Wednesday, September 18, 2019

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-44) छोटी बहू


मेरी आत्म कथा 44 (जीवन के रंग मेरे संग) छोटी बहू
सन 2005 में जब पवन तथा अंजू के हाथ जोड़कर तथा लिखित माफी मांगने पर मेरे अथक प्रयासों से पालम विहार का मकान छोड़कर वे हमारे साथ आकर रहने लगे तो मैंने उन्हें भविष्य में सुखद जीवन जीने के लिए समझाने हेतू कुछ हिदायतें देनी उचित समझी |
मैंने कहा, "मैं तुम दोनों को एक राम बाण मंत्र देता हूँ दोनों ध्यान से सुनो तुम्हारी मम्मी जी व्यवहार में अपने आप को बहुत शख्त जाहिर करेंगी परंतु अन्दर से वे बहुत नरम हैं अगर तुम दोनों उनके हर काम की तारीफ करते रहोगे तो थोड़े दिनों में ही उनका दिल एवं विशवास जीत लेने में कामयाब हो जाओगे मसलनमम्मी जी आपके हाथ की बनी सब्जी बहुत स्वादिष्ट बनती हैहमारी बनाई हुई चाय में तो स्वाद ही नहीं आताआपके द्वारा बनाए गए दही बडों का स्वाद तो कुछ अलग ही होता हैवे कितने नरम होते हैंबाजरे की खिचड़ी तो आप जैसी कोई बना ही नहीं सकताइत्यादि 
वास्तव में ऐसा था भी क्योंकि मेरे जीजा जी, मेरे दामाद तथा उनके बच्चे जब भी आते थे तो उनका एक ही कहना होता था कि वही खाना बनाएंगी | वे कहते थे की उनकी बनाई हुई आलू-टमाटर की सब्जी, पराठें, बाजरे या दाल -चावल की खिचडी इतनी स्वादिष्ट बनती है कि उंगलियाँ चाटते रह जाओ | शायद यह मेरी छोटी पुत्र वधु को उनका यह व्यवहार उसके मन में उसकी बेईजती का आभाष करा देता था |
एक दिन हम वैश्य सभा ईन्द्र्पुरी-नारायणा क्षेत्र के त्तवाधान में महाराजा अग्रसेन जी की जयन्ती मनाने का प्रोग्राम बना रहे थे | उसकी तैयारी में सभा के सभी सदस्य काम के बीच थोड़ी फुर्सत मिलने पर बैठकर इधर-उधर का वार्तालाप करने लगे | इसी बीच ओमप्रकाश टेलर ने मेरे से पूछा, “भाई साहब मेरी लडकी सयानी हो गयी है, कोई अच्छा सा लड़का नजर में हो तो बताओ |”
इसके दो तीन दिन पहले ही मेरे लड़के पवन ने अपनी बहू अंजू की बुआ के लड़के के बारे में मुझे बताया था तथा कहा था कि कोई लडकी हो तो बता देना | याद अभी ताजा थी अत: मैंने ओमप्रकाश को उस लड़के के बारे में बता दिया |
लगभग एक महीना बाद ओमप्रकाश मुझे फिर मिला और छूटते ही माथे पर हाथ रखकर बोला, “भाई साहब आपने मुझे किस का लड़का बता दिया |”
मैंने आश्चर्य से पूछा, क्यों क्या हो गया ?”
 भाई साहब शायद आपको पता नहीं कि उस लड़के की माँ कासन की है |”
मैंने जानना चाहा, “कासन की होने से क्या है ?”
ओमप्रकाश ने बुरा सा मुंह बनाकर उत्तर दिया, “भाई साहब मैं कासन की लड़कियों के बारे में इतना दावे से कह सकता हूँ की उनके घर में बच्चे क्या उनके पडौसी भी हमेशा दुखी ही रहेंगे |”
मैंने प्रश्न दागा, “आपको अपनी बात पर इतना भरोसा कैसे है ?”
भाई साहब मैं एक नहीं कई ऐसे किस्से सुना सकता हूँ जहां कासन की लड़कियों ने अपनी ससुराल या बच्चों की ससुराल वालों की नाक में दम करके रखा हुआ था | इतना ही नहीं उनके यहाँ ब्याह कर जाने वाली लड़कियों को भी उनके कोप भाजन का निवाला बनना पड़ता है |”
हालांकि मैं अपनी पुत्र बधू अंजू तथा उसके घर वालों के ऐसे व्यवहार का भुगत-भोगी था परन्तु अब मेरे साथ शायद सब ठीक चल रहा था जब से कासन वालों को माकूल जवाब मिला था | फिर भी मैं ओमप्रकाश से विस्तार से जानना चाहता था | अत: बनते हुए कहा, “मैं कासन वालों के बारे में अधिक नहीं जानता इसलिए वहां के लोगों के बारे में थोड़ा बताओ की आपके विशवास की नीवं क्या है ?”   
ओमप्रकाश ने कहना प्रारंभ किया, भाई साहब हमारी ताई जी कासन की थी |”
कौन सी ताई जी ?”
केदार, पूरण, हरिचंद वगैरह की माँ |”
अच्छा
आगे बताते हुए ओमप्रकाश का शरीर एक बार को सिहर सा गया और बोला. ऊफ ! बचपन से ही मैं देखता आया था कि किसी न किसी बात को लेकर उनका रोज झगड़ा होता था | कभी हमारे से तो कभी उनके बच्चों से ?”
झगड़े का कोई कारण तो होता होगा ?”
ओमप्रकाश ने एक सुख की सांस लेते हुए बताया, “कारण कुछ भी रहता होगा परन्तु उनकी यह एक किस्म से खुराक सी बन गयी थी | जब तक किसी को सुना नहीं लेती थी शायद उन्हें खाना हजम नहीं होता था | उनकी इसी आदत से तंग आकर उनका बड़ा लड़का केदार घर छोड़कर चला गया था | पडौस में रहने से दुखी तो हम भी थे परन्तु अपना घर छोड़कर कहाँ जाते इसलिए उनकी विदाई तक सहते रहे ?” अर्थात उनकी आत्मा  जब परमात्मा में विलीन हो गयी |
दूसरा किस्सा तो आपके जीजा जी के जीजा जी के साथ हुआ था |
कौन से जीजा जी ?’
