Friday, May 13, 2011

स्वर्ग


                                          स्वर्ग
अजी, सुनते हो |”
कहाँ चले गए ?”
जी इइइइइइइ जी |”
सामने वाली खिड़की से ऐसे प्यार भरे एवं मधूर आवाज के स्वर सुनकर करण के कान खडे हो गए | करण के समझ से बाहर की बात थी यह | उसे यहाँ रहते वर्षों बीत गये थे उस खिड़की से जब भी कोई आवाज बाहर आती थी तो वह शोलों की तरह गरम, जली-कटी, या फिर कटाक्ष से भरी ही सुनाई पड़ती थी | परंतु आज तो इसके बिलकुल विपरीत ,नरम, मधुर तथा समर्पित आवाज आ रही थी |
करण ने अपने को आस्वश्त करने के लिये एक बार फिर अपना ध्यान उस खिड़की  की ओर केंद्रित किया |
जी, आप कहाँ चले गए ?”
बाहर वाले कमरे में ही हूँ |”
जरा यहाँ आना |”
क्यों क्या बात हो गई ?”
कुछ खास नहीं फिर भी आपको बता दूँ वरना भूल जाऊंगी कि वो जो हमने दरवाजे बनवाए थे न उसका कारीगर पैसों का तकाजा करके गया है |”
संतोष, करण की पत्नि उसके नजदीक आते हुए, आप यहाँ खडे क्या कर रहे हो ? आप को आज आफिस नहीं जाना क्या ? मैं तो नाश्ते के लिये आपका इंतजार कर रही थी परंतु आप हैं कि यहाँ खिड़की में खडे न जाने क्या कर रहे हैं ?”
ज्योंही संतोष जाने को होती है करण उसकी बाँह पकड़ कर, "अरे, अरे, जरा रूको तो सही | तुम तो आई, टेप की तरह बोली और चल दी | देखो तो जरा आज उल्टी गंगा बहने वाली है क्या ?”
क्या मतलब ?”
मतलब तुम खुद ही निकाल लोगी | जरा चुप होकर ध्यान से सुनो |”
सामने की खिड़की से आती आवाज को करण एवं संतोष एकाग्रचित होकर सुनने लगे |
राजेशवरी अपने पति से कह रही थी, देखो जी, आफिस में जाने से पहले आज आपको मेरे थोडे काम करने हैं |
कौन से काम ?”
राजेशवरी, धर्म प्रकाश की पत्नि थी | देखने में सुन्दर, मेहमान नवाजी में उत्तम, घर के रख रखाव में आला, घर की साज-सजावट के साथ साथ अपना श्रृंगार करने में भी वह माहीर थी | वह अपने नाम के अनुरूप ही एक राजेशवरी  की तरह ही जीना चाहती थी | अच्छा खाना,अच्छा पहनना, अच्छे बच्चे, अच्छा मकान, अच्छी संगत अर्थात वह सब कुछ अच्छा ही अच्छा चाहती थी | हालाँकि इन सभी अच्छाईयों को प्राप्त करने की उसने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी परंतु कहा जाता है कि मनुष्य को उसके भाग्य के अनुसार ही प्राप्त होता है | यही राजेशवरी के साथ हुआ | वह राजेशवरी की जगह केवल "राज" बनकर रह गई |
राजेशवरी बनने के लिये धन-दौलत एक अहम भूमिका निभाती है | और जिसके पास प्रचूर मात्रा में वैभव, धन दौलत, नौकर-चाकर इत्यादि न हो तो वह राजेशवरी की तरह कैसे रह सकती है |
यही राजेशवरी के साथ भी हुआ | पैसों के अभाव के कारण हमारी राजेशवरी को मजबुरन राज बनकर ही रहना पड़ रहा था | क्योंकि उसके खर्चे उसके आदमी की कमाई से कहीं अधिक थे | पैसे की कमी घर में कलह रहने का सबसे बड़ा कारण भी माना जाता है | इसीलिये उस घर में हमेशा लड़ाई झगडे ही रहा करते थे परंतु आज वहाँ से आती हुई नरम एवं प्यार भरी आवाजों से मालूम पड़ रहा था कि वातावरण कुछ बदला हुआ था |
जी, सामने वाली दूकान से मुझे थोडे-थोडे काजू, बादाम की गिरी, किशमिस, गोला, चिरौंजी तथा ताल मखाने ला दो |”
धर्म आशचर्य से, सारी मेवा, भला क्यों ?”
राजेशवरी धर्म की बात अनसुनी करते हुए, “और हाँ तीन किलो दूध भी ले आना, फुल क्रीम वाला |”
धर्म झुंझलाते हुए, "अरे भई आज तुम्हें सुबह-सुबह ये क्या हो गया है ? ये सब किस लिये मंगा रही हो ?”
राजेशवरी हुक्म सा देते हुए, “आप बस ये सब वस्तुऐं मुझे ला दो | शाम को जब आप आफिस से वापिस आओगे तो तुम्हें सब पता चल जाएगा |”
परंतु तुम तो सब जानती हो कि मेरे पास पैसे .....|”
राजेशवरी थोड़ा तुनक कर परंतु प्यार भरे लहजे में, देखो जी आज आप किसी प्रकार की आनाकानी मत करो | सब्जी तथा फलों का इंतजाम मेने खुद कर लिया है |”
राजेशवरी के प्यार भरे शब्दों ने धर्म का दिल बाग-बाग कर दिया | वह न चाहते हुए भी राजेशवरी को मना न कर सका | वह एकदम घर से बाहर निकल गया तथा जैसे तैसे करके सारा सामान, जो राजेशवरी ने कहा था, देकर आफिस चला गया |
दिन के 11 बजते-बजते राजेशवरी के घर बुजूर्ग एवं अधेड उम्र की औरतों का जमावड़ा होना शुरू हो गया |      
राजेशवरी के घर को इन औरतों ने सजाना तथा सवांरना शुरू कर दिया | कोई झाडू लगाने लगी तो कोई पोचा | एक ने सौफा वगैरह की सफाई का जिम्मा लिया तो दूसरी ने आसन बनाने का | कोई राजेशवरी के साथ रसोई में हाथ बटाने लगी तो कोई फूलों से आसन को सजाने लगी | रसोई में पकवान बनने शुरू होने के करण पूरे मोहल्ले में देशी घी की भिनी-भिनी सुगंध फैल गई | जो भी व्यक्ति उस घर के सामने से गुजरता, घर के अन्दर झाकने को मजबूर हो जाता क्योंकि देशी घी की सुगंध के साथ साथ अन्दर से आ रही फूलों की सुगंध, केवड़ा और इत्र की खुशबू पथिक का मन लुभा लेती थी | घर के अन्दर से, जमा हुई औरतों का, वार्तालाप कुछ इस प्रकार सुनाई पड़ रहा था |
राजेशवरी अपनी एक बुजूर्ग औरत को इज्जत देने के लहजे में कहती सुनाई पड़ी, “ताई सरस्वती जरा देखना ये काजू ठीक से भुन गए या नहीं ?”
क्या बात करती है राजेशवरी, तुझ जैसी जो हर काम में चतुर हो भला उसे मैं क्या सिखाऊगी |”
दूसरी तरफ से सुमन आवाज लगा रही थी, "ऐ अंगूरी जरा चादर तो पकड़ | इसे गुरू जी के आसन के सामने बिछवा दे |”
अरी तू तो बहुत जल्दी मचाती है, पहले अर्चना को पोछा तो ठीक से लगा लेने दे |”
इस बार दुर्गा की मधुर आवाज आई, "रजनी ओ रजनी, सुनती नहीं, बहरी हो गई क्या ?”
