खुद का बुना जाल
जब भी मोहन ,मस्तानी
से मिलता यही दोहराता, “मेरी पोस्टींग बैंगलूरू होने वाली है अत: तैयार रहना |”
मस्तानी भी उसे
आश्वाशन देती, “वह तैयार है |”
यह सिलसिला जून २०२२
तक चलता रहा | इस दौरान मस्तानी के रिश्ते में दो शादियाँ भी हुई परन्तु मोहन को
निमंत्रण मिलने के बावजूद वह उनमें सम्मिलित नहीं हुआ | उसने तो मस्तानी को यहाँ
तक कह दिया कि वह उसे बैगलूरू जाते समय लिवाने उसके पीहर नहीं आएगा अपितु उसे
देहली एअरपोर्ट पर खुद ही आना पडेगा |
पिछले लगभग ढाई साल
के मोहन के आचरण को परखते हुए मस्तानी ने शांत स्वभाव से मोहन की हर बात स्वीकार
करने की सोच ली थी परन्तु इसका यह कतई मतलब नहीं था कि उसने पूरी तरह समर्पण कर
दिया था | उसने भी अपना एक ध्येय निर्धारित कर लिया था “जैसे को तैसा” | इसके साथ
ही मस्तानी को विश्वाश था कि “जाको राखे साइयां, मार सके न कोय’। अर्थात
जिसके साथ ईश्वर होता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। संपूर्ण सृष्टि ईश्वर
निर्मित है। उन्होंने ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण किया है । विभिन्न ग्रह, पृथ्वी, समुद्र, पर्वत, नदियाँ, विभिन्न प्राणी, मनुष्य आदि सभी उन्हीं की रचना
है। जड़ – चेतन सभी उन्हीं की इच्छा का परिणाम हैं। अत: उनकी इच्छा के बगैर कोई भी
हमारा बाल बांका नहीं कर सकता । भारतीय पुराणों में समझाया गया हैं कि ईश्वर किसी
भी रूप में आकर साकार हो जाते हैं और सत्य मार्ग पर चलने वाले को संकट से बचाते
हैं।
आखिर वह दिन भी आ
गया जब उन्हें बैंगलूरू जाने कि सूचना मिल गई | मस्तानी का अधिकतर सामान उसकी ससुराल में ही था |
अत: मोहन ने कहा, “जो भी सामान उसे वहां से चाहिए वहां जाकर ले आए |”
मस्तानी ने अपना मन
शीतल रखा और अपने ध्येय के अनुसार कहा, “जब आपने अपनी ससुराल न जाने की कसम खा ली
है तो आप मुझे ऐसा करने को कैसे कह सकते हैं?”
मोहन झेंपते हुए,
“तो फिर आपका सामान वहां से कैसे आएगा ?”
“जो आप वहां से लाना
चाहो ले आना बाकी जो जरूरत होगी मैं बैंगलूरू से खरीद लूंगी |”
मोहन किंकर्तव्यमूढ़
मस्तानी को देखता रह गया | न मोहन अपनी ससुराल से विदा हुआ न मस्तानी अपनी ससुराल से विदा हुई और वे
बैंगलूरू पहुँच गए | वहां उन्होंने कुछ दिन गेस्ट हाऊस में रहकर मकान ढूँढने का
इरादा किया | मोहन ने बहुत से मकान देखे परन्तु उसे हर मकान में कुछ न कुछ कमी नजर
आती | मसलन महंगा है, छोटा है, कम्पनी से दूर है, जगह ठीक नहीं है इत्यादि | पांच
दिनों के अन्दर ही उसने अपने को हताश और निराश दिखाते हुए, “यहाँ रहना मुश्किल है,
चलो वापिस दिल्ली लौट चलते हैं |”
मस्तानी शांत
स्वाभाव, “आपकी कम्पनी कोइ खाला जी का घर है क्या ?”
“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि जब चाहे
आ जाओ और जब चाहे उठ कर चल दो?”
