Tuesday, November 21, 2017

मेरी आत्मकथा- 31 (जीवन के रंग मेरे संग) इंदिरा की बरसी

सन २००३ | जून का महीना | तिथि १९ | रात का समय | सैक्टर २३-ए गुडगावां का मकान | न जाने क्यों रात के ११-३० बजने के बावजूद मुझे नींद नहीं आ रही थी | सोने की सभी कोशिशें नाकाम साबित हो गई थी | नींद मुझ से कोसों दूर नजर आ रही थीं | करवटें बदलते बदलते मैं इतना परेशान हो गया था कि अब ऐसा लगने लगा था जैसे बिस्तर मुझे काट रहा था | मैं बिस्तर से उठा तथा कमरे में ही चहल कदमी करने लगा | भरपूर गर्मी का मौसम था परन्तु उससे निजात पाने के लिए मेरे घर में कूलर व एयर कंडीशनर का पूरा इंतजाम था |
अमूमन मैं प्रत्येक दिन रात के १०.३० बजे सो जाता था तथा कूलर के पंखे की आवाज मेरी नींद में कोई बाधा उत्पन्न नहीं करती थी | परन्तु आज अपने कमरे में चहल कदमी करते हुए मुझे कूलर के पंखे की आवाज नगांडो के बजने जैसी महसूस हो रही थी | मेरी पत्नी मेरी अवस्था से बेखबर साथ वाले बिस्तर पर निंद्रा के आगोश में लेटी हुई थी | अगर मैं कूलर बंद करता तो उनकी नींद में खलल पड़ने का अंदेशा था इसलिए उनको उसी हालत में छोड़ मैं अपने ड्राईंग रूम में आ गया |
मुझे अपने ड्राईंग रूम की तनहाईयों में भी चैन न मिला | अत: मैं दरवाजा खोलकर अपने मकान की तीसरी मंजिल की खुली छत पर पहुँच गया | यहाँ मंद मंद हवा चलती महसूस हुई | आधी रात बीत चुकी थी | दूर दूर तक खुला वातावरण होने की वजह से गर्मी का प्रकोप भी कुछ कम लगा | सुबह के पांच बजे तक मैं अपनी छत पर यूं ही घूमता रहा | शरीर में हल्कापन तथा नीदं की खुमारी छाने लगी | अब तक आसपडौस के लोग भी जागने लगे थे इसलिए मैं नीचे अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गया और न जाने कब नींद ने मुझे दबोच लिया |
गहरी नींद में अचानक मुझे महसूस हुआ कि मुझे कोई पुकार रहा है, पापा जी, पापा जी |
मैंने बिना आँखें खोले नींद में ही कहा, हूँ |
मुझे सुनाई पड़ा, पापा जी फोन आया है |
मैनें उसी हालत में पूछा, किसका फोन ?
भाई साहब का |
पवन के मुहं से भाई साहब का नाम सुनते ही मुझे एक झटका सा लगा | मैं उठकर बैठ गया | मैनें आँखे खोलकर घड़ी की तरफ देखा | वह ०६-१५ दिखा रही थी | मैं बुदबुदाया, इतनी सुबह, भाई का फोन ! क्या बात है पवन ?
मुझे नहीं बताया | कह रहे थे कि आप से ही बात करनी है |
मैं बिस्तर से उठकर टेलीफोन की तरफ जाते हुए अपने आप से ही बोला, सुबह सुबह ऐसी क्या बात हो गई जो मेरे से बात करने की जरूरत पड़ गई | फिर जल्दी से मैनें फोन का चोगा कान पर लगा कर आशंका वश पूछा, हाँ प्रवीण क्या बात है ?
प्रवीण ने अपने चिरपरिचित अंदाज में शुरू किया,  “पापा जी मैं प्रवीण, नमस्ते |
नमस्ते, हाँ बोल ?
पापा जी साथ वाले ताऊ जी आए थे | बता गए हैं कि बड़ी बुआ जी का स्वर्गवास हो गया है |
मुझे प्रवीण की बात पर एकदम विश्वास नहीं हुआ अत: अपने को आशवस्त करने के लिए दोबारा पूछा, क्या कहा बड़ी बुआ का स्वर्गवास ?
