Wednesday, September 30, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (ठूंठता का अंत)

 ठूंठता का अंत

एक बार करण के जीजा जी ने उससे कहा था कि आपसी संबंधों में नाराजगी या मन मुटाव सदा के लिए बना नहीं रहता | कभी न कभी ऐसी घटना घटती है कि वह आपसी नाराजगी का अंत कर देती है तथा दोनों गुटों के बीच आपसी प्रेम फूट पड़ता है |‍ 

उनके ऐसा कहने पर अपने मन में कुंती के परिवार की तरफ से मन में भारी दुविधा के चलते मैनें उनसे प्रश्न किया था, “अगर किसी व्यक्ति की एक ठूंठ की तरह, जिसमें चेतना ही न हो अर्थात जिसकी आदत बन जाए कि वह हर बार गलती करे और फिर अपनी गलती का एहसास भी न करे तब प्रेम भाव कैसे उमड़ेगा ?”

इस पर मेरे जीजा जी ने एक साधू की तरह कहा था, “अगर आपका अहित न हो तो आप उस ठूंठ को हमेशा सींचते रहो | भगवान उसे कभी न कभी हरा कर ही देंगे और वह लहलाते हुए आपका अभिवादन करने को तैयार एवं लालायित हो जाएगा | यह परम सत्य है | इसे ही समय का परिवर्तन या ऊपर वाले का चमत्कार कहते हैं |”

एक दौर होता है उस समय जो कुछ हम करते हैं उसी को आख़िरी सत्य मान लेते हैं | हमें लगता ही नहीं कि दूसरे की सुन लेनी चाहिए | इस स्थिति में यह सोचना भी नहीं चाहते कि हम अपनी राह में सही हो सकते हैं लेकिन एक राह केवल वही है यह तो ठीक नहीं है | दूसरे की राह भी तो आजमा कर देख लेनी चाहिए | अपनी गलती न मान कर अपनी बात पर अङने का मतलब है अटक जाना और अटका हुआ आदमी ठूंठ के सामान हो जाता है | 

तब जब एक वर्ष पहले कुंती ने जो किया था उस पर ‘मुझे इस बात का अफसोस नहीं था कि मैं चुप क्यों रहा | बल्कि इस बात का था कि मेरा बेटा (प्रवीण) बोल क्यूं पड़ा था’|

परन्तु इस बात पर गहन विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जिस व्यक्ति का स्वभाव ही बार बार गलती करने का बन गया हो उसे सही राह पर लाने के लिए कभी कभी सामने वाले का अदब से बोलना भी कारगर सिद्ध हो जाता है | इस सोच के बाद मेरे मन से अपने बेटे के द्वारा अपनी मौसी के प्रति आचरण पर कोई खेद नहीं रहा |   

कहा गया है कि अशव सवार ही गिरने का अनुभव जानता है और गिरकर ही उससे संभलना सीखता है | और जब संभलना सीख जाता है तो फिर उसे घुडसवारी में खूब मजा आने लगता है | जिसने घुडसवारी ही न की हो वह क्या गिरेगा | ठीक इसी प्रकार कुछ करने वाला ही गलती करता है परन्तु जो अपनी गलतियों को पहचान कर समय पर उसका निवारण कर ले वही स्वछंद एवं खुशहाल जीवन जी सकता है | अन्यथा कोई कितना भी पत्थर दिल इंसान हो गलती करने वाला अपने को अंदर से दोषी महसूस करता रहता है | और यही भावना उसे ग्लानी और चुभन देती रहती है |

एक वर्ष बीत गया था | इस दौरान करण और कुंती के परिवार के बीच किसी प्रकार का कोई आना जाना नहीं हुआ था | यहाँ तक कि दूरभाष पर भी कोई वार्तालाप नहीं हुआ | उनके साथ साथ अच्छ्नेरा वालों ने भी शायद करण के परिवार से कन्नी काट ली थी | अचानक एक दिन रात को दस बजे के लगभग अच्छनेरा से करण के पास  टेलीफोन आया, “आपको कुछ खबर है ?”

“किस बात की ?”

“नौएडा की ?”

“मुझे तो पता नहीं कि वहाँ एक साल से क्या हो रहा है, यह तो आप भी बखूबी जानते हो |”

थोड़ी देर की चुप्पी रहने के बाद करण ने फिर कहा, “वैसे आप से तो उनका विचार विमर्श होता ही रहता है फिर मेरे से आप क्यों ऐसा सवाल कर रहे हैं ?”

“नहीं...वो..तो..ठीक है | फिर भी बात ऐसी है कि शायद आपको पहले पता लग गयी हो |”

“नहीं मुझे किसी बात का नहीं पता |”

“पता चला है कि माया की तबियत ज्यादा खराब है |”

“आपको सूचना कहाँ से मिली ?”  

“अशोक का टेलीफोन आया था |”

“क्या कह रहा था ?”

“यही कि माया की तबियत अचानक बिगड़ गयी है और वह अस्पताल में भर्ती है |”

“तो आपका क्या कहना है |”

“उसका पता कर लेते |”

“पता करने की तो कोई बात नहीं है कर ही लूंगा | परन्तु इस समय मेरे पास वहाँ का फोन नंबर नहीं है |”

फिर जैसे करण को कुछ याद आया हो उसने कहा, “वैसे आप के पास उनका नंबर तो है तो क्यों न आप पूछकर मुझे भी सारी स्थिति बता दें |”

इसके बाद टेलीफोन कट गया | जब करण ने संतोष को टेलीफोन के बारे में बताया तो वे बेचैन सी हो उठी | हांलाकि उन्होंने कहा भी तथा उन्हें मलाल भी था कि हम नजदीक होते हुए भी हमें किसी बात की सूचना नहीं है फिर भी मन मुटाव को त्याग संतोष ने करण को अशोक के पास फोन करने को कहा |

करण ने रात के ग्यारह बजे फोन पर अशोक से पूछा, “क्या बात है ? पता चला है कि माया की तबियत कुछ ज्यादा खराब है ?”

“हाँ फूफा जी उसने आत्म ह्त्या कर ली है ?”

“अब कहाँ है ?”

“अस्पताल में है आप आ जाओ |”

“मैं इस समय गुडगांवा में हूँ | पवन कावङ लेने हरिद्वार गया हुआ है | अतः मैं तो सुबह ही आ पाऊंगा |” 

सुबह जितनी जल्दी हो सकता था करण एवं संतोष अस्पताल पहुँच गए | जैसा की ऐसे मामलों में अक्सर होता है | एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगने लगे | गरमा गर्मी भी हुई परन्तु आखिर में लाश को अग्नि के हवाले कर दिया गया | दाह संस्कार करके सब अपने अपने घर को विदा हो गए | अस्पताल तथा शमशान घाट पर सभी मौजूद थे परन्तु वहाँ का माहौल पेचीदा होने के कारण कहो या फिर अभी भी एक ठूंठ की तरह अपने मद में चूर होने से आपस में किसी ने कोई बात नहीं की | इसके बाद इतना अवश्य हुआ था कि कुंती ने एक बार फोन पर  संतोष से बात करने की इच्छा अवश्य जाहिर करी थी | जिससे लगा था कि कुंती के व्यवहार में कुछ परिवर्तन आने के लक्षण नजर आ रहे हैं | 

शायद कुंती का विवेक जाग्रत होने लगा था | और विवेक के जाग्रत होने से ही मनुष्य अपने अंदर अपनी की गयी गलतियों के प्रति ग्लानी और चुभन महसूस करता है | फिर विवेक गलती करने वाले के मन में सजगता पैदा करता है | यही सजगता मनुष्य को समर्पण करने को उकसाती है और अगर व्यक्ति विशेष समर्पण करने में कामयाब हो जाता है तो वह ग्लानी और चुभन से मुक्त हो जाता है | मुक्ति मिलने का अर्थ है द्वेष भाव, घृणा, निंदा, अहंकार आदि विकारों का समाप्त होकर प्रेम भाव, प्रसंशा, लगाव, एवं सुखद मेल मिलाप हो जाना है |     

समय के साथ कुंती ऐसे दो राहे पर आकर अटक गयी थी जहां से उसके पास अब केवल एक ही विकल्प बचा था | पहले अपनी बातों पर अडिग रहकर वह ठूंठपन का रास्ता आजमा चुकी थी अब तो उसे समाज में जगह पाने के लिए अपनी गलतियों को मान लेना ही हितकर लगने लगा था | करण के विचार से कुंती के इस मानसिक परिवर्तन के कई कारण रहे होंगे |

१.कुंती के लड़के सागर की शादी हो जाने से और सागर के घर मे रहते हुए भी अब उसे सारी रात अकेले ही गुजारनी पड़ती थी | पहले तो वह किसी को, किसी प्रकार तथा कैसे भी अपने बेटे सागर पर हक जमाने या उसकी सहायता करके उस पर एहसान चढाने का कोई मौक़ा नहीं देती थी यहाँ तक कि वह किसी रिश्तेदार की परछाई से भी अपने बेटे को बचाकर रखती थी परन्तु अब वह उनके पति-पत्नी के रिस्ते को कैसे नकार सकती थी | रात का अकेलापन उसे काटने को दौड़ता होगा तथा सन्नाटा उसे अपनी पुरानी करनी का विशलेषण करने पर मजबूर करता होगा |  

२.कुंती की पुत्र वधु भी नौकरी करती थी इसलिए कुंती को अधिकतर समय अकेले ही बिताना पड़ता था | उसकी पुत्रवधू गर्भवती भी हो गयी थी | उसे चिंता सताने लगी होगी कि उसके किसी के साथ भी मधुर सम्बन्ध नहीं हैं अतः समय पर उसकी देखभाल कौन करेगा |

३.उसकी एकमात्र वफादार तथा सहारा माया, जो अशोक की पत्नी थी, ने आत्म ह्त्या कर ली थी इसलिए कुंती के दुःख दर्द को बांटने वाला कोई नहीं बचा था |

४.सागर की पत्नी शीतल के स्वाभाव को पहचान कर कुंती को यह सोचकर अपने पर ग्लानी होने लगी होगी कि दोनों औरतों के स्वभाव में कितना भारी अंतर है | 

५.कुंती को खुद यह भी एहसास होने लगा होगा कि उसकी बहन और छोटे जीजा जी ने उसके साथ क्या बुरा किया था जो वह उनके साथ ऐसे पेश आ रही है |

६. हो सकता है कि उसकी पुत्रवधू शीतल ने बड़ी शीतलता से कुंती को समझाया हो कि उसकी मौसी जी के व्यवहार में उसे कोई कमी नजर नहीं आई है | फिर नाहक क्यों कुंती ने उनसे बिछोह कर लिया तथा कुंती पर कोई जवाब न बना हो |

खैर कारण कुछ भी रहा हो | बड़े मनुष्य का अपने मुंह से माफी मांगना बहुत मायने रखता है क्योंकि बच्चों को भी माफी माँगने में दिक्कत होती है | शायद जीवन में पहली बार ऐसा हुआ था कि कुंती ने किसी से अपनी गलतियों पर रोते हुए माफी माँगी थी | कुंती का करण, संतोष एवं प्रवीण से माफी मांगना एक करिश्में से कम नहीं था | यही नहीं सागर का अपनी माँ का अनुशरण करना भी एक मिशाल थी | 

हालांकि कुंती के अब तक के आचरण के मद्देनजर करण का मन इस बात को नकार पाने में अपने को असमर्थ महसूस कर रहा था कि कहीं कुंती के ये आंसू भी घडियाली आंसू तो नहीं क्योंकि उसने ऐसे समय एवं परिस्थितियों  में यह सब किया है जिससे मेरे क्या प्रत्येक किसी के मन में भी यही शंका लाजमी उपजेगी |  

हुआ यूं कि एक दिन अछनेरा से भैरवी का फोन आया | उसने पूछा, “मौसी जी हैं क्या ?”

भैरवी का अचानक अपनी मौसी को याद करना करण को दाल में कुछ काला नजर आया | संतोष मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं रहती है करण ने यही सोचकर कि भैरवी शायद कुंती के साथ घटित पुरानी बातों को कुरेदना चाहती है जिससे संतोष के दिमाग पर बुरा असर पङ सकता है, कह दिया कि वह घर पर नहीं है | 

अगले दिन पार्वती का फोन आया | उन्होंने कहा, ”कुंती के पैर की हड्डी टूट गयी है | संतोष से कह देना कि वह उससे मिल आए क्योंकि कुंती संतोष की याद करके रो रही है |”

पार्वती की सूचना पाकर करण सोचने लगा कि आखिर कुंती की तरफ की हर खबर मेरे पास अछनेरा की और से घूम  कर ही क्यों मिलती है | माया की आत्म ह्त्या की खबर भी उनके द्वारा ही मिली थी और अब कुंती की सूचना भी वे ही दे रहे हैं | जबकि अशोक, कुंती एवं सागर तीनों के पास ही हमारा सभी का टेलीफोन नंबर है | वे सीधे हमें फोन क्यों नहीं करते | क्या उनकी गलतियों की ग्लानी और चुभन हमें फोन करते हुए उनके गले में अटक जाती है जो हमारे सामने उनकी आवाज को अवरुद्ध कर देती हैं | या फिर वे हम से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते तो पार्वती क्यों हमको उनके बारे में अवगत कराती रहती है |                  

इतने में सागर का फोन आया | वैसे तो करण उससे बात न भी करता परन्तु जब कुंती के पैर की बात का पता ही चल गई थी तो यही सोचकर कि ‘दुःख में अपनों को ही याद किया जाता है’ करण ने बात करना ही उचित समझा “हैलो |”

मौसा जी मैं सागर, “नमस्ते |”

“नमस्ते ! कहो क्या बात है ?”

सागर ने एक ही सांस में कह डाला, “ममी जी के घुटने की हड्डी टूट गयी है, वे मैक्स अस्पताल नौएडा में भर्ती हैं, कल सुबह आपरेशन होगा, उनकी इच्छा है कि आपरेशन से पहले एक बार मौसी जी से मिल लें |”

करण ने जवाब दिया, “ठीक है मैं बता दूंगा |”

और जब सागर की बात करण ने संतोष को बताई तो उनके भाव ऐसे बदल गए जैसे उन के मन की कोई मुराद पूरी हो गयी हो | काफी देर तक वे हाथ जोड़े भगवान की स्तुति की मुद्रा में खड़ी रही | उनके मुरझाए रहने वाले चेहरे पर नूर उभर आया था | अपनी बहन को दुःख में झूझते रहते जानकर भी संतोष का मुख मंडल खुशी के कारण खिल उठा था | संतोष से अपनी खुशी छिपाए नहीं छुप रही थी | 

करण ने उसकी खुशी का राज जानते हुए भी पूछा, “क्या बात है अपनी बहन की दुःख की बात सुनकर भी तुम जरूरत से ज्यादा खुश नजर आ रही हो ?” 

“आपने बात ही ऐसी बताई है |”

“मैनें तो दुःख की बात बताई है |”

“भगवान ने बिछ्ड़े हूओं को मिलाने का शायद यही रास्ता उचित समझा है |”

“तो क्या तुम......?”

करण की बात का आशय समझ कर संतोष फट से बोली, “हाँ अवश्य मिलने जाऊंगी | जब उसने याद किया है चाहे दुःख में किया या सुख में किया | वैसे भी यह तो प्रचलित कहावत है कि दुःख में सुमरिन सब करें सुख में करे न कोई |”

करण ने एक बार फिर कोशिश करनी चाही, “वो तो ठीक है परन्तु....?”

“परन्तु वरन्तु कुछ नहीं | मेरा असूल रहा है कि अगर कोई याद करता है तो एक बार को सुख में बेशक मत जाओ परन्तु दुःख की घड़ी में अवश्य जाना चाहिए |” 

करण ने अपना समर्पण करना ही उचित समझा इसलिए कहा, “ठीक है कल सुबह सुबह चलेंगे |”

करण के सुबह कहने से संतोष कुछ सोच में पड़ गई | शायद वह सोच रही थी कि सुबह होने में तो अभी बहुत देर है | या हो सकता है कि सुबह कुंती के आपरेशन से पहले अस्पताल में पहुँचने में देर हो जाए और कुंती अपने दिल के हाल मुझे बता न सके | इसलिए उसने सलाह दी, “जी, अभी चलते हैं |”

करण ने घड़ी दिखाकर कहा, “रात के दस बज गए हैं |”

“तब क्या हुआ रात अपनी है |”

करण ने रात को जाने से टालने की कोशिश की, “बाहर ठण्ड भी काफी है |”

 इतनें में प्रवीन आ गया तथा उसने अपना मत प्रकट किया कि अभी जाना ठीक रहेगा | संतोष के लिए यह सोने पर सुहागा जैसी बात हो गयी |अब दो के आगे एक मत को तो हारना ही था | वैसे सच्चाई यही थी कि मेरी दिली इच्छा भी यही थी कि मैं इस मामले में हार जाना चाहता था |  क्योंकि किसी कीमत पर भी मैं संतोष के मन के उफान को दबाना नहीं चाहता था | मैं प्रत्यक्ष देख रहा था कि जो स्वास्थ्य लाभ उन्हें एक साल की दवाई खाने के बाद भी न हो सका था उससे कहीं अधिक लाभ उनको उनकी बहन की दुःख भरी सूचना ने कर दिया था | 

अपनी बहन की खबर सुनते ही संतोष उससे मिलने को इतनी बेताब तथा आतुर हो गयी थी कि उसके पैरों से स्थिरता समाप्त प्राय हो गयी थी | ऐसा लग रहा था कि जैसे वह बिना कोई वक्त गवाए उडकर अपनी बहन के पास पहुंच जाने को आतुर थी |   

संतोष, प्रवीण तथा करण रात के ग्यारह बजे मैक्स अस्पताल पहुँच गए | दर्द से निढाल कुंती पलंग पर लेटी थी | अपनी बहन को देखते ही कुंती की आँखो से अश्रुधारा बहने लगी | उसने अपनी दोनों बाहें फैला दी | संतोष के पास आते ही कुंती ने उसका हाथ जकड कर पकड़ लिया तथा बार बार अपनी गल्तियों का इजहार करते हुए माफी माँगने लगी | इसके बाद कुंती ने करण से तथा प्रवीण से भी माफी माँगने में कोई परहेज या शर्म महसूस नहीं की थी | कुंती को प्रवीण से माफी माँगते देख करण को बहुत अटपटा सा लगा तथा उसने कुंती को ऐसा करने से मना कर दिया | सागर ने भी अपनी मम्मी का अनुशरण करते हुए सभी के चरण छूने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की थी | 

कुंती के आचरण से भरोसा हो रहा था कि इस बार उसके आंसू घडियाली आंसू नहीं थे बल्कि सत्य में पश्चाताप के आंसू थे क्योंकि ४२ वर्ष में आज पहली बार करण ने देखा था कि कुंती ने किसी से अपने किए पर माफी माँगी थी  | फिर भी करण ने भगवान से प्रार्थना करते हुए यही माँगा कि हे परवर दिगार जो मैनें सोचा है वही सत्य हो तथा  कुंती एवं सागर के विवेक को जगाए रखना जिससे आज के सुखद मेल मिलाप का अंत न हो | क्योंकि मनुष्य का  जागृत विवेक ही उसमें व्याप्त मनुष्यता के ठूंठपन का अंत करने में सक्षम है |  


Tuesday, September 29, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (चिंतन)

 


चिंतन



अपने घर एकांत में बैठकर करण, सागर की शादी की तैयारियों से लेकर विदाई तक की प्रतिक्रियाओं पर चिंतन करने लगा | वह एक एक करके उन लाँछनों का विषलेशन करने लगा जो पिछले तीन दिनों में उसके या उसके परिवार के सदस्यों पर थोपे गए थे |    

1. कहा जा रहा था कि प्रवीण ने खुद तो शराब पी ही साथ में किशन को जबरदस्ती गाड़ी से उतार कर उसे भी पिला दी |

