अपने समाचार देगा | 

यह ऑल इंडिया रेडियो है | आज के ताजा समाचार सुनिये | आज सवेरे पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों ने जम्मू क्षेत्र में भारी बमबारी की | इससे हमारे कुछ मवेशियों के अलावा  किसी व्यक्ति की जान का कोई नुकसान नहीं हुआ है | सम्पत्ति भी न के बराबर बर्बाद हुई है | पाकिस्तान का यह हमला अचानक होने के बावजूद  हमारे लड़ाकू विमानों ने तेजी दिखाते हुए उनको अपने क्षेत्र में खदेड़ दिया | 

अब सीमा पर चौकसी बढा दी गई है | राडार की यूनिट को भी ताकिद कर दी गई है कि वे निगरानी रखें कि कोई भी अनजान हवाई जहाज हमारी आज्ञा के बिना हमारे देश की सीमा का उल्लंघन न कर सके | 

अपने देश की खबरें सुनकर गुलाब के पिता जी के मन को थोड़ी शांति तो अवश्य मिली परंतु वह पूरी तरह से संतुष्ट न हो पाए | एक अजीब प्रकार की दुविधा ने उनके मन में घर बना लिया था | वे कहीं से पता भी तो नहीं कर सकते थे कि उनके लड़के गुलाब का क्या हाल होगा | 

गाँव के पनघट पर चार पाँच औरतें कुएँ से पानी भर रही हैं |

रेवती :- सुमन सुना तुमने | कल रात पाकिस्तान ने हमारे देश के जम्मू इलाके में भारी बमबारी की थी | 

सुमन :- हाँ बहन वे बता तो रहे थे कि पाकिस्तान ने जम्मू क्षेत्र में भारी नुकसान पहुँचाया है |

लता :- उनकी खबरों के अनुसार तो हमारी तरफ से जान तथा माल दोनों का बहुत नुकसान हुआ है | 

रेवती :- अरी सब चुप हो जाऔ | देखो ताई आ रही है | उनका लड़का फौज में है | उन्हें पूरी खबर होगी | उन्हीं से पूछ लेते हैं | 

गुलाब की माँ नजदीक आ जाती है | पनघट पर की सभी औरतों ने उनका राम-राम ताई कह कर स्वागत किया | गुलाब की माँ ने भी उनको आशिर्वाद देते हुए कहा, "दूधो नहाओ पूतो फलो |”

अपने आने से पनघट पर छाए सन्नाटे को महसूस करते हुए गुलाब की माँ ने मौन तोड़ते हुए कहा, "मैने दूर से देखा था कि तुम सब आपस में खूब बातें कर रही थी परंतु मेरे आने से तुम सब को साँप सा क्यों सूंघ गया है ?”

सुमन :- आपके चेहरे पर छाए विषाद को समझ कर हम सब चुप हो गई हैं | 

“हाँ बेटी तुम तो जानती ही हो कि तुम्हारा देवर फौज में है | लड़ाई छिड़ी हुई है | उसकी कोई खैर खबर ही नहीं मिलती | बस इसी वजह से चिंता सी लगी रहती है |” 

लता :- ताई वह आजकल कहाँ है ?

“जम्मू में |”

 ताई के जम्मू का नाम लेते ही सभी औरतों के मुहँ से आश्चर्य से एक साथ निकला जम्मू और वे एक दूसरे का मुहँ ताकने लगी | सभी को भौचक्की सी देखकर ताई सकते में आ गई | ताई अपनी उत्सुक्ता को दबा न सकी तथा पूछ ही लिया, "क्यों क्या हुआ  जम्मू का नाम सुनकर तुम्हारे सभी के चेहरों पर हवाईयाँ क्यों उडने लगी ?”

सुमन अपने को सम्भालते हुए, “कुछ नहीं ताई कुछ नहीं |” 

ताई :- नहीं सच सच बताओ |

रेवती :- ताई कोई खास बात नहीं है | बस यूँ ही |

ताई :- जरूर कोई खास बात है | तुम सब मुझसे कुछ छिपाना चाह रही हो | जम्मू का नाम सुनकर तुम्हारी सभी की दशा ऐसे हो गई थी जैसे तुम्हे साँप सूघ गया हो | सभी को झंझोड़ते हुए ताई पूछने लगी, “सच सच बताओ क्या बात है |” 

सुमन ;- आपके बेटे बता रहे थे कि कल जम्मू के इलाके में पाकिस्तान के जहाजों ने भारी बमबारी की थी |

लता :- परंतु ताई घबराने की जरूरत नहीं है | खबर यह भी है कि हालाँकि माल हानि तो बहुत है परंतु जान कोई नहीं गई | 

रेवती :- फिर यह भी तो नहीं पता कि बमबारी किस इलाके में हुई है | 

सबकी बातें सुनते सुनते ताई का सिर चकराने लगा | और वे गिरने को हुई कि सुमन ने बढकर उन्हें सम्भाल लिया | सभी औरतों ने सहारा देकर ताई को उनके घर तक पहुंचा दिया | 


Thursday, August 27, 2020

उपन्यास ''आत्म तृप्ति' (भाग - XVIII)

 XVIII

अगले दिन की सुबह सुबह दरवाजे की घंटी बजने पर संतोष ने जब दरवाजा खोला तो वरूण को सामने खडा पाकर प्रसन्नता से खिल उठती है | उसके मुहँ से अचानक निकला, "अरे आप |” 

“क्यों क्या मुझे आना नहीं चाहिये था ?”

“पहले आप अन्दर तो आईये | आप तो अपने ही हैं | आपको क्या रोक टोक आप तो कभी भी आ सकते हैं |”

“धन्यवाद जो आपने मुझे अपना समझा |” 

संतोष, वरूण की बात पर मुस्कराते हुए पूछती है, "जीजी कैसी हैं ?”

“जच्चा बच्चा दोनों कुशल से हैं |”

“तो क्या ?”

“हाँ लड़का हुआ है |” 

संतोष खुश होकर तथा उतावलेपन में, "जीजी कहाँ हैं, अस्पताल में या घर पर ?”   

“घर पर ही है |”

अन्दर से सास की आवाज सुनाई दी, "बहू कौन आया है ?”

संतोष ने यह कहते हुए अन्दर प्रवेश किया, “माता जी देहली- सदर वाले, जीजा जी आए हैं |” 

हालाँकि संतोष को पता चल गया था कि उसकी नन्द कविता ने एक लडके को जन्म दिया है परंतु उसने यह उचित नहीं समझा कि अपनी सास को यह खुश खबरी उसके मुहँ से पता चले अतः वह इस बारे में मौन रही |

संतोष के पीछे पीछे वरूण भी अपनी सास के कमरे में आकर गुलाब छूने का इशारा करते हुए, "नमस्ते माता जी |”

सास बहुत ही प्रसन्न मुद्रा में अशिर्वाद देते हुए, "जीते रहो, सब कुशल तो हैं ?”

“आप सबकी दया है जी |”

सास बच्चा होने से अनभिज्ञ परंतु जानने को इच्छुक, "क्या खुश खबरी है ?”

“लड़का हुआ है |”

“कब ?”

“कल दोपहर |”

“क्या किसी को बुला लिया है देखभाल करने को ?”

“मेरा इस दुनिया में आप लोगों के अलावा है ही कौन जिसे बुला लेता |”

अपने दामाद की बात सुनकर संतोष की सास कुछ सोच में पड गई | फिर अचानक उन्होने संतोष की तरफ ऐसी निगाहों से देखा जैसे पूछ रही हों, "क्या तुम जा सकती हो?”

अपनी सास की नजरों का आशय समझकर संतोष एकदम ऊपर से नीचे तक काँप उठी तथा इससे पहले कि वे कुछ कहती संतोष ने वहाँ से जाना उचित समझ बाहर जाने को  अपना रूख किया ही था कि उसकी सास ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा, "बहू एक हफ्ते के लिये तुम चली जाओ |”

संतोष अपनी सास कि बात सुनकर हक्की बक्की रह गई, “मैं.....मैं..| माता जी मुझे किसी बात का कोई भी ज्ञान नहीं है | मैं भला वहाँ जाकर क्या करूंगी |”     

 कमरे में निःस्तब्धता छा जाती है | संतोष महसूस करती है कि उसकी सास थोड़ीउदास सी हो गई हैं | वरूण भी अपना सिर नीचा किये कुछ सोच रहे हैं | इस पर संतोष ने मन ही मन अपनी ससुराल के माहौल का जायजा लेते हुए अन्दाजा लगाया कि इस समय वही एक ऐसी है जो फालतू कही जा सकती है | इसलिए  जाना तो उसे पड़ेगा ही अतः ज्यादा हा-हुज्जत कराए बिना ही उसने मौन तोड़ते हुए तथा बनावटी हंसी चेहरे पर लाते हुए वरूण को सम्बोधित करते हुए कहा, "क्या हमसे नाराज हो, जीजा जी ?” 

संतोष के मौन तोड़ने पर वरूण को अपने मन की मुराद पूरी होती नजर आने लगी | वह अन्दर ही अन्दर बाग बाग हो रहा था | अपनी अन्दरूनी खुशी को जाहिर न करते हुए वह बड़ी सोच समझ कर बोला जिससे संतोष को अपनी प्रति आसक्त कर सके |

“आप से भला कौन नाराज हो सकता है |”

“ऐसी क्या खास बात है हम में ?”

“भाभी जी आपने भी एक शायर की यह कहावत सुनी होगी कि, "जो बात तुझ में है किसी और में नहीं |”

“क्यों उडा रहे हो | कोई और नहीं मिली क्या ?”

“मिली लेकिन आप से अच्छी नहीं |(सिसकारी भरते तथा थोडा दांत पीसते हुए) आप तो बस.......|”

संतोष बीच में ही टोकते हुए तथा चेहरे पर थोड़ी नाराजगी जाहीर करते हुए, "देखो जीजा जी ये सब बातें मुझे पसन्द नहीं हैं |”

वरूण अपने कानों पर हाथ लगाते हुए, "अच्छा भाभी जी माफ करना अगर मुझ से आपकी शान में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो |”

संतोष की सास अन्दर प्रवेश करते हुए, "जमाई जी ऐसी क्या बात हो गई जो माफी मांगी जा रही है ?”

“माता जी ऐसी कोई बात नहीं है बस यूँ ही |”

अचानक सास ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा, "बहू जा तैयार हो जा और इनके साथ ही चली जा | एक हफ्ते की करके आ जाना |”

इस बार सास की बात सुनकर संतोष पर कोई असर नहीं हुआ | वरूण के साथ जाने की सुनकर वह विचलित नहीं हुई क्योंकि वह पहले से जान चुकी थी कि उसका मना करना बेकार रहेगा | उसे हर हाल में जाना तो पड़ेगा ही | अतः वह चुपचाप तैयार हुई तथा वरूण के साथ चली गई | 

 देहली के भीड़ भरे इलाके की गली में  पुराना परंतु कायदे से पुता तथा रंग रोगन किया  खुले आंगन वाला एक मकान था | यह चार किराएदारों के लिये एक सम्मिलित आंगन था | वरूण के पास चार कमरों का सैट था | एक कमरे में कविता(वरूण की पत्नि) अपने नवजात शिशु के साथ लेटी थी | बाकी कमरों में से एक कमरा ड्राईंग रूम की तरह इस्तेमाल होता था ,दूसरा सोने के लिये और तीसरा रसोई के लिये इस्तेमाल किया जाता था |

शाम का अंधेरा घिर आया था | वातावरण में हल्की ठंड समा गई थी | संतोष के हाथ का बना खाना खाते हुए वरूण, "बहुत दिनों बाद इतना स्वादिष्ट एवं मन पसन्द खाना खाने को मिला है |”

“रहने दो, रहने दो | मै भला खाना बनाना क्या जानूं |” 

“भाभी जी मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ | खाना बहुत ही स्वादिष्ट बना है | उपर से यह कि आपने वही सारी वस्तुएँ पकाई हैं जो मुझे सबसे ज्यादा पसन्द हैं | वैसे भाभी जी एक बात बताओ कि आपको मेरी पसन्द कहाँ से पता चली ?”

“जिसके बारे में पता न हो और सोचा भी न जाए परंतु वह हो जाए तथा अपने साथ साथ दूसरे का मन मोह ले तो उसे करने वाले का सौभाग्य ही कहा जाएगा | अतः यह मेरा सौभाग्य है कि आपको मेरा बनाया खाना इतना पसन्द आया |”

वरूण डकार लेते हुए और पेट पर हाथ फेरते हुए खाने की मेज से उठ कर बाहर चला गया | बाहर चहल कदमी करने के बाद जब वह वापिस आया तो संतोष भी हर काम से फारिग हो चुकी थी | वह आकर सोफे पर बैठ गया | रात के दस बजे होंगे | उसने अपनी कमर तथा गर्दन पूरी तरह सोफे पर लगा दी तथा आंखे मून्दकर आराम करने की मुद्रा में बैठ गया | थोड़ी देर तक संतोष ने जब यह देखा कि वरूण बिलकुल भी हिलाडुला नहीं है तो उसने निकट आकर यह जानने के लिये कि वह सचमुच सो तो नहीं गए हैं पूछा, " सो गए हैं क्या ?”  

वरुण ने उसी मुद्रा में जवाब दिया, “नहीं, सारे दिन की भागदौड से अब फुर्सत मिली है | खाना भी आज लाजवाब बना था जिसको खाकर तृप्ति सी हो गई है | अतः अपने को बहुत हल्का सा महसूस कर रहा हूँ | साथ में आपके बारे में भी सोच रहा हूँ |”

संतोष ने आश्चर्य से पूछा, “मेरे बारे में ! हम भी तो सुने कि आप मेरे बारे में क्या सोच रहे थे ?”

“यही कि आप की नन्द तो जच्चा है तथा अपने बच्चे के साथ मदहोश सो रही है |” 

“तो क्या हुआ ?”

“यही कि हम तुम दोनों रात में अकेले बैठे बात कर रहे हैं |” 

वरूण की बात सुनकर संतोष का दिल जोर जोर से धडकने लगा | फिर भी अपनी आवाज में निडरता का पुट लाते हुए बोली, "तो क्या हुआ ?” 

वरूण ने अपनी बातों का मकसद बदलते हुए, "यही कि अगर आपके पति को बाद में पता चला कि आप मेरे पास रहकर गई हैं तो वे कहीं इसका बुरा न माने तथा एतराज जताने लगे |”

“अगर यही सोचना था तो मुझे लाने से पहले यह सब सोचना था | अब पछताए क्या होत है जब चिडिया चुग गई खेत | वैसे आप मेरे पति के स्वभाव एवं गुणों को शायद अभी अच्छी तरह जानते नहीं | वे धैर्यवान तथा अपनों पर पक्का विशवास रखने वाले इंसान हैं | ऐसे सीधे, सच्चे और शांत स्वभाव वाले व्यक्ति को अपने पति-परमेशवर के रूप में पाकर मुझे अपने आप पर गर्व होता है |” 

“बहुत विशवास है गुलाब पर ? आपको क्या मालूम कि बाहर रहकर वे क्या क्या करते होंगे ?”

“उन्हें मैं उनसे ज्यादा जानती हूँ |” 

“उनकी जिन्दगी में आए अभी आपको दिन ही कितने हुए हैं जो इतना विशवास से बोल रही हो |” 

“मैं उन्हें बचपन से जानती हूँ |”

“तो क्या कोई लव स्टोरी पूरी.....?”

“नहीं ऐसी भी कोई बात नहीं है |”

अपना काम तथा दिल की बात बनते न देख वरूण ने बातों का विषय बदलते हुए, "अरे हाँ, भाभी जी एक बात कहना तो मैं भूल ही गया |” 

“क्या ?”

“उस थैले में कल सुबह के लिये कुछ सब्जियाँ हैं |”

संतोष सब्जियाँ निकाल कर फ्रिज में रखने लगती है तो कटे बैंगन देखकर, "ये बैंगन कटवा कर क्यों लाए हो ?”

वरूण एक कड़वी हंसी हंसते हुए जैसे उसे अपने मन की मुराद पूरी होती नजर आने लगी हो, "भाभी जी क्या है कि आजकल बाजार में बैंगन कट कर ही बिक रहे हैं |”

वरूण की इच्छा एवम उसके दिल के कपट से बे-खबर संतोष ने बड़ी सादगी तथा मासूमियत से पूछा, "कट कर बिक रहे हैं ! भला क्यों ?”

“भाभी जी सुना है अस्पताल में एक ऐसा केस आया है जिसमें बैंगन के कारण एक औरत को बहुत तंगी उठानी पड़ी |”

वरूण की भावनाओं तथा मनोइच्छा से अनजान संतोष ने उसकी बातों का कोई मतलब न समझ एक बार फिर पूछा, "क्यों भला ?”

वरूण ने क्नखियों से देखते हुए तथा यह सोचकर कि संतोष भी उसकी इच्छाओं की भागीदार बनना चाहती है फट से बोला, "भाभी जी सुना है बहुत दिनों से उस औरत का आदमी घर पर नहीं आया था | मौसम और वातावरण कुछ ऐसा बना कि वह औरत अपने पर काबू न रख पाई..... और.......|”, कहते कहते वरूण ने कमरे की बत्ती बुझा दी | जवान सलेज के साथ अंधेरा एवं एकांत पाकर उसके अन्दर की कामनाएँ जो पहले से ही सिर उठा रही थी और बलवती होने लगी | उसका पौरूष जाग उठा |

 अचानक संतोष चौंक उठी | उसे लगा जैसे उसकी कमर पर कुछ रेंग रहा है | उसने महसूस किया कि वे किसी व्यक्ती की उंगलियाँ थी | परंतु बत्ती बुझने से पहले वरूण और उसके अलावा कमरे में कोई और तो था नहीं तो क्या वरूण ....| एक अनजान अनहोनी घटना को घटित होने से रोकने के लिये संतोष ने बड़े  आत्मविशवास एवं निडरता से कहा, "यह क्या अनर्थ करना चाह्ते हैं आप ?”

