Thursday, December 7, 2017

जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा -35) संगत और संस्कार का असर



जीवन के रंग मेरे संग (मेरी आत्म कथा -35) संगत और संस्कार का असर
कोई मनुष्य चाहे कितना भी निष्ठावान, सहनशील, अहिंसावादी, मृदुल भाषी एवं परोपकारी क्यों न हो सांप की तरह प्रवृति रखने वाले उसकी खिलाफत तथा ईर्षा करने वाले बहुत मिल जाते हैं |
मनुष्य के जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जब लोग बेवजह ईर्षावश उसे नुकसान पहुंचाना चाहते हैं | उसके खिलाफ साजिस रचकर उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने में नहीं चूकते | एक बार चरण सिंह के  खुशहाल जीवन में भी उसके एक अपने ने उसके खिलाफ ऐसा ही माहौल बना देने का प्रयास किया था |
एक दिन चरण सिंह अपने मकान, जो गुडगाँवा में है, बैठा था कि मैडम सुमन का फोन आया | वैसे तो अक्सर मकान के बारे में उनका फोन आता रहता था परन्तु आज उनकी आवाज कुछ घबराई हुई सी महसूस हो रही थी | उनके लंबे सांस लेने की आवाज उसे फोन पर साफ़ सुनाई दे रही थी | उनकी आदत थी कि चरण सिंह की और से हैलो कहते ही वह, भाई साहब नमस्ते कहना कभी नहीं भूलती थी परन्तु आज सीधे ही बोली, भाई साहब एक बुरी खबर है |
चरण सिंह नें पूछा, क्यों क्या हो गया ?
सुमन की घबराहट शायद बढ़ती जा रही थी इसलिए उसकी जबान लड़खड़ा रही थी | चरण सिंह ने प्रशन किया, ऐसा क्या हो गया | क्या हम वहाँ आएं ?
नहीं आपको आने की जरूरत नहीं है |
फिर क्या बात है ?
दरअसल मेरे पुराने मकान मालिक के लड़के लाला राम का फोन आया था |
तो ?
वह कह रहा था कि मौहल्ले की सारी औरतें हमारे यहाँ इकट्ठा हो रही हैं | आप भी आ जाओ |
तो ?
उसने कहा कि आज वे प्रवीण की पिटाई करेंगे |
इस प्रत्याषित बात ने चरण सिंह को अंदर तक झकझोर दिया | उसने उतावलेपन से पूछा, क्यों, उसने ऐसा क्या कर दिया ?
कह रहा था कि आपने कोई किताब लिखी है जिसमें मौहल्ले की औरतों के कई आपत्ति जनक नाम हैं, उसके कारण |
अच्छा ठीक है, कहकर चरण सिंह ने फोन काट दिया तथा अपने लड़के प्रवीण  को फोन मिलाया |
प्रवीण  ने बताया कि तीन चार दिनों से हमारे खिलाफ यहाँ कोई षडयंत्र रचा जा रहा है | कभी सत्य   प्रकाश के यहाँ, कभी लक्ष्मण  के यहाँ तो कभी जय सिहं के यहाँ मौहल्ले की औरतों एवं आदमियों की बैठक हो रही हैं | अधिकतर औरतों ने बहिष्कार सा अपना कर मेरी दुकान पर आना छोड़ दिया है | आप सुबह एक बार यहाँ आ जाना |
सुमन के बताने तथा प्रवीण  के कहने से चरण सिंह ने अंदाजा लगाया कि मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर बन गया लगता है | परन्तु अंदाजा न लगा पाया कि इसका मूल कारण क्या हो सकता है | फिर यही सोच कि अफवाह ईर्षा या बुराई को पनपने से पहले ही दबा दिया जाए तो बेहतर होता है, चरण सिंह शाम को ही प्रवीण के पास जाने के लिए निकल पड़ा |
चरण सिंह गाँव के बाहर ही पहुंचा था कि एक व्यक्ति ने कहा, सेठ जी अंदर ज़रा संभल कर जाना |
क्यों भाई खून के जुर्म में मुझे पुलिस पकने के लिए बैठी है क्या ?
