Friday, February 16, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-43) सदभावना

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-43) सदभावना
स्कूल की छुट्टियाँ होते ही बच्चे अपने मामा जी के घर जाने का प्रोग्राम बनाने लगते हैं | परन्तु जब मैं छोटा था तो अपने मामा जी के यहाँ न जाकर अक्सर अपनी बड़ी बहन जी के यहाँ जाया करता था | इसके कई कारण थे| पहला, मेरे मामा जी का घर दिल्ली से दूर अमृतसर में था | दूसरे, मेरी बहन जी तथा मेरी उम्र में १७ साल का अंतर था इसलिए वे मेरे लिए एक ममता की मूर्ति थी | तीसरे, शादी के दस वर्ष बीत जाने पर भी उन्हें संतान प्राप्ति का सुख नहीं मिल पाया था, उनकी गोद खाली थी | चौथे, दिल्ली के प्रदूषण भरे माहौल से दूर शामली के हरियाले लहलाते खेत, खुली हवा, नहरों में बहता ठंडा जल, आम के बगीचों में गूंजती कोयल, मैना तथा तोतों की आवाज, खुले वात्तावरण में नाचते मोर मन को प्रसन्नचित्त कर देते थे |
मेरे जीजा जी शामली के मेंन चौराहे पर एक जनरल स्टोर के मालिक थे | उनकी दुकान के सामने काफी जगह खाली थी जहां मुस्लिम समाज के चार युवक फड़ लगाकर, सामान बेचकर, अपने परिवार का भरण पोषण करते   थे | वही युवक मेरी बहन जी के घर का ऊपरी काम भी कर दिया करते थे | वे मुझे भी अपना मेहमान समझकर बहुत खातिरदारी किया करते थे | वे बहन जी के परिवार से ऐसे घुलेमिले रहते थे जैसे वे अलग न होकर उसी परिवार का हिस्सा थे | मेरे जीजा जी और बहन जी धर्मपरायण तथा सभी के लिए सदभावना रखने वाले व्यक्ति थे अत: आपस में उनका कोई धार्मिक भेदभाव दिखाई नहीं देता था |
मुस्लिम त्यौहारों पर मेरी बहन जी उन मुस्लिम व्यक्तियों के लिए सेवईयां बनाना नहीं भूलती थी | शायद उन मुस्लिम लोंगों की दुआओं का ही असर रहा होगा कि भगवान की कृपा से समय के साथ मेरी माँ सरीखी बहन की गृहस्थी बढ़नी शुरू हो गई | उनके चार बच्चे एक लड़का तथा तीन लडकियां हुई | चारों बच्चो के लालन पालन में उन मुस्लिम परिवार का बहुत बड़ा योग दान रहा तथा वे उनकी गोद में ही पल बढ़ कर बड़े हुए |
बड़ा होकर मैनें भी दिल्ली की तंग गलियों से निकलकर गुडगांवा के स्वच्छ वातावरण में अपने दो लड़कों की सोचकर एक दुमंजिला मकान बना लिया था | परन्तु परिस्थिति वश बड़ा लड़का दिल्ली में ही रहने लगा इसलिए मैनें मकान की पहली मंजिल किराए पर उठाने की मंशा बना ली | जल्दी ही एक अरूण शर्मा, अपने एक साथी के लिए, जो स्टेट बैंक ऑफ मैसूर में आने वाला था, के लिए मकान देख गया | अचानक मुझे किसी काम से अपनी पत्नी के साथ देहली जाना पड़ गया और हम अपने बड़े लड़के के पास ही ठहर गए | इस दौरान मेरे छोटे लड़के पवन ने फोन पर बताया, नए  किराएदार किराए की अग्रिम राशी देने आए हैं |
मैनें कहा, ले लो | और फोन काट दिया |
यह सुनकर मेरी पत्नी का कौतुहल जगा कि किराएदार कौन है तो मैंने फिर फोन पर पूछा, किराएदार का नाम क्या है?
जवाब मिला, कोई साहीन है|
साहीन! साहीन तो कुछ मुस्लिम सा नाम लगता है ? मेरे यह कहने से मेरी पत्नी के कान खड़े हो गए और वे हमारा वार्तालाप बड़े ध्यान से सुनने लगी |
हाँ, मुस्लिम लड़की ही है |  
यह जानकर हिन्दू रीतिरिवाजों के अनुसार पूजा पाठ करके पली बढी मेरी पत्नी विचलित होकर बोली, नहीं, नहीं हम किसी मुस्लिम को अपने घर में नहीं रखेंगे | उससे कह दो उसके पैसे वापस कर दे |
फिर से पवन को फोन मिलाने पर पता चला कि वह एडवांस देकर चली गई थी | इस पर मैं दुविधा में पड़ गया | क्योंकि मेरे संस्कार कहते थे कि जिसके लिए जबान दे दी हो उसे निभाना चाहिए और पत्नी के संस्कार कहते थे कि किराए के लालच की खातिर एक मुस्लिम परिवार को अपने घर में रखकर वे भ्रष्ट नहीं हो सकती |
मैंने पत्नी को समझाते हुए उन्हें याद दिलाया, देखो, हम शामली गए थे न ?
हाँ गए थे |
वहाँ बहन जी के घर का सारा काम कौन लोग कर रहे थे ?
पत्नी ने अपना तर्क दिया, वे काम ही तो कर रहे थे, घर में बस तो नहीं गए थे |
हम भी उन्हें अपने साथ थोड़े ही रख रहे हैं, वे तो ऊपर रहेंगे |”
पत्नी ने अपनी चिंता जताई, मौहल्ले पडौस वाले क्या कहेंगे ?
मैनें मौहल्ले पडौस वालों के कारनामें बताने के लिहाज से कहा, उनकी चिंता की क्या बात करती हो | वे तो पैसों कि खातिर अपने बच्चों को सारे दिन के लिए निम्न वर्ग के लोगों के सहारे छोड़कर चले जाते हैं | क्या एक मुस्लिम को किराएदार रखना इससे बदतर है क्या ?
पत्नी अपनी असमंजस्ता जाहिर करते हुए, मुझे तो कुछ जँच नहीं रहा फिर भी आपके हामी भरने का ख्याल रखकर इतना जरूर चाहूंगी कि वे घर में कुछ गंदा न पकाएं |
मेरे आशवासन दिलाने पर कि मैं सुनिश्चित करूँगा कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे मेरी पत्नी मान तो गई परन्तु साथ में कहा, मैं उनसे कोई संपर्क नहीं रखूँगी |
जिस दिन हम देहली से वापिस आए उसी दिन साहीन भी अपनी माँ तथा भाई के साथ सारा सामन लेकर आ गई | गर्मी का मौसम, मुजफ्फर नगर से गुडगाँवा का लम्बा रास्ता, वे प्यास से व्याकुल दिख रहे थे | अपनी खिड़की से उनका चमचमाता चेहरा देखकर मेरी पत्नी से बर्दास्त न हुआ | उन्होंने फ्रिज से एक ठन्डे पानी की बोतल मुझे थमाते हुए कहा, ऊपर दे आओ |
मैनें अपने चेहरे पर मुस्कान लाकर उनकी दूसरों के प्रति सम्मान रखने की भावना तथा मिलनसार प्रवृति को ध्यान में रखकर कहा, अतिथी देवो: भव: ?
