Sunday, November 12, 2017

मेरी आत्मकथा- 27 (जीवन के रंग मेरे संग) छोटी बहू (बखेड़े की जड़ – 2)


19 तारीख को मैं प्रत्येक दिन की तरह अपने आफिस चला गया | मेरा मन काम में नहीं लग रहा था | रह रहकर मुझे ख्याल आ रहे थे कि न जाने अंजू के घर वाले कैसे आदमी हैं | कल को उनके लड़के का लग्न लिखा जाना है और अभी तक अंजू के सिवाय हमारे यहाँ किसी को भी कोई सूचना नहीं है | मुझे तो क्या पूछते जब अभी तक अपनी लड़की को बुलाने की खबर तक नहीं दी | फिर मुझे ध्यान आया कि वैसे जब चुन्नी लाल अपने लड़के का रिस्ता पक्का करने जा रहा था तो मुझे बुला रहा था | उस समय मैं ने कहा था, "ऐसे कामों में तो घर वालों के खास व्यक्तियों का जाना ही उचित लगता है | हम तो लग्न और शादी में ही आएँगे |"
दोपहर को अपनी आदतन मैंने अपने घर फोन किया तो यह जानकर खुशी हुई कि अंजू का भाई हेमंत आया हुआ था | एक ठंडी सांस लेकर उसके मुख से निकला कि चलो देर आए दुरूस्त आए | परंतु शाम को जब मैं आफिस से घर पहुँचा तो यह देख कर हैरान रह गया कि पवन तथा अंजू घर पर ही थे तथा हेमंत जा चुका था | मैंने पूछा, "क्यों क्या बात है अंजू नहीं गई, लग्न कल का है और तुम दोनों अभी तक यहीं हो ?"
पवन ने अपने हाथ ऊपर उठाते हुए तथा गर्दन को झटका देते हुए कहा, "पापा जी मेरा तो जाना मुश्किल है |"
क्यों क्या बात है, और अंजू भी नहीं गई ?
अंजू की अंजू जाने |
मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा कि आखिर तुम लोगों के मन में क्या है | फिर अंजू की तरफ मुखातिब होकर, "तुम क्यों नहीं गई जब तुम्हे लेने तुम्हारा भाई आया था |"
अंजू ने अपनी बात साफ करते हुए कहा, "ये नहीं जाएँगे तो मैं भी नहीं जाऊँगी |"
अंजू की बात सुनकर मैंने उसे समझाने के लहजे से कहा, "देखो औरतों का काम तो दो तीन दिनों पहले ही शुरू हो जाता है | अगर पवन जल्दी नहीं जाना चाहता तो तुम्हे तो चला जाना चाहिए था | वह अपने आप समय पर आ जाता |"
20 जून को मैं घर पर ही रहा | मैं सोच रहा था कि शायद महावीर एंक्लेव से कोई न कोई अवशय आएगा क्योंकि अंजू गुड़गाँवा थी तथा आज उसके भाई का लग्न लिया जाने वाला था | इंतजार में सुबह से शाम हो गई परंतु कोई नहीं आया | यहाँ तक की अंजू के घर से कोई फोन तक नहीं आया | लग्न ले लिया गया | जिसमें अंजू एवं पवन ही शामिल नहीं हुए वहाँ मेरे लिए कोई जगह कैसे हो सकती थी |
21 जून को सुबह अपने दिल में दुविधा लिए मैं अपने आफिस चला गया | मुझे पता चला कि हेमंत घर आया हुआ है तथा अंजू और पवन से कुछ वार्तालाप कर रहा है | उसके मन को थोड़ी राहत महसूस हुई परंतु जब वह शाम को अपने घर पहुँचा तो अंजू को वहाँ देखकर हैरान हो गया | हेमंत भी वहाँ नहीं था |
22 जून को मैं ने अपने सारे प्रोग्राम रद्द कर दिए थे | मैं घर पर ही इंतजार करता रहा कि आज वह, महावीर एंकलेव से किसी के आने पर, अंजू को उसके पीहर अवशय भेज देगा |
दोपहर तक जब कोई नहीं आया तो मैंने अंजू से जानना चाहा कि उसके भाई के आने के बावजूद वह अपने घर क्यों नहीं गई ?
अंजू का तो बस वही एक छोटा सा जवाब था, "ये नहीं जाते तो मैं भी नहीं जाऊँगी |"
पवन तेरी क्या मंशा है ?
पापा जी ! मेरी क्या मंशा होती, कुछ नहीं |
कुछ तो है जो तुम दोनों ने अड़ लगा रखी है ?
इस पर पवन अपने हाथ मटकाते हुए बोला, "मेरी तो कोई अड़ नहीं है |"
फिर तुम महावीर इन्क्लेव जाते क्यों नहीं ?
