जीवन के रंग मरे संग
(मेरी आत्म कथा – 37) दाग लगाने की कोशिश
मेरी की हिन्दी
कहानियों की एक किताब छपी थी | प्रकाशक ने छापने के बाद उस किताब की आठ कच्ची
प्रतिलिपियाँ भेजी थी | मुझे कहानियों की त्रुटियों को ठीक करवा कर वापिस भेजना था
| परन्तु होनी को कौन टाल सकता है | जिस दिन ये पुस्तक मेरे पास आई उसी दिन पवन की
ससुराल से उसका ससुर तथा साला मंतोष मिलने आ गए और एक किताब अपने साथ ले गए | मुझे
किसी प्रकार का कोई अंदेशा नहीं था |
मैं कुछ दिनों बाद
वैश्य सभा की वार्षिक सदस्यता की उगाही के लिए लक्ष्मण के
द्वार पर गया तो वह अपने लड़के के साथ सामने कुर्सी पर बैठा था | उसने नीची निगाहों
से अपने चाचा को बाहर खड़ा देख तो लिया परन्तु फिर
अपनी नजर हटा ली तथा ऐसा दर्शाने लगा जैसे उसने उसे देखा ही नहीं | उसका
व्यवहार मुझे बहुत अजीब लगा | खैर मैं अंदर चला गया और उसके पास जाकर खड़ा हो गया |
लक्ष्मण ने कोई प्रतिकिर्या नहीं दिखाई | मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि न तो
वह कुर्सी से उठा, न मुझे बैठने की कही तथा न ही अभिवादन किया | मैंने उसकी और
पर्ची बढ़ाई और उसने सौ रूपये निकाल कर मेरी और हाथ बढ़ा दिया | मई भी रूपये लेकर
चुपचाप वापिस आ गया |
बहुत मगज पच्ची के
बाद भी मैं यह न जान सका कि आखिर लक्ष्मण के अचानक ऐसे रूखेपन का कारण क्या था | जब मुझे किसी
प्रकार भी चैन न आया तो एक दो दिनों बाद मैं इस बारे में जानने के लिए लक्ष्मण के
घर घुस ही रहा था कि वह बाहर निकलता हुआ मिला | मैंने लक्ष्मण से बात करनी चाही तो वह यह कहता हुआ बाहर निकल
गया कि मुझे अभी फुर्सत नहीं है | एक दो दिन बाद मैंने उससे बात करने की एक बार फिर कोशिश की परन्तु
उसका वही रूखा जवाब था | लक्ष्मण द्वारा यह मेरी तौहीन की पराकाष्ठा थी | मेरा हमेशा
से यही ध्येय रहा है कि किसी को सुधरने के दो मौकों से ज्यादा नहीं देने चाहिएं |
इसी के मद्देनजर मैंने निश्चय कर लिया कि अब इसके बारे में लक्ष्मण से कोई
बात नहीं करेगा |
जब अपनों से किसी
बात पर अनबन हो जाती है तो चेहरा दिल की बात बता ही देता है | मेरे चेहरे पर प्रशन
वाचक लकीरों को भांप कर मेरी पत्नी संतोष ने पूछा, “क्या बात है क्या सोच रहे हो ?”
मैंने लक्ष्मण के
आचरण का सारा चिट्ठा खोल दिया | ये बातें मेरी पुत्र वधु चेतना भी सुन रही थी | चेतना और दीपिका
(लक्ष्मण की पत्नी) रोज सुबह पार्क में घुमने साथ साथ
जाया करती थी | चेतना ने मेरी किताब की
कहानियां पढ़ ली थी | उसमें एक कहानी ‘करे कोई भरे कोई’ में दीपिका का नाम आया था | चेतना को यह नहीं पता था कि इन कहानियों में अभी
बदलाव करना है | मनघडंत के साथ सत्य घटना के आधार पर होते हुए भी वह कहानी चेतना को बेचैन कर रही थी | फिर भी अपनी पक्की सहेली
तथा जिठानी जी के ऊपर विश्वास करके चेतना ने
वह किताब दीपिका को पढने के लिए दे दी |
और कहा, “देखो यह मेरे और आपके बीच से कहीं और नहीं जानी चाहिए | वैसे मैं पापा
जी से कह कर इसके पात्रों के नाम बदलवाने की कोशिश करूंगी |”
हमारी बात सुनकर चेतना सामने आकर कांपकर रोते हुए एक अपराधी की तरह
बोली, “पापा जी शायद यह मेरे कारण हुआ है |” फिर उसने दीपिका को किताब देने की बात कहकर कहा, “मुझे नहीं पता था कि दीपिका भाई साहब को इस बारे में बता देगी | और अब तो
उसने किताब वापिस देने से भी मना कर दी है |”
चेतना का मेरे बिना बताए दीपिका को किताब देने पर रोष भी आया परन्तु संयम रखते
हुए पूछा, “तुमने किताब कब दी
थी |”
“परसों |”
चेतना के परसों कहने से मैं चौंका
और मुहं से निकला, “परसों !
