Monday, February 5, 2018

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-41) अकेला

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा-41) अकेला
प्रकृति अत्यंत सरल है | इसकी सभी क्रियाएँ बड़ी सरलता के साथ होती हैं | सूर्य का उदय होना, तारों का टिमटिमाना, नदियों का निरंतर बहना, हवा का चलना, वृक्षो का फूलना फलना, रात और दिन होना,पर्वत व चट्टानें बनना, प्राणियों में वंश वृद्धि इत्यादि सब कुछ स्वयं ही होता है | 
कहा गया है कि मनुष्य इस संसार में अकेला आता है और अपने जीवन का समय पूरा करने के बाद अकेला ही पाँच तत्वों में विलीन कर दिया जाता है | यह प्रकृति का नियम है कि एक औरत एक आदमी के सहवास से गर्भ धारण करती है और बच्चे को जन्म देती है | नवजात शिशु पहले अपनी माँ से जुडता है फिर अपने पिता से इसके बाद वह अपने भाई बहन तथा घर के अन्य सदस्यों से जुड जाता है | जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है उसकी दूसरों से जुड़ने की परिधी भी बड़ी होती जाती है | ज्यों ज्यों मनुष्य दूसरों की संगत में आता है वह मोह, माया, रिस्ते-नाते, आदर-सत्कार, अपना-पराया वगैरह की पहचान करने लगता है तथा उनके कई गुणों के साथ कुछ विकारों को भी अपना लेता है |
समय के साथ प्रत्येक के जीवन में बदलाव आता रहता है | राजा रंक हो जाते हैं तो रंक राजा बन जाते हैं | इसलिए जीवन में आने वाले बदलाव के लिए हर समय तैयार रहना चाहिए | ऐसी तैयारी से अचानक आए बदलाव अर्थात सुख या दुःख को मनुष्य आसानी से झेल लेता है | इसी आदर्श को अपनाने के कारण, अब हर प्रकार से समर्थ, मुझे कोई बड़ा झटका नहीं लगा जब धीरे से मेरे भतीजों ने एक समारोह में, जिसमें हमें एकता दिखानी चाहिए थी, मुझे अकेला छोड़ दिया |
वैसे भी मैं वर्त्तमान युग के प्रचलन का बहुत बारीकी से अध्ययन करके उसी अनुसार अपने व्यवहार को ढालता आया था | मैंने महसूस किया था कि आजकल के अधिकतर नौजवान दम्पतियों का दायरा अपने परिवार तक ही सीमित रह गया था अर्थात पति, पत्नी और उनके बच्चे | अपने जन्मदाता का भी उनके जीवन में अधिक महत्त्व नहीं रहता है | कुछ किस्सों में तो ऐसा भी हुआ है कि मरणोपरांत हर वर्ष भारतीय संस्कृति के अनुसार पंडित को अपने परिजनों की आत्मा की शान्ति के लिए भोजन कराना भी नागवार है | नौजवान इससे छुटकारा पाने के लिए ‘गया’ जाकर पिंडदान करके हमेशा के लिए अपने पूर्वजों से छुटकारा पा लेते हैं |
हुआ यूं कि श्री भगवान की अनुकम्पा से वह दिन भी आ गया, जिसकी सब ने आस छोड़ दी थी, जब मेरी छोटी बहन अनीता  के लड़के वरुण  का रिस्ता पक्का हो गया | वरुण  की शादी से पहले अनीता  की एक भाभी जी तथा एक जवान भतीज बहू का देहांत हो गया था | हालाँकि इन दोनों के यहाँ मरने वालों की तेरहवीं तथा वर्षी कर दी गई थी फिर भी  उनके यहाँ भात नौतने में वह सकुचा रही थी | मेरे भाई औम प्रकाश के लड़के लक्ष्मण से मेरे  तनाव पूर्ण रिस्ते थे | इसलिए उसके सामने यह समस्या आ गई कि भात कैसे तथा कहाँ नौता जाए |
एक दिन बातों ही बातों में अनीता  ने बताया कि आपसी मनमुटाव को दरकिनार करके लक्ष्मण भात सभी के एक साथ मिलकर भरने की इच्छा रखता है | इसे सुनकर मुझे आश्चर्य के साथ खुशी भी हुई | लक्ष्मण की इच्छापूर्ती के लिए सर्वसम्मति से तथा अनील की सहमती से, जिसकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था, यह तय हुआ कि अनीता  अनील के यहाँ आएगी और भात एक जगह नोत देगी | परन्तु भात नौतने के एक दिन पहले घटनाक्रम ने अप्रत्याशित मोड़ ले लिया | अनील ने अपने यहाँ भात नुतवाने में असमर्थता व्यक्त कर दी |
मैं अपने यहाँ भात नुतावा नहीं सकता था क्योंकि उसमें लक्ष्मण शामिल नहीं होता | और अगर अनील तथा राकेश उसके यहाँ आते तो लक्ष्मण अपने को अकेला महसूस करता | अत: यह फैसला लिया गया कि अनीता  सबके यहाँ अलग अलग चली जाए परन्तु भात सब मिलकर एक साथ भरेंगे |  फैसला यह भी हुआ कि जिसकी जो मर्जी रकम लगाए बाकी पूर्ति चरण सिंह कर देगा | वादे के अनुसार मेरे सभी भतीजे भात देने के समय एक जगह एकत्रित हो गए परन्तु अनीता  के अपने भाई-भतीजों को टीके करने के समय अचानक माहौल ऐसा दिखने लगा जैसे मेरा परिवार अकेला रह गया था |   
