Friday, May 13, 2011

स्वर्ग


                                          स्वर्ग
अजी, सुनते हो |”
कहाँ चले गए ?”
जी इइइइइइइ जी |”
सामने वाली खिड़की से ऐसे प्यार भरे एवं मधूर आवाज के स्वर सुनकर करण के कान खडे हो गए | करण के समझ से बाहर की बात थी यह | उसे यहाँ रहते वर्षों बीत गये थे उस खिड़की से जब भी कोई आवाज बाहर आती थी तो वह शोलों की तरह गरम, जली-कटी, या फिर कटाक्ष से भरी ही सुनाई पड़ती थी | परंतु आज तो इसके बिलकुल विपरीत ,नरम, मधुर तथा समर्पित आवाज आ रही थी |
करण ने अपने को आस्वश्त करने के लिये एक बार फिर अपना ध्यान उस खिड़की  की ओर केंद्रित किया |
जी, आप कहाँ चले गए ?”
बाहर वाले कमरे में ही हूँ |”
जरा यहाँ आना |”
क्यों क्या बात हो गई ?”
कुछ खास नहीं फिर भी आपको बता दूँ वरना भूल जाऊंगी कि वो जो हमने दरवाजे बनवाए थे न उसका कारीगर पैसों का तकाजा करके गया है |”
संतोष, करण की पत्नि उसके नजदीक आते हुए, आप यहाँ खडे क्या कर रहे हो ? आप को आज आफिस नहीं जाना क्या ? मैं तो नाश्ते के लिये आपका इंतजार कर रही थी परंतु आप हैं कि यहाँ खिड़की में खडे न जाने क्या कर रहे हैं ?”
ज्योंही संतोष जाने को होती है करण उसकी बाँह पकड़ कर, "अरे, अरे, जरा रूको तो सही | तुम तो आई, टेप की तरह बोली और चल दी | देखो तो जरा आज उल्टी गंगा बहने वाली है क्या ?”
क्या मतलब ?”
मतलब तुम खुद ही निकाल लोगी | जरा चुप होकर ध्यान से सुनो |”
सामने की खिड़की से आती आवाज को करण एवं संतोष एकाग्रचित होकर सुनने लगे |
राजेशवरी अपने पति से कह रही थी, देखो जी, आफिस में जाने से पहले आज आपको मेरे थोडे काम करने हैं |
कौन से काम ?”
राजेशवरी, धर्म प्रकाश की पत्नि थी | देखने में सुन्दर, मेहमान नवाजी में उत्तम, घर के रख रखाव में आला, घर की साज-सजावट के साथ साथ अपना श्रृंगार करने में भी वह माहीर थी | वह अपने नाम के अनुरूप ही एक राजेशवरी  की तरह ही जीना चाहती थी | अच्छा खाना,अच्छा पहनना, अच्छे बच्चे, अच्छा मकान, अच्छी संगत अर्थात वह सब कुछ अच्छा ही अच्छा चाहती थी | हालाँकि इन सभी अच्छाईयों को प्राप्त करने की उसने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी परंतु कहा जाता है कि मनुष्य को उसके भाग्य के अनुसार ही प्राप्त होता है | यही राजेशवरी के साथ हुआ | वह राजेशवरी की जगह केवल "राज" बनकर रह गई |
राजेशवरी बनने के लिये धन-दौलत एक अहम भूमिका निभाती है | और जिसके पास प्रचूर मात्रा में वैभव, धन दौलत, नौकर-चाकर इत्यादि न हो तो वह राजेशवरी की तरह कैसे रह सकती है |
यही राजेशवरी के साथ भी हुआ | पैसों के अभाव के कारण हमारी राजेशवरी को मजबुरन राज बनकर ही रहना पड़ रहा था | क्योंकि उसके खर्चे उसके आदमी की कमाई से कहीं अधिक थे | पैसे की कमी घर में कलह रहने का सबसे बड़ा कारण भी माना जाता है | इसीलिये उस घर में हमेशा लड़ाई झगडे ही रहा करते थे परंतु आज वहाँ से आती हुई नरम एवं प्यार भरी आवाजों से मालूम पड़ रहा था कि वातावरण कुछ बदला हुआ था |
जी, सामने वाली दूकान से मुझे थोडे-थोडे काजू, बादाम की गिरी, किशमिस, गोला, चिरौंजी तथा ताल मखाने ला दो |”
धर्म आशचर्य से, सारी मेवा, भला क्यों ?”