मेरी पत्नी मुस्करा दी और मैं पानी की बोतल लेकर ऊपर चढ गया | मेरे हाथ में पानी की बोतल देखकर आने वालों के चेहरे पर मिश्रित भाव देखने को मिले | उन्होंने एक बार आपस में एक दूसरे को देखा, आखों ही आँखों में बात हुई और उनके साथ आए बुजुर्ग ने पानी की बोतल के लिए हाथ बढ़ा दिया | बातों ही बातों में पता चला कि शाहीन के पिता जी गूजर चुके थे | उसका एक ही भाई है जो साथ रहता है | साहीन ने अपने दम पर यह मुकाम हासिल किया है | उनका परिवार मांस-मच्छी इत्यादि का सेवन नहीं करता | उनका पहनावा तथा रहने का अंदाज भी वर्त्तमान युग के पढ़े लिखे लोगों की तरह है जिससे मुस्लिम समाज की छाप नजर नहीं आती |
ये बातें, खासकर साहीन के सिर पर पिता का साया न होना, मेरी पत्नी के मन में उसके प्रति संवेदना भर गई | उनकी धारणा में बहुत बड़ा बदलाव आया और उन्होंने उस परिवार की हर संभव सहायता करनी शुरू कर दी | थोड़े दिनों के अंतराल में ही मेरी पत्नी के मन में बसा मजहब और धर्म का भेदभाव मिटता नजर आया | उनके व्यवहार से ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे वे संदेशा दे रही हो कि भगवान, ईशवर, अल्लाह, परमात्मा आदि सब एक हैं तो फिर इंसान मिलजुल कर, एक होकर क्यों नहीं रह सकते | धर्म चाहे कोई हो मनुष्य के मन में एक दूसरे के प्रति इंसानियत और सदभावना हमेशा कायम रहनी चाहिए |             
चरण सिहँ गुप्ता
डब्लू.जैड.-653, नारायणा गाँव
नई देहली-110028
फोन:9313984463
Email: csgupta1946@gmail.com


   

Sunday, February 11, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-42)जब यम हार गया

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-42)जब यम हार गया
दुनिया में ऐसे कई किस्से हैं जब यम को हार माननी पड़ी और मजबूरन किसी की जान बख्स कर उसे बैरंग वापिस लौटना पड़ा | इनमें सती सावित्री, सती अनुसुईया इत्यादि की कहानियां तो आप सभी ने पढ़ी होंगी | मेरे साथ भी एक ऐसी ही घटना घटी जब लगभग यम हमारे साथ साथ तीन घंटे तक चला और उसे खाली हाथ वापिस लौटना पड़ा |
मैं अपनी पत्नी के साथ अपने ससुर की तेरहवीं पर ग्वालियर गया था | अपने घर से हम दोनों स्कूटर पर निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुँच गए | हमारा ऐसा करने का कारण था कि हमें उसी दिन वापिस लौटना था और ग्वालियर से वापिस निजामुद्दीन पहुँचने में देरी हो जाएगी अत: अपनी सवारी होगी तो हम रात को अपने घर आराम से पहुँच जाएंगे |
वापिस आने के लिए दोपहर दो बजे के लगभग जब हम ग्वालियर स्टेशन पर आए तो वहाँ लोगों का जनसमूह देखकर हैरत में पड़ गए | सोचा शायद प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति आ रहा होगा परन्तु कोई सुरक्षा व्यवस्था का इंतजाम न देखकर विचार बदला कि हो सकता है ग्वालियर के महाराजा माधव राव सिंधिया पधार रहे होंगे | और वहाँ की जनता उनके दर्शानार्थात एवम स्वागर्थात इकट्ठा हो गई होगी | किसी तरह धक्का मुक्की सहते हम प्लेट फ़ार्म पर पहुंचे तो पता चला कि झांसी और ग्वालियर के बीच दो रेलगाडियां आपस में टकरा गई हैं इसलिए रास्ता अवरुद्ध हो जाने के कारण पिछले तीन घंटे से देहली की तरफ जाने वाली कोई गाड़ी नहीं आई है | यह भी पता चला कि अभी रास्ता साफ़ होने में कम से कम तीन घंटे और लगेंगे |
यात्रियों के पास ग्वालियर से देहली जाने के लिए केवल एक ही विकल्प था, ताज एक्सप्रेस जो शाम को पांच बजे गवालियर से छूटती थी | सभी उसी का इंतज़ार कर रहे थे | यही कारण था कि रेलवे स्टेशन यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था | इसी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि दस गाडीयों की सवारी अगर एक में घुसने का यत्न करें तो क्या हाल होगा | खैर एक टांग पर खड़े होकर सफर शुरू हुआ | आगरा के स्टेशन राजा की मंडी को गाड़ी पार करना ही चाहती थी कि अमर्जैन्सी ब्रेक लगाकर गाड़ी घिसटती हुई खड़ी हो गई | गाड़ी के अंदर यात्री एक दूसरे के ऊपर लुढक गए | ऊपर रखे सामान के गिरने से कई मुसाफिरों को चोटें भी आ गई | भारी वर्षा के चलते एक मकान की दीवार गिरने से रेल की पटरी मलबे से भर गई थी | खैर जल्दी ही सफाई हो जाने से सफर फिर शुरू हो गया था |वैसे तो गाड़ी अमूमन १०.३० पर निजामुद्दीन स्टेशन पहुँच जाती है परन्तु उस दिन वह रात के १२.०० बजे पर निजामुद्दीन स्टेशन पहुँची |
बिन मौसम की भारी बरसात के कारण शायद गाड़ी इतनी देरी से पहुँची थी | प्लेटफार्म से बाहर आने पर स्टेशन के बाहर हमने पाया जैसे यमुना नदी ने बाँध तोड़कर अपना बहने का रूख बदल लिया था इसलिए वहाँ से बह रही हो | चारों और घना अंधियारा व्याप्त था | हर जगह की बत्तियाँ गुल होने की वजह से दूर दूर तक कुछ दिखाई नहीं दे रहा था | काले बादलों की गडगडाहट वातावरण को भयावह बना दे रही थी | बीच बीच में जब बादलों के टकराने से आसमान चमक उठता था तो चारों और दूर दूर तक फैला पानी सामने समुद्र सा नजर आ रहा था |
ऐसे मौसम में अपने दुपहिया स्कूटर से नारायणा जाना खतरे से खाली नहीं था | इसलिए मैनें तिपहिया स्कूटर लेना ही उचित समझा | सोचा था कि अपना दुपहिया स्कूटर अगले दिन आकर ले जाऊंगा | हमने लगभग पौना घंटे इसी में बिता दिए कि शायद कोई स्कूटर मिल जाए परन्तु व्यर्थ | स्कूटर क्या किसी टैक्सी के दर्शन भी दुर्लभ हो रहे थे | मजबूरन, बारिश थोड़ी हल्की होती महसूस हुई तो अपने स्कूटर पर ही जाने का मन बनाना पड़ा |
स्टेशन के सामने बह रही जल की नदी को पार करके हमने अपना स्कूटर लिया और निकल पड़े समुन्द्र का मंथन  करने | अभी आश्रम का पुल पार ही किया था कि तूफानी हवा के साथ आसमान से इतना पानी गिरने लगा जैसे कोई बादल फट गया हो | हमारे ऊपर पानी ऐसी मार करने लगा था जैसे कोई आग बुझाने वाले इंजन की धार हमारे ऊपर केंद्रित कर दी गई हो | पलक झपकते ही सड़क पर इतना पानी हो गया कि स्कूटर चलाना दुशवार हो गया | और यह क्या ढर्र ढर्र करके स्कूटर का इंजन बीच सड़क में बंद हो गया |
स्कूटर से उतर कर पता चला कि सडक पर बहते पानी का स्तर घुटने से थोड़ा सा ही नीचे रह गया था | मेरे अकेले धकेलने से स्कूटर टस से मस नहीं हो पा रहा था इसलिए मेरी पत्नी के धक्का लगाने से ही हम उसे किनारे पर ला सके | इस बीच कई गाडियां जो हमारे पास से गुज़री उन्होंने हमें भिगोने में कोई कसर नहीं छोड़ी परन्तु हमें कुछ महसूस नहीं हो रहा था क्योंकि आसमान से ही इतना पानी पड़ रहा था कि उछल कर आता पानी उसके सामने कुछ मायने नहीं रखता था | अगर हलकी बारिश में ऐसा हो जाता तो पास से गुजरने वाली गाड़ी के ड्राईवर को दो चार अपशब्द सुनने को अवश्य मिल जाते |