हाँ पापा जी और उन्होंने यह भी बताया है कि अस्पताल से उनका पार्थिव शरीर सीधा निगम बोध शमशान घाट ले जाएंगे |           
मुझे प्रवीण की बात पर अब भी विश्वास नहीं हो पा रहा था अत: अपने भाई ओम प्रकाश को फोन मिलाकर इसके बारे में एक बार और पुष्टि करनी पड़ी | मैं अपने परिवार के सदस्यों के साथ निगम बोध घाट पर २०-०६-०३ को सुबह ०८-३० बजे पहुँच गया | अभी तक वहाँ मेरी बहनजी का पार्थिव शरीर नहीं लाया गया था | मैं एक तरफ एकांत में बैठकर उनके आने का इंतज़ार करने लगा | अकेला एकांत में बैठने से मैं पुराने ख्यालों में खो गया |
सारे भाईयों में खासकर मैं अपनी सबसे बड़ी बहन इंदिरा को अपनी मां के समान मानता था | मानता भी क्यों नहीं | क्योंकि जब इंदिरा बहन की शादी हुई थी तो मैं बहुत छोटा, लगभग छ: वर्ष का था | इसलिए उनकी शादी की कुछ धूमिल सी यादें ही मेरे जहन में याद बनकर अटकी हुई थी |
मैं सत्तरह वर्ष छ: महीने की आयु में ही भारतीय वायु सेना में भर्ती होकर बैंगलौर चला गया था तथा अलग अलग कई स्थानों पर सोलह वर्ष नौकरी करके १९७९ में वापिस घर आ गया था | इस दौरान मैनें अपनी बड़ी बहन से हमेशा सम्बन्ध बनाए रखे | मैं पत्र के माध्यम से उनकी कुशलता का समाचार लेना कभी नहीं भूला था | भारतीय वायु सेना से रिटायरमैंट लेने के बाद जब मैं नारायणा रहने लगा था तो मुझे जब भी मौक़ा मिलता मैं उनसे मिलने शामली अवश्य चला जाता था |
मेरे जीजा जी बहुत ही नेक एवम नरम दिल इंसान थे परन्तु थोड़ी सी भी गल्ती करने वाले के लिए पक्के अड़ियल भी थे | वैसे तो उनका काम धंधा ठीक था परन्तु सालों से उस जमीन के ऊपर, जिस पर वे मकान बनाकर रह रहे थे, मुकदमें के कारण कमाई का अधिकतम मोटा हिस्सा उसमें खर्च हो जाता था | इसलिए उनकी आर्थिक स्थिति मेरी और बहनों तथा भाईयों की तुलना में कुछ नरम थी | और जब ऐसी स्थिति हो तो संभल कर गृहस्थी चलाना ही श्रेयकर होता है |
उनका यह सम्भलकर चलना ही मेरे बड़े भाईयों को अखरता था | हांलाकि मैं जब भी उनके यहाँ जाता था तो मुझे भी उनके यहाँ कुछ खामियां महसूस होती थी परन्तु अपनी बहन के स्नेहमयी शब्द एवम निष्कपट ममतामयी  आचरण को भांपकर मुझे एक अजीब आनंद का आभाष होता था जो उनकी खामियों को महसूस ही नहीं होने देता था | इसका मुख्य कारण, मेरा, मेरे अपने भाईयों के विचारों से भिन्न ‘मोटी पार्टी’ से ज्यादा महत्त्व अपनों एवं मनुष्य के आचरण को देना था | वैसे इस संसार में ऐसा कोई इंसान नहीं तथा कोई घर नहीं जिसमें कोई खामी न हो |      
यादों की कड़ी में मुझे तीन चार दिन पहले १६ जून की यादें ताजा हो आई | मेरी भाँनजी और मेरी बहन इंदिरा की लड़की मनु की सगाई का मौक़ा था | सभी रिश्तेदार इकट्ठा हुए थे | चारों और खुशी का माहौल था | सगाई स्थल पर पहुँच कर मैंने अपने जीजा जी को सामने देखकर, जीजा जी नमस्ते |
अरे भई ‘चरनी’ बड़ी देर लगा दी |
मैं उनका आशय तो समझ गया था फिर भी मजाक के तौर में पूछा, जीजा जी किस में ?