यह सरासर गल्त इलजाम था | जिस गाड़ी में किशन बैठा था उसमें भीड़ ज्यादा थी | प्रवीण के एक बार कहने से ही वह अपने आप उस गाड़ी से उतर आया था | फिर वह कोई दूध पीता बच्चा तो था नहीं जो उसे गोदी उठाकर लाया गया था | उसे यह भी नहीं पता था कि अशोक  ने उसे उस गाड़ी में रास्ता बताने के लिए बैठाया था | जैसा कि बाद में बात बनाई जा रही थी | वैसे भी बालकिशन उस गाड़ी से उतर कर अपने ससुर के साथ बैठ गया था | करण भी उसी गाड़ी में बैठा था तथा प्रवीण उस को चला रहा था | तब भी यह बात कैसे उड़ी कि दोनों ने पी रखी है | यह करण के परिवार को बदनाम करने की एक सोची समझी चाल नहीं थी तो क्या था ? जिसमें स्नेह ने जाने-अनजाने में कुंती का भरपूर साथ दिया | 

यह तो सभी जानते हैं कि कमल का फूल किचड़ में उगता है | उसके चारों तरफ बिखरी किचड़ से उसकी महक एवं सुन्दरता कम नहीं हो जाती | किचड़ के लाख कोशिश करने के बावजूद वह किचड़ को अपने उपर नहीं लगने देता | तथा किचड़ से बे परवाह खिलकर अपनी छटा बिखेरता रहता है | फूलों के प्रसश्कों को वह सम्मोहित तो करता है परंतु उसकी सुन्दरता से जलने वाले भी कम नहीं होते |

2.यह पहले ही तय हो गया था कि बारात जयमाला के स्थान पर रात दस बजे पहुँचनी चाहिए | सागर की घोड़ी रायल पैलेस के गेट पर पौने दस बजे ही पहुँच गई थी फिर भी प्रवीण को दोष दिया गया कि रास्ते भर उसने ही घोड़ी को आगे खिसकने नहीं दिया इसलिए देरी हो गई | कहना न होगा अगर प्रवीण उस बारात में न होता तो बारात की जगह ऐसा महसूस होता जैसे सभी किसी मातम में जा रहे हों | क्योंकि रास्ते भर न तो अशोक ने अपनी बुआ का दामन छोड़ा था न ही बुआ ने उसे घोड़ी के आगे नाचने को उकसाया | शराब न पीने पर भी स्नेह ने अपने आदमी किशन पर लाँछन लगा ही दिया था | अब अगर वह नाचकर अपनी देही तोड़ता तो स्नेह की शंका को आधार मिल जाता | रहे सागर के दोस्त तो वे सागर की अगल बगल से ही टस से मस न हुए | 

मान लो प्रवीण ने पी रखी थी तो क्या उसने किसी के साथ साथ बदतमीजी की थी या किसी को छेड़ा था | उसके बारे में यह किसी ने क्यों नहीं सोचा कि वह अपने में मस्त था तथा परिस्थिति का भरपूर आनन्द ले रहा था |

3.कहा गया था कि यह मैनेजरों तथा पढे लिखों की बारात है | उनकी बारात में ऐसा थोड़े ही चलता है | अगर ऐसा सोचना था तो अपने मेहमानों को बुलाया ही क्यों था | एक तो वे गिने चुने बीस थे | और देखा जाए तो उनमें करण का परिवार ही सबसे अधिक पढा लिखा था | जिस औरत को बी.पी.ओ. और विपरो कम्पनी में फर्क मालूम न हो वह अपने को पढी लिखी बताए तो क्या कोई मान लेगा | रही बात उसके बेटे की तो आजकल के जमाने के हिसाब से तो वह भी कोई खास पढा लिखा नहीं गिना जा सकता | बेशक से करण की पुत्र वधुएँ ग्रहणी थी परन्तु थी तो वे स्नात्कोतर |  

नतीजन कुंती एक कुएँ के मेंडक की तरह टर्र टर्र करके उसकी प्रति ध्वनी को सुनकर अपने एकाकी जीवन में बहार लाने का प्रयास करती है | उसने बाहर की दुनिया देखी कहाँ है | उसे क्या पता कि जिस पर वह दोष थोप रही है वह परिवार उसकी तरह एक नहीं बल्कि सैकडों शादियों का लुफ्त उठा चुका है |   

4.बात कानों में आई कि जब से संतोष आई है उसे तो बस ढोलक बजाने से ही फुर्सत नहीं है | 

यह तो कुंती बखूबी जानती थी कि उसकी बहन को छोटे से छोटा शोर भी नहीं सुहाता | उसने देखा था कि संतोष अपने पोते के कुआँ पूजन के मौके पर भी ढोलक की थाप को सहन न कर सकी थी | इतने खुशी के अवसर पर भी वह अकेली बन्द कमरे की खिड़की से झाँककर ही बाहर का नजारा देख रही थी | फिर भी कुंती ने यह कभी नहीं सोचा कि उसे यहाँ आकर ऐसी कौन सी राम बाण दवा मिल गई जो ढोलक की आवाज सुनना तो एक तरफ खुद ही ढोलक बजाने में अपार खुशी का अनुभव कर रही है | 

वास्तव में सागर की शादी का संतोष को अपने लड़कों की शादी से भी ज्यादा चाव था | कहते हैं कि अगर कोई इंसान सच्चे मन से भगवान की स्तूति में लीन हो जाए तो उसे दीन दुनिया की कोई खबर नहीं रहती | वह अपने दुख दर्द सब भूल जाता है | उसे तो बस एक ही सूरत याद रहती है, परमेशवर की | उसी प्रकार अपने सबसे छोटे एवं प्यारे बेटे सागर की शादी का खुमार उसके दिलो दिमाग पर ऐसा छाया हुआ था कि संसार का और कोई शोर उस पर हावी होने में असमर्थ प्रतीत हो रहा था | अर्थात संतोष शादी के अपने रंग चाव खुशी खुशी पूरे करना चाहती थी | इस बात को नजर अन्दाज करके कुंती ने अपना ठूंठपन दिखाते हुए उल्टा अपनी बहन पर लाँछन लगा दिया कि उसे तो ढोलक के सिवाय कुछ सुझता ही नहीं |

5. करण को इस सुरसुरी का भी पता चला कि कुंती यह कहती फिर रही है कि करण अपनी वाहवाही लूटने के लिए यह कहता फिर रहा है कि उसने राघवजी को ऋण दिला दिया वर्ना उनका मकान कभी न बनता |

यह संसार लेने देने की प्रतिक्रिया के कारण ही गतिमान है | बैंक से हजारों करोडों के ऋण का लेन देन नित्य प्रति होता है | अगर करण ने अपने किसी रिस्तेदार को ऋण दिला भी दिया तो कौन सा तीर मार दिया | ऋण बैंक ने दिया है तो वापिस भी बैंक में ही जमा हो रहा है | राघवजी के सामने तो क्या सागर की सगाई तक यह बात उजागर नहीं हुई कि करण ने कभी किसी को ऐसा कहा है कि राघवजी को ऋण उसने दिलवाया था | फिर अचानक शादी पर यह बात कैसे फैल गई | 

अगर यह बात सच थी तो राघवजी के सामने ही या उनके बाद अब तक दबाकर क्यों रखी गई | अगर सच झूठ का पता लगाना था तो उनके सामने ही यह बात उजागर करनी थी | चलो अब भी कुछ बात इतनी पुरानी नहीं हुई है अगर करण नें यह बात किसी को कही है तो राघवजी ने कुंती को तो बताई होगी कि वह इंसान कौन है | अब उसको करण के रूबरू करा कर दूध का दूध पानी का पानी कराए तो जानें | क्या कुंती का यह एक और षड़यंत्र ही नहीं है अपने ठूंठपन को बरकरार रखने का | उसे कौन समझाए कि केवल हँसने वाले के ही सभी साथी होते हैं रोने वाले के नहीं | रोने वाले का साथ देकर उसको हँसाने का हर सम्भव प्रयास करना तो करण के परिवार जैसा कोई विरला ही होता है |

6.सागर ने यह बात फैलाई कि हमें अपने घर बुलाकर मौसी जी ने मेरी मम्मी जी को घास की सब्जी खिलाई |

कुंती सागर तथा अशोक के साथ करण के घर शादी का निमंत्रण देने आए थे | उस दिन प्रवीण ने अपने पूरे परिवार के साथ अपनी बहन प्रभा के यहाँ संकरात की भेंट देने का प्रोग्राम बना रखा था | उन सब का खाना वहीं था | करण तथा संतोष ने अपने लिए आलू पालक की सब्जी तथा लस्सी बनवा कर रखवा ली थी | प्रवीण घर से निकलने वाला ही था कि वे तीनों आ गए | घर में इतनी जल्दी खाना तो बन नहीं सकता था इसलिए प्रवीण ने होटल से खाना मँगवा लिया | होटल के खाने में प्याज होने की वजह से कुंती को संतोष ने अपने लिए बनवाई छाछ (लस्सी) तथा आलू पालक की सब्जी कुंती को परोस दी | उसको ही अब उड़ाया जा रहा था कि उसे घास खिला दी | 

ऐसा नहीं है कि कुंती इससे पहले कभी अपनी बहन के यहाँ नहीं आई | वह कई बार दो दो तीन तीन दिन उसके यहाँ रूकी भी थी | अगर घास खिलाने वाली बात करनी थी तो बहुत पहले ही उजागर कर देनी थी | अब शादी के मौके पर यह बात उठाने का एकमात्र तात्पर्य आगे से रिस्ता कायम न रखने के ध्येय से प्रेरित केवल एक और कड़ी मात्र हो सकता था | 

ये सब बे सिर पैर की बातें जानकर करण के हृदय में कुंती के आचरण के प्रति कोई पश्चाताप, घृणा, द्वेष, गुस्सा इत्यादि का कोई संचार नहीं हुआ क्यों कि वह पहले से ही उसके ऐसे व्यवहार के सत्य से वाकिफ था |

करण को उसके परिवार के प्रति कुंती की बगावत का बिगुल बजने का आभाष तो सागर की सगाई पर जाते समय ही हो गया था जब कुंती अपने भतीजे के परिवार एवं सागर के साथ अपनी गाड़ी में सवार होकर चल दी थी तथा करण को बेजान सामान की तरह  दूसरी गाड़ी की डिक्की में बैठा दिया गया था | क्या राघव के साथ ऐसा वर्ताव किया जा सकता था या राघव करण के साथ ऐसा आचरण कर सकता था ? कभी नहीं | यह करण के प्रति कुंती द्वारा अपमान करने की शुरूआत थी | परंतु इस अपमान के बाद भी करण सागर की शादी को सुचारू रूप से सम्पन्न कराने के लिए कटिबद्ध रहा | अन्यथा उसकी जगह अगर कोई और होता तो उसी समय अपने रिस्तों का अंत कर देता |

एक बार को यह तो माना जा सकता है कि ममत्व में बहकर सागर ने अपनी माँ के रूष्ट होने पर उसका अनुशरण किया होगा परंतु उसमें भी अपने को बुद्धिमान समझने वाले  सागर ने बिना कारण का विशलेषण किए अपनी माँ का अनुशरण करने में कोई बुद्धिमता तो दिखाई नहीं | बल्कि अपना अहंकार, गरूर तथा औछापन प्रदर्शित कर दिया | वह तो, उसके अनुसार, उन गँवार आदमियों से भी बदतर निकला जिन्होने उसके प्रति अपनत्व का इजहार करके अपने व्यापरिक संस्थानों को तीन दिन के लिए बन्द रखा था | 

महाभारत में दुर्योधन द्वारा कर्ण को अंग देश का राजा घोषित करने के बाद वह सदा के लिए दुर्योधन का हितैषी तथा वफादार बन गया था | कर्ण दुर्योधन के बारे में यह जानते हुए भी कि वह अधर्म का साथ देकर गल्त रास्ते पर अग्रसर है उसके खिलाफ नहीं गया | उसने मरते दम तक दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा था | कर्ण के लिए तो दुर्योधन ने कुछ त्याग किया था और उसी के वशीभूत कर्ण दुर्योधन का ऋणी हो गया था | परंतु यहाँ अशोक न जाने क्यों कर्ण से भी अधिक वफादार एवं पालतू बना हुआ था | उसने अपने माँ बाप को भी त्याग रखा था | 

पहली बार जब अशोक अपने माँ बाप से सम्बंध विच्छेद करने की जिद लगा बैठा था तो करण ने उसे समझाने की लाख कोशिश की कि माँ बाप से बढकर, खासकर माँ से, इस संसार में कुछ नहीं होता | अतः उसे माँ का त्याग किसी भी सूरत में नहीं करना चाहिए | परंतु कुंती द्वारा उसके उपर हाथ फेरने मात्र से उस पर कुछ ऐसा जादूई असर होता कि वह कुछ न कर पाता | इस तरह वह सदा के लिए अपनी माँ के आँचल के तले मिलने वाले ममत्व के आभाष से वंचित रह गया | हाँलाकि एक माँ अपने बच्चे का बुरा कभी नहीं चाहेगी फिर भी अप्रत्यक्ष तौर पर वह सुख शांति के लिए आजिवन तरसता ही रहता है | शायद यही वजह रही होगी कि अशोक अभी तक एक खुशहाल जीवन जीने के लिए लालायित है |  

करण ने अशोक की यह सोचकर कई बार हर तरह से सहायता की थी कि वह घर से बाहर रह रहा है | उसे कभी किसी बात के लिए दुतकारा नहीं परंतु वह भी शादी के मंडप में करण की बे-इज्जती करने में हिचकिचाया नहीं | करण को इस बात का मलाल तो हुआ परंतु अपने मन को यह सोचकर समझा लिया कि जो व्यक्ति कुंती के लिए अपने माँ बाप का न हो सका वह और किसी का कैसे हो सकता है |  

कुंती से तो करण को पहले से ही अच्छे आचरण की उम्मीद नहीं थी फिर भी उसे इतना भरोसा था कि वह अपने टेहले में ऐसा नहीं करेगी जिससे उसके घटिया आचरण  का पर्दाफाश हो | परंतु उसका वह विशवास भी धराशाही हो चुका था |

 

संतोष जो दो तीन वर्षों से मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बिमार चल रही थी और अब ठीक होने के कगार पर थी, तभी तो उसने ढोलक की थाप को सहन कर लिया था, कुंती के व्यवहार ने उसे झकझोर कर रख दिया | अपने घर आते आते उसकी हालत पहले जैसी खराब हो गई और वह बदहवास सी बिस्तर पर लेट गई | उसने पहले की तरह खाना पीना, हँसना बोलना छोड़ दिया | उसका सिर दर्द असहनीय हो उठा तथा बार बार रोना शुरू कर दिया | करण के तीन साल देखभाल एवं दवा कराने से संतोष को जो स्वस्थ लाभ हुआ था वह इन तीन दिनों के उत्सव ने बर्बाद कर दिया था | वह पहले से भी बदतर स्थिति में पहूँच गई थी | संतोष रोते रोते बड़बडाने लगी, “प्रवीण को थोडा संयम रखना था | चाहे उसका कसूर था या नहीं | सब कुछ निबट गया था | चुपचाप आ जाता | मैनें शीतल के लिए रोटी कराए में देने के लिए पूरी तैयारी कर रखी है | उसके गहने व कपड़े लाकर रखे हैं | वे अब कैसे दिए जाएँगे, उसके पास कैसे पहूँचेंगे |” 

अपनी पत्नि को सांत्वना देने के लिए करण ने समझाया, "पहले रोटी कराई का सन्देशा तो आने दो फिर चलेंगे |”

“अब वह सन्देशा देगी ही नहीं |”

“क्यों उसकी तुम्हारे से तो अनबन नहीं हुई ?”

“फिर भी वह नहीं बुलाएगी |” 

“देखते हैं | समय तो आने दो |”

यह सोचकर कि शायद अपनी बड़ी बहन से बात करके उसका मन शांत हो जाए संतोष ने कहा, “अच्छा मैं जीजा जी तथा अपनी बड़ी बहन से बात करना चाहती हूँ |”

“क्यों नहीं, अभी कराता हूँ”, कहकर करण ने उनका फोन मिला दिया |

संतोष ने बात करना शुरू किया, "बहन जी नमस्ते |"

“नमस्ते, ठीक तो है ?”

संतोष ने सीधा प्रश्न किया, “क्या आप यहाँ एक दिन के लिए आ सकती हो ?”

“नहीं अब तो हम कल अछनेरा चले जाएँगे |”

संतोष अपनी बड़ी बहन से मिलकर अपने मन को सांत्वना देना चाहती थी अत: बड़े ही मार्मिक शब्दों में याचना की, “मैनें आपको इससे पहले कभी भी किसी काम के लिए नहीं कहा | आज पहली बार कह रही हूँ |”

“नहीं अब तो नहीं आ सकती |”

जब बहन ने बात नहीं मानी तो बोली, “अच्छा जीजा जी को फोन दो | जीजा जी आप से निवेदन है कि एक दिन के लिए यहाँ आ जाओ |” 

“संतो अब तो सुबह हम जाएँगे |” 

“मैं पवन को भेज देती हूँ वह अब तुम्हे वहाँ से ले आएगा तथा सुबह यहाँ से स्टेशन छोड़ आएगा |”

“नहीं अब तो जाने दो |”

अपने जीजा जी एवं बहन जी द्वारा उसके अनुरोध को ठुकराने से संतोष के मन पर और भारी आघात लगा | वह फोन को पटक कर धम्म से बिस्तर पर गिर कर फफक फफक कर रो पड़ी | 

संतोष को सम्भालना मुश्किल होता जा रहा था | ऐसा लग रहा था कि कुछ ही देर में वह सबके बे काबू हो जाएगी | किसी के भी समझाने का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था | करण  दुविधा में था कि वह क्या करे क्या न करे | ऐसी स्थिति थोड़ी देर और बनी रहने से संतोष का दिमागी संतुलन बिगड़ सकने का अन्देशा था | अचानक करण को एक युक्ति सूझी | उसने चुपके से कुंती  का टेलिफोन नम्बर मिला दिया परंतु उससे कोई बात नहीं की | कुंती के हैलो कहते ही करण ने टेलिफोन काट दिया | करण  की युक्ति काम कर गई | कुंती ने शायद यह सोचकर कि संतोष का फोन अपने आप कट गया है अपना फोन मिला दिया | सबके सामने घंटी बजने पर करण ने यह कहते हुए कि कुंती का फोन आया है उसका फोन संतोष के हाथ में थमा दिया | संतोष को बहुत राहत मिली | जो अब तक बदहवास स्थिति में थी बैठकर आँसू बहाते बहाते बात करने लगी | उसके चेहरे की रंगत बदल गई जैसे किसी ने दम तोड़ते हुए प्राणी को संजीवनी बूटी सूंघा दी हो | शायद संतोष को संतोष हो गया था कि उसकी बहन उससे नाराज नहीं है | 

जब संतोष कुछ होश में आई तो बोली, "जी, इस सारे फिसाद की जड़ अशोक  है |"

“छोडो भी होगा , हमें अब क्या लेना देना |”


“नहीं अब मैं अशोक के पास जाकर पूछना चाहती हूँ कि उसने ऐसा बखेड़ा क्यों किया ?”

“छोडो भी, वैसे भी वह अभी ग्यालियर गया हुआ है |” 

“कोई बात नहीं कभी तो आएगा |”

“जब आएगा तभी चलेंगे तब तक तुम चैन से तथा खुश रहो |” 

“नहीं मुझे अभी वहाँ छोड़कर आओ |” 

“अभी वहाँ जाकर क्या करोगी ?”