बहन, आई अभी आई |”
दुर्गा थोड़ा तैश दिखाते हुए, "आकर क्या सिर मारेगी | अरे कुर्सी लाकर यहाँ ऊपर तस्वीर पर यह माला लटका दे |”
इस तरह की बातों से पता चलता था कि राजेशवरी के घर में एक गुरू जी के स्वागत की तैयारियाँ हो रही थी तथा सभी एकजुट होकर प्रसन्नता से इस काम को पूरा करने में ,मन, क्रम, ध्यान लगाकर तल्लीन थी |
दोपहर का एक बजा होगा कि दूर से भगवा वस्त्र पहने कुछ व्यक्तियों का समूह आता दिखाई दिया | एक औरत जो राजेशवरी के घर के दरवाजे पर बैठी थी तथा इसी इंतजार में थी कि कब यह समूह दिखाई दे, अचानक हरकत में आई और शोर मचाती हुई अन्दर की तरफ भागते हुए चिल्लाई "गुरू जी आ गए ,गुरू जी आ गए" | अन्दर की सभी औरतें बाहर की तरफ दौड़ पड़ी तथा आकर दरवाजे पर जमघट लगा दिया | केवल राजेशवरी ही एकमात्र ऐसी थी जो मदमाती चाल से बाहर आ रही थी | उसके हाथ में सजा हुआ एक थाल था | थाल में एक ज्योत तथा एक धूप बत्ती जल रही थी | राजेशवरी  की सुन्दरता तो बस देखते ही बनती थी | उसके किये हुए श्रृंगार से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे आसमान से कोई अप्सरा उतर कर आई हो | उसका गोरा रंग, लाल-लाल होठ, बडी-बड़ी हिरणी जैसी आंखे, कजरारे नयना तथा चेहरे पर छाई मन्द-मन्द मुस्कान बरबस ही सबको उसकी और आकर्षित कर रही थी | जैसे ही राजेशवरी दरवाजे पर पहूँची उसी समय साधूओं की टोली भी राजेशवरी के दरवाजे पर पहुँच गई | राजेशवरी ने विधिवत अपने गुरु की आरती उतारी फिर उनके चरण धोकर चर्णामृत का पान किया | वह परांत जिसमें गुरु जी के चरण धोए गये थे एक बुजूर्ग औरत ने उठा ली तथा अन्य सभी औरतों को चर्णामृत देती हुई अन्दर चली गई | साधूओं की टोली भी अन्दर चली गई | अन्दर जाकर गुरु जी अपने आसन पर विराजमान हो गये | गुरू जी के शिष्य अपने गुरू जी की थकावट मिटाने के लिये उनके हाथ-पैर तथा शरीर धीरे-धीरे दबाने लगे |    
राजेशवरी के घर आई सभी औरतों का कुछ न कुछ अपना मकसद था | अतः वे एक एक करके अपने घर जाती और अपने साथ अपनी जवान पुत्र वधू, बहन, बेटी या पडौसन अर्थात जिसको भी उन्हें गुरू जी के दर्शन कराने थे, ले आई | उनके आने से गुरू जी के शिष्यों का काम समाप्त हो गया क्योंकि अब उनका कार्यभार आने वाली नई जनता ने बखूबी सम्भाल लिया था | अब तो शिष्य एक तरफ बैठकर अपनी चिलम का आन्नद लेने लगे थे तथा साथ साथ चोरी-चोरी नई-नई जवानियों का आखों ही आखों में रसपान करने लगे थे |
नव आगंतुकों की सेवाओं को देखकर गुरू जी ने भी अपना शरीर ढीला छोड़ दिया | सखियों में से एक ने गुरू जी का एक पैर सम्भाला तो दूसरी ने दूसरा पैर दबाना शुरू कर दिया | तीसरी एक हाथ पर लगी थी तो चौथी दूसरे हाथ पर | पाँचवी ने गुरू जी के सिर की मालिश शुरू कर दी तो छठी ने उनके स्नान आदि के प्रबंध का जिम्मा ले लिया | थोड़ी देर बाद गुरू जी को गुलाब जल के पानी से मसल-मसल कर नहलाया गया तथा फिर इत्र छिड़क कर, चन्दन का टीका लगाकर एवं गुलाब की माला पहनाकर उन्हें आसन पर विराजमान कर दिया गया |
अब बारी थी गुरु जी के भोग की | गुरु जी के भोग में 56 भोग शामिल थे | हर औरत यह चाहती थी कि गुरु जी की थाली में कम से कम एक वस्तु तो उसके हाथ से परोसी जानी ही चाहिये | गुरु जी के न न कहने की किसी को परवाह न थी | बस उनका एक ही मकसद था परोसना | आखिर गुरु जी कितना खाते और कब तक खाते |  उन्हें थाली अपने सामने से हटानी ही पड़ी और जब उन्होने थाली सरकाई तो वह खाने से भरी हुई थी | गुरु जी के थाली सरकाते ही सभी औरतें उसे उठाने के लिये ऐसे झपटी जैसे किसी मरे हुए जानवर पर गिद्ध झपटते हैं | जैसे सभी अपना सौभाग्य समझती थी कि गुरु जी के छोडे हुए झूठे भोजन में से उसे प्रसाद के रूप में कुछ न कुछ अवश्य मिल जाए |
राजेशवरी औरतों के बीच इस प्रकार की छिना झपटी को देखते हुए, अरे आप सब ऐसा क्यों कर रही हो ?” फिर थाली खुद लेकर ताई सरस्वती को देते हुए, ”लो ताई इसे सभी औरतों में बाँट दो, कोई रह न जाए |”
ठीक है कहते हुए ताई सरस्वती ने राजेशवरी के हाथ से गुरु जी की झूठन से भरी थाली ली और वह झूठन प्रसाद के रूप में सभी औरतों में बाँट दी | सभी यह प्रसाद पाकर अपने को धन्य समझने लगी | जलपान करके गुरु जी फूलों से सजाई गई शैय्या पर लेट गये तथा विचार मग्न हो गए | शायद वे सोचने लगे थे कि आगे का प्रोग्राम कैसे तथा क्या बनाया जाए | गुरु जी की इस तंद्रा को एक बहुत ही मिठास भरी सुरीली आवाज ने तोड़ा, “गुरु जी सो गये क्या ?”
गुरु जी अपने विचारों से बाहर आते हुए, ”ऐं, नहीं तो | कहो क्या बात है ?”  
राजेशवरी हाथ जोड़कर, गुरु जी, आपसे ये औरतें कुछ विनती करना चाहती हैं |”
गुरु जी बाहर की और झांककर, अच्छा, इनको एक एक करके अन्दर भेजती रहो |”
राजेशवरी बाहर आते हुए, जो आज्ञा गुरु जी |”
बाहर आकर राजेशवरी ने सभी को हिदायत दी कि अन्दर गुरु जी से सलाह लेने के लिये बारी बारी से जाएँ तथा किसी प्रकार की कोई जल्दी बाजी न करे | गुरु जी सभी की समस्याओं को सुनेगें तथा उसका निदान भी करने का पूरा प्रयत्न करेंगे | वे यहाँ तीन चार दिन रूकेंगे अतः किसी को किसी प्रकार की कोई चिंता करने की आवशयक्ता नहीं है | अच्छा ताई पहले आप से ही शुरू करते हैं |
सरस्वती अन्दर आकर तथा गुरू जी के पैर छूकर, ”गुरु जी मेरे बेटे की शादी हुए 6 वर्ष बीत गये हैं परंतु अभी तक अपने पोते-पोती का मुँह दखने को तरस रही हूँ |”
कितनी उम्र है आपके बेटे की और बहू की ?”
 गुरु जी, लड़का 28 साल का है तथा बहू 24 साल की है |”
पहले भी कहीं दिखाया था ?”
हाँ डाक्टरों को दिखाया था, बोले सब ठीक है | पता नहीं फिर भी क्या रूकावट है |”
आप चिंता छोडिये | क्या बहू यहीं है ?
गुरु जी, अभी तो नहीं है | आप की आज्ञा हो तो बुला लाती हूँ |”, उठने का उपक्रम करती है |
नहीं नहीं अभी रहने दो | आप बहू को हमारे कल रात के भोजन के बाद ले आना | अब बाहर जाकर दूसरे फरयादी को भेज दो |”
सरस्वती, गुरु जी की बहू से मिलने की अनुमति सुनकर जैसे भाव विभोर हो गई हो | उसके बूढे चेहरे पर लालिमा के साथ साथ उसके अरमानों को पूरा होने की खुशी का एहसास भी साफ झलकने लगा था | गुरु जी के चरण छूकर सरस्वती तीर की तरह बाहर आई तथा कुलवंती को अन्दर भेज दिया |
कुलवंती ने अन्दर आते हुए अपनी दास्तान शुरू कर दी, "गुरु जी, मेरी बहू ने मेरे लड़के को पूरी तरह अपने बस में कर रक्खा है | मेरा आदमी तो गुजर चुका है तथा जो उसके पास था वह सब लड़के के नाम कर गया है यह सोचकर कि पीछे से वही मेरी देखभाल करेगा परंतु अब मैं भरपेट खाने को भी तरस गई हूँ | गुरु जी कुछ ऐसा करो कि मेरी जिन्दगी सुधर जाए |”
आप हमारा, अपनी बहू के साथ, सत्संग तीन दिनों तक जरूर सुनना | उसके बाद आहिस्ता-आहिस्ता सब ठीक हो जाएगा |”
कुलवंती हाथ जोड़कर तथा बाहर जाते हुए, “मैं आपकी कही बातों का पूरा ध्यान रखूंगी |  अच्छा गुरु जी |”
कुलवंती को बाहर आता देख, दुर्गा जो बेसब्री से दरवाजे के बाहर इंतजार कर रही थी, एकदम अन्दर घुस गई और हाथ जोड़कर बोली, "मेरे लड़के के पास दो लड़कियाँ हैं | भगवान का दिया उसके पास सब कुछ है, कमी है तो केवल एक लड़के की |”
गुरु जी कुछ गम्भीर होते हुए, हूँ | क्या आपकी बहू एक और बच्चे के लिये राजी है ?”