आने में और किस में |
जीजा जी मैनें देर कहाँ लगा दी | देर तो लड़के वाले लगा रहे हैं जो अभी तक पहुंचे ही नहीं | और लड़के वालों से पहले पहुँचने वालों पर आप देरी से पहुँचने का इल्जाम नहीं लगा सकते |
मेरे जीजा देवी चरण जी मेरी बातों पर हँसे बिना न रह सके और अपनत्व दर्शाते हुए मेरा हाथ पकड़ कर खाने के स्टालों की तरफ ले जाते हुए कहा, अच्छा अच्छा ठीक है | चल कुछ नाश्ता वगैरह कर ले |
अपने जीजा जी के साथ जाते हुए जैसे ही मेरी निगाह अपनी बहन जी पर पड़ी मैंने अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, जीजा जी मैं बहन जी से तो मिल आऊँ ?
जीजा जी ने मेरा हाथ छोड़कर हंसकर चुटकी ली, क्यों नहीं साले साहब उनके पीछे ही तो हम हैं वरना हमें कौन पूछता | और मैं अपनी बहन जी की तरफ बढ़ गया तथा मेरे जीजा जी और किसी की आवभगत में लग गए |
बहन जी नमस्ते |
मेरी बहन मुझे देखकर अपने चिरपरिचित अंदाज में चेहरे पर मंद मंद मुस्कान लाकर बड़े ही ममतापूर्ण शब्दों में बोली, भाई आ बैठ जा |
मेरे बैठते ही उन्होंने मेरे सिर पर अपना ममतामयी हाथ फेरकर इधर उधर देखते हुए पूछा, कौन कौन आया है ?
जीजी, सभी आए हैं |
बहन जी जो शामली में हमेशा अपनों के आने की बाट जोहती रहती थी तथा आज अंदर ही अंदर सभी से मिलने को लालायित थी बोली, हाँ भाई ऐसे मौकों पर ही सब का मिलन हो जाता है अन्यथा तेरे सिवाय मुझे मिलने कोई नहीं आता |
उनके मन की सी बात कहते हुए मैनें उनके साथ रजामंदी दिखाई, हाँ बहन जी आज तो सभी परिवार वाले मिल जाएंगे |
मेरे इतना कहने भर से मेरी बहन जी का चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा जैसे उन्हें मन की मुराद मिल गई हो | शायद पीहर के सभी व्यक्तियों के दीदार होने की आशा ने उनके मन की उस टीस को दबा दिया था जो शामली रहकर वे हमेशा महसूस करती रहती थी | हालाँकि इंदिरा का स्वास्थ्य कई सालों से कुछ ठीक नहीं चल रहा था परन्तु आज उनको देखकर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि वे वर्षों से किसी न किसी मर्ज की दवा ले रही होंगी |
जैसा मैनें बताया था कि मेरे जीजा जी की आर्थिक स्थिति खास मजबूत नहीं थी फिर भी उनके बच्चों की शादी  एक से बढकर एक मोटी पार्टी के यहाँ हुई थी | मनु की सगाई भी एक जाने माने फ़ार्म हाऊस में सम्पन्न होने जा रही थी | सगाई के सभी कार्य सुचारू रूप से पूरे होने के बाद मैनें बहन जी से कहा, जीजी मनु की सगाई तो निबट गई | हम सभी भाई यहाँ मौजूद हैं ही तो लगे हाथ भात भी ले लो ?