स्कूटर को स्टार्ट करने की हर कोशिश नाकामयाब साबित हुई | किसी तरह स्कूटर को धक्का मारकर सड़क के किनारे थोड़ी दूर पर लगे एक पेड़ के नीचे तक ले जाने की कोशिश कर ही रहे थे कि धम्म की आवाज आई और स्कूटर मेरे ऊपर गिरते गिरते बचा | शुक्र रहा कि उस गड्ढे में स्कूटर का पहिया ही गया | अगर स्कूटर एक फुट और सड़क की तरफ होता तो मेरा ही पैर उस गड्ढे में जाना था और मैं आश्चर्य जनक स्थितियों में विलुप्त हो जाता | वास्तव में वह महज एक गड्ढा न रहकर गटर का मेनहाल था जिसका ढक्कन नदारद था | इसका मुझे उस समय पता चला जब मैं अगले दिन अपना स्कूटर लेने वहाँ गया |
गहन वर्षा, रात का समय और घुप्प अन्धेरा होने के कारण दो फुट आगे की वस्तु भी दिखाई नहीं दे रही थी | जब हम गड्ढे में से अपना स्कूटर निकालने की कोशिश कर रहे थे तो एक कार ने हमारे स्कूटर को हलकी सी टक्कर मार दी | हम दोनों स्कूटर की बाजू में थे अत हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचा अलबत्ता हमें स्कूटर को गड्ढे से बाहर निकालने में मदद मिल गई | इस बार फिर हम चोट लगने से बच गए थे |
किसी तरह मेहनत करके मैनें अपना स्कूटर पटरी पर चढ़ा कर पेड़ के नीचे खड़ा कर दिया | वर्षा रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी | स्कूटर स्टार्ट नहीं हो रहा था | चारों और गुप्प अन्धेरा था | पेड़ के नीचे खड़े होने से हम किसी को नजर नहीं आ रहे थे | हमने सोचा कि स्कूटर को भगवान के भरोसे पेड़ के नीचे छोड़ हमें किसी तिपहिए का सहारा लेना उचित रहेगा | हम पेड़ के नीचे व्याप्त भयावह कालेपन से बाहर आकर इक्का दूक्के आते जाते  तिपहिए को रूकने के लिए हाथ दिखाने लगे | बहुत देर बाद एक तिपहिए वाले को शायद जो उसी रास्ते जा रहा था जिस तरफ हमें जाना था हम पर दया आ गई | उसने हमें बिठाया तथा स्कूटर को सरपट दौडाने लगा | उसकी जल्दबाजी से ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ठग को उसका शिकार मिल गया था | वह बिना पूछे उसी दिशा में भगा रहा था जिस तरफ मेरी पत्नी ने इशारा किया था |मेरे मन में शंका के बादल तो उमड़ने वाजिब थे क्योंकि हमें वह रास्ता पार करना था जिस पर दिन दहाड़े बसों को भी लूट लिया जाता था | मेरी पत्नी इस बारे में अनभिज्ञ थी | वे निश्चिन्त बैठी थी | मैनें उनकी निश्चिन्तता भंग करना उचित न समझ खुद को किसी भी आपदा से निबटने के लिए चौकन्ना और तैयार कर लिया |
भगवान की दया से रात के दो बजे भी इस सुनसान एवम भयावह रास्ते पर हमारे ऊपर कोई आपदा नहीं आई तथा हम सकुशल अपने गाँव की सीमा में घुस गए | अब मेरी बात समझ में आई कि शायद स्कूटर वाला भी जानता था कि धौला कुआँ से बरार स्कवेयर का रास्ता पार करना खतरे से खाली नहीं होता वह भी रात के दो बजे  इसीलिए वह अपने स्कूटर को पूरी रफ़्तार से दौड़ा कर लाया था |
गाँव के रास्ते कुछ उबड खाबड़ तथा संकीर्ण होने की वजह से स्कूटर की चाल बहुत धीमी हो गई थी | परन्तु ज्यों ही स्कूटर हमारी गली में मुड़ा एक टक की आवाज के साथ स्कूटर का अगला पहिया जमीन में धंस गया | इस झटके से हम दोनों स्कूटर के ड्राईवर की पीठ से टकराते टकराते बचे | नीचे उतर कर देखा तो रूह कांपकर रह गई | स्कूटर के अगले पहिए का इकलौता नट टूट गया था और पहिया लुढक कर दूर जा गिरा था | यह सोचकर पूरा बदन काँप गया कि धौला कुआँ के रास्ते पर, जब हमारा स्कूटर पूरी रफ़्तार से भाग रहा था, अगर उस समय यह नट जवाब दे जाता तो हमारी क्या दशा होती | अगर उस समय ऐसा हो जाता तो इसमें शक नहीं था कि हमारी आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती | 
एक ही रात में तीन तीन बार मौत के मुहं में जाने से बच जाने का ख्याल आते ही हम दोनों के हाथ जुडकर आखों के साथ आसमान की और उठ गए और मुहं से निकला, परवरदिगार वास्तव में ही मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है | साथ ही साथ मेरे मन में ख्याल आया कि शायद मेरा बचाव मेरी धर्म पत्नी के मेरे साथ होने के कारण रहा था | क्योंकि एक बार मेरे साढू स्वर्गीय श्री राजेन्द्र कुमार ने उनका हाथ देखकर उनके बारे में टिप्पणी की थी कि ‘आपकी उम्र बहुत लंबी है, आप मारे नहीं मरोगी’ |         

        

Monday, February 5, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-41) अकेला

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-41) अकेला
प्रकृति अत्यंत सरल है | इसकी सभी क्रियाएँ बड़ी सरलता के साथ होती हैं | सूर्य का उदय होना, तारों का टिमटिमाना, नदियों का निरंतर बहना, हवा का चलना, वृक्षो का फूलना फलना, रात और दिन होना,पर्वत व चट्टानें बनना, प्राणियों में वंश वृद्धि इत्यादि सब कुछ स्वयं ही होता है | 
कहा गया है कि मनुष्य इस संसार में अकेला आता है और अपने जीवन का समय पूरा करने के बाद अकेला ही पाँच तत्वों में विलीन कर दिया जाता है | यह प्रकृति का नियम है कि एक औरत एक आदमी के सहवास से गर्भ धारण करती है और बच्चे को जन्म देती है | नवजात शिशु पहले अपनी माँ से जुडता है फिर अपने पिता से इसके बाद वह अपने भाई बहन तथा घर के अन्य सदस्यों से जुड जाता है | जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है उसकी दूसरों से जुड़ने की परिधी भी बड़ी होती जाती है | ज्यों ज्यों मनुष्य दूसरों की संगत में आता है वह मोह, माया, रिस्ते-नाते, आदर-सत्कार, अपना-पराया वगैरह की पहचान करने लगता है तथा उनके कई गुणों के साथ कुछ विकारों को भी अपना लेता है |
समय के साथ प्रत्येक के जीवन में बदलाव आता रहता है | राजा रंक हो जाते हैं तो रंक राजा बन जाते हैं | इसलिए जीवन में आने वाले बदलाव के लिए हर समय तैयार रहना चाहिए | ऐसी तैयारी से अचानक आए बदलाव अर्थात सुख या दुःख को मनुष्य आसानी से झेल लेता है | इसी आदर्श को अपनाने के कारण, अब हर प्रकार से समर्थ, मुझे कोई बड़ा झटका नहीं लगा जब धीरे से मेरे भतीजों ने एक समारोह में, जिसमें हमें एकता दिखानी चाहिए थी, मुझे अकेला छोड़ दिया |
वैसे भी मैं वर्त्तमान युग के प्रचलन का बहुत बारीकी से अध्ययन करके उसी अनुसार अपने व्यवहार को ढालता आया था | मैंने महसूस किया था कि आजकल के अधिकतर नौजवान दम्पतियों का दायरा अपने परिवार तक ही सीमित रह गया था अर्थात पति, पत्नी और उनके बच्चे | अपने जन्मदाता का भी उनके जीवन में अधिक महत्त्व नहीं रहता है | कुछ किस्सों में तो ऐसा भी हुआ है कि मरणोपरांत हर वर्ष भारतीय संस्कृति के अनुसार पंडित को अपने परिजनों की आत्मा की शान्ति के लिए भोजन कराना भी नागवार है | नौजवान इससे छुटकारा पाने के लिए ‘गया’ जाकर पिंडदान करके हमेशा के लिए अपने पूर्वजों से छुटकारा पा लेते हैं |