नहीं ऐसी तो बात नहीं है, सेठ जी |
फिर कैसी बात है ?
घर जाकर देख लेना, कहकर वह आगे बढ़ गया और मैंने अपनी राह पकड़ी |
चरण सिंह चार कदम ही चला था कि दूसरे ने कहा, सेठ जी आपके घर के सामने वाली औरत कुछ अनाप सनाप बक रही थी |
मुझे इससे क्या, बोल रही होगी किसी के बारे में”, कहता हुआ चरण सिंह चलता गया |
तीसरे ने बताया, सेठ जी आपका नाम लेकर उलटा सीधा इल्जाम लगा रही थी |
चरण सिंह ने समझाया, देखो इस मौहल्ले में मेरे नाम के और भी तो व्यक्ति रहते हैं | मैं क्यों मानूं कि वह मुझे ही कह रही थी |
आगे चलकर चौथे ने कहा, लाला जी सामने वाली जोर जोर से चिल्ला रही थी कि बनिए के को मैं  बताऊँगी कि दूसरे का नाम कैसे उछालते हैं |
भाई साहब बनियों के तो साथ साथ कई मकान हैं फिर भला मैं कैसे मान लूं कि वह मुझे ही कोस रही है | और बेकार में झगड़ा मोल लूं | यह तो वही बात हुई कि आ बैल मुझे मार |
ऐसी कई आपत्ति जनक बातें सुनता सुनता चरण सिंह अपने घर पहुँच गया | वैसे उसे भनक तो थी कि जैसा लोगों के मुहं से सुन रहा था वैसा ही कुछ हो रहा था परन्तु फिर भी निर्भीकता दिखाते हुए पहले अपने लड़के की ज़ुबानी सारा किस्सा सुनकर आशवस्त होना चाहता था | उसे प्रवीण  ने बताया कि वास्तव में ही ऐसा हो रहा है जैसा चरण सिंह ने रास्ते में लोगों के मुख से सुना था | उसने यह भी बताया कि दो दिनों से वह सामने औरतों का जमघट लगा कर बैठ जाती है तथा मेरे खिलाफ भड़का रही है | उसकी वजह से मौहल्ले की औरतों ने मेरी दुकान से सामान खरीदने का एक प्रकार से बहिष्कार सा कर दिया है |
प्रवीण  से मौहल्ले की पूरी जानकारी लेकर मौहल्ले के आचरण का जायजा लेने के लिए चरण सिंह उसकी  दुकान के बाहर चबूतरे पर खड़ा हो गया | चरण सिंह सोचने लगा कि बनियों और पंडितों के बीच तो हमेशा से ही चोली-दामन जैसा साथ रहा है | पुराने जमाने में पंडितों के घर का खर्चा तो अधिकतर अपने जजमान बनियों की दान दक्षिणा से ही चलता था | परन्तु अब नए परिवेश में पंडित रहे ही कहाँ हैं | बनियों ने तो अपना व्यापार का काम धंधा बदला नहीं तथा न ही अपनी दान दक्षिणा देने की आदत परन्तु आज पंडित बहुत बदल गए हैं | अब उन्होंने धर्म कर्म के काम छोकर नौकरी या फिर और काम अपना लिए हैं | उनके मतानुसार विद्या उपार्जन के बाद अब वे दूसरे के रहमो कर्म पर जीने में विश्वास नहीं रखते |
मौहल्ले में एक विधवा पंडिताईन रहती थी | भगवान ने चरण सिंह के माध्यम से उस पर भी बहुत एहसान किए थे | उसके आदमी के रहते जब उसके परिवार पर फाके की नौबत आ गई थी तो उसने ही उनके घर का खर्चा उठाकर उनको सहारा दिया था | पंडित एक पक्का सरकारी मुलाजिम था | अगर वह सीधे राह चलता तो अपनी पारिवारिक नैया को आराम से खींच ले जाता | वह एक रंगीन मिजाज का व्यक्ति था | उसने अपनी एक अलग टोली बनाकर एक ड्रामैटिक क्लब की नीवं रख दी | इसमें चरण सिंह का भाई औम प्रकाश भी एक मुख्य कार्यकर्ता था |