आपके नजफगढ़ वाले जीजा जी के जीजा जी प्राण सुख जो गुडगांवा रहते थे उनके यहाँ कासन वालों की लडकी ब्याही थी |”
तो ?”
तो क्या ! उसने अपनी ससुराल वालों की नाक में दम कर  रखा था और इसी के चलते, यह कहते हुए कि तुम्हारी वकालत को बदनाम न कर दिया तो मेरा भी नाम नहीं, अपने ऊपर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली |”
फिर क्या हुआ ?”
हालांकि लडकी को तो झुलसाने से बचा लिया परन्तु बिना कुछ जाने कासन के सारे निवासी दो बसों में भरकर प्राण सुख के घर पर आ धमके | उन्होंने वहां बहुत उत्पात मचाया | अंत में 50 लाख रूपये देकर प्राण सुख ने अपना पिंड छुडाया था |”
मैंने अनभिज्ञता दिखाते हुए बताया, “मुझे इसकी अधिक जानकारी नहीं थी क्योंकि मैं उन दिनों एयरफोर्स की नौकरी पर बाहर था ?”
तीसरा किस्सा आपकी बुआ के पोतों की लडकी के साथ घटित हुआ था | वह कासन में ब्याही थी | उसने भी तंग आकर ससुराल छोड़ने का मन बना लिया था परन्तु उसे मार दिया गया |
हाँ, हाँ यह तो मुझे पता चला था |”
ओमप्रकाश ने थोड़ा रूककर पूछा, वैसे भाई साहब आपका लड़का पवन भी तो कासन वालों के यहाँ ब्याहा है न ?”
हाँ, आजकल वे महावीर एन्क्लेव रहते हैं |”
ओमप्रकाश ने थोड़ा जोर देकर पूछा, “हैं तो कासन के रहने वाले ?”   
हाँ, हाँ, बिल्कुल ठीक?”
क्या अब आपकी उनसे ठीक पट रही है ?”
ओमप्रकाश की ‘अब उनसे....’कहने का तात्पर्य समझकर मैंने जान लिया था कि हमारे साथ क्या बीती थी उसका उसको पूरा ज्ञान था | इसलिए जवाब दिया, “भाई हमारे साथ भी वैसा ही कुछ हंगामा हो गया था परन्तु हमने तो उलटा उन्हें सबक सिखा दिया था अत: तब से सब ठीक चल रहा है |”
ओमप्रकाश ने अपनी बेबाक तथा निर्भीक अंदाज तथा आवाज में चेतावानी दी, “भाई साहब आप कुछ भी समझो या कहो परन्तु मैं कासन के आदमियों तथा लड़कियों पर विशवास नहीं कर सकता कि वे फिर कोई बखेड़ा खडा नहीं करेंगे |”
मैनें ओमप्रकाश से जब जानना चाहा कि उसको हमारे साथ घटित घटना का कहाँ से पता चला तो उसने बताया, “एक दिन कासन से मेरी ताई जी के भाई अर्थात मेरे मामा जी आए थे | उन्होंने बताया था कि नारायणा के चरण सिंह गुप्ता के गुडगाँव वाले मकान पर बहुत बड़ा हंगामा हुआ था | साथ ही साथ झेंपते हुए उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि अबकी बार तो कासन वालों का उलटा पासा पडा |”
मैनें पूछा, “उलटा पासा का क्या मतलब?”
“मतलब यही कि इस बार उन्हें सवा सेर टकरा गया था |”
हालांकि ओमप्रकाश के शब्दों से मेरा सीना चौड़ा हो गया था परन्तु उसका ताकीद करना तथा विशवास भरे अंदाज में कहना कि ‘मैं कासन के आदमियों तथा लड़कियों पर कभी विश्वास नहीं कर सकता कि वे भविष्य में कोई बखेड़ा खडा नहीं करेंगे ‘| मेरे मन के एक कौने को मेरी पुत्रवधू अंजू की तरफ से भविष्य की आशंका तथा डर ने भर दिया |
विश्व में हुई अनेक घटनाएँ इस बात की गवाह हैं कि त्रिया हठ से किसी का भला नहीं होता। त्रिया हठ बहुत ही विनाशकारी होता है। इसके भयंकर दुष्परिणाम होते हैं | इस हठ के आगे किसी महारथी का भी वश नहीं चलता। 
         
रामायण में केकैयी के हठ के कारण भगवान राम को अपनी पत्नी सीता और भाई लक्षमण के साथ चौदह वर्ष के लिए जंगलों में भटकना पड़ा। वहाँ उन सबको अगणित कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सबसे बढ़कर राजा दशरथ की मृत्यु हो गई । इसी तरह द्रौपदी यदि अपने हठ और अहंकार का प्रदर्शन न करती तो शायद महाभारत का विनाशकारी युद्ध टल जाता जो इतने सारे विद्वानों और योद्धाओं को लील गया।    
तभी तो कहा गया है ‘जहां पर प्यार हो केवल वहीं पर रास होता है, जहां औरत का हठ होता है वहीं पर बनवास होता है ‘ |    
  घर परिवार सम्भालने वाली स्त्री होती है पुरूष के बूते की बात नहीं कि वह घर को सुचारू रूप से चला सके | यदि वही हठ करके बैठ जाए तो वह घर घर नहीं रहता श्मशान की तरह हो जाता है। वहाँ कुछ भी शुभ नहीं होता।  वहाँ पर दिन प्रतिदिन कुव्यवस्था का साम्राज्य होता जाता है | घर बर्बादी के पथ पर अग्रसर हो जाता है   
        
जिस घर की स्थितियाँ इस दुर्दान्त बिमारी के कारण विपरीत होने लगती हैंउस घर से धन संपत्ति रूठने लगती है दिन रात का चैन पंख लगाकर उड़ने लगता है | संयुक्त परिवार का अन्त विघटन से होता है। इस सब में बच्चे सबसे ज्यादा भुगतते हैं, जिन बेचारों का कोई दोष नहीं होता।
        