हुआ यूं कि श्री भगवान की अनुकम्पा से वह दिन भी आ गया, जिसकी सब ने आस छोड़ दी थी, जब मेरी छोटी बहन अनीता  के लड़के वरुण  का रिस्ता पक्का हो गया | वरुण  की शादी से पहले अनीता  की एक भाभी जी तथा एक जवान भतीज बहू का देहांत हो गया था | हालाँकि इन दोनों के यहाँ मरने वालों की तेरहवीं तथा वर्षी कर दी गई थी फिर भी  उनके यहाँ भात नौतने में वह सकुचा रही थी | मेरे भाई औम प्रकाश के लड़के लक्ष्मण से मेरे  तनाव पूर्ण रिस्ते थे | इसलिए उसके सामने यह समस्या आ गई कि भात कैसे तथा कहाँ नौता जाए |
एक दिन बातों ही बातों में अनीता  ने बताया कि आपसी मनमुटाव को दरकिनार करके लक्ष्मण भात सभी के एक साथ मिलकर भरने की इच्छा रखता है | इसे सुनकर मुझे आश्चर्य के साथ खुशी भी हुई | लक्ष्मण की इच्छापूर्ती के लिए सर्वसम्मति से तथा अनील की सहमती से, जिसकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था, यह तय हुआ कि अनीता  अनील के यहाँ आएगी और भात एक जगह नोत देगी | परन्तु भात नौतने के एक दिन पहले घटनाक्रम ने अप्रत्याशित मोड़ ले लिया | अनील ने अपने यहाँ भात नुतवाने में असमर्थता व्यक्त कर दी |
मैं अपने यहाँ भात नुतावा नहीं सकता था क्योंकि उसमें लक्ष्मण शामिल नहीं होता | और अगर अनील तथा राकेश उसके यहाँ आते तो लक्ष्मण अपने को अकेला महसूस करता | अत: यह फैसला लिया गया कि अनीता  सबके यहाँ अलग अलग चली जाए परन्तु भात सब मिलकर एक साथ भरेंगे |  फैसला यह भी हुआ कि जिसकी जो मर्जी रकम लगाए बाकी पूर्ति चरण सिंह कर देगा | वादे के अनुसार मेरे सभी भतीजे भात देने के समय एक जगह एकत्रित हो गए परन्तु अनीता  के अपने भाई-भतीजों को टीके करने के समय अचानक माहौल ऐसा दिखने लगा जैसे मेरा परिवार अकेला रह गया था |   
मेरे बचपन के दिनों में ‘बाप बड़ा न भईया सबसे बड़ा रुपय्या’ गाना बहुत प्रचलित था | जब मैंने जवानी में कदम रखा तो ‘कसमें वादे प्यार वफ़ा सब वादे हैं वादों का क्या, कोई नहीं है अपना जगत में नाते हैं नातों का क्या’ भी बहुत प्रसिद्द रहा था |
जब मैंने अपनी गृहस्थी शुरू की थी तो अपने दूसरे भाईयों से मेरी आर्थिक स्थिति कुछ कमजोर थी फिर भी हर सम्मिलित  कामकाज के लिए मैं अपने भाईयों के बराबर योगदान देता था | बहुत बार भाईयों के बीच आपसी मन मुटाव भी दुसरों के सामने अलगाव दिखाने का सबब नहीं बना | परन्तु आज २४ जनवरी २०१५ को अचानक ऐसा क्या हो गया था कि मैं अपने को अकेला महसूस कर रहा था | मैंने सोचा उसके सभी भतीजे आर्थिक दृष्टि से समर्थ थे, उनपर किसी प्रकार का दबाव भी नहीं डाला गया था, उन्होंने वादे भी किए थे, रिस्ता-नाता भी था फिर उनका एकजुट होकर उसे अकेला छोडने का क्या कारण हो सकता है |
मनुष्य के अंदर विराजमान आग में जीवन के लक्ष्य को पाने की एक अदभुत ललक होती है | परन्तु यह मनुष्य की सोच पर निर्भर करता है कि वह अपना लक्ष्य पाने के लिए ज्ञान व अज्ञान, पाप व पुण्य, सृजन व विधवंस, सफलता व असफलता, जीत व हार, संतोष व असंतोष. प्रेम व बैर, यश व अपयश, जुल्म व दया, अहंकार व सदभावना, दान व लालच इत्यादी में से किसका दामन थामता है |
बहुत चिन्तन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पुरानी कहावत के अनुसार ‘दो तो चून के भी भारी पड़ते हैं’ | यहाँ भी ईर्षा और कंजूसी ने मिलकर यह खेल खेला था और देखते ही देखते भेड़ों जैसा झुंड बना लिया था | परन्तु जैसे एक माँ अपने प्रत्येक बच्चे के चालचलन और मिजाज को अच्छी तरह जानती है उसी प्रकार मैं भी अपने भतीजों की रग रग से वाकिफ था अत: जब उन्होंने भात भरने के समय मेरा बहिष्कार सा कर दिया था तो मुझे कोई दु७ख नहीं हुआ बल्कि यह साफ़ पता चल गया कि भविष्य में उसे ‘खामाँ-खां’ की उपाधी लेने से बचना चाहिए |
ईर्षा एक मानसिक विकार है | ईर्षालू व्यक्ति मौन रहकर भी हानि पहुँचा सकता है | ऐसा व्यक्ति सामने वाले के हर कदम पर बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करता है तथा ऐसा करने में वह अपने को हर्षित महसूस करता है |  एक सामूहिक खर्च के हिस्से को देने से बचने के लिए एक कंजूस व्यक्ति हर संभव कोशिश करता है | वह ईर्षालू और नासमझ व्यक्तियों के कंधे पर बन्दूक चलाकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करने लगता है तथा ऐसे लोग उसके झांसे में आकर भेड़ की तरह उसका अनुशरण करने लगते हैं |  
अभिमान और ईर्षा की तरह नासमझी, लालच और कंजूसी मनुष्य के आतंरिक सौंदर्य, प्रेम, करूणा, सदाचार, तथा परोपकार को घृणा के बादलों से ढक देता है | इसके वशीभूत मनुष्य मान मर्यादा, इंसानियत, समबन्ध, रिस्ते नाते, सब कुछ भूल कर उनको दरकिनार कर देता है | परन्तु वह यह नहीं झुठला सकता कि ‘जाको राखे साईंया मार सके न कोय, बाल न बांका कर सके चाहे जग बैरी होय’ | और फिर यह तो विधी का विधान है कि जीव इस संसार में खाली हाथ अकेला आता है, किस्मत के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है और निश्चित समय पर खाली हाथ ही अकेला पंच तत्वों में विलीन हो जाता है |  ईर्षा, द्वेष, मोह, माया, लालच, कंजूसी, अभिमान, जैसे विकार मन में घृणा, जलन और चिंता को पनपाकर मनुष्य को अपनी उम्र से पहले ही चिता पर लिटाने का काम करते हैं अत: अपना विवेक जागृत रख कर ऐसे विकारों से लिप्त व्यक्तियों से बचकर अकेला रहना ही हितकर है | 
मेरे साथ यह गनीमत थी कि मेरे दोनों पुत्र अपनी माता जी की तरह पुरानी भारतीय संस्कृति के पक्षधर थे अत: घर का वातावरण बहुत ही सौहार्द पूर्ण बना रहता था | अपने पुत्रों के पूरे सहयोग के कारण भी मुझे अपने भतीजों का असहयोग ज्यादा खला नहीं | फिर भी यह सोचकर मुझे दुःख था कि उन्हें समझाने वाला कोई नहीं था कि एक प्रतिष्ठित परिवार के सदस्यों के आपसी सम्बन्ध टूटने की दलक पूरा समाज महसूस कर लेता है | जो किसी के लिए भी सुखद नहीं होता |
इसी सोच के मद्देनजर मैंने, रिश्ते में मेरे दामाद लगने वालों के कुछ टीके अपने भतीजे राकेश से करवाए |       
 




Tuesday, January 30, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्मकथा- 40) ऊंचे लोग

 जीवन के रंग मेरे संग  (मेरी आत्मकथा-  40) ऊंचे लोग