पंडित की ड्रामेटिक क्लब ने जगहों जगहों पर अपना मंचन शुरू कर दिया | लोगों को रिझाने के लिए बाहर से लकियों का भी इंतजाम किया गया और टिकट भी लगाए गए | परन्तु खर्चों को देखते हुए आमदनी बहुत कम हुई | औम प्रकाश ने तो अपनी जात के कथानुसार अपने कदम फूंक फूंक कर रखे उसी प्रकार पंडित ने, जो अपने को बहुत बड़ा विद्वान समझता है इसी मत को सिर पर चढ़ाकर, सोचा कि वह तो एक बहुत बड़े ड्रामैटिक क्लब का मालिक बन गया है अत: सरकारी नौकरी उसे शोभा नहीं देती | पंडित ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया था |
आर्थिक अभाव के कारण ड्रामैटिक क्लब अधिक दिन टिक न सका | पंडित के साथ भी वही कहावत हुई कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का | अर्थात नौकरी के त्याग पत्र तथा ड्रामैटिक क्लब के बंद हो जाने से धीरे धीरे वह कंगाल हो गया और इसी झटके के कारण वह बीमार होकर चल बसा | यही कारण रहा था कि इंसानियत के नाते चरण सिंह नें बिना किसी लालच के पंडिताईन के छोटे छोटे बच्चों का कुछ दिनों के लिए भरण पोषण किया था | औम प्रकाश ने जो कभी उसकी रोटी काटे का साथी था  इस मामले में न तो अपनी अधिक पूंजी लगाई थी और न ही अपनी नौकरी छोने की बेवकूफी की थी इसलिए अपने सारे नुकसान को झेल गया |    
पंडिताईन के बारे में सोचने के बाद चरण सिंह का ध्यान उसके घर के सामने रहने वाले तंवर परिवार की और गया | इस समय इसका मुखिया सत्य प्रकाश था तथा उसकी पत्नी राज थी | सत्य प्रकाश बहुत ही शरीफ इंसान था | उसकी उंची बोल शायद ही किसी ने कभी सूनी होगी | सत्य   प्रकाश के माता पिता बहुत ही मिलनसार प्रवृति के व्यक्ति थे | इसी वजह से हमारे परिवार के साथ उनके घर जैसे रिश्ते बनें हुए थे | मौहल्ले में सत्य   प्रकाश की माँ दादी के खिताब से जानी जाती थी | हांलाकि दादी की पुत्र वधु देखने में अच्छी खासी सुन्दर, व्यवहार कुशल, नरम दिल एवं आदर सत्कार करने में निपुण थी परन्तु थोड़ा उकसाने पर उसका मिजाज गर्म हो जाता था और‌ इस स्थिति में  वह बिना वास्तविक कारण जाने किसी से भी उलझने को तैयार हो जाती थी | इसी बहाव में वह आस पडौस के सभी परिवारों के उस पर किए गुण एहसान भूलकर एक ही डंडे से हांकना शुरू कर देती थी | सारे मौहल्ले की औरतें, भेड़ों के झुण्ड में अपनी मुखिया भे की तरह, उसका अनुशरण करने लगती थी |
चरण सिंह भी सत्य   प्रकाश की तरह शांत स्वभाव का व्यक्ति था | अधिकतर अपने काम से काम रखता था  | मौहल्ले में किसी की किसी प्रकार की किसी से कोई नुक्ताचीनी नहीं करता था | परन्तु मौक़ा मिलने पर दूसरों के दुःख दर्द में उनकी भरपूर सहायता करने से पीछे नहीं हटता | इसके साथ ‘नेकी कर कुँए में डाल’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए की हुई नेकी का गुणगान भी नहीं करता | इसका यह कतई मतलब नहीं कि चरण सिंह डरपोक, दब्बू, या किसी के दबेल में रहकर अपना जीवन निर्वाह करता था | इससे पहले कि पानी सिर से ऊपर जाने लगे चरण सिंह उसका इंतजाम भी कर देने की क्षमता रखता था |