गुरु जी वैसे तो वह आनाकानी करेगी क्योंकि मेरा लड़का भी तीसरा बच्चा करने के हक में नहीं है फिर भी अगर आपकी कृपा रहेगी तो मैं उन्हें इसके लिये किसी न किसी तरह राजी कर लूंगी |”
तो ठीक है, आप अपनी बहू को दूसरे दिन रात के खाने के बाद हमारे पास ले आना |”
इसी तरह बहुत सी औरतों ने अपनी अपनी समस्या जैसे लड़के की शादी न होना, लड़की की शादी के झंझट, बच्चे को उपरी हवा लगना इत्यादि बहुत सी बातें गुरु जी से समाधान कराने हेतू पूछी | गुरु जी ने भी  कुछ न कुछ हल बता कर सभी को संतुष्ट कर दिया |
शाम को सत्संग का प्रोग्राम चला | मोहल्ले में राम धुन, शयाम धुन, बमबम भोले, जय बजरंग बली तथा जय माता की इत्यादि का उच्चारण गूंजता रहा और वातावरण हवन की सामग्री की सुगंध एवं आहूतियों के कारण शुद्ध हो गया | गुरु जी का पहला दिन  राजेशवरी के यहाँ बीता | इसके बाद जिन-जिन औरतों ने अपनी समस्याएँ गुरु जी के सामने रखी थी एक एक रात गुरु जी ने उनके यहाँ बिताई |
हालाँकि संतोष का गुरु जी बनाने में कोई विशवास नहीं था परंतु मोहल्ले में हो रहे सत्संग में हिस्सा लेने में कोई बुराई नजर नहीं आई | जब मोहल्ले की औरतों ने उस पर अधिक दबाव डाला तथा उसके पति ने भी कह दिया कि उसके सत्संग सुनने में उसे कोई आपत्ति नहीं है तो वह भी सत्संग में जाने लगी | संतोष ने पाया कि गुरु जी के प्रवचन के दौरान अधिकतर औरतें भगवान की बातों को न के बराबर ध्यान से सुनती थी अपितू वे अपनी ही खिचड़ी पकाती रहती थी | जैसे :
अर्चना को कहते सुना गया, "अरी मधु पता है कल ताई सरस्वती ने अपनी बहू को रात को चुपके से गुरु जी के कमरे में भेज दिया था |”            
हाय! अच्छा ! बुढिया मरी जावे है पोते का मुँह देखने को |”
अर्चना ने सरस्वती की बहू को दोष देते हुए कहा, "अरी बुढिया तो बुढिया जवान बहू को भी डर या शर्म नहीं आई रात के समय अकेले गुरु जी के कमरे में अन्दर जाते |”
कल्याणी ने नमक छिड़क कर कहा, "अरी और सुन | सरस्वती तो सरस्वती दुर्गा तथा उसकी बहू क्या कम हैं |”
क्यों क्या हुआ ?”
तुझे नहीं पता कि कल रात को गुरु जी उनके यहाँ ही ठहरे थे |”
विज्या, तो इससे क्या ?
तू बड़ी भोली है तभी तो पूछ रही है",तो इससे क्या | अरी तू नहीं जानती कि रात को वहाँ क्या-क्या गुल खिले थे |”
तुझे कैसे पता कि वहाँ क्या-क्या हुआ |”
अरे घर का भेदी लंका ढाए यह तो तू सुन चुकी है न | उस घर की छोटी बहू को बात पची नहीं और उजागर कर दी |”
परंतु उसके पास तो पहले से ही दो लड़कियाँ हैं |”
लड़कियाँ ही तो हैं, लड़का तो कोई नहीं |”
हाय राम कैसी निर्लज है |”
इन्दू जो अभी तक बोलने का मौका न पा सकी थी अपने मन की भड़ांस निकालते हुए मंजू से बोली, “एक बात मुझे भी पता चली है कि कल उषा की लड़की, हंसा रात को बारह बजे घर आई थी |”
क्यों क्या बात हो गई थी ?”
शायद तू जानती नहीं कि उसका तो रोज का किस्सा बन गया है | सुना है किसी होटल में डांसर का काम करती है |”
क्या जमाना आ गया है | माँ बाप अपनी आंखो पर पट्टी बांध कर बच्चों से सब काम कराने लगे हैं | छीः छीः |”
लिहाजा, गुरू जी सात दिनों तक अपना सत्संग चलाते रहे | हर घर में उनकी खूब आवभगत होती रही | गुरू जी के साथ-साथ उसके शिष्यों ने भी जीवन का भरपूर सुख एवं आनन्द लूटा | औरतों ने एक दूसरे पर किचड़ उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी | सभी औरतों को अपना दामन ही पाक नजर आया दिखता था तथा दूसरी का दामन कलंक से सराबोर दिखाई दिया
आज सत्संग का आखिरी दिन था | इसलिये भीड़ भी बहुत थी |  संतोष ने इन सात दिनों के सत्संग में भृष्टाचार, व्याभिचार, चुगलखोरी, दोषारोपण, दूराचार, चरित्र हरण एवं लालच इत्यादि के अलावा कुछ नहीं देखा, कुछ नहीं पाया | उसका मन बहुत कुंठित हो रहा था कि सत्संग के नाम पर ये गुरु कितना शोषण कर रहे हैं | तथा ये अनपढ औरतें अंधविशवास में फंसकर गुरूओं की इन सब बातों का शिकार बन रही हैं |    
इतने में गुरु जी ने कहा कि देखो आज मैं अपने सत्संग का समापन कर रहा हूँ | मुझे आशा क्या पूर्ण विशवास है कि आप सभी ने इन सात दिनों में मेरे सत्संग के माध्यम से अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिय होगा | आप की आत्मा अब शुद्ध हो गई होगी | जहाँ तक कोशिश हुई हमने आपकी सभी समस्याओं का समाधान भी किया है | अब जाते जाते मैं आपसे एक प्रशन करना चाहूँगा तथा आप सभी इस प्रशन का उत्तर "हाँ" में अपने दोनों हाथ उपर उठाकर देंगे | सत्संग में चारों ओर सन्नाटा छा गया | सभी के कान गुरू जी के उस प्रशन पर केंद्रित हो गये जिसे गुरु जी पूछने जा रहे थे |
गुरु जी ने अपना गला साफ करते हुए कहना शुरू किया, "हाँ ! तो मेरा प्रशन यह है कि आप में से कौन कौन हैं जो मेरे साथ स्वर्ग की यात्रा करना चाहता है ?”
देखते ही देखते सभी उपस्थित जनता के दोनों हाथ गुरु जी के हाथों के साथ हवा में उपर उठ गए | परंतु उस सभा में एक ऐसा भी व्यक्ति था जिसने अपने हाथ उपर उठाने की कोई प्रतिक्रिया नहीं की | वह निशचल सभी को उनके हाथ उपर उठाते देखती रही | वह थी संतोष |
सभी संतोष की तरफ आश्चर्य भरी निगाहों से देख रहे थे | बहुतसों ने तो उसे इशारा भी किया कि वह अपने हाथ उपर उठा ले परंतु संतोष पर उनके इशारों का कोई असर नहीं हुआ ओर वह ज्यों की त्यों शांत स्वभाव आराम से बैठी रही | आखिर गुरु जी से न रहा गया | उन्होने अपने साथ सभी को उनके हाथ नीचे करने को कहा तथा संतोष की ओर मुखातिब होकर बोले, "क्यों क्या आप स्वर्ग जाना नहीं चाहती?” 