"कुछ नहीं....आज की रात हम दोनों प्यासे हैं तथा अकेले हैं", कहते हुए वरूण ने संतोष को अपनी ओर खींचना चाहा |      

संतोष एक झटके से वरूण की बाहों से बाहर होकर एक कौने में खड़ी हो गई | उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा | किसी अनिष्ट की आशंका से वह अन्दर ही अन्दर काँप गई तथा उसके माथे पर पसीने की बून्दे झलकने लगी | इस स्थिति से उभरने तथा वरूण का दिमाग ठिकाने लगाने के लिये संतोष ने मेज पर रखा टेबल लैम्प उठाते हुए दृडता से कहा, "खबरदार, मुझे आप से ऐसी आशा न थी | मेरे मन में आपके लिए बहुत सम्मान था | आपने मेरे पति को मोहरा बना कर शायद अपने बारे में ठीक कहा था कि पुरूषों का कोई भरोसा नहीं", कहते कहते संतोष ने दूसरे हाथ से कमरे की बत्ती जला दी |

जैसे वरूण ने संतोष की आशाओं एवं उम्मीदों को तोड़ा था उसी प्रकार संतोष ने वरूण की आशाओं एवं उम्मीदों पर पानी फेर दिया था | परंतु दोनों की आशाओं एवं उम्मीदों में जमीन आसमान का फर्क था | जहाँ संतोष की आशाएँ तथा उम्मीद वरूण के प्रति विशवास तथा वफादारी लिये थी वहीं वरूण की आशाएँ तथा उम्मीद संतोष के प्रति वासना से लिप्त थी | इसीलिए तो जब संतोष ने कमरे की बत्ती जलाई तो उसकी आंखे एक शेरनी की आंखों की तरह लाल जल रही थी जब की वरूण ने उसके सामने एक भेड़िये की तरह अपना सिर झुका लिया था | 

वरूण के चेहरे का रंग उड़ गया था | वह सकपका रहा था फिर भी संतोष को पाने की लालसा उसके मन से गई नहीं थी अतः बोला, "मैं क्या करूँ भाभी जी, जब से तुम्हें देखा है मेरा मन मेरे बस में नहीं है | मेरी रातों की नींद उड़ गई है | सच भाभी जी मैं तुम्हें चाहने लगा हूँ | तुम्हें प्यार करने लगा हूँ |” 

वरूण की ऐसी अनर्गल बातें सुन कर संतोष के चेहरे पर गहरा विषाद घिर आया | अन्दर से वह रो रही थी परंतु बाहर से अपनी दृडता कायम रखते हुए बोली, "आप भी आखिर वही बगुला भगत  निकले | आप से अपने रिस्ते-नाते की वजह से दो घड़ी हंस बोल क्या ली कि आप मुझे ऐसी वैसी औरतों का दर्जा देने की कोशिश करने लगे | क्या इन सब बातों का अंजाम जानते हो आप ?”

“भाभी जी आप मेरा मतलब नहीं समझी |” 

“पहले तो बिलकुल नहीं समझती थी परंतु अब अच्छी तरह समझ चुकी हूँ | किसी गैर महिला की कमर में हाथ डालकर उसे अपनी और खिंचने का एक मर्द का क्या उद्देश्य हो सकता है | जीजा जी हमारा कुटुम्ब परिवार एक विश्वास के उपर खड़ा रहता है | इसी के आधार पर मैं आपके यहाँ हूँ | मुझे अपने पति पर तथा उन्हें मेरे उपर पूरा एतबार है | यदि मैं उनके साथ विशवास घात करूंगी तो हमारी गृहस्थि एक रेत का घरोन्दा बन कर रह जाएगी | अभी तो हमारे गृहस्थ जीवन की शुरूआत है | इसलिये आप से अनुरोध है कि इसे बरबाद करने में सहायक मत बनो |” 

फिर कड़े श्ब्दों में वरूण को चेतावनी देते हुए, "एक बात और ध्यान से सुन लो मैं गुलाब  से कभी भी विशवासघात नही करूंगी चाहे मुझे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े  |”   

वरूण ने चकित भाव से संतोष की तरफ देखा | उसने सोचा भी न था कि संतोष जैसी कोमल, हसीना, हंसमुख अबला नारी इतनी दृडता दिखा सकती है | उसके बुने जाल को एक ही झटके में काटने की वह क्षमता रखती है | उसके समझोते एवं याचना को ठोकर मार कर उसे हरा सकती है | वरूण को ऐसे घटनाक्रम की उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी | वह हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाए आगे बढा और संतोष के पास जाकर उसके पैरों में गिरकर गिड़गिडाने लगा, "भाभी जी मेरी बुद्धी खराब हो गई थी |  जो मैने अपने साथ आपको भी गर्त के गड्ढे में धकेलने में कोई कसर न छोड़ी थी | वास्तव में ही आप पूजनीय हो | आपने मेरी आंखे खोल दी हैं | भाभी जी अब मैं अपने अन्दर के अपराधी को मारना चाहता हूँ जिसने एक निश्छल नारी को कलंकित करने की कोशिश की | कृप्या मुझे माफ कर दो |”


Tuesday, August 25, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग -XVII)

 XVII

शाम को संतोष की जिठानी"प्रेम" अपने पीहर से वापिस आ गई | अपनी सास के चरण छूकर वह उनके गले लगकर सिसकियाँ भरने लगी | प्रेम को आया जान घर के सभी सदस्य अपनी अपनी सहानुभूति प्रकट करने हेतू वहाँ एकत्रित हो गए | सास ने अपनी बहू को, रोते देखकर, समझाते हुए बडे ही कोमल एवं मधुर शब्दों में कहा, "नहीं बेटी अपना दिल छोटा न कर | परम पिता परमात्मा की करनी के आगे किसका जोर चलता है | अब रो मत | जा अन्दर जाकर आराम कर ले, थक गई होगी  |” 

इतने में संतोष आगे बढकर अपनी जिठानी के चरण छुना ही चाहती थी कि प्रम ने उसे कंधों से पकड़ कर अपने सीने से लगा लिया | प्रेम कुछ बोली नहीं और धीरे धीरे अपने कमरे की तरफ बढ गई | 

वास्तव में प्रेम की माता जी का स्वर्गवास उसी समय हो गया था जब वह छः साल की रही होगी | उसके छोटे भाई तथा उसका लालन पालन उनके पिता जी(मुनीम जी) ने बहुत ही बेहतरीन एवं सुचारू रूप से किया | पिता ने बच्चों को माँ का अभाव कभी भी महसूस नहीं होने दिया | उन्होने दोनों बच्चों को इस काबिल बना दिया कि अपने जीवन में वे सफलता की सिढियाँ आसानी से चढ सकें | प्रेम को घर ग्रह्स्थी चलाने का पूरा ज्ञान उसकी मुहँ बोली चाची कृष्णा से प्राप्त हुआ था | वह घर के हर काम में चतुर थी | हालाँकि वह शहर में पली बड़ी हुई परंतु ब्याह कर गाँव में आने पर उसने अपने आप को वहाँ के माहौल में इस तरह ढाल लिया जैसे वह बचपन से ही यहीं रह रही थी | प्रेम के छोटे भाई ने भी दिल्ली कालेज आफ इंजिनियरींग से टैक्सटाईल इंजिनियरींग की डिग्री करके बिरला मील में पद भार सम्भाल लिया था |          

धीरे धीरे घर के सभी सदस्य अपने अपने काम में लग जाते हैं | आंगन में जल रही अंगीठी के सामने अकेली संतोष बैठी रह जाती है | संतोष जाती भी तो कहाँ जाती | उसकी जिठानी के आ जाने से उसका आशियाना भी तो छिन गया था | खैर कोई काम न देख संतोष ने धीरे धीरे रात का खाना बनाने का काम शूरु कर दिया | जिठानी जब से कमरे में गई थी उसने एक बार भी बाहर कदम नहीं रखा था | रात के खाने की भी उन्होने मना भेज दी थी | अब रात के खाना खा चुकने के बाद फारिग होकर संतोष एक बार फिर अकेली रह गई थी | सभी अपने अपने कमरों में जाकर आराम करने लगे परंतु संतोष के पास तो अब अपना कहने के लिये कोई कमरा ही न था तो वह कहाँ जाकर रात बिताती | कुछ समय तक तो बैठी वह अंगीठी पर अपने हाथ सेकती रही फिर उसके पास ही एक दरी बिछाकर लेट गई | वह सोचने लगी कि वास्तव में ही यह संसार बडा स्वार्थी है | माना कि बुआ जी और माता जी तो दुकान पर चली जाती हैं परंतु उनका यह तो फर्ज बनता है कि जाते समय मेरा कुछ इंतजाम करके जाएँ | उनके जाने के बाद किसी को मेरी परवाह ही नहीं है कि मैं अकेली कहाँ सोऊंगी | और एक वो हैं कि मुझे यहाँ अकेला छोड़कर चले गए हैं | अबकी बार आएंगे तो मैं साफ साफ कह दूंगी कि मुझे भी साथ लेकर जाएं | मैं इस तरह यहाँ अकेली नहीं रह सकती | अचानक संतोष को अपने नन्देऊ वरूण के शब्द अपने कानों में गूंजते से सुनाई दिये, "भाभी जी  यह उपदेश सब दिखावा है वास्तव में गुलाब का साथ न पाकर आपका मन आपको कचोटता होगा | आपको धिक्कारता होगा | आप खून के घूंट पीकर रह जाती होंगी | मजबूर होकर आप गुलाब की याद को भुलाने की कोशिश करती होंगी | परंतु जब आप अकेले में बैठती होंगी तो रात के सन्नाटे में चारों और आपको गुलाब की मूरत ही नजर आती होगी |” 

सोचते सोचते संतोष का दिल भर आया | आंखों से अश्रु बह निकले और मन की पीड़ा जबान से बाहर आने लगी |

                               विरह का गाना

छोड़ गए बालम मुझे हाय अकेला छोड़ गए |

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हालाँकि लीलावती की अपनी पाँच लड़कियाँ थी परंतु करूणा का करूण क्रन्दन उससे देखा न गया जब एक हादसे में उसके सारे परिवार वाले मृत्यु को प्राप्त हो गए थे | करूणा उस समय लगभग तीन वर्ष की रही होगी जब लीलावती ने उसके पालन पोषण का जिम्मा उठाया था | करूणा का घर में वही दर्जा था जो लीलावती की और बेटियों को हासिल था | कई तो जानते भी नहीं थे कि करूणा एक अनाथ लड़की है | नई ब्याही आई संतोष को भी इसकी भनक तक न थी |

गुलाब की शादी के समय करूणा की उम्र लगभग सोलह वर्ष की रही होगी | वह मकान में नीचे बनी बैठक में अकेली ही सोती थी | वैसे तो करूणा बहुत मृदुभाषी, सहनशील तथा मिलनसार प्रवृति की लड़की दिखाई देती थी परंतु आज जब संतोष को रात बिताने को कोई जगह न थी तब भी करूणा ने संतोष से एक बार भी नहीं कहा कि वह उसके साथ उसकी बैठक में सो जाए | ऐसा भी नहीं था कि बैठक बहुत छोटी थी जिसमें दूसरी चारपाई बिछाने की जगह ही न थी | बैठक इतनी लम्बी चौड़ी थी कि तीन चारपाईयाँ बिछाने के बाद भी उसमें चलने फिरने की जगह रह जाती | संतोष बैठे बैठे सोचने लगी कि अगर करूणा कहती तो वह बैठक में पड़े सोफे पर ही सोकर अपनी रात आराम से बिता देती | वैसे जब करूणा खाना खाकर उठकर जा रही थी तो संतोष ने महसूस किया था कि करूणा उसे कनखियों से देखते हुए उसकी आँख बचाकर अपनी बैठक की तरफ बढ रही थी | संतोष घर में नई सदस्य थी | वह अभी किसी के स्वभाव तथा व्यवहार के बारे में कुछ नहीं जानती थी | अतः जब किसी ने उससे उसके सोने के बारे में कुछ नहीं पूछा तो वह चुपचाप अंगीठी के पास बैठी रह गई |

संतोष पहली मंजिल पर बीच चौंक में बने जाल के पास लेटी हुई थी | वहाँ से पहली मंजिल के साथ साथ नीचे होने वाली जरा सी आहट भी सुनाई दे जाती थी | चारों और सन्नाटा व्याप्त था | घड़ी की टिक-टिक भी ऐसा आभाष दे रही थी जैसे कोई हथोड़ी से धीरे धीरे  कुछ ठोक रहा हो | रात का लगभग एक बजा होगा | बाहर गलियारे में वास्तव में ही धीमी धीमी खट खट की आवाज ने संतोष के कान खड़े कर दिए | वह चौकन्नी हो गई तथा एकाग्रता से कान लगाकर सुनने का प्रयास करने लगी कि कहीं उसे कोई बहम तो नहीं है | धीरे से दोबारा खट खट की आवाज सुनाई दी | संतोष ने अन्दाजा लगाया कि वह आवाज पोली के दरवाजे पर न होकर साथ वाली बैठक के दरवाजे पर हो रही थी | संतोष दम साधकर निश्चल लेटी रही |    

हालाँकि घर में बिजली थी परंतु संतोष को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि बैठक में लालटेन से रोशनी की गई | बैठक के दरवाजे में एक छोटा सा छेद था जिससे बैठक में हो रही मध्यम सी रोशनी निकल कर पोली के फर्श पर पड़ रही थी | यह रोशनी, उपर जाल से, लेटी हुई संतोष को साफ दिखाई दे रही थी | संतोष और भी एकाग्रचित होकर हर आहट का जायजा लेने लगी | पहले बैठक के दरवाजे का ताला जो अन्दर से लगा रहता था खोला गया | फिर धीरे से बैठक का एक पल को दरवाजा खुला और बन्द हो गया | दरवाजा बन्द होने के बाद लालटेन की रोशनी मन्दी कर दी गई | संतोष अन्दर ही अन्दर काँप गई | उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे | उसके शोर मचाने से, अगर वैसा कुछ पकड़ा गया जो वह सोच रही थी तो, घर की बदनामी का डर था | और अगर वैसा कुछ नहीं पाया गया तो उसकी खुद की हँसी उड़ाई जाएगी | आखिर अपना मन पक्का करके दबे कदमों से नीचे जाकर उसने किवाड़ के छेद से अन्दर का दृश्य देखकर उसके अनुसार ही कुछ करने का निश्चय कर लिया | उसने किवाड़ के छेद से जो नजारा देखा उसे देख कर वह भौंचक्की रह गई | उसका शरीर बर्फ जैसा ठंडा हो गया | उसे काठ जैसा मार गया | बड़ी मुश्किल से उसने अपने आप को सम्भाला | इतने में बैठक का दरवाजा खुला, ताला बन्द किया गया, लालटेन बुझा दी गई तथा अन्दर अंधेरे के साथ साथ फिर निस्तब्धता छा गई |   

संतोष अपनी जगह आकर लेट गई | नीदं तो उसे पहले ही नहीं आ रही थी और अब बैठक का नजारा देख कर तो वह उसकी आंखो से कोसों दूर चली गई प्रतीत हो रही थी |  उसके सामने असमंजस्ता की स्थिति बन गई थी | अगर वह रात का देखा हुआ किस्सा अपनी सास को ब्यान करती है तो घर में बखेडा खड़ा होने का डर था | और अगर किसी को नहीं बताती है तो वह बदस्तूर चलता रहेगा जब तक उस पर अंकुश न लग जाएगा | यही सोचते सोचते कि वह क्या करे क्या न करे सुबह हो गई |

संतोष का सारा शरीर टूटा जा रहा था | सिर में भी थोड़ा भारीपन महसूस हो रहा था | वह बार बार उबासियाँ ले रही थी | 

संतोष की सास ने उसको उबासियाँ लेते हुए देखकर, “क्या बात है रात को ठीक से सोई नहीं क्या ?”

“नहीं माता जी ऐसी कोई बात नहीं है | मैं तो आराम से सोई थी |” 

“फिर आज क्या बात है तेरा चेहरा मुर्झा सा क्यों रहा है ?” 

“नहीं माता जी मैं ठीक हूँ |”  

सास कुछ सोचकर, “अरे हाँ रात को तू कहाँ सोई थी ?” 

संतोष कुछ सकपकाते हुए, “यहीं अंगीठी के पास ऐसी सोई कि पता ही न चला कि कब सवेरा हुआ |”

सास ने बडे ही ममता भरे शब्दों में कहा, “तू डर रही है कि अगर तूने साफ साफ बताया तो सभी घर वालों को डाँट पड़ सकती है कि उनमें से किसी ने भी तेरा ख्याल नहीं रखा | क्योंकि मैं जानती हूँ कि मेरे जाने के बाद तूझे अकेला छोड़कर सभी अपने अपने कमरों में जाकर सो गए होंगे | मैं भी तो जाने से पहले तेरा इंतजाम करना भूल गई थी | तेरा चेहरा ही बता रहा है कि तूने रात कैसे काटी होगी | तू मुझे बहकाना चाहती है ? आज से तू करूणा के साथ बैठक में सोएगी |” 

संतोष चुपचाप गर्दन झुकाए अपनी सास की बात सुनती रही | इस दौरान उसने कई बार सोचा कि वह अपनी सास से रात की घटना का जिक्र कर दे परंतु बार बार उसकी हिम्मत जवाब दे जाती थी | क्योंकि माँ के, अपनी बेटी जैसी करूणा पर, विशवास को छेद पाना नई बहू के लिए भारी पड़ सकता था | फिर माँ की आज्ञा से इतना तो हो ही गया था कि उसके बैठक में सोने से आईन्दा के लिए करूणा के गल्त कारनामों पर रोक तो लग ही जाएगी | अतः उसने अपने पति को ही इसकी थोड़ी सी भनक देना उचित समझा | 

संतोष ने गुलाब को लिखे पत्र में केवल इतना ही लिखा, “आजकल मैं करूणा के साथ ही सोती हूँ | उसके व्यवहार से पता चलता है कि उसके कदम कभी भी बहक सकते हैं अतः मेरे विचार से उसकी शादी जल्दी कराना बेहतर होगा | पूरा विवरण आने पर बता दूंगी |”       


Monday, August 24, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग- XVI)

 XVI

एक दिन लीलावती अपनी बहू संतोष दोनों बैठी थी कि घर के दरवाजे की घंटी बजी | संतोष द्वारा दरवाजा खोलने पर उसे एक अनजान व्यक्ति बाहर खड़ा दिखाई दिया | वह अभी कुछ पूछना ही चाहती थी कि उस अपरिचित आदमी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा, "नमस्ते भाभी जी |”

नमस्ते का जवाब तो संतोष ने दे दिया परंतु वह दुविधा में पड़ गई कि आगे क्या करे | उसके लिये अन्दर जाने को रास्ता दे या नहीं | इतने में उसकी सास ने पूछा, "कौन आया है ?”

"मैं हूँ माता जी", कहता हुआ आगंतुक अन्दर धंसता चला गया और अपने चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कान लिये, साथ में इतनी धीमी आवाज में कि केवल संतोष को ही सुनाई पड़े बोला, "भगवान का शुक्र है सुबह सुबह सुन्दर चीज के दर्शन हो गए अब तो पूरा दिन अच्छा गुजरेगा |” 

“नमस्ते माता जी |”

“जीते रहो | बैठो ! आज अचानक सुबह सुबह कैसे आना हुआ ?”