“ऐसा नहीं है | मेरा
अर्थ था कि यहाँ तो कोइ ढंग का मकान मिल नहीं रहा तो तुम देहली ही रह लेना जब तक मेरी
पोस्टींग वापिस देहली की न हो जाए |”
“मैं वहां रहकर क्या
करूंगी क्योंकि नौकरी तो छोड़ आई हूँ ?”
मस्तानी की बात
सुनकर मोहन के चेहरे पर मुस्कान के भाव स्पष्ट दिखाई देने लगे, “तो यहीं क्या
करोगी ?”
“अब आई हूँ तो कुछ
दिन तो रूक कर देख लूं | हो सकता है कहीं न कहीं जुगाड़ भीड़ ही जाए |”
मोहन आशंका से बिदक
कर,”तुम्हारा जुगाड़ से क्या मतलब है?”
“यही कि कोशिश करने
से मन पसंद मकान मिल ही जाएगा ?”
अभी बैंगलूरू 10 दिन
भी नहीं बीते थे कि मोहन ने फिर अलापना शुरू कर दिया, “यहाँ नहीं तो चलो पुणे ही
चलते हैं |”
“आप इतनी बेसब्री
क्यों दिखा रहे हो ?”
“होटल में ठहरना
हमें बहुत महँगा पड़ रहा है |”
मस्तानी ने सुझाया,
“ऐसी बात है तो कुछ दिन हम गेस्ट हॉउस में रह लेते हैं |”
मोहन को सुझाव पसंद
आया और दोनों गेस्ट हॉउस में रहने लगे | वहां रहते हुए अभी दो दिन ही बीते थे कि
मस्तानी ने एक लिफाफा मोहन की तरफ बढाया, “यह क्या है?” पूछा मोहन ने |
“खोलकर देख लो |”
मोहन ने लिफाफा
खोलकर पढ़ना शुरू किया तो उसकी नजरें उस लिखावट पर ही गडी रह गई | काफी देर तक वह
नज़रे उठाकर मस्तानी से नजरें न मिला सका | शायद उसकी आवाज उसके कंठ में अटक कर रह
गई थी अत: ठीक प्रकार से निकल नहीं रही थी | इसलिए थोड़ी देर बाद टूटे – फूटे
शब्दों में बोला, “यह ..क्या …है ?”
“आपने पढ़ तो लिया ?”
“परन्तु .....हम तो
वापिस जाने वाले हैं |”
मस्तानी निडरता से,
“हम नहीं, मैं अब कहीं जाने वाली नहीं हूँ |”
“मतलब ?”
“मतलब यही कि, जैसा
आपने पढ़ा, मेरी नौकरी इतने बड़े इंटरनेशनल स्कूल में लगी है तो अब दो वर्ष तक तो
मैं इसे छोडूँगी नहीं |”
“क्यों ?”
“क्योंकि किस्मत से
ही ऐसा स्कूल मिलता है जहां का अनुभव भविष्य में उन्नति के सारे रास्ते खोल देता
है | तथा ऐसा मौक़ा छोड़ने से मेरे कैरियर पर बहुत खराब असर पडेगा |”
मोहन कांपती आवाज
में, “अगर मेरी बदली और कहीं हो जाती है तब तुम क्या करोगी?”
मस्तानी ने स्पष्ट
शब्दों में कहा, “मैं अब दो साल तक यहाँ से कहीं नहीं जाऊंगी ?”
“क्या अकेली रह लोगी
?”
“बिलकुल |”
मोहन ने सपने में भी ऐसी उम्मीद नहीं की थी
कि मस्तानी इतना स्पष्ट बोल देगी | शायद वह अपने खुद के बिछाए जाल में फंस चुका था
| वह काफी देर तक चुपचाप खडा मस्तानी को देखता रह गया | और जब कोइ जवाब न बन पडा
तो अपने माथे पर उभरती पसीने की बूंदों को पौंछता हुआ एक तरफ जाकर निढाल सा कुर्सी
पर बैठ गया |
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