संतोष धैर्य तथा संयम से, कौन नहीं चाहेगा कि वह स्वर्ग में रहे | गुरु जी मैं भी स्वर्ग में रहना चाहती हूँ |” 
फिर आपने अपने हाथ उपर क्यों नहीं उठाए ?”
संतोष ने बड़े आत्म विशवास तथा बिना किसी झिझक के गुरू जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा, "गुरु जी, माफ करना, मैनें आपके सत्संग के दौरान भृष्टाचार, व्याभिचार, चुगलखोरी, एक दूसरे पर दोषारोपण, दुराचार, चरित्र हनन एवं स्वार्थ सिद्धि के अलावा कुछ नहीं पाया | अतः अगर आप इन सभी अपने अनुयायियों के साथ स्वर्ग चले गये तो यहाँ खुद ही स्वर्ग बन जाएगा | यही सोचकर मैनें अपने हाथ उपर नहीं उठाए |”
संतोष का सटीक उत्तर सुनकर गुरु जी के साथ साथ सभी उपस्थितगण भी काठ की मूर्ति की तरह स्थिर हो गये | किसी में भी बोलने की जैसे शक्ति ही न रही हो | शायद उनकी समझ में आ गया था कि "स्वर्ग" क्या होता है |  






Tuesday, May 3, 2011

करे कोई भरे कोई


करे कोई भरे कोई
"दिव्या" नाम था उसका |
अर्थात दीपक के समरूप |
वास्तव में भी उसके शरीर की बनावट, उसका व्यवहार, एवं उसके सारे दिन की दिनचर्या एक दीपक से मिलती जुलती थी | अतः वह पूर्ण रूप से अपने नाम को सार्थक बना रही थी | कहने का तात्पर्य यह कि जैसा उसका नाम था उसके अनुरूप ही उसके काम थे |  
दिव्या का चेहरा एक दिये की तरह गोल था | वह एक दिये की तरह ही चेतना, रौशनी, तेज एवं लालिमा लिये था |
दिव्या की आँखें दिये से बनने वाली काजल की तरह कजरारी थी | उसका बदन भी सुनहरी पीली मिट्टी से बने दिये के समान पिला-सुनहरा सा जान पड़ता था |
जैसे दिया लगातार जलता रहता है और अपना सब कुछ न्यौछावर करके सभी को रौशनी प्रदान करता है परंतु अपने लिये कुछ नहीं माँगता | उसी प्रकार दिव्या भी अपनी पूरी शक्ति एवं शालिनता से सारा दिन अपने घर वालों के लिये काम करती रहती थी | वह शाम होते होते थककर चूर हो जाती परंतु उसके चहरे पर शिकन तक न आती | अपने लिए वह किसी से कोई काम की न कहती थी | न जाने वह किस मिट्टी की बनी थी कि सारे दिन में एक बार भी अपनी कमर सीधी करने का नाम भी न लेती थी |
उसके विपरीत दिव्या की सास एवं नन्द को अगर कभी थोड़ा सा भी काम करना पड़ जाता था तो वे आसमान सिर पर उठा लेती थी | उस दिन सारे मौहल्ले को पता चल जाता कि फ्लाँ लड़की या उनकी मम्मी ने फलाँ काम किया था | दिव्या की सास थी कि सुबह होते ही अपने घर के दरवाजे पर चौकड़ी लगा कर बैठ जाती | स्कूल जाते छोटे-छोटे बच्चे उसे एक आँख न भाते थे तभी तो उन्हें रहटल, गंधिला, सड़ा सा इत्यादि कहते हुए दूर से जाने की हिदायतें देती रहती थी |
अपना-अपना घर का काम निपटा कर मौहल्ले पडौस की दो चार औरतें भी आकर दिव्या की सास के पास बैठ जाती थी | पडौस की औरतों का उठना-बैठना तथा आना जाना तो लगा रहता था परंतु दिव्या की सास महादेव की चिपक की तरह सुबह से शाम तक वहीं बैठी रहती थी | उपर से यह कि हर पाँच सात मिन्ट के बाद उसकी कर्कश आवाज गूँजती,
दिव्या मसाले देजा, ला कूट दूँ |”
दिव्या जरा ऊन सलाई दे दे, ला स्वेटर का गला बुन दूँ |”
दिव्या प्यास लगी है, जरा एक गिलास पानी दे जा |”
दिव्या जल्दी कपड़े धो ले वरना पानी चला जाएगा |”
दिव्या ला दाल चावल दे जा अब चुग दूँ वरना फिर अंधेरे में मुझे दिखाई नहीं देगा |”   
इत्यादि |
वैसे इन सब कामों में से दिव्या की सास ने मुश्किल से ही कोई काम अपने आप खुद किया होगा | अन्यथा वह मौहल्ले पडौस की औरतें जो आकर उसके पास बैठती थी उनके काम करने की क्षमता के अनुसार उनमें बाँट देती थी तथा अपने आप गुटर-गूँ, गुटर-गूँ के अन्दाज में इधर उधर की बातें बनाती रहती थी |
इसी तरह दिव्या की ननद भी दिखावे में माहिर थी | उसके एक हाथ में हमेशा झाडू रहती थी जो केवल घर के बाहर की सफाई करने के काम आती थी | शायद ही कभी ऐसा दिन आया होगा जब उसने अपने घर के अन्दर झाडू लगाई होगी | वह अपने घर के बाहर जितनी सफाई करती थी, पडौस वालों के घर के सामने उतना ही गन्दा कर देती थी | घर में अगर एक गिलास पानी पकड़ाने की कभी जरूरत आ जाती तो लड़ मरने की नौबत बन जाती थी |
दिव्या का ससुर भी माशा अल्लाह अपने में एक था | सामाजिक जिवन की ऐसी कोई भी बुराई मुसकिल से बची होगी जो उसमें नहीं थी | हालाँकि वह उम्र पर आने के कारण अब बिमार से रहने लगे थे परंतु अभी भी उनकी वैसी ही आदतें थी | मसलन शराब पीना, दूसरों के साथ तनाव पूर्ण वातावरण बनाए रखना, हमेशा इस फिराक में रहना कि कैसे माहौल बनाया जाए जो दो सगे सम्बंधी आपस में भिड़े रहें तथा बीच बचाव करने पर उन्हें कुछ लाभ मिल सके | परंतु अब अधिकतर लोग उनकी यह आदत जान चुके थे अतः उनकी सलाह पूरी सोच समझ कर ही अमल में लाते थे |
दिव्या का पति ऐसा काम करता था कि सुबह अंधेरे घर से निकलता था तथा रात दिये जले ही घर में घुसने की फुर्सत मिलती थी | माना कि वह अपनी पत्नि को बहुत चाहता था तथा उसके दुखः सुख को देखने की पूरी कोशिश करता था परंतु अपने काम की वजह से वह उतना समय दिव्या को नहीं दे पाता था जो उसे देना चाहिये था | इसका सबसे बड़ा कारण उसके लिये कोई भी साप्तहिक अवकाश का न होना था |
ऐसे वातावरण में दिव्या केवल घर की चार दिवारी के अन्दर तक ही सीमित होकर रह जाती | कभी कभी तो वह लम्बे समय तक बाहर का सूरज देखने को तरस जाती | अगर उसे धूप का आनन्द लेना होता तो उसे अपने मकान की चौथी मंजिल पर चढना पड़ता  था जो वह बहुत कम ही करती थी | इसका कारण, एक तो वहाँ अकेले में बैठकर वह ओर भी ज्यादा उदास हो जाती, क्योंकि अकेलापन उसे काटने को दौड़ता तथा नौबत यहाँ तक आ जाती कि विचारों में बहकर उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकलती | ऐसा होने का एक विशेष कारण था कि वह शादी के छः साल बाद भी अभी तक माँ नहीं बन पाई थी | दूसरे, मकान की चौथी मंजिल पर बैठकर वह अपनी सास की बार बार की फरमाईशों को पूरा करने में अपने को असमर्थ पाती थी | तीसरे घर का सारा कामकाज उसे अकेले ही करना पड़ता था जिससे ठाली समय बहुत कम ही मिल पाता था |  अतः उसका अधिकतर समय अपने घर के कामकाज करने में ही बीत जाता था |