राजेशवरी धर्म की बात अनसुनी करते हुए, “और हाँ तीन किलो दूध भी ले आना, फुल क्रीम वाला |”
धर्म झुंझलाते हुए, "अरे भई आज तुम्हें सुबह-सुबह ये क्या हो गया है ? ये सब किस लिये मंगा रही हो ?”
राजेशवरी हुक्म सा देते हुए, “आप बस ये सब वस्तुऐं मुझे ला दो | शाम को जब आप आफिस से वापिस आओगे तो तुम्हें सब पता चल जाएगा |”
परंतु तुम तो सब जानती हो कि मेरे पास पैसे .....|”
राजेशवरी थोड़ा तुनक कर परंतु प्यार भरे लहजे में, देखो जी आज आप किसी प्रकार की आनाकानी मत करो | सब्जी तथा फलों का इंतजाम मेने खुद कर लिया है |”
राजेशवरी के प्यार भरे शब्दों ने धर्म का दिल बाग-बाग कर दिया | वह न चाहते हुए भी राजेशवरी को मना न कर सका | वह एकदम घर से बाहर निकल गया तथा जैसे तैसे करके सारा सामान, जो राजेशवरी ने कहा था, देकर आफिस चला गया |
दिन के 11 बजते-बजते राजेशवरी के घर बुजूर्ग एवं अधेड उम्र की औरतों का जमावड़ा होना शुरू हो गया |      
राजेशवरी के घर को इन औरतों ने सजाना तथा सवांरना शुरू कर दिया | कोई झाडू लगाने लगी तो कोई पोचा | एक ने सौफा वगैरह की सफाई का जिम्मा लिया तो दूसरी ने आसन बनाने का | कोई राजेशवरी के साथ रसोई में हाथ बटाने लगी तो कोई फूलों से आसन को सजाने लगी | रसोई में पकवान बनने शुरू होने के करण पूरे मोहल्ले में देशी घी की भिनी-भिनी सुगंध फैल गई | जो भी व्यक्ति उस घर के सामने से गुजरता, घर के अन्दर झाकने को मजबूर हो जाता क्योंकि देशी घी की सुगंध के साथ साथ अन्दर से आ रही फूलों की सुगंध, केवड़ा और इत्र की खुशबू पथिक का मन लुभा लेती थी | घर के अन्दर से, जमा हुई औरतों का, वार्तालाप कुछ इस प्रकार सुनाई पड़ रहा था |
राजेशवरी अपनी एक बुजूर्ग औरत को इज्जत देने के लहजे में कहती सुनाई पड़ी, “ताई सरस्वती जरा देखना ये काजू ठीक से भुन गए या नहीं ?”
क्या बात करती है राजेशवरी, तुझ जैसी जो हर काम में चतुर हो भला उसे मैं क्या सिखाऊगी |”
दूसरी तरफ से सुमन आवाज लगा रही थी, "ऐ अंगूरी जरा चादर तो पकड़ | इसे गुरू जी के आसन के सामने बिछवा दे |”
अरी तू तो बहुत जल्दी मचाती है, पहले अर्चना को पोछा तो ठीक से लगा लेने दे |”
इस बार दुर्गा की मधुर आवाज आई, "रजनी ओ रजनी, सुनती नहीं, बहरी हो गई क्या ?”