मैं तो नहीं जाऊँगा | इसको मैं रोकता नहीं |
तुम क्यों नहीं जाओगे ?
पवन अपनी बात को बदलते हुए, "मैं अभी जाकर क्या करूंगा, शाम को चला जाऊंगा ?"
मैं ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा, "अंजू तुम तैयार हो जाओ | पवन तुम्हे छोड़  आएगा |"
पापा जी मुझे पता है फिर ये शादी में नहीं आएँगे | मैं इनके बिना नहीं जाऊंगी |
मैं कह तो रहा हूँ कि यह तुम्हे छोड़ आएगा | मतलब यह तुम्हारे साथ जा रहा है |
पापा जी ये वहाँ रूकेंगे नहीं |
मैं उनकी बातों का सिर पैर समझने में असमर्थ था | मैं बड़बड़ाया, अजीब समस्या है | मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा कि तुम्हारे दोनों के मन में क्या है | अंजू पहले नहीं जाना चाहती, पवन अभी नहीं जाना चाहता |
इतने में मेरे मोबाईल फोन की घंटी बजी | मैं ने उसे कान पर लगा कर हैलौ ही कहा था कि दूसरी तरफ से भरी टेप चालू होने की तरह सुनाई देने लगा, "समधी जी आज मेरे लड़के की शादी है | आपको आना है |"
इससे पहले की मैं कुछ जवाब देता या कहता दूसरी तरफ से फोन काट दिया गया |
मैंने चुन्नी लाल की आवाज पहचान ली थी परंतु वह यह सोचकर सकते में आ गया कि यह कैसा निमंत्ररण था | उसके नारायणा वाले घर पर कार्ड आए तीन दिन व्यतीत हो चुके थे | इन दिनों में महावीर एंकलेव से कोई फोन या इत्तला उसके पास नहीं आई थी कि वे कार्ड दे आए हैं और आप वहाँ मिले नहीं थे | अतः आपको निमंत्रण दे रहा हूँ |और आज यह अचानक ऐसा निमंत्रण जैसे कोई टोंट मारी जा रही हो | मुझे महसूस हुआ कि जरूर कोई बात हुई है | मैंने जानने के लिए अपने लड़के पवन से पूछा, "कल हेमंत से क्या बातें हुई थी ?"
किस बारे में ?
मेरे शादी में जाने के बारे में ?
बातों बातों में मैने कह दिया था कि तुम्हारे लोगों में इतनी भी समझ नहीं है कि निमंत्रण कैसे दिया जाता है | तुम्हारे पापा ने मेरे पापा को निमंत्रण का कार्ड देना तो दूर् अभी तक यह भी नहीं बताया कि उनके लड़के की शादी है |             
अपने बेटे पवन के कथन से मुझे भगवान शिव के जीवन से जुडी एक प्रचलित घटना याद आ गई | शिव जी के ससुर राजा परिक्षित ने एक महायज्ञ का आयोजन किया था | उसमें उसने सभी बड़े बड़े राजाओं को निमंत्रण भेजे थे परंतु अपने दामाद, शिव जी को शामिल होने का कोई न्यौता नहीं दिया था | किसी तरह पार्वती को यह बात पता चल गई कि उसके पिता एक महायज्ञ करा रहे हैं तथा सभी देवी देवताओं को बुलाया है | हालाँकि पार्वती को यह बहुत खला कि उसके पिता जी की तरफ से उसके पति शिव जी को कोई न्यौता नहीं आया है फिर भी पितृ प्रेम के वशिभूत उसने शिव जी से महायज्ञ में शामिल होने का आग्रह किया | शिव जी ने अपनी पत्नि को बहुत समझाने की कोशिश की कि बिना निमंत्रण के किसी दूसरे के किसी भी काज में सम्मिलित नहीं होना चाहिए | इसके बावजूद पार्वती पर अपने पिता के घर जाने का भूत सवार था | वह दलील पर दलील दिए जा रही थी तथा शिव जी को साथ चलने को सही ठहरा रही थी | जब पार्वती की शिव जी के आगे एक न चली तो पार्वती को अकेले ही अपने पिता के यज्ञ में शामिल होने जाना पड़ा |
पार्वती जब अपने पीहर पहुँची तो उसका किसी प्रकार का कोई अभिवादन नहीं किया गया | यहाँ भी पवन को उसकी ससुराल से अभी तक ऐसा कोई निमंत्रण नहीं मिला था | शायद इसी वजह से वह अंजू के साथ जाने में कतरा रहा था
मुझे समझते देर न लगी कि उसके पास जो फोन आया था वह क्यों आया था तथा चुन्नी लाल की जबान में इतनी कड़वाहट तथा झुंझलाहट क्यों थी | उसके लहजे से मेरा  मन ग्लानि से तो भर गया परंतु समय की नाजुकता को भाँपते हुए मैंने अपनी प्रतिक्रिया दिखाना उचित नहीं समझा | मैं बात को सम्भालने की जुगत लगाने लगा |  
इतने में पवन के फोन की घंटी बज उठी | दूसरे छोर पर शायद अंजू की मम्मी जी थी | तभी तो पवन के मुख से निकला था, "मम्मी जी नमस्ते |"
.................( मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था )
नहीं मैं नहीं आ रहा |
"देख लो आ जाते तो अच्छा था आगे आपकी मर्जी" यह जवाब मिला था पवन को जो उसने मुझे दो महीने बाद बताया था इसके बाद फोन काट दिया गया था |
अंजू की मम्मी जी की बात सुनकर पवन का चेहरा एकदम तमतमा गया था | वह गुस्से में बोल पड़ा था, "पता नहीं अपने आप को क्या समझते हैं, जैसे हम गिरे पड़े हैं |"
अपने बेटे की प्रतिक्रया देखकर मैं ने पूछा, क्यों क्या हुआ ?