“मैं उनको कोई तकलीफ नहीं पहुँचाऊंगी | मैं अपना बिस्तर भी साथ ले जाऊँगी | खाना भी अपना खाऊँगी | यहाँ तक की पानी भी अपना पीऊँगी |” 

सभी घर वालों ने संतोष को लाख समझाने की कोशिश की परंतु उसने किसी की एक न सुनी | आखिर उसी रात संतोष को अशोक के घर छोड़कर आना पड़ा | अशोक के न आने पर हाँलाकि बीच में वे एक बार घर आ गई थी परंतु अशोक के माफी माँगने से ही उनके दिमाग को शांति मिली तथा तभी वे अपना बिस्तर वगैरह उसके घर से उठा कर लाई | 

कुंती की तरफ से रोटी कराई का निमंत्रण न आना था और न आया | संतोष के मन में इस बात का मलाल तो बहुत हुआ कि उसकी तरफ से बहू को देने वाला सामान यूँ ही रखा रह जाएगा परंतु उस मलाल की तिव्रता को करण  की युक्ति ने काफी हद तक कम कर दिया था | चाहे संतोष इसके कारण कई दिनों तक निढाल सी अवशय रही फिर भी वह बात संतोष की सेहत व दिमागी हालत पर अधिक असर न कर पाई |    

जहाँ तक करण को याद है जब से कुंती की शादी हुई थी उसके घर उसका कोई भी रिस्तेदार तीन घंटे से ज्यादा नहीं रूका होगा | उसने अपनी ससुराल, अपने पीहर, अपने रिस्तेदारों यहाँ तक की अपने पडौसियों तक से बना कर नहीं रखी थी | करण को उस दाई की बात याद आ गई जिसने कुंती को गर्भवती होने से पहले ठूंठ कहा था | 

वास्तव में ही कुंती ने अभी तक हर मायने में एक जीव होते हुए भी एक निर्जीव ठूंठ की भाँति जीवन व्यतीत किया था | करण  ने, यही सोचकर कि कुंती के मुश्किल से बीस मेहमान होंगे जिसमें से दस तो उसके खुद के परिवार के ही बैठते हैं, अपने पूरे परिवार के साथ तीन दिन उसकी खुशी में शामिल होने का मन बना लिया | इससे एक तीर से दो शिकार वाली बात बनती थी | एक तो  हँसी खुशी तथा चहल पहल से शादी समपन्न हो जाती तथा दूसरे कुंती अपने ठूंठपन से उभर जाती |  

बाद में पता चला कि कुंती के तो रोम रोम में ठूँठपन समा चुका है | और उसकी छत्रछाया में रहकर उसकी विचार धारा तथा संस्कारों का पूरा असर सागर पर भी छा चुका था | महान आत्माओं का मानना है कि मानव शरीर में कुछ शक्तियाँ तो प्रत्यक्ष हैं तथा कुछ परोक्ष हैं | वास्तविक शिक्षा वही है जो शारिरीक विकास, मानसिक विकास, भौतिक विकास और आध्यात्मिक विकास कराए | अर्थात शिक्षा द्वारा ही एक मनुष्य का पूर्ण विकास हो सकता है | परंतु इन सबसे अलग एक व्यक्ति की सबसे महत्व पूर्ण निधि होती है उसका स्वभाव और उसके संस्कार जो मात्र शिक्षा ग्रहण करने से नहीं पनपते | इस दोनों गुणो पर मनुष्य की संगत बहुत प्रभाव डालती है | इसीलिए कभी कभी मनुष्य की शिक्षा द्वारा बना उसका उन्नत व्यक्तित्व तथा मानसिक विकास उसकी गल्त संगत तथा किसी व्यक्ति विशेष के प्रति सहानुभूति उपजने के कारण नष्ट प्रायः हो जाता है |   

तभी तो अपनी मम्मी की तरह अपनी वाणी के प्रहारों से सागर ने अपने गिने चुने रिस्तेदारों से सम्बंध विच्छेद करने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट महसूस नहीं की थी | अपनी माँ की तरह वह भी अपने रिस्तेदारों की तरफ से ठूंठ बन गया | 

 कहते हैं सागर मंथन में जब एक विष का घड़ा निकला था तो देवता तथा राक्षसों में से किसी ने भी उस विष को ग्रहण नहीं किया था | डरावनी स्थिति से सभी को उभारने के लिए भगवान शिव ने उस विष को पीना स्वीकार कर लिया था | विष को पीते ही शिव जी के शरीर में कई प्रकार के विकार उत्पन्न होने लगे | विष के कारण शिव जी के शरीर में इतनी जलन होने लगी कि उनका शरीर काला पड़ने लगा था | इस जलन को शीतलता प्रदान करने के लिए उन्हें शीतल चंद्रमा को धारण करना पड़ा था | 

अब देखना यह है कि सागर के अन्दर जमा विकारों को शीतलता प्रदान करने के लिए  शिव की चंद्रमा समान 'शीतल' क्या युक्ति अपनाती है तथा कैसे विकसित करके बचा पाती है एक और बनते ठूंठ को |   


Monday, September 28, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस)

 खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस

करण की माँ बचपन में उसके भाई बहनों को एक चुडैल की कहानी सुनाया करती थी | कहानी कुछ इस प्रकार होती थी | एक चुडैल थी | वह अकेली जंगल में रहा करती थी | जब कभी कोई इंसान उस जंगल से गुजरता तो वह चुडैल उसे खा जाया करती थी |  किसी तरह उसने एक लड़के को जन्म दे दिया | उसके साथ खेलने वाला कोई न था | वह लड़का जैसे जैसे बड़ा होने लगा उसके मन में जंगल से बाहर की दुनिया देखने की इच्छा बलवती होने लगी | एक दिन इसी धुन में वह जंगल से बाहर निकल गया | उसने नजदीक के बागीचे में कुछ बच्चों को रंग बिरंगे कपड़े पहने उछलते कूदते खेलते देखा | वह मंत्र मुग्ध होकर उन्हे खेलते देखता रहा | उसे यह बहुत अच्छा लगा | अब वह अपनी माँ की नजरें बचाकर रोज उस बागीचे की तरफ जाने लगा तथा धीरे धीरे उनके साथ खेलने लगा |

एक दिन उसके दोस्तों ने उससे पूछा, “तुम कहाँ रहते हो |”

लड़के ने जंगल की तरफ इशारा कर दिया |

बच्चों को यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि वह जंगल में रहता है | अतः पूछा, "वहाँ तो जंगली जानवर रहते हैं, तुम्हे ड़र नहीं लगता ?"

“नहीं |”

“तुम्हारे साथ और कौन रहता है ?”

“मैं और मेरी माँ बस |”

उसके शब्द सुनकर सारे बच्चे बहुत आश्चर्य करके एक दूसरे का मुँह ताकने लगे | किसी को विशवास ही नहीं हो रहा था कि वे दोनों अकेले उस बीयाबान जंगल में रह रहे होंगे | लड़के की बात में कितनी सच्चाई है जानने ले लिए उसके दोस्तों ने उससे कहा, "अपना घर दिखा सकते हो ?"

पहले तो लड़का कुछ झिझका परंतु अपना हिसाब लगाकर बोला, "ठीक है जिसको मेरा घर देखना हो वह कल दोपहर के बारह बजे इसी बागीचे में आ जाना |"

असल में उसने हिसाब लगाया था कि दोपहर में बारह बजे उसकी माँ घर छोड़कर जंगल में खाना ढूढने जाती है और लगभग दो घंटे बाद लौटती है | इस दौरान वह अपने दोस्तों को अपना घर दिखाकर वापिस बागीचे में छोड़ आएगा | अन्यथा अगर उसकी माँ ने किसी को देख लिया तो वह एक दो को खाए बिना मानेगी नहीं | लड़का बच्चों को अपने प्रोग्राम के मुताबिक लिवा लाया | 

दुर्भाग्यवश उस दिन चुडैल जल्दी ही घर लौट आई | अपनी माँ को दूर से आते देख लड़का भयभीत हो उठा | अब क्या होगा | उसके दोस्तों ने भी देख लिया था कि कोई चुडैल उनकी तरफ आ रही है | लड़के ने सभी को हिदायत दी कि अगर मौत से बचना है तो चुपचाप साथ वाले छप्पर में जाकर दुबक जाऔ जिसमें हड्डियों का ढेर लगा है | क्योंकि चुडैल वहाँ कभी नहीं जाती | जान किसको प्यारी नहीं होती | सभी बच्चे चुपचाप उस बदबूदार छप्पर में जाकर दुबक गए |चुडैल खाना जमीन पर रखकर कुटिया का हर कौना सूंघने लगी तथा बोली, खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस......शूं....शूं.....  

…….. खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस| (अर्थात मुझे कुटिया में से मनुष्य की गंध आ रही है कोई मुझे मिल गया तो मैं उसे फाड़ कर खाँ जाऊँगी)

चुडैल के लड़के ने अपनी माँ को बहुत समझाया कि वहाँ कोई नहीं है तब कहीं जाकर वह खाना खाकर सोई | उसके सोने पर लड़के ने अपने दोस्तों को उस हड्डी वाले छप्पर से निकाला और वापिस बागीचे तक छोड़ आया | इस घटना के बाद वह लड़का फिर  कभी बागीचे में खेलने नहीं आया |

समय व्यतीत होने लगा | लड़का अपनी माँ की संगत में रहते रहते उसके पद चिन्हों पर चलने लगा | एकाकी जीवन जीते जीते उसने भी वही संस्कार पाल लिए जो उसकी माँ के अन्दर थे | अगर अपने दोस्तों को वह अपनी माँ का घर न दिखाता तो हो सकता था वह हमेशा के लिए उनकी संगत पा जाता और उनके साथ खेल कूद कर व्यसक होने पर एक सज्जन इंसान बन जाता तथा आगे चलकर अपनी माँ की आदतों को भी बदलने में कामयाब हो सकता था | परंतु अब उसे भी अपनी माँ की तरह इंसानों में स्वादिष्ट गंध आने लगी थी जिसके कारण वह भी एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर था |    

कहानी सुना कर करण की माँ पूछा करती थी कि बोलो तुम्हें इससे क्या शिक्षा मिलती है तो बच्चे एक साथ चिल्ला उठते थे कि सबसे मिलजुल कर रहो तथा एक दूसरे के दुख दर्द में काम आओ | जैसी संगत रखोगे वैसे संस्कार पाओगे |

इसी प्रकार जैसे एक ठूंठ अपने चारों और हरियाली तथा रंग बिरंगे फूलों को महकते सहन नहीं कर सकता परंतु हरियाली हो जाए तो कुछ कर भी नहीं सकता केवल जल भुनकर तथा अपना मन मसोश कर रह जाता है तथा कोई ऐसी युक्ति सोचने लगता है जिससे किसी तरह उन महकते हुए फूलों के पौधों को भी अपनी तरह ठूंठ बना दे | उसी प्रकार एक औरत जो भरे पूरे परिवार से सम्बंध रखते हुए भी एकाकी जीवन व्यतीत करने की इच्छुक हो, उसे तो कुछ वफादार, पालतू प्राणी जैसे इंसानों से ही लगाव रह जाता है |

ऐसे महौल में  उसे हँसी मजाक एवं उन्मुक्त विचारों वाले इंसान क्योंकर पसन्द आ सकते हैं 

कुंती जो 12-15 साल पहले अपने भरे पूरे, हँसते खेलते परिवार को तिलाँजली देकर एक एकाकी जीवन व्यतीत कर रही थी आज अचानक उसी पुरानी तरह के हँसी मजाक वाले हंसते खेलते लोगों के माहौल से घिर गई थी जो उसे गँवारा नहीं हो रहा था | उसका इतनी भीड़ देखकर दम सा घुटने लगा था | वह पहले से अपने जीजा जी एवं बड़ी बहन जी से परेशान थी जो शादी के एक सप्ताह पहले ही उसके घर में आ बसे थे | अब अपनी बहन संतोष के भरे पूरे परिवार को तीन दिन तक झेलने मात्र के विचार से विचलित हो उठी | अब कर भी क्या सकती थी | अपने लड़के सागर की शादी तो सम्पन्न करनी ही थी चाहे रोकर करे या हँसकर | परंतु उसने अपने मन में ठान ली कि अब हुआ सो हुआ भविष्य में ऐसा नहीं होना चहिए | इसको अंजाम देने के लिए कुंती ने एक युक्ति सोचकर उस पर अग्रसर होने का मन बना लिया जिससे भूलकर भी इसके बाद उसके मेहमान उसके घर की तरफ रूख न करें |

बात उस समय की है जब करण लगभग आठ वर्ष का रहा होगा | वह अपने एक रिस्तेदार की बारात में कासन-हरियाणा गया था | मई का महीना था | लू का प्रकोप था | रास्ता धूल मिट्टी से भरा था | खुले ट्रक में होने के कारण  वहाँ पहूँचने में ही सभी की नानी याद आ गई थी | बारातियों को खारे पानी में चीनी तथा दूध मिलाकर पीने को दे दिया गया | ऊपर से खाने के साथ सन्नाटा (छाछ/लस्सी जो बहुत खट्टी हो जाती है) परोस दिया गया |  बहुत से बाराती इसे झेल न पाए और उनको दस्त लग गए | खैर किसी तरह शादी सम्पन्न हुई और बारात की विदाई हो गई | परंतु यह क्या ! जिस ट्र्क में बारात विदा होकर जा रही थी उस गाँव के लोग एक साथ उस पर पत्थर बरसाने लगे | बाराती बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर वहाँ से निकल पाए | करण इस घटना से बहुत अचम्भित था | उसने अपने फूफा जी, श्री मंगू लाल जी से उसका कारण पूछा तो उन्होने बताया कि उस इलाके में यह रिवाज है जिसका मतलब होता है कि अब आए तो आए आगे से यहाँ अपनी शक्ल मत दिखाना | 

हाँलाकि वे ठेठ गँवार थे परंतु उन्होने अपनी मंशा साफ जाहिर कर दी थी | कोई लाग लपेट वाली बात नहीं रखी थी |

परंतु कुंती के यहाँ तो बिना किसी के जाने सभी की जडों में जहर भरने का काम किया गया | जिससे धीरे धीरे सब पर ऐसा असर हो कि वे भविष्य में इस तरफ का रूख करने की सपने में भी न सोचें |

कुंती ने अपने चहेते, वफादार एवम् पालतू प्राणी, अशोक तथा सागर को अपने मन की बात समझा दी तथा उस पर अमल करना शुरू करवा दिया | 

बड़ों का अपमान 

सागर ने शुरूआत करते हुए अपने दोनों मौसा जी को एक मिठाई का डब्बा दिखाया जो वह भाजी के रूप में मेहमानों को बाँटना चाहता था, "देखना मौसा जी कैसा रहेगा |"

डब्बे में चार बालू स्याही, चार बर्फी, चार मट्ठी तथा एक नमकीन का पैकेट को देखकर करण ने अपना मत जाहिर किया, "यह तो कुछ कम मालूम पड़ता है |"

इस पर अशोक तथा प्रषांत अपने मुखडों पर एक कटू मुस्कान लिए और एक दूसरे को देखते हुए, “अच्छा मौसा जी ठीक है कहकर बाहर निकल गए | उनकी यह अदा सत्य प्रकाश जी से छिपी न रह सकी | उनके जाने के बाद सत्य प्रकाश जी ने करण से कहा, "देखो हमें कितना बेवकूफ समझते हैं |"

“लगता तो मुझे भी है |” 

इतने में बाहर से आकर सागर ने अपने कम्प्यूटर में एक तस्वीर दिखाते हुए सत्य प्रकाश जी से कहा, "देखो मौसा जी हम भाजी का डब्बा ऐसा दे रहे हैं |"

हाँ ये अच्छा भरा भरा सा लगता है कहकर उन्होने अपनी शंका मिटाने को पूछ लिया, "तुमने पहले वह खाली सा डब्बा क्यों दिखाया था |"

अपने चेहरे पर वही कटू मुस्कान लिए, “बस यूँ ही | मम्मी जी कह रही थी कि वही ठीक रहेगा |” 

“जब मम्मी की वैसी सलाह है तो तुम क्यों बदल रहे हो ?”

इस पर अशोक व सागर दोनों ही..ही..करते हुए अन्दर कमरे में चले गए तो सत्य प्रकाश जी ने एक बार फिर अपने मन की कह दी, “भाई साहब ये बच्चे हमारी हैसियत खाली डब्बे वाली समझते हैं |”  

कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए यह सोचकर करण ने अपने साढू को सांत्वना देने के लिए कहा, "भाई साहब शांत रहना | दो दिनों की और बात है | फिर ये कहाँ और हम कहाँ |"

“नहीं नहीं मैं भी किसी से कहाँ कुछ कहने जा रहा हूँ | मैं तो इनकी दिमाग की संकिर्णता को दर्शा रहा हूँ |”

अगले दिन एक रिक्शा वाला तीस पैकेट उतार गया | लगता था उनमें कुछ उपहार थे | पूछने पर पता चला कि वे सागर अपनी तरफ से मेहमानों में बाँटेगा | अमूमन साले की शादी में उसके जीजा जी द्वारा ही उपहार देने का प्रचलन है | और इसको निभाने के लिए मनोज जी उपहार ले आए थे | वैसे भी उपहार के बारे में जीजा साले में वार्तालाप हो चुकी थी |

“जीजा जी उपहार महंगा नहीं लाना |”

“कितने तक का ले आऊँ ?”

“यही कोई 100-150 के बीच का बस इससे अधिक का नहीं लेना |”

“ठीक है मैं देख लूंगा |”

अब शायद मनोज जी को नीचा दिखाने के लिए बिना किसी को बताए सागर ने अपना उपहार 200/-रूपये के लगभग का मँगा लिया था | परंतु जब उसने मनोज जी द्वारा लाया उपहार खोलकर देखा तो देखता ही रह गया | वह बिजली की हल्की वाली प्रैस थी जिसकी कीमत लगभग 350-400 रूपये से कम न होगी | सागर खिसियाकर केवल इतना ही कह सका, “जीजा जी इतने महंगे तौफे की क्या जरूरत थी |”

“जरूरत तो थी परंतु अगर पहले से तू बता देता कि तू भी उपहार दे रहा है तो मैं न लाता |”

सागर कोई उत्तर न दे सका परंतु उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वह मात खा गया था | 

घुड़चढी का समय आ गया था | मनोज जी द्वारा सागर को तैयार किया जा रहा था | जब वह तैयार हो गया तो मनोज जी को एक बार फिर नीचा दिखाने की नियत से बोला, "जीजा जी जूतियाँ तो पहना दो |"

“साले साहब आज का दिन तुम्हारा है | जो कहोगे करूंगा परंतु घुड़चढी से पहले नेग तो सारे पूरे होने चाहिए |”

“अब क्या रह गया”, सागर ने मुस्कराते हुए पूछा |

"माँ का दूध पीना", कहकर मनोज जी ने अपनी मौसी को बुलाने के लिए जोर से एक आवाज लगाई, "मौसी जी जरा जल्दी आना |”

जीजा यह क्या करते हो कहते हुए सागर बगलें झाकने लगा तथा अपने आप फटाफट जूतियाँ पहन ली | एक बार फिर सागर दूसरे को नीचा दिखाते दिखाते खुद मात खा गया था | 

सागर की घुड़चढी घोड़ी पर चढने के बजाय कार में बैठकर की गई क्योंकि बैंड बाजे वाले ने जमुना पार घोड़ी भेजने से मना कर दिया था | यह किसी और से काम न कराने का नतीजा था |

मन्दिर से बारात सीधी विवाह स्थल पर जानी थी | शादी में  अच्छनेरा से दिनेश जी तथा डौली भी आई हुई थी | उनके यहाँ लड़के का कुआँ पूजन था | उन्हें उसके कार्ड भी बाँटने थे | उनकी अपने साढू किशन से अनबन चल रही थी | दिनेश जी एवं डौली के कहने से करण ने किशन एवं स्नेह से उनका समझौता करवा दिया | 

बारातियों को ले जाने के लिए चार गाडियों का इंतजाम था | दिनेश जी अपनी गाड़ी में चले गए | जब करण तथा किशन मन्दिर से बाहर आए तो सब गाडियों में बैठ चुके थे | इतने में बिजली की कौंध की तरह अशोक आया तथा किशन का हाथ पकड़ कर ले गया | उसके बाद अशोक ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और पलक झपकते ही औझल हो गया | उसके पीछे पीछे दो और गाडियाँ अंतर्ध्यान हो गई | करण की कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा था क्योंकि किसी और को वहाँ न देखकर वह सोचने लगा था कि शायद भूल से सब उसे छोड़ गए हैं | वह मनोज जी को फोन मिलाने की सोच ही रहा था कि उसे प्रवीण की आवाज सुनाई दी, "पापा जी यहाँ आ जाओ |"

मुझे देखकर आशचर्य हुआ कि उस गाड़ी में सत्य प्रकाश जी एवं किशन भी बैठा था | पीछे मुड़कर देखा तो मनोज जी तथा पवन भी खड़ा था | पूछने पर पता चला कि  सागर के साथ अशोक, सागर का एक दोस्त तथा माया गई थी | दूसरी गाड़ी में कुंती तथा स्नेह के बच्चे थे | तीसरी में प्रभा तथा उसके बच्चे थे | अपनी गाड़ी हाँकते हुए अशोक कह गया था कि एक गाड़ी जो वहाँ बच गए थे उनको लेने बारात स्थल से वापिस आएगी | 

करण ने विचार लगाया कि सागर तथा उसकी मम्मी जी ने मनोज जी को अपने साथ न ले जाकर एक तरह से दरकिनार कर दिया है | दूसरे उन्होने अपने घर आए मेहमानों को वहीं खड़ा छोड़कर अपने जाने की जल्दी करके यह साबित कर दिया कि उन्हें उनकी कोई परवाह नहीं है | शायद वे सबसे पहले पहुँचकर अपना भावभिना स्वागत कराना चाहते थे |  

स्थिति का जायजा लेने के बाद करण ने सलाह दी कि वहाँ खड़े रहकर गाड़ी के वापिस आने का इंतजार करने से तो बहुत देर हो जाएगी क्यों न वे सभी प्रवीण की गाड़ी में बैठकर चलें |

शायद मनोज जी भी करण की तरह् अन्दर ही अन्दर अपने को दरकिनार होता महसूस कर रहे थे | इसलिए उन्होने अपनी अलग गाड़ी ले जाने की तैयारी कर ली जिससे शादी के बाद वे वहीं से अपने घर जा सकें |

अतः एक में पवन और मनोज जी बैठ गये तो दूसरी गाड़ी में प्रवीण, किशन, सत्य प्रकाश तथ करण थे |

यह तो सर्व विदित है कि जो किसी दूसरे के लिए खाई खोदता है उसमें वह खुद गिर जाता है | कुंती एवं सागर के साथ ऐसा ही हुआ | वे मन्दिर से, बिना किसी मेहमान की परवाह किए, बहुत खुश होकर सबसे पहले चल दिए | उनके मन में था कि असली बाराती तो वे ही हैं अतः सबसे पहले उनका वहाँ पहुँचना जरूरी था | परंतु वे रास्ता भटक गए और पीछे रह गए | करण जो मन्दिर से आधा घण्टा बाद में चला था सबसे पहले पहुँच गया था |   

इससे यह शिक्षा मिलती है कि घर में आए मेहमान को भगवान स्वरूप मानना चाहिए | अगर कोई घर आए मेहमान का निरादर करता है तो उसे भगवान की तरफ से अपने निरादर के लिए तैयार रहना चाहिए | अर्थात 'बन्दा जोड़े पली पली और राम बढ़ाए कुप्पा'

खुद का टेहला बिगाड़ने की कला

खैर बहुत से टेलिफोन करने तथा ड्राईवर को हिदायतें देने से कुंती की गाड़ी अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गई | उसने गाड़ी से उतरते ही अपनी निगाह उठा कर देखा तो करण  को खड़े मुस्कराता पाया | उसने आव देखा न ताव वह सड़क पर खड़े ही खड़े एक दम भभक कर बिफर उठी, 

“मुझे अभी वापिस जाना है |”

“किसी को मेरी कोई चिंता नहीं है |”

“हमारी गाड़ी में कोई मर्द नहीं था |”

“अगर रास्ते में कुछ हो जाता तो क्या होता ?”