बहन जी ने अपनी सहमती जताई, हाँ भाई ठीक है |और उन्होंने अपनी लड़की बबली को आवाज लगाई, बबली आरते का थाल ले आ |
इसके बाद मेरी बहन ने अपनी और बहनों के साथ मिलकर पूरे जोश के साथ भात के गीत गाने में उनका साथ दिया | भात का आरता करते हुए उन्हें अपने सभी पीहर वालों को एक साथ देखकर अपार खुशी का एहसास हो रहा था | ज्यो ज्यों वे टीके कर रही थी त्यों त्यों उनके चेहरे पर संतुष्टता का निखार बढता जा रहा था | अंत में वे इतनी भाव विभोर हो गई कि अपने भाईयों भाभियों एवम भतीजों से अप्रत्याशित रूप से हाथ मिलाकर उनके गले लगते हुए खुशी में सराबोर होकर झूमने लगी | इंदिरा के अपने पीहर वालों के प्रति उसके ऐसे रूप और चेहरे की रौनक देखकर उनके कई अपनों को उनके मन में ईर्ष्या जाग्रत हो गई | यहाँ तक कि इंदिरा की खुद की लड़की बबली अपनी मम्मी जी पर टोंट कसे बिना न रह सकी जब उसने कहा, मम्मी जी को उठकर अपनी समधन से मिलने में कष्ट हो रहा था | अब देखो अपने पीहर वालों से कैसी हंसी-ठट्ठे के साथ मिलकर झूम रहीं हैं |
इतने में किसी ने मुझे झन्झोडा | मेरी तंद्रा टूटी |
मैनें देखा कि मेरी बहन जी का पार्थिव शरीर शव वाहन से उतारा जा रहा था | उनका मृत शरीर अस्पताल से सीधा यहाँ, निगम बोध घाट पर लाया गया था इसलिए उनकी अंतिम स्नान तथा रिश्तेदारों द्वारा चादरें चढाने आदि की रस्म यहीं पूरी की गई | उनके अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी तथा अन्य सामग्री का इंतजाम भी कर लिया गया | इतने में मनोज जी, मेरे दामाद, ने धीरे से मेरे कानों में कहा, पिता जी, परसों की मनु की शादी है |
हाँ है |
अगर बुआ जी को दाग यहाँ लगाया गया तो आगे कैसे होगा ?
वह तो सभी को दिख रहा है कि शादी करना बहुत मुश्किल हो जाएगा | कोई भी काम सुचारू रूप से समपन्न नहीं हो पाएगा |
इस पर मनोज जी ने सुझाव दिया, तो ऐसा क्यों नहीं करते कि बुआ जी के पार्थिव शरीर को दाग गंगा जी के तट पर लगाकर वहीं सब काम पूर्ण कर दिए जाएँ |
मनोज जी का सुझाव मुझे भी जंच गया | मैनें यह सुझाव अपने जीजा जी श्री शिव शंकर जी को बताया | उन्होंने वहाँ मौजूद मौजीज बुजुर्गों के सामने यह प्रस्ताव रखा तो इस से सभी सहमत हो गए | आनन फानन में एक बस का इंतजाम कर लिया गया | इंदिरा का नहाया धोया बेजान शरीर कफ़न में लिपटा बस की पिछली डिक्की में रख दिया गया | इंदिरा के सभी नजदीकी रिश्तेदार खासकर उनकी बहनें बेजार रो रही थी | उनके आंसू रोके नहीं रुक रहे थे | वे अपनी बड़ी बहन का पार्थिव शरीर देख देखकर एक दूसरे के गले लगकर लगातार रोए जा रही थी | वातावरण बहुत ही ग़मगीन हो रहा था | डिक्की का दरवाजा बंद होते ही सभी रिश्तेदारों के साथ इंदिरा की बहनें भी अपनी बड़ी बहन को अंतिम विदाई देने के लिए गंगा घाट पर जाने के लिए बस में चढ गई |
निगम बोध घाट से गंगा घाट के लिए बस दोपहर लगभग बारह बजे निकल पाई थी | इसलिए देहली की भीड़ भा से निकलते निकलते एक बज गया था | अमूमन धूर्त व्यक्तियों के लिए एक कहावत प्रसिद्द है कि ‘आँखों से ओझल तो मन से ओझल’ | परन्तु यहाँ तो आज इंदिरा के अपनो ने ही यह कहावत चरितार्थ कर दी थी | इंदिरा के बेजान शरीर को डिक्की में बंद करके बस में बैठते ही जैसे सब भूल गए की वे किसी अपने को अंतिम विदाई देने जा रहे हैं | सभी के लिए बस के अंदर का माहौल, केवल चंद इंसानों को छोकर, ऐसा बन गया था जैसे वे किसी पिकनिक पर जा रहे थे |
यह माना जाता है कि सफर में पिकनिक या सैर सपाटे पर जाते हुए भूख कुछ ज्यादा ही लगती है | हमारा गंगा जी की तरफ जाने का असली सफर अभी शुरू हुआ ही था तथा लगभग दो बजे थे कि बस में बैठे इंदिरा के रिश्तेदारों तथा उसकी बहनों को भूख का एहसास होने लगा | उनकी आपस में कुछ खुसर-पुसर हुई और बस एक झटके के साथ रुक गई | इससे पहले कि कोई बस रूकने का कारण पूछता ड्राईवर ने पिछला गियर लगा कर उसे पीछे ले जाकर एक होटल के सामने रोक दिया |
