Thursday, November 23, 2023

उपन्यास - भगवती (18)

 

प्रभात  और चाँदनी का गृहस्थ जीवन सुखमय चल रहा था | अचानक एक दिन जब वे किसी काम का निपटारा करके वापिस आए तो प्रभात बहुत चिंताजनक था | उसने आकर सांस भी नहीं लिया और चाँदनी की तरफ इशारा करके बोला, पापा जी इसे समझा दो |

क्या समझा दूं, हुआ क्या है ?

यह चलते स्कूटर से कूद गई |

क्या ! चलते स्कूटर से कूद गई ?संतोष ने आश्चर्य से पूछा |

कारण जानने से पहले राकेश ने पूछा, कहीं चोट तो नहीं आई ?

नहीं पापा जी भगवान का शुक्र है कि चोट तो नहीं लगी |

क्यों कूद पड़ी थी चलते स्कूटर से ?

उसी से पूछ लो |

संतोष ने चाँदनी से पूछा, ऐसा क्या हो गया था जो तूझे चलते स्कूटर से कूदना पड़ा ?

चाँदनी ने डरते हुए बताया, मुझे  इनके तेज स्कूटर चलाने से डर लग रहा था |

तो |

मैनें इनसे कहा भी कि धीरे चलाएं परन्तु ये माने ही नहीं |

इसका मतलब तुम्हारी कोई बात न माने तो तुम ऐसा रास्ता अखतियार करोगी ?

तुम्हें चोट फेट लग जाती तो क्या होता ?

राकेश ने बात को समाप्त करने के लिए समझाया, चाँदनी तुम किसी कारण स्कूटर रूकवा कर उससे उतर भी तो सकती थी ?

पापा जी मुझ से गल्ती हो गई | आईन्दा से ऐसा नहीं होगा |

ठीक है जाओ |

चाँदनी तो चली गई परन्तु राकेश विचारों में खो गया कि क्या चाँदनी को इतनी भी समझ नहीं है कि ऐसी छोटी मोटी स्थितियों से कैसे निपटा जाता है | इसकी जीवन नैया कैसे पार होगी | क्या यह गवारूपन कभी छोड़ पाएगी ? समय व्यतीत होने लगा | यदा कदा चाँदनी ऐसे किस्से कर ही बैठती थी जिससे उसकी नासमझी सामने आ ही जाती थी |

१९९७ की बात है | राकेश के साढू की लड़की डोली की शादी थी | हम सभी उसमे सम्मिलित होने आगरा गए थे | कुंती जो राकेश की पत्नी की छोटी बहन हैं उसकी हम से अनबन चल रही थी | जब प्रभात की शादी का कार्ड देने राकेश गया था तो कुंती ने अपने घर का दरवाजा भी नहीं खोला था | राकेश को कार्ड उसके दरवाजे के कुंदे में फसांकर आना पड़ा था | राकेश को समझ नहीं आया था कि वह किस बात पर नाराज थी |

डोली की शादी सुचारू रूप से संपन्न हो गई | कुंती प्रभात की शादी में नहीं आई थी इसलिए उसने चाँदनी को पहले देखा भी नहीं था | हम विदा लेकर चलने लगे तो चाँदनी ने अपनी सास को बताया कि कुंती मौसी उसे १०१ रूपया मुहं दिखाई दे गई हैं | कुंती जा चुकी थी | संतोष ने चाँदनी से थोड़ी ऊंची आवाज में कहा, तू अब बता रही है जब वह चली गई | वैसे तूने मुझे बिना बताए रूपये ले कैसे लिए ?

संतोष के इतना कहते ही चाँदनी ने रोना शुरू कर दिया | आसपास खड़े रिश्तेदार तथा वहाँ खड़े लोग चाँदनी के रोने का अपने अलग अलग ढंग से बात का बतंगड बनाने लगे | संतोष के पास चाँदनी का रोना देखने का समय नहीं था | वह बाहर की तरफ झपटी परन्तु कुंती कहीं दिखाई न दी | अलबत्ता राघव जी मिल गए | संतोष ने चाँदनी की तरफ से १०१ रूपये कुंती के पैर पड़ाई के नाम के उन्हें दे दिए |

घर आकर संतोष ने चाँदनी को आड़े हाथों लेने के लिहाज से पूछा, तुम आगरा में मेरे कहने पर क्यों रोई थी ?

चाँदनी आखों में आंसू लाकर, मैं क्या करूँ मम्मी जी मुझे अगर कोई कुछ कहता है तो रोना आ जाता है |

इसका मतलब तुम्हें तुम्हारी किसी गल्ती के लिए समझाया भी नहीं जा सकता ?