बैठते हुए, “माता जी आपको पता तो है कि मेरी कोई बहन या भाभी तो है नहीं फिर ऐसे में क्या किया जाए बस यही सलाह आपसे लेने आया हूँ |”

“बहू जरा एक गिलास पानी तो दे जाना अपने नन्देऊ के लिए |” 

अपनी सास के आवाज देने से  संतोष अब जाकर समझ पाई थी कि आगंतुक कौन है | वैसे नन्देऊ के पहली मुलाकात के अवसर पर उनके अन्दाज के साथ साथ उनके द्वारा कहे शब्द संतोष को अच्छे नहीं लगे थे अतः अभी तक उसका चेहरा तमतमाया हुआ था | संतोष इंतजार कर रही थी कि वह अजनबी कब यहाँ से जाए और वह उसकी शिकायत अपनी सास से करे |परंतु उसकी सास की आवाज ने तो पासा ही पलट दिया था | उसने अपने आपको सम्भाला तथा एक ट्रे में दो गिलास पानी रखकर चली गई | वरूण (नन्देऊ) ललचाई नजरों से अपनी सलेज संतोष का आना देख रहा था | 

जब संतोष ने पानी का गिलास वरूण के सामने किया तो उसने संतोष की आखों में आंखे डालते हुए धीरे से उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, "आप तो बड़ी चुस्त, तन्दुरूस्त और सुन्दर हो  |”  

माता जी अपने काम में व्यस्त थी अतः वे शायद सुन नहीं पाई होंगी | जैसा अमूमन होता है कि एक औरत अपनी प्रशंसा सुनकर कुछ न कुछ अपना आपा खो बैठती है शायद उसी प्रकार अब संतोष के चेहरे की लालिमा से पता चलता था कि उसने अपने नन्देऊ द्वारा उसके बारे में कहे पहली मुलाकात के शब्दों को तूल देना बन्द कर दिया था | इसका कारण  यह भी हो सकता था कि संतोष को पहले पता नहीं था कि वरूण उसका सगा नन्देऊ था अतः उसे अजनबी समझ कर गुस्सा खा गई थी | पानी पिला देने के बाद संतोष ने मेहमान नवाजी बखारते हुए पूछा, "जीजा जी चाय लोगे या कुछ ठंडा ?”    

संतोष के बदले तेवर देखकर वरूण के मन में लड्डू फूटने लगे |  वह मन ही मन बुदबुदाया, "भाभी जी आप चाय-ठंडे की क्या बात कर रही हो अगर आप अपने हाथ से जहर भी पिलादो तो वह भी मुझे मंजूर होगा |” परंतु यह सब वह खुले आम नहीं कह सकता था | अतः मन में हिलोरे लेती अपनी एक पल की जीत जैसी खुशी के कारण उसने संतोष को अपने और नजदीक लाने के लिये कहा, "भाभी जी आपको भी मेरे साथ चाय पीनी पडेगी तभी मैं चाय पिऊंगा  |” 

जरूर, "संतोष ने हामी भरते हुए कहा  |”

“कितनी अच्छी हैं आप |”

संतोष अपने चेहरे पर बनावटी रोष लाते हुए, "क्या बात है जब से आए हो तारीफ ही किये जा रहे हो  |” इसके बाद न तो संतोष ने उत्तर की प्रतिक्षा की तथा न ही वरूण ने ही कोई जवाब दिया | परंतु जब संतोष पानी के खाली गिलास ट्रे में रखकर वापिस रसोई की तरफ जा रही थी तो पीछे से उसे सुनाई दिया,"तारीफ लायक चीज की तारीफ तो करनी ही चाहिए |” 

सुनकर संतोष मन ही मन मुस्करा कर रह गई | उसने न तो पीछे मुड़कर देखने की जरूरत समझी तथा न ही कोई उत्तर देने की, वह सीधी रसोई में चाय बनाने के लिए चलती चली गई |             

थोड़ी देर में संतोष चाय बना लाई | वरूण पता नहीं वास्तव में पत्रिका पढ रहा था या केवल दिखावे के लिए ही उसके पन्ने पलट रहा था | प्यालों की खनखनाहट सुनकर उसने अपनी नजरें उठाई | संतोष ज्यों ही ट्रे रखने ले लिये थोड़ी मेज की और झुकी तो पतले आंचल से झाँकते उसके वक्ष के उभारों पर वरूण ने अपनी नजरें गड़ा दी | यह देखकर वरूण के बदन में एक हल्की सी झुरझुरी दौड़ गई | उसने छुपाने की लाख कोशिश की परंतु संतोष से यह छुपा न रह सका | संतोष ने वरुण के प्रति अपनी नजरों में कड़ाई का रुख लाते हुए तथा कुछ लजाते हुएअपना पल्लू कसकर अपने बदन के चारों ओर लपेट लिया | जैसे किसी की चोरी पकड़ी गई हो वरूण ने अपनी गर्दन तो नीची कर ली परंतु उसका मन तेजी से कहीं ओर दौड़ रहा था | "कमाल है कितनी सुगठित देह, मदमाती आंखे, भोला मासूम सा चेहरा, सुराहीदार गर्दन तथा गुलाबी होंठ | लगता है विधाता ने गढते समय फुर्सत में काम किया होगा तभी तो किसी बात की कसर नहीं छोड़ी | संतोष का यौवन उसे आमंत्रित करता सा नजर आया | संतोष चाय प्यालियों में डालकर एक तरफ बैठ गई | उसने वरूण को अपने ही ख्यालों में खोया तथा चुप्पी साधे देखकर, "जीजा जी चाय लिजिये  |”

वरुण अपनी सोच से बाहर आते हुए, “अं ... आं ...ले रहा हूँ |” 

“कहाँ खो गए थे, आप ?”

संतोष से नजरें मिलते ही वरूण के माथे पर पसीने की बून्दे छलछला आई | 

“क्या बात है जीजाजी आप इतने नर्वस क्यों दिख रहे हो ?” 

“जी ............नहीं.........नहीं.....ऐसा कुछ नहीं है |”        

इसके बाद वरुण गटागट, एक ही सांस में, चाय का प्याला खत्म करके खड़ा हो गया तथा चारों और देखकर बोला, "माता जी कहाँ चली गई ?”

“अभी आती हैं पडौस की एक औरत बुलाकर ले गई है | उसे माता जी से कुछ सलाह मशवरा करना है |”

संतोष की सास ने अन्दर प्रवेश करते हुए तथा वरूण को खड़ा देखकर, "आप खड़े  कैसे हो गए ? जल्दी में हो क्या ?”

“हाँ माता जी | वैसे गुलाब भाई साहब कहाँ है वह तो दिखाई ही नहीं दिये |” 

“वह तो अपनी डयूटी पर चला गया |”

“ड्यूटी पर चला गया ! इतनी जल्दी ?”

“हाँ उसकी छुट्टियाँ इतनी ही थी |”

“यहीं आकर फौजियों की जिन्दगी पर तरस आता है | देखो न दुल्हन के हाथ की मेहन्दी का रंग अभी फीका भी नहीं पड़ा कि चल दिये अकेला छोड़कर |” 

“इसमें भला उनका क्या दोष है ?”

“दोष है भाभी जी क्योंकि उन्होने ऐसी नौकरी की जिसके सामने उसके  अपने प्यार की भी कोई कीमत नहीं | उसका तो बस एक ही ध्येय होता है कि कुर्बानी |”

“जीजा जी यह कुर्बानी नौकरी के लिए नहीं बल्कि अपने देश के लिए होती है | अपनी मातृ भूमी के लिए होती है |” 

“भाभी जी यह उपदेश सिर्फ एक दिखावा मात्र है | गुलाब का साथ न पाकर क्या आपका मन आपको कचोटता न होगा ? आपको धिक्कारता न होगा ? आप खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी | मजबूरी में आप गुलाब की याद को भुलाने की कोशिश करती होंगी | परंतु जब आप अकेले में बैठती होंगी तो सन्नाटे में चारों और आपको गुलाब की मूरत ही नजर आती होगी |” 

वरूण ने संतोष की दुखती रग को छू लिया था |  संतोष वरूण की इस बारे में और अधिक बातें  नहीं सुन सकती थी | वह अपने आप को कच्चा पड़ते नहीं दिखाना चाहती थी | अतः वह आखों में पानी भरे वहाँ से  उठकर अन्दर चली गई | कमरे में जाकर  निढाल हो वह बिस्तर पर गिर पड़ी और सिसकियाँ भरने लगी | 

बाहर वरूण अपने मन में अपनी काम वासना एवं हवस को पूरा करने के लिए  एक भयानक प्लान बनाने में विचार मग्न था | जब वह अपनी प्लान, जो संतोष को बर्बाद कर सकती थी, गढ चुका तो अपने मन में खुशी की लहरें लिए अपनी सास से बड़ी विनम्रता से बोला, "माता जी गुलाब अब कितने दिनों बाद आएगा "?

“कुछ बता कर नहीं गया | फिर भी शायद एक महीना तो लग ही जाएगा |” 

माता जी के कथन से वरूण का दिल बाग बाग हो गया | वह खुशी के मारे चीखना ही चाहता था कि समय रहते  उसने अपनी भूल सुधार ली | वह बडे धीरे से जैसे कहते हुए डर रहा हो अपनी सास से बोला, "माता जी अगर आपको कोई एतराज न हो तथा आप बुरा न मानो तो एक बात कहूँ ?”

“हाँ जी हाँ अपने दिल की  कहो |”

“मैं कहना चाहता था कि गुलाब तो अभी यहाँ है नहीं क्यों न आप संतोष को ही थोड़े दिनों के लिये अपनी लड़की की देखभाल को भेज दो |” 

वरूण की मनोदशा से ना वाकिफ तथा कुछ सोचकर सास ने जवाब दिया, "मैं इस बारे में घर वालों से पूछ्कर ही कुछ बता सकती हूँ |” 

वरूण उठकर हाथ जोडते हुए, "अच्छा ठीक है माता जी मैं एक दो दिनों बाद आकर फिर पता कर लूंगा  |”

“नहीं नहीं आप क्यों कष्ट करते हो अगर सलाह बनी तो मैं अपनी छोटी लड़की पूनम के साथ संतोष को खुद ही भेज दूंगी |” 

वरूण चलते हुए, "अच्छा माता जी जैसी आपकी इच्छा |”

अपने घर जाने से पहले वरूण ने संतोष के मन में अपनी शराफत का सिक्का बैठाने के लिहाज से उसके कमरे में जाना उचित समझा | वह संतोष का हमदर्द बनना चाहता था जिससे  आगे चलकर उसे अपने इरादे पूरे करने में अधिक कठनाई न उठानी पड़े |  

कमरे में संतोष औंधे मुहँ लेटी हुई धीरे धीरे सुबक रही थी | किसी के पाँव की आहट पाकर वह पल्टी तथा झटपट अपने आंसू पोंछने लगी | 

वरूण बड़ी मासुमियत से, “भाभी जी मुझे माफ कर दो | मैनें अनजाने में आपके कोमल हृदय को बहुत बड़ी ठेस पहुंचाई है  |” 

संतोष अपने चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए, “नहीं जीजा जी ऐसी कोई बात नहीं है | मुझे तो घर की याद आ गई थी |” 

“आपकी हालत देखकर मैं तो डर गया थ कि शायद मैने आपको नाराज कर दिया है |”

“इसमें नाराज होने की कोई बात है ही नहीं, जीजा जी |” 

“ठीक है अगर ऐसी ही बात है तो मैं जब जानू जब आप "लाईक ए गुड़ गर्ल "(एक अच्छी लड़की की तरह) मुस्करा कर मुझे विदा करेंगी |” 

“क्यों आप जा रहे हो क्या ? इतनी जल्दी क्या है खाना खाकर जाना |”

“नहीं भाभी जी आज नहीं | वैसे तो आपके हाथ का खाना खाने की बहुत इच्छा है परंतु आज मजबूर हूँ | माफ करना फिर कभी(अन्दर ही अन्दर अपने मन में तुम तो खाना खाने की कह रही हो मैं तो तुम्हे सारा का सारा ही खाने की सोच रहा हूँ, जरा मौका तो मिलने दो) | फिर वरूण हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए, "लाईक ए गुड़ गर्ल (एक अच्छी लड़की की तरह)|” 

इस बार संतोष मुस्कराए बिना न रह सकी |

वरूण बाहर जाते हुए तथा संतोष की मुस्कराहट के बारे में अपना अन्दाजा लगाकर यह सोचते हुए कि उसने अपनी सफलता की पहली सीढी पर कदम रख दिया है कहा, ”यैस दैट इज इट” (हाँ बिलकुल इसी तरह से)|


Sunday, August 23, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग -XV)

 XV

अपने को अकेला पाकर संतोष ने कमरे का निरीक्षण किया | कमरा खास सजाया नहीं गया था फिर भी हर वस्तु करीने से लगी हुई थी | कमरे के बीचों बीच एक डबल बैड़ बिछा हुआ था | बिस्तर पर शायद नाम के लिये थोड़े फूल बिखेर दिये गये थे | कमरे में मकान के खम्बे की वजह से एक कौना सा उभर आया था | अगर उस कौने में कोई खड़ा हो जाए तो बाहर से कमरे में आने वाले को जल्दी से वह खड़ा हुआ आदमी नजर नहीं आएगा | संतोष को अचानक एक शरारत सुझी और वह झटपट उठकर उस कोने में जाकर खड़ी हो गई | कमरे की बत्ती बुझाकर उसने टेबल लैम्प जला दिया जिससे रौशनी मध्यम हो जाए |  उसका दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था | वह सोचने लगी कि न जाने गुलाब कैसे मिजाज का लड़का है | वह कुछ रंगीले मिजाज का तो अवश्य ही होगा तभी तो उसने उसकी बुआ जी माला को अपने चक्कर में फंसा लिया था | वह तो सब कुछ जानता होगा कि सुहागरात क्या होती है | शायद उसने बुआ जी के साथ भी सुहागरात मना रखी हो | यही सब सोचते सोचते वह एक बार को काँप कर रह गई | तभी दरवाजे पर आहट सुनकर वह कोने में थोड़ी और सिमट गई |    

धीरे से दरवाजा खुला | गुलाब अन्दर दाखिल हुआ | अपने पीछे उसने दरवाजा बन्द किया | पलट कर कमरे की मध्यम रोशनी में उसने महसूस किया कि संतोष पलंग पर नहीं थी | हालाँकि उस छोटे से कमरे में एक आदमी को ढूंढना कोई मुस्किल काम नहीं था फिर भी गुलाब ने ऐसा करने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं की | वह वहीं खड़ा सोचने लगा कि लगता है लड़की बहुत चालाक एवं चालू है | देखा नहीं किस तरह से चोरी चोरी फेरों के समय ही अपने पैर के अंगूठे से कैसी कारस्तानी की थी | ऐसा बेशर्म तो कोई लड़का भी नहीं होता और यह तो लड़की है | पता नहीं कैसा स्वभाव होगा तथा भविष्य में जीवन कैसे कटेगा | खैर औखली में सिर दिया तो धमाकों का क्या डर अपनी तरफ से शुरूआत तो खुशी जाहिर करते हुए ही करनी चाहिए | 

संतोष की शरारत के जवाब में उसे भी शरारत सूझ गई | वह चारों तरफ देखता हुआ आगे ऐसे बढा जैसे उसे कुछ दिखाई न दे रहा हो तथा अंधेरे में कुछ ढूंढ रहा हो | वह दो कदम उल्टे चलकर जानकर धडाम से फर्श पर गिर पड़ा और मुहँ से आवाज निकली “हे राम” | 

फिर चारों और निःस्तब्धता  छा गई |

 संतोष थोदी देर तो दिल थामें चुपचाप खड़ी रही परंतु गुलाब के शरीर की कोई हलचल न देख वह अधिक देरी सहन न कर सकी | उसके मन में बुरे विचार आने शुरू हो गए | वह सोचने लगी कि भगवान न जाने उसकी कैसी परीक्षा लेने वाले हैं | अभी एक हादसा, जिठानी के पिताजी का स्वर्गवास, तो होकर चुका ही है कि यह उलझन आन खड़ी हो गई है | अभी तक तो गाँव की औरतों को ही अभागिन कहते सुना था अब की बार तो घर वाले भी मेरी जान को आ जाएँगे | इस विचार से उसकी आंखो से अश्रुधारा बह निकली साथ साथ उसके हाथ भगवान की स्तुति में जुड़ गए कि वह ऐसा कुछ न करे जिससे उसे किसी प्रकार की जिल्लत उठानी पड़े | सोचते सोचते  उसके पैर स्वयं आगे बढ गये | गुलाब के निश्चल शरीर के पास पहुंच कर धड़कते दिल से संतोष ने ज्यों ही उसके शरीर को छुना चाहा वह हरकत में आया तथा संतोष को खिंच कर अपने उपर डाल लिया | इसको गुलाब ने एक विधुत वेग से इस तरह अंजाम दिया कि संतोष उसकी बाहों से छुटकारा पाने में बिलकुल असहाय तथा असमर्थ हो गई | जब संतोष कोशिश करते करते बिलकुल निढाल हो गई तथा अपने को समर्पित कर दिया तो गुलाब ने हाथ बढाकर बत्ती बुझ दी | अंधेरे में हलचल शुरू हो गई और गुलाब की तरफ से सुहागरात मन गई | संतोष अपने को आस्वशत करके उठ खड़ी हुई तथा अपने पहने हुए कपडों को सम्भालते हुए बाथ रूम की तरफ जाने लगी तो उसके मुँह से निकला"बुद्धू" |

गुलाब संतोष का पल्लू पकडते हुए, "यह उपाधि किस लिए ?”

“क्योंकि आपको दीन-दुनिया का कुछ पता ही नहीं |” 

“आपने हमारा अभी देखा ही क्या है जो आपने इतनी जल्दी यह उपाधि दे दी | आज यह तो हमारी पहली बानगी थी आगे आगे देखिये होता है क्या ?”

“परंतु दिव्य नजर रखते हैं ताड़ने वाले |” 

“क्या मतलब ?”

“मतलब यही कि आप सुहागरात ......|” अपना वाक्य पूरा करने से पहले ही शर्मा कर पल्लू छुडाकर भागने का प्रयास करती है परंतु गुलाब उठकर उसे अपनी बाहों में भरकर पलंग पर पटकते हुए, "हाँ अब बताओ कि तुमने कैसे जाना कि मैं ........?” 

“छोडो भी |”

“नहीं पहले बताओ ?”

“अच्छा एक बात बताओ ?”