घर का काम निबटाकर, अगर समय मिलता था तो, वह पहली मंजिल पर बाल्कनी में आकर खड़ी हो जाती थी | अक्सर यह समय वह होता था जब छोटे बच्चे स्कूल से लौट रहे होते थे | बच्चों को देखकर उसका दिल उसके शरीर से बाहर आने को हो जाता | वह सोचने लगती कि अगर उसके दो गर्भपात न होते तो उसके अपने बच्चे भी आज स्कूल से इसी तरह आते | वह नीचे झाँक कर देखती | बच्चों की रंग-बिरंगी वर्दी, जूते, बस्ते, पानी की बोतले, उनके बिखरे बाल, थके थके से परंतु उछलते कूदते उनका अपने घरों की और बढना इत्यादि | कभी-कभी वह आने वाले बच्चों को गिनने लगती | उनकी दशा जाँचती तथा सोचती कि अब घर में उनकी माताएँ बाहॆं फैलाकर उनको अपने सीने से लगा लेंगी | उन्हें कितना शकून मिलता होगा | अपने बच्चों के मुख से, तोतली भाषा में, स्कूल की चर्चा सुनकर उनका दिल बाग-बाग हो जाता होगा | परंतु देखते ही देखते गली सूनी हो जाती और साथ साथ छोड़ जाती दिव्या के मन में एक सूनापन | उसकी पकड़ बाल्कनी की रेलिंग पर मजबूत हो जाती परंतु ज्यों ज्यों उसके आँसू सूखते रहते त्यों त्यों उसकी बाल्कनी की रेलिंग पर से पकड़ ढीली पड़ती जाती | और फिर वह दौड़कर अपने कमरे में जाकर निढाल हो अपने बिस्तर पर गिरकर सुबक-सुबक कर रोने लगती |    
एक बार दिव्या किसी के यहाँ कुआँ पूजन के समारोह में सम्मिलित होने गई | उस घर में एक छोटे से कमरे को बहुत सुन्दर ढंग से सजाया गया था | नवजात शिशु भी अन्दर कमरे में ही था | दिव्या ने अपने पग अन्दर कमरे में जाने को बढाए ही थे कि दरवाजे पर एक बोर्ड पट्टी पर कुछ लिखा देखकर वह ठिठक गई | उसे पढकर उसके दिल पर बहुत भारी आघात लगा | घर से आते समय वह बहुत खुश थी तथा नवजात शिशु के लिये ढेर सारे खिलौने खरीद कर लाई थी | उसके द्वारा लाए सामान से उसका अमीरीपन तथा उसके मुखमंडल की आभा से उसकी खुशी साफ झलक रही थी | परंतु उस बोर्ड की लिखाई ने उसकी सारी खुशियाँ तथा उसकी सारी अमीरी का महल एक झटके में ही खंडहर कर दिया | अभी तक वह अपने आप को हर प्रकार से सम्पन्न समझती थी, क्योंकि उसके पास कोमलता थी, सुन्दरता थी, जिने का हर सुख साधन था | परंतु आज उसे मालूम हुआ कि हालाँकि अधिकतर औरतों के पास  हर वस्तु का अभाव है, वे दो वक्त की रोटी जुटाने में हर समय  संघर्ष रत रहती हैं, सुन्दर भी नहीं हैं, फिर भी वे प्रसन्न हैं क्योंकि वे माँ हैं | उसकी समझ में आ गया था कि माँ बने बिना एक औरत अधूरी ही रहती है | और वह अधूरी है तभी तो आज वह एक नवजात शिशु को देखने लायक भी नहीं समझी गई | बोर्ड पर उसने फिर एक गहरी नजर डाली और पढा "बिना बच्चों की औरतें कृप्या अन्दर न जाएँ" |  इसके बाद वह झट से वापिस पल्टी और भारी कदमों से सभी सामान समेत अपनी कार में आ बैठी | ड्राईवर भौचक्का सा अभी कुछ समझ भी न पाया था कि उसके कान में एक बुझी-बुझी सी आवाज आई"वापिस चलो |"
घर पहुँच कर दिव्या के मन का बाँध, जो अभी तक किसी तरह ठहरा हुआ था, टूट गया | उसने भगवान की मूर्ति के सामने बैठ कर अपने मन का लावा उगल दिया | वह रोते रोते भगवान से अपने माँ न बन पाने का कारण पूछती रही | वह जानना चाहती थी कि सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी वह माँ क्यों नहीं बन पाती |
कहते हैं कि उस परम परमात्मा की करनी का रहस्य कोई नहीं जान सकता अतः दिव्या कैसे जान पाती | रोते रोते जब दिव्या का मन कुछ हल्का हो गया तो वह उठी | सारा सामान जो वह नवजात शिशु के लिये खरीद कर लाई थी इकट्ठा किया और उसकी होली जलाने लगी | उसके पति ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की कि सामान को जलाने से अच्छा तो उन्हें गरीब बच्चों में बाँटना रहेगा परंतु दिव्या ने एक न सुनी तथा आग लगाकर तब तक टुकुर-टुकुर देखती रही जब तक सब जलकर राख नहीं हो गया |
आहिस्ता-आहिस्ता ज्यों-ज्यों समय बितता गया तथा इस प्रकार के और कई वाक्या दिव्या के साथ घट चुके तो उसने घर से बाहर जाना भी बहुत कम कर दिया | मौहल्ले की औरतों के साथ साथ वहाँ के सभी वाशिन्दों की सहानुभूति दिव्या के साथ थी | सहानुभूति में जिसने जो रास्ता सुझाया दिव्या ने वही अमल में लाकर देखा मसलन उसने डाक्टरी इलाज कराया, फकीरों का जादू टोना आजमाया, मौलवी की जड़ी बूटियाँ खाई, पीर बाबा की मन्नतें माँगी, मनसा देवी की गांठ लगाई, व्रत रखे, पूजा पाठ कराए परंतु सब व्यर्थ | उसकी गोद सूनी की सूनी ही रही | वह माँ न बन सकी |  
एक बार रक्षा बंधन का पर्व था | दिव्या की बड़ी नन्द सुधा आई थी | उसके पैर भारी थे | वह पहले से ही दो बच्चों, एक लड़का तथा एक लड़की, की माँ बन चुकी थी | एक दिन दिव्या को उदास देखकर सुधा ने अपनी सहानुभूति जताते हुए अपनी भाभी से पूछा, "क्या बात है बहुत उदास लग रही हो भाभी जी ?”
कुछ खास नहीं, बस यूँ ही |”
भाभी जी आप निराश न हों, भगवान आपकी जरूर सुनेगा |”
दिव्या जिसकी आँखों में आँसू छलक आते हैं, “बीबी जी शायद पिछले जमाने में मैनें कुछ ऐसे कर्म किये होंगे जो भगवान मुझ से रूष्ट हैं |”  
सुधा अपनी भाभी को ढांढस बंधाते हुए, “भगवान के घर देर है अंधेर नहीं | हो सकता है किसी की करनी का फल तुम्हें भरना पड़ रहा हो | और देखना जब वह करनी का दोष पूरा हो जाएगा तो भगवान तुम्हारी जरूर सुनेगा |”
अपनी नन्द के मुहँ से अपने मन की सी बात सुनकर एकबार को दिव्या का चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा | उसे अपने शरीर में एक अजीब हलचल का आभाष होने लगा जैसे उसने सचमुच ही गर्भ धारण कर लिया हो | वह अपनी नन्द के गले लग गई तथा भाव विभोर होकर बोली, "नन्द जी आपके मुहँ में घी शक्कर |
भाभी जी अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ ?”
अरे आप ऐसा क्यों कह रही हैं | आपको निःसंकोच कह देना चाहिए |”
सुधा मन में एक शंका लिए, "फिर भी !
दिव्या सुनने को लालायित, “ओ हो अब कह भी दो |”
भाभी जी आप तो देख ही रही हैं कि मेरे पास तो दो बच्चे पहले से ही हैं | तीसरा आने वाला है | अगर आप चाहो तो मेरा यह होने वाला बच्चा, चाहे यह लड़का हो या लड़की, आप पाल लेना | और हाँ अगर भगवान ने आपके उपर कभी मेहर कर दी तो आप इसे मुझे वापिस करने में भी किसी प्रकार की कोई हिचकिचाहट न करना |”
दिव्या आत्म विभोर होते हुए, बीबी जी आपने मेरे मन की बात छीन ली | बहुत दिनों से मैं खुद यह बात आप से कहने को आतुर थी परंतु डरती थी कि कहीं आप मना न कर दें |”
भाभी जी परंतु !