करण तो पहले से ही जानता था कि कुंती परले दर्जे की ना समझ औरत है | यहाँ भी वह यह नहीं देख रही है कि ऐसा करके वह अपना ही टेहला बिगाड़ रही है | अगर कोई दूसरा व्यक्ति ऐसी कोशिश करता है तो सभी उस पर लानत देते हैं परंतु यहाँ तो खुद माल्किन कर रही थी उसे क्या कहा जाए |

कुंती का विकराल रूप देखकर लड़की वालों को तो जैसे साँप सूंघ गया था | दुल्हे की माँ ही बिगड़ गई है तो आगे क्या होगा यही सोचकर वे परेशान हो रहे थे | परंतु करण ने किसी तरह उन्हें आशवस्त करा दिया तथा सभी आए बारातियों को चाय नाश्ता कराना चालू कर दिया | कुंती अपना मुँह फुलाए एक तरफ ऐसे बैठ गई जैसे किसी मातम में आई थी |

अभी माहौल में रौनक लौट भी न पाई थी कि स्नेह अपनी गाड़ी से उतरते ही बहुत गुस्से तथा ऊँची आवाज में चिल्लाई, "ये टिंकू का बच्चा है | उसने ही पीने पिलाने के लिए इन्हे (किशन को) हमारी गाड़ी से उतार लिया था |"

एक बार फिर सभी का ध्यान लड़के वालों कि तरफ केंद्रित हो गया था | करण को समझ नहीं आया कि यह सब ड्रामा क्यों हो रहा था | उस समय तो करण ने स्थिति को सम्भालते हुए स्नेह को अपने घर जाकर अपनी शंका निपटाने को कह कर चुप करा दिया परंतु चेहरा तो मनुष्य के दिल का आईना होता है जो अन्दर के द्वन्द को दर्शा देता है | अब कुंती तथा स्नेह का चेहरा मिलाप खा रहा था |

नाशता खा पीकर चढत शुरू हो गई | इतना कुछ सहने के बावजूद् करण के परिवार के सभी सदस्य खुश थे | वे बढचढ कर नाचने गाने में हिस्सा ले रहे थे | परंतु कुंती अपनी युक्ति तथा सोची हुई चाल के अनुसार एक अनार सौ बिमार की कहावत को चरितार्थ करते हुए अपने यहाँ आए मेहमानों के दिलों में जहर घोलने का काम शुरू कर दिया | 

“ऐं चेतना ये टिंकू (प्रवीण) कितना पी आया ?”

“अंजू यह मैनेजरों की बारात है | इसमें कूदना फाँदना थोड़े ही अच्छा लगता है |”

“अग्रवाल ऐसे नहीं करते इन्हें कौन समझाए |”

“माया यह प्रवीण ने नाचने की क्या लगा रखी है ? घोड़ी को आगे खिसकने ही नहीं देता | इसे आगे से धक्का देकर एक तरफ हटा दे |”

“प्रवीण कह रहा था उनके घर से शादी कर लो | हमें घर थोड़े ही दिखाना है हमें तो भद्र आदमी दिखाने हैं | इन जैसे गँवार नहीं |”

“खुद तो धुत्त है ही हमारी गाड़ी से उतार कर किशन को भी शराब पिला दी |”

“अशोक तो इसकी तरह सड़क पर नाचेगा नहीं और न मैं उसे नाचने दूँ |”

“ये सब यहाँ न आते तो अच्छा रहता | बुलाया नाम को सभी आ धमके |”

“यहाँ तो माल पूए पाड़ रहे हैं मुझे अपने घर बुलाकर घास खिला दी |” 

“एक संतोष है, जब से आई है उसे तो ढोलक के सिवाय कुछ दिखाई ही नहीं देता |” 

“उन्होने करण से मकान बनवाने के लिए पैसे क्या ले लिए कि वह सबसे कहता फिरता हैं कि उसने मकान बनवाया है वर्ना इनके क्या बसकी था |”

इस तरह की न जाने कितनी ही घर्णात्मक बातें कुंती ने एक एक करके सभी के कानों में फूंक दी | 

पौने दस बजे बारात रायल पैलेस पहुँच गई | आरता वगैरह होने के बाद थोड़ी देर के लिए वातावरण शांत हो गया | अब खेत की रस्म पूरी होनी थी | सभी स्टेज पर बैठे थे | अशोक को दूर बैठे देख करण ने इशारा करके स्टेज पर आने के लिए कहा | किशन भी उसके साथ बैठा था | दोनों में से कोई टस से मस न हुआ | आखिर करण को गुस्सा आ गया | उसने स्टेज पर खड़े होकर वहीं से झिड़की देते हुए कहा तो किशन तो करण की गड़ी नजरों से सहम कर, आ गया परंतु अशोक पर कोई असर नहीं हुआ | क्योंकि कुंती अशोक को स्टेज पर भेजने की बजाय उसके पास खड़ी होकर उसकी पीठ सहलाने लगी थी | ऐसे लग रहा था जैसे कोई अपने वफादार पालतू प्राणी को शाबाशी दे रहा हो क्योंकि उसने उसके मन की मुताबिक कोई काम कर दिया है | 

एक बार तो करण के खून का पारा बढ गया तथा सोचा कि अभी जाकर अशोक  के गाल पर दो चपत लगा दे परंतु समय तथा स्थान की गरिमा को बनाए रखने के लिए वह खून का घूंट पीकर रह गया | काम कोई रूकता नहीं परंतु सौहार्द पूर्ण वातावरण में सम्पन्न होने का मजा कुछ और ही होता है | 

मेजबान का मुखड़ा हमेशा खिला रहे तो मेहमान को प्रफुल्लित कर देता है परंतु अगर मेहमान ही तनाव से ग्रसित दिखाई दे तो मेजबान को मेहमान नवाजी में कोई आनन्द  नहीं आता | 

सागर की शादी के मंडप में तो नजारा कुछ और ही था | जिनके मेजबान खुश थे उनके  मेहमान खुश थे | परंतु जो मेजबान और मेहमान को मिलाने वाली कड़ी थे तथा जिन्हे सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए था वे ही सबसे अधिक दुखी थे | 

यह पहेली बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं कि  'हम माँ बेटी तुम माँ बेटी चली बाग को जाएँ और तीन निम्बू तोड़कर साबुत साबुत खाएँ '| इसमें तीन पिढियों का समावेश है | बीच वाली औरत अपने आगे वाली औरत की बेटी है तो उसके पीछे चलने वाली औरत की माँ है | पहेली पूछने के हिसाब से तो वे चार बैठती हैं परंतु रिस्तों के हिसाब से वे तीन ही हैं |

इसी प्रकार कुंती का परिवार रिस्तों की धुरी होने के कारण शिव का मेहमान था और करण के परिवार के लिए मेजबान था तो शिव के परिवार के लिए मेहमान था | इसीलिए यहाँ लिखा गया है कि जिसके मेहमान खुश थे उसी के मेजबान भी खुश थे परंतु धुरी अर्थात बीच का परिवार खामोश, दुखी एवं चिंता ग्रस्त था |   

समारोह की धुरी ही बिमार थी तो समारोह का संचालन कैसे ठीक रहता | वह तो एक तरह से करण की बैसाखियों के सहारे किसी तरह घिसट रहा था |  

शादी के मंडप में मुर्दांगी छाई थी | हॉल के तीन अलग अलग कौनों में तीन बहने बैठी थी | तीनों बहने ऐसी लग रही थी जैसे उनका आपस में कभी कोई सम्बंध ही न रहा हो | सागर जो शाम को तैयार होने से पहले अपने जीजा जी मनोज से चिपका हुआ था अब अपने दोस्तों में मसगूल उन्हें भूल चुका था | 

कुंती के मुँह पर तो ताला पड़ ही गया था सागर के लिए भी मेहमान मेहमान नहीं रहे थे | वैसे भी उसके मेहमान थे ही कितने, मुशकिल से बीस | तब भी बिना किसी की परवाह किए सागर अपने रिस्तेदारों के बिना अपने दोस्तों के साथ खाने पर बैठ गया | 

हर पग पर करण को स्थिति सम्भालनी पड़ रही थी क्योंकि उसने शादी का कार्य सुचारू रूप से समपन्न करने का, श्री शिव कुमार जी को, वचन दिया था | स्थिति विस्फोटक न बन जाए इसलिए करण को ही मनोज जी वगैरह को खाने पर बैठने का न्यौता देना पड़ा |

दुल्हन के घर वाले हमेशा डरते रहते हैं कि कहीं कोई त्रुटि न रह जाए जिससे दुल्हे के परिजनों के कोप का भाजन न बनना पड़े | सभी माहौल को पहचान रहे थे | उसी डर की वजह से मेजबान बार बार आकर करण के सामने हाथ जोड़कर किसी भी गल्ती के लिए क्षमा याचना कर रहे थे |  उनका यह वर्ताव कुंती के लिए आग में घी का काम कर रहा था |   

फेरों का समय आया | पंडित जी ने वेदी सजा ली | दुल्हे को वेदी के पास आसन पर बैठने को आमंत्रित किया गया | अमूमन दुल्हा अपने रिस्तेदारों को लेकर ही आसन पर बैठता है परंतु सभी रिस्तेदारों के वहाँ होते हुए भी कुंती ने सागर को अकेले ही वहाँ बैठने का इशारा कर दिया | सागर ने भी अपनी मम्मी की आज्ञा का अनुशरण करते हुए अकेले ही आसन ग्रहण कर लिया | 

पण्डित जी ने मंत्रोचारण करने के बीच दक्षिणा माँगनी शुरू कर दी | हाँलाकि करण वहीं पास की कुर्सी पर बैठा था परंतु किसी ने भी उसे सागर के नेग पूरे कराने के लिए नहीं कहा | कुंती अपने पर्स से रूपये निकाल कर पण्डित जी को थमाने लगी | करण को तो अपना काम सुचारू रूप से सम्पन्न करना था अतः माँ बेटे की हरकतों को नजर अन्दाज करके अपने को सयमित करके वह सागर के पास जा बैठा और सारे नेग पूरे करा दिए |

जनवरी का महीना था | सुबह के पाँच बजे थे | सर्दी पूरे जोश में थी | कोहरे के कारण हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था | बारात की विदाई हो चुकी थी | काफिला देहली से नौएडा जाना था | कुंती अपनी चहेतियों के साथ सबसे पहले एक गाड़ी में सवार हो गई तथा चली गई | जो रिस्ते नाते बचे थे वे शादी की विदाई के साथ ही खत्म होते नजर आ रहे थे | करण ने एक बार अपना मन भी बनाया कि यहीं से अपने घर को जाना बेहतर होगा परंतु संतोष ने एक बार फिर अपनी टाँग अड़ाकर सभी को कुंती के घर से ही विदा होने का एलान कर दिया |

दूल्हा दूल्हन लेकर सकुशल अपने घर पहुँच गया | मेहमान विदा होने शुरू हो गए | कुंती ,अशोक एवं सागर का दिमाग सातंवे आसमान पर था | कोई सीधे मुँह बात नहीं कर रहा था | करण जल्दी से जल्दी वहाँ से विदा लेकर अपने घर पहुँचना चाहता था | उसे अन्देशा था कि देरी होने से कोई बखेड़ा खड़ा हो सकता है | हाँलाकि उसके जहन में बहुत से सवाल उठ कर उसे कचोट रहे थे तथा जवाब माँगने को इच्छुक थे परंतु 'नेकी कर कुएँ में डाल' की कहावत के मद्देनजर उसने चुप रहना ही बेहतर समझा | 

जिसका डर था वही हुआ | कुंती के घर से विदा लेते समय प्रवीण ने अपने बारे में बात साफ करने के लिए अपनी मौसी से पूछा, "मौसी जी आप मेरे से जो नाराज दिख रही हो, कम से कम मेरी गल्ती तो बता दो ?"  

प्रवीण की कोई गल्ती होती तो मौसी बताती | इसलिए इधर उधर मुँह फेरकर केवल इतना बोली, "कुछ नहीं, कुछ नहीं |"

“तो फिर जब से मैं आपके घर आया हूँ आप मेरे से बात करना दो दूर मेरी और देखना भी मुनासिब नहीं समझ रही | न ही आपने मेरी नमस्ते का कोई जवाब दिया |”

इसका जवाब देने की बजाय कुंती ने सुनकर अपना मुँह कुप्पा सा फुला कर दूसरी तरफ मोड़ लिया | 

अपनी मौसी के अपने प्रति ऐसे घृणात्मक रवैये को भाँपते हुए प्रवीण ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए बड़ी सज्जनता से कहा, “तो मौसी जी आपने जो कपड़े मुझे विदा के रूप में दिए हैं मैं आपकी नजरों में उस लायक नहीं हूँ | जब मैं आपकी नजरों में इस लायक हो जाऊँगा तो अपने आप माँग कर ले लूँगा | तब तक के लिए आप इन्हें अपने पास ही रखिए |” 

शायद कुंती को तो इसी बात का इंतजार था | उसे अब जाकर उसकी युक्ति रंग लाती नजर आई थी | उसने एक पल का भी समय व्यतीत न करते हुए जोर जोर से कई उल्टी सीधी बातें करते हुए प्रवीण के हाथ से सारा सामान झपट लिया | 

संतोष के हाथ जोड़कर माँगने पर भी कुंती ने वह सामान वापिस नहीं लौटाया | करण  इस ड्रामें की पटकथा जानता था | इसलिए बीच बचाव के लिए कोई प्रयास नहीं किया और बाहर चुपचाप आकर अपनी गाड़ी में आकर बैठ गया | 

यह तो सर्व विदित है कि अगर एक अनार जहरीला है तो उसके दाने भी जहरीले होंगे | और दाने सैकडों आदमियों को बिमार करने में सक्ष्म होते है | कहने का तात्पर्य यह है कि कुंती की संगत में रहकर सागर के अन्दर भी ठूंठपन, अहंकार, गरूर एवं औछेपन का जहर फैल गया था | तभी तो विदा करते समय उसने अपने बड़े भाई प्रवीण को कहा था, "तेरे जैसे रोज हजारों निकालता हूँ |" 

उसके अन्दर थोड़ी सी भी इंसानियत होती तो वह कभी नहीं भूलता कि वह उसी आदमी के लड़के को वे शब्द कह रहा है जिसके घर के अथक प्रयासों के परिणाम स्वरूप वह इस पृथ्वी पर अवतरित हुआ है |

करण को भी सागर के कहे शब्द बताए गए परंतु समय की नाजुकता को भाँपते हुए वह कुछ नहीं बोला |

इसके विपरीत कुंती यह सोचकर कि वे शब्द प्रवीण ने कहें हैं भड़भडाती हुई अन्दर से आई और झगड़ा करने पर उतारू हो गई | परंतु जब बात का खुलासा हुआ तथा उसे पता चला कि वे शब्द प्रवीण की बजाय सागर ने कहे थे तो वह एक दम शांत हो गई तथा  सागर को अन्दर जाने को कह कर अपने आप भी अन्दर चली गई |

करण का काम पूरा हो गया था | वह अब भी खुशी खुशी घर जाना चाहता था | परंतु विदा होते समय एक बार फिर माँ बेटे का व्यवहार देखकर उसका मन ग्लानि से भर गया |


Sunday, September 27, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (रिश्ता पक्का)

 रिस्ता पक्का 

समय के साथ सागर जवान हो गया | उसके रिस्ते आने शुरू हो गए | कुंती ने राघवजी के न होने से करण को यह कह तो दिया कि अगर कोई रिस्ता आता है तो बात कर लिया करें परंतु करण जानता था कि उसका बताया रिस्ता कुंती को कभी भी मंजूर नहीं होगा | फिर भी करण ने एक रिस्ता बताया | लड़की सागर की तरह बी.टैक थी तथा नौएडा में ही विपरो कम्पनी में सर्विस कर रही थी | उसके पिता मुज्जफर नगर के मूल निवासी थे | 

करण ने सागर से पूछा, “बोल सागर बी.टैक लड़की चलेगी ?”

“मौसा जी, मैं भी तो बी.टैक ही हूँ |”

“लड़की की लम्बाई पाँच फुट एक इंच है |”

“चलेगी | क्योंकि इससे लम्बी लड़की ऊँची एडी की सैंडल में मेरे से लम्बी दिखाई देगी |”

“विपरो कम्पनी में काम करती है |”

“बिलकुल ठीक है |”

“बात आगे बढाकर देखूँ ?”