इसका मतलब लक्ष्मण की बेरूखी
की जड़ को सींचने वाला कोई और ही है |”
मेरे कहने से चेतना का चेहरा
ऐसे खिल गया जैसे वह अब अपने को अपराध बोध से मुक्त समझ रही थी | फिर भी अपने को
आश्वस्त करने के लिए उसने पूछा, “वो कैसे पापा जी ?”
“क्योंकि आज से पांच दिन पहले से ही लक्ष्मण ने
बे-रूखी दिखानी शुरू कर दी थी |”
हालाँकि मेरी लिखी कहानी में दीपिका
के नाम के अलावा मेरे भाई के घर के किसी भी और सदस्य का नाम नहीं था परन्तु
चोर की दाडी में तिनका वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए लक्ष्मण कहानी
में केवल दीपिका का नाम देखकर ही जलन एवम
ईर्षा की ज्वाला से दहक उठा | क्योंकि सत्य बहुत कड़वा होता है और उसे झेलने की
क्षमता हर किसी में नहीं होती |
मेरी किताब में एक
‘स्वर्ग’ शीर्षक की कहानी और थी | उसमें मैंने आजकल के गुरूओं की मन:स्थिति तथा
पुराने समय के अनपढ़ लोगों की आस्था एवं भावनाओं का किस प्रकार नाजायज फ़ायदा उठाया
जाता है, को उजागर करने का प्रयास किया था | उस कहानी के पात्रों के नाम वही
रखे गए थे जो उस समय प्रचलित थे जब मैंने वह कहानी लिखी थी | अत: इस कहानी में कई
ऐसे नाम भी थे जो मेरे मौहल्ले में रहने
वालों के थे | लक्ष्मण ने उनकी भलमान्सियत
एवं अविकसित मानसिक स्थिति का फ़ायदा उठाकर उनको मेरे खिलाफ भड़का दिया | उसने दलील
यह दी कि वास्तव में ही मैंने उनके आचरण पर धब्बा लगाने की कोशिश की है |
लक्ष्मण ने ऐसा जाल फैलाया कि जिनका मेरी कहानी से कोई
लेना देना नहीं था वे भी भेड़ों की तरह एक दूसरे का अनुशरण करके मेरे खिलाफ कतारबद्ध
खड़े हो गए | सभी ने मिलकर मेरे खिलाफ हाय-हाय तथा मुर्दाबाद के नारे बुलंद, पुतला
फूंकना, वैश्य सभा की सभा जिसका मैं मंत्री था, में जाकर हाय हाय करना इत्यादि
कार्यक्रमों का प्रोग्राम तैयार कर लिया |
किसी ने यह नहीं सोचा कि जैसे लक्ष्मण उन्हें बता रहा था वैसे ही कोई मेरे से तो जानले
कि वास्तविकता क्या है | पूरे गाँव में एक दूसरा खुद ही मेरे द्वारा अपने ऊपर कलंक
लगने की बात कर रहा था |
एक दिन मेरे पास मेरे एक जीजा श्री कृष्ण कुमार जी का फोन आया |
उन्होंने पूछा, “सुना है आपने एक
किताब लिखी है ?”
उनके मुख से अपनी किताब के बारे में जानकर मुझे आशचर्य हुआ क्योंकि मैंने अभी तक इसके बारे में किसी को कुछ नहीं
बताया था | अत: पूछा, “आपको कैसे पता चला ?”
“लक्ष्मण
का फोन आया था वही शिकायत कर रहा
था |”
“कैसी शिकायत ?”
“कह रहा था कि आपने दीपिका पर बहुत लांछन लगाए हैं |”
मैंने उल्टा प्रशन किया, “क्या आप जानते हैं
कि दीपिका कौन है ?”