दिव्या एक अनजान आशंका से, “परंतु ! परंतु क्या बीबी जी ?”
क्या भाई इस बात को मान लेगा ?”
उसकी आप चिंता न करें | वे तो खुद ही ऐसा करने को कह रहे थे |”  
और मम्मी पापा जी ?”
उनसे तो अभी कोई जिक्र नहीं किया है | पहले आपकी मर्जी जानना जरूरी
था |”
दिव्या ने ये सारी बातें जब अपनी सास को बताई तो उसकी बात सुनकर उसकी सास ने एकदम से आसमान सिर पर उठा लिया | वह दिव्या के साथ साथ अपनी  बेटी सुधा को भी भला-बुरा कहकर कोसने लगी | उसका चिल्लाना सुनकर दिव्या के ससुर भी बाहर निकल आए, “क्या बात हुई ? क्यों आसमान सिर पर उठा रखा है ?”
बात ही ऐसी है | आप सुनते तो आप भी ऐसा ही करते | देखो न ये दोनों ही (सुधा एवं दिव्या) बड़ी बूढी बन रही हैं | जैसे हम तो अब इस दुनिया में हैं ही नहीं | बच्चों के लेने देने की बात भी आपस में ही तय कर ली हैं |(दिव्या ने कई बार बीच में बोलने की कोशिश की परंतु सास ने उसे एक बार भी मौका नहीं दिया )
अरे भाई पहेलियाँ क्यों बुझा रही हो, साफ साफ बताओ कि क्या बात है |”
वो सुधा है न सुधा | वह दिव्या को बरगला रही है | कह रही है कि उसका होने वाला तीसरा बच्चा दिव्या ले ले |”
ससुर जो हमेशा अपनी पत्नि की हाँ में हाँ मिलाता था, कुछ गुस्सा दिखाते हुए,क्यों क्या हमारी बहू की अभी कोई उमर निकल गई | या फिर सुधा अपना बोझ हमारे उपर डालना चाहती है |”
आप ही देख लो कि कैसा खेल खेलना चाहती है |”
क्या वह यहाँ ऐसी उल्टी सीधी बात करने को ही आई है ?”
सास अपनी बेटी पर लाँछन लगाते हुए बोली, "अपने सास-ससुर की तो यह हो न सकी यहाँ भी ऐसे ही कर्म कराएगी |”
इसको तो बुलाना ही पाप है |”
अजी बुलाया किसने है | राखी के बहाने आई है | बस डाल लिया डेरा | मान न मान मैं तेरा मेहमान |”   
सुधा ने अपने माता पिता की ऐसी जली कटी बातें सुन ली | उसे बहुत आघात लगा | उसने तो अपने भाई का घर बसाने की बात सोची थी | उसका इसमें अपना कोई स्वार्थ नहीं था | उसकी आँखें नम हो गई और उसी पल उसने अपना सामान समेटकर अपनी ससुराल का रास्ता पकड़ लिया | दिव्या की आशाँए जो अभी अच्छी तरह जगी भी नहीं थी | दिव्या जिसे अपने चारों और खुशी का महौल नजर आया था | दिव्या जिसने थोड़ी ही देर में अपने चारों और सपनों का एक महल बना लिया था | ये सब दिव्या को एक पल की खुशी भी न दे सके तथा ढह कर चकनाचूर हो गए | वह अपनी सास के सामने अधिक देर खड़ी न रह सकी | भारी कदमों से वह अपने कमरे में गई तथा एक कोने में बैठकर फफक-फफक कर रोने लगी | रोते रोते न जाने उसको कब झपकी लगी कि वह सपनों में खो गई |
सपने में दिव्या ने अपनी नन्द का बच्चा ले लिया | वह एक लड़का था | दिव्या की खुशी का पारावार न था वह बहुत चंचल हो गई थी | बच्चे की परवरिश का वह बहुत अच्छे से ख्याल रखती थी | बच्चे को किस समय नहाना है, क्या कपड़े चाहिये, क्या खिलौना चाहिए तथा क्या खाना चाहिए इत्यादि का वह स्वम ही निर्णय लेती थी | सपने में ही दिव्या अपने बच्चे के लिये कुछ सामान खरीदने जब बाजार जा रही होती है तो उसे देखकर रास्ते में दो चार औरतें बात करने लगती हैं | औरतों द्वारा उसके लिये कहा गया "बेचारी" शब्द सुनकर दिव्या के तन बदन में आग लग गई | उसके बढते कदम एक दम रूक गये | वह उल्टे कदम लौटी और चिल्लाकर बोली, "कौन है बेचारी | तुमने मेरे पास क्या कमी देखी जो मैं बेचारी लग रही हूं | मेरे पास ऐशो आराम का हर साधन है | मैं बच्चे की माँ हूँ | इस लिहाज से भी मैं एक पूरक औरत हूँ | फिर भला मैं तुम्हें बेचारी कहाँ से नजर आई ?”
दिव्या के तेवर देखकर सभी औरतें हतभ्रत रह गई तथा उन्होने हाथ जोड़कर माफी माँगी तब कहीं दिव्या के कदम वापिस आगे बढे | दिव्या गर्व से गर्दन ऊंची किये आगे बढी ही थी कि उसकी ठोकर लगी तथा वह नीचे गिरती गिरती बची परंतु हड़बड़ाहट में उसकी तंद्रा टूट गई | अपनी हालत देखकर वह सकते में आ गई | बन्द आंखों में वह अपने को एक भाग्यशालिनी औरत समझ रही थी जिसके पास भगवान का दिया सब कुछ था परंतु आँख खुलते ही उसके सपनों के महल ढह गए जब उसने अपनी सूनी गोद  देखकर महसूस किया कि वह इस संसार में सबसे दूर्भाग्यशालिनी औरत है |
छः सात साल यूँ ही बीत गये | दिव्या के जीवन में सूनापन बढता ही गया कि अचानक उसको किसी ने आशा की किरण दिखाई | दिव्या अभी तक जितने भी उपाय कर चुकी थी यह सबसे अनूठा तथा त्याग का रास्ता था | उसे ऐसे प्रयास के बारे में कभी विचार आ भी न सकता था | शायद भगवान ने दिव्या को एक पूरक औरत बनाने में जो समय लेना था वह अब पूरा होने वाला था तभी तो दिव्या का उससे अचानक मिलन हो गया |
चाची जी |”
संतोष को जानी पहचानी सी आवाज सुनाई दी | उसने पीछे मुड़कर देखा | वह दिव्या ही थी |”
चाची जी, रूको | मैं भी आती हूँ |”
संतोष निश्चल खड़ी दिव्या को अपनी ओर आते निहारती रही |
नमस्ते चाची जी |”
नमस्ते !, संतोष के मन में थोड़ी आशंका एवम एक छिपा हुआ डर सा था | इसलिये उसने दूर तक इधर उधर देखा परंतु दिव्या के अलावा उसे कोई और दिखाई नहीं दिया | अतः वह आशवस्त हो जाने पर, तुम यहाँ कैसे ?”
सुबह यहाँ से फोन गया था कि खून की सख्त जरूरत है अतः आ जाओ |”
हाँ ऐसा ही फोन हमारे यहाँ भी गया था इसलिये हम भी आए हैं |”
चाची जी, आप किसके साथ आई हैं ?”
अपने लड़के पवन के साथ | क्या तुम्हारी सास भी आई है ?”
नहीं मैं उनके साथ आई हूँ | वे वहाँ पोर्टिको में हैं | मैनें आपको देखा इसलिये चली आई |”
बातें करती हुई दोनों बाथरूम से वापिस आकर एक तरफ लगी हुई कुर्सियों पर बैठ गई | बैठते ही दिव्या की निगाहें पास ही खेल रहे दो तीन बच्चों पर टिक गई | वह एकटक उन्हें ही देखे जा रही थी | संतोष ने महसूस किया कि दिव्या काफी उदास दिख रही थी | बच्चों को लगातार खेलते देखते हुए वह कभी कभी बीच में एक ठंडी साँस सी भी भर लेती थी |
संतोष मौन तोड़ते हुए, “दिव्या क्या बात है कुछ उदास सी दिख रही हो ?”