“देख लो | आपके कहे अनुसार तो सब वाजिब है |”

“अपनी मम्मी जी से और राय ले लो |”

कुंती, सागर को अकेले में किसी से कोई बात करने नहीं देती थी | उसकी निगाह वहीं लगी रहती थी जहाँ सागर किसी से बात कर रहा होता था | करण के साथ बात करते देख वह वहाँ आ टपकी, "अजी क्या राय लेनी है |"

“यही कि एक लड़की है | लम्बाई पाँच फुट एक इंच है तथा विपरो कम्पनी में काम करती है | सागर की तरह बी.टैक करके नौएडा में ही लगी हुई है |”

“देखो जी, हमारे हिसाब से एक तो लड़की की लम्बाई कम है दूसरे हमें विपरो कम्पनी में काम करने वाली लड़की नहीं चाहिए |” 

अपनी मम्मी की बात सुनकर सागर ने कहा, "क्यों विपरो में काम करने वाली में क्या दोष होता है |"

कुंती सागर को डाँटते हुए बोली, " चुप, मैने कह दिया न कि हमें उस कम्पनी में काम करने वाली लड़की नहीं चाहिए |"

अपनी मम्मी जी की फटकार सुनकर सागर मजबूर नजरों से अपने मौसा जी को देखता हुआ वहाँ से चुपचाप चला गया |  

अपने अब तक के तजुर्बे से करण जानता था कि कुंती उसके बताए रिस्ते को अपने उपर एक एहसान मानेगी जो वह किसी हालत में चढने नहीं देगी | इसलिए करण ने अपने कदम फूंक फूंक कर रखना ही बेहतर समझा | अपने मन की यह धारणा करण ने अपनी पत्नि संतोष को भी उजागर कर दी परंतु वह यह समझना नहीं चाहती थी | वह तो अपने को सर्वेसर्वा मान कर चल रही थी | निशछल प्रवृति की संतोष तो अपने को सागर की बडी मम्मी मानती थी | वैसे भी उसकी नजरों में उसके अपने बच्चे कई प्रकार के खोट रखते हैं परंतु दूसरे उसको हमेशा पाक साफ नजर आते हैं | फिर सागर तो उसकी अपनी मेहनत का फल था तो वह प्यारा क्यों नहीं होता | 

जैसा करण सोचता था ठीक उसी प्रकार हुआ | कुंती एवं सागर ने शिव नारायण जी से उनकी लड़की शीतल के रिस्ते के तहत उसे देखने दिखाने की बात पक्की कर ली | इसके बाद उन्होने करण को इतला कर दी, “ सागर के रिस्ते के बारे में शिव नारायण जी का फोन आए तो बात कर लेना |”

करण को क्या इतराज हो सकता था | वह तो नेकी कर कुएँ में डालने की तर्ज पर अपना फर्ज निभाना चाहता था |

एक दिन शिव नारायण जी का फोन आया, "भाई साहब मैं शिव नारायण बोल रहा हूँ |" 

“नमस्कार जी, कहिए क्या बात है ?”

“मैं आपसे सागर जी के बारे में कुछ पूछना चाहता हूँ |”

“पूछिए आप क्या पूछना चाहते हैं ?”

“वे कहाँ के रहने वाले हैं ?”

“वे चन्दौसी, जो उत्तर प्रदेश में है, के मूल निवासी हैं |

इसके बाद करण ने एक एक करके वे सब बातें शिव नारायण जी को बता दी जो उन्होने पूछी | मसलन ,

“सागर के पिता स्वर्गीय श्री राघवकुमार जी उत्तर प्रदेश सरकार में जिला गणना अधिकारी थे |”

“उन्होने अपना मकान ग्वालियर बनाया था जिससे उनका लड़का अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सके |” 

“जैसा कि आजकल अमूमन होता है उनका भी अपने घर वालों से आपसी प्रेम भाव बहुत कम था |” 

“सागर उनका इकलौता लड़का है |” 

“एक तरह से वह कुंती की देखरेख में ही पला बड़ा हुआ है क्योंकि राघवजी का तो मुशकिल में महीने में एक बार ही ग्वालियर जाना होता था |” 

“ग्वालियर रहते हुए अपने साले से भी उनके मधुर सम्बंध न रह पाए | वही स्थिति अभी तक बरकरार हैं |”

“हाँ उनका भतीजा अशोक उनके निकट ही नौएडा में रहता है तथा अपनी बुआ से मेलजोल रखे हुए है |” 

“सागर ने बिरला इंसटिच्युट आफ टैकनोलोजी से बी.ई. की डिग्री  की थी |”

“इस समय वह अस.टी.माईक्रो कम्पनी जो नौएडा में ही है में नौकरी कर रहा है |” 

“मेरे अनुभव के अनुसार उसमें कोई दोष या बुरी लत नहीं है |” 

“मैनें ये जो सब बातें आपको बताई हैं वे उसके गुणों के हिसाब से उन्नीस ही पडेंगी |” 

करण द्वारा कही सारी बातों को सुनने के बाद शिव नारायण संतुष्ट होकर बोले, "हाँ जी जो आपने उनके बारे में खुलासा किया है वैसा ही हमको बताया गया था |"

“अब और कुछ पूछना है तो बताओ ?”

“मुझे इस बात की खुशी है कि आपने सब कुछ साफ साफ बता दिया है | बस अब और कुछ पता करने की जरूरत नहीं है |” धन्यवाद |   

करण ने शिव नारायण को यह कहकर सकते में डाल दिया, “परंतु मुझे बताना है |” 

शिव नारायण भौचक्के से होकर बोले, “वह क्या ?”

“यही कि अब तक जो बातें मैनें आपको बताई हैं वे सागर के हिसाब से उन्नीस ही हैं |”

अबकी बार शिव नारायण जी बहुत खुश होकर तथा हंसते हुए बोले, “भाई साहब आपने यह बात बहुत सुन्दर कही है |” 

इसके बाद एक मॉल में हल्दी राम के एक आऊट लैट पर लड़का लड़की दिखाने का प्रोग्राम बना लिया गया | मिलने का समय रखा गया दिन के ग्यारह बजे | करण समय का पाबन्द था इसलिए वह अपने सभी के साथ ठीक ग्यारह बजे निश्चित स्थान पर पहूँच गया परंतु लड़की वालों की तरफ से वहाँ कोई दिखाई नहीं दिया | करण ने फोन करवा पर पता करवाया तो पता चला कि शिव नारायण जी अपने साथियों के साथ अभी रास्ते में ही थे | 

खैर उनके आने पर देखा दिखाई तथा बातचीत का दौर शुरू हुआ | बात पक्की हो गई और लड़के व लड़की की रोका रूकाई हो गई | तय हुआ कि आगे के कार्यक्रम बनाने हेतू करण के गुड़गाँवा वाले मकान पर बैठक रहेगी |

चलते हुए करण ने कह दिया, "समय पर आने की कोशिश करना |"

करण का आशय समझते हुए शिव नारायण जी कुछ शर्माकर बोले, "जी, जी मॉल की तरह नहीं होगा |"

“परंतु मॉल पर तो आप समय पर पहुँच गए थे”, करण ने बनते हुए कहा |

“बस अब और शर्मिन्दा न करो | मैं जान गया था कि आप वहाँ हमारे से पहले पहुँच गए थे | यह तो आपका बड़प्पन है जो आप ऐसा कह रहे हैं |”

सागर का रिस्ता पका करके सभी प्रसन्नता पूर्वक घर आ गए | परंतु करण महसूस कर रहा था कि कुंती तथा सागर इतने खुश नहीं दिखाई दे रहे थे जितना उनको होना चहिए था | आखिर वे दोनों ही तो थे जो इस रिस्ते के सबसे नजदिकी रिस्तेदार बनने वाले थे तथा भविष्य में उन्हीं को निभाना था | उनके अनमने पन को भाँपते हुए करण ने कुंती से पूछ ही लिया, "क्या कुछ दुविधा है, नए रिस्ते से खुश नहीं हो क्या ?"

कुंती कुछ अनमने मन से बोली, “नहीं नहीं ऐसी बात नहीं है |” 

“तो फिर कैसी बात है, साफ़ साफ़ कहो ?”

कुंती ने थोड़ा अटकते हुए तथा मन मसोस कर कहा, "उन्होने..बस..ग्यारह्..लाख ..लगाने ..की कही है |"

करण आश्चर्य से, "कब कही ?"

“वहाँ जब बाहर लॉन में बैठे थे |”

“मुझे तो पता नहीं |”

“आप वहाँ नहीं थे |” 

“तो आपने वहीं उसी समय यह बात मुझे क्यों नहीं बताई |”

“मैने सोचा घर जाकर बता दूंगी |” 

“अब बताने से क्या फायदा |”

बीच में संतोष ने अपना मत देते हुए कहा, “जो हो गया सो हो गया |”    

कुंती को चैन न था अतः कहने लगी, “वैसे इसके सभी दोस्तों की जो शादियाँ हुई हैं वे कोई भी पंद्रह से कम की नहीं हुई |”

करण ने जोर देकर कहा, “सो तो ठीक है परंतु जब उन्होने ग्यारह कहे थे उसी समय बात करनी थी | अब तो उन्होने पक्का मान लिया होगा कि ग्यारह में मान गए हैं |”

इस बार सागर बोला, “वैसे मौसा जी ग्यारह में कैसे क्या होगा | इतना तो वे खुद ही खर्च कर देंगे फिर हमें क्या मिलेगा ?”

संतोष ने फिर अपना तकिया कलाम वाक्य कह दिया, “देखो मुझे तो अब उनसे इस बारे में कहना अच्छा नहीं लगता परंतु मैं नहीं जानती | आगे आप जानो |”

थोड़ी देर के मौन के बाद करण ने माहौल एवं बात का रूख बदलने के लिए यह कहते हुए कि वह कुछ सोचकर शिवनारायण जी से इस बारे में बात करेगा पूछा, "फिलहाल यह बताओ कि लड़की कैसी लगी ?"

कुंती मुस्कराते हुए ऐसे बोली जैसे ग्यारह की बात उसके दिल में फंसी हुई हो, " लड़की वगैरह तो सब ठीक है |"

“मुझे तो शीतल सागर से लम्बी लग रही थी”, भाभी  माया ने चुटकी ली |

प्रभा ने अपने भाई का पक्ष लेते हुए कहा, “वह इसलिए महसूस हो रहा था क्योंकि सागर का बैठने का तरीका ठीक नहीं था | वह कमर को टेढी करके बैठा था |”

“जब से चोट लगी है वह ऐसे ही बैठता है”, कुंती ने साफ किया |

“परंतु अब सगाई तक अपनी आदत सुधार लेना, “करण ने सागर को सलाह दी |

संतोष ने महौल में खुशी की लहर को तेज करने के लिहाज से एक मजाकिया तौर पर कुंती की और देखते हुए कहा, "मुझे तो समधी और समधन बहुत पसन्द आए |"

एक बार को लगा कि कुंती आज पहली बार दिल से हँसी थी |

इस बीच करण ने यह सोचकर कि शिव नारायण से ग्यारह के बारे में कैसे बात करनी है उन्हे टेलिफोन मिलाया,  "घर सकुशल पहुँच गए जी ?"

“हाँ जी सब सकुशल पहुँच गए हैं जी |”

“रिस्ता पक्का करने में कोई त्रुटि तो नहीं रही ?”

“नहीं जी ऐसी कोई बात नहीं है | अगर हमारी तरफ से रह गई हो तो मैं उसके लिए माफी चाहता हूँ |”

“शिव नारायण जी माफी माँगने वाली कोई बात ही नहीं है | वैसे मुझे आपसे एक बात कहनी है |”

“आज्ञा दिजिए हमें क्या करना है |”

करण सीधा अपने मुद्दे पर आते हुए, "सुना है आपने ग्यारह की बात कही है ?"

“हाँ जी |” फिर जैसे शिव नारायण को अपनी भूल का एहसास हो गया हो बोला, "माफ करना जी मैं आपसे कहना भूल गया |"

“अगर आप मुझे वहीं कह देते तो अब बात करने की जरूरत ही न पड़ती | खैर बात यह है कि जब मैं पहली बार आपसे मिलने आपकी दुकान पर गया था तो मैनें बैठते ही आपकी हैसियत का अन्दाजा लगा लिया था |”

“वह क्या जी ?”

“कि आप खुद ही ग्यारह से ज्यादा की पार्टी हैं |”

“अजी हम कहाँ इतना ऊँचा सोच सकते हैं |”

“मेरा अन्दाजा गल्त नहीं हो सकता |”

“अच्छा जी तेरह कर लो |”

“तो फिर इन तेरह को मैं आपके कथन के अनुसार उन्नीस ही मान कर चलूँगा ईक्कीस नहीं |”

करण के ऐसा कहने से शिव नारायण की उन्मुक्त हँसी सुनाई दी तथा सुनाई पडा, “देख लेंगे जी |”

इस प्रकार कुंती एवं सागर की पहली समस्या का हल निकल गया था |

करण का पूरा परिवार सागर की शादी को लेकर बहुत उत्साहित था | माँ बेटे के साथ सब की सहानुभूति भी जुड़ी हुई थी क्योंकि उनको सहारा देने वाला कोई दिख नहीं रहा था | इसलिए सभी निष्कपट, निस्वार्थ एवं खुले दिल से सागर की शादी में हिस्सा लेने का मन बना चुके थे | वैसे तो करण भी इस हक में था कि सभी इसमें खुशी खुशी शामिल हों परंतु कुंती के पुराने व्यवहार को भाँपते हुए उसके मन में एक शंका ने घर कर रखा था कि उसका कुछ भरोसा नहीं था कि वह कब,  कहाँ तथा किस बात पर नाराज हो जाए और रंग में भंग कर दे | फिर भी संतोष के आग्रह से तथा यह सोचकर कि कुंती का लड़का सागर अब अपनी माँ को सम्भालने में समर्थ होगा, उसकी शादी का कार्य सम्पन्न कराने के लिए अपने कदम आगे बढा दिए | 

शादी की तैयारियाँ होने लगी | शादी में कौन क्या करेगा तथा किस को क्या कार्य करना है के मुद्दों पर चर्चा होने लगी | 

संतोष ने शुरू करते हुए कहा, "कुंती अपने मन में तूने बहू की सिर गूंथी करवाने के बारे में क्या सोचा है ?"

“सोचना क्या है, और कौन है, बेबी को ही ये नेग करना पडेगा |”

“क्यों स्नेह वगैरह भी तो हैं ?”

“हैं तो परंतु अब मैं किस किस के हाड़े खाते फिरूँगी |”

“देख कुंती हाड़े खाने की बात तो ये है कि समय पर तो न जाने किस किस के हाड़े खाने पड़ते हैं | स्नेह वगैरह भी तो अपनी हैं |”

“सो तो ठीक है परंतु प्रभा ही करेगी |”

“इसी तरह अपने आगे तक की सोच लेना कि किस टेहले में किस रिस्तेदार को क्या भुमिका निभानी है |”

“देख संतो तुझे पता ही है कि भगवान के बाद मेरा आप लोंगो के सिवाय और कोई सहारा नहीं है | सागर के पापा जी की जगह उसके मौसा जी सारा काम देख रहे हैं तो सागर की बहन की जगह उनकी लड़की ही सारे नेग करेगी | और लड़के के जीजा जी के सारे नेग फिर मनोज जी को करने ही हैं |” 

हालाँकि मनोज जी ने भी करण की तरह अपनी शंका जाहिर की थी कि वे मौसी जी के व्यवहार को समझ पाने में असमर्थ हैं इसलिए अपने को साधारण तरह से समारोह में सम्मिलित होने का प्रस्ताव रखा था | उनका यह सन्देह किसी हद तक वाजिब भी था |

जब कुंती के पिता जी बिमार थे तो मनोज जी उन्हें देखने ग्वालियर गए थे | उसी समय वे अपनी मौसी कुंती से मिलने की इच्छा से उनके घर चले गए | अभी तक उन्हें नहीं पता था कि उनकी मौसी करण से नाराज चल रही थी | वैसे भी करण से नाराजगी उनके बीच खट्टा बनने का सबब नहीं होना चाहिए था | परंतु ठूंठपन अपना रंग दिखा ही देता है | कुंती ने मनोज जी की कोई आवभगत नहीं की तथा वे थोड़ी  देर अकेले मकान की छत पर बैठकर जैसे गए थे उल्टे पैर वैसे ही लौट आए थे |

परंतु सभी के यह कहने पर कि उस समय और अब में तो कुंती के व्यवहार में जमीन आसमान का अंतर दिखाई दे रहा है मनोज जी ने भी खुशी खुशी सब नेग पूरे करने की हामी भर दी |

सागर की सगाई पर बहू की सिर गूंथी का काम प्रभा ने तथा अन्य काम माया, स्नेह ,रानी एवं कुंती की बडी बहन पार्वती ने सम्पन्न कर दिए | 

शादी की तैयारियाँ होने लगी | खरीद फरोखत तथा कैसे क्या कब और कहाँ करने के प्रोग्राम बनने लगे | प्रवीन ने सागर को अपना छोटा भाई मानते हुए अपनी मौसी को फोन मिलाया," मौसी जी आप भाई की शादी अपने घर गुड़गाँवा से कर लो तो बेहतर होगा |"

कुंती ने उस समय तो कह दिया कि विचार करूंगी परंतु उसके बाद इस बारे में कोई जिक्र नहीं किया |   

शादी के सामान की खरीदारी के लिए एक बार तो साथ गए परंतु उसके बाद तो बस पूछताछ तक की औपचारिक्ता तक ही सीमित रह गए | बताने के बावजूद काम अपनी मर्जी से होने लगे | 

करण को कार्ड की छपाई का मजबून तो भेजा गया परंतु उसमें बताई गई फेर बदल को नजर अन्दाज करके वही मजबून छपवा दिया गया जो देखने के लिए भेजा गया था |

कार्ड में कुंती एवं सागर के नाम को छोड़ कर घर के उन सभी स्वर्गवासियों के नाम छपवाए गए थे जिनको शायद कुंती ने जीते जी कभी इज्जत न बख्सी होगी तथा सागर का उन्हें देखना तो दूर रहा उनका साया भी सागर पर न पड़ा होगा |

अपने पिता समान जीजा जी, श्री सत्य प्रकाश जी का नाम भी अपने कार्ड में छपवाना जायज न समझा तो छोटे जीजा जी करण की क्या औकात थी | लगा सागर की सगाई तक ही कुंती को दूसरों का साथ चाहिए था क्योंकि ऐसा महसूस होने लगा था कि उसके बाद उसने सभी से दूरी बनानी शुरू कर दी थी | लग्न पाँच दिन के बजाय तीन दिन का कर दिया गया उस पर भी किसी रिस्तेदार को मन से नहीं बुलाया | 

पहले से प्रोग्राम बना था कि करण ही सागर की होने वाली ससुराल में उसकी शादी के कार्ड देने जाएगा | परंतु करण ने कुंती एवं सागर के रवैये तथा कार्ड के मजबून को देखते हुए कार्ड देने जाने में आनाकानी कर दी | उसने सोचा कि कार्ड तो वह ले जाएगा परंतु अगर वहाँ उससे किसी ने पूछ लिया कि आप कौन तो वह क्या जवाब देगा | वही बात हो जाएगी कि किसी ने पूछा पहचान मैं कौन तो सामने वाले ने कहा कि 'तू खाँमाखाँ !' तो करण खामाखाँ बनने से बचने ले किए कार्ड देने गया ही नहीं तथा सलाह दे दी कि जब सागर की ससुराल से लग्न पत्रिका देने आएँ तो कार्ड उन्हे ही थमा देना | कुंती की मंशा शायद पूरी हो गई थी तभी तो उसने करण से एक बार भी नहीं पूछा कि क्यों कार्ड देने आप क्यों नहीं जा रहे ?

मनोज जी को शादी के लिए बैंड बाजे तथा घोड़ी करने की कहने के बावजूद सागर ने उन्हें बिना बताए 38000/-रूपये की एक बैंड वाले को अग्रिम राशि भेज दी | जबकि मनोज जी ने 26000/- रूपये में जो बैंड कर लिया था उसकी जमा की गई अग्रिम राशि जब्त हो गई | इन सब कारनामों का आशय शायद किसी से कोई काम न कराकर अपने उपर एहसान न लेना था | 

कुंती की बड़ी बहन एवं जीजा जी उसके घर शादी से एक सप्ताह पहले पहुँच गए तो उसे बहुत खल रहे थे | इन्हीं सब बातों को देखकर करण सोच रहा था कि सागर की शादी में अपने पूरे परिवार को ले जाना बेहतर न होगा क्योंकि जब दो ही उसे खल रहे हैं तो हम आठ को वह झेल पाएगी भी या नहीं |

परंतु संतोष इतनी भाव विभोर एवं प्रसन्न थी जैसे उसके अपने तीसरे बेटे की शादी हो रही थी | वह हर बात में कह देती थी कि सागर तो मेरा सबसे प्यारा बेटा है | उसकी शादी में जाने के लिए वह बड़ी  मुस्तैदी तथा लग्न से हर अलग अलग टेहले में पहनने के लिए अलग नया कपड़ा लाई थी | बहू की मुँह दिखाई, रोटी कराई  एवं उसकी नौतनी के लिए पहले से ही इंतजाम करके बैठ गई | 

छोटे भाई की शादी के नाम पर संतोष ने प्रवीण तथा पवन के व्यापरिक संस्थान भी दो दिनों के लिए बंद करवा दिए थे | संतोष की प्रसन्नता को कोई ठेस न पहुँचे इस वजह से करण का पूरा परिवार तथा मनोज जी का पूरा परिवार खुशी खुशी 18 जनवरी 2010 को लग्न वाले दिन कुंती के यहाँ जा धमका |     


Saturday, September 26, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (बे-लगाम)

 बे-लगाम 

अबकी बार राघवजी जब करण के यहाँ आए तो संतोष की एक पैर की एडी में दर्द था | वे उचक उचक कर चल रही थी | उनको ऐसा चलते देख राघव जी ने पूछा, "क्यों क्या हो गया ?" 