इस हठ के कारण वह स्वयं भी तो संतुष्ट नहीं रह सकती। यदि उसका तुष्टिकरण हो जाए तो इन्सान सोच लेगा कि कोई बात नहीं अब सब ठीक हो गया। परन्तु लत लगी हठ का मुँह तो सुरसा की तरह खुला रहता है। एक हठ या जिद पूरी हो जाने पर फिर से नई जिद तैयार हो जाती है। सारा समय घर में अशान्ति का माहौल बना रहता है। किसी को पलभर के लिए चैन नहीं मिल पाता।
          
ऐसी स्त्रियों की ससुराल में तो क्या अपने मायके में भी नहीं बनती। उनके इस स्वभाव के कारण वहाँ भी उन्हें कोई पसन्द नहीं करता।  यह त्रिया हठ कहीं भी अमन चैन नहीं रहने देता |
    यह मैं भी जानता था कि पिछले कई वर्षों के दौरान अंजू का व्यवहार भी अनेकों बार बर्दास्त करने से बाहर हो गया था फिर भी एकता बनाए रखने के लिए मैं प्रयत्न करता रहता था | अब मुझे लगने लगा था कि ओमप्रकाश की बातों में दम है | क्योंकि:
1.    जब से अंजू घर में आई थी, मेरे समझाने के बावजूद उसने कभी भी अपनी सास के पास बैठकर इत्मीनान से बात नहीं की थी जो संतोष के साथ मुझे भी खलती थी |
2.    सास की बात छोड़ो घर में उसके मुंह पर हंसी मुश्किल से ही दिखाई देती थी जबकि बाहर वह खूब हंस-हंस कर बातें करती थी |
3.    हमें अगर कभी सुबह नारायणा जाना होता था तो अंजू के परिवार को सोता छोड़कर जाना पड़ता था | जो संतोष के मन को कचोटता था |
4.    मुझे सुबह की चाय वह कैसे बना कर देती क्योंकि वह सुबह आठ बजे से पहले उठती ही नहीं थी | और सोते हुए को जगाना मुझे मुनासिब नहीं लगता था |
5.    अंजू रात को कभी झूठे बर्तन नहीं मांजती थी जिसकी वजह से सुबह की चाय बनाने के लिए संतोष को ही बर्तन मांजकर अपना काम करना पड़ता था |
6.    ‘उठ नारी दे बुहारी, तेरे घर आए कृष्ण मुरारी’ की प्राचीन प्रथा अंजू के घर में समाप्त हो चुकी थी |
7.    घर में झाडू-पौचा भी सुबह की बजाय शाम को लगवाया जाता था |
8.    कई बार टोकने के बाद भी सुबह नहाकर उतारे हुए कपड़ों को भिगोकर बिना निचौडे सूखने के लिए टांग दिया जाता था | जिससे उनसे घंटो पानी टपकता रहता था |
9.    उसकी कपड़े धोने की मशीन रात के 11-12 बजे तक चलती थी |
10. अंजू को शायद पीहर से अपने ससुराल में सबसे घर्णा करने की शिक्षा मिलती थी
अंजू की ऐसी बहुत सी बातें थी जिन्हें देखकर संतोष अपना मन मसोस कर रह जाती थी | अगर कभी उन्होंने अंजू को कुछ कह दिया या टोक दिया तो तू-तू, मैं-मैं की नौबत आ जाती थी | जैसे;
संतोष:- अंजू, आज सुबह चाय बनाने के लिए एक भी बर्तन नहीं था |
अंजू:- रात बहुत थक गयी थी इसलिए मांजे नहीं |
संतोष:- आज रात की क्या बात है, मैं तो रोज रात को सींक बर्तनों से भरा ही देखती हूँ |
अंजू (फट से बोलती):- मांजती तो मैं ही हूँ न |
संतोष:- वह तो है परन्तु रात को रोजाना झूठे बर्तन छोड़ना अच्छा नहीं मानते |
अंजू:- मम्मी जी छोड़ो पुराणी दकियानूसी बातों को, आजकल सभी घरों में ऐसा ही होता है |
मतलब यह कि अंजू के पास अपनी सास की हर बात का तोड़ था |
जैसे घर में झाडू सुबह निकालनी चाहिए, खाना समय पर खाकर समय पर सो जाना चाहिए, बच्चो को रात के बारह बजे तक जगाकर नहीं रखना चाहिए, कपड़े दिन ढलने से पहले धो लेने चाहिए, इत्यादि | थोड़े दिनों तक भांपने के बाद कि अंजू पर उसकी बातों का उलटा असर होता है तो उन्होंने अंजू से कुछ न कहना ही मुनासिब समझा और चुप रहने लगी |
अंजू को तो जैसे मन की मुराद मिल गयी | अब संतोष ने अपने मन की व्यथा को कम करने के स्वरूप अंजू का नाकारात्मक रवैये के बार में मुझे बताना शुरू कर दिया | मैं इस और अधिक ध्यान न देकर बस इतना कह देता, “करने दो उसे तुम अपने मन पर क्यों लगाती हो |”
जब संतोष ने जान लिया कि मेरा आशय समर्पण का है तो उसने मेरे से भी बहुत कम बोलना और चुप रहना शुरू कर दिया | वह अन्दर ही अन्दर घुटने लगी और एक दिन ऐसा आया कि वह अपने कमरे के किवाड़ बंद करके अकेली अन्दर रहने लगी और आहिस्ता-आहिस्ता मनोरोग से ग्रस्त हो गयी | मुझे चिंता होने लगी | मैंने उनको डाक्टर को दिखाया तो मेरा अंदाजा ठीक निकला क्योंकि उनका मनोरोग का इलाज शुरू कर दिया गया था | डाक्टर ने सलाह दी कि मर्ज अभी शुरू ही हुआ है अत: इन्हें कहीं बाहर घुमाने से काफी फ़ायदा होगा |
इन्हीं दिनों मनोज जी का फोन आया, “ पिता जी हमने इलाहाबाद, वाराणसी तथा लखनऊ आदि घुमाने का प्रोग्राम बनाया है |”
मैनें कहा, “बहुत अच्छ रहेगा |’
मनोज जी:-क्या चलने का आपका भी विचार है ?”
मैंने पूछा, “कितने दिन का प्रोग्राम है और कौन-कौन जा रहे हैं ?”