“पहले तो नहीं जानता था कि कौन थी परन्तु
लक्ष्मण का फोन आने पर पता चल गया है |”
मैंने थोड़ी देर सोचा फिर
बोला, “ जीजा जी वैसे तो मैं अभी संशोधन करके ही
इस किताब को दोबारा छपवाता परन्तु जब आप तक सारी खबर पहुँच ही गई हैं तो संशोधन
करवाने का कोई तर्क नहीं रहा | जब भी मिलेंगे मैं आपको भी एक किताब दे दूंगा जिससे
आप अच्छी तरह पढ़ सकें |”
इसी तरह अन्य रिश्तेदारों के फोन आने पर ही मैंने उनको एक एक किताब मुहैया कराई फिर भी
इल्जाम मेरे ऊपर ही आया कि मैंने ही सभी रिश्तेदारों को किताब बांटकर, लक्ष्मण को
जलील करने की कोशिश की है | अगर लक्ष्मण बहकावे में आकर बात न फैलाता तो किताब का बाजार
में आने से पहले कहानी का प्रारूप कुछ और ही होता |
जैसे जब सलमान रसदी ने इस्लाम के खिलाफ कुछ लिख दिया था तो संसार के
अधिकतर मुस्लिम खलीफा उसके खिलाफ आवाज बुलंद करने से नहीं चूके थे | रसदी के खिलाफ
उन्होंने फतवा निकाल दिया था जिससे अपनी आत्म रक्षा के लिए रसदी को अपना वतन छोडकर
विदेश में शरण लेनी पड़ी थी | इसी प्रकार लक्ष्मण
एवं उसको उकसाने वालों ने गाँव में सभी के दिमाग में यह बैठा देने की कोशिश
की कि अब चरण सिंह भी डर एवं शर्म से गाँव में कभी प्रवेश नहीं
करेगा |
शायद वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि ‘सांच को आंच नहीं’ तथा एक फ़ौजी अपनी
पीठ कभी नहीं दिखाता | इसलिए जब मैं बेधड़क अपने घर के सामने जाकर खड़ा हो गया तो मुझे
महसूस हो गया कि कहानी पलट गई है |
मौहल्ले में किसी की हिम्मत नहीं हुई कि मेरे सामने आकर कुछ कहे या पूछे | साजिस
के तहत फैलाई गई गलत फहमी और ईर्षा को, सच्चाई बताकर मुझे ही उसका निवारण करना पड़ा
|
इस सारे प्रकरण की वास्तविकता यह थी कि जिस घर में मेरी किताब गई थी, दीपिका की बहन उसी घर में ब्याही थी | उसने किताब पढकर
बिना सोचे समझे दीपिका के कान भर दिए और पढ़ने
के लिए वह किताब भी भेज दी | लक्ष्मण ने किताब के उन पन्नों की, जिनपर मोहल्ले की
औरतों के मिलते जुलते नाम थे, फोटो कापी कराकर और नामों पर गोला लगाकर पूरे
मोहल्ले क्या गाँव में रह रहे अपने रिश्तेदारों में भी बंटवा दिया | कहते हैं न कि ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’ इसलिए लक्ष्मण ने
अपने शैतानी दिमाग की चाल से मौहल्ले के भोले भाले लोगों को फुसलाकर मेरे खिलाफ भड़काकर अपने साथ मिला लिया |
मनुष्य चाहे कितना भी भला क्यों न हो उससे ईर्षा रखने वाले बहुत मिल
ही जाते हैं | ऐसे कामों के लिए, जिनको एक दूसरे को भिडाने के अलावा कोई काम नहीं
होता, मौके की तलास में रहते हैं | यही नहीं वे ऐसे कामों पर पैसा खर्च करने से भी
पीछे नहीं हटते | कहना न होगा कि लक्ष्मण को ऐसे
दोस्तों की संगत मिली जो अपने बाप को भी अपने घर में घुसने नहीं देते थे फिर भला लक्ष्मण के दिल
में उसके चाचा की उसके लिए क्या इज्जत हो सकती थी | यही नहीं लक्ष्मण ने अपने नन्हें मासूम बच्चों, बहनों एवं बहनोईयों
के दिल में भी मेरे परिवार के खिलाफ नफ़रत का बीज बोना शुरू कर दिया और सभी का आपस
में बोलना बंद करवा दिया | परन्तु जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय बाल न बांका कर
सके चाहे जग बैरी होय | भगवान ने एक बार फिर मेरी मदद की और मैं मौहल्ले में,
अपनों की ईर्षा को छोड़कर, सबका चहेता बना
रहा | इसके बावजूद मेरे दिल से उन अपनों के लिए दुआएं ही निकलती हैं कि वे जहां
रहो, जैसे रहो, खुश रहो-आबाद रहो | परन्तु अपने भले के लिए हो सके तो ईर्षा का
त्याग कर दें |
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