“इस एडी में दर्द रहता है |” 

“कहाँ ?”

“एडी के बीच में |”

“दिखाना कहाँ ?”

जब संतोष ने अपनी चप्पल उतार कर अपनी एडी दिखाई तो राघव जी ने उसकी चप्पल में गढा देखकर आश्चर्य से कहा, "अरे आपने तो अपनी चप्पल में भी एडी के नीचे गढा कर रखा है |"

“इसी गढे की वजह से थोडी चल भी लेती हूँ अन्यथा चलना बडा मुशकिल हो जाता है |”

“कुछ दवाई ले रही हो ?”

“डाक्टरों ने कहा है कि आपरेशन करना पडेगा |”

“आपरेशन क्यों ?”

“उनके अनुसार मेरी एडी की हड्डी बढ गई है |”

“एक बार फिर ठीक से दिखाना |”

“धीरे से दबाना बहुत दर्द होता है |”

सब कुछ देखकर राघवजी ने होम्योपैथी की एक दवा लिखी तथा उसे बाजार से मंगा लिया | दवाई संतोष को देते हुए, "लो ये दिन में तीन बार ले लेना | देखना दो दिनों में ही आप दौड़ ने लगेंगी |”

संतोष ने मजाक करते हुए कहा, "मुझे दौड़ना नहीं है बस ठीक से चलने लायक बनना है |" इस पर सभी हँसने लगते हैं |

करण ने देखा कि राघवजी अपनी बाजूओं पर रूद्राक्ष की माला बांधे हुए थे | उंगलियों में भी कई प्रकार की अंगुठियाँ पहने हुए थे | पूछने पर उन्होने बाताया कि उन सब चीजों का उन्हें अच्छा ज्ञान है तथा इनके बारे में वे बहुतों को नेक सलाह भी दे चुके हैं |

करन ने जब राघव जी से ऐसा जाना तो उनकी तारीफ़ करते हुए बोला, “इन सबके धारण करने से ही पता चल जाता है कि आप तो कई विषयों में माहिर हो ?”

अपने चेहरे पर विज्यी मुस्कान लाकर राघवजी ने कहा, "मेरा ध्येय हमेशा दक्षता ही होता है |"

करण ने थोडा झिझकते हुए,  जिससे उनके कहे का राघवजी बुरा न मान जाँए, धीरे से कहा, “आप जब ज्योतिष विद्या जानते ही हैं तो यह भी जानते होंगे कि ईशवर ने एक व्यक्ति का जो धंधा नियुक्त कर दिया है तो उसे वही अपनाना चाहिए | पहले काम के रहते अगर वह दूसरों के काम में दक्षता हासिल करके उसका उपयोग करता है तो उसका परिणाम कभी कभी बहुत भयंकर होता है |”

राघवजी ने करण की और ऐसे देखा जैसे पूछ रहे हों कि आप यह सब कैसे जानते हैं ?

फिर एक लम्बी गहरी साँस भरकर बडी शालीनता तथा बैठे दिल से कहा, “भाई साहब अकेले में समय काटे नहीं कटता | इन्हीं विषयों के अध्ययन में रूची लेकर अपना वक्त बिताने के साथ साथ कुछ समय के लिए अपनों को भुला लेता हूँ |” 

लगा राघवजी का दिल अन्दर से बहुत व्यथित होकर रो रहा था |

सुना है अच्छे लोगों को भगवान अपने पास जल्दी बुला लेता है | राघवजी के साथ भी वही हुआ | अभी  सागर महज चौदह वर्ष का था | राघवजी दो दिनों के लिए घर आए थे | आने वाले दिन की रात को अचानक उन्हें एक उल्टी आई और वे सुबह का सूरज न देख सके | उनका स्वर्गवास हो गया |

राघवजी की मौत की खबर सुनकर उनके भाई तथा एक दो रिस्तेदार तो आए परन्तु  ऐसा प्रतीत होता था जैसे वे केवल उल्हाना उतारने या केवल औपचारिकता निभाने ही आए थे | क्योंकि उनमें से किसी ने भी राघवजी को अपना सगा मानते हुए कोई भी संस्कार अदा नहीं किए | उनकी तरफ के सारे रितीरिवाज संत राम को ही पूरे करने पड़े | इसके विपरीत कुंती के व्यवहार को देखकर ऐसा लगता था कि वह भी उनके आने से खुश नहीं थी | अर्थात न तो वे आना चाहते थे और न ही कुंती उनको वहाँ देखना चाहती थी | वैसे भी इस हादसे के बाद राघवके घर से कभी भी कोई भी किसी प्रकार का हाल चाल पूछने कुंती के यहाँ नहीं आया | न ही कुंती सागर को लेकर अपनी ससुराल गई | राघवजी के साथ उनकी चिता की अग्नि में जल कर सारे रिस्ते नाते भी भस्म हो गए थे |  

बाहरवीं पास करने के बाद सागर ने पिलानी इंजिनियरिंग कालिज में दाखिला ले लिया | उसे वहाँ पाँच वर्ष बिताने थे | कुंती ग्वालियर में अकेली रह गई थी | अभी तक जो थोड़ा बहुत उसके उपर दवाब था वह केवल राघवजी का ही था जो अब इस दुनिया में नहीं थे | उसे कोई काम न था | कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर होता है | कुंती को और तो कुछ सुझा नहीं मकान के बारे में अपने भाई संत राम पर ही सौ तरह के इल्जाम लगाने शुरू कर दिए | कभी कहती मकान की रजिस्ट्री नहीं करते, कभी कहती बाल्मिकी के मौहल्ले में बसा दिया इत्यादि | उसने यह कभी नहीं सोचा कि संत राम ने उसका मकान बनवाने में कितनी मेहनत की थी | राघवजी तो महीने में एक ही बार, वह भी केवल दो दिनों के लिए ही, ग्वालियर आते थे और दो दिनों में मकान नहीं बन सकता था | एहसान मानना तो कुंती ने सीखा ही नहीं था फिर अब कैसे मान लेती | और इस तरह राघवजी के बाद जो उस पर थोड़ी पाबन्दी लगा सकता था उससे भी कुंती ने नाता तोड़ लिया | अब कुंती एक तरह से खुली लगाम की घोड़ी से बे लगाम की घोड़ी बन गई थी |  अब केवल एक अशोक ही ऐसा रह गया था जो उसका हमदर्द बन कर रह रहा था |  

अपने भाई से नाता तोड़ने के बाद भी उसका खाली दिमाग शांत न रह सका | उसे बैठे बैठे यह बात सताने लगी कि जिस मकान में वह रह रही है वह किसी और की सहायता से लेकर बनवाया गया था | उसको कौन समझाता कि लेन देन तो दुनिया का दस्तूर है | और फिर करण ने कोई अपना पैसा लगाकर तो उनका मकान बनवाया नहीं था | उसने तो उनको केवल बैंक से ऋण दिलाया था जो राघवजी ने धीरे धीरे चुकता कर दिया था | परंतु अब कुंती के दिमाग के फतूर को शांत करने वाला कोई नहीं था | इसलिए उसने अपने आशियाने को औने पौने दामों में बेचकर ही दम लिया और किराए पर रहंने लगी |

जब से राघवजी ने कुंती के सागर के प्रति लगाव का वर्तान्त सुनाया था करण ने कभी भी सागर से बात करने की कोशिश नहीं की थी | सागर को ट्रेनिंग पर गए एक वर्ष बीत चुका था | एक बार संतोष के बहुत जिद करने पर करण सागर से मिलने पिलानी चला गया | यह कुंती को गँवारा न हुआ | थोड़े दिनों बाद कुंती ने सागर से कहलवा दिया कि अब उससे मिलने कोई न आए क्योंकि कालिज वालों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है |

सागर अपनी ट्रेनिंग के बाद नौएडा में नौकरी लग गया | वहीं कुंती ने एक मकान किराए पर ले लिया |

जमानत मिलने के बाद अशोक ने ग्वालियर छोड़ दिया और एक बार फिर अपनी बुआ कुंती की छत्रछाया में आकर वफादारी दिखानी शुरू कर दी | धीरे धीरे अशोक का सब सामान, जो उसने ग्वालियर में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करके जमा किया था, बिकने लगा | मसलन उसका मकान, घर का बहुत सा सामान यहाँ तक की उसकी गाडी भी बिक गई | किसी को पता नहीं था कि नौएडा में अशोक क्या काम करता था | यहाँ तक कि उसकी पत्नि माया भी इस बारे में अनभिज्ञ थी | तभी तो पूछने पर वह साफ कह देती थी, “ पता नहीं क्या करते हैं | मुझे तो इतना पता है कि घर का खर्चा नौकरी करके मैं चला रही हूँ |” 

वास्तव में ही किसी को कुछ खबर नहीं थी कि अशोक करता क्या था | कभी तो वह कहता था कि उसका एक ट्रक चलता है जो गवालियर से मुमबई माल ले जाता है | थोड़े दिनों बाद वह कहने लगा कि अब उसके पास दो ट्रक हो गए हैं | परन्तु उसका एक भी ट्रक कभी किसी को दिखाई नहीं दिया | वह अपने निवास नौएडा से कई–कई दिन तक गायब रहता था और पूछो तो बताता था कि वह अपने ट्रकों की देख रेख में गया था परन्तु वास्तविकता यह होती थी कि वह बारी बारी से अपने किसी न किसी रिश्तेदार के यहाँ जाकर डेरा डाल लेता था और कुछ दिन रोटियां तोड़ कर वापिस आ जाता था | 

ट्रकों के चलते एक बार वह कहने लगा था कि वह एक्सपोर्ट का काम करेगा और इसी बहाने अपने रिश्तेदारों से जो पहले से एक्सपोर्ट का काम करते थे मिलने मिलाने में तथा उनके यहाँ खाना खाते खाते महीनों गुजार दीए | फिर उसकी निगाह आसाम की कोयलों की खानों की तरफ घूम गयी | मसलन काम तो उसने बहुत किए तथा सोचे भी परन्तु सब उसके ख्याली पुलाव ही निकले | उसे न कुछ करना था न किया ही | 

वह खर्च करने के नाम पर एक की टोपी दूसरे के सिर पर पहनाने में माहिर था | उसका पैसा पाने का तरीका भी अजीब था | पहले वह बैंक से ॠण ले लेता था जो कभी वापिस नहीं करता था | फिर अपने रिश्तेदारों की तरफ हाथ बढ़ा देता था | एक रिश्तेदार द्वारा तकाजा करने पर दूसरे रिश्तेदार को फांस कर पहले वाले का आधा पैसा लौटा देता था | इस तरह कई लागों का वह कर्जदार बन गया था | सोचने की बात है कि अगर उसके ट्रक चल रहे होते तो माँगने की नौबत कैसे आती | 

उसकी पत्नी ही नौकरी करके बच्चों का पेट पाल रही थी | ऊपर का खर्चा वह उन आधे पैसों के ब्याज से, जो उसने जबरदस्ती अपने नाम करा लिए थे, जब उन्होंने अपना गवालियर का मकान बेचा था, चला रही थी | अशोक ने कभी कोई पैसा माया के हाथ में नहीं थमाया | यह राज तब खुला जब माया ने एक बार सबके बीच में कहा, “न जाने इनका क्या क्या धंधा चल रहा है, घर का खर्चा तो मैं ही चला रही हूँ |”   

अर्थात कुंती से चापलूसी के बदले फ्री में खुला जेब खर्चा मिलने के कारण अशोक बेकाम और नकारा हो गया जिसका उसको बाद में, अपनी पत्नी की आत्म ह्त्या के रूप में, बहुत भारी खामियाजा भुगतना पड़ा |


Friday, September 25, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (पूत के पाँव)

 पूत के पाँव                               

बात उस समय की है जब कुंती कवांरी थी | उसके भाई संत राम का विवाह श्री राम सहाय के साथ बैंक में कार्यरत श्री ईशवरी प्रसाद जी की लड़की सुमन के साथ सम्पन्न हुआ था | सुमन एक पढी लिखी और स्वतंत्र विचारों वाली लड़की थी | वह यह सोचकर आई थी कि जैसे बाहर शहर में रहने वाले परिवारों में थोड़ा खुलापन होता है उसी प्रकार उसे अपनी ससुराल में भी मिलेगा | परंतु अपनी ससुराल में आकर जब उसको ऐसा कुछ नहीं मिला तो उसकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया | उसकी ससुराल थी तो शहर में परंतु उसमें रहने वालों की विचार धाराएँ गाँव में बसर करने वालों जैसी थी | घूंघट का प्रचलन, ऊपर से नीचे तक ढ़के दबे रहना, न खुलकर बोलना न हँसना ऐसे वातावरण में सुमन का मन बौखला उठा | वह अपने को पिंजरे में बन्द एक पक्षी के समान समझने लगी | कुसुम इस माहौल से थोड़े दिनों में ही ऊब गई और उसने आजाद होने की ठान ली | एक दिन रात को बिना किसी को बताए वह अपनी ससुराल छोड़कर अपने पीहर चली गई | 

इसके कुछ दिनों बाद संत राम के बड़े जीजा जी श्री सत्य प्रकाश जी के पिता जी श्री मुकंदी लाल जी ने अच्छनेरा के पास एक गाँव नगर-फतेहपुर सिकरी से संत राम का रिस्ता आशा नाम की लड़की से करवा दिया | कुसुम तो स्वछन्द विचारों वाली लड़की थी इसलिए उसका निर्वाह न हो पाया था | अब यह आशा ठेठ गँवार थी अर्थात घर वालों की आशा से ज्यादा सीधी सादी | एक तो नई दुलहन को ससुराल में अपने को स्थापित करने में समय लगता है ऊपर से अगर वह ठेठ गाँव से शहर में आई हो तो फिर राम जाने उसके साथ क्या क्या बितती है | मसलन मैदान जंगल, शौच, नहाना धोना, घर का रख रखाव, खाना पीना, पहनना ओढना, बोलना चालना यहाँ आशा के लिए सभी कुछ तो नयापन लिए था | इसलिए उसकी ससुराल में आशा के साथ भी उसकी आशाओं के विपरित व्यवहार होने लगा | एक बच्चे को जन्म देते देते वह इतनी तंग आ गई कि अपने चार महीने के नवजात शिशु को छोड़कर अपने पीहर चली गई | चार महीने बाद किसी तरह समझा बुझाकर आशा को वापिस लाया गया | 

इन चार महीनों में कुंती ने ही आशा के नवजात शिशु (अपने भतीजे अशोक ) का पालन पोषण किया था | वापिस ससुराल आने पर आशा को अशोक के प्रति अपनी ममता का गला घोंट कर बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी | क्योंकि कुंती ने, आशा के गिड़गिडाने व माफी माँगने के बावजूद, अशोक को हाथ भी नहीं लगाने दिया | आशा की ससुराल के सभी सदस्यों ने आशा का कोई साथ नहीं दिया बल्कि उसे सभी ने नकार सा दिया | अब कुंती ही अशोक को उठाती, उसे स्कूल के लिए तैयार करती, उसका नाशता बनाती, स्कूल छोड़कर आती तथा छुट्टी होने पर स्कूल से वापिस लाती | मतलब अब कुंती ही अशोक की सब कुछ बन चुकी थी | आशा यह सब कुछ होते देख अपना मन मसोश कर रह जाती थी | उसमें इतनी हिम्मत न थी कि किसी के सामने अपना मुँह खोल सकती |

समय व्यतीत होने लगा | कुंती की शादी हो गई | उस समय तक अशोक अपने जीवन के बारह बसंत देख चुका था | अब वह सब कुछ समझने लायक हो गया था | परंतु कुंती के व्यवहार ने अशोक के कोमल हृदय में बचपन से ही उसके अपने माता पिता के प्रति नफरत एवं घृणा के जो बीज बो दिए थे जो अब कुंती की विदाई पर उनके लिए नासूर बन चुके थे | कुंती के ससुराल जाने के बाद भी अशोक को, उसके सरंक्षकों ने, उसकी माता आशा के नजदीक फटकने नहीं दिया | 

इसमें अशोक के पिता संत राम की भी बहुत बड़ी कमी रही | वह पैसा खर्च करने के मामले में कमजोर नीयत का इंसान था | अशोक को अपने पास न रख कर वह उस पर होने वाले हर खर्चे से आजाद था | पैसों के पीछे उसने अपने प्रति अपने लड़के की घृणा का कोई मूल्य नहीं आँका | जिसके लिए आगे चलकर संत राम को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी |   

कुंती अपना मकान बनवा कर थाटी पुर(ग्वालियर) में रहने लगी थी | वह प्रत्येक दिन या तो स्वयं थाटी पुर से लशकर चली जाती या अशोक को थाटी पुर अपने पास बुला लेती थी | इस प्रकार शादी के बाद ग्वालियर बसने से एक बार फिर वह अशोक की सर्वेसर्वा बन गई थी | 

अशोक ने गरेजूएशन कर ली थी परंतु वह अभी कुछ काम नहीं करता था | कुंती ने तिगड़म भिडाकर अपने मकान के सामने ही अशोक की एक परचून की दुकान खुलवा दी जिससे उसका रोज का लशकर का आना जाना भी समाप्त हो जाए तथा अशोक  को अपनी छत्रछाया में भी रख सके | परंतु बदकिशमती से वह दुकान का कारोबार ढंग से न चला सका और अशोक को वह दुकान बन्द करनी पड़ी | दुकान को छोड़कर अशोक  ने ग्वालियर में ही नए खुले टाटा सर्विस सैंटर में नौकरी कर ली | 

टाटा सर्विस सैंटर में नौकरी करते हुए अशोक अप्रत्याशित तरक्की करने लगा | थोड़े ही दिनों की नौकरी में उसने इतना कमा लिया कि तानसेन नगर में उसने एक प्लाट भी ले लिया | उसकी तरक्की को देखते हुए उसकी शादी भी ग्वालियर की एक सम्भ्रांत परिवार की एक पढी लिखी लड़की माया से हो गई |  

माया का पति अशोक अपनी बुआ कुंती का अपने सिर पर हाथ फिरवाते फिरवाते उसके  लिए एक वफादार व पालतू प्राणी की तरह बन चुका था | अमूमन ऐसा होता है कि नई नवेली दुल्हन अपनी ससुराल में अपने पति के पद चिन्हों पर चलना पसन्द करती है | माया ने भी वही किया | उसने अशोक का अनुशरण करते हुए अपनी बुआ जी को अपना सर्वेसर्वा मान लिया | आशा जो अभी तक अशोक के लिए एक बेगानी थी तथा जो न जाने अपने मन में कितनी आशाएँ और सपने संजोए थी कि अशोक की शादी के बाद उसकी दुल्हन आकर उसके लड़के के दिल से उसके प्रति भरी सारी गल्त धारणाओं को समाप्त करके उसके परिवार में मंगल मय वातावरण बनाने में सहायक सिद्ध होगी |  आशा की आशाएँ केवल आशा ही होकर रह गई |  माया भी जीवन की दौड़ में कुंती के प्रभाव से अछूती न रह सकी | वह अपनी सास तथा अपनी ददिया सास का कोई सम्मान न करते हुए उनसे लड़ झगड़ कर अलग हो गई तथा एक तरह से अपनी बुआ जी के सामने उसने भी अपने घुटने टेक दिए |

अशोक ने अपने दादा जी, श्री राम सहाय जी, के मकान की पहली मंजिल को अपना आशियाना बना लिया | उसका पिता संत राम, अपने पिता के साथ अनबन चलते, अपनी पत्नि के साथ ग्वालियर की शिवाजी कालोनी में किराए पर रहता था | 

राम सहाय जी ने अपनी नौकरी के दौरान अपने परिवार का लालन पालन बहुत सुन्दर ढंग से किया | भिंड जैसे बीहड़ इलाके में नौकरी करते हुए भी उन्होने अपने बच्चों को किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं होने दी थी |

जब कुंती की शादी हुई थी तो राम सहाय जी अपनी सैंट्रल बैंक की नौकरी से रिटायर हो चुके थे | वे बहुत ही सरल, सादा तथा मृदुभाषी इंसान थे | अपने जीवन के हर पहलू को वे बहुत सोच समझ कर अपने ही अन्दाज में जीते थे | अपने रिटायरमैंट से पहले ही उन्होने अपना एक ध्येय नियुक्त कर लिया था कि उन्हें आगे अपनी जिन्दगी का सफर कैसे तय करना है | अपनी लड़की की शादी के लिए होने वाले खर्च को भाँप कर उसका पैसा अलग रख दिया था |  

राम सहाय जी ज्योतिष विद्या में कुछ ज्यादा ही विशवास रखते थे | ज्योतिषियों ने उनकी आयु पचहत्तर वर्ष आँकी थी उसी के अनुसार उन्होने अपनी बाकी की जमा पूँजी को हर महीने के खर्च के अनुसार बाँट कर रख दिया था | अपनी आयु को निशचित पचहत्तर वर्ष मान वे आनन्द पूर्वक अपना जीवन बिता रहे थे |

परंतु वे यहाँ चूक गए | वे पचहत्तर वर्ष पार कर गए | ज्योतिषों पर अंध विशवास करने के कारण उनकी नकदी ने जवाब देना शुरू कर दिया था | अब आगे अपना खर्चा चलाने के लिए उनके पास केवल एक ही विकल्प रह गया था कि वे अपने गहने बेच दें जो वे अपने बच्चो के भविष्य के लिए सुरक्षित छोड़ देना चाहते थे | इस समस्या के समाधान के लिए उन्होने अपने मंझले दामाद करण को सन्देशा भेज कर बुला लिया |

“कुंवर जी मेरे सामने एक गम्भीर समस्या आ गई है |” 

“बाबू जी वह समस्या क्या है ?”