पता चला कि पंडित नौनन्द की कुछ पुत्र वधूवें भी चरण सिंह के खिलाफ आवाज उठा रही थी | उसकी  समझ नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है ? सभी, पंडित, रये, कुम्हार, खाती, अपने भाई बंधू, यहाँ तक की उनके किराएदारों की औरतों का एक साथ उसके खिलाफ इस अभियान को छेने की जड़ से चरण सिंह अनजान था |
चरण सिंह अपनी दुकान के चबूतरे पर लगभग आधा घंटा खड़ा रहा | परन्तु इस दौरान न तो उसके  खिलाफ किसी की जुबान खुली तथा न ही कोई सामने आया | वैसे उसने भांप लिया था कि कोई अपने मकान की खिडकी से तो कोई दूर से टेढी एवं चोर निगाहों से मुझे खड़ा देख रहा था | जब थोड़ा सा अन्धेरा घिर आया तथा उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठी तो उसनें खुद ही सारे मामले की तहकीकात करने का मन बना लिया |
चरण सिंह नें अपने लड़के प्रवीण  को सत्य   प्रकाश के घर से राज को, जो दो दिनों से सुबह से शाम तक अपने दरवाजे पर मौहल्ले की औरतों का जमघट लगाकर उसके खिलाफ अनाप सनाप बोलते न थकी थी, बुलाने के लिए भेजा | प्रवीण  ने आकर बताया कि वह रात के नौ बजे के बाद, जब उसका पति सत्य   प्रकाश नौकरी से वापिस आ जाएगा तो उसके साथ आएगी |  
चरण सिंह नें रात के दस बजे तक उनके आने का इंतज़ार किया और जब वे नहीं आए तो चरण सिंह खुद ही उनके घर चला गया | अपनी आशाओं के अनुकूल, दादी एवं मौहल्ले की मान मर्यादा रखते हुए, राज ने उसे  पूर्ण सम्मान दिया | चरण सिंह को सोफे पर बैठाकर जब वह उसके चरण छूने को झुकी तो, दूसरों के मुख से सुनकर अपने मन में उसके प्रति चरण सिंह के मन में जो गलत विचार उत्पन्न हो गए थे उनसे उसे  अपने पर बहुत ग्लानी महसूस हुई | राज के इस कृत्य ने जाहिर कर दिया था कि उसके मन में चरण सिंह के प्रति अभी तक कोई दुर्भावना नहीं है तथा वह पूरा किस्सा जानकर ही आगे कुछ कदम उठाना चाहती है | राज ने घूंघट के पीछे से प्रशन किया, जेठ जी आपने यह कैसे लिख दिया ?
मैनें, मैनें क्या लिख दिया ?, मैनें उल्टा प्रशन किया |
आपने अपनी कहानी में मेरा नाम लिख दिया |
आपका नाम तो राज कुवंर है ?
नहीं अब राज रानी कहते हैं |
मैनें अगला प्रशन किया,  “आप किसकी पत्नी हैं ?
सत्य   प्रकाश की |
जो मैनें कहानी लिखी है उसमें आपके पति का नाम क्या लिखा है ?
पता नहीं |
तो आपने यह कैसे मान लिया कि मेरी कहानी में आपका ही नाम है ?
परन्तु राज रानी तो मेरा ही नाम है |  
क्यों क्या इस संसार में राज रानी कोई और नहीं हो सकती ?
राज सकपका कर, हो सकती हैं |
अच्छा यह बताओ, क्या आप सत्य   प्रकाश की बजाय धर्म प्रकाश की पत्नी कहलाना पसंद करोगी ?
राज थोड़ा विचलित हुई और पूछा, आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ?