मनोज जी;- मेरी बसंत वाली बहन तथा मेरा परिवार |”
अंधे को क्या चाहिए दो आँखें, मैं तो पहले ही सोच रहा था कि डाक्टर की सलाह अनुसार कुछ दिनों के लिए बाहर घूम आना चाहिए अत: उनके साथ जाने की हामी भर दी | भ्रमण पर जाने के लिए अंजू ने एक बार भी नहीं पूछा कि रास्ते के लिए क्या कुछ बनाना या तैयारी करनी थी | जबकि वह जानती थी कि उसकी सास बाहर बाजार का कुछ नहीं खाती है | परन्तु भगवान् का शुक्र रहा कि वाराणसी में हमें काकू और किरण का आतिथ्य मिल गया | उन्होंने ने हमारे प्रति अपनों से भी अधिक सेवा भाव दिखाया और खाने-पीने, रहने का अपनी तरफ से पूरा इंतजाम कर दिया |
वापिस आने पर जीवन पुराने ढर्रे पर चलने लगा | घर में कलह का साम्राज्य दिन प्रति दिन बढ़ता दिखाई दे रहा था | फिर भी विघटन की बजाय  एक साथ रहने का प्रयास किया जा रहा था | क्योंकि मेरा विचार था कि अगर एक व्यक्ति का दिल टूटता है तो वह सीमित रहता है परन्तु परिवार के टूटने की धमक परिवार को पूरे समाज में हंसी का केंद्र बना देती है |   
मैं इस बात से अनभिग्य नहीं था कि ज़माना बहुत तेजी से बदल रहा है और इसके साथ बदल रही है आजकल के नौजवानों की सोच | वर्तमान सभ्यता को निभाते – निभाते हम बड़ों का सम्मान करना भी भूलते जा रहे हैं | आज हमें अपने लाईफ स्टाईल से मतलब रह गया है | नाते, रिश्ते, सम्मिलित परिवार और इंसानियत की अहमियत विलुप्त होती जा रही है | सब आप मरूदे होते जा रहे हैं | वे ये भूलते जा रहे है कि तुम्हारे अपने बुजुर्गों को सम्मान देते हुए देखकर ही तो तुम्हारे बच्चे में बड़े होकर आपको सम्मान देने की प्रवृति जागृत होगी | हालांकि बुजुर्गों को भी यह समझना चाहिए कि बदलाव प्रकृति का नियम है अत: आज की पीढी में होते हुए बदलाव को सिरे से नकारना भी बुद्धिमानी नहीं होगी |  
किसी तरह दो वर्ष बीत गए | एक बार फिर घूमने का प्रोग्राम बना | इस बार मनोज जी, प्रवीण तथा हम दोनों को जाना था | इस बार खाटू श्याम जी, सालासर तथा बाला जी के दर्शन को जा रहे थे | इसलिए तय हुआ कि प्रवीण का परिवार जाने वाले दिन सुबह 5 बजे नारायणा से गुडगांवा आ जाएंगे जहां से हम सब अपनी गाड़ी में बैठकर दर्शनाथ प्रस्थान करेंगे | प्रवीण का परिवार तय समय पर गुडगांवा पहुँच गया | संतोष ने उन्हें चाय वगैरह बना कर दे दी | मुझे आश्चर्य के साथ गुस्सा भी आ रहा था कि अंजू ने उठकर दर्शन भी नहीं दिए | अपने सास-ससुर के जाने की तैयारी तो दूर वह अपनी जिठानी जो सुबह उसके घर यहाँ आई थी तथा धार्मिक स्थलों पर दर्शन के लिए जा रही थी, उसने बाहर आकर सद्भावना भी नहीं जताई थी | समय की नाजुकता को भांपते हुए उस समय मैं गुस्से की घूँट को पीकर रह गया |
वापिस आकर मैंने पवन से पूछा, “क्या उस दिन तुम्हारे घर में दुश्मन आए थे ?”
पवन झेंपते हुए बोला, “भाई और भाभी जी दुश्मन थोड़े ही होते हैं |”
मैनें दूसरा प्रश्न दागा, “तो क्या वे अंजू के दुश्मन थे ?”
“नहीं, उसके भी क्यों होंगे |”
“तो फिर उस दिन क्या हुआ था ?”
“मैं तो बाहर आ गया था |’
“मैं तेरी नहीं तेरी बहू अंजू के बारे में पूछ रहा हूँ |”
पवन ने तपाक से कहा, “वह सो रही थी मैंने उसे उठाना उचित नहीं समझा |”
पवन के उत्तर से मैं गुस्से से लाल हो गया परन्तु सँभलते हुए पूछा, “क्या यही तेरी तथा अंजू की संस्कृति है ?’
पवन:- क्यों क्या हुआ ?”
“तू मेरे से पूछ रहा है कि क्या हुआ, अरे बेशर्मों एक तो तुमने हमारे से यह तक नहीं पूछा कि पापा जी आप घूमने जा रहे हो कुछ तैयारी तो नहीं करनी, इसके अलावा अंजू के जेठ और जिठानी उसके घर आए और वह कमरे में आसनपाटी लेकर कमरे में पडी रही | उससे इतना भी नहीं हुआ कि वह जाने वालों को शुभकामनाएं तो कह दे |”
पवन तथा अंजू ने चुप्पी साध ली अत: मैंने कहना आरम्भ रखा, “इसका मतलब तुम अपनों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते तो फिर यहाँ रह क्यों रहे हो सबसे नाता तोड़कर कहीं भी रहो आजाद रहो, खुश रहो |”
पवन:- पापा जी इसमें ऐसी क्या बात हो गयी जो आप इतना भड़क रहे हो ?”
मैं समझ गया कि हमेशा की तरह पवन अंजू का पक्ष ले रहा है | उसकी बुद्धी पर अंजू के सहवास का भूत सवार हो चुका है | अत: सुनाया, “अरे इतना तो घर आए बाहर वाले से भी पूछ लिया जाता है, ये तो तुम्हारे अपने थे | शायद कासन वालों का असर तेरे अन्दर प्रवेश कर गया है |”
पवन:- इसमें कासन के असर की बात कहाँ से आ गयी ?”