“पूछो |”

“क्या आपने वह गाना सुना है ," हम तुम मिले जिवें टीच बटना दी जोड़ी |”

“हाँ, हाँ सुना तो है परंतु तुम्हारा इससे क्या अभिप्राय है ?”

“यही कि उसी स्थिति में सुहागरात पूरी होती है | 

आश्चर्य दर्शाते हुए, "तो क्या ऐसा नहीं हुआ ?”

धत्त (शर्माते हुए) और मौका पाकर बाथरूम में घुस जाती है |

संतोष अकेले में अपने आप से बातें करने लगती है | ये तो बहुत भोले हैं | इन्हें तो इतना भी नहीं पता कि सुहागरात कैसे तथा किस तरह पूरी होती है | मैं तो अभी तक यही सोचती रही थी कि ये तो शादी ब्याह के मामले में एक शातिर खिलाड़ी होंगे |  क्योंकि मेरी बुआ माला हमेशा इनके बारे में जिक्र किया करती थी | वे इनसे अपने प्यार के किस्से मुझे सुनाया करती थी | मैं तो यह समझ बैठी थी कि इन्होने माला बुआ के साथ कई सुहागरातें मनाई होंगी | परंतु आज के किस्से से मेरी वे सारी धारणाएँ गल्त मालूम पड़ती हैं | शायद माला भी मुझे यही बताना चाह रही होगी, जब हम दोनों डिबाई आखिरी बार मिले थे, परंतु पिताजी द्वारा बुला लेने से मैं उसकी पूरी बातें न सुन सकी थी | वे यही तो बता रही थी कि कैसे इन्होने माला को गर्त के गड्ढे में गिरने से बचाया था | 

संतोष सोचने लगी कि भगवान श्री कृष्ण को पांचाल नरेश परिक्षित ने सन्देशा भिजवा कर अपने यहाँ बुलाया था कि वे उनसे अपनी पुत्री द्रौपदी के विवाह के बारे में सलाह मशवरा कर सकें | वैसे सलाह मशवरा करना तो एक बहाना मात्र था | वे तो अपनी पुत्री का हाथ श्री कृष्ण जी के हाथ में देना चाहते थे | द्रौपदी भी सच्चे मन से कृष्ण जी को प्रेम करती थी | श्री कृष्ण जी स्वम द्रौपदी को चाहते थे परंतु उन्होने द्रौपदी से शादी नहीं की | अर्थात दोनों में एक दूसरे के प्रति अथाह लगाव होने के बावजूद वे शादी के बंधन में नहीं बंधे परंतु फिर भी जीवन के आखिरी क्षणों तक उनका यह लगाव फीका नहीं पड़ा | उन दोनों का निश्चल प्रेम ,सखा और सखी के रूप में, अमर यादगार बन गया | इसी तरह कृष्ण जी का नाम राधा के साथ लिया जाता है जबकि वह उनकी अर्धांगिनी नहीं थी |  संतोष पक्की आशवस्त हो गई कि गुलाब ने उसकी बुआ माला के साथ अपनी काम वासना की तृप्ति नहीं की होगी तथा मौके का फायदा न उठाते हुए सच्चा प्रेम किया होगा | ऐसा करने में इनको कितना धैर्य तथा संयम रखना पड़ा होगा | संतोष के दिल में अब तक जो धूमिल सी भ्रम की परछाई थी वह आज साफ हो गई तथा वह अपने पर गर्व महसूस करने लगी कि वह एक ऐसे व्यक्ति की पत्नि बनी है जो एक सच्चा, नेक, भोला एवं बला का संयम रखने वाला व्यक्ति है |               

एक फौजी के जीवन में ऐसे कई अवसर आते है कि उसे अपने बीबी बच्चों को घर पर अपने माँ-बाप की देखरेख में छोड़कर नौकरी पर जाना पड़ता है | वह महीनों अकेला रहने पर मजबूर हो जाता है | फौजी तो किसी तरह अकेला अपने दिन काट लेता है परंतु घर पर उसकी बीबी को यह बहुत मुशकिल हो जाता है | क्योंकि अमूमन फौजी की पत्नि के अकेलेपन का बहुत से लोग नाजायज फायदा उठाने की कोशिश करते हैं | वे गिद्ध की नजर रखते हुए अपनत्व का ढोंग करके अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं | ऐसे मनुष्य समझने लगते हैं कि फौजी की अकेली रह रही नारी उनकी पत्नि न सही परंतु उसके प्रति थोड़ी सी सहानुभूति दिखाने मात्र से ही उसे अपने बस में किया जा सकता है | ऐसी ही कुछ कोशिश गुलाब की पत्नि संतोष को रिझाने के लिये की गई थी |

गुलाब का तबादला देवलाली से जोधपुर का हो गया | उसको मजबूरन अपनी पत्नि को अपने घर, देहली छोड़ना पडा |  अभी उसकी शादी हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे अतः संतोष के पास कोई बच्चा नहीं था |  कहने को तो घर पर बड़े भाईयों के समृद्ध एवं भरे पूरे  परिवार थे परंतु इनमें आत्मियता की कमी थी | अतः संतोष की देखभाल का जिम्मा उसकी सास लीलावती पर ही था क्योंकि उसके ससुर स्वर्ग सिधार चुके थे |  वे इतनी सरल स्वभाव औरत थी कि उनका मन बच्चों की तरह निष्कपट था | 

Saturday, August 22, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग-XIV)

 XIV

बारात की विदाई की तैयारियाँ शुरू हो गई थी | अमुमन इस समय कंगना खोलने, दुल्हे को विदाई के टीके करना तथा समधियों को मेहन्दी भरे हाथों से थापे लगाने इत्यादि कार्यक्रम बड़े चाव, लग्न, उत्साह तथा मजाक भरे व  हर्षोल्लास के वातावरण में सम्पन्न होते हैं | परंतु अग्नि के सात फेरों के बाद जनवासे का खुशहाल माहौल अचानक मुर्दानगी भरा बन गया था | 

गुलाब ने देखा कि उसके बड़े भाई साहब, शिव  तथा उसके पिता जी में धीरे धीरे कुछ गम्भीर बातें हुई और फिर शिव जल्दी में बाहर निकल गए | पिता जी ने सभी को अपनी अपनी रस्में शिघ्रातिशिघ्र निपटाने को कह्ते हुए अपने मंझले लड़के श्री चन्द को दुल्हा दुल्हन को लिवा ले जाने के लिये गाड़ी लाने को कहा | गाड़ी आई परंतु बिना सजी हुई | उस पर एक भी फूल लगा नजर नहीं आ रहा था जबकी गाड़ी वाले से उसके सामने ही बात हुई थी कि गाड़ी को कैसे सजवाना था  |  और जब विदाई हुई तो उससे पहले की सभी रस्मों को नाम के तौर पर पूरा करके, बिना गाजे बाजे के चुपचाप सब अपने घर के लिये निकल गए |  वह इतना ही अन्दाजा लगा  पाया कि कुछ न कुछ बड़ा ही कांड़ हो गया है जो सब दबी आवाज में तथा जल्दी जल्दी सब काम निपटाना चाहते हैं | गुलाब ने जिज्ञासावश एक दो से पूछने की कोशिश भी की परंतु सबने टालने के लहजे में कुछ नहीं, कुछ नहीं कहते हुए बात को टाल दिया | खैर मन में एक अनजान आशंका लिये गुलाब अपनी दुल्हन को लेकर अपने गाँव नारायणा  पहुंच गया |

 गुलाब जब अपने घर को जाने वाली गली में मुड़ा तो वहाँ की हालत देखकर सकते में आ गया | गली में उसकी शादी के लिये जो सजावट की गई थी मसलन फूलों से सजा तौरण द्वार तथा पूरी गली में लगी रंग बिरंगी चमकीली पन्नियों के साथ बिजली की सजावट सब नदारद थी | और जब उसने अपनी बहनों ,भाभियों और रिस्तदारों की औरतों को बिना गीत गाते हुए तथा अपने चेहरों पर उदासीनता लिये नई दुल्हन को लिवाकर ले जाने के लिये आते देखा तो उसके सब्र का बांध टूट गया | वह झट से नीचे उतरा तथा अपनी शालू भाभी को झकझोरते हुए सा पूछा, "क्या हुआ भाभी जी ?”

उसकी भाभी जी ने बनावटी हँसी दिखाते हुए केवल इतना ही कहा, "घर चलो सब पता चल जाएगा |” 

आई हुई औरतें संतोष को लेकर चुपचाप घर की तरफ रवाना हो चली | रास्ते में संतोष के साथ चल रही कुछ बुजुर्ग औरतों के बीच उस हादसे के विषय में, जिसके कारण खुशी का माहौल एकदम गमगीन बन गया था, दबी आवाज में चर्चा शुरू हो गई | 

एक बुढिया :- गुलाब सेठ जी का सबसे छोटा लड़का है | 

दूसरी :- हाँ इसके बाद तो चार लड़कियाँ ही हैं | 

पहली :- सेठ जी की बड़ी तमन्ना थी कि इसकी शादी बड़ी धूमधाम से करंगे |

तीसरी :- तैयारी तो इसी हिसाब से की थी | देखा नहीं घुड़चढी किस शान से की थी | 

पहली :- हाँ बहन छः सात तरह के तो बाजे ही थे | और चार घोड़ों की बग्गी की छटा तो निराली ही थी | 

दूसरी :- सुना है फेरों के एकदम बाद बड़ी बहू(प्रेम) के पिता जी का स्वर्गवास हो गया था | यही कारण है कि इस बहू को धूमधाम से लिवा कर नहीं लाया गया | 

पहली :-(फुसफुसाते हुए) अरे नई बहू के पैर अभी घर में पड़े नहीं कि हो गई गमों की श्रंखला शुरू | 

संतोष के कान इन बुढियाओं की बातों पर लगे थे | अब उसकी समझ में आया कि उसकी विदाई के समय वातावरण क्यों गमगीन हो गया था | अपनी जिठानी के पिता जी के स्वर्गवास की जानकर एकबार को वह सिहर उठी | उसका रोम रोम काँप कर रह गया ओर वह सोचने लगी कि इस हादसे को लेकर(साथ चल रही बुढियाओं के कहने की तरज पर) न जाने ससुराल में उसके साथ कैसा व्यवहार होगा | खैर मन में डरती काँपती संतोष ने घर के अन्दर जाने की सारी औपचरिकता पूरी करते हुए ग्रह प्रवेश किया | इसके बाद मुहँ दिखाई की रस्म प्रारम्भ हुई |

पहली बुढिया दुल्हन का मुहँ देखकर, “अरे बहू तो सुन्दर है | गोल चेहरा, गेहूंआ रंग, सुडौल शरीर सभी अच्छा है |” 

दूसरी :- परंतु बहू के पैर तो कुछ अच्छे ना पड़े | 

तीसरी :- बिलकुल ठीक कहा, अरे सुन्दरता को कोई धर कर चाटेगा क्या ?

चौथी ;- ऐसी सुन्दरता किस काम की जो आते ही किसी की जान ले ले | मैं तो कहती हूँ कि ......|

इन सभी की आपस में हो रही बातें संतोष की सास बड़े धीरज से सुनती रही परंतु जब उसके सब्र का बाँध टूट गया तो उसने चौथी बुढिया को बीच में ही टोकते हुए कहा, "अरी ओ हर देई क्या कह रही है ? किसकी सुन्दरता ने किस की जान ले ली ?(थोडे कठोर शब्दों का इस्तेमाल करते हुए) तुम सब बहू की मुहँ दिखाई करने आई हो या आग लगाने  |”

“सेठानी नाराज न हो | हमने ऐसा कुछ नहीं कहा",सभी एक साथ बोली |

“कहने को तुमने छोड़ा ही क्या है | अभी तो बहू बच्ची है, वह तो शायद अभी तुम्हारे कहने का मतलब न समझ सके परंतु मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि तुम कहना क्या चाहती हो |” 

“सेठानी हमारा कोई गल्त इरादा नहीं था |” 

“अरी कहते हैं कि एक डायन भी अपनी घात सात  घर छोड़कर लगाती  है  परंतु तुम तो अपने बिलकुल पडौस के घर में ही अपनी बातों का जाल फैलाकर उस घर को बर्बाद करने की मंशा बना रही हो |” 

“सेठानी हमने ऐसा तो कुछ नहीं कहा कि आप इतना आग बबूला हो रही हो |” 

लीलावती बिलकुल साफ शब्दों में अपनी मंशा जताते हुए, “तुम सब हमारे यहाँ खुशी में शरीक होने आई हो | जो तुम्हारा कर्तव्य बनता है वह पूरा करो और खुशी खुशी विदा लो | मैं नहीं चाहती कि दुनिया का रोना तुम यहाँ रोने लगो |” 

लीलावती ने बोलना शुरू रखा, “अरे मेरी बड़ी बहू के पिता जी के स्वर्गवास हो जाने का गम तो हम सभी को है परंतु यह भी तो सच है कि उनकी उम्र हो चली थी | अब उनकी मृत्यु को मेरी छोटी बहु के पैरों से जोड़ने का तुम्हारा क्या अभिप्राय है ? सौ बात की एक बात कहती हूँ | खबरदार जो बहु के सामने किसी ने भी इस दुखःद हादसे के बारे में कोई उल्टी सीधी बात की तो | (फिर संतोष की ओर मुखातिब होकर) चल बेटी थोड़ा अराम करले | बहुत समय से ऐसे ही बंधी बैठी है |”

कमरे के अन्दर जाकर संतोष की आखों में आंसू देखकर, “बावली तू रोती क्यों है ? तू किसी बात की चिंता न कर | मैं हूँ न | अधिकतर दुनिया वाले ऐसे ही होते हैं | वे किसी की खुशी सहन नहीं कर पाते | हर चीज में बुराई ढूंढना उनकी आदत बन चुकी होती है | वे किसी और के घर में बढती सुख शांति एवं समृद्धि को पचा नहीं पाते तथा ऐसा कुछ चक्र चलाने की सोचते हैं कि दूसरे का बंटा ढार हो जाए | खैर अब तेरे सामने कोई ऐसी वैसी बात करे तो मुझे बता देना | (बड़े प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए और कमरे का दरवाजा बन्द करते हुए ) चल अब आराम करले |”  

शाम ढल गई | रात का खाना वगैरह से निपट कर सोने का समय हो गया | कमरे में अपने को अकेला पाकर संतोष के दिल की धड़कनें बढने लगी | वह अभी पूरी तरह सोच भी नहीं पाई थी कि गुलाब के कमरे में प्रवेश करने के समय वह किस तरह पेश आए कि उसके देवर तथा नन्दों ने उसे आकर घेर लिया | सभी संतोष के साथ मजाक तथा चुहल बाजी करने लगे | संतोष भौचक्की सी रह गई | उसका शरीर काँपने लगा तथा माथे पर पसीने की बून्दे चमकने लगी | उसकी ऐसी हालत देखकर शीला ने शरारत भरी मुस्कराहट के साथ पूछा, “भाभी जी क्या बात है ?”

“कुछ भी तो नहीं |”

“कुछ तो है तभी तो शरीर काँप रहा है |” 

“किसका ?”

“बनाओ मत, कविता बोली, तुम्हारा शरीर ऐसे काँप रहा है जैसे मन्द मन्द समीर चलने  से लता हिलोरे लेती  है |” 

सीमा, “भईया का डर लग रहा होगा |” 

“भला मैं क्यों डरने लगी |” 

“हाँ तुम तो शेरनी हो, भला तुम्हे किस का डर, परंतु यह घड़ी ऐसी होती है कि अच्छी अच्छी की सीटी पिटी गुम हो जाती है, "शीला ने चुटकी लेते हुए कहा  |”

संतोष ने जो अब तक सम्भल चुकी थी पलट वार करते हुए, "सुना है आप तो एक दबंग तथा निडर लड़की हो, तो क्या बहन जी आपके साथ भी ऐसा ही हुआ था ?”    

“अरे यह तो सब जानती है कि आगे क्या होने वाला है",कविता ने एक कहानी सुनाते हुए कहा | 

“तुम सब ने सुना होगा कि एक कौवा अपने बच्चे को सिखा रहा था कि किस प्राणी से किस तरह सावधान रहना चाहिये | उसने बच्चे से कहा कि जैसे ही तुम्हें देखकर कोई मनुष्य नीचे झुके तुम्हे उड़ जाना चाहिये क्योंकि वह तुम्हें मारने के लिये अवशय ही पत्थर उठा रहा होगा | इस पर कौवे के बच्चे ने पूछा कि पापा अगर उसके हाथ में पहले से ही पत्थर हो तो ? यह सुनकर कौआ बोला कि बेटा तू तो पहले से ही अकलमन्द है अतः तुझे पढाने या समझाने की कोई जरूरत नहीं है जा खेल कूद और मौज उड़ा | अतः मेरी बहनों क्यों अपना तथा उसका भी वक्त बरबाद कर रही हो |(वातावरण में एक जोर का हंसी का ठहाका गूंज जाता है) चलो अपने अपने काम में लगो |” 

कविता की बातें सुनकर संतोष लजाकर रह गई परंतु अन्दर से उसका पूरा शरीर अपनी नन्दों के हंसी मजाक के चलते पुल्कित हो रहा था | इतने में शीला ने अपना मुँह अपनी भाभी के कानों के पास लाकर धीरे से फुसफुसाया, "भाभी जी उधर देखो भाई को भी चैन नहीं है | वह एक पिंजरे में बन्द शेर की तरह इधर उधर चक्कर लगा रहे हैं |” 

जब संतोष ने उधर देखा जिधर उसकी नन्द इशारा कर रही थी तो वास्तव में ही वह सिर से पाँव तक काँप कर रह गई | 

इसी समय सीमा ने यह कहते हुए कि चलो भाभी जी को उसके कमरे में छोड़ आते हैं संतोष की बाँह पकड़कर उसे सहारा देकर उठाना चाहा तो वह एकदम चिल्लाकर बोली अरे कोई देखो भाभी जी तो ऐसे काँप रही हैं जैसे कि इनको बिजली का करंट लग गया हो | (सभी हसँने लगती हैं)

बहुत हो गया चलो चलो वर्ना हम कबाब मैं हड्डी कहलाएँगी | क्योंकि अब कली को फूल बनने का समय आ गया है |  के इस कथन के साथ ही सभी हसंती हसांती संतोष को कमरे में अकेली छोड़कर बाहर निकल जाती हैं |   

Friday, August 21, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग -XIII)