“रूपयों की | अपने घर के खर्चे की |”

“क्यों अचानक ऐसी क्या बात हो गई ?”

“यह अचानक नहीं आई है | यह मेरी गल्त धारणा के कारण आई है |”  

करण आश्चर्य से, "गल्त धारणा ?" 

“हाँ”, असल में मैनें ज्योतिषियों के चक्कर में पड़कर अपनी उम्र महज पचहत्तर वर्ष आँक कर उसी अनुसार अपनी सारी पूंजी खर्च कर डाली | परंतु अब सतहत्तर वर्ष पार करने पर भी मैं जिन्दा हूँ |

“आपने........?” 

करण कुछ पूछना चाहता था कि उसके ससुर ने उसका आशय समझते हुए उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, "बस इस बारे में और कुछ मत पूछना | मैं खुद शर्मिन्दा हूँ कि ज्योतिष को पत्थर की लकीर क्यों मान बैठा |"  

करण ने अपनापन दर्शाते हुए कहा, "अगर आप एतराज न मानों तो आपका खर्चा मैं उठाने को तैयार हूँ ?”

“इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद परंतु मैं ऐसा कभी नहीं चाहूँगा |”

“फिर आप चाहते क्या हैं ?” 

“फिलहाल मैनें अपनी एक सोने की रामनौमी का हार बेच दिया है तथा अपने खर्चे का इंतजाम कर लिया है | परंतु मुझे लगता है कि इससे भी काम नहीं चलेगा | मेरी सेहत के हिसाब से मैं अभी मरने वाला नहीं हूँ | (अपने चेहरे पर एक मुस्कान लाते हुए वे आगे बोले) इसलिए मुझे ये रूपये भी कम पड़ते नजर आ रहे हैं |” 

“तो फिर आपका क्या विचार है ?”

“अब मैं चाहता हूँ कि मेरे पास जो एक सोने की तगड़ी है उसे भी बेच दूँ | (फिर थोड़ा सोचकर) तगड़ी शुद्ध सोने की है | सुनार से मोल भाव लगवा कर उसे आप ले लो |”

“बाबू जी यह ठीक नहीं रहेगा | सभी मुझ पर शक करेंगे |”

“मैं आपको लिखकर दे दूँगा कि मैनें वह तगड़ी बेची है |” 

“सो तो आपकी बात ठीक है परंतु सबसे पहला हक इस पर संत राम का है | वैसे इस बारे में एक बार सभी को बताना ठीक रहेगा |”   

“जैसी आपकी मर्जी | मुझे तो बेचनी ही है |”

इसके बाद करण ने संत राम, सत्य प्रकाश, राघव एवं अशोक से उस तगड़ी को खरीदने का आग्रह किया परंतु कोई राजी नहीं हुआ तो अपने ससुर की मनोइच्छा की पूर्ति करते हुए वह तगड़ी 45000/- रूपये में खुद खरीद ली | 

“बाबू जी अब मेरी एक सलाह और मान लो |”

“वह क्या है ?”

“अब आपके पास जितना भी पैसा है वह बैंक में जमा करा दो |” 

“कुवंर साहब अब इसकी क्या जरूरत है ?”

“बाबू जी समय का क्या भरोसा कि किस करवट बैठता है | इसलिए पैसा खर्च करने की बजाय उसके ब्याज से काम चलाना ही अक्लबन्दी है |”

और इस प्रकार बैंक में जमा पूंजी के ब्याज से राम सहाय जी का खर्चा सुचारू रूप से चलने लगा | 

अपने दादा जी का जीवन निर्वाह सुख शांती से चलता देख अशोक को खलने लगा | उसने मकान का पानी, बिजली तथा टूट फूट का खर्चा देना बन्द कर दिया | अशोक की अपने माँ बाप से तो बनती न थी अतः समस्या समाधान के लिए करण को ही हस्तक्षेप करना पड़ा | 

करण ने अशोक से सीधा सवाल किया, " तुम क्या चाहते हो ? " 

“मेरे कमरे का प्लास्टर उखड़ गया हि उसे ठीक कराना |” 

“तो करा लो इसमें समस्या क्या है ?”

“कोई खर्चा देगा तब न |”

“खर्चा किससे लेना चाहते हो ?”

“मकान मालिक से |”

“आप मकान मालिक की क्या सहायता करते हो ?”

“कुछ नहीं |”

“मकान मालिक की कमाई क्या है ?”

“मुझे इससे कुछ लेना देना नहीं |”

“अगर तुम्हें उनसे कुछ लेना देना नहीं है तो उनके मकान में क्यों रह रहे हो ?”

“मतलब ?”

“मतलब साफ है कि अगर इस मकान में रहना है तो टूट फूट, पानी, बिजली इत्यादि का पूरा खर्चा तुम्हें उठाना पड़ेगा | इसके साथ साथ पाँच सौ रूपये अपने दादा जी को उनके खर्चे के लिए हर महीने देने होंगे |” 

अशोक  तिलमिला कर, "मैं क्यों दूँगा ?"

करण ने अशोक को खरी खोटी सुनाते हुए उसे बहुत कायल किया, “ तुम्हें ऐसा कहते हुए शर्म आनी चाहिए | जिस व्यक्ति ने तुम्हारे बाप के होते हुए तुम्हें अच्छा पढ़ाया, लिखाया उसे ही, जब वह बेबस हो गया है तो, आँखे दिखा रहे हो | लगता है तुम्हारे अन्दर इंसानियत नाम को भी नहीं रह गई है | तुम्हें तो खुद उनके कहे बिना उनके पालन पोषण तथा सेवा सुश्रा का उचित प्रबंध रखना चाहिए इसके विपरित तुम्हारी इच्छा है कि वे अब भी तुम्हारा भार उठाएँ |”  

“अभी तुम जवान हो | कमा सकते हो तथा कमा रहे हो | ये बुजूर्ग किस लायक हैं | और हाँ अगर ऐसा नहीं कर सकते तो मकान खाली करके जाओ ये अपना मकान किराए पर देकर खर्चा चला लेंगे |”

इस पर अशोक कुछ न बोला और चुपचाप उपर चला गया | इसके थोड़े दिनों बाद जब करण अपनी लड़की प्रभा की शादी का कार्ड देने ग्वालियर गया तो पता चला कि इस घटना का कुंती पर प्रतिकूल असर पड़ गया था | इसका असर उसने तब महसूस किया जब वह कुंती के घर कार्ड देने गया | करण ने कुंती के घर के दरवाजे पर खड़े होकर कई आवाजें लगाई तथा कई बार दरवाजा भी खटखटाया परंतु उसने दरवाजा न खोला | हारकर वह शादी का कार्ड कुंती के मकान के दरवाजे पर ही टाँगकर चला आया |

ग्यालियर में अपनी सास से करण को पता चला कि कुंती ने उनके पास भी आना जाना छोड़ दिया था | अशोक  के कारण अपने बाप से भी वह इतनी रूष्ट हो गई थी कि उनकी बिमारी का हालचाल भी लेना उसने गवाँरा न समझा |

कुंती की अड़ के आगे उसके लड़के सागर व उसके पति राघव की भी एक न चली | उसने उन दोनों का उस घर से नाता तुड़वा दिया तथा उनका वहाँ आना जाना बन्द करवा कर ही दम लिया | 

समय ने किसी को नहीं बख्शा फिर भला राम सहाय को कैसे बख्शता | वे स्वर्ग सिधार गए |

राम सहाय जी की तेरहवीं का दिन था | सभी करीबी रिस्तेदार ग्वालियर पहुँच चुके थे | औरतों में जन्मी एक फुसफुसाहट बैठे हुए मर्दों के बीच भी तैर गई | उस फुसफुसाहट के मद्दे नजर जय प्रकाश जी जो राम सहाय के ताऊ जी के लड़के थे, चारों और नजर घुमाने के बाद,  करण से बोले, "आपके छोटे साढू कहीं दिखाई नहीं दे रहे ?"

“दिखेंगे तो तब जब वे यहाँ होंगे |”

“क्या अभी आए नहीं ?”

“मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता |”

वेद प्रकाश ने संतोष को देखकर उसे आवाज लगाई, "अरी संतो जरा यहाँ आना |"

“हाँ चाचा जी, क्या बात है ?”

“कुंती कहाँ है ?”

“अपने घर पर होगी |”

“क्यों वह क्यों नहीं आई ?”

“मुझे कुछ नहीं पता |”

वेद प्रकाश ने फिर संत राम से जवाब तलब किया, "कुंती को क्या हुआ ?"

“चाचा जी उसकी कुछ न पूछो | वह किसी की नहीं सुनती |”

“परंतु उससे एक बार पूछना तो चाहिए कि क्या नाराजगी है जो ऐसे मौके पर भी उनमें से कोई नहीं आया |”

“मैं तो कह आया था तथा कार्ड भी दे आया था |”

“चलो एक बार हम चलते हैं |”

“चाचा जी आप ही चले जाओ क्योंकि यहाँ का इंतजाम भी देखना है |”

वेद प्रकाश जी करण को अपने साथ चलने को कहते हैं तो वह कुछ सोचकर कुंती के यहाँ जाने से मना कर देता है | सत्य प्रकाश जी भी आनाकानी करके अपना पल्ला झाड़ लेते हैं |

वेद प्रकाश जी अपने भाई विज्य प्रकाश जी के साथ कुंती को मनाने जाते हैं परंतु निष्फल वापिस लौट आते हैं |

राम सहाय जी के मरने के बाद अशोक अपने को उस मकान का मालिक समझने लगा | वह तथा उसकी पत्नि माया अपनी ददिया सास को हर कदम पर टोकने लगी | उनकी सेवा करना तो दूर उन पर कई प्रकार के लाँछन लगाने लगी |  माया का अपनी दादस के प्रति भाषा का पुट ही बदल गया | उनका नहाना धोना, रहना सहना तथा चौका चुल्हा एक कमरे तक ही सिमित कर दिया गया  अर्थात बेबस कस्तूरी मकान मालकिन होते हुए भी एक कमरे में ही गुजारा करने पर मजबूर कर दी गई | 

करण एक बार अपनी सास से मिलने गया तो उनका रहन सहन देखकर सकते में आ गया | 

“यह क्या माता जी, आप अपना खाना खुद पकाती हैं ?”

“हाँ बेटा मेरी किस्मत में ऐसा ही लिखा है |” 

“आप ऐसा क्यों कहती हैं, भगवान ने तो आपकी किस्मत बहुत अच्छी बनाई है |” 

“कैसे |”

“आपको तीन तीन पोते दिए हैं |” 

“पोते दिए जरूर हैं परंतु किसी काम के नहीं दिए | एक को पत्नि दी है वह भी पूरी चांडाल दी है |”

“क्यों उसने क्या किया है ?”

सास करण को अपना हाथ दिखाते हुए जिस पर दातों से काटे घेरे का निशान तथा नीलापन अभी भी दिखाई पड़ रह था, "ये देखो |"

आश्चर्य से, "माता जी यह क्या हुआ ?"

“आपके पोते की बहू का दिया तोहफा |”

“क्या”, आश्चर्य से करण अपनी सास का चेहरा देखता ही रह गया | 

“हाँ जी, तीन दिन पहले मैं बाथरूम में नहा रही थी | माया ने मुझे अन्दर देखकर किवाड़ खटखटाने शुरू कर दिए | साथ ही साथ अपनी जबान को बे लगाम करके खरी खोटी सुनाने लगी |” 

“सुबह सुबह घुसकर बैठ गई बाथरूम में |”

“पता नहीं बन ठन कर इतनी सुबह कहाँ जाने का इरादा है |” 

“सिर पर तो कोई है नहीं जो कुछ कहेगा |”

“रान्नी घोड़ी की तरह उड़ी फिरती है |”

“सौ बार कह रखा है कि अपने कमरे में नहाया कर |” 

“शायद पहले वाले डंडे की मार भूल गई है |” 

“मरती भी तो नहीं जो हमें चैन पड़े | बाहर निकल तूझे आज ऐसा सबक सिखाऊँगी कि आगे से हमेशा याद रहे |” 

और ज्यों ही मैं घुसलखाने से बाहर आई माया ने मेरा एक हाथ पकड़कर अपने जबड़े के सारे दाँत इस हाथ में घुसेड़ दिए | मैं किससे कहती | यहाँ मेरी सुनने वाला कौन था | दर्द के मारे बहुत देर तक रोती रही और अपने दूसरे हाथ से सहला कर उसे कम करने का प्रयाश करती रही |

अपनी सास की व्यथा की आप बीती सुनकर करण को बहुत गुस्सा आया | उसने संत  राम, आशा, अशोक तथा माया को बुला लिया | तथा अपनी सास का नीला पड़ा हुआ हाथ दिखाते हुए माया को सबके सामने अपनी ददिया सास से माफी माँगने का आग्रह किया |

इससे पहले कि माया कुछ प्रतिक्रिया दिखाती अशोक बौखला कर अपने पैर पटकते हुए कहने लगा, "सब काम हम ही गल्त करते हैं | दूसरा तो दूध का धुला है | जब देखो हमारा ही दोष निकाला जाता है | मैं तो इस रोज रोज के क्लेश से परेशान हो गया हूँ | मैं ही छत से गिरकर अपने को खत्म कर लेता हूँ | न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी |" , कहकर अशोक  झीने पर चढ़ने लगा | 

घर के सारे सदस्य एक साथ चिल्ला उठे, “अरे कोई पकडो,  अरे कोई पकडो | वह अपनी जान दे देगा | वह मर जाएगा |” 

संतोष ने भी करण की तरफ देखकर कहा कि वह ही अशोक को पकड़ ले परंतु वह निशचल खड़ा देखता रहा | यही नहीं उसने संतोष को भी हिदायत दे दी कि वह अशोक को रोकने की कोई प्रतिक्रिया न दिखाए | 

करण उस घर के वातावरण से बखूबी परिचित हो गया था तथा जानता था कि उस घर में एक से बढ़कर एक ड्रामें बाज है | वही हुआ, जब अशोक ने जाना कि उसके पीछे उसे पकड़ने कोई नहीं आ रहा तो वह उपर की छत पर जाकर बैठ गया तथा थोड़ी देर में साथ वाले की छत पर होता हुआ अपने किसी दोस्त के घर जा बैठा | 

इसके बाद करण ने माया को चेतावनी दे दी कि अगर इसके बाद उसने अपनी ददिया सास के साथ किसी प्रकार की भी कोई बदतमीजी या हरकत की तो उसे खुद हस्तक्षेप करके उन्हें सबक सिखाना पड़ेगा | उस दिन के बाद माया ने अपनी ददिया सास के साथ कोई घटिया हरकत करने का प्रयास भी नहीं किया |         

इधर संत राम जो अपने पिता जी के स्वर्गवास के बाद कभी कभी अपनी माँ से मिलने चला जाता था अपने पुत्र अशोक की चाल समझ गया कि वह पूरे मकान पर कब्जा जमाना चाहता है | 

अपने पिता जी के जीते जी संत राम ने कभी नहीं चाहा कि अपने बच्चों के साथ उस घर में रहे | करण द्वारा कई बार बाप बेटे के बीच सौहार्द पूर्ण वातावरण बनाने की चेष्टा भी संत राम के अडियल रवैये के कारण रंग न ला सकी |

छः महीने के अंतराल में राम सहाय जी की पत्नि कस्तूरी देवी भी स्वर्ग सिधार गई | वे अपने पास जमा पूंजी तथा 65000/- की आवृति जमा योजना की रसीदें भी अपने पुत्र संत राम के सुपुर्द कर गई | 

दोनों की मृत्यु के बाद संत राम किराए के मकान को छोड़कर अपने पैतृक मकान में आकर रहने लगा परंतु उसके लड़के अशोक को यह पसन्द न आया तथा दोनों में झगड़े  शुरू हो गए | इस समय तक अशोक  ने ग्वालियर के तानसेन नगर में अपना मकान बना लिया था | 

एक दिन करण को अशोक का एक पत्र मिला जिससे पता चला कि अशोक अपने बाप से उसकी जायदाद में से अपना हिस्सा लेकर सदा के लिए उनसे अलग रहना चाहता है | करण ने अशोक को समझाने के लिहाज से एक पत्र लिख दिया |

चिरंजीव अशोक,

प्रसन्न रहो | आपका पत्र मिला | तुम्हारी मंशा का पता चला | मेरे विचार से जैसे आप अभी तक अपनी माता जी के ममत्व से वचिंत रहे हो आपकी माता जी ने भी आपको ममत्व न दे सकने के कारण बहुत कुछ खोया है | अब समय आया है कि आप अपने माता पिता की छत्र छाया में रहकर अपना बचपन लौटा सकते हो, फल फूल सकते हो | इस समय का सदुपयोग करते हुए, मेरे विचार से, अपने माता पिता के साथ रहना ही बेहतर होगा |  आगे आप खुद समझदार हो | जैसा विचार बनें लिखना |

आपका

करण    

अगले पत्र में अशोक ने साफ लिख दिया था कि वह किसी हालत में भी अपने माता पिता के साथ नहीं रह सकता | अतः फैसला कराने आ जाओ | इसी आशय का एक पत्र अशोक ने अपनी बड़ी बुआ जी पार्वती को भी लिखकर उन्हें बुला लिया था | उसी अनुसार सभी ग्वालियर के लिए रवाना हो गए | 

शाम ढ़लने को थी | थोड़ा थोड़ा अंधेरे का धुंधलकापन छा गया था | सत्य प्रकाश, पार्वती, संतोष तथा करण जब ग्वालियर घर पहुँचे तो वहाँ बाहर के कमरे में उनसे अनजान कई लोग बैठे थे | घर के अन्दर घर की सभी औरतें मसलन निशा, रिकी, अनीता तथा विजय की पत्नि इत्यादि बैठी थी परंतु मेहमानों को देखकर किसी ने इतनी इंसानियत नहीं दिखाई कि उन्हें अन्दर बुला लेती | न ही संत राम ने अपनी बहनों का कोई मान दिखाया | इसके विपरीत आए हुए मेहमानों में से किसी के दिल को उनके इस आचरण का कोई भारी आघात नहीं लगा क्योंकि मरने से पहले कस्तूरी देवी ने अपनी बेटियों को अपने पुत्र के बारे में इशारा करते हुए बता दिया था कि उसके जाने के बाद अगर उनका पीहर छूट जाए तो किसी प्रकार का मलाल न करें | 

यह उनके कथन की शुरूआत थी | शायद पूत के पाँव जो माँ को पालने में नजर आए थे वे बहनों को अब नजर आए थे |    

संत राम तथा उनका मंझला लड़का विजय अलग ही घुट्टी पका रहे थे | आए मेहमानों को देखकर बैठना देने की बजाय विजय ने एक अर्जी अपने बाप संत राम के हाथ में थमाते हुए बड़े ही उतावलेपन से कहा, "जल्दी दस्तख्त करो | फोर्स बुलानी है |"

करण जो विजय का उतावलापन देख कर दंग रह गया था पूछा, "क्यों आंतकवादी आ गए हैं क्या ?"