बस में आवाज गूंजी उतरो, नीचे उतरो और एक के बाद एक सभी बस से नीचे उतर गए | देवी चरण एवम मनीष की तंद्रा टूटी | वे चारों और आश्चर्य जनक निगाहों से देखने लगे | शायद वे सोच रहे थे कि इतनी जल्दी गंगा का किनारा कैसे आ गया | वास्तव में ही वह गंगा का घाट नहीं परन्तु पेट पाटने का ठिकाना था | लोगों ने उन्हें भी जबरदस्ती बस से उतार कर होटल के एक किनारे में बैठा दिया | बस के सभी यात्री अपने मन के मुताबिक़ खाने पर टूट पड़े | किसी ने कैम्पा ली, किसी ने लस्सी, किसी ने चाय-पकौड़े, किसी ने छोले कचौड़ी, तो किसी ने बर्फी-बालूशाही |
मृतक की बहनों ने बस से उतरते ही होटल की कौने की एक मेज पर अपना कब्जा जमा लेने के बाद काँता ने  बैरे को बुलाया और पूछा, खाने को क्या है ?
मैडम सभी कुछ है |       
शान्ति जिससे भूख बर्दास्त नहीं हो रही थी बोली, जल्दी से कुछ खाने को लिया |
दाल फराई तथा नान ले आ,सुशीला ने आर्डर दिया |
ज़रा जल्दी लाना भईया,क्योंकि भूख सहन नहीं हो रही अंगूरी ने अपनी व्यथा जताई |
अभी ये सब खाने लाने का इंतज़ार ही कर रही थी कि मेरी छोटी बहन शान्ति ने मुझे खड़ा देखकर कहा, भईया जी यहाँ आ जाओ |
मैं अपनी बहनों के साथ वाली कुर्सी पर बैठ गया | अपनी माँ शरीकी बहन की डिक्की में पड़ी लाश और अपने सामने बैठी, उनके कारनामों के कारण, ज़िंदा लाशों को देखकर मेरा मन व्यथित हो गया | क्योंकि वे ज़िंदा लाश जैसा ही व्यवहार करने लगी थी | उनकी चेतना मर चुकी थी तभी तो उन्हें खाने के अलावा कुछ सूझ नहीं रहा था | मैं विचारों में बह गया कि देखो अभी एक घंटा पहले उसकी ये सारी बहनें अपनी बड़ी बहन की मौत पर आसूओं से नहा रही थी |अभी उनकी बड़ी बहन कफ़न में लिपटी बस की डिक्की में लेटी है परन्तु वह इनके मन से ओझल हो चुकी है | भूख के कारण इन्हें रोटियों के अलावा अब कुछ याद नहीं रह गया है |
फराई दाल के साथ सभी ने ऐसे खाना शुरू कर दिया जैसे न जाने कितने दिनों से भूखी थी | उनकी पेट की आग ने उन्हें सब कुछ भुला दिया था, रिश्ते, नाते, सम्बन्ध, प्यार, मोहब्बत और इंसानियत | उनको खाता देख मेरे मन में प्रश्न उठा, क्या यही वे औरतें हैं जो पूरा पूरा दिन निर्जल व्रत रखकर रात का चाँद देखकर ही अपना व्रत तोड़ती हैं ? क्या यही वे बलिदान देने वाली देवी की मूर्तियां हैं ? क्या यही वे इंदिरा की छोटी बहनें हैं जिसका निर्जीव शरीर कफ़न में लिपटा गाड़ी की डिक्की में बंद पड़ा है तथा इंतज़ार कर रहा है उस गंगा के किनारे का जहां दो घंटे बाद उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा और विलीन हो जाएगा पंच तत्वों में | बस फिर रह जाएँगी केवल यादें |
 अनजाने में मेरी आँखों से अश्रु धारा बह निकली और मेरी तंद्रा तब टूटी जब मेरे कानों में आवाज सुनाई दी, भईया जी आप भी खाने के लिए कुछ मंगा लो |
मै अपने आपे में आते हुए बुदबुदाया, हैं, हाँ |
मैनें चारों तरफ नजर दौड़ाई तो पाया कि लगभग सभी खाना खाने में मशगूल थे | अपनी बहन के आग्रह पर मैं खाने की मेज पर तो बैठ गया परन्तु मेरा मन अपनी बहन के अंतिम संस्कार से पहले खाने का मन बिलकुल नहीं था | सोच रहा था कि कैसे क्या करूँ | इतने में एक युक्ति सूझी | मैं यह कहता हुआ उठ गया कि मनीष और जीजा जी, जो अकेले एक कोने में बैठे आंसू बहा रहे थे, से भी पूछ लेता हूँ कि वे कुछ लेना चाहते हैं |
वहाँ से उठने का तो मेरा बहाना था | मुझे पता था कि मनीष और मेरे जीजा जी कुछ भी खाने के लिए कभी भी राजी नहीं होंगे | मैं तो यह मालूम करना चाहता था कि उस होटल पर खाने का क्या नहीं था | पता करके मैं फिर से अपनी बहनों के साथ खाने की मेज पर आ बैठा | बैरे को नजदीक देखकर मेरी बहन अंगूरी ने पूछा, क्या खाओगे ?