 XIII

 20 नवम्बर 1968 का दिन गुलाब की संतोष के साथ शादी का दिन तय कर दिया गया | वर- वधु के घरों में शादी की तैयारियाँ जोर शोर से शुरू हो गई | बारात देहली से ग्वालियर जानी थी परंतु लाला नारायण जी के स्वास्थय को देखते हुए शादी देहली से ही करने का निर्णय हुआ | अतः दरियागंज के उसी मन्दिर में पाणिग्रहण होना निश्चित हुआ जिसमें गुलाब के बडॆ भाई शिव का हुआ था | 

इन दिनों गुलाब भारतीय वायु सेना में नौकरी कर रहा था तथा माहाराष्ट्र राज्य के नासीक जिले में देवलाली एयर फोर्स स्टेशन पर कार्यरत था | वहाँ का स्टेशन कमांडर एयर कोमोडोर गुप्ता जो एक बंगाली मूल का था, जवान की 25 साल की उम्र होने से पहले शादी के बहुत खिलाफ था | अतः गुलाब ने उसके रहते अपनी शादी कैसे की इसका विस्तार से विवरण इनकी लिखी कहानी "शादी फौजी की" में दिया गया है |

गुलाब, घोड़ी पर सवार, गाजे बाजे के साथ, अपनी  बारात लेकर निश्चित दिन मन्दिर के दरवाजे पर पहुंच गया | हर दुल्हे की मनोइच्छा अपनी होने वाली पत्नि के दर्शन की लालसा के विपरीत गुलाब के मन में दो को देखने की लालसा जागृत थी | वह अपने ख्यालों में इतना खोया हुआ था कि बारात के आगे बजते चल रहे अनेक प्रकार के बाजे तथा उसकी घोड़ी के आगे नाचते गाते उसके सगे सम्बंधियों एवं दोस्तों आदि का झुंड़ वह महसूस भी नहीं कर पा रहा था | उसकी प्यासी निगाहें तो बस एक अपनी प्रेयसी माला तथा दूसरी अपनी होने वाली पत्नि संतोष को ढूंढती नजर आ रही थी |

मन्दिर के दरवाजे पर औरतों तथा बच्चों की भारी भीड़ जमा थी | जो आगे खडे थे वे अपने को आगे ही रखने की जुगत कर रहे थे परंतु पीछे वाले भी आगे स्थान पाने की कोशिश में जुटे थे | घोड़ी पर बैठे बैठे ही गुलाब ने देखा कि उसकी माला पीछे से आगे आने की भरपूर कोशिश कर रही है परंतु अपने को असमर्थ पा रही है | गुलाब समय की नाजुकता को महसूस करते हुए माला की किसी प्रकार की कोई सहायता करने में अपने आप को भी मजबूर पा रहा था | एक बार दोनों की नजरें आपस में टकराई तो माला ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये | उसके चेहरे के भावों से प्रतीत हो रहा था जैसे कह रही हो, " मुझे माफ कर देना मैं सामाजिक रिति रिवाजों के खिलाफ जाकर आपका इंतजार न कर सकी |”

 इतने में औरतों का एक धक्का सा लगता है जिससे माला अपने को सम्भाल न सकी तथा गुलाब की आंखो से औझल हो गई | 

गुलाब को घोड़ी से उतार कर मन्दिर के दरवाजे पर खड़ा कर दिया गया | अन्दर से औरतों के मंगलाचार के गीत गाने की मधुर आवाज का गुंजन प्रारम्भ हो गया |  संतोष अपने कर कमलों में वरमाला लिये बालहंसिनी की तरह चाल चलती हुई सामने प्रकट हुई | गुलाब ने देखा कि उसके सभी आभूषण अपनी अपनी जगहों पर बहुत फब रहे थे | शायद उन्हें उसकी सुन्दर एवम चतुर सखियों ने बड़ी मेहनत करके उसके अंग अंग में भली भांति सजाकर पहनाया होगा | तभी तो आज की संतोष और उस दिन की संतोष, जब गुलाब उसे उसके घर देखने गया था, की सुन्दरता में जमीन आसमान का फर्क दिखाई पड़ रहा था | संतोष ने जैसे ही गुलाब के गले में वरमाला डाली कि नंगाडो, ताशे, ढोल तथा शहनाई इत्यादि का बजाना अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया | फिर गुलाब द्वारा संतोष को वरमाला पहनाने के बाद सभी मन्दिर के अन्दर दाखिल हो गए | 

रात के खाने के बाद फेरों का कार्यक्रम शुरू हुआ | दुल्हा दुल्हन को वेदी पर बैठा दिया गया | पंडित जी ने अपने मंत्रोचारण प्रारम्भ कर दिये | वे बीच बीच में दुल्हा दुल्हन से फूल ,पान, वस्त्र, मिठाई इत्यादि भगवान को अर्पित करने की हिदायत देते जाते थे | इस दौरान गुलाब की चोर निगाहें माला को खोजती रही परंतु उसे सफलता नहीं मिली | इसी खोजबीन में लगे रहने के कारण वह पंडित जी के कहे का अनुशरण ठीक प्रकार से नहीं कर पा रहा था | दुल्हन संतोष भी इस बात को समझ गई थी | उसे पता नहीं क्या सूझी कि उसने अपनी साड़ी से अपने पैर के अंगूठे को ठीक तरह से ढक कर उससे गुलाब के पैर को झकझोर दिया | इस अप्रत्यासित घटना से गुलाब की तंद्रा टूटी और उसने सम्भल कर बैठते हुए एकदम संतोष की तरफ निहारा | उसने सोचा कि उसकी दुल्हन शायद बहुत चालू है तभी तो इसे मेरे साथ छेडखानी करने की इतनी जल्दी है कि  फेरों की वेदी पर ही शुरू हो गई है | गुलाब ने घूंघट के अन्दर से झांकती शरारती आंखों को परखा | चेहरे पर एक कटु मुस्कान झलक रही थी |  गुलाब के अपने दिल में चोर होने की वजह से उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे संतोष की निगाहें कह रही हों, "मैं सब जानती हूँ कि थोड़ी   थोड़ी देर बाद आप कहाँ खो जाते हो |”

खैर इसके बाद गुलाब ने अपने आपको सम्भाले रखा तथा किसी को कुछ भी कहने का कोई मौका नहीं दिया |  

सात फेरों के सम्पूर्ण होने के बाद गुलाब आराम कर रहा था कि एक जाना पहचाना सा चेहरा उसके सामने आकर खड़ा हो गया | अरक लगा सफेद चमकता हुआ कुर्ता पायजामा पहने तथा सिर पर सफेद टोपी उसे बहुत फब रही थी | उसने आते ही अपने चेहरे पर मन्द मन्द मुस्कान लाते हुए सवाल किया, "मुझे पहचाना |"

गुलाब अपने दिमाग पर जोर देकर सोचने लगा कि आखिर वह है तो जाना पहचाना सा परंतु उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह असल में कौन है | गुलाब की इस दुविधा का समाधान उसकी भाभी शालू ने किया जब उन्होने बताया कि वह जाना पहचाना आदमी उसका बडा साढू है तथा वे पहली बार डिबाई में मिले थे | | इसके बाद गुलाब को वह खीर में नमक वाली बात भी याद आ गई इसलिए अब वे दोनों  ठहाका लगाए बिना न रह सके | 

गुलाब ने मजाक के तौर पर कहा, “आप तो बडे छुपे रूस्तम निकले |”

“वो कैसे |”

“चुपके चुपके अपनी खीर का बदला ले लिया |”

“वो कैसे |”

“बहुत भोले बन रहे हो |”

“मैं समझा नहीं | मैने क्या किया है ?”

“लो बदला लेने के लिए बिना सुराग दिये हथकड़ी तो पहनवा दी और अब कह रहे हैं कि मैनें क्या किया है ?”

हँसते हुए, " अच्छा अच्छा अब समझा कि आपके कहने का आशय क्या है |” 

“शुक्र है समझ तो गए परंतु अब इससे ज्यादा सजा मै भुगत नहीं पाऊंगा |”,गुलाब उठकर खुशी खुशी अपने साढू के गले लग जाता है |                


उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग- XII)

 XII

संतो साथ वाले कमरे में बैठी अपने माता पिता जी के वार्तालाप को सुन रही थी | उसे जब यह पता चला कि यह वही लड़का है जिसे उसकी बुआ, माला चाहती थी तो एक बार को वह ऊपर से नीचे तक सिहर उठी | वह अभी आगे कुछ सोच भी नहीं पाई थी कि उसकी छोटी बहन कुंती अपनी माँ के हाथ से मिठाई का छीनकर भागकर उसके कमरे में आ गई | 

कुंती ने संतो के मुँह में लड्डू ठूंसते हुए, “बधाई हो बधाई, बहना |”

“किस बात की बधाई”,संतो ने बनते हुए कहा | 

कुंती मिठाई का डिब्बा संतो के हाथ में थमाते हुए, “अब तुम मुझे भी लड्डू खिलाओ और बधाई भी दो |” 

“यह क्या है ? बधाई लो भी और बधाई दो भी | क्या तेरी भी...|”

“संतो इसका मतलब तुझे पता है कि मैं बधाई क्यों दे रही थी | तू वैसे ही बन रही थी कि किस चीज की बधाई | अरे मैनें तो कमरे के अन्दर आते ही तुम्हारे चेहरे की रौनक देखकर भाँप लिया था कि मेरी बहन जी सब जान चुकी हैं |” 

“अच्छा अच्छा रहने दे | अपने को बहुत ज्यादा साईकोलोजिस्ट समझती है | परंतु यह तो बता कि तू किस लिये बधाई मांग रही है ? क्या सचमुच में तुम्हारा भी.....?”

“ना बहना ना | अभी हम इस पचडे में नहीं पडने वाले | मैं तो इस लिये कह रही थी कि तुम्हारे हाथ पीले होने के बाद हम यहाँ के बेताज बादशाह बन जाएंगे | मेरे उपर हुक्म चलाने वाला कोई न रहेगा | अपनी मर्जी के मालिक होंगे | जब इच्छा होगी...उठेंगे और जब मर्जी होगी... खाएंगे”, कहते कहते कुंती का गला भर आया ओर वह संतो के गले लग कर फफक फफक कर रो पडी |          

रात को कुंती तो सो गई परंतु संतो की आखों से नीदं कोसों दूर दिखाई दे रही थी | वह बार बार यही सोच रही थी कि न जाने यह लड़का कैसा होगा ? यही तो वह लड़का है जिसका बुआ माला के साथ प्यार था | माला के याद आते ही वह पुराने विचारों में खो गई और उसके साथ हुए वार्तालाप की झलकियाँ उसके जहन में एक एक करके चलचित्र की भाँति महसूस होने लगी |  

 मन में यही सोचते सोचते कि लड़की का जीवन एक धान के पौधे के समान होता है | वह जन्म कहीं लेती है परंतु फलती फूलती कहीं और है | किंतु नारी मात्र एक पौधा नहीं है ,उसमें चेतना, भावना ओर विचार करने की भी क्षमता होती है | इतना सब जानते हुए भी हमारे पुरूष प्रधान समाज में नारी के विचारों, उसकी चेतना तथा उसकी भावना का कोई महत्व नहीं समझा जाता | तभी तो मेरी बुआ जी अपने प्यार का इजहार न कर पाई और एक निरीह जानवर की तरह बंध कर किसी और के साथ विदा हो गई | ऐसी सब बातों का विचार करते करते संतों न जाने कब निंद्रा देवी के आगोश में समा गई | 

 राम रतन  जी के बच्चों  में उनका एक लड़का तथा तीन लड़कियाँ थी | बड़ी लड़की, उमा तथा लड़के श्रीराम  की शादी हो चुकी थी | अब उनकी दूसरी लड़की के रिस्ते की बात चल रही थी | गुलाब अपनी माता जी ओर सोमनाथ के साथ ग्वालियर पहुंच गया | सोमनाथ का श्रीराम से पहले से ही याराना था तथा कई बार वह ग्वालियर जा चुका था | अतः उन्हे घर पहुंचने में किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं हुई | 

सब आँगन में बैठ जाते हैं तो राम रतन  जी आकर गुलाब की माता जी के गुलाब छूने को झुकते ही हैं कि वे हाथ के इशारे से ऐसा करने से मना कर देती है | अतः वे सोमनाथ की बगल वाली कुर्सी पर बैठ कर उनसे बातें करने लगते हैं | 

“कौन सी गाड़ी से आए हो जी ?”

“ताज एक्सप्रैस से आए हैं | बड़ी अच्छी गाड़ी है | किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होती | इसका देहली से चलने का समय तथा यहाँ पहुंचने का समय भी बहुत माफिक आता है | आदमी अगर चाहे तो सुबह आकर अपने सारे काम निबटा कर रात को वापिस देहली पहुंच सकता है |” 

”लेकिन फूफा जी( श्रीराम सोमनाथ को अपनी बुआ शालू के नाते से फूफा जी ही कहता था) हम आपको आज वापिस नहीं जाने देंगे |” (सभी हँसते हैं)

इतने में एक लड़की हाथ में पानी की ट्रै लिये अन्दर प्रवेश करती है | वह एक एक करके सब के सामने पानी देने को जाती है | सभी मेहमानों की चोर निगाहें उस लड़की का अपने अपने तरीके से निरीक्षण करने लगती हैं | अपने आपमें संतुष्ट होकर गुलाब की माता जी राम रतन  से पूछ्ती हैं, "क्या लडकी यही है ? रंग रूप, लम्बाई तथा सेहत से तो ठीक लगती है | कितनी पढी है ? “

जी यह तो मेरी छोटी लड़की, कृष्णा  है | अभी पढ रही है | जिसका रिस्ता करना है वह तो इससे बडी, संतोष, है |

“ब्याह लायक तो यह भी हो रही है |”

“दोनों बहनें उपर नीचे की हैं जी | वैसे इसकी सेहत बड़ी से कुछ इक्कीस है इसीलिए ऐसी लगती है |” 

कुंती गुलाब को पानी देते हुए धीरे से, “जीजा जी नमस्ते |”

गुलाब जो औरों की तरह ही सोचकर विचारों में मग्न था अपने कानों के पास कुंती की आवाज सुनकर अचानक चौंकते हुए, "तो क्या तुम वो नहीं हो ?”

कुंती थोडा मुस्कराते हुए, "नहीं मैं वो नहीं हूँ |” फिर आँख का इशारा करते हुए, “वो तो उपर खिडकी में |”

गुलाब ने अपनी निगाहें उपर उठाकर देखा तो पाया कि एक लड़की खिडकी के झरोखे से नीचे का मुआयना कर रही है | गुलाब ने भी उसको देख कर अन्दाजा लगा लिया कि वह एक सुडौल शरीर की है | रंग गेहुंआ है | नैन नक्श भी ठीक ही लगते हैं | लम्बाई का अन्दाजा लगाना मुशकिल था | गुलाब को ऊपर देखते हुए पाकर लड़की एक और को छुप जाती है | कुंती के मेज पर नमकीन, मिठाई वगैरह लगा जाने के बाद संतोष हाथ में चाय की ट्रे लिये हुए कमरे में प्रवेश करती है | पहले की तरह सभी की निगाहें उसकी तरफ उठने लगती हैं | उसने चाय की ट्रे मेज पर रखकर सभी को नमस्कार किया तथा फिर गुलाब की माता जी के चरण स्पर्श करके ज्यों ही बाहर जाने को उद्यत हुई तो गुलाब की माँ ने उसे टोक कर आए हुए मेहमानों का मुहँ मीठा कराने को कहा | लज्जाती शर्माती संतोष ने काँपते हाथों से सबके सामने बर्फी की ट्रे घुमा दी तथा आकर गर्दन नीची करके अपनी होने वाली सास के साथ वाली कुर्सी पर बैठ गई |          

“तुम्हारा नाम क्या है ?”

“जी, संतोष |”

“कितनी पढी हो ?”

“दसवीं के पेपर दिये है |”

“सुना है सिलाई वगैरह भी जानती हो ?”

“हाँ जी, थोडा बहुत (बीच में संतोष की माँ एक सर्टिफिकेट दिखाते हुए) अजी इसने सिलाई-कढाई का डिप्लोमा कर रखा है | यह देखो इसकी की हुई कढाई के नमुने |”

संतोष द्वारा की गई सिलाई कढाई के नमुने देखकर गुलाब की माता जी को संतोष हो गया कि संतोष एक गुणवंती लड़की है | अतः उन्होने अपना फैसला सुना दिया कि उन्हें लड़की पसन्द है परंतु एक बार लड़का तथा लड़की आपस में बातचीत करके अगर अपना मत भी प्रकट कर दें तो बहुत अच्छा रहेगा | इसलिए उन्होंने संतोष की माता जी से पूछा, “क्यों जी आपकी क्या राय है ?” 

“हमें भला इसमें क्या एतराज हो सकता है | वैसे यहाँ से थोड़ी दूर पर ही सनातन धर्म मन्दिर है | वहाँ बैठने का भी उचित प्रबंध है | अगर आप मुनासिब समझो तो वहाँ चले जाओ, भगवान के दर्शन भी हो जाएंगे ओर अगर घुमना पसन्द करो तो मन्दिर से सटे पार्क में घुम भी लेना |”

 वहाँ जाकर गुलाब ने संतोष को ध्यान से निहारा तो पाया कि उसक शरीर स्वस्थ एवं सुडौल था | उसका गोल चेहरा लालिमा से भरा सुन्दर दिख रहा था | हालाँकि उसके चेहरे पर माता के निशान झलक रहे थे परंतु उसके चेहरे की लालिमा ने उन्हें परास्त किया हुआ था | गुलाब ने अपना निर्णय लिया तथा बिना किसी को बताए वापिस घर आ गया | लड़के को इतनी जल्दी अकेला वापिस आया देख सभी के मुहँ पर हवाईयाँ उड़ने लगी | संतोष की माँ तो अधीर हो तथा आंखों में पानी भरते हुए अपने पति से बोली, "लगता है लड़के को लड़की पसन्द नहीं आई तभी तो इतनी जल्दी अकेला ही वापिस आ गया है |”

“शुभ शुभ बोलो |”

“मेरा दिल तो बैठा जा रहा है |” 

कुंती उदासीनता से, “मेरी बहन में कोई कमी तो है नहीं |” 

राम रतन सभी को ढांढस देने के लिहाज से, “थोडा धैर्य रखो | इनकी माता जी को आने दो | उनसे ही असलियत मालूम पडेगी |” 

इतने में ही गुलाब की माताजी मकान में प्रवेश करते हुए तथा अपने बेटे को अंदर बैठा देखकर, "क्यों बेटा तुम बिना कोई बात किये तथा बिना बताए ही मन्दिर से लौट आए ? हम सब तुम्हें वहाँ ढूंढ रहे थे | क्या बात है ?” 