बहन, आई अभी आई |”
दुर्गा थोड़ा तैश दिखाते हुए, "आकर क्या सिर मारेगी | अरे कुर्सी लाकर यहाँ ऊपर तस्वीर पर यह माला लटका दे |”
इस तरह की बातों से पता चलता था कि राजेशवरी के घर में एक गुरू जी के स्वागत की तैयारियाँ हो रही थी तथा सभी एकजुट होकर प्रसन्नता से इस काम को पूरा करने में ,मन, क्रम, ध्यान लगाकर तल्लीन थी |
दोपहर का एक बजा होगा कि दूर से भगवा वस्त्र पहने कुछ व्यक्तियों का समूह आता दिखाई दिया | एक औरत जो राजेशवरी के घर के दरवाजे पर बैठी थी तथा इसी इंतजार में थी कि कब यह समूह दिखाई दे, अचानक हरकत में आई और शोर मचाती हुई अन्दर की तरफ भागते हुए चिल्लाई "गुरू जी आ गए ,गुरू जी आ गए" | अन्दर की सभी औरतें बाहर की तरफ दौड़ पड़ी तथा आकर दरवाजे पर जमघट लगा दिया | केवल राजेशवरी ही एकमात्र ऐसी थी जो मदमाती चाल से बाहर आ रही थी | उसके हाथ में सजा हुआ एक थाल था | थाल में एक ज्योत तथा एक धूप बत्ती जल रही थी | राजेशवरी  की सुन्दरता तो बस देखते ही बनती थी | उसके किये हुए श्रृंगार से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे आसमान से कोई अप्सरा उतर कर आई हो | उसका गोरा रंग, लाल-लाल होठ, बडी-बड़ी हिरणी जैसी आंखे, कजरारे नयना तथा चेहरे पर छाई मन्द-मन्द मुस्कान बरबस ही सबको उसकी और आकर्षित कर रही थी | जैसे ही राजेशवरी दरवाजे पर पहूँची उसी समय साधूओं की टोली भी राजेशवरी के दरवाजे पर पहुँच गई | राजेशवरी ने विधिवत अपने गुरु की आरती उतारी फिर उनके चरण धोकर चर्णामृत का पान किया | वह परांत जिसमें गुरु जी के चरण धोए गये थे एक बुजूर्ग औरत ने उठा ली तथा अन्य सभी औरतों को चर्णामृत देती हुई अन्दर चली गई | साधूओं की टोली भी अन्दर चली गई | अन्दर जाकर गुरु जी अपने आसन पर विराजमान हो गये | गुरू जी के शिष्य अपने गुरू जी की थकावट मिटाने के लिये उनके हाथ-पैर तथा शरीर धीरे-धीरे दबाने लगे |    
राजेशवरी के घर आई सभी औरतों का कुछ न कुछ अपना मकसद था | अतः वे एक एक करके अपने घर जाती और अपने साथ अपनी जवान पुत्र वधू, बहन, बेटी या पडौसन अर्थात जिसको भी उन्हें गुरू जी के दर्शन कराने थे, ले आई | उनके आने से गुरू जी के शिष्यों का काम समाप्त हो गया क्योंकि अब उनका कार्यभार आने वाली नई जनता ने बखूबी सम्भाल लिया था | अब तो शिष्य एक तरफ बैठकर अपनी चिलम का आन्नद लेने लगे थे तथा साथ साथ चोरी-चोरी नई-नई जवानियों का आखों ही आखों में रसपान करने लगे थे |
नव आगंतुकों की सेवाओं को देखकर गुरू जी ने भी अपना शरीर ढीला छोड़ दिया | सखियों में से एक ने गुरू जी का एक पैर सम्भाला तो दूसरी ने दूसरा पैर दबाना शुरू कर दिया | तीसरी एक हाथ पर लगी थी तो चौथी दूसरे हाथ पर | पाँचवी ने गुरू जी के सिर की मालिश शुरू कर दी तो छठी ने उनके स्नान आदि के प्रबंध का जिम्मा ले लिया | थोड़ी देर बाद गुरू जी को गुलाब जल के पानी से मसल-मसल कर नहलाया गया तथा फिर इत्र छिड़क कर, चन्दन का टीका लगाकर एवं गुलाब की माला पहनाकर उन्हें आसन पर विराजमान कर दिया गया |
अब बारी थी गुरु जी के भोग की | गुरु जी के भोग में 56 भोग शामिल थे | हर औरत यह चाहती थी कि गुरु जी की थाली में कम से कम एक वस्तु तो उसके हाथ से परोसी जानी ही चाहिये | गुरु जी के न न कहने की किसी को परवाह न थी | बस उनका एक ही मकसद था परोसना | आखिर गुरु जी कितना खाते और कब तक खाते |  उन्हें थाली अपने सामने से हटानी ही पड़ी और जब उन्होने थाली सरकाई तो वह खाने से भरी हुई थी | गुरु जी के थाली सरकाते ही सभी औरतें उसे उठाने के लिये ऐसे झपटी जैसे किसी मरे हुए जानवर पर गिद्ध झपटते हैं | जैसे सभी अपना सौभाग्य समझती थी कि गुरु जी के छोडे हुए झूठे भोजन में से उसे प्रसाद के रूप में कुछ न कुछ अवश्य मिल जाए |
राजेशवरी औरतों के बीच इस प्रकार की छिना झपटी को देखते हुए, अरे आप सब ऐसा क्यों कर रही हो ?” फिर थाली खुद लेकर ताई सरस्वती को देते हुए, ”लो ताई इसे सभी औरतों में बाँट दो, कोई रह न जाए |”
ठीक है कहते हुए ताई सरस्वती ने राजेशवरी के हाथ से गुरु जी की झूठन से भरी थाली ली और वह झूठन प्रसाद के रूप में सभी औरतों में बाँट दी | सभी यह प्रसाद पाकर अपने को धन्य समझने लगी | जलपान करके गुरु जी फूलों से सजाई गई शैय्या पर लेट गये तथा विचार मग्न हो गए | शायद वे सोचने लगे थे कि आगे का प्रोग्राम कैसे तथा क्या बनाया जाए | गुरु जी की इस तंद्रा को एक बहुत ही मिठास भरी सुरीली आवाज ने तोड़ा, “गुरु जी सो गये क्या ?”