कुछ नहीं |
कुछ तो है वर्ना क्यों गुस्सा खा रहा है ?
पवन ने अपने पापा को बताने की बजाय उनके सामने से हट जाना ही बेहतर समझा |
फोन आने से मुझे कुछ आशा बंधी थी कि चलो वह बात करके कुछ जूगत भिड़ाएगा कि बच्चे शादी में चले जाएँ | परंतु किसी ने भी उससे बात करने की इच्छा ही जाहिर नहीं की | सारा दिन मैं इसी इंतजार में रहा कि शायद महावीर एनक्लेव से उसके पास कोई फोन आ जाए या फिर स्वम कोई वहाँ से अपने मेहमान (पवन) को मनाने आ जाए |
इंतजार में शाम ढलने लगी | मेरे जहन में कई प्रकार के प्रशन उठ रहे थे | मैंने सोचा कि हो सकता है उन्हें दिन में समय न मिला हो | अतः वे रात को, जब बारात लेकर गुड़गाँवा आएँगे तो अवशय कोई न कोई यहाँ होकर जाएगा क्योंकि मेरा मकान उसी रास्ते पर पड़ता था जिधर से बारात गुड़गाँवा निर्धारित स्थल पर जानी थी |
मैंने मन में पक्का धारण कर रखा था कि अगर पवन की ससुराल से अंजू के चाचा जी, पिता जी, ताऊ जी, मामा जी या बाबा जी में से कोई भी बात करने आ गया तो वह बात सम्भाल लेगा | किसी न किसी को उनमें से आना चाहिए था परंतु शायद कासन वासियों (चुन्नी लाल के परिवार वालों की निकासी कासन गाँव-हरियाणा की है) में मेहमान नवाजी का जजबा है ही नहीं | वे अपने को सबसे अव्वल दिखाना चाहते हैं तभी तो विष्णु रूप दामाद का भी अनादर करने में नहीं हिचकिचाते | जिन्हें सिर पर बैठाना चाहिए वे उन्हे अपने अंगूठे के नीचे दबा कर रखना चाहते हैं | मेरी आशा के विपरीत अंजू के घर से उन्हें मनाने कोई नहीं आया | इसलिए अंजू समेत मेरे घर से शादी में कोई शरीक न हो सका |
चुन्नी लाल के परिवार का व्यवहार जानकर मुझे लगभग 50 साल पहले की एक घटना याद आ गई | वह 8-9 वर्ष का रहा होगा | वह अपने एक रिस्तेदार की शादी में कासन गया था |         
बारात विदा होने के बाद जब वापिस लौट रही थी तो कासन गाँव की सीमा पर लोगों ने विदा होती बारात पर पत्थर फैकनें शुरू कर दिए | सभी बारातियों को बड़ा आश्चर्य हुआ था | मेरा छोटा सा दिल इस घटना से बहुत प्रभावित होकर इसके बारे में जानने का इच्छुक हो गया कि आखिर यह माजरा क्या था | उसने अपने फूफा जी श्री मंगत राम जी, जो खुद एक बाराती थे, से पूछ ही लिया |
मंगत राम जो बाऊ पुर-हरियाणा के रहने वाले थे वहाँ के गाँव वासियों की एक एक रग को पहचानते थे | उन्होने गाली देते हुए मुझे बताया, "बेटा ये कासन के लोग बड़े  'कुम्मसल' होते हैं | विदा होती बारात पर पत्थर फैंक कर यह दर्शाते हैं कि 'अब आए तो आए अब कभी भूलकर भी इस और का रूख न करना' | वे लड़की को एक बोझ समझते हैं तथा शादी के बाद भूल जाने की चेष्टा करते हैं कि उनके कोई लड़की भी थी | अर्थात शादी के बाद उनको बुलाने का नाम नहीं लेते | यही नहीं उनकी लड़कियाँ भी ऐसी होती हैं कि अपनी ससुराल वालों की नाक में दम कर देती हैं | पीहर से ही उन्हें सीख दे दी जाती है कि अपने आदमी को अपने वश में रखने की हर सम्भव कोशिश करना | ससुराल में नौकरानी