पुराने जमाने में समाज के कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिए लोगों ने आपस में काम बाँट लिए | इसके लिए क्षत्रियों को शहर की सीमा की रक्षा की जिम्मेदारी दी गई | वैश्यों का काम व्यापार को देखना था जिससे आर्थिक उन्नति हो सके | ब्राह्मणों को वैदिक कार्यक्रम तथा पूजा पाठ का जिम्मा सौंपा गया तो शूद्रों को साफ़ सफाई पर लगाया गया | परन्तु धीरे धीरे यह प्रावधान बच्चे के जन्म को प्रभावित करने लगा | जो जिस कुल मैं पैदा होता उसे मजबूरन वही कार्य करना पता था जो उसके पूर्वज करते आ रहे थे | आहिस्ता आहिस्ता समाज सदा के लिए चार वर्णों में बंट गया |
इसी प्रकार यह संसार धर्मों में विभाजित हो गया | भगवान ने तो इंसान बनाया था | इन्सान ने अपने आपको  हिंदू, मुस्लिम, शिख, ईसाई, पारसी इत्यादि धर्मों में विभाजित कर लिया | हालाँकि सभी मानते हैं कि सब का मालिक एक है फिर भी अपने अपने धर्म को सर्वोपरिय मानने की नियति किसी से छुट्ती नहीं | इतना ही नहीं इन्सान ने अपने अहंकार वश अपने को न जाने और कितने ही अनगिनित वर्गों में बाँट लिया | सबसे ज्यादा अहंकार लोगों के मन में उनकी अपनी आर्थिक स्थिति एवं ओहदों से पैदा हुआ | इसके तहत पूरा समाज उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा गरीब वर्ग में बंट गया | इन्हीं वर्गों से जुडा मुझे एक किस्सा याद आ रहा है |
हमारा एक मध्य वर्गीय परिवार था | गाँव में चार भाईयों के परिवार का रूतबा भी कम न था | औम प्रकाश की एक लड़की बचपन में ही पोलियो की शिकार हो गई थी | जिसकी वजह से उस लड़की का एक तरफ का अंग मारा गया | फिर भी शुक्र इतना रहा कि वह लकी अपने सारे काम अपने आप करने में सक्षम थी | वह थोड़ा लचक कर चलती थी | पोलियो से ग्रसित हाथ को दूसरे हाथ का सहारा देकर धीरे धीरे वह एक गृहिणी के सभी कार्य कुशल पूर्वक निबटा लेती थी | पोलीयो का असर उसकी जबान पर अधिक न था इसलिए बोलने में उसके शब्दों का उच्चारण बिलकुल साफ़ था | फिर भी अपंगता तो अपंगता ही होती है | और लड़की की अपंगता उसकी शादी की राह में बहुत बड़ा रोड़ा बन जाती है |
कहते हैं भगवान संसार के हर प्राणी के लिए जोड़ा जरूर भेजता है | एक दिन औम प्रकाश  ने अपने भाईयों के पास खबर भेजी कि उसकी लड़की के लिए लड़का मिल गया है अत: रोकने के लिए जाना है | अगर आप यह जानते हैं की आप जो कर रहे हैं उसे कोई भी सराहेगा नहीं तो बेहतर यही रहता है कि उस काम को करके ही दूसरों को बताया जाए चाहे वह अपना सगा ही क्यों न हो | इसी को बुद्धिमानी कहते हैं | ऐसी ही बुद्धिमानी औम प्रकाश  ने भी निभाई |
औम प्रकाश  अपने भाईयों को लेकर लड़के वालों के निवास स्थान के लिए चल दिया | गर्मी का मौसम था | रास्ता लंबा था इसलिए भौर में ही घर से निकल पड़े थे क्योंकि इस समय मंद मंद समीर चलने से मौसम सुहाना बना रहता था | सुबह सवेरे जल्दी चलने तथा समय पर वापिस लौटने के कारण जल्दी में सभी केवल चाय पीकर ही घर से निकले थे अत: रास्ते में नौ बजते बजते सभी भाईयों के पेट में चूहे कूदने लगे थे | यह समय ऐसा था कि किसी भी होटल पर चाय बिस्कुट के आलावा कुछ नहीं मिल सकता था | गाँव वालों की कहावत है कि ‘हाली के पेट सुवाली से नहीं भरते’ उन्हें तो भर पेट नहीं तो कम से कम पेट में कुछ असर करने लायक तो चाहिए ही |
औम प्रकाश  के भाई चरण सिंह की पत्नी का हमेशा से यह ध्येय रहा है कि जब भी घर से यात्रा के लिए निकलो तो अपने साथ खाने का जरूर कुछ बाँध कर चलो | जब उनको पता चला कि चार आदमी जाने वाले हैं तो उन्होने सुबह ब्रह्म बेला में उठकर चारों के लिए आलू के परांठे, चटनी, अचार एवं सब्जी बनाकर डब्बा अपने पति को थमा दिया था |
अपने भाईयों की एक आवाज के साथ ही मैंने एक होटल पर गाड़ी रूकवाई और अपनी पत्नी द्वारा दिया डब्बा खोल कर अपने भाईयों के सामने मेज पर रख दिया | डब्बे के खुलते ही आलू के पराठों की भीनी भीनी सुगंध के साथ आम के अचार की खट्टी खट्टी मन लुभावनी महक ने सभी की भूख को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया | खाने पर सभी ऐसे टूट पड़े जैसे न जाने कितने दिनों से भूखे थे | देखते ही देखते डब्बा पूरा खाली हो गया था | अपनी भूख से तृप्ती मिलने के बाद ही सभी को उसकी याद आई जिसके कारण उनको तृप्ती मिली थी |
सफर के रास्ते में औम प्रकाश  ने बताया था कि लड़का महिर्षी दया नन्द यूनिवर्सिटी के आधीन एक कालेज में प्रोफ़ेसर लगा हुआ था | वह भी उनकी लड़की की तरह अपंग है | उसे रोहतक में यूनिवर्सिटी की तरफ से एक बंगला मिला हुआ था | लड़के के पिता जी नेताओं की संगत में रहकर बड़े बड़े विभागों में उच्च ओहदों का पदभार संभाल चुके हैं | लड़के का बड़ा भाई हरियाणा सरकार में उच्चपद पर आसीन है | लड़के के दादा-दादी भी हैं और दो बहनें भी हैं जो शादी शुदा हैं | इसी तरह की और बातें करते करते हम चंडीगड़ पहुँच गए |
चारों भाई जब अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे तो औम प्रकाश  का होने वाला समधी, समधन एवं लड़के का बड़ा भाई इंतज़ार कर रहे थे | समधी, राधे श्याम गोयल उर्फ़ चौधरी, के माथे की शिकन दर्शा रही थी कि उन्हें हमारा इंतज़ार करना गले नहीं उतर रहा था परन्तु समय की नाजुकता को भांपते हुए उन्हें मजबूरन ऐसा करना प रहा था | शायद उन्हें इंतज़ार करवाने की आदत थी परन्तु आज पासा पलटा हुआ था | आज उन्हें खुद किसी का इंतज़ार करना पड़ गया था |         
राम राम श्याम श्याम तथा हलके जलपान के बाद लड़के को रोकने का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ | एक एक करके घर के सदस्य आकर ड्राईंग रूम में बैठने लगे | लड़के के दादा जी, दादी जी, माता जी, दो बहनें आ चुकी तो लड़का अपने दोस्त के साथ अंदर दाखिल हुआ | लड़का दोनों बगलों में बैसाखी का सहारा लेकर चल रहा था | उसके बैठने के लिए भी एक खास ऊंचा सिंघासन बनाया गया था क्योंकि वह जमीन पर ही नहीं बल्कि नीची कुर्सी पर भी नहीं बैठ सकता था | उसको देखते ही औम प्रकाश  के सभी भाईयों ने आपस में एक दूसरे की तरफ अचरज भरी निगाहों से देखा | उनकी भाव भंगिमा से जाहिर हो रहा था कि वे इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनकी भतीजी इतनी अपाहिज नहीं थी कि ऐसे व्यक्ति को जीवन साथी बना दिया जाए जो ठीक से चल भी न सके | परन्तु सभी अपनी जबान न खोलने के लिए मजबूर थे | क्योंकि उनको औम प्रकाश  अपने साथ केवल लड़का रोकने के लिए ले गए था | लड़का देख कर उसके प्रति अपनी राय प्रकट करने के लिए नहीं | भाईयों को तो मूक दर्शक बन कर वह सब करना था जो उनका भाई औम प्रकाश  चाहता था |     