गुरु जी अपने विचारों से बाहर आते हुए, ”ऐं, नहीं तो | कहो क्या बात है ?”  
राजेशवरी हाथ जोड़कर, गुरु जी, आपसे ये औरतें कुछ विनती करना चाहती हैं |”
गुरु जी बाहर की और झांककर, अच्छा, इनको एक एक करके अन्दर भेजती रहो |”
राजेशवरी बाहर आते हुए, जो आज्ञा गुरु जी |”
बाहर आकर राजेशवरी ने सभी को हिदायत दी कि अन्दर गुरु जी से सलाह लेने के लिये बारी बारी से जाएँ तथा किसी प्रकार की कोई जल्दी बाजी न करे | गुरु जी सभी की समस्याओं को सुनेगें तथा उसका निदान भी करने का पूरा प्रयत्न करेंगे | वे यहाँ तीन चार दिन रूकेंगे अतः किसी को किसी प्रकार की कोई चिंता करने की आवशयक्ता नहीं है | अच्छा ताई पहले आप से ही शुरू करते हैं |
सरस्वती अन्दर आकर तथा गुरू जी के पैर छूकर, ”गुरु जी मेरे बेटे की शादी हुए 6 वर्ष बीत गये हैं परंतु अभी तक अपने पोते-पोती का मुँह दखने को तरस रही हूँ |”
कितनी उम्र है आपके बेटे की और बहू की ?”
 गुरु जी, लड़का 28 साल का है तथा बहू 24 साल की है |”
पहले भी कहीं दिखाया था ?”
हाँ डाक्टरों को दिखाया था, बोले सब ठीक है | पता नहीं फिर भी क्या रूकावट है |”
आप चिंता छोडिये | क्या बहू यहीं है ?
गुरु जी, अभी तो नहीं है | आप की आज्ञा हो तो बुला लाती हूँ |”, उठने का उपक्रम करती है |
नहीं नहीं अभी रहने दो | आप बहू को हमारे कल रात के भोजन के बाद ले आना | अब बाहर जाकर दूसरे फरयादी को भेज दो |”
सरस्वती, गुरु जी की बहू से मिलने की अनुमति सुनकर जैसे भाव विभोर हो गई हो | उसके बूढे चेहरे पर लालिमा के साथ साथ उसके अरमानों को पूरा होने की खुशी का एहसास भी साफ झलकने लगा था | गुरु जी के चरण छूकर सरस्वती तीर की तरह बाहर आई तथा कुलवंती को अन्दर भेज दिया |
कुलवंती ने अन्दर आते हुए अपनी दास्तान शुरू कर दी, "गुरु जी, मेरी बहू ने मेरे लड़के को पूरी तरह अपने बस में कर रक्खा है | मेरा आदमी तो गुजर चुका है तथा जो उसके पास था वह सब लड़के के नाम कर गया है यह सोचकर कि पीछे से वही मेरी देखभाल करेगा परंतु अब मैं भरपेट खाने को भी तरस गई हूँ | गुरु जी कुछ ऐसा करो कि मेरी जिन्दगी सुधर जाए |”
आप हमारा, अपनी बहू के साथ, सत्संग तीन दिनों तक जरूर सुनना | उसके बाद आहिस्ता-आहिस्ता सब ठीक हो जाएगा |”
कुलवंती हाथ जोड़कर तथा बाहर जाते हुए, “मैं आपकी कही बातों का पूरा ध्यान रखूंगी |  अच्छा गुरु जी |”
कुलवंती को बाहर आता देख, दुर्गा जो बेसब्री से दरवाजे के बाहर इंतजार कर रही थी, एकदम अन्दर घुस गई और हाथ जोड़कर बोली, "मेरे लड़के के पास दो लड़कियाँ हैं | भगवान का दिया उसके पास सब कुछ है, कमी है तो केवल एक लड़के की |”
गुरु जी कुछ गम्भीर होते हुए, हूँ | क्या आपकी बहू एक और बच्चे के लिये राजी है ?”