गुलाब अब भी बिना कुछ बोले अन्दर वाले कमरे में चला गया | उसका अनुशरण करते हुए उसकी माता जी, उसका भाई तथा उसकी छोटी बहन भी अन्दर चले गए |

राम रतन जी का परिवार दिल में चिंता एवम उतावलापन लिये उनके बाहर निकलने का इंतजार करता रह गया | यह घड़ी लड़की वालों के लिए उस पपीहे के समान होती है जो आसमान मे उमड़ते बादलों को देखकर उसकी ओर अपना मुहँ फाड़े इस उम्मीद में बैठा रहता है कि न जाने बारिश की एक बून्द उसकी मनोकामना एवं जीवन की लालसा को पूर्ण करेगी भी या नहीं | 

घर वालों को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा | क्योंकि जल्दी ही गुलाब की माता जी ने बाहर आकर बता दिया कि लड़के को लड़की पसन्द है | परंतु..... |

पहले तो सभी के चेहरे खिल उठे थे ओर एक दूसरे को बधाई देने का सिलसिला शुरू भी हो गया था किंतु गुलाब की माता जी के मुख से निकले परंतु ने सभी को एक बार फिर से जड़वत कर दिया |   

राम रतन जी के मन की दुविधा एवं उनके चेहरे पर उड़ती हवाईयों को समझते हुए गुलाब की माता जी ने उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है मेरा लड़का केवल इतना जानना चाहती है कि लड़की को बस या रेलगाड़ी के सफर के दौरान उल्टियाँ तो नहीं आती ? 

गुलाब की माता जी का कथन सुनते ही राम रतन जी तनाव मुक्त हो गए | उन्हें ऐसा आभास हुआ मानों तैरते तैरते थक कर डूबते हुए एक पुरूष ने थाह पा ली हो | उनके साथ साथ उनके सभी घर वालों के चेहरे प्रसन्नता से उदभाषित दिखने लगे |  राम रतन  जी से उत्तर देते न बना क्योंकि खुशी के कारण उनकी आंखे छलक आई तथा गला भर आया था | अतः श्रीराम को उत्तर देते हुए बताना पड़ा कि संतोष को सफर में ऐसा कुछ नहीं होता |       

इस पर गुलाब की माता जी ने घोषणा कर दी, “लड़की हमारी हुई अर्थात उनकी तरफ से रिस्ता पक्का | बाकी वे सोच लें कि उनकी क्या राय है ?”

संतोष की माँ जिसके मन में खुशी की लहर हिलोरें मार रही थी हाथ जोड़कर बोली, "हमें क्या सोचना है जी | हमारी बेटी सौभाग्य शालिनी है जो आपने उसे अपनी बहू बनाने का सम्मान दिया |” 

गुलाब की माँ भी बहुत खुश दिखाई दे रही थी | वे अपनी प्रसन्नता में इतनी बह गई कि झट से अपने गले से सोने की चैन निकाल कर संतोष के गले में पहना दी |

इस पर बधाई हो ...बधाई हो के उच्चारण से वातावरण गूंज उठा | संतोष की माँ ने एकदम उठकर गुलाब की माता जी(लीलावती) के चरण छूने चाहे परंतु उन्होने फुर्ती दिखाते हुए उनको ऐसा करने से रोक दिया तथा उन्हें अपने गले से लगा लिया |

संतोष की माँ ने दोबारा चरण छूने की कोशीश करते हुए, “हमने तो आपके पैर पहले भी छू रखे हैं जब हमारी शालू की शादी आपके बड़े लड़के से हुई थी |” 

“तब की बात कुछ और थी | उस समय मैं आपको इतना जानती नहीं थी | अब तो मैं आपको प्रत्यक्ष अपनी समधन के रूप में देख रही हूँ | अब आप ऐसा न करें |” 

राम रतन जो अपनी लड़की के रिस्ते की बात पक्की जानकर फुला न समा रहा था अब दोनों सम्धनों की बात सुनकर बोला, यह तो आपका बडप्पन है जी | वरना हमारी जगह तो आपके चरणों में ही है जी | कुंवर साहब(गुलाब) के पिता जी की तरह आप भी महान हैं जी | देखो न आपने लड़के की रस्म कराने से पहले ही लड़की की रस्म कर दी | लाला जी की महानता के चर्चे तो मैनें तभी सुन लिये थे जब आपके बडे लड़के की शादी दारियागंज से हुई थी | फिर प्रत्यक्ष डिबाई में देख भी लिया जब आपके दूसरे लड़के की शादी हमारी चचेरी बहन शालू के साथ सम्पन्न हुई थी | 

लीलावती ने डिबाई वालों की बात बताते हुए कहा, “डिबाई वालों ने तो बारात की आवभगत बहुत अच्छी की थी | सभी बाराती बहुत प्रशंसा कर रहे थे |”

“सो तो सही है जी परंतु लाला जी की महानता का तो कोई मुकाबला ही नहीं हो सकता” | इसके बाद राम रतन जी ने डिबाई में घटी बर्फ के पानी की घटना को सुना दिया |फिर थोड़ी देर रूककर, "अगर आपकी मंजूरी मिल जाए तो लड़के का शगुन करके हम भी अपनी तरफ से बात पक्की कर दें |”

“जैसी आपकी इच्छा | मुझे इस में कोई एतराज नहीं है |”    

राम रतन जी ने विधिपूर्वक गुलाब के माथे पर चन्दन रोली का टीका लगा कर एक गिन्नी भेट स्वरूप गुलाब को दे दी | इसके बाद जब वे गुलाब की माता जी को मिलनी के रूप में भेंट देने लगे तो उन्होने यह कहते हुए लेने से मना कर दिया कि यह मामला मर्दों के दायरे में आता है तथा उनसे पहले वे यह स्वीकार नहीं कर सकती | इस समय इतना ही बहुत है कि हमको लड़की पसन्द आ गई है तथा आपको लड़का | अब आगे के प्रोग्राम आप मर्द लोग बैठ कर सुलझाते रहना |


Wednesday, August 19, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग- XI)

 XI

मन में खुशी का अम्बार लिये राम रतन ने ग्वालियर अपने घर में घुसते ही अपनी पत्नि को आवाज लगाई, "अजी सुनती हो ?” 

“बड़ी जल्दी आ गए, क्या रहा ?”

“वही हुआ जिसका मुझे पक्का विशवास था |(मिठाई का डिब्बा पकडाते हुए) लो मुँह मीठा करो और बच्चों का भी करा देना | वे संतो को देखने आ रहे हैं |”

“कब आ रहे हैं ?”

“इसी रविवार को,ताज से आएंगे |”

“बात पक्की हो गई है अतः शादी भी जल्दी ही करनी पड़ेगी |”

पत्नि कुछ असमंजस्ता से, “परंतु वे तो अभी देखने ही आ रहे हैं न ?”

“अरे चिंता मत करो | उनके घराने को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ | वे एक बार जिस लड़की को देखने जाते हैं तो फिर रिस्ता पक्का ही कर कर आते हैं चाहे लड़की लड़के से 19 ही क्यों न हो | और हाँ इतना भी जान लो कि वे जबान के पक्के तो हैं ही इसके साथ साथ अपने भाई बंधुओं द्वारा उनके बारे में दे दी गई जबान को भी वे कटने नहीं देते |” 

“वो कैसे जी ?”

“तो सुनो अपनी शालू के विवाह में तो हमने देख ही लिया था कि उनका व्यवहार कितना अच्छा था | पता है अनूप शहर में उनकी बारात के लोगों को जब नाश्ता दिया जा रहा था तो वहाँ ठंडे पानी की कमी हो गई थी | एक बाराती ने इस कमी के बारे में ज्यों ही ऊंची आवाज करनी चाही थी तो लाला जी ने उसे बुरी तरह डाँट कर चुप करा दिया तथा बिना कोई शिकायत किये अपने आप बर्फ की एक सिल्ली मंगा कर पानी में डलवा दी थी |” 

अब मैं उनके बडे लड़के की शादी के बारे में एक किस्सा सुनाता हूँ जो मुझे किसी से पता चला है | 

नारायणा गाँव की घनी आबादी से दूर हटकर एक आलीशान बंगला है | बंगले के बाहर काले रंग की एक चमचमाती कार खड़ी है | बंगले के अन्दर भारी भरकम परंतु गठा हुआ शरीर वाला एक व्यक्ति, महेंद्र प्रताप गुप्ता, एक ऊंचे दिवान पर मसन्द के सहारे आधा लेटा हुआ है | उसके हाथ में हुक्के की नली है जिसमें वह कभी कभी दम लगा लेता है | इसी समय दो तीन व्यक्ति आकर सामने बिछे हुए मुढढों पर बैठ जाते हैं | आगंतुकों में से एक हाथ जोड़कर महेंद्र प्रताप का अभिवादन करते हुए, "जीजा जी नमस्ते |”

महेंद्र प्रताप सीधा बैठते हुए तथा मुस्कान बिखेरते हुए, "आओ, आओ मुनीम जी, बैठो |” 

वैसे तो मुनीम जी का नाम कृपा राम था परंतु दिल्ली के दरियागंज इलाके के एक प्रसिद्ध मुनीम जी होने की वजह से वे जगत प्रसिद्ध मुनीम जी बन चुके थे | अतः छोटा बडा सभी उन्हे मुनीम जी कहकर ही बुलाते थे | 

“मुनीम जी घर तो सब कुशल मंगल से हैं ?”

“हाँ जीजा जी सब कुशल पूर्वक हैं |”

“हीरा लाल, आपका का बेटा, क्या कर रहा है ?”

उसने टैक्सटाईल इंजिनियरिंग के डिग्री कोर्स में दाखिला ले लिया है |” 

“कहाँ ?”

“यहीं दिल्ली कालेज आफ इंजिनियरिंग में मिल गया है |”

“बहुत अच्छा  | यह तो बहुत बढिया रहा | होनहार लड़का है | आगे चलकर बहुत तरक्की करेगा |” 

“आपकी कृपा बनी रहनी चाहिए, जीजा जी |”

“क्या बातें करते हो मुनीम जी | हम क्या चीज हैं | कृपा दृष्टि तो उपर वाले की बनी रहनी चहिए | उसी के हाथ में सब कुछ है | जिसकी चाहे पतंग उड़ा दे, जिसकी चाहे काट दे |”

“सो तो है जीजा जी परंतु फिर भी जीवन नैया सुचारू रूप से चलाने के लिए बड़ों का सहारा और आशिर्वाद भी तो बहुत आवशयक होता है |”

“मुनीम जी मैं आपकी बातों से सहमत हूँ परंतु ये बताओ कि आज आपने सहारे की बात कहाँ से शुरू कर दी ? जो व्यक्ति हमेशा से दूसरों का सहारा बनता आया हो आज उसे.......?”      

“चिंता की कोई बात नहीं है जीजा जी | मेरा इशारा तो अपनी बेटी प्रेम की ओर था | आप तो सब जानते हैं कि मैनें अपने दोनों बच्चों को उनकी मम्मी जी के मरने के बाद कैसे पाल पडौस कर बडा किया है | उन्हें मम्मी-पापा की किसी प्रकार की कोई कमी महसूस न होने दी | अब बेटा इंजिनियरिंग कालेज में चला जाता है | मैं सुबह नौकरी पर चला जाता हूँ अतः प्रेम घर पर अकेली रह जाती है | मुद्दा उसके अकेले रहने का नहीं है परंतु उसकी शादी करने का है क्योंकि मेरे विचार से यह ठीक उम्र है शादी करने की |”

“अरे हाँ मुनीम जी ! मेरा तो इस और ध्यान ही नहीं था | अच्छा बताओ कैसा लड़का चाहिए ?”

“मैं आपको क्या बताऊँ कि कैसा चाहिए | आप से हजारों का वास्ता पड़ता है | आप खुद ही समझ लो | यह बात तो ठीक है परंतु....” (अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आ गया हो) “आप लाला नारायण को तो जानते होंगे ?”

“वही लाला ठाकुर दास के लडके जिनके रथ में बैठकर एक बार हम कालका देवी माँ के मन्दिर में गए थे |” 

“हाँ हाँ वही नारायण | उन दिनों ठाकुर दास के उपर लक्ष्मी माँ की कृपा थी | परंतु उनके भाईयों ने धोखे धड़ी   से उन्हें मरवा कर सारा माल हडप लिया | उस समय नारायण बहुत छोटा था कि कुछ समझ पाता | अतः शुरू शुरू में तो नारायण को बहुत कष्टों का सामना  करना पडा परंतु उसकी नेक नियत, ईमानदारी तथा मेहनत जल्दी ही रंग ले आई और उन्होने आश्चर्य जनक उन्नति हासिल कर ली |”

“वे अब क्या करते हैं तथा उनका बेटा क्या करता है ?” 

“लाला नारायण का तो गाँव में ही किरयाने का काम है | इस समय हमारे इलाके में शायद सबसे अच्छा काम उन्हीं का है | उनका लड़का शिव गवर्नमैंट आफ इंडिया प्रैस-मिंटो रोड़  में कार्यरत है |”    

“अगर आपकी निगाह में सब कुछ जंचता है तो बात चलाकर देख लेना |” 

महेंद्र कुछ सोचकर, “बात क्या कर लेना | आप यहाँ आए तो हुए हो | नाश्ता वगैरह कर लो फिर मैं जाकर पता कर लूंगा | शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिये |” 

 बस्ती के बीचों बीच एक बहुत बड़ी हवेली खड़ी है | अन्दर लम्बा चौडा आंगन है | आंगन के एक कौने में लाला नारायण एक चारपाई पर आराम कर रहे हैं | उन्होने अभी अभी नाश्ता समाप्त किया है | नौकर बचा हुआ सामान वापिस ले जा रहा है | वह उससे कह्ता है, "हरिया अब जरा हुक्का ताजा कर ला |”

“अच्छा लाला जी अभी लाया |”

“और सुन गाय पर धूप आ गई होगी उसे भी छाया में बाँध दे |” 

“ठीक है लाला जी बाँध देता हूँ |” 

इतने में महेंद्र प्रताप अन्दर दाखिल होकर, "भाई साहब राम राम |”

नारायण ने मुडकर देखा, “आ भाई महेंद्र प्रताप बैठ | हमारा अहो भाग्य जो आज सुबह सुबह आपके दर्शन हुए |” 

“आज सुबह सुबह लक्ष्मी की बात आई तो सोचा आपसे ही सलाह कर लूँ |

हुक्के की नली प्रताप की ओर बढाते हुए, “प्रताप, हम ठहरे अनपढ गंवार | भला हम आपको क्या सलाह दे सकते हैं |”

“ऐसा मत कहो भाई साहब | एक तो आप अनपढ गंवार नहीं | दूसरे मैं जो आज इस पोजीशन पर पहूंचा हूँ वह आपकी सलाह तथा रास्ता बताने का ही नतीजा है | बिना इसके मैं किसी काबिल नहीं था |” 

“प्रताप भाई काम आपने किया, मेहनत आपने की तो भगवान ने फल भी तुम्हे ही देना था | फिर भला केवल एक रास्ता सुझा देने से मेरा क्या सहयोग रहा ?”

“प्रगति के पथ पर अग्रसर होने के लिये सही रास्ते का पता होना ही तो सफलता की सबसे बड़ी कुंजी होती है, भाई साहब |” 

“अच्छा, अच्छा ठीक है | बातों में भला आप से कौन जीत सकता है | अब बताओ कैसे आना हुआ ?”

“पहले यह बताओ कि अगर एक भाई दूसरे भाई के लिये अपने विश्वास पर किसी तीसरे व्यक्ति से कुछ तय कर लेता है तो दूसरे भाई का क्या फर्ज बनता है ?” 

“क्या मतलब, क्या बात है | प्रताप साफ साफ कहो |”

“बात कुछ भी हो | पहले यह बताओ कि दूसरे भाई का क्या फर्ज बनता है ?” 

“अगर बात जायज हो तो दूसरे भाई को अपने भाई की इज्जत रखने के लिये तय की हुई बात मान लेनी चाहिए |” 

राम नारायण का उत्तर सुनकर महेंद्र का मन बहुत खुश हुआ | उसने यह कहने में एक पल भी नहीं लगाई, "तो ठीक है, बात तय हो गई समझो |” 

जब नारायण ने महेंद्र की बात पर कोई प्रतिक्रिया जाहीर नहीं की तो वह असमंजस्ता से नारायण के चेहरे के भाव समझने की कोशिश करने लगा | परंतु उनके सपाट मुख पर कोई प्रश्न चिन्ह न देखकर महेंद्र को खुद ही प्रश्न करना पड़ा, "पूछोगे नहीं कि क्या तय हो गया ?”

“मुझे पूछने की क्या जरूरत है |” 

“भाई साहब तय तो आपके लिए किया है |”

“जब तय कर ही लिया है तो फिर पूछने की क्या आवश्यकता रह जाती है | जो तय हो गया सो हो गया |” 

महेंद्र बताने को आतुर होते हुए, "भाई साहब फिर भी.....|”

“देखो, महेंद्र जब तुमने तय किया था तो आपको एक दृड़ विशवास होगा कि मैं आपका किया हुआ फैसला कभी भी नहीं टाल सकता | इसके साथ साथ आपने यह भी सोच समझ कर ही तय किया होगा कि जो आप कर रहे हैं उसमें किसी प्रकार की कोई त्रुटी नहीं रहनी चाहिए | अतः अब और बातें छोडकर मुझे तो केवल इतना हुक्म दो कि मुझे आगे क्या करना है |”

“भाई साहब हुक्म का शब्द प्रयोग करके मुझे शर्मिन्दा न करें | असल में मैनें आपके बड़े  लड़के शिव का रिस्ता अपने साले की लड़की "प्रेम" से तय कर दिया है |”           

राम नारायण ने इस बार थोडा सोचा और कहा कि उसे इस रिस्ते में कोई आपत्ति नहीं है फिर भी प्रचलन के अनुसार लड़के की मंशा जान लेना जरूरी है | 

उनकी इस अड़चन का समाधान भी अन्दर आती हुई उनकी पत्नि ने यह कहते हुए कर दिया कि उसने शिव से पता पर लिया है तथा वह कह रहा है कि वह अपने बडों की मर्जी ओर इच्छा के खिलाफ नहीं जाएगा |

“लो जी अब तो आपकी इस शंका का भी समाधान हो गया है | अतः लग्न व शादी की तिथि सुझवा कर बता देना |”

“भाई महेंद्र जब आपने इतने काम निपटा लिये हैं तो फिर इस काम को क्यों छोड़ते हो | यह शुभ कार्य भी आपके हाथों सम्पन्न हो जाए तो सोने में सुहागा हो जाएगा |”

“ठीक है भाई साहब आप चिंता न करें मैं सब काम पूरे करा दूंगा परंतु (महेंद्र चुटकी लेते हुए) भाई साहब बारात तो आपको ही ले जानी पड़ेगी |”

नारायण ने भी हाजिर जवाबी झाड़ते हुए, “वो मैं जानता हूँ | बारात तो तुम किसी हालत में भी नहीं ले जाओगे | क्योंकि यह तो जगत प्रसिद्ध कहावत है कि, "गन्ने से गंडेरी मिठ्ठी ओर गुड़ से मीठा राला, भाई से भतीजा प्यारा ओर सबसे प्यारा साला |  इसमें तो आप अपने साले का ही साथ दोगे |” (सभी उपस्थित लोग जोर का ठहाका लगाते हैं)

इस तरह अपने भाईयों के विशवास पर ही नारायण जी ने बिना किसी प्रकार की कोई हुज्जत करते हुए तथा अपने भाईयों का मान रखते हुए अपने लड़के की शादी बड़ी   धूमधाम से सम्पन्न कर दी | बारात के लोग ही नहीं बल्कि पूरी बिरादरी में उन्हीं के नाम का गुणगाण हो रहा था | ऐसे हैं नारायण जी | क्या अब भी तुम्हारे मन में कोई शंका है ?”   