सभी भाईयों का मत था कि औम प्रकाश  की लड़की की अपंगता को देखते हुए उसके लिए एक स्वस्थ वर मिलना मुश्किल नहीं था परन्तु शायद औम प्रकाश  को लड़के और उससे ज्यादा उसके पिता जी का रूतबा इतना पसंद आया कि उन्होंने सभी और से अपनी आँखें बंद करली और रिश्ता बना लिया | हालाँकि गोयल जी को भगवान का शुक्र गुजार होना चाहिए था कि उनके लड़के के लिए, जिसको हमेशा किसी के सहारे की जरूरत थी को, एक सुन्दर एवं शरीर से स्वस्थ के बराबर लकी मिल गई थी | परन्तु उनके के व्यवहार तथा भाव-भाव भंगिमा से ऐसा लगता था कि उन्हें अब भी अपने लड़के का रिश्ता एक मध्य वर्गीय परिवार से लेने का मलाल था तथा वे रिश्ता लेकर लड़की वालों पर  एक एहसान कर रहे हैं |  
वैसे तो कहा जाता है कि इस संसार में, ईश्वर के अलावा, सर्वगुण संपन्न व्यक्ति कोई भी नहीं है परन्तु शरीर से पूरक मनुष्य अनगिनित होते हैं | राधे श्याम जी के परिवार के सदस्यों को निहारने से ऐसा महसूस होता था कि उस परिवार में कोई भी व्यक्ति पूरक नहीं था | उनका खुद का बदन चिट्टा हो गया था, लड़का जिसकी शादी होनी थी पैरों से अपाहिज था, लड़के की बहन का चेहरा दर्शा रहा था कि वह दिमागी तौर पर स्वस्थ नहीं थी, बड़ा लड़का, जो हरियाणा सरकार में एक उच्च अधिकारी था, ने आजीवन ब्रम्हचारी रहने का प्रण कर लिया था | इसीलिए उसने अभी तक शादी नहीं की थी |
एक मनुष्य की असलियत या तो वह खुद जानता है या फिर उसका रचियता अर्थात भगवान | वैसे उसके घर वाले भी उसके बारे में बहुत कुछ जानते हैं परन्तु समाज में बात फ़ैलने के डर से उसकी बुराईयों तथा कमियों पर पर्दा डालने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं | ऐसा ही शायद बड़े लड़के राकेश के बारे में छुपाया जा रहा था |
राकेश के पास सभी सुख सुविधा होने के बावजूद उसने शादी नहीं की थी तथा न ही करना चाहता था | वैसे उसकी बोली का ढंग, चाल एवं हावभाव दर्शाते थे कि कहीं न कहीं उसके शरीर में कुछ कमी थी जिसे वह यह कहकर छुपाने की कोशिश कर रहा था कि उसने तथा उसके एक दोस्त ने आजीवन कुवांरा बना रहने की कसम खाई है |
कसम खाने या प्रण लेने का कुछ न कुछ तो कारण तो होना ही चाहिए जैसे भीष्म पितामह ने प्रण लिया था | भीष्म पितामह के पिता राजा शांतनु थे | उन्होंने भीष्म पितामह को युवराज घोषित किया हुआ था | एक बार राजा शांतनु वन में शिकार खेलने गए तो वहाँ शांतनु को एक लड़की, सत्यवती से आशक्ति हो गई थी | जब राजा ने सत्यवती के पिता से उसकी लड़की के साथ शादी की पेशकश की तो उन्होंने एक शर्त रखी कि राजा शांतनु के बाद अगर उसकी पुत्री सत्यवती का लड़का राज गद्दी का वारिश घोषित किया जाए तो वह ऐसा करने को तैयार है | शांतनु ऐसी शर्त मानने को राजी नहीं था |
समय के चलते भीष्म ने अपने पिता की उदासीनता तथा बिगड़ते स्वास्थ्य को भांपते हुए पता कर लिया कि उसका कारण वह खुद था | अपने पिता जी की खुशी के लिए भीष्म पितामह ने प्रण ले लिया था कि वह आजीवन कुवांरा रहेगा तथा राजगद्दी पर नहीं बैठेगा | जिससे उसके पिता सत्यवती से शादी कर सकें और सत्यवती की संतान ही राजगद्दी पर बैठे | और भीष्म पितामह ने पूरे जीवन अपना वचन नहीं तोड़ा |
परन्तु राकेश अपने प्रण लेने का कोई ठोस कारण नहीं बता पाता था कि वह शादी क्यों नहीं करना चाहता था इसलिए वह सभी के विचारों में शक के घेरे में था |          
औम प्रकाश  की लड़की की शादी दिसम्बर में होनी निश्चित हो गई | तय हुआ कि शादी चंडीगढ़ से होगी इसलिए वधु पक्ष के ठहराने आदि का इंतजाम वर् पक्ष को करना था | नेताओं को तैयारी तो कुछ करनी नहीं होती उनको तो बस जुबान हिलाने का काम होता है करने वाले तो उनके पिछलग्गू बहुत होते हैं | उनके एक इशारे से सारी सरकारी मशीनरी हरकत में आ जाती है और आनन फानन में सब तैयारियां मुफ्त में ही हो जाती हैं |
वधु पक्ष के लोगों के ठहराने का इंतजाम हरियाणा सरकार के गेस्ट हाऊस में किया गया था जबकि शादी  धर्मशाला में संपन्न होनी थी | नेताओं के बच्चों की शादी का समारोह निराला ही होता है | वहाँ असली हीरो-हिरोईन दुल्हा और दुलहन नही होते | उनकी और किसी भी मेहमान या मेजबान की खास तवज्जो नहीं होती | मेहमानों और मेजबानों को इंतज़ार रहता है बड़ी बड़ी हस्तियों के आने का | उनका तो एक ध्येय बन जाता है कि किसी तरह बड़े नेता के साथ उनका फोटो खिंच जाए | ऐसा ही माहौल इस शादी में भी देखने को मिला |
वर-वधू को आशीर्वाद देने हरियाणा के तत्कालीन मुख्य मंत्री आने वाले थे | इस वजह से वर पक्ष के सभी व्यक्ति उनकी आवभगत में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं छोडना चाहते थे | उनका ध्यान केवल मुख्य मंत्री की राह पर था | आए हुए रिश्तेदारों के लिए मेहमान नवाजी की तरफ से उन्होंने आँख लगभग भींच रखी थी | शायद वे सोच रहे थे कि एक तो लड़की वाले ऊपर से मध्य वर्गीय लोग, उन्हें उनकी फ़िक्र करके क्या मिलेगा परन्तु अगर किसी बड़े नेता की नज़रों में चढ गए तो वारे के न्यारे हो जाएंगे | इंतजाम सब था परन्तु मेहमानों के लिए मेहमान नवाजी करने वाला कोई नहीं था |       
औम प्रकाश  की लड़की की शादी सम्पन्न हो गई | वह ससुराल चली गई | ससुराल में उसको ‘भाग्यलक्ष्मी’ नाम से नवाजा गया | समय के साथ वास्तव में ही वह अपनी ससुराल के परिवार के लिए अपने नए नाम के अनुराम  ही  भाग्यलक्ष्मी साबित हुई | जिस घर में अभी तक कोई पूरक मनुष्य नहीं था भाग्यलक्ष्मी ने उस परिवार को दो सुन्दर रत्नों को जन्म देकर वशं बढोतरी में सहयोग दिया |
भाग्यलक्ष्मी अपने सास ससुर के साथ साथ अपने ददिया ससुर एवं ददिया सास का भी बहुत ख्याल रखती थी | घर में नौकर चाकर होने के बावजूद तथा खुद अपाहिज होने पर भी भाग्यलक्ष्मी अपने बड़ों की सुख सुविधा तथा बच्चों के लालन पालन का भार स्वंय सम्भाले हुए थी | धीरे धीरे बच्चे बड़े हुए और उन्होंने स्कूल जाना शुरू कर दिया | भाग्यलक्ष्मी इस दौरान ठाली रहने लगी | समय का सदुपयोग करने के लिए उसने स्कूल में अध्यापिका बनने की इच्छा जाहिर की | उसके ससुर के लिए उसे सरकारी स्कूल में नौकरी दिलाना कोई बड़ी बात नहीं थी | भाग्यलक्ष्मी की मनोइच्छा की पूर्ति कर दी गई |भाग्यलक्ष्मी के पति को रहने के लिए यूनिवर्सिटी की तरफ से उसके प्रांगण में एक बंगला मिल गया | इस तरह उनका जीवन बहुत खुशहाल चल रहा था |
एक दिन औम प्रकाश  ने, जिसका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं चल रहा था, मुझे बुलाकर कहा, भाई भाग्यलक्ष्मी की सास गुजर गई है |
कब ?