“क्योंकि ये वहीं के लोगों के खून में ही है कि वे किसी के साथ इंसानियत का व्यवहार नहीं करते |”
हम अभी आए हैं परन्तु वहां के काकू तथा किरण के सेवा भाव ने हम सभी का दिल जीत लिया | हमारे लिए अनजान होते हुए भी उन्होंने हर प्रकार से हमारा ख़याल रखा तथा दिल से स्वागत किया | मैं जिन्दगी भर उसके एहसानो का बदला नहीं चुका पाऊँगा | मेरा कड़ा रूख देखकर अंजू अपने किए की माफी माँगने आ गई | उसका व्यवहार बुरा तो सभी को लगा था परन्तु मनोज जी, प्रभा, प्रवीण, एवं चेतना के कहने से, न चाहते हुए भी, मुझे अंजू को माफ़ करना पड़ा |
थोड़े दिनों में ही घर के हालात फिर बद से बदतर होने लगे | हर तरफ कलह का साम्राज्य स्थापित होने लगा था | संतोष की अवस्था में कोई सुधार नहीं हो पा रहा था क्योंकि अंजू को लाख समझाने पर भी अपनी सास के प्रति उसके व्यवहार में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा था |
इसी दौरान अंजू एक स्कूल में नौकरी लग गई | वह सुबह नौ बजे निकल जाती | अब मेरे लिए सुबह का नाश्ता संतोष बनाने लगी | गर्व तथा यश स्कूल से दोपहर तीन बजे आते तो अधिकतर खाना मेरे साथ ही खाते थे क्योंकि अंजू का स्कूल से वापिस आने का समय तय नहीं था | अब अंजू के ऊपर हमारे लिए केवल रात्री के भोजन का जिम्मा रह गया था | अब धीरे धीरे अंजू ने छुट्टी वाले दिन तथा रात के खाने के समय का ध्यान रखना बंद कर दिया | क्योंकि उसके व्यवहार से मालूम पड़ने लगा था कि वह केवल अपनी शर्तों तथा सहूलियत अनुसार ही खाना दे सकती है | संतोष ने एक दो बार इस बारे में अंजू से कहा भी परन्तु अंजू पर कोई असर नहीं हुआ | इससे संतोष शाम को भी अपनी रोटी खुद सेक के खाने लगी | इसी प्रकार छुट्टी वाले दिन अंजू का असली नाश्ता भी दस बजे तक नहीं बनता था तो मुझे ब्रेड खाकर ही गुजारा करना पड़ता था | इसके साथ अंजू अब उलटे सीधे काम करने लगी थी मसलन वह नहाकर अपने गीले कपड़े बिना निचोड़े, टपकते हुए टांग कर जाने लगी | यह मुझे बहुत बुरा लगता इसलिए मैंने उसे टोकना शुरू कर दिया | एक दिन उसने अपने गीले कपड़े बाहर तार की बजाय किवाड़ पर ही टांग दिए जिससे मुझे दिखे नहीं | परन्तु किवाड़ों के नीचे से आते पानी ने उसकी कारस्तानी बयाँ कर दी |   
मेरी सहन शक्ति देखकर संतोष को बहुत कष्ट होता था परन्तु मेरे कहने से वह मूक द्रष्टी से देखती तो रहती जिससे उनके दिमाग पर बहुत भारी असर होता था | वैसे अंजू रोज पूरी बन-ठन कर स्कूल तो चली जाती थी परन्तु आहिस्ता-आहिस्ता शाम को सर में दर्द का बहाना बनाकर रात का खाना देरी से पकाने लगी | छुट्टी वाले दिन तो वह पूरा दिन अपने कमरे में आसनपाटी लेकर पडी रहने लगी | न उसे अपने बच्चो का ख्याल आता न पवन की चिंता तो फिर हम सास-ससुर उसके लिए किस खेत की मूली थे | तरस खाकर संतोष गिरपड़कर सबका पेट भरती |
धीरे-धीरे संतोष की तरह मेरे सब्र का बाँध भी टूटने लगा था | मुझे आभाष होने लगा था कि अंजू हमें दरकिनार करना चाहती है खासकर अपनी सास को | क्योंकि एक बार संतोष ने कह दिया था कि वह नारायणा ही रहेगी और मैं अपनी सेहत की वजह से गुरूग्राम ही रहना पसंद करता था | जब हमने थोड़े दिन ऐसा किया भी तो अंजू को किसी प्रकार की कोई परेशानी दिखाई नहीं दी थी | संतोष के वापिस आते ही अंजू ने फिर पुराणी हरकतें शुरू कर दी थी |
एक दिन पवन तथा अंजू के बीच कुछ गरमा गर्मी चल रही थी | बगल से आती तेज आवाज को सुनकर संतोष कारण जानने के लिए उनके दरवाजे पर जाकर खड़ी ही हुई थी कि अंजू ने कांग्रेस पार्टी के हाथ की मुद्रा बनाई और जोर से चिल्लाई, “बस आप कुछ मत बोलना |’
मैं भी संतोष के पीछे चला आया था | अंजू का अपनी सास के प्रति ऐसा रूख मुझे गंवारा न हुआ और उसकी भाषा में जवाब दिया, “खबरदार जो बदतमीजी की हम किसी तरह से तेरी दबेल में नहीं बसते |”   
इसके बाद संतोष अपने कमरे में आ गयी और मैं किसी काम से बाहर चला गया | वापिस आने पर पता चला कि अंजू ने तैश में आकर कहा था, “अब मैं इस घर में नहीं रह सकती, मैं अपने दोनों बच्चों को लेकर कहीं चली जाऊंगी |”
मैंने कहा, “इसका आभाष तो मुझे उसी दिन से होने लगा था जिस दिन से अंजू नौकरी लगी थी |”
पवन:-ऐसी बात नहीं है पापा जी अंजू कहती है कि वह इतना काम करती है फिर भी उसकी कोई तारीफ़ नहीं करता ऊपर से उसे झाड़ की पदवी दी जाती है |
मैंने पवन को समझाया, “जैसे चांदी की परख कुठाली पर तथा सोने की परख भट्टी में होती है उसी प्रकार मनुष्य की परख लोगों के द्वारा की गयी प्रशंसा से होती है | प्रत्येक मनुष्य अपनी प्रशंसा चाहता है प्रशंसा माँगने से नहीं मिलती परन्तु उसको कमाने के लिए मानुष को निश्छल भाव से सेवा भाव दिखाना भी आवश्यक होता है |”
पवन:- यह तो है |”
इस पर मैंने बताया, “मेरे लिए सुबह की चाय, नाश्ता तथा दोपहर का खाना तेरी मम्मी बनाती है | अधिकतर अंजू स्कूल से देरी से आती है तो बच्चो के लिए भी दोपहर का खाना तेरी मम्मी ही बनाती है | मेरे तथा अपने कपड़े तेरी मम्मी खुद धोती हैं | हम तुम्हें कहीं आने जाने के लिए टोकते नहीं और हमें कहीं जाना हो तो तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनते | तुम्हारे से कभी आर्थिक मदद भी नहीं माँगी | झाड़ू पौछा करने के लिए बाई लगी है अधिकतर बर्तन भी वही साफ़ करती है | अन्जू के लिए कपड़े धोने की मशीन आटोमैटिक है | फिर भला अंजू के सर पर काम का कौन सा पहाड़ खडा रहता है मेरी समझ से बाहर है ?”