गुरु जी वैसे तो वह आनाकानी करेगी क्योंकि मेरा लड़का भी तीसरा बच्चा करने के हक में नहीं है फिर भी अगर आपकी कृपा रहेगी तो मैं उन्हें इसके लिये किसी न किसी तरह राजी कर लूंगी |”
तो ठीक है, आप अपनी बहू को दूसरे दिन रात के खाने के बाद हमारे पास ले आना |”
इसी तरह बहुत सी औरतों ने अपनी अपनी समस्या जैसे लड़के की शादी न होना, लड़की की शादी के झंझट, बच्चे को उपरी हवा लगना इत्यादि बहुत सी बातें गुरु जी से समाधान कराने हेतू पूछी | गुरु जी ने भी  कुछ न कुछ हल बता कर सभी को संतुष्ट कर दिया |
शाम को सत्संग का प्रोग्राम चला | मोहल्ले में राम धुन, शयाम धुन, बमबम भोले, जय बजरंग बली तथा जय माता की इत्यादि का उच्चारण गूंजता रहा और वातावरण हवन की सामग्री की सुगंध एवं आहूतियों के कारण शुद्ध हो गया | गुरु जी का पहला दिन  राजेशवरी के यहाँ बीता | इसके बाद जिन-जिन औरतों ने अपनी समस्याएँ गुरु जी के सामने रखी थी एक एक रात गुरु जी ने उनके यहाँ बिताई |
हालाँकि संतोष का गुरु जी बनाने में कोई विशवास नहीं था परंतु मोहल्ले में हो रहे सत्संग में हिस्सा लेने में कोई बुराई नजर नहीं आई | जब मोहल्ले की औरतों ने उस पर अधिक दबाव डाला तथा उसके पति ने भी कह दिया कि उसके सत्संग सुनने में उसे कोई आपत्ति नहीं है तो वह भी सत्संग में जाने लगी | संतोष ने पाया कि गुरु जी के प्रवचन के दौरान अधिकतर औरतें भगवान की बातों को न के बराबर ध्यान से सुनती थी अपितू वे अपनी ही खिचड़ी पकाती रहती थी | जैसे :
अर्चना को कहते सुना गया, "अरी मधु पता है कल ताई सरस्वती ने अपनी बहू को रात को चुपके से गुरु जी के कमरे में भेज दिया था |”            
हाय! अच्छा ! बुढिया मरी जावे है पोते का मुँह देखने को |”
अर्चना ने सरस्वती की बहू को दोष देते हुए कहा, "अरी बुढिया तो बुढिया जवान बहू को भी डर या शर्म नहीं आई रात के समय अकेले गुरु जी के कमरे में अन्दर जाते |”
कल्याणी ने नमक छिड़क कर कहा, "अरी और सुन | सरस्वती तो सरस्वती दुर्गा तथा उसकी बहू क्या कम हैं |”
क्यों क्या हुआ ?”
तुझे नहीं पता कि कल रात को गुरु जी उनके यहाँ ही ठहरे थे |”
विज्या, तो इससे क्या ?
तू बड़ी भोली है तभी तो पूछ रही है",तो इससे क्या | अरी तू नहीं जानती कि रात को वहाँ क्या-क्या गुल खिले थे |”
तुझे कैसे पता कि वहाँ क्या-क्या हुआ |”
अरे घर का भेदी लंका ढाए यह तो तू सुन चुकी है न | उस घर की छोटी बहू को बात पची नहीं और उजागर कर दी |”
परंतु उसके पास तो पहले से ही दो लड़कियाँ हैं |”
लड़कियाँ ही तो हैं, लड़का तो कोई नहीं |”
हाय राम कैसी निर्लज है |”
इन्दू जो अभी तक बोलने का मौका न पा सकी थी अपने मन की भड़ांस निकालते हुए मंजू से बोली, “एक बात मुझे भी पता चली है कि कल उषा की लड़की, हंसा रात को बारह बजे घर आई थी |”
क्यों क्या बात हो गई थी ?”