उसके यह प्रशन करने से ही चरण सिंह समझ गया था कि उसने पूरी कहानी नहीं पढ़ी है और केवल अपने नाम के चक्कर में  दूसरे के बहकावे में आकर बिना कुछ दरियाफ्त किए उसने मेरे खिलाफ झंडा बुलंद करने का मन बना लिया था | राज के प्रशन के उत्तर में चरण सिंह नें उसे बताया, क्योंकि मेरी लिखी कहानी में राज रानी का पति धर्म प्रकाश संबोधित किया गया है |
चरण सिंह की सुनकर अचानक राज एवं उसके पति सत्य   प्रकाश के मुख से निकला, क्या ! इसका मतलब हमें तो बहकाया गया है |       
इतने में राज की जेठानी बोली, तो फिर आपकी कहानी में मेरा नाम अंगूरी कहाँ से आ गया ?
जब चरण सिंह नें उसे बताया कि मेरी बहन का नाम भी अंगूरी है तो वह चुपचाप एक तरफ होकर ऐसे बैठ गई जैसे उसके ऊपर सैकड़ों घड़े पानी पड़ गया हो | आखिर में चरण सिंह नें उन्हें समझाया, आप इतने समझदार होते हुए भी जाने क्यों नाम के चक्कर में फंस गए | इतना हो हल्ला मचाने से पहले मेरे से एक बार पूछ तो लिया होता कि यह सब क्या है | और फिर इस दुनिया में जाने इस नाम के कितने ही व्यक्ति होंगे | आपका नाम कोइ रजिस्टर्ड तो है नहीं फिर आपने यह कैसे मान लिया कि मैनें आपके बारे में ही लिखा है | इसको महज एक  कहानी के रूप  में पढो तब आपको पता चलेगा कि मेरा मकसद क्या है |"
सभी एक साथ बोले, "हमें तो हमारे नाम पर गोला मारकर दिखाया गया था की यह हमारे बारे में लिखा गया है |"
"और आपने आँख बंद करके मान लिया कि ऐसा ही है जबकि लिखा हुआ आपके सामने था |"
"हमसे यही गलती हो गयी | हमें माफ़ कर दो |" उनको मेरी बात समझ गयी थी तभी तो उनके चेहरों पर संतुष्टी झलकने लगी थी
जब से मेरे पिता जी का स्वर्गवास हुआ था तभी से कनागदों में चरण सिंह अपने खानदानी पंडित को ही खाने पर निमंत्र्ण देता है | वे भी उसके अलावा किसी और के यहाँ खाने पर नहीं जाते  | अत: वे उसके लिए पूजनीय हैं | चरण सिंह को समाचार मिला था कि उनकी मंझली बहू भी उसकी कहानी में छपे नाम 'ताई सरती'  को लेकर कुछ खफा थी | इसलिए उनकी नाराजगी जानने के लिए चरण सिंह उनके घर गया | उसने उन्हें बताया  कि वह सरस्वती की जगह सरती  छप जाने के कारण है | दूसरे राज और सरती ने तो एक दूसरे को देखा भी नहीं है क्योंकि सरती तो राज के यहाँ आने से पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थी  फिर आप ने कैसे मान लिया कि यह वही ताई सरती है |  वैसे  पंडित की बहु द्वारा उसकी कहानी को उपन्यास संबोधित करने से ही उसने अंदाजा लगा लिया था कि वे साहित्य के बारे में कितना जानती हैं | अब  इतना तो निशचित हो गया था कि किसी ने मौहल्ले वालों को उसके खिलाफ बरगलाया है और वे सभी बहकावे में आकर ईर्षा करने लगे हैं
पंडित जी के घर से वापिस आते हुए रास्ते में विधवा पंडीताईन से टकराव हो गया | चरण सिंह को देखते ही उसने हाथ जोड़कर कहा, "चाचा नमस्ते |"
नमस्ते का जवाब देकर चरण सिंह नें उससे पूछा, "सुना है आप मेरे खिलाफ कुछ बोल रही थी ?"