कल की तेरहवीं है |      
अच्छा ! तो कब जा रहे हो | मैं भी चल दूंगा |
औम प्रकाश  ने अपनी असमर्थता जताकर कहा, गर्मी बहुत पड़ रही है | मैं तो जा नहीं सकता क्योंकि पहले ही स्वास्थ्य ठीक नहीं है और अगर गया तो और लेने के देने पड़ने का खतरा है |
तो बताओ क्या करना है ?
तुम और तुम्हारा भतीजा चला जाएगा |
ठीक है हम दोनों चले जाते हैं | वैसे किस समय तथा कहाँ जाना है |
सिरसा जाना है |
सिरसा क्यों ?
क्योंकि भाग्यलक्ष्मी के ददिया सास एवं ददिया ससुर अपने पैतृक मकान में वहीं रहते हैं | और ददिया सास का देहावसान भी वहीं हुआ है |
रास्ता लंबा तय करना था इसलिए मैं अपने भतीजे लक्ष्मण के साथ अपनी गाड़ी में सुबह नौ बजे चल पड़ा जिससे ढाई बजे के लगभग सिरसा  पहुँच कर पगड़ी की रस्म में शामिल होकर रात तक अपने घर वापिस लौट सकें | गर्मी का मौसम, चिलचिलाती धूप, लू का प्रकोप, साधारण गाड़ी, लंबा रास्ता, सिरसा पहुँचने की जल्दी सब मिलाकर अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचते पहुंचते सबका बुरा हाल हो गया था |
धर्मशाला जहां रस्म पगड़ी होनी थी पुलिस वालों ने एक किले की तरह घेरा हुआ था | चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात थी | लंबी लंबी गाडियां जिन पर लाल बतियाँ चमकने के साथ साथ दिल दहला देने वाले हूटर की आवाज बता रही थी कि उनमें सरकार के उच्च अधिकारी हैं एक के पीछे एक आ रही थी | इन गाड़ियों के लिए रास्ता साफ़ कर दिया जाता था | जितनी बड़ी गाड़ी, उसके अंदर बैठने वालों को पुलिस वालों के उतने ही अधिक सैल्यूट मिल रहे थे | छोटी गाड़ी में आने वाले मेहमानों की कोई कदर नहीं थी फिर भला हमारी कैसे होती | वैसे भी जब अपने रिश्तेदार ही अपनों का आदर न करें तो दूसरा तो उन्हें पहचानेगा भी नहीं |
पुलिस वालों की पैनी तथा तीखी नज़रों को झेलते हुए हम धर्मशाला में जाकर ऐसे बैठ गए जैसे चलता फिरता कोई व्यक्ति मरने वाले के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करने के लिए थोड़ी देर ठहर जाता है | उस अनजान व्यक्ति की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता तथा उसकी कोई अहमियत नहीं होती | काम पूरा होने के बाद वह चुपचाप वहाँ से निकल जाता है |
मुझे वहाँ रस्म पगड़ी का एक नया ही रिवाज देखने को मिला | पगड़ी केवल उसे ही नहीं बांधी जा रही थी जिसने मरने वाले को दाग दिया था परन्तु सभी पगड़ी देने वाले व्यक्तियों को अपने अपने मेहमानों को ही पगड़ी देनी थी | लिहाजा हमारी पगड़ी की भेंट भाग्यलक्ष्मी के पति को गई |   
हम सुबह घर से जो थोड़ा बहुत नाश्ता करके चले थे अभी तक उस पर ही थे | देहली से सिरसा तक हम यही सोचकर रास्ते में कहीं नहीं रुके कि पगड़ी के नियत समय पर पहुँचने में कहीं देर न हो जाए | वैसे हमने अच्छा ही किया अन्यथा देरी हो ही जाती और पछताना पड़ता | रस्म पगड़ी होने के बाद भाग्यलक्ष्मी के अनुरोध पर हम दोनों उनके पैतृक मकान को देखने चले गए |
जिस गली में उनका मकान था अब वह पूरा बाजार अर्थात मार्किट बन चुकी थी | वहाँ पुराने जमाने की हवेलियों की जगह वर्त्तमान युग की नामी कंपनियों के शोरूम बन गए थे | इक्का दुक्का हवेली ही बची थी जो अपना सिर ऊंचा किए अपनी पुरानी शान दिखा रही थी | इनमें से एक भाग्यलक्ष्मी की ससुराल भी थी | अंदर बीच में लंबा चौड़ा दलान, दलान में खुलता एक शहंशाही दरवाजा, दालान के चारों तरफ बड़े बड़े कमरे, मेहमानों के बैठाने के लिए एक लंबी चौड़ी बैठक तथा पुराने जमाने की याद ताजा कराते हुए बैठने के लिए मुढे, कुर्सियां तथा मेज |
हम जाकर हवेली की बैठक में बैठ गए | उस समय वहाँ पहले से ही एक और व्यक्ति बैठा था | हमें आया देख भाग्यलक्ष्मी तीन कप चाय तथा एक प्लेट में कुछ नमकीन लाई तथा कहकर चली गई कि हम तीनों नाश्ता कर लें | मैंने उस अनजान की तरफ चाय की मेज पर चलने का इशारा ही किया था तथा खुद उठकर मेज की तरफ जाने का उपक्रम करने का मन बनाया ही था कि श्री राधे श्याम गोयल जी अपने दो मित्रों के साथ बैठक में दाखिल हुए | वे सीधे चाय की मेज पर आकर बैठ गए | उन्होंने ने एक एक कप अपने साथियों के सामने खिसका दिया तथा तीसरा कप स्वंयम लेकर चाय की चुस्कियां लेने लगे |
कमरे में खड़े तीन अन्य लोगों की तरफ देखकर भी उन्होंने उनकी उपस्थिति का आभाष करने की कोई जरूरत नहीं समझी | शायद वे इंसान, अपने रिश्तेदार, सगे संबंधी तथा इंसानियत से ज्यादा अपने ओहदे को अहमियत देते थे | तभी तो उन्होंने ईर्षा वश अपने मेहमानों को अनदेखा करके यह भी पूछना उचित नहीं समझा कि वे भी चाय लेने में उनका साथ दें | बैठक में पहले से ही मौजूद तीन व्यक्ति और तीन ही कप चाय के प्यालों को देखकर भी उन्होंने इतना भी नहीं सोचा कि उनके आने से पहले ही मेज पर चाय के प्याले कैसे सज गए थे | शायद उनके मन में ऊंचे लोगों की परिभाषा यही थी कि किसी काम न आने वाले व्यक्ति को, चाहे वह अपना हो या पराया, नजर अंदाज करना ही बेहतर होता है | इस प्रकरण ने राधे श्याम जी के आचरण का चिट्ठा खोल दिया था |
मैनें चोर नज़रों से देखा कि भाग्यलक्ष्मी बाहर दालान में अपने मन में कुछ परेशान सी एक छोर से दूसरे छोर की फेरी लगा रही है | वह पिंजरे में बंद एक शेरनी की तरह बेचैन नजर आ रही थी | उसका सारा ध्यान हमारी बैठक में हो रही गतिविधियों पर केन्द्रित था जैसे वह अपने ससुर के उसके अपने पीहर वालों के प्रति ईर्षालू व्यवहार से वाकिफ थी तथा उनके अपने मेहमानों के साथ वहाँ आ जाने से क्या घटित होने वाला है | जब भाग्यलक्ष्मी ने देख लिया कि उसके ससुर अपने मेहमानों को अनदेखा करके चाय की चुस्कियां लेने लगे हैं तो उससे यह बर्दास्त न हुआ | वह तुरंत आई और उस(हमारे लिए अनजान) व्यक्ति, अपने भाई एवं मुझे कहा, आप मेरे साथ अंदर चलिए |