पवन की तरफ से कोई जवाब नहीं आया तो मैंने फिर कहा, “तुम दोनों को पता है कि तेरी मम्मी के सिर में कितना दर्द रहता है क्या कभी अंजू ने कहा है कि लाओ मम्मी जी आपके सिर की मालिश कर दूं | बल्कि कई बार अंजू के सामने उनकी मालिस मैं करता हूँ उसने एक बार भी नहीं कहा कि हटो पापा जी मैं करती हूँ | अरे ! अंजू के पास तो तुम्हारी मम्मी के पास 10 मिनट बैठने की भी फुर्सत नहीं है | अब तू मुझे पिछले 17 सालों में कोई एक ऐसा काम बता दे जो अंजू ने ऐसा किया हो जिसकी तारीफ़ की जा सकती थी और हमने नहीं की |”
मैंने अंजू से भी पूछा कि चलो तुम ही याद दिला दो कि तुमने कब और कौन सा ऐसा काम किया कि तुम्हारी तारीफ़ की जा सके |
और हाँ तुमने देखा भी होगा कि जब भी मेरे जीजा जी, मेरे दामाद तथा उनके बच्चे जब भी आते थे तो उनका एक ही कहना होता था कि आज नानी जी ही खाना बनाएंगी | वे कहते थे की उनकी बनाई हुई आलू-टमाटर की सब्जी, पराठें, बाजरे या दाल -चावल की खिचडी इतनी स्वादिष्ट बनती है कि उंगलियाँ चाटते रह जाओ | और जब वे बनाती थी तो तुम उन जैसा बनाने की कला सिखने ने बजाय रसोई से ही बाहर निकल जाती थी शायद मेहमानों का यह व्यवहार तुम्हारे मन में एक तरफ ईर्षा तथा दूसरी और बेईजती का आभाष करा देता है |

दोनों चुपचाप सुनते रहे , कुछ नहीं बोले, बोलते तो तब जब कभी ऐसा हुआ हो |
इस पर मैंने कहा, “अगर संतोष ने तुम्हारे बारे में झाड कह भी दिया जो की तुम्हारे मुंह पर नहीं कहा तो क्या गलत कहा | वास्तव में तुम्हारे कारनामों से तुम्हें झाड़ कहने में कोई गलती नहीं है |”
शायद मेरी बात ने आग में घी का काम कर दिया था तभी तो बिना जवाब दिए अंजू पैर पटकती हुई अन्दर चली गयी थी | वैसे तो त्रिया हठ जगत प्रसिद्द है  परन्तु कासन की लड़कियों की हठ ने तो हमारी बिरादरी में नाम कमा रखा है फिर भी यह सोचकर कि शायद अंजू के पापा अपनी बेटी को कुछ सद्बुद्धि देकर समझा दें की उसका ऐसा व्यवहार ठीक नहीं है, मैंने उनको फोन किया, “राम-राम जी, मैं आपको बताना चाहता हूँ कि अंजू को एक बार फिर इस घर को छोड़ने की उचंग सवार हो गई है |”
“तो मैं क्या कर सकता हूँ ?”
“आप एक बार यहाँ आ जाओ |”
“इस बारे में मेरा वहां आने का तो मतलब ही नहीं है |”
“अंजू आपकी बेटी है | आकर उससे उसके मन की बात पूछ लो कि यहाँ उसे क्या तकलीफ है |”
चुन्नी लाल, “देखो जी मेरा इसमें कोई रोल नहीं है फिर मैं वहां आकर क्या करूंगा |”
चुन्नी लाल के यह कहने से मुझे अपने फूफा जी की वर्षो पहले कही बात याद आ गई ‘कासन के लोग बड़े कुम्मसल होते हैं लडकी की विदाई के बाद बरात पर पत्थर फैंक कर यह दर्शाते हैं कि अब आए तो आए अब कभी इस और का मुंह मत कर लेना परन्तु हमारी लडकी की बात नहीं मानी तो हम से बुरा कोई न होगा’ |
मैंने कहा, “अंजू ने तो चुप्पी साध रखी है इसलिए आप आकर बात साफ़ कर जाओ कि आखिर वह ऐसा क्यों चाहती है |”
चुन्नी लाल:-वैसे तो मेरा वहां आना नहीं बनता फिर भी देखता हूँ |” और फोन कट गया |
चुन्नी लाल को न आना था और न आए |         
मैं कई दिनों से अंजू के हमारे प्रति आचरण में बहुत बड़ा बदलाव महसूस कर रहा था | मुझे लग रहा था कि वह हम दोनों की एक साथ सेवा नहीं कर सकती थी | सेवा तो क्या वह हम दोनों को शायद बाँट देना चाहती थी अर्थात दो बेटों के बीच एक –एक | दिखावे के लिए हमने कुछ दिनों के लिए ऐसा किया भी तो पाया कि घर में कोई अनबन नहीं हुई | परन्तु एक दूसरे से बिछोह हमें गवारा नहीं था | फिर मैंने यही सोचकर जैसा कि अंजू ने कहा था कि वह अब इस माहौल में इस घर में नहीं रहगी, तो इसको परखने के लिए मैनें संतोष से कहा, “अंजू तो अब इस घर में रहेगी नहीं इसलिए आज से हम अपना खाना अलग बनाएंगे |”
मेरे कहने से संतोष ने रात का खाना अलग बनाने का उपक्रम शुरू कर दिया | मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने पाया कि न तो अंजू ने तथा न ही पवन ने एक बार भी टोका कि मम्मी जी आप ऐसा क्यों कर रही हैं | हम आपको खाना अलग नहीं बनाने देंगे | ये मनमुटाव तो चलते रहते हैं |  
आज मेरे अन्दर अफ़सोस की भावना जागृत होती महसूस हुई | अफसोस करना मनुष्य के जीवन की एैसी दुःखदायी भावनाएँ है, जिसका असर बाहर से तो दिखाई नही पड़ता है लेकिन अंदर बड़ी अजीब सी घुटन महसूस होती हैं जिससे मनुष्य का मन अंदर ही अंदर उसे कचोटता रहता हैं। इसका मूल कारण है भूतकाल की कुछ घटनाओं को परिवर्तित करने की हमारी तीव्र इच्छा परन्तु अगर तुम इसमें विफल हो गए तो पश्चाताप करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता | आज त्रिया हठ के आपसी मतभेदों ने मेरे परिवार को दोबारा उसी स्थिति में लाकर खडा कर दिया था जब अंजू की नासमझी ने लगभग 17 वर्ष पहले विघटन कराया था और मेरे अथक प्रयासों से परिवार एकजूट हो गया था |  

