Friday, February 16, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-43) सदभावना

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-43) सदभावना
स्कूल की छुट्टियाँ होते ही बच्चे अपने मामा जी के घर जाने का प्रोग्राम बनाने लगते हैं | परन्तु जब मैं छोटा था तो अपने मामा जी के यहाँ न जाकर अक्सर अपनी बड़ी बहन जी के यहाँ जाया करता था | इसके कई कारण थे| पहला, मेरे मामा जी का घर दिल्ली से दूर अमृतसर में था | दूसरे, मेरी बहन जी तथा मेरी उम्र में १७ साल का अंतर था इसलिए वे मेरे लिए एक ममता की मूर्ति थी | तीसरे, शादी के दस वर्ष बीत जाने पर भी उन्हें संतान प्राप्ति का सुख नहीं मिल पाया था, उनकी गोद खाली थी | चौथे, दिल्ली के प्रदूषण भरे माहौल से दूर शामली के हरियाले लहलाते खेत, खुली हवा, नहरों में बहता ठंडा जल, आम के बगीचों में गूंजती कोयल, मैना तथा तोतों की आवाज, खुले वात्तावरण में नाचते मोर मन को प्रसन्नचित्त कर देते थे |
मेरे जीजा जी शामली के मेंन चौराहे पर एक जनरल स्टोर के मालिक थे | उनकी दुकान के सामने काफी जगह खाली थी जहां मुस्लिम समाज के चार युवक फड़ लगाकर, सामान बेचकर, अपने परिवार का भरण पोषण करते   थे | वही युवक मेरी बहन जी के घर का ऊपरी काम भी कर दिया करते थे | वे मुझे भी अपना मेहमान समझकर बहुत खातिरदारी किया करते थे | वे बहन जी के परिवार से ऐसे घुलेमिले रहते थे जैसे वे अलग न होकर उसी परिवार का हिस्सा थे | मेरे जीजा जी और बहन जी धर्मपरायण तथा सभी के लिए सदभावना रखने वाले व्यक्ति थे अत: आपस में उनका कोई धार्मिक भेदभाव दिखाई नहीं देता था |
मुस्लिम त्यौहारों पर मेरी बहन जी उन मुस्लिम व्यक्तियों के लिए सेवईयां बनाना नहीं भूलती थी | शायद उन मुस्लिम लोंगों की दुआओं का ही असर रहा होगा कि भगवान की कृपा से समय के साथ मेरी माँ सरीखी बहन की गृहस्थी बढ़नी शुरू हो गई | उनके चार बच्चे एक लड़का तथा तीन लडकियां हुई | चारों बच्चो के लालन पालन में उन मुस्लिम परिवार का बहुत बड़ा योग दान रहा तथा वे उनकी गोद में ही पल बढ़ कर बड़े हुए |
बड़ा होकर मैनें भी दिल्ली की तंग गलियों से निकलकर गुडगांवा के स्वच्छ वातावरण में अपने दो लड़कों की सोचकर एक दुमंजिला मकान बना लिया था | परन्तु परिस्थिति वश बड़ा लड़का दिल्ली में ही रहने लगा इसलिए मैनें मकान की पहली मंजिल किराए पर उठाने की मंशा बना ली | जल्दी ही एक अरूण शर्मा, अपने एक साथी के लिए, जो स्टेट बैंक ऑफ मैसूर में आने वाला था, के लिए मकान देख गया | अचानक मुझे किसी काम से अपनी पत्नी के साथ देहली जाना पड़ गया और हम अपने बड़े लड़के के पास ही ठहर गए | इस दौरान मेरे छोटे लड़के पवन ने फोन पर बताया, नए  किराएदार किराए की अग्रिम राशी देने आए हैं |
मैनें कहा, ले लो | और फोन काट दिया |
यह सुनकर मेरी पत्नी का कौतुहल जगा कि किराएदार कौन है तो मैंने फिर फोन पर पूछा, किराएदार का नाम क्या है?
जवाब मिला, कोई साहीन है|
साहीन! साहीन तो कुछ मुस्लिम सा नाम लगता है ? मेरे यह कहने से मेरी पत्नी के कान खड़े हो गए और वे हमारा वार्तालाप बड़े ध्यान से सुनने लगी |
हाँ, मुस्लिम लड़की ही है |  
यह जानकर हिन्दू रीतिरिवाजों के अनुसार पूजा पाठ करके पली बढी मेरी पत्नी विचलित होकर बोली, नहीं, नहीं हम किसी मुस्लिम को अपने घर में नहीं रखेंगे | उससे कह दो उसके पैसे वापस कर दे |