इस पर गोयल जी ने अपनी पुत्र वधु की तरफ नफ़रत भरी निगाहों से ऐसे देखा जैसे कह रहे हों, तुम्हारी और इनकी हैसियत ही क्या है जो हमारे साथ बैठ सकें |
अहंकार एक प्राकृतिक भाव है जो मनुष्य में हमेशा रहता है | मनुष्य अपने पद, प्रतिष्ठा, धन, बल, विद्या, राम  और यौवन प्राप्त हो जाने पर अमूमन अहंकारी हो जाता है | अहंकार मनुष्य के आतंरिक सौंदर्य, प्रेम, करूणा, सदाचार, तथा परोपकार को घृणा के बादलों से ढक देता है | अहंकार के वशीभूत मनुष्य मान मर्यादा, इंसानियत, समबन्ध, रिस्ते नाते, सब कुछ भूल कर उनको दरकिनार कर देता है | और अहंकार से उपजती है ईर्षा |        
कहना न होगा कि भाग्यलक्ष्मी ही ऐसी लड़की थी जिसने गोयल जी की वंश बेल को सुचारू रूप से आगे बढ़ाया था | फिर भी उनके व्यवहार से ऐसा लगता था कि वे भाग्यलक्ष्मी के शुक्रगुजार होने की बजाय उसकी तथा उसके मेहमानों की तरफ हीन भावना से देखते थे | शायद उनका मत था कि भाग्यलक्ष्मी के परिवार में उनकी हैसियत की समानता वाला एक भी व्यक्ति नहीं है | उनके लिए इंसानियत कोई मायने नहीं रखती थी | वे अपने मद में चूर आपसी संबंधों को कोई मान्यता नहीं देना चाहते थे | ईश्वर की कृपा तथा भाग्यलक्ष्मी के गुण एहसान की तरफ से उन्होंने आँखें बंद कर ली थी | उनके विचार में मध्य वर्ग के आदमी की लड़की भाग्यलक्ष्मी को अपने घर की बहू बना कर उन्होंने उस पर बहुत बड़ा उपकार किया था | 
यहाँ आने से पहले एक दो बार मेरी मुलाक़ात भाग्यलक्ष्मी के पति ऋषी  से हो चुकी थी | उनकी बोलचाल, व्यवहार, मान मर्यादा रखने का सलीका इत्यादि परखने के बाद मन में जो दुविधा उन्हें पहली बार देखने के बाद उठी थी वह समाप्त प्राय: हो चुकी थी | जब भाग्यलक्ष्मी के कहने से हम अंदर कमरे में पहुंचे तो वहाँ ऋषी  के साथ उसके चार चचेरे भाई पहले से ही विद्यमान थे | चाय के दौर के साथ उनमें बातें शुरू हो गई |
ऋषी :-राहुल अब आप अमेरिका में किस ओहदे पर काम कर रहे हो ?
मैं कंपनी का वाईस चेयर मैंन हूँ | इस बार आऊँगा तो आपको चेयर मैंन बनने की खुशखबरी मिल जाएगी |
कितना कुछ मिल जाता होगा ?
राहुल ने बड़े व्यंगात्मक आवाज में बताया, उसकी क्या पूछते हो ? बंगला, गाड़ी, नौकर चाकर इत्यादि सभी कुछ तो है |बहुत मस्ती की जिंदगी कट रही है |
ऋषी :-और अपनी सुनाओ संजय ?
मुझे भी किसी बात की कोई कमी नहीं है | अब आया हूँ तो दस लाख छोड़कर जाऊंगा | इसी से अंदाजा लगालो कि जब डेढ़ साल में इतना है तो क्या कुछ मिलता होगा |
दीपक अपने आप ही बोल उठा, मेरी स्थिति तो आप सभी से छुपी नहीं है कि मैं किसी से कम नहीं |
दीपक के कहने पर सभी जोर का ठहाका लगाते हैं परन्तु मुझे उनमें मियाँ मिट्ठू बनने की गंध महसूस हुई | और इसके बाद ऋषी  ने जो कहा उससे तो मैं अचम्भित रह गया तथा सोचने लगा कि क्या यह वही ऋषी  है जिसके कुशल व्यवहार ने मेरे दिल में उसके परिवार वालों से अलग प्रशंशात्मक जगह बना ली थी | ऋषी  ने कहा, भाई हमारे सभी चाचा, ताऊ तथा बुआ आदि के परिवार में किसी के पास किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है | सभी अच्छे एवं उच्च ओहदों पर काम कर रहे हैं | हममें से किसी ने कभी भी बाहर वाले से किसी भी सहायता की गुजारिश नहीं की | परन्तु न जाने क्यों लोग हमारे पास आकर अपनी सिफारिश के लिए गिड़गिडाते हैं | वे अपने संबंधों का नाजायज फ़ायदा उठाना चाहते हैं | वे सोचते हैं कि हींग लगे न फटकरी रंग चोखा हो जाए | अर्थात हमारी सिफारिश से उन्हें पकी पकाई मिल जाए | इतना कहकर ऋषी  ने मेरी और ऐसे देखा जैसे पूछ रहा हो, क्यों मैं सही कह रहा हूँ न ?
उन दिनों मेरा लड़का पवन देहली में एक प्राईवेट कंपनी कॉम्पैक कम्प्यूटर में काम कर रहा था | उसने हार्डवेयर में कमप्यूटर का डिपलोमा किया हुआ था | वह किसी सरकारी संस्थान में नौकरी करने का इच्छुक था | उसकी इस बारे में कभी ऋषी  जी से बात हुई होगीं | ऋषी  ने कहा था, HSIDC में अगर भर्ती होती हों तो बता देना | वह अपने पिता जी से कहकर उसका काम करा देंगे |
मैं अपने मन में यह धारणा बना कर गया था कि अगर मौक़ा मिला तो मैं ऋषी  को पवन के साथ हुई बातों का समरण करा दूंगा क्योंकि HSIDC में भर्ती होनी थी | परन्तु यहाँ के रंग ढंग तथा पिता बेटे की विचारधाराओं को परखते हुए मैनें कुछ भी कहना उचित नहीं समझा | ऐसे घुटन भरे माहौल में एक कप चाय भी मेरे कंठ से नीचे न सरक सकी |    
शाम के चार बजे तक आने वाले सभी विदा हो चुके थे | हम भी वापिस चल दिए | ऋषी  और भाग्यलक्ष्मी को भी वापिस रोहतक आना था अत: वे भी अपनी गाड़ी में हमारे साथ ही चल दिए | रास्ते में ऋषी  के आचरण में अप्रत्याशित बदलाव आ गया था | उसने बड़े ही नम्र एवं कोमल भाव से हमें अपने घर चलने का निमंत्रण दिया | जिसे मैं यह सोचकर टाल न सका कि कुछ स्थान, कुछ संगत तथा कुछ लम्हे ऐसे होते है जिससे मनुष्य की मति मारी जाती है | ऐसे में अहंकार की देन ईर्षा वश उसे सुध नहीं रहती की वह किसके सामने क्या कह रहा है | गोयल जी  के बारे में तो मैं कुछ कह नहीं सकता परन्तु सिरसा में ऋषी  के साथ शायद ऐसा ही कुछ हुआ था | अन्यथा वह ऐसा न था |
वापिसी में रास्ते भर क्या अब भी जब कभी सिरसा की याद आ जाती है तो मेरा मन एक अजीब सी उत्सुकता से भर जाता है | मैं कई प्रशनों का उत्तर ढूँढना चाहता हूँ परन्तु ढूंढ नहीं पाता | क्या आजकल सभी लोग ऐसे होते हैं जो अपने ओहदे, अपनी दौलत, के मद में इतने लिप्त हो जाते हैं कि वे ईर्षावश अपने रिश्ते नाते यहाँ तक कि इंसानियत को भी भूल जाते हैं |