दिव्या झूठी मुस्कराहट बिखेरते हुए, “नहीं चाची जी, ऐसा तो कुछ नहीं है |”
देखो दाई से पेट छुपाए नहीं छिपता |”
संतोष ने बहुत ही सरल भाव से यह वाक्य कहा था परंतु दिव्या के दिल पर इसने शायद एक तीर का काम किया था तभी तो इसे सुनकर दिव्या की आँखे एक दम नम हो गई | दिव्या की स्थिती देखकर एकबार को संतोष ने अपने मन में सोचा कि उसे शायद ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिये थे | खैर बात को सम्भालने के लिये वह बोली, "तुमने डाक्टर वगैरह की तो सलाह ली होगी |”
दिव्या उदासीनता से, “चाची जी सब कुछ कर लिया | शायद भगवान को मेरी गोद सूनी ही अच्छी लगती है |”
संतोष ने सांत्वना देते हुए कहा, “मन छोटा न करो | मेरी बात ध्यान से सुनो | जो मैं कहूँगी उसका अर्थ गल्त मत लगाना क्योंकि तुम तो जानती हो कि हम जेठानी-दौरानी में बनती नहीं है | अतः यह मत सोचना कि मैं तुम्हें किसी तरह से भड़का रही हूँ | जो मैं अब कहने जा रही हूँ वह मेरे अपने विचार से सही एवं सत्य है | हो सकता है कि उसमें कहीं कुछ खामियाँ हों इसलिये पहले ही कह रहीं हूँ कि अगर तुम्हें मेरी बातों में कुछ तत्व नजर आए तो उन्हें अपनाना अन्यथा भूल जाना |
मैं सब जानती हूँ तथा प्रत्येक दिन देखती भी हूँ | मेरा आपके यहाँ आने का बहुत मन करता है परंतु मैं अपने को बेबस पाती हूँ |”
भगवान पर भरोसा रखो | वक्त सब ठीक कर देगा | हाँ तो मैं कह रही थी कि तुम्हारी सास और मेरी सास में बहुत कम पटती थी | तुम्हारी सास अपनी सास के कहने का हमेशा उल्टा ही करती थी | घर आने पर न उन्हें कभी बैठने को देती तथा खाना तो दूर रहा वह उनसे पानी को भी न पूछती थी | यहाँ तक की उनके साथ गाली गलौच पर भी उतर आती थी | तुम्हारे ससुर भी अपनी माँ की तरफ न बोलकर अपनी पत्नि का ही पक्ष लेते थे | अतः इन दोनों से दुखी होकर हमारी सास ने एक बार कह दिया था कि जब वह(सास) मरे तो उन दोनों में से उसके शरीर पर किसी का हाथ भी न लगवाना | इतना होने पर भी मेरी सास का मन पसीज जाता और वे खुद आकर तेरी सास से बोलने लगती थी | तेरी सास पर इसका असर उल्टा पड़ता था |   
शायद वह सोचने लगी थी कि मेरी सास गिरी पड़ी है अतः वह उसके (तेरी सास के) बिना नहीं रह सकती | इसलिये तेरी सास दिन प्रतिदिन घमंडी होती चली गई | यही रूख उन्होने हमारे प्रति अपना रखा है | तुम तो जानती ही हो कि ये दोनों भाई अपनी मर्जी के मालिक हैं | दोनों का भरा पूरा परिवार है परंतु न जाने क्यों तुम्हारे सास-ससुर हमारे से हमेशा युद्ध जैसा वातावरण बनाए रखते हैं | पता नहीं उनको हमसे ऐसी क्या नाराजगी है कि तुम्हारे ससुर तो हमारे बारे में यहाँ तक कहते सुने गये हैं कि "प्यार और जंग में सब चीज जायज है |”
खैर हमारी सास तेरी सास की तरफ से अपने दिल में नाराजगी एवं दुःख का आभाष लिये ही स्वर्ग सिधार गई | हाँलाकि हमारे ससुर के मन में किसी के प्रति कोई द्वेष नहीं था परंतु यहाँ भी तुम्हारे सास ससुर ने हमारी सास के दिल को ठेस पहूँचाने के लिये तुम्हारी शादी की वही तिथि रखी जो हमारे ससुर की पून्य तिथि थी |”
दिव्या आश्चर्य चकित होकर, “क्या ! तो क्या हमारे दादा जी 23 जनवरी को गुजरे थे ?”
हाँ वे 23 जनवरी 1970 को गुजरे थे |”
हे भगवान ! दिव्या अपना माथा पकड़ लेती है |
संतोष ढांढस बंधाते हुए, “धैर्य रखो दिव्या और जरा मेरी बात ध्यान से सुनो |  
हो सकता है फिर हमें बात करने का मौका न मिले | वैसे तो हम अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं परंतु अपने पिता जी की पून्य तिथि पर उनकी याद में शोक प्रकट करने की बजाय तुम्हारे घर में खुशियाँ मनाई जाती हैं | अगर तुम आत्मा परमात्मा में विशवास रखती हो तो बताओ कि क्या ऐसा करना ठीक है ?”
चाची जी मुझे तो कुछ पता नहीं था | हमें अपने पितरों का ध्यान तो हमेशा रखना चाहिये तथा उन्हें कभी भी नाराज नहीं करना चाहिए | यह तो मेरे से अनजाने में अभी तक भूल होती रही है |”
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है | पितरों से अपनी अनजाने में हुई भूल के लिये सच्चे मन से माफी माँगने से वे तुम्हें अवशय माफ कर देंगे |”
परंतु अब मुझे करना क्या होगा ? अब 23 तारीख बदली तो नहीं जा सकती |”
कहते हैं न कि जहाँ चाह वहाँ राह अतः मन में प्रबल इच्छा हो तथा अपनी भूल को सुधारना चाहो तो सब रास्ते मिल जाते हैं |”
कैसे ?”