आज 1 सितम्बर 2019 मेरी बड़ी पुत्र वधु चेतना का जन्म दिन था | इसलिए उसने हमें नारायणा आने के लिए टेलीफोन किया था | मैंने उसको सांत्वना देते हुए बताया, “हम तो वहां नहीं आ सके परन्तु तुम खुशी मनाओ कि तुम्हारे जन्म दिन पर तुम्हारी दोरानी ने हमें बहुत अच्छा गिफ्ट दिया है |”
प्रभा का परिवार भी इस मौके पर नारायणा ही आया हुआ था | उसे भी मैंने यही कहकर खुश कर दिया कि अंजू ने अपनी जिठानी के जन्म दिन पर हमें बहुत बड़ा तौफा दिया है जिससे हम बहुत खुश हैं | इसलिए तुम सब भी वहां चेतना का जन्म दिन खुशी-खुशी मनाओ |
हालांकि प्रभा चेतना का जन्म दिन मना कर अपने घर चली गयी परन्तु अंजू द्वारा दिए गए ‘स्पेशल गिफ्ट’ उसके गले नहीं उतर रहा था | इसलिए वह लगभग रोज ही टेलीफोन पर उस गिफ्ट के बारे में बताने के लिए आग्रह करती थी | मैं भी हमेशा यही कहता कि जब यहाँ आओगी तभी अपनी आँखों से देख लेना |
प्रभा को गिफ्ट देखने की बेचैनी लगी थी अत: एक हफ्ते बाद ही वह पूरे परिवार के साथ गुडगांवा आ धमकी | और आते ही उतावलेपन से पूछा, “पापा जी जल्दी दिखाओ आपका वह स्पेशल गिफ्ट |”
मैनें हँसते हुए बताया, “तेरी भाभी के पास ही रखा है |”
प्रभा दौड़ी-दौड़ी अंजू के पास गई तथा जब अन्जूं ने गिफ्ट के बारे में अनभिज्ञता बताई तो वह उलटे पाँव मेरे पास आकर हँसते हुए जोर से बोली, “पापा जी आप ये क्या पहेली बुझा रहे हो, दिखाओ न गिफ्ट, मेरे सब्र का बाँध टूटा जा रहा है |”
इतने में खाना परोस दिया गया तो मैंने कहा, “अच्छा अब पहले खाना खा लो फिर दिखाता हूँ |”
प्रभा मान गई और सभी को खाना खाने के लिए बैठने को कहा |
“आप सब खाओ”, कहकर मैंने संतोष की तरफ इशारा किया जो प्रभा ने भांप लिया |
“पापा जी क्या बात है, आप मम्मी जी को क्या इशारा कर रहे हो ?”
“अपने खाने के लिए”       
प्रभा बेचैन सी होकर, “क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि एक सितम्बर को अंजू ने हमें जो गिफ्ट दिया था यह वही है |”
मेरी बात सुनकर प्रभा कुछ पल के लिए अवाक रह गयी और अपना माथा पकड कर बैठ गई | थोड़ी देर में वह संभलकर बोली, “पापा जी आपके धैर्य को में क्या कहूं | इतनी बड़ी बात भी अभी तक आप कितनी सहजता से कर रहे हैं |”
इसके बाद प्रभा ने अंजू को अकेले में न जाने क्या-क्या समझाया परन्तु उसकी तरफ से भैंस के आगे बीन बजाने जैसा दर्शाया गया | परिवार में आपसी कहा सुनी में भी प्रेम अपनत्व की सूचक होनी चाहिए यदि ऐसा न हो तो परिवार का आनंद ही समाप्त हो जाता है | आपसी प्रेम हो तो सम्मान बना रहता है परन्तु जब प्रेम का अभाव होता है और अहंकार का उदय हो जाता है तो विवाद शुरू हो जाता है | अहंकार में मनुष्य अपने को सर्वश्रेष्ठ समझ कर सोचने लगता है कि ‘मैं क्यों दबूं’ | इस चक्कर में एक दूसरे पर दोष लगाकर सामने वाले को मूर्ख साबित करने की होड़ लग जाती है | हद तो तब होती है जब दोनों किसी भी तीसरे द्वारा समाधान निकालने के प्रयास को नकार देते हैं | तब विघटन ही एकमात्र समाधान रह जाता है |
भगवान् ने मुझे हर सुख सुविधा प्रदान की थी, धन, बच्चे, पोता-पोती, मकान, वाहन, मकान में जरूरत का हर सामान इत्यादि | मैं जब कोई ऐसा किस्सा सुनता था या अखबार में पढता था कि बहू-बेटे ने माँ बाप को अकेला छोड़ दिया या लड़ाई झगडा करके घर से निकाल दिया तो इसे झूठा किस्सा समझता था ? परन्तु अब तो वास्तव में मैं इसे खुद भुगतने की कगार पर हूँ | क्योंकि खाना तो अलग पकने लगा है |
इस जगत में मन से बड़ा चलायमान कोई नहीं है | यह एक पल में भूतकाल की बिसरी बातों तथा भविष्य की आशाओं का सैकड़ों दिनों का सफर तय करने की क्षमता रखता है | अर्थात हमारा मन भूतकाल और भविष्य के बीच घड़ी के पैन्दूलम की तरह डोलता रहता है | परन्तु संतुष्टी एक बहुत बड़ी शक्ति है | यह मनुष्य में शान्ति, प्रेम, पवित्रता, शुख, आनंद और आत्मशक्ति की भावना उत्पन्न करती है | इसके विपरीत संसार के सारे वैभव और भौतिक सुख सुविधाएं भी भटकता मन मानुष को संतुष्टी नहीं दे पाता |   