की तरह नहीं बल्कि रानी की तरह रहना | सेवा करने की जरूरत नहीं बल्कि सेवा करवाना | इन लक्षयों को पाने के लिए चाहे कोई भी खेल खेलना पड़े चूकना नहीं | अन्यथा जीवन दुर्भर हो जाएगा | इतना ही नहीं उसके पीहर की औरतें इस बात का जायजा लेती रहती हैं कि उनकी लड़की उनकी सीख का अनुशरण सही ढंग से कर रही है या नहीं | अगर उन्हें थोडी भी शंका होती है कि उनकी लड़की के पैर ड़गमगा रहे हैं तो ससुराल वालों की तरफ से उसके कान भरने में देर नहीं लगाती | अतः लड़की घर का अधिकतर बंटाढार करवा कर ही रहती है | मैंने आजतक कासन वालों की एक भी रिस्तेदारी ऐसी नहीं देखी जो सुचारू रूप से चली हो |
जिज्ञासा वश सुनने वालों ने पूछ लिया कि कासन वालों से रिस्ता जोड़ ने पर  किसके के साथ क्या हुआ तो उन्होने दो किस्से सुनाए |
गुड़गाँवा की कचहरी में प्राण सुख नाम का एक नामी वकील है | उसका लड़का कौशल भी उसी कचहरी में अपने पिता जी के साथ वकालत करता है | वकील होते हुए भी दोनों बाप बेटा बहुत सज्जन, मृदुभाषी, दयालु एवम मिलनसार व्यक्तित्व वाले इंसान हैं | कौशल की शादी कासन की लड़की कमला से हो गई जिस घर में हमेशा सुख शांति तथा लक्षमी का वास रहता था वहाँ कमला के आते ही कलह बस गई | कमला न तो संयुक्त परिवार के साथ रहने में खुश थी न ही उससे अलग रहा जाता था | घर परिवार तथा कौशल ने कमला को हर प्रकर से खुश रखने की कोशिश की परंतु सब व्यर्थ | कमला के पीहर वाले भी रह रह कर प्राण सुख तथा उसके परिवार वालों पर आरोप लगाते रहे | आखिए एक दिन कमला ने आत्म हत्या कर ली और प्राण सुख जैसे नामी वकील की जान जोखीम में ड़ाल दी प्राण सुख का कोई कसूर न होते हुए भी कासन वालों ने उन्हें हर प्रकार से प्रताडित किया और उनकी साख मिट्टी में मिला दी |
दूसरा किस्सा नारायणा के सेठ रतन लाल का है | उसकी लड़की शशी कासन वालों के यहाँ ब्याही थी | वह लड्की सुशील, सुन्दर, पढी लिखी तथा हर काम में निपुण थी | परंतु ससुराल वालों ने उसके पैर ही न जमने दिए | आखिर तंग होकर उसने भी आत्म हत्या कर ली | कासन वालों ने उल्टा इल्जाम सेठ रतन लाल पर ही थोप दिया |
किसी ने पूछा, कासन वाले ऐसा क्यों करते हैं ?
क्योंकि कासन वाले अपने को धींग समझते हैं | अभी तक उन्हे ऐसी कोई असनाई नहीं टकराई जो उनका सामना कर सके | छोटी से छोटी बात के लिए कासन वाले सब एक साथ लड़ने मरने को इकट्ठा होकर आ जाते हैं | और सामने वाले को अपनी बात मनवाने में कामयाब हो जाते हैं | इसीलिए उनके तथा उनकी लड़कियों के हौसले बढे हुए हैं खैर कभी न कभी सेर को सवा सेर तो जरूर मिलता है |    

आज यह तो साबित हो गया था कि वास्तव में कासन वाले अपने दामाद की कुछ परवाह नहीं करते बल्कि उसे अपने पैरों की जूती से भी बदतर समझते हैं |  वे खुशामद या विनती नहीं करते | अहंकारी असुरों की प्रवृति की तरह वे झुकते नहीं सभी को झुकाने का प्रयास करते हैं |   

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