संतोष ने रास्ता सुझाया, “बहुत सरल सा उपाय है | तुम अपनी शादी की वर्षगाँठ तिथि के हिसाब से मनाना शुरू कर दो तथा 23 जनवरी अपने दादा जी की पून्य तिथि के लिये ही रहने दो |”
दिव्या कुछ सकुचाते हुए, “चाची जी, मैंने तो श्राद्धों में भी देखा है कि मेरी सासु जी पंडिताईन को घर पर खाना न खिलाकर उसकी थाली मन्दिर में भेज देती हैं | इसी प्रकार मेरे ससुर भी घर में कथा किर्तन कराने को एक ढकोसला बाजी का दर्जा देते हैं | यहाँ तक की वे मन्दिर में सुबह होने वाली आरती पर भी एतराज जताते हैं तथा इस बारे में उनकी मन्दिर के पंडित जी से झड़प भी हो चुकी है |
दिव्या देखो तुम्हारे घर के अन्दरूनी मामले में मैं कुछ हस्तक्षेप नहीं कर सकती तथा न करूंगी | यह तो तुम्हें अपनी सूझबूझ से आहिस्ता आहिस्ता बदलाव लाना होगा | बस मेरा तो इतना विचार था कि शायद पितरों की आत्मा की संतुष्टि से तुम्हारी आत्मा को भी संतुष्टि मिल जाए | क्योंकि मेरे विचार से हमारे सास ससुर तथा पितरों की आत्माएँ तुम्हारे जरिये जैसी करनी वैसी भरनी को चरितार्थ करके तुम्हारे सास ससुर की आत्माओं को तड़पाना चाहती हैं और इसी वजह से तुम गेहूं के साथ घुन की तरह पिस रही हो |  अर्थात उनकी करनी के कारण ही शायद तुम्हारी गोद अभी तक सूनी है |”
संतोष की बातें सुनकर दिव्या के मुर्झाए चेहरे पर एक नई आभा उदय हुई | उसमें सुबह के उगते सूर्य की तरह चमक एवं लालिमा छा गई | शायद अब वह समझ गई थी कि उसे क्या करना चाहिये |
चाची जी आप से एक और विनती है कि आप चक्षु तथा नन्द के साथ कभी-कभी अन्दर आ जाया करो |”
ऐसा है दिव्या, मैं बच्चों के साथ अन्दर नहीं आ सकती क्योंकि तेरी सास को यह अच्छा नहीं लगेगा | मुझे उनकी तरह घर के बाहर बैठना अच्छा नहीं लगता तथा मेरे अन्दर बैठने से उन्हें बेकार का शक होगा कि पता नहीं मैं तुम्हारे क्या कान भरती हूँ | हाँ बच्चों से मैं कह दिया करूँगी कि वे तेरे पास चले जाया करें |”
दिव्या कुछ झिझकते हुए, “चाची जी मुझे कहना तो नहीं चाहिये परंतु असलियत तो यह है कि चक्षु तथा नन्द तो आते हैं | वे दोनों हमारे घर के दरवाजे पर खड़े होकर अन्दर झाँकते भी हैं परंतु न तो माता जी उनसे कहती कि अन्दर जाकर खेल लें तथा न ही मेरी हिम्मत पड़ती है कि उन्हें बुला लूँ | अपने आप अन्दर आने से वे डरते से प्रतीत होते हैं |”
फिर तू ही बता कि मैं उनके साथ रोजआना अन्दर कैसे आ सकती हूँ जबकि जिठानी जी मेरे साथ सीधे मुहँ बात भी नहीं करती | तुम्हारी सास को तो हमारा यहाँ रहना भी पसन्द नहीं है क्योंकि वे समझती थी कि हम तो भारतीय वायु सेना छोड़कर कभी आएँगे नहीं अतः यह सारा मकान उनका है | अब हम जब यहाँ आ गये तो वे समझती हैं कि हमने मकान के इस हिस्से पर जिसमें हम रह रहे हैं नाजायज कब्जा कर रखा है | तभी तो वे नए-नए हथकंडे अपनाकर हमें दुखी रखना चाहती हैं जिससे हम तंग होकर यहाँ से चले जाँए | एक बार तो उन्होंने हमारी दूकान की छ्त को ही मुस्लियों की चोटों से तोड़ दिया था तथा उसमें पानी डालने लगी थी जिससे हमारी दूकान में रखा सामान खराब हो जाए | उन्होने और भी कई ऐसी ही खुराफाती वारदातें की थी जिसमें हमारे जेठजी की शय भी शामिल होती थी |  (संतोष को अचानक जैसे कुछ याद आ गया हो) अच्छा एक बात और | यह तूने भी महसूस किया होगा कि अगर तुम्हारे घर के नजदीक भी बच्चे शोर मचा रहे हों, पटाखे चला रहे हों, शोर मचाकर खेल रहे हों या कुछ और शैतानी कर रहे हों तो जीजी के मुहँ से ये ही शब्द निकलेंगे, "तुम परै जाकर मर जाओ | पता नहीं ये रेवड़ लूढता भी नहीं | लूढ जाए तो शांति तो मिल जाए |”
हाँ चाची जी यह तो मुझे भी बहुत अखरता है |”
तुम अपनी सास को आराम से समझाने की कोशिश करो कि वे ऐसे शब्द बच्चों के लिये इस्तेमाल न किया करें |”
चाची जी यही तो समस्या है कि मैं उनकी किसी भी बात का विरोध नहीं कर सकती |”
मैं भी विरोध करने के लिये नहीं कह रही | मैं तो यह चाहती हूँ कि वे बच्चों के प्रति नरम, स्नेही, प्यार एवं ममता भरी भाषा का ही प्रयोग करें | बच्चों को दुतकारने की बजाय उनका दिल खुश करें |”
दिव्या अपने कानों को हाथ लगाते हुए, “नहीं चाची जी मैं उन्हें कुछ भी सलाह मशवरा देने में अपने आपको असमर्थ पाती हूँ |”
ठीक है फिर भी देख लेना अगर कभी हिम्मत जुटा सको तो कह देना |”
और कुछ चाची जी ?”
अपने सास ससुर की सेवा तो तुम खूब आदर भाव से कर ही रही हो | आगे भी ऐसे ही करती रहना | हाँ अगर दो चार रस्में और कर सको तो सोने में सुहागे का काम हो जाएगा |”
वो क्या चाची जी ?”
संतोष, “जैसे अमावस्या का सीदा निकालना, पहली रोटी गाय की निकालना, आखिरी रोटी कुत्ते के लिये सेकना इत्यादि |”
ठीक है चाची जी | मैं अभी तक ऐसा कुछ नहीं करती थी | अब से इन सब बातों का ध्यान रखूंगी तथा पूरा पालन करूंगी |”
इसके बाद दिव्या एक झटके से उठी, अपनी चाची जी के चरण छूए, और दिल में आत्मविशवास लिये अपने पति की और आगे बढ गई |
घर जाकर दिव्या ने अपनी चाची जी के बताए अनुसार धर्म-कर्म के कार्य शुरू कर दिये | परंतु शायद ईशवर दिव्या की सास से काफी ना खुश थे | तभी तो पहले तो उन्हें शूगर की बिमारी ने आ घेरा फिर इसी कारण उनकी आँखों की रोशनी चली गई | तथा एक दिन रात को सोकर वे सुबह की रोशनी न देख सकी, वे स्वर्ग सिधार गई |
अब तक दिव्या की नन्द की शादी हो चुकी थी | शादी उसके जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लाई | अपनी ससुराल में जाकर वह भाग्यशालिनी कहलाई | क्योंकि अपने नाम के अनुरूप ही उसने अपने परिवार को, भगवान की कृपा से, दो सुन्दर रत्न (लड़के) दे दिए | अपनी ससुराल के रहन सहन तथा माहौल को महसूस करते हुए दूसरों के प्रति उसका व्यवहार भी आश्चर्यजनक ढंग से शालीन, मृदुभाषी, एवं कोमलता से भरपूर बन गया था | घर के कामकाज में भी उसने दक्षता प्राप्त कर ली थी |
अपनी पत्नि की तेरहँवी के करते करते दिव्या के ससुर के व्यवहार में अचानक बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया | वह अब अपने छोटे भाई के पोत्र-पोत्री को बहुत लाड़ प्यार एवं चाव से अपने पास बुलाने लगा | वह अपने घर के अन्दर भी उनके साथ खूब अच्छी तरह हँसता, बोलता, खेलता, उनकी तोतली बातें सुनकर भावविभोर हो जाता, यहाँ तक की बच्चों के खाने पीने के लिये अपनी फ्रिज में खूब सामान रखता | उनके ऐसा करने से दिव्या के मन की इच्छाओं की पूर्ति भी होने लगी | उसका अकेलापन दूर हो गया | उसके जीवन में एक अप्रत्याशित बहार सी आ गई | उसके दिल में दबी इच्छाएँ जागृत हो उठी | वह हमेशा से ही चाहती थी कि चक्षु तथा नन्द उनके घर आकर खेलें तथा उसके साथ खाना खाएँ | न जाने क्यों दिव्या को नन्द की थाली में उसके साथ खाना खाना बहुत पसन्द आता था | वह नन्द का झुठा खाना बड़े शौक से खाती थी | अगर नन्द कुछ टॉफी वगैरह चुस रहा होता था तो दिव्या उसके मुहँ से वह टॉफी निकाल कर खुद चुसने लगती थी | उसे ऐसा करने में कुछ भी हिचकिचाहट या घृणा महसूस नहीं होती थी | बल्कि कभी-कभी तो दिव्या जबरदस्ती नन्द के मुहँ में कुछ डाल देती थी तथा फिर खुद उसके मुहँ से निकाल कर खा जाती थी | दिव्या को ऐसा करने में एक निराले ही आनन्द का आभास होता था | वह आत्म विभोर हो जाती तथा नन्द को अपनी बाहों में भरकर, कसकर अपने वक्ष से लगा लेती थी | भगवान ने शायद नन्द के माध्यम से ही दिव्या के गृहस्थ जिवन में बहुत बड़े बदलाव का रास्ता तय कर रखा था जो उसकी सास के रहते ना-मुमकिन था |   
तभी तो दिव्या की सास के स्वर्ग सिधारने के ठीक दस महीने बाद एक दिन पडौस के घर से सुबह्-सुबह थाली बजाने का न्यौता आने की खबर सुनकर संतोष आत्मविभोर हो गई | अपने सास-ससुर के फोटो के सामने हाथ जोड़कर तथा नतमस्तक होकर उसके मुहँ से निकला,"पितर देवता (भगवान) हमारे सारे परिवार पर खुशहाली का पर्दा हमेशा ऐसे ही फैलाए रखना | ना समझ की "करनी" के कारण अनजान की आत्मा को "भरनी" के लिये मजबूर न करना |