मेरे बचपन के दिनों में ‘बाप बड़ा न भईया सबसे बड़ा रुपय्या’ गाना बहुत प्रचलित था | जब मैंने जवानी में कदम रखा तो ‘कसमें वादे प्यार वफ़ा सब वादे हैं वादों का क्या, कोई नहीं है अपना जगत में नाते हैं नातों का क्या’ भी बहुत प्रसिद्द रहा था |
जब मैंने अपनी गृहस्थी शुरू की थी तो अपने दूसरे भाईयों से मेरी आर्थिक स्थिति कुछ कमजोर थी फिर भी हर सम्मिलित  कामकाज के लिए मैं अपने भाईयों के बराबर योगदान देता था | बहुत बार भाईयों के बीच आपसी मन मुटाव भी दुसरों के सामने अलगाव दिखाने का सबब नहीं बना | परन्तु आज २४ जनवरी २०१५ को अचानक ऐसा क्या हो गया था कि मैं अपने को अकेला महसूस कर रहा था | मैंने सोचा उसके सभी भतीजे आर्थिक दृष्टि से समर्थ थे, उनपर किसी प्रकार का दबाव भी नहीं डाला गया था, उन्होंने वादे भी किए थे, रिस्ता-नाता भी था फिर उनका एकजुट होकर उसे अकेला छोडने का क्या कारण हो सकता है |
मनुष्य के अंदर विराजमान आग में जीवन के लक्ष्य को पाने की एक अदभुत ललक होती है | परन्तु यह मनुष्य की सोच पर निर्भर करता है कि वह अपना लक्ष्य पाने के लिए ज्ञान व अज्ञान, पाप व पुण्य, सृजन व विधवंस, सफलता व असफलता, जीत व हार, संतोष व असंतोष. प्रेम व बैर, यश व अपयश, जुल्म व दया, अहंकार व सदभावना, दान व लालच इत्यादी में से किसका दामन थामता है |
बहुत चिन्तन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पुरानी कहावत के अनुसार ‘दो तो चून के भी भारी पड़ते हैं’ | यहाँ भी ईर्षा और कंजूसी ने मिलकर यह खेल खेला था और देखते ही देखते भेड़ों जैसा झुंड बना लिया था | परन्तु जैसे एक माँ अपने प्रत्येक बच्चे के चालचलन और मिजाज को अच्छी तरह जानती है उसी प्रकार मैं भी अपने भतीजों की रग रग से वाकिफ था अत: जब उन्होंने भात भरने के समय मेरा बहिष्कार सा कर दिया था तो मुझे कोई दु७ख नहीं हुआ बल्कि यह साफ़ पता चल गया कि भविष्य में उसे ‘खामाँ-खां’ की उपाधी लेने से बचना चाहिए |
ईर्षा एक मानसिक विकार है | ईर्षालू व्यक्ति मौन रहकर भी हानि पहुँचा सकता है | ऐसा व्यक्ति सामने वाले के हर कदम पर बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करता है तथा ऐसा करने में वह अपने को हर्षित महसूस करता है |  एक सामूहिक खर्च के हिस्से को देने से बचने के लिए एक कंजूस व्यक्ति हर संभव कोशिश करता है | वह ईर्षालू और नासमझ व्यक्तियों के कंधे पर बन्दूक चलाकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करने लगता है तथा ऐसे लोग उसके झांसे में आकर भेड़ की तरह उसका अनुशरण करने लगते हैं |  
अभिमान और ईर्षा की तरह नासमझी, लालच और कंजूसी मनुष्य के आतंरिक सौंदर्य, प्रेम, करूणा, सदाचार, तथा परोपकार को घृणा के बादलों से ढक देता है | इसके वशीभूत मनुष्य मान मर्यादा, इंसानियत, समबन्ध, रिस्ते नाते, सब कुछ भूल कर उनको दरकिनार कर देता है | परन्तु वह यह नहीं झुठला सकता कि ‘जाको राखे साईंया मार सके न कोय, बाल न बांका कर सके चाहे जग बैरी होय’ | और फिर यह तो विधी का विधान है कि जीव इस संसार में खाली हाथ अकेला आता है, किस्मत के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है और निश्चित समय पर खाली हाथ ही अकेला पंच तत्वों में विलीन हो जाता है |  ईर्षा, द्वेष, मोह, माया, लालच, कंजूसी, अभिमान, जैसे विकार मन में घृणा, जलन और चिंता को पनपाकर मनुष्य को अपनी उम्र से पहले ही चिता पर लिटाने का काम करते हैं अत: अपना विवेक जागृत रख कर ऐसे विकारों से लिप्त व्यक्तियों से बचकर अकेला रहना ही हितकर है | 
मेरे साथ यह गनीमत थी कि मेरे दोनों पुत्र अपनी माता जी की तरह पुरानी भारतीय संस्कृति के पक्षधर थे अत: घर का वातावरण बहुत ही सौहार्द पूर्ण बना रहता था | अपने पुत्रों के पूरे सहयोग के कारण भी मुझे अपने भतीजों का असहयोग ज्यादा खला नहीं | फिर भी यह सोचकर मुझे दुःख था कि उन्हें समझाने वाला कोई नहीं था कि एक प्रतिष्ठित परिवार के सदस्यों के आपसी सम्बन्ध टूटने की दलक पूरा समाज महसूस कर लेता है | जो किसी के लिए भी सुखद नहीं होता |
इसी सोच के मद्देनजर मैंने, रिश्ते में मेरे दामाद लगने वालों के कुछ टीके अपने भतीजे राकेश से करवाए |       
 




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