शायद तू जानती नहीं कि उसका तो रोज का किस्सा बन गया है | सुना है किसी होटल में डांसर का काम करती है |”
क्या जमाना आ गया है | माँ बाप अपनी आंखो पर पट्टी बांध कर बच्चों से सब काम कराने लगे हैं | छीः छीः |”
लिहाजा, गुरू जी सात दिनों तक अपना सत्संग चलाते रहे | हर घर में उनकी खूब आवभगत होती रही | गुरू जी के साथ-साथ उसके शिष्यों ने भी जीवन का भरपूर सुख एवं आनन्द लूटा | औरतों ने एक दूसरे पर किचड़ उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी | सभी औरतों को अपना दामन ही पाक नजर आया दिखता था तथा दूसरी का दामन कलंक से सराबोर दिखाई दिया
आज सत्संग का आखिरी दिन था | इसलिये भीड़ भी बहुत थी |  संतोष ने इन सात दिनों के सत्संग में भृष्टाचार, व्याभिचार, चुगलखोरी, दोषारोपण, दूराचार, चरित्र हरण एवं लालच इत्यादि के अलावा कुछ नहीं देखा, कुछ नहीं पाया | उसका मन बहुत कुंठित हो रहा था कि सत्संग के नाम पर ये गुरु कितना शोषण कर रहे हैं | तथा ये अनपढ औरतें अंधविशवास में फंसकर गुरूओं की इन सब बातों का शिकार बन रही हैं |    
इतने में गुरु जी ने कहा कि देखो आज मैं अपने सत्संग का समापन कर रहा हूँ | मुझे आशा क्या पूर्ण विशवास है कि आप सभी ने इन सात दिनों में मेरे सत्संग के माध्यम से अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिय होगा | आप की आत्मा अब शुद्ध हो गई होगी | जहाँ तक कोशिश हुई हमने आपकी सभी समस्याओं का समाधान भी किया है | अब जाते जाते मैं आपसे एक प्रशन करना चाहूँगा तथा आप सभी इस प्रशन का उत्तर "हाँ" में अपने दोनों हाथ उपर उठाकर देंगे | सत्संग में चारों ओर सन्नाटा छा गया | सभी के कान गुरू जी के उस प्रशन पर केंद्रित हो गये जिसे गुरु जी पूछने जा रहे थे |
गुरु जी ने अपना गला साफ करते हुए कहना शुरू किया, "हाँ ! तो मेरा प्रशन यह है कि आप में से कौन कौन हैं जो मेरे साथ स्वर्ग की यात्रा करना चाहता है ?”
देखते ही देखते सभी उपस्थित जनता के दोनों हाथ गुरु जी के हाथों के साथ हवा में उपर उठ गए | परंतु उस सभा में एक ऐसा भी व्यक्ति था जिसने अपने हाथ उपर उठाने की कोई प्रतिक्रिया नहीं की | वह निशचल सभी को उनके हाथ उपर उठाते देखती रही | वह थी संतोष |
सभी संतोष की तरफ आश्चर्य भरी निगाहों से देख रहे थे | बहुतसों ने तो उसे इशारा भी किया कि वह अपने हाथ उपर उठा ले परंतु संतोष पर उनके इशारों का कोई असर नहीं हुआ ओर वह ज्यों की त्यों शांत स्वभाव आराम से बैठी रही | आखिर गुरु जी से न रहा गया | उन्होने अपने साथ सभी को उनके हाथ नीचे करने को कहा तथा संतोष की ओर मुखातिब होकर बोले, "क्यों क्या आप स्वर्ग जाना नहीं चाहती?” 
संतोष धैर्य तथा संयम से, कौन नहीं चाहेगा कि वह स्वर्ग में रहे | गुरु जी मैं भी स्वर्ग में रहना चाहती हूँ |” 
फिर आपने अपने हाथ उपर क्यों नहीं उठाए ?”
संतोष ने बड़े आत्म विशवास तथा बिना किसी झिझक के गुरू जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा, "गुरु जी, माफ करना, मैनें आपके सत्संग के दौरान भृष्टाचार, व्याभिचार, चुगलखोरी, एक दूसरे पर दोषारोपण, दुराचार, चरित्र हनन एवं स्वार्थ सिद्धि के अलावा कुछ नहीं पाया | अतः अगर आप इन सभी अपने अनुयायियों के साथ स्वर्ग चले गये तो यहाँ खुद ही स्वर्ग बन जाएगा | यही सोचकर मैनें अपने हाथ उपर नहीं उठाए |”
संतोष का सटीक उत्तर सुनकर गुरु जी के साथ साथ सभी उपस्थितगण भी काठ की मूर्ति की तरह स्थिर हो गये | किसी में भी बोलने की जैसे शक्ति ही न रही हो | शायद उनकी समझ में आ गया था कि "स्वर्ग" क्या होता है |  






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