“सो तो ठीक है फिर भी मुझे तो अपनी संतो की लम्बाई पर ....|”

“अजी छोड़ो अपनी शंका को, सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दो, और उनके आवभगत की तैयारी शुरू कर दो |”


Monday, August 17, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग X)

 X

“अरे संतो की माँ |”

.................|

“सुनती हो |”

“आई जी |(बाथरूम से आवाज देते हुए) अभी नहा रही हूँ |”

थोड़ी देर बाद, “कहो जी क्या बात है | बताने को बड़े उतावले नजर आ रहे हो ?” 

“अरे अब यहाँ क्या नहा रही हो, अब तो तुम्हें गंगा ही नहलाऊंगा |” 

“ऐसी क्या बात हो गई ?

“हुई नहीं होने जा रही है |” 

“अच्छा पहेली बुझाना छोड़ो और मतलब की बात करो | क्या बात है ?”

“पता चला है कि लडका छुट्टी आ रहा है | संतो के लिये बात करने जा रहा हूँ |” 

“लो सुनो | आप तो ऐसे कह रहे हो जैसे शादी की तारीख ही पक्की कर आए |” 

“पक्की ही समझो |” 

“संतो के लिये पाँच छः लडके तो देख चुके हो कोई भी पसन्द नहीं आया | अब यह् ऐसा कौन है जो बिना देखे ही पसन्द आ गया है |” 

“क्या तुमने डिबाई विजय की शादी में अपनी शालू का छोटा देवर देखा था ?”

“मुझे तो कुछ याद नहीं |”

“अरे वही जो मिलिट्री में है |”

दिमाग पर कुछ जोर डालकर, “क्या वही तो नहीं जिसकी माला के साथ बात होने जा रही थी |” 

“तुमने बिल्कुल सही अन्दाजा लगाया | माला की शादी तो अब हो गई है इसलिये क्यों न हम अपनी संतो के लिए वहाँ बात चलाएँ |”

“लड़का तो ठीक ही है परंतु हमारी संतो के हिसाब से लम्बा है | कहीं यही रूकावट का कारण न बन जाए |”

“इसकी चिंता मत करो | मुझे पूरा विशवास है कि काम बन जाएगा |

दोनों हाथ जोड़कर, “भगवान करे ऐसा ही हो |” 

गुलाब बाथरूम में नहाने के साथ साथ विचारों में खो गया | वह दुखी मन से  सोचने लगा कि अब माला तो मिल नहीं सकती परंतु उसे भुलाया भी नहीं जा सकता तो फिर ऐसी क्या युक्ति निकाली जाए कि माला से यदाकदा मिलन होता रहे | इतने में उसकी नजर  बाथरूम में लगे शीशे पर पड़ गई | शीशे में गुलाब को अपनी छाया सी उभरती नजर आई | प्रतिबिम्ब के चेहरे पर मन्द मन्द मुस्कान नजर आ रही थी | प्रतिबिम्ब ने कहा बरखुरदार आप बिल्कुल सही सोच रहे हो | अपनी भाभी जी की बात मान लो | उनकी भतीजी से शादी कर लो |

 इस युक्ति को जानकर गुलाब का मन गदगद हो गया | उसने सोचा कि ऐसा करने से वाक्य में ही उनके यहाँ या फिर हमारे यहाँ होने वाले हर टेहले ब्याह में हम दोनों का मिलन हमेशा होता रहेगा | 

प्रतिबिम्ब ने गुलाब को सजग करते हुए तथा अपना रौब जमाते हुए कहा, "याद रहे अपनी पत्नि के साथ किसी प्रकार की ना-इंसाफी नहीं होनी चाहिए |”

“नहीं- नहीं, मैं किसी प्रकार की कोई ना-इंसाफी नहीं होने दूंगा |” 

“तो तुम माला से कैसा रिस्ता रखोगे ?”

“मैनें माला से सच्चा प्रेम किया है तथा करता रहूंगा |”

“इसका मतलब अपनी पत्नि से केवल शारिरीक सम्बंध ही रखोगे ?”

“ऐसा नहीं है | मैं उसे भी उसका पूरा हक दूंगा | उसे मेरे से किसी प्रकार का कोई गिला शिकवा नहीं रहेगा |” 

“यह सब कहने की बातें हैं | ऐसा कभी भी मुमकिन नहीं कि कोई दो औरतों को एक जैसा प्यार दे सके |” 

गुलाब एक दृड़ निश्चय के साथ, “पहला लगाव तथा प्रेम निश्छ्ल प्रेम होता है और वह पूरी जिन्दगी के लिये हो जाता है | यह अमर प्रेम किसी भी हालत में मन से निकाला नहीं जा सकता |” 

“अगर तुम्हारी पत्नि को यह पता चल गया तो वह इसे सहन नहीं कर पाएगी | और तुम्हारी जिन्दगी नरक बन कर रह जाएगी |” 

“मैं अपनी पत्नि को सब कुछ साफ साफ बता दूंगा |” 

“तुम बेवकूफ जैसी बातें कर रहे हो | इतना भी नहीं जानते कि एक पत्नि अपने पति को किसी दूसरी औरत से कोई भी सम्बंध रखने को सहन नहीं कर सकती | कभी नहीं |”

“मैं अपनी पत्नि को बडे सरल भाव से समझाऊंगा कि वह्......|”

प्रतिबिम्ब गुलाब की मुर्खता पर हँसते हुए, “एक पत्नि चाहे वह कितनी भी समझदार क्यों न हो अपने पति का प्यार किसी दूसरी औरत के साथ बाँटने को कभी भी राजी नहीं होगी |” 

“मैं...........|”

दरवाजा खटखटाने की आवाज ने गुलाब के विचारों की श्रंखला को विराम दे दिया | उसकी भाभी शालू आवाज देकर खाने के लिये जल्दी आने को कह रही थी | वह जल्दी से सब काम निबटा तथा तैयार होकर खाने की मेज पर आकर बैठ जाता है | उसने खाना शुरू ही किया था कि दरवाजे की घंटी बजती है | गुलाब उठने की कोशिश कर ही रहा था कि उसकी भाभी ने दरवाजा खोल दिया |

शालू आगंतुक को देखकर जो उसके चचेरे भाई राम रतन थे, “नमस्ते भाई साहब जी, आईये |”

राम रतन अन्दर आकर गुलाब के सामने मेज के दूसरी तरफ बिछी कुर्सी पर बैठ जाते हैं | गुलाब उनसे नमस्ते करके अपना नाश्ता करने लगता है | 

शालू अपने भाई राम रतन को पानी देते हुए, “भाई साहब घर में सब कुशल पूर्वक तो हैं ?”

“हाँ वैसे तो सब कुशल मंगल से हैं केवल तुम्हारी भाभी ही ठीक नहीं रहती | उन्हें थकावट के कारण अकसर शरीर में हरारत के साथ साथ जोडों के दर्द की शिकायत बनी रहती है | दवाई देते रहते हैं | वैसे चिंता की कोई बात नहीं है |” (पानी पीते हैं) 

“भाई साहब, खाने का समय है, खाना लगा दूँ या पहले कुछ ठंडा या गरम चलेगा ?”

“नहीं-नहीं, कुछ नहीं |”

“भाई साहब पुराने ख्यालों को छोड़ो | अब तो लड़की की ससुराल में भी सब खाना पीना चलता है | फिर आप तो मेरे भाई हो |” 

“सो तो ठीक है परंतु बड़ा भाई हूँ | और फिर जब तक निभा सकता हूँ तो क्यों न निभाऊँ |”

गुलाब अब तक अपना नाश्ता समाप्त कर चुका था अतः राम रतन उसकी ओर मुखातिब होकर, “बेटा कब आए ?”

“आज सुबह ही आया हूँ |”

“पाकिस्तान-भारत की जंग तो काफी दिन चली ?”

“जी हाँ, शांति बहाल होते होते लगभग तीन चार महीने लग गए |”   

“क्या आप ऐसी लड़ाई में बन्दूक वगैरह से लैस होकर आगे जाकर लड़ते हो ?”

“नहीं जी | हम अधिकतर अपनी सरहद के 20-25 किलो मीटर अन्दर ही रहते हैं |” 

“तो फिर फौज में आपका क्या काम होता है ?” 

“हम राडार की ट्यूब पर अपने हवाई जहाजों की स्थिति देखकर उनको सही रास्ते की सुचना मुहैया करते हैं |” 

“इसका मतलब आप लोगों को जंग के दौरान कोई खतरा नहीं होता ?”

“जहाँ तक खतरे का सम्बंध है, व्यक्ति को खतरा कहाँ नहीं होता ?अभी हम इस छत के नीचे बैठे हैं | मान लो अभी जोर का भूचाल आ जाए तो, बन जाएगा न खतरा ?”

“सो तो ठीक है बेटा | फिर भी इस खतरे में और उस खतरे में बहुत अंतर है | खैर छोड़ो  इस मुद्दे को | बताओ कि कितने दिनों की छुट्टियाँ आए हो ?”

“दस दिनों की |”

“आपकी माता जी कहाँ हैं ?”

पीछे से शालू ने जवाब दिया, "वे पडौस में गई हैं |”

“कब आएंगी ?”

“बस आने वाली हैं |”  

 इतने में गुलाब की माता जी अन्दर दाखिल होती हैं | राम रतन उन्हें नमस्ते करता है | उत्तर में वे भी राम रतन का अभिवादन करते हुए एक खाली कुर्सी पर बैठ जाती हैं | गुलाब समय की नाजुकता को भाँपते हुए वहाँ से उठकर चला जाता है |  

राम रतन शालू की सास की तरफ हाथ जोड़कर, “जी मैं आपके लड़के गुलाब के लिए आया हूँ |”

“क्या आपकी लड़की ब्याह लायक है ?”

“जी हाँ | दसवीं पढी है | सिलाई कढाई का डिप्लोमा भी किया हुआ है |” 

“देखो जी मुझे इन बातों से कोई लेना देना नहीं | मुझे तो केवल इतना भरोसा दिला दो कि आपकी लड़की का स्वभाव हमारी शालू जैसा है तथा चुल्हा चौका सम्भालने में भी वैसी ही चतुर है जैसी शालू |”

“आप शालू से ही दरयाफ्त कर लो |”

“मुझे क्या दरयाफ्त करना है | आप क्या गल्त कहोगे | मुझे तो बस घर चलाने वाली लड़की चाहिये | घर बिगाडने वाली नहीं | अब आप अपने अन्दरले मन से पूछकर खुद ही हाँ ना का जवाब दे दो | अगर आपके अनुसार आपकी लड़की मेरी कही बातों की कसौटी पर खरी उतरती है तो मुझे रिस्ता जोड़ने में कोई आपत्ति नहीं है | फिर भी गुलाब के पिता जी से बात करना जरूरी है |”

“सो तो ठीक है जी |मैं उनसे बात कर लेता हूँ | वे कहाँ मिलेंगे ?”

शालू ने जवाब देते हुए बताया कि वे इस समय तो दुकान पर ही मिलेंगे | वैसे(घड़ी   की ओर देखकर)उनके घर आने का समय हो गया है | अतः भाई साहब आप थोड़ी   देर ओर यहीं इंतजार कर लो | 

लाला नारायण (गुलाब के पिता जी) घर में प्रवेश करते हैं | राम रतन जी खडे होकर उनका अभिवादन करते हुए अपने दोनों हाथ जोड़ते हैं | 

बैठो-बैठो, नारायण खुद भी बैठते हुए, “लाला जी आप कब आए ?”

“अभी कोई एक घंटा पहले |

“घर में सब कुशल पूर्वक तो हैं ? 

“भगवान की कृपा है जी |”

लीलावती, लाला नारायण की पत्नि, “जी, ये गुलाब के रिस्ते के लिये आए हैं |”

“अरे भाई लड़का इनका है फिर मेरे से क्या पूछना है |” 

राम रतन  :- सो तो ठीक है जी | यह तो आपका बडप्पन है जी | फिर भी अगर लड़के से भी उसकी मर्जी पूछ ली जाती तो बहुत बेहतर रहता | 

लीलावती :- शालू जा अपने देवर की इच्छा पता करके इन्हें बता दे |

लाला राम रतन, लाला नारायण जी के बारे में सब कुछ जानते थे कि वे बहुत ही नेक ,ईमानदार, दानी तथा सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं | उन्हें किसी प्रकार का कोई लालच छू तक नहीं सका है | जब शालू ने आकर बताया कि आप बडों की हाँ में ही गुलाब की हाँ है तो राम रतन आगे बात बढाने के लिये दुविधा में पड़ गए | थोड़ी देर तो उनकी समझ में न आया कि बात कहाँ से शुरू की जाए | फिर भी उनके समाज में प्रचलित प्रथा को ध्यान में रखते हुए परंतु राम नारायण जी के प्रति अपने आप में थोड़ी शार्मिन्दगी महसूस करते हुए उन्होने यह पूछना उचित समझा कि, "आपकी कोई इच्छा या डिमांड़ हो तो बता दे ?”

लाला राम नारायण की बजाय उनकी पत्नि ने ही जवाब दिया, “लाला जी आपने हमें शालू के विवाह के दौरान पहले भी परख रखा है | उससे ही अन्दाजा लगा लेना था कि हमारी क्या डिमांड, इच्छा या आकांशाए हो सकती है | वैसे आपकी शंका एवं चिंता को समाप्त करने के लिये बता दूँ कि भगवान का दिया हमारे पास सब कुछ है | मैनें आपको पहले भी बताया था कि  हमें तो लडकी पढी लिखी, सुन्दर तथा सुशील चाहिए | वह घर में मिलती जुलती सी हो तथा चौके चुल्हे का हर काम बखूबी जानती हो | बस इसी को आप  हमारी तरफ से डिमांड, इच्छा या आकांशा कुछ भी मान लो |” 

गुलाब की माता जी के वचन सुनकर राम रतन को बहुत दिनों के अथक प्रयास के बाद आज पहली बार मह्सूस हुआ कि यहाँ उनकी दिली इच्छा हर प्रकार से पूर्ण हो जाएगी | यह सोचकर उनका मन गदगद हो उठा | उनकी आंखों से खुशी के मोती टपकने वाले ही थे कि उन्होने अपने आप को सम्भालते हुए प्रश्न किया, "आप लड़की देखना कब तथा कहाँ पसन्द करोगे ? ‘

लीलावती अपने घर में सलाह करके, “हम लड़की देखनें अगले रविवार को आपके घर ग्वालियर ही आ जाएँगे | और हाँ अगर गुलाब को लड़की पसन्द आ गई तभी हमारी तरफ से रिस्ता पक्का समझो |”    

राम रतन उठते हुए तथा हाथ जोड़कर, “ठीक है जी अगले रविवार को मेरा लड़का आपको ग्वालियर स्टेशन पर ताज एक्सप्रैस के पहुंचने के समय पर मिल जाएगा | जिससे आपको हमारे घर पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होगी | अब मैं चलता हूँ |”


Saturday, August 15, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग VII, VIII, IX)

 VII

अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए बहुत ही खुफिया तरीके से जम्मू के हवाई अड्डे से रात के बारह बजे एक हेलिकोप्टर ने उड़ान भरी | इसमें पायलटों के अलावा केवल कार्पोरल गुलाब सिहं गुप्ता अपने जरूरी सामान के साथ सवार था | हेलिकोप्टर नीची उड़ान भरता हुआ चिनाब नदी को पार कर गया | सामने ऊंची पहाड़ी थी अतः हेलिकोप्टर ने अपने को दुशमनों की नजरों से बचाते हुए पहाड़ी  का चक्कर लगाना शुरू कर दिया | पहाड़ी के दूसरी तरफ एक घना जंगल शुरू हो गया था | यहीं से पाकिस्तान की सीमा शुरू हो जाती थी | हेलिकोप्टर ने गुलाब को इसी घने जंगल में उतार दिया तथा वापिस आ गया | उतरते ही गुलाब ने एक उपयुक्त स्थान खोज कर अपना यंत्र जमाया तथा काम शुरू कर दिया | लगभग दो घंटे की तल्लीनता, मुस्तैदी तथा अपने अथक प्रयास  से वह पाकिस्तान की सभी नई चौकियों की स्थिति की जानकारी हासिल करने में सफल हो गया | अपना काम समाप्त करके उसने पायलट को सन्देशा भेज दिया जिससे हेलिकोप्टर  आकर गुलाब को वापिस ले गया |

कमांडर :-(यूनिट में अगले दिन सुबह) कार्पोरल गुप्ता, क्या काम पूरा हुआ ?