फिर से पवन को फोन मिलाने पर पता चला कि वह एडवांस देकर चली गई थी | इस पर मैं दुविधा में पड़ गया | क्योंकि मेरे संस्कार कहते थे कि जिसके लिए जबान दे दी हो उसे निभाना चाहिए और पत्नी के संस्कार कहते थे कि किराए के लालच की खातिर एक मुस्लिम परिवार को अपने घर में रखकर वे भ्रष्ट नहीं हो सकती |
मैंने पत्नी को समझाते हुए उन्हें याद दिलाया, देखो, हम शामली गए थे न ?
हाँ गए थे |
वहाँ बहन जी के घर का सारा काम कौन लोग कर रहे थे ?
पत्नी ने अपना तर्क दिया, वे काम ही तो कर रहे थे, घर में बस तो नहीं गए थे |
हम भी उन्हें अपने साथ थोड़े ही रख रहे हैं, वे तो ऊपर रहेंगे |”
पत्नी ने अपनी चिंता जताई, मौहल्ले पडौस वाले क्या कहेंगे ?
मैनें मौहल्ले पडौस वालों के कारनामें बताने के लिहाज से कहा, उनकी चिंता की क्या बात करती हो | वे तो पैसों कि खातिर अपने बच्चों को सारे दिन के लिए निम्न वर्ग के लोगों के सहारे छोड़कर चले जाते हैं | क्या एक मुस्लिम को किराएदार रखना इससे बदतर है क्या ?
पत्नी अपनी असमंजस्ता जाहिर करते हुए, मुझे तो कुछ जँच नहीं रहा फिर भी आपके हामी भरने का ख्याल रखकर इतना जरूर चाहूंगी कि वे घर में कुछ गंदा न पकाएं |
मेरे आशवासन दिलाने पर कि मैं सुनिश्चित करूँगा कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे मेरी पत्नी मान तो गई परन्तु साथ में कहा, मैं उनसे कोई संपर्क नहीं रखूँगी |
जिस दिन हम देहली से वापिस आए उसी दिन साहीन भी अपनी माँ तथा भाई के साथ सारा सामन लेकर आ गई | गर्मी का मौसम, मुजफ्फर नगर से गुडगाँवा का लम्बा रास्ता, वे प्यास से व्याकुल दिख रहे थे | अपनी खिड़की से उनका चमचमाता चेहरा देखकर मेरी पत्नी से बर्दास्त न हुआ | उन्होंने फ्रिज से एक ठन्डे पानी की बोतल मुझे थमाते हुए कहा, ऊपर दे आओ |
मैनें अपने चेहरे पर मुस्कान लाकर उनकी दूसरों के प्रति सम्मान रखने की भावना तथा मिलनसार प्रवृति को ध्यान में रखकर कहा, अतिथी देवो: भव: ?
मेरी पत्नी मुस्करा दी और मैं पानी की बोतल लेकर ऊपर चढ गया | मेरे हाथ में पानी की बोतल देखकर आने वालों के चेहरे पर मिश्रित भाव देखने को मिले | उन्होंने एक बार आपस में एक दूसरे को देखा, आखों ही आँखों में बात हुई और उनके साथ आए बुजुर्ग ने पानी की बोतल के लिए हाथ बढ़ा दिया | बातों ही बातों में पता चला कि शाहीन के पिता जी गूजर चुके थे | उसका एक ही भाई है जो साथ रहता है | साहीन ने अपने दम पर यह मुकाम हासिल किया है | उनका परिवार मांस-मच्छी इत्यादि का सेवन नहीं करता | उनका पहनावा तथा रहने का अंदाज भी वर्त्तमान युग के पढ़े लिखे लोगों की तरह है जिससे मुस्लिम समाज की छाप नजर नहीं आती |
ये बातें, खासकर साहीन के सिर पर पिता का साया न होना, मेरी पत्नी के मन में उसके प्रति संवेदना भर गई | उनकी धारणा में बहुत बड़ा बदलाव आया और उन्होंने उस परिवार की हर संभव सहायता करनी शुरू कर दी | थोड़े दिनों के अंतराल में ही मेरी पत्नी के मन में बसा मजहब और धर्म का भेदभाव मिटता नजर आया | उनके व्यवहार से ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे वे संदेशा दे रही हो कि भगवान, ईशवर, अल्लाह, परमात्मा आदि सब एक हैं तो फिर इंसान मिलजुल कर, एक होकर क्यों नहीं रह सकते | धर्म चाहे कोई हो मनुष्य के मन में एक दूसरे के प्रति इंसानियत और सदभावना हमेशा कायम रहनी चाहिए |             
चरण सिहँ गुप्ता
डब्लू.जैड.-653, नारायणा गाँव
नई देहली-110028
फोन:9313984463
Email: csgupta1946@gmail.com


   

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