नहीं मम्मी जी ऐसी बात नहीं है |

तो फिर कैसी बात है ? तुम जब चलते स्कूटर से कूद पड़ी थी और तेरे ससूर ने तुझे समझाते हुए कहा था कि स्कूटर से उतरने के और भी कई तरीके हो सकते थे | तब भी उनकी बात न समझ कर तूने टसूए बहाने शुरू कर दिए थे |

चाँदनी कुछ जवाब न दे पाई परन्तु राकेश  यही सोचकर कि अश्रु बहाना औरत का एक बहुत सफल हथियार होता है जिन्हें देखकर अच्छे से अच्छा योद्धा भी धराशाही हो जाता है, बात यहीं खत्म करने का इशारा कर दिया | धीरे धीरे चाँदनी की नासमझी समाप्त होती चली गई और वह एक कुशल सर्व गुण सम्पन्न गृहणी बन गई |   

 

 

Sunday, November 19, 2023

उपन्यास - भगवती (17)

 

नजफगढ में भगवती का नाम सुनकर राकेश को यह वहाँ से जुडा एक जाना पहचाना सा नाम लगा | हालाँकि पानी चाँदनी ने लाकर दिया  परन्तु इस पर राकेश ने ज्यादा सोच विचार नहीं किया और अपने घर आ गया |  

इस घटना को लगभग दो महीने बीते होंगे कि राकेश की बहन पार्वती का राकेश के पास फोन आया, भाई एक बात कहनी थी |

हाँ बहन जी ! ऐसी क्या बात है जो पूछकर कहना चाहती हो ?

मुझे दीपक की बहू ने बताया है कि प्रभात उसके भाई को अपशब्द कह कर बोल रहा था |

परन्तु दीपक की बहू को कैसे पता चला ?

जय भगवान ने उसे फोन पर बताया था |

बहन जी प्रभात ने ऐसा कब और क्यों कहा ?

वो गौतम  और उसके यहाँ चोरी हुई थी और पैसे मिल गए थे तब |

बहन जी उस समय तो मैं भी वहाँ था |

पता नहीं वह ऐसा ही कह रही है |

बहन जी जब आपने बात छेड़ी ही है तो पूरी कहानी सुन लो कि वहाँ कैसे, कब, क्यों और क्या हुआ था, मैं  जब नजफगढ पहुंचा तो पता चला कि गौतम  की दुकान की तिजोरी से ग्यारह लाख की चोरी हो गई थी | उसी रात को जय भगवान की दुकान से भी चोरी हो गई थी | शाम के तीन बजे नोटों से भरा थैला मिल गया था | जो नोटों की गड्डियाँ मिली थी उन सभी पर गौतम  के दस्तखत थे | ऐसा देखते हुए बाजार वालों का विचार था कि सारा पैसा गौतम  को मिलना चाहिए | परन्तु जय भगवान की लिखवाई गई रिपोर्ट, कि उसके ढाई लाख रूपये चोरी हुए हैं, के अनुसार वह भी उन रूपयों का भागीदार था | यही सोच कर मैनें तय कराया कि:-

जय भगवान को डेढ़ लाख रूपया दिया जाए |

पुलिस वालों के जलपान पर जो भी खर्चा करना होगा वह गौतम  के माध्यम से होगा तथा दोनों को आधा आधा खर्चा वहन करना होगा |    

जय भगवान ने अपनी दुकान की इंश्योरेंस करा रखी थी इस लिए यह तय हुआ कि जब भी उसे इन्शोरेंश का एक लाख रूपया मिलेगा तो वह आधा (५०,०००/-) गौतम  को देगा |

इस समझौते के अनुसार जय भगवान को डेढ़ लाख रूपया मिल गया परन्तु बाद में वह इन्शोरेंश के पचास हजार रूपये देने से मुकर गया | उसने गौतम  से ढाई हजार यह कहकर भी ले लिए कि उसने पुलिस वालों पर पांच हजार रूपये खर्च किए हैं | इतना ही नहीं उसने चौदह सौ रूपये और झटक लिए क्योंकि उसके अनुसार उसे जो नोटों की गड्डियाँ मिली थी उनमें से एक गड्डी में केवल बहात्तर नोट ही थे |

इस सारे प्रकरण में मैं शामिल था तथा मेरे सामने प्रभात अपना मुहं कैसे खोल सकता था तथा उसने खोला भी नहीं | फिर भी यह उल्टी सीधी बात कहकर प्रभात के ऊपर, जिसका बोलने का कोई मतलब ही नहीं था, इलजाम लगाने का क्या कारण हो सकता है | शायद जय भगवान अपनी कमजोरियों को छिपाना चाहता है परन्तु ऐसा होगा नहीं क्योंकि मैं खुद वहाँ मौजूद था |         

पूरी कहानी सुनकर मेरी बहन केवल इतना कह पाई, भाई मुझे जो बताया गया था मैंने तो वही आपसे कह दिया |

सो तो ठीक है बहन जी परन्तु जय भगवान को अगर कोई शिकायत थी तो नजफगढ में ही मुझे बताता उसे बात को इतना लंबा खींचने की क्या जरूरत थी ? उसके ऐसा रूख अपनाने से उसकी सारी खामियां सबके सामने आ गई अन्यथा यह मेरे तक ही सीमित रहती |

आपकी बात ठीक है | अच्छा भाई नमस्ते | और फोन कट गया |

इसके बाद फिर कभी इस बारे में कहीं भी कोई चर्चा नहीं हुई |