“नहीं नहीं यहाँ कुछ भी हो सकता है |” 

“क्या क्या हो सकता है ?”

“गोली भी चल सकती है |”

करण ने अपने हाथों को नचाकर दिखाया, “परंतु हम सब तो निहत्थे हैं | हमारे पास तो डंडा भी नहीं है |”

“फूफा जी आपको पता नहीं | आप यहाँ के बारे में कुछ नहीं जानते | मुझे जल्दी से थाने जाने दो |”

“मैं तुम्हे जाने से कभी नहीं रोकूंगा परंतु मैं यह भी जानता हूँ कि यह तुम्हारी हड़बड़ी केवल एक दिखावा मात्र है |”

बात बदलने के विचार से संत राम बीच में बोल पड़ा, “सिँह साहब आप जानते नहीं कि इसने (अपनी पुत्र वधु माया की और इशारा करते हुए) मेरे छोटे लड़के शशि पर रेप का इल्जाम लगाया है | वह तो क्या रेप करता अब मैं करूँगा इसके साथ रेप तब इसे पता चलेगा कि रेप क्या होता है |” 

अपने साले संत राम की बात सुनकर करण ने अपना आपा खो दिया तथा उसे डाँटते हुए लहजे में कहा, "खबरदार, अपनी जबान पर लगाम लगाओ | आपको शर्म आनी चाहिए ऐसे अल्फाज मुहँ से निकालते हुए | अगर फिर ऐसी हिमाकत की तो मेरे से बुरा कोई न होगा | समझे |”

करण के गुस्से को देखते हुए सब ऐसे शांत हो गए जैसे पानी डालने से आग शांत हो जाती है | फिर संत राम ने एक कागज करण की और बढ़ाते हुए कहा, "इसे पढ़ लो |"

करण ने लिखा हुआ पढ़ा तो पता चला कि बाप बेटे के बीच होने वाले समझौते की शर्तें थी | शर्तें पढ़कर करण ने वह कागज अशोक की और बढ़ा दिया तथा उससे कहा, “पढ़कर बताओ कि ये शर्तें तुम्हें मंजूर हैं या नहीं ?”

“हाँ मुझे मंजूर हैं |”

संत राम ने भी मंजूरी की हामी भर दी तथा अशोक को उन कागजों पर दस्तखत करने को कहा |

जब गवाह (प्रत्यादर्शी) के दस्तखत करने की बारी आई तो संत राम के दामाद विज्य कुमार जी (रिंकी का पति) ने कागज करण की और बढ़ाने चाहे तो संत राम ने बीच में ही उन्हें झटक कर एक अनजान सज्जन जो वहाँ बैठे थे उनकी और बढ़ा दिए | विज्य जी मूर्तिवत अपने ससुर की तरफ देखते रह गए | 

बाप बेटे के बीच लेन देन की कार्यवाही हो चुकी थी | जिसके अनुसार संत राम ने 150000/- रूपये देकर अशोक को अपनी जायदाद से भविष्य में किसी प्रकार के हक से वंचित कर दिया था |

शायद सत्य प्रकाश तथा करण की ससुराल उनके सास ससुर की मृत्यु के साथ ही विलिन हो गई थी | वे शाम को जैसे अन्दर आए थे रात को उल्टे पाँव घर से बाहर हो गए | क्योंकि श्री राम सहाय एवं श्री मति कस्तूरी देवी की मृत्यु के बाद उनके इकलौते लड़के संत राम ने अपने पैर पसार दिये थे अतः उस घर में अब किसी के ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं था |  गनीमत रही कि अशोक की इच्छा पूर्ति में शामिल होने तथा उसे सहयोग देने से रात बिताने के लिए अशोक के घर में तीन घंटे के लिए सिर पर छत मिल गई थी |        

अशोक के मकान में घर की सुविधा का हर सामान था | उसने एक गाड़ी भी ले ली थी | उसकी इस अप्रत्यातिश तरक्की को देखकर सभी अचम्भित थे | सभी को इसका अचरज था कि इतनी छोटी सी नौकरी में अशोक इतना सब कुछ कैसे कर पा रहा था | और एक दिन वही सामने आ गया जिसका सब को अन्देशा था कि कहीं न कहीं कुछ दाल में काला जरूर है | 

अशोक के खिलाफ हेरा फेरी का मामला निकला | अशोक अपने दो साथियों के साथ रंगे हाथों पकड़ा गया | पता चला कि टाटा सर्विस सैंटर में तीनों  मिलकर घोटाला करते थे | सर्विस सैंटर में जब कोई नई गाड़ी सर्विस के लिए आती थी तो ये लोग उसके ओरिजीनल हिस्से निकाल कर डुपलिकेट हिस्से लगा दिया करते थे तथा ओरिजीनल हिस्सों को पैक करके बेच दिया करते थे |  शायद बचपन से ही बिना कोई मेहनत किए, अपनी बुआ से अच्छा खाना, अच्छा पहनना, भरपूर जेब खर्चा मिलने से अशोक की हराम की खाने की  आदत बन चुकी थी | यह उसी का असर था कि अपनी उमडती आशाओं को पूरी करने के लिए उसने बेईमानी का रास्ता अपनाया |              


Thursday, September 24, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (खुली लगाम की घोड़ी)

 खुली लगाम की घोड़ी

गर्मी का मौसम था | बाहर चिलचिलाती धूप बदन को झुलसा दे रही थी | प्रत्येक दिन अखबारों एवं रेडियो पर खबरें आ रही थी की लू से मरने वालों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है | इस के बारे में जनता से कई तरह के एतियात बरतने का भी प्रसारण किया जा रहा था कि लू के प्रकोप से कैसे बचा जा सकता है | करण ने गर्मी से बचने के लिए अपने घर के सारे दरवाजे एवं खिड़कियाँ  बंद करके परदे डाल रखे थे | कमरे में चल रहे  कूलर के बावजूद गर्मी इतनी थी कि कूलर भी दम तोड़ता नजर आ रहा था | 

शिखर दुपहरी में करण के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी | करण ने मन ही मन बड़बडाते  हुए कि इतनी गर्मी एवं लू के चलते कौन आया होगा दरवाजा खोला तो अपने साढ़ू राघव को सामने खड़ा देखकर अचंभित रह गया | दरवाजा खोलते ही लू के एक झोंके ने करण की रूह को हिला  कर रख दिया | उसने जल्दी से राघव का हाथ पकड़ कर अन्दर आने का इशारा किया तथा दरवाजा बंद कर लिया | अन्दर आने पर अपना पसीना पोंछते हुए राघव ने राहत की सांस ली |  

“अजी सुनती हो |”

“बोलो जी क्या बात है ?”

“राघव जी आए हैं | जल्दी से एक जग ठंडा पानी ले आऔ |”

संतोष हाथ में एक गिलास पानी लेकर कमरे के अन्दर आई और राघव से पूछा, "इतनी गर्मी में कैसे आना हुआ ? लो पानी लो फिर शर्बत बनाती हूँ |”

ठंडा पानी पीकर राघव की कुछ जान में जान आई |

राघव के तमतमाए हुए चेहरे को देखकर करण ने पूछा, “एयरकंडीशनर में रहने वाले आज इतनी गर्मी और भयंकर लू में बाहर कैसे निकल आए ?”

राघव जी जो शायद अपने अन्दर एक लावा दबा हुआ महसूस कर रहे थे उसी को बाहर निकालते हुए बोले, “भाई साहब आज मेरे अन्दर जो लावा उबल रहा है उसका आपको अन्दाजा नहीं है | बाहर की लू तो उसके सामने कोई मायने नहीं रखती |”

करण ने राघव जी का ऐसा रौद्र रूप आज तक नहीं देखा था | वह सकते में आ गया  कि कहीं उससे तो कोई इतनी बड़ी भूल या गल्ती तो नहीं हो गई जिसके कारण उन्होने ऐसा रूप अखतियार कर रखा है | करण ने थोड़ी देर सोचा परंतु उसे अपनी तरफ से ऐसा कोई कारण नजर नहीं आया | जब वह हर प्रकार से आसवस्त हो गया तो उसने अपने साढू की तरफ मुखातिब होकर पूछा, "भाई साहब आज से पहले मैनें आपको ऐसे रूप में कभी नहीं देखा | आप तो हँसमुख, मृदुभाषी, कोमल हृदय, पढे लिखे होने के कारण शुद्ध आचरण वाले इंसान हैं फिर आज यह ....... ?”  

राघव का चेहरा अब भी अपने माथे पर चढी त्यौरियाँ लिए था, “भाई साहब मेरे सामने जब सारे रास्ते बन्द हो गए हैं तो मुझे केवल आपका दरवाजा खुला मिला है |”

“देखो राघव जी मैं आपकी गूढ़ बातें समझने में असमर्थ हूँ | मैं तो सरल भाषा ही समझ सकता हूँ | अतः मुझे एक सरल भाषा एवं विस्तार से बताओ कि आपका इशारा किस और है”, करण के मन में अभी भी शंका थी कि शायद राघव उसकी तरफ से किसी त्रुटि के कारण खफा थे | 

अपने मन की आग को उगलते हुए राघव जी बोले, "कुंती एक खुली लगाम की घोड़ी है |"

करण को सपनों में भी कुंती के बारे में राघव से ऐसे शब्दों की उम्मीद नहीं थी | इसलिए उसने बड़े आश्चर्य से पूछा, “आप ऐसा क्यों कह रहे है ?”

राघव ने उसी कड़क आवाज में कहा, "जो सत्य है मैं वही कह रहा हूँ |"

“अगर ऐसा है तो लगाम कसनी चाहिए”, करण ने सलाह दी |      

इस पर राघव जी थोड़ा कमजोर पड़कर बोले, "भाई साहब, इस मामले में मैं अपने को असमर्थ पाता हूँ |"

“रास्ता सुझाने वाले बहुत मिल जाएँगे | किसी से पूछकर तो देखो |”

“परंतु उस रास्ते पर चलने वाले में भी तो हौसला और हिम्मत होनी चाहिए जो मुझ में नहीं है”, राघव ने ऐसा कहते हुए कोई शर्मिन्दगी महसूस नहीं की | 

“ऐसा आपने क्या कर देख लिया जो आपके हौसले इतने पस्त मालूम हो रहे हैं ?”

“भाई साहब यह तो आपको बखुबी मालूम है कि भाभी जी के अथक प्रयासों से हमें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी | मैं बहुत खुश था जब उन्होने उसका नाम आशीष रखा था | परंतु कुंती को यह नाम एक आँख न भाया | इस नाम को सुनकर उसे अपना लड़का पराया सा महसूस होता था | उसने मेरी एक न सुनी और आशीष का नाम बदलवाकर सागर करवा कर ही रही |” 

संतोष जो खड़ी हुई दोनों की बातें सुन रही थी राघव जी को मायूस देखकर बोले बिना न रह सकी तथा कहा, “भाई साहब छोडो इन बातों को | नाम में क्या रखा है | बस हमारी तो ईशवर से प्रार्थना है कि वह हमेशा खुश रहे, फलता फूलता रहे |” 

“भाभी जी, कुंती के जहन में ऐसी बातें नहीं आती | आप बड़ी महान हैं जो आपके ऐसे विचार हैं |” 

राघव ने फिर कहना शुरू कर दिया, “यही नहीं उसके बाद कुंती ने हमारे सम्मिलित परिवार को नाकों चने चबवा कर विघटन करा दिया | उसे इतने से ही सब्र नहीं हुआ उसने मेरे ऊपर ही लाँछन लगा दिया | अब मैं अपने घर में ही मुँह दिखाने लायक नहीं रहा |” 

“ऐसी सब सुलगती बातों का अंत करने के विचार से मैनें उन पर पानी डालने का काम करते हुए कुंती को अपने साथ रखने का निर्णय ले लिया | उस समय मैं ऋषिकेश में तैनात था | आप तो जानते ही होंगे कि ऋषिकेश कितना मनोहारी स्थल है | आदमी अपनी पूरी जिन्दगी इन दृशयों को देखता रहे तो भी उबेगा नहीं | परंतु आपकी साली साहिबाँ को मेरे तथा  सागर के होते हुए भी वहाँ एक महीना काटना मुशकिल हो गया था |”  

“ऐसा क्यों हुआ”, करण ने पूछा ?

भाई साहब पहाड़ी इलाका होने के कारण मेरा आफिस तथा घर नजदीक नजदीक थे | वहाँ काम भी अधिक नहीं होता था | जब भी समय मिलता था मैं घर आ जाता तथा या तो सागर के साथ खेलने लगता या फिर उसे बाग में घुमाने ले जाता था | एक हफ्ता मुशकिल से बीता होगा कि एक दिन कुंती कुछ झल्लाए से स्वर में बोली, "आपको क्या हो गया है सागर के अलावा आपको कुछ सुझता ही नही है ?"

मैं अवाक कभी कुंती की और देखने लगा तो कभी सागर की और फिर थोड़ा संयम बरत कर बोला, "सूझता तो मुझे बहुत कुछ है परंतु..... |"

मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बिफर पड़ी, ”क्या सूझता है ? आप तो हमेशा  सागर के आगे पीछे चक्कार लगाते रहते हैं |”

मैं अपना मूढ़ खराब करना नहीं चाहता था इसलिए कुछ मजाकिया बनते हुए कह दिया आगे पीछे तो हम तुम्हारे भी घुमना चाहते हैं परंतु तुम ऐसा करने दो तब न | इतना कहकर मैं ज्यों ही एक कदम आगे बढ़ा तो वह दो कदम पीछे हट गई तथा चेतावनी देते हुए जोर से चिल्लाई, “खबरदार जो आगे बढे मेरे से बुरा कोई नहीं होगा |”  

“कुंती की प्रतिक्रिया देखकर मैं वहीं का वहीं एक काठ की मूर्ति की तरह खड़ा रह गया |”

कुंती फिर बोली, "देखो जी आप सागर से हद से ज्यादा मेलजोल बढ़ा रहे हो | यह ठीक नहीं है |"

मैं अचम्भित होकर बोला, "अरे यह मेरा बेटा है | मैं इससे मेलजोल नहीं बढ़ाऊँगा तो फिर और कौन बढ़ाएगा ?"

“नहीं आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो यह मुझे भूल जाए |”

“अजीब है ! तुम ये क्या कह रही हो ?”

कुंती ने अपने गर्म तेवर दिखाकर कहा, "मैं कोई फारसी नहीं बोल रही जो आपको समझ नहीं आ रहा |"

“यह तो मैं भी जानता हूँ कि तुम फारसी नहीं बोल रही हो परंतु तुम्हारी बातों का सिर पैर तो मेरी समझ नहीं आ रहा है |” 

“तो साफ सुनलो | मैं सागर का लगाव किसी के साथ भी बाँटना नहीं चाहती | आपके साथ भी नहीं |” 

कुंती के ऐसे वचन सुनकर मैं ठगा सा मूर्तिवत खड़ा रह गया | मेरी जबान पर ताला लग गया था | न जाने मैं इसी अवस्था में कब तक खड़ा रहता अगर कुंती का स्वर सुनाई न पड़ता | उसने अपना फैसला सुना दिया, “अब वह मेरे साथ नहीं रहेगी | अपने लड़के सागर को लेकर अकेले ग्वालियर रहेगी |” 

कुंती के वचनों से मुझे बहुत बड़ा झटका लगा | मैनें कभी नहीं सुना था कि कोई औरत ऐसे विचार भी रख सकती है | इसके बावजूद मैनें कुंती को लाख समझाने की कोशिश की कि वह अपनी ससुराल के मेरे पैतृक मकान में रहे परंतु उसने मेरी एक न सुनी | अब मैनें उसे एक मकान गवालियर में किराए पर ले दिया है वह वहीं सागर के साथ अकेली रह रही है | मेरा तो वहाँ मुश्किल से महीने में एक बार जाना हो पाता है | अब आप ही बताओ क्या मैनें गल्त कहा जो कुंती को ‘खुली लगाम की घोड़ी’ कहकर सम्बोधित कर दिया | 

करण ने राघव के कथन का कोई जवाब नहीं दिया अपितु एक अनपढ़ मल्लाह और उसकी नाव में बैठे उस विद्वान के बारे में सोचने लगा जो नदी की बीच मजधार के भंवर में फंस गई थी | 

विद्वान अपनी शिक्षा को सर्वोपरीय समझता था | वह समझता था कि उससे बड़ा विद्वान, चतुर एवं बुद्धिमान कोई नहीं है | उसने विद्या ग्रहण करके अपना जीवन सफल बना लिया है | अपने अहंकार वश उसने मल्लाह से पूछा, "क्या तुमने कुछ शिक्षा ग्रहण की है ?"

“नहीं साहब मैं तो अंगूठा टेक हूँ |”

विद्वान ने इतने निराश होकर कहा जैसे मल्लाह पर तरस खा रहा हो, "ओ हो फिर तो आपने अपना आधा जीवन यूँ ही गवाँ दिया |” 

इतने में नाव को भँवर में फंसते देख मल्लाह ने विद्वान से पूछा, "क्या आपको तैरना आता है ?"

जवाब में विद्वान ने कहा, "नहीं |"

मल्लाह ने उठकर नाव से बाहर छल्लांग लगाते हुए चिल्लाकर कहा, "तब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार है  क्योंकि मैं नाव से कूदकर अपना आधा जीवन तो बचा ही लूँगा |”

कहने का तात्पर्य है कि राघव जी के पढ़ाई में लिए स्वर्ण पदक हासिल करने का समझो कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि वे अपनी गृहस्थी चलाने में बिलकुल नाकामयाब रहे थे | उन्होने कुंती को खुली लगाम की घोड़ी तो कह दिया परंतु घोड़ी को लगाम लगाकर सही रास्ते पर लाना नहीं सीख सके |     

करण को अपने ख्यालों में खोया देख राघव ने उसकी तंद्रा भंग करते हुए कहा, "भाई साहब अब मेरी एक समस्या का निधान करो |"

“कहिए भाई साहब मेरे लायक क्या सेवा है |”

“जैसा कि मैनें अभी बताया था कि फिलहाल कुंती के लिए मैनें एक मकान किराए पर ले दिया है | परंतु मेरे विचार से एक अकेली औरत का किराए पर रहना ठीक नहीं रहेगा |”

“आप के विचार नेक हैं |”

“इसलिए मैं चाहता हूँ कि अपना एक मकान बनवा लूँ |” 

“अगर बसने का विचार वहीं का है तो बहुत अच्छा रहेगा |”

“परंतु.....” , कहकर राघव चुप होकर करण को निहारने लगा |

“परंतु, क्या भाई साहब ?”

“एक दुविधा है |”

“कैसी दुविधा ?”

 राघव ने सकुचाते हुए अपना दिल खोला, "मकान बनाने के लिए मेरे पास रूपये कुछ कम पडेंगे |”

“कितने ?”

“लगभग साठ पैंसठ हजार |”

“उसकी आप चिंता न करें |” 

“आप कैसे तथा कहाँ से करोगे ?”

“बैंक के हर कर्मचारी को दो लाख रूपए का ऋण मिल जाता है | उसमें से जितना आपको पैसा चाहिएगा उतना दिलवा दूँगा | आप हर महीने मूल राशी और उसका ब्याज जो बनेगा, देखकर बैंक में जमा करवा दिया करना |” 

“मैं हर महीने जमा नहीं कर पाऊँगा | मैं पैसा आपको भेज दिया करूँगा | आप खुद ही बैंक में जमा करवा दिया करना |” 

“जैसी आपकी मर्जी | मुझे किसी प्रकार का एतराज नहीं है |”

और राघव ने ग्वालियर में अपने साले संत राम की देखरेख में एक मकान बनवा दिया | इस तरह अपने सभी सगे सम्बन्धियों से नाता तोड़कर कुंती अकेली अलग रहने लगी | अब वास्तव में ही वह एक खुली लगाम की घोड़ी की तरह हो गई थी |