गुलाब :- हाँ, श्री मान जी | काम पूरा हो गया |

कमांडर :- वैरी गुड़| दिखाओ |   

गुलाब ने अपने द्वारा बनाए गये नक्शे को कमांडर की मेज पर बिछा दिया | इसके बाद कमांडर के कहने पर उसने उसके बारे में विस्तार से समझाना शुरू किया |

सर, जम्मु की तरफ से चिनाब नदी पार करते ही हमारे सामने एक  ऊंचा पहाड़ आता है | उसकी बाँई ओर से चलते हुए जब हम पहाड़ के दूसरी तरफ पहुंच जाते हैं तो वहाँ एक बहुत गहरा जंगल आ जाता है | इस जंगल के शुरू होते ही पाकिस्तान की सीमा प्रारम्भ हो जाती है | यहीं से मैनें उनकी चौकियों की स्थिति का पता किया है | जैसा पहाड़ चिनाब नदी के पार है वैसी ही पहाड़ की एक श्रंखला उस बिहड़ जंगल के पार है जो पाकिस्तान में है | इस पहाड़ की श्रंखला में पाकिस्तान की तीन चौकियाँ स्थापित हैं | सर देखिये उनकी यह दाँए हाथ वाली चौकी जो हमारी सबसे बड़ी  चौकी "ध्रुव तारा" है उसके ठीक 30 डिग्री दाऎं पर स्थित है | उसकी समुंद्र तल से ऊंचाई 2400 फीट है | और सर, उनकी बीच वाली चौकी हमारी ध्रुव तारा के ठीक सामने है परंतु उसकी ऊंचाई हमारी चौकी से 500 फीट ऊंची है | उनकी तीसरी चौकी 39 डिग्री बाएं को है | यह चौकी पहाड़ में एक अर्ध गोलाकार कटाव की ढलान पर है | उनकी यह चौकी हमारे देश की खुफिया जानकारी लेने के लिये बहुत ही अहम भुमिका निभाती होगी क्योंकि इस चौकी से हमारा पहाड़ को पार करने का कोई भी कदम आसानी से देखा जा सकता है | यही नहीं यह चौकी हमारे मैदानी इलाके की भी दूर तक निगरानी रख सकती है | यह 2700 फीट की ऊंचाई पर स्थित है |  

कमांडर ने सब कुछ अच्छी तरह समझ कर एक प्लान बनाई तथा सभी पायलटों  को  सम्बोधित करने लगा | आप सभी अच्छी तरह से जान लो कि दुशमन की नई चौकियाँ किन किन स्थानों पर स्थित हैं, कितनी ऊंचाई पर तथा हमारी ध्रुव तारा चौकी से कितनी डिग्रीयों पर हैं | हांलाकि हमारे मार्ग दर्शक ए.टी.सी से सम्पर्क करके समय समय पर आपको रास्ता बताते रहेंगे फिर भी आपकी पहले से रही जानकारी आपको बहुत सहायक सिद्ध  हो सकती है | हम आज रात को ठीक बारह बजे उड़ान भरेंगे तथा कार्पोरल गुलाब सिहं गुप्ता द्वारा अपने नक्शे में दर्शाए गए स्थानों को अपना निशाना बनाएंगे | किसी को कोई शक ?

सभी पायलट :- नो सर |

कमांडर :- तो अब आप सब जाओ तथा अपने अपने जहाजों का मुआईना करके तैयार रहो |

सभी पायलट :- ओ . के. सर |

कमांडर :-(जाते हुए पयलटों से) रात के ठीक बारह बजे | तब तक के लिये अल विदा |                            

भारत पाकिस्तान युद्ध काफी दिनों तक चलता रहा | फौज के किसी भी फौजी को युद्ध के अलावा और कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं थी | सभी चौबीसों घंटे कार्यरत रहते थे | घर के समाचरों को मिले भी कई कई दिन बीत जाते थे | इसी प्रकार फौजी भी अपनी कुशलता का समाचार मुशकिल से ही भेज पाता था |

VIII

गुलाब का कई दिनों तक कोई समाचार न पाकर माला के घर वालों ने उसकी ओर से असमंजस्ता के रहते माला का रिस्ता उत्तर प्रदेश के बुलन्द शहर में पक्का कर दिया | लडका सुन्दर, सुडौल तथा पढा लिखा इंजिनियर था | उनकी शादी की तारीख भी जल्दी तय हो गई |

माला :- (अपने दिल का दर्द  जाहिर करते हुए) संतो मैं क्या करुं ?

संतो :- चुपचाप सहन करना पडेगा |

माला :- वे क्या समझेंगे ?

संतो :- हमारा समाज ही ऐसा है कि लडकी को अपने माता पिता की मर्जी अनुसार चलना पडता है | हमारी व्यथा तो यही है कि इस बारे में हम अपना मुहँ नही खोल सकती |

माला :- उनका पता भी तो नहीं है कि वे आजकल कहाँ पर तैनात हैं | युद्ध जोरों से चल रहा है पता नहीं कब खत्म होगा | (रोते हुए संतो से चिपट कर) मैं क्या करूं संतो |

संतो :- धैर्य रखो | भगवान को शायद यही मंजूर है | उनको अब भुलने की कोशिश करो |

माला :-(तडप कर) ऐसा नहीं हो सकता संतो | वे मेरे दिल में, दिमाग में तथा रोम-रोम में ऐसे रम गये हैं जैसे शरीर में खून | अब वे मेरे दिल से निकल नहीं सकते |

संतो :- भुलने के अलावा दूसरा रास्ता भी तो कोई नजर नहीं आता |

माला :-(रोते-रोते) संतो मेरा एक काम करोगी ?

संतो :- क्या ?

माला :- मैं तो शायद अब उनसे कभी न मिल पाऊँ | अगर वे कभी तुझे मिलें तो उन्हें सारी स्थिति समझा कर उनसे मेरी तरफ से माफी मागं लेना |

माला की बात सुनकर संतो के सारे शरीर में झुरझुरी सी दौड़गई | किसी जवान लडके से बात करना तो दूर वह उसकी परछाई से भी बचती आई है | फिर भी समय की नाजुकता  को समझते हुए उसने माला द्वारा कहे काम करने की हामी भर दी |

देखते ही देखते माला की शादी होने का दिन भी आ गया | माला के घर के द्वार पर बारात आने का शोर उठता है | सभी घर की औरतें बच्चे तथा मौहल्ले पडौस के लोग उतावले होकर गली में दूल्हे को देखने उमड़ पडते हैं | बारात गाजे-बाजे के साथ आ रही थी | आतिश बाजियाँ भी चल रही थी | सब खुश नजर आ रहे थे  | मगर माला का दिल जल रहा था |

दूसरी ओर इन सब बातों से अनभिज्ञ गुलाब राड़ार की टयूब पर बैठा बम वर्षकों को उनकी बमबारी करने की सही पोजिशन समझा रहा था | दुशमनों के अड्डों पर अचूक निशाना लगने से सभी खुशी मनाते हैं | दुशमनों के खेमों में चारों ओर आग ही आग लगी दिखाई देती है |

सभी रस्मों रिवाज के सुचारू रूप से सम्पन्न होने के बाद माला ससुराल के लिये विदा कर दी जाती है | उसकी सुहागरात मनती है तथा सब शांत हो जाता है |

युद्ध में भारत की जीत होती है | भारतीय फौजों द्वारा जीते गये भू भाग पर तिरंगा झंड़ा फहरा दिया जाता है | युद्ध समाप्ती की घोषणा कर दी जाती है | सब शांत हो जाता है |

भारतवर्ष की इस युद्ध में जीत का श्रेय गुलाब द्वारा दी गई दुशमनों की नई चौकियों की बिल्कुल सही स्थिति को दिया जाता है | अतः उसे वीरता के पदक से सम्मानित किया जाता है | देश के सभी समाचार पत्रों द्वारा गुलाब की भूरी भूरी प्रशंसा की जाती है |

 युद्ध की समाप्ती के बाद गुलाब छुट्टियों पर अपने घर के लिये चलता है | रास्ते में वह न जाने क्या -क्या सोचता रहा कितने ही प्रकार के विचार बनाता रहा कि किस से किस तरह से मिलना है | कहाँ कहाँ जाना है | कितने दिन कहाँ रूकना है | बीच बीच में वह अपने बैग को बडे प्यार से सहलाता रहता था जैसे उसने उसमें कोई बड़ी ही कोमल तथा प्यारी वस्तु रख रखी हो | और इस दौरान उसके हाव भाव भी ऐसे दिखने लगते थे जैसे कि वह किसी की याद में आत्मविभोर हो गया हो | खैर अपने मन में हजारों तरह के ताने बाने बुनते हुए वह अपने घर पहुंच गया |

घर के सभी सदस्य नाश्ते के लिये आंगन में मेज के चारों तरफ  बैठे थे | गुलाब ने अन्दर आकर अपने माता-पिता के चरण छुए ही थे कि उसकी छोटी बहनों ने भईया आ गये भईया आ गये का शोर मचाते हुए उसका बैग उससे छीन लिया |

कोमल  :- (बैग को खोलते हुए) मेरे लिये क्या लाए हो भईया ?

आत्मा  :-(बैग में झांकते हुए) और मेरे लिये क्या......?

माँ :- अरे तुम्हारा भाई इतनी दूर से आया है पहले उससे चाय पानी की तो पूछ लो | तुम तो आते ही उसके बैग के पीछे ऐसे पड़ गई जैसे तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं | तुम इतना भी नहीं सोचती कि जब तुम्हारा भाई वहाँ रहते हुए भी तुम्हारे लिये कुछ न कुछ भेजता ही रहता है तो अपने साथ तो जरूर लाया होगा |

पिता :- अरे तुम क्यों इतना नाराज हो रही हो | भैया के आने की खुशी के साथ साथ अपने लिये लाए गये तोफे को देखने की लालसा में बच्चे ऐसा ही करते हैं |

गुलाब ने अपनी बहनों से बैग लेकर उसमें से सामान निकाल कर देना शुरु किया |

पिता जी के लिये गर्म जैकेट |

माँ के लिये ऊनी शाल |

बहनों के लिये शूट के कपडे |

तीनों भाईयों के लिये स्वेटर |

भाभियों के लिये साडियाँ |

गुलाब की बड़ी तथा छोटी भाभियाँ अपने पीहर गई हुई थी | उसकी शालू भाभी जी रसोई में सबके लिये नाश्ते का प्रबंध कर रही थी | इसलिये गुलाब एक साड़ी लेकर वहीं चला गया |

“लो भाभी जी |

“यह क्या ? इसकी क्या जरूरत थी ? इतना खर्च मत किया करो | कुछ अपने पास भी बचा कर रखो | अब तुम्हारी शादी होने वाली है | पैसों की जरूरत पडेगी |

“बस भाभी जी बस ! लगता है आपने पैसे की अहमियत पर डिप्लोमा कर रखा है | तभी तो इतना अच्छा खासा लैक्चर दे दिया | (थोड़ा शरमा कर) अच्छा भाभी जी अब आपका पीहर जाना कब होगा ?

गुलाब की बात का आशय समझते हुए परंतु बनते हुए, “क्यों लाला जी क्या बात है ?  अपने आते ही हमारी छुट्टी क्यों करवाना चाहते हो ?           

“नहीं भाभी जी ऐसी बात नहीं है मैं तो बस यूँ ही पूछ रहा था | वैसे आपको अपने घर गये काफी दिन हो गए लगते हैं क्योंकि आपके चेहरे पर वह नूर नहीं दिख रहा जो एक लडकी के चेहरे पर उसके पीहर से लौटने पर रहता है |

“लाला जी ऐसी बात नहीं है | मैं तो अभी 15 दिन पहले ही डिबाई से आई हूँ |

“तो फिर आप ऐसी मुरझाई सी क्यों दिख रही हो ?

भाभी :-(थोड़ा सिरीयस होकर) लाला जी असल में बात यह है कि ....|

गुलाब को किसी आशंका ने आ घेरा | वह असल में क्या को जानने के लिए उतावला हो गया | अतः अपनी भाभी जी से बोला, "असल में क्या भाभी जी ? बोलो न |चुप क्यों हो गई ?

"माला की शादी हो चुकी है" ,भाभी ने धीरे से कहा |

अपनी भाभी जी के शब्द सुनकर गुलाब पर जैसे एकदम पहाड़ सा टूट पड़ा | उसने बिना कुछ बोले अपना बैग उठाया तथा अपने कमरे की और बढ गया | उसे अपने कमरे की और जाता देख उसकी माँ ने कहा, "अरे बेटा नाशता तो कर ले |

गुलाब ने चलते चलते ही माँ को जवाब दिया कि वह अभी बहुत थका हुआ है | थोड़ी  देर सोने के बाद उठकर तथा नहाने-धोने के बाद ही वह कुछ खाएगा |

गुलाब की भूख, प्यास, चैन तथा नीदं उड़ चुकी थी | उसने कमरे में आकर अपना बैग खोला | बैग के कोने में हाथ ड़ालकर सुन्दर से दो कंगन निकाले तथा उन्हें बहुत देर तक निहारता रहा | वह दिल में बडे अरमान लिये आया था कि उन कंगनों को अपनी भाभी जी के हाथों माला के लिये भिजवाएगा | परंतु उसकी सोच के महल तो धराशाही हो चुके थे | खंडरों का आभास करते करते उसकी आंखों से दो मोती टपक गए | एक बार गुलाब के मन में आया कि वह उन कंगनों को खिड्की से बाहर फैंक दे परंतु न जाने क्या सोचकर उसने ऐसा नहीं किया तथा उन कंगनों को अपनी छाती पर रखकर बिस्तर पर लेट गया | विचारों के ताने बाने बुनते बुनते न जाने उसे कब नीदं आ गई तथा वह माला के सपनों में खो गया |           

IX

गुलाब कमरे में प्रवेश करते हुए अपनी भाभी जी (शालू) को एक अटैची में कपडे लगाते हुए देखकर, "भाभी जी कहाँ की तैयारी हो रही हैं ?

“कहीं की भी नहीं |

“मुझे तो लगता है पीहर जाने का विचार बन रहा है |

“आपने कैसे जाना ?

“आपके चेहरे की आभा देखकर |

“अगर मैं कहूँ कि नहीं तो ?

“तो कुछ नहीं |

गुलाब अपनी भाभी जी की ना सुनकर थोड़ा उदास सा हो जाता है | भाभी उसकी मनोदशा समझकर एकदम से दूसरा प्रश्न कर देती है, "लाला जी अगर मैं कहूँ कि हाँ तो?”  

भाभी के मुख से हाँ सुनकर गुलाब का चेहरा खिल उठा | फिर भी उसने अपनी खुशी छिपाते हुए इस बार भी यही कहा, “कुछ नहीं |

ऐसे भी कुछ नहीं वैसे भी कुछ नहीं तो फिर पूछ क्यों रहे हो ? भाभी ने जानना चाहा |

गुलाब को आखिर अपने मन का राज खोलना ही पड़ा | असल में बात यह है कि मैं देवलाली से सभी घर वालों  के लिये कुछ न कुछ लाया था | (कुछ झिझकते हुए) “मा...ला...के लिये भी यह...|

भाभी ने चुटकी ली, “माला कब से इस घर की सदस्य हो गई ?

गुलाब ने बगलें झांकते हुए तथा कुछ सकुचाते हुए केवल इतना ही कहा, “भाभी जी ऐसी कोई बात नहीं है मैं तो बस यूँ ही ले आया था |

“अच्छा ठीक है, दिखाओ क्या लाए हो ?

गुलाब एक छोटा सा बन्द पैकेट अपनी भाभी जी के हाथ में थमा देता है | शालू पहले तो उसे उलट पलट कर देखती है फिर खोलने की कोशिश करती है | इस पर गुलाब उसे ऐसा करने से मना करता है तथा मिन्नत करने के लहजे के तौर से हिदायत देता है कि केवल माला ही उसे खोले |

भाभी ने भी अपने देवर को झकाने के लिये मजाक के तौर पर कह दिया, "ना जी ना यह काम हमसे नहीं होगा |”                           

“मेरी अच्छी भाभी जी मैं आपके पैर.......” ,गुलाब अपनी भाभी जी की तरफ अपने कदम बढाता है |

भाभी अपने देवर से दूर होते हुए, "लाला जी यह क्या कर रहे हो ? अच्छा देखो हम आपका यह काम तो कर नहीं सकते अलबत्ता अगर आप चाहो तो आपको अपने साथ डिबाई अवशय ले जा सकते हैं |

अपनी भाभी जी की बात सुनकर गुलाब की बाछें खिल उठी मन में सोचा नेकी और पूछ - पूछ | उसने, आव देखा न ताव, आगे बढ कर अपनी भाभी जी को दोनों बाहों में उठा कर आत्म विभोर हो नाचने लगा

अचानक उसके कमरे के दरवाजे पर होने वाली दस्तक ने गुलाब की तंद्रा तोड़ी  | उसने देखा कि वह अपनी बाहों में एक मुसन्द को जोर से जकडे हुए था | अपनी हालत देखकर, दिल में पीड़ा का एहसास होते हुए भी, वह मुस्कराए बिना न रह सका |

दोबारा दरवाजे के उपर दस्तक को सुनकर उसने पूछा, "कौन है ?

“मैं हू आपकी भाभी | क्या अब सोते ही रहोगे ? नाशता तो किया नहीं, अब दोपहर का खाना भी नहीं खाना क्या ?

गुलाब ने दरवाजा खोलकर जब बाहर देखा तो अचरज से बोला अरे दोपहर हो गई दिखती है | सामने खड़ी अपनी भाभी जी के चेहरे पर मन मोहक मुस्कान को देखकर उसके मन में इसके राज को जानने की इच्छा प्रबल हुई तो उसने पूछ ही लिया, "भाभी जी क्या बात है, मन्द मन्द मुस्करा रही हो ?

“बात ही कुछ ऐसी है |

“कैसी बात है या फिर मेरा दिल बहलाने को कर रही हो ?

“मै आपको अपनी बहन तो न दिलवा सकी परंतु अगर आप चाहो तो अपनी भतीजी.........|

गुलाब ने अपनी भाभी जी को बीच में ही टोककर तथा शिकायत भरे लहजे में कहा, "भाभी जी माला की शादी भी हो गई और आपने मुझे कोई खबर पहुँचाना भी मुनासिब नहीं समझा | आप तो सब कुछ जानती थी फिर भी आपने यह सब होने दिया | कम से कम एक बार मुझ से या माला से हमारे मन की बात तो पूछ लेती |

“लाला जी पूछना क्या था | मैं तो आप दोनों के मन की दशा अच्छी तरह जानती थी परंतु हालातों के सामने मैं मजबूर थी |

“कैसी मजबूरी ?

“लाला जी मैनें यहाँ आपके लिए माला की बात चलाई थी | मुझे पता चला कि इस घर के मर्द लोगों का एक ही मत था कि एक घर से दो बहुओं का होना अच्छा नहीं रहेगा | दूसरे आप युद्ध में व्यस्त थे | आपका न तो निश्चित पता था जिससे मैं आपको कुछ खबर करती | न यह पता था कि आप घर कब आ सकोगे | इधर माला के लिये उनको दूसरा लडका भी ठीक ठाक मिल गया अतः उसकी शादी कर दी | खैर अब जो हुआ सो हुआ, चलो बाकी बातें बाद में होंगी पहले खाना खा लो ठंड़ा हो रहा है |

“भाभी जी बहुत सुस्ती चढ रही है पहले नहाकर तरोताजा होना चाहता हूँ फिर खाना खाऊँगा कहता हुआ गुलाब अंगड़ाई लेता हुआ घुसलखाने में घुस गया |