चावल राजमां |
मैनें पता तो कर ही लिया था कि चावल छोले नहीं मिलेंगे | बैरे ने भी जवाब दिया, चावल राजमां तो नहीं हैं |
भाई हमारी तरह रोटी दाल फराई लेलो, सुशीला बोली |
मैं अपने दांत नहीं लाया इसलिए रोटी चबा नहीं पाऊंगा |
फिर ?
कोई बात नहीं आगे कुछ देख लूंगा |कहकर मैनें भगवान का शुक्रिया अदा किया कि उसने समय पर एक माकूल रास्ता सुझा दिया था |
सभी खा-पीकर बस में ऐसे बैठ गए जैसे किसी पिकनिक पर जा रहे हों | भरे पेट पर हाथ फेरते हुए सभी एक दूसरे से हंसी, मजाक एवम ठिठोली करने में लग गए | खाली पेट था तो केवल मनीष और देवी चरण का | आँखें नम थी तो केवल उन दोनों की | रोने वालों की तरफ किसी का ध्यान नहीं था | किसी ने सच ही कहा है कि ‘अगर आप रोओगे तो आपके साथ कोई नहीं रोएगा अर्थात आप अकेले ही रोओगे परन्तु अगर आप हंसोगे तो सारा संसार आपके साथ हंसेगा’ |   
बस में धमा चौकड़ी के चलते पता ही न चला कि हम कहाँ चल रहे थे कि अचानक बस के रूकने से खबर लगी कि हम अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गए थे | बस के रूकते ही सभी को एक बार फिर इंदिरा के पार्थिव शरीर के साथ अपने रिश्ते याद आ गए | बस की डिक्की खोलते ही अपने अपने रिश्ते अनुसार सभी इंदिरा के साथ बिताए पलों की याद करके कुछ न कुछ बोलकर अपना अपना शोक प्रकट करने लगे | इन्द्रा की कफ़न में लिपटी लाश देखकर उनको एक बार फिर अहसास हुआ कि वह बेजान शरीर उनके किसी अपने का है | यह आभाष होने से बहनों की आँखों में एक बार फिर अश्रु ढलकने लगे |       
इंदिरा का पार्थिव शरीर गंगा के किनारे ही अग्नि के हवाले कर दिया गया | तीन चार घंटे बाद पूरे विधि विधान से  इंदिरा की राख एवम फूल वगैरह सभी कुछ गंगा में प्रवाहित कर दिया गया | पंडितों से इंदिरा की तेरहवीं, छमाही तथा वर्षी की औपचारिकता भी पूर्ण करवा दी गई जिससे मनू की शादी में कोई विघ्न न रहे |

इसके बाद सभी आए व्यक्ति बस में बैठकर वापिस देहली के लिए रवाना हो चले | यह बताना जरूरी नहीं होगा कि वापिस रवाना होने से पहले सभी, भरे पेट पर एक बार फिर भरपेट दावत खाने के साथ, खुशी खुशी पेडे खाना न भूले थे | क्योंकि बरसी जो पूरी हो गई थी इंदिरा की |   

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