वह छूटते ही बोली, "ना चाचा भगवान जानता है मैंने तो कुछ नहीं कहा |"
"परन्तु मैंने सुना है कि आप कह रही थी कि मेरे खिलाफ ढोल बजवाओगी और उन्हें पैसे भी आप चुकता करोगी |"
वह इस बात से साफ़ मुकर गयी और बोली, "ना चाचा मैं भला ऐसा क्यों करूंगी | आपके तो हम पर बहुत एहसान हैं |'
चरण सिंह को अपने मुहं से पंडिताईन को याद दिलाने की जरूरत नहीं पडी | जबकि उसने कबूल ही लिया था तो चरण सिंह ने भी आगे कुछ कहना उचित समझ अपने घर की राह पकड़ी |    
नाई जात को तो सदा से ही माना गया है कि वे रिश्तों में दरार डालने में बहुत माहिर होते है | अपने फायदे के लिए वे एक के खिलाफ दूसरे के कान भरने से कभी चूकते नहीं |  एक नाईन लक्ष्मण  के यहाँ काम करती थी | पता चला था कि मेरे खिलाफ भड़की ज्वाला में वह भी आग में घी का काम कर रही थी | चरण सिंह नें अपने भतीजे राकेश के साथ उसके घर जाकर जब पूछा तो वह भी पंडिताईन की तरह मुकर गयी | चरण सिंह ने भी आगे अपनी कोई प्रतिक्रिया दिखाई और वापिस घर चल दिया
एक दिन चौराहे से ही दिखाई दिया कि चरण सिंह के घर के सामने काफी भीड़ इकट्ठी थी | उसके वहां पहुंचते ही सामने वाली राज बोली, "जेठ जी मैं कह रही हूँ कि मेरा इस किस्से से कोई लेना देना नहीं है फिर भी जाने क्यों मौहल्ले वाले मुझे भड़काकर आपके खिलाफ ड़ा करना चाहते हैं |"
चरण सिंह के एक बार कहने से ही, "आप आराम से जाकर अपने घर बैठो", और वह अपने बच्चों को लेकर घर के अन्दर चली गयी
इसी प्रकार पंडित जी का परिवार भी अपने घर की तरफ मुड़ गया | उन्हें चुपचाप जाता देख तथा अपने मन की मुराद पूरी होते जान लक्ष्मण  अचानक भड़क उठा | वह आगे बढकर चरण सिंह के सामने ड़ा हो गया और गुर्राकर बोला, "तो तू बता ये दीपिका कौन है ?"
चरण सिंह नें संयम बरता और जवाब दिया, "मैं तूझे बताना जरूरी नहीं समझता |"
चरण सिंह नें देखा लक्ष्मण  की सारी मांशपेशियां तनी हुई थी | एक झटके से अपनी उंगली का इशारा मेरी और करके वह चिल्लाया, "तू बताएगा भी कैसे | मैं जानता हूँ कि तूने किसके बारे में लिखा है |"
चरण सिंह ने अबकी बार भी शांत स्वभाव कहा, "जब तू जानता ही है तो मेरे से पूछता ही क्यों है ?"
एक भतीजा राकेश जो दूसरे भतीजे लक्ष्मण  का चाचा के प्रति सभी के सामने नीचता का व्यवहार देखकर चुप रह सका और आँखे तरेर कर बोला , "अरे लक्ष्मण  कुछ तो शर्म कर |"
राकेश का इतना ही कहना था कि जय सिहं लक्ष्मण  के सामने आकर ऐसे ड़ा हो गया जैसे उस पर वार होने से  वह ढाल बनकर लक्ष्मण  को बचा लेगा | परन्तु उसके इस कृत्य से यह उजागर हो गया था कि फिसाद की जड़ कौन है और उसे कौन सींचकर ईर्षा फैला रहा है | इतने में, बनिए परिवार की सारी शर्म हया उतार कर, दीपिका, लक्ष्मण  की पत्नी  गली में आई और चरण सिंह की तरफ इशारा करके अपने पति के स्वर में ईर्षावश जोर से बोली, "शर्म काहे की | इन्होंने ही तो हमें पिटवाया था |”    
मेरा मानना है कि दीपिका अपने सास-ससुर की संगत में रहकर हमारी बुराईयाँ सुनकर भर चुकी थी तथा अब भारतीय संस्कृति के अनुसार अपने पति, जो पला बढ़ा ही ईर्षालू वातावरण में था, का साथ देना उसकी मजबूरी थी |


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