इसी प्रकार क्षमा याचना और क्षमादान, यह दोनों वे वृत्तियां हैं जो हृदय को विकार रहित कर देती हैं जो कलुषता को मिटाकर परम शांति की अनुभूति कराती हैं। जो अहंकारी हैं, वही किसी से क्षमा याचना नहीं कर सकते। अपनी गलतियों को स्वीकारना किसी साहसिक कार्य से कम नहीं होता। आधुनिक दौर में अधिकांश लोग अपनी गलतियों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हैं। परिस्थितियों का भी दोष गिनाया जाता है। ऐसे लोगों का मन संकुचित भावों से भरा होता है और अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने की चेष्टा करते हैं |
एक प्रसिद्द लोकोक्ति है ‘चूहे  को मिली हल्दी की गाँठ वह पंसारी बन बैठा’ जब से अंजू नौकरी लगी थी उसका व्यवहार बिल्कुल ऐसा ही हो गया था क्योंकि अब अंजू ने रात का खाना तथा छुट्टी वाले दिन सुबह का नाश्ता अपनी शर्तों पर बनाना शुरू कर दिया था | अब वह हमारे लिए समय का कोई ख्याल नहीं रखती थी | उसको इसका आभाष कराने पर भी उसमें कोई बदलाव नहीं आया | शायद एक अध्यापिका को अपने सास-ससुर का खाना बनाना खलने लगा था | तभी तो जिस दिन से खाना अलग बनने लगा उसी दिन से अंजू की सारी बीमारियाँ ख़त्म हो गयी थी |
अब एक रसोई में दो चूल्हे जलने थे जो नामुमकिन था इसलिए पवन – अंजू को कह दिया गया कि अपना इंतजाम करले | इसके बाद घर के प्रत्येक सदस्य ने उनसे अपनी-अपनी तरह से पता करने की कोशिश की कि वे कैसे रहेंगे परन्तु किसी को कोई माकूल जवाब नहीं मिला | अंजू ने तो अपने मुंह पर ताला लगा लिया तथा पवन शायद अपने पत्ते खोलना नहीं चाहता था |
पहले एक बार पवन के साथ होते हुए भी अंजू थाणे चली गयी थी तो मुझे पवन के आचरण पर शंका हुई थी | अब दोबारा अंजू के ऐसे व्यवहार पर पवन की चुप्पी मुझे बहुत खली है | घर में अपने बुजूर्ग माँ-बाप को अलग खाना बनाते हुए देखने पर भी पवन ने अंजू से एक बार भी नहीं कहा कि अंजू तुम उन्हें ऐसा क्यों करने दे रही हो | उन दोनों के व्यवहार को भांपकर हम दोनों ने भी निश्चय कर लिया कि अंजू के कहे अनुसार ‘मैं अब इस घर में नहीं रहूँगी अपने बच्चो को लेकर चली जाऊंगी’ अब किसी हालत में हम साथ नहीं रहेंगे | अपनी मंशा जताने के लिए मैंने वाट्स एप पर एक सन्देश लिखा, “15 अगस्त 1979 को मैंने दो स्वतंत्रता का जश्न मनाया था | अब चालीस वर्ष बाद शायद एक साथ तीन स्वतंत्रता का मौक़ा मिलने वाला है | पहला देश का, दूसरा खुद को एवं तीसरा मेरी छोटी पुत्र वधु को |”  
समय तेज गाती से बढ़ता जा रहा था और उसी गति से मेरे साथ संतोष के मन की व्यथा | अब अंजू-पवन के साथ रहकर एक-एक पल बिताना असहनीय तथा दुखदाई महसूस होने लगा था | 28 अगस्त को हम दोनों बेस हास्पिटल देहली कैंट से मासिक दवाई का कोटा लेने नारायणा चले आए थे | शाम को मैं राम द्वारा मंदिर से वापिस आया तो देखा कि संतोष बेसुध किसी गहन सोच की मुद्रा में बैठी थी | उसके आस-पास क्या हो रहा है उसे किंचित भी आभाष न था | थोड़ी देर के लिए मैं उन्हें इसी अवस्था में देखता रहा | उनकी हालत देखकर आज मुझे अपने पर गिलानी होने लगी | मैंने महसूस किया कि उनकी इस हालत का अंजू के साथ मैं भी भागीदार रहा हूँ | मेरी आत्मा से आवाज आई कि भगवान् ने हम दोनों के लिए सब कुछ दिया है फिर मोहमाया और ममता को अधिक महत्त्व देने के कारण मैंने संतोष को क्यों इतने दिनों तक अंजू के साथ सामंजस रखने के लिए मजबूर किया | अपने को दोषी मानते हुए अचानक मेरा मन रो उठा और बच्चों के सामने आँखों से अश्रुधारा बह निकली | आज जीवन में पहली बार मैं अपने बच्चों के सामने बच्चों की तरह रोया था | ये आंसू शायद मेरे उन गुनाहों के पश्चाताप के आंसू थे जो संतोष ने मेरे कहने से 17 साल तक सहे थे |
थोड़ी देर बाद मन हल्का होने तथा अपने को संभालकर मैंने ओमप्रकाश के दृढ विशवास से सबक लेते हुए निश्चय कर लिया कि अब बाकी का जीवन सुख-शान्ति से व्यतीत करने और घर में कलह के वातावरण से बचने के लिए एकबार फिर सास-बहू का विघटन ही एकमात्र विकल्प रह गया है |
   इसी अनुसार 29 अगस्त को नारायणा से वापिस गुडगांवा आकर मैंने पवन को सलाह दी कि जैसे एक पक्षी का बच्चा समर्थ होने पर अपने सगों की मोह-माया त्याग कर अपना अलग घर बसा लेता है अब समय आ गया है कि उसी तरह हमें भी ऐसी ही भावनाएं रखते हुए यही सोचना चाहिए कि दोनों घरों की उन्नति और सुख शांति के लिए शायद अलग रहना ही हितकर होगा |
‘बात तो ज़रा सी थी मगर, आज कितनी बड़ी हो गयी |’
‘कोई झुकने को न था राजी, तो विघटन की समस्या खड़ी हो गयी |’ 
और 2 सितम्बर 2019 को एकबार फिर पवन अपने परिवार के साथ 973 छोड़कर पालम विहार रहने के लिए चला गया |  



     
     


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