Friday, November 17, 2017

मेरी आत्मकथा- 29 (जीवन के रंग मेरे संग) छोटी बहू


मैं संतोष की रग रग से वाकिफ था | मैं जानता था कि वह जो फैसला करेगा उसकी पत्नी मान तो जाएगी परंतु वह जब तक आनाकानी करती रहेगी जब तक मेरी राय पर मनोज जी अपनी मोहर नहीं लगा देते | ऐसा नहीं था कि संतोष मेरी बात नहीं मानती थी परंतु इस समय के परिवेश में वह भी चाहता था कि सभी की एक राय बनें तो बेहतर होगा | इसका कारण अंजू के घर वालों द्वारा किए गए व्यवहार को देखते हुए मनोज जी को यह भरोसा दिलाना था कि वे सब उनके साथ हैं तथा उनकी बेइज्जती सभी की बेइज्जती थी |
मैंने अपने दामाद मनोज जी को अंजू द्वारा लिखा माफी नामें का पत्र दिखा दिया था परंतु वे क्या सभी पवन को तलाक दिलाने की राह पर चल रहे थे | उनको इस बात का आभाष भी नहीं था कि पवन अंजू को तलाक देने की कोई मंशा नहीं रखता | यह बात मैंने ही पवन के आचरण से भाँप ली थी | अब इस आशय को मनोज जी तक पहुँचाना अनिवार्य था तभी आगे कुछ हो सकता था |
एक दिन मैंने पवन से कहा, "पवन तुम दोनों को बहन जी के पास गए तो शायद काफी दिन हो गए हैं |"
"हाँ पापा जी हो तो काफी दिन गए हैं | वैसे मैं तो कई बार हो आया हूँ अंजू ही नहीं गई है |"
"अंजू तो अपने को बहुत अकलबन्द समझती है परंतु है बिलकुल उसके विपरीत | और तुझे भी कुछ समझ नही है |"
"क्या मतलब ?"
"मतलब ये कि अगर घर में वापिस आना है तो तुम दोनों को यह जाहिर करना होगा कि तुम बिछोह नहीं कर रहे हो | और मनोज जी के सामने तुमने अभी तक ऐसा जाहिर नहीं किया है |" 
पवन ने अपने मन की शंका को उजागर करते हुए पूछा, "अंजू को मैं वहाँ कैसे ले जाऊँ ? वे तो घर में घुसने ही नहीं देंगे |"
मैंने पवन को समझाते हुए कहा , "मंजिल तक वही पहुंच पाता है जो निडरता से उसकी तरफ कदम बढाता है | तुम्हारे जाने से कम से कम उनके मन का गुब्बार तो निकल जाएगा | और एक बार आदमी के मन का गुब्बार निकल जाए तो वह अपने आप को बहुत हल्का महसूस करने लगता है | इसके बाद उसके व्यवहार में बहुत बड़ा  बदलाव आ जाता है | किसी हद तक कठोरता का स्थान कोमलता एवं निर्मलता ले लेती है |
"पापा जी बताओ फिर कब जाऊँ?"
"अब यह भी मुझे बताना पडेगा कि कब जाओ, कैसे जाओ, क्या लेकर जाओ | अरे जब तुम लोगों को फुर्सत हो चले जाओ परंतु जितना जल्दी उतना बेहतर रहेगा |"
कुछ दिनों बाद पता चला कि पवन एवं अंजू 6 जून को हरी नगर मनोज जी के घर गए थे | वैसा ही हुआ जैसा मैंने बताया था | उन दोनों को अपने दरवाजे पर आया देखकर सभी भौचक्के रह गए | मनोज एवं प्रभा की आज शादी की साल गिरह थी | वे उसे भूल अपने मन की भडाँस निकालने में जूट गए | जब पवन एवं अंजू वापिस चलने लगे तो मनोज जी को याद आया कि उनकी शादी की साल गिरह पर उन दोनों को दरवाजे से ही लौटाना ठीक नहीं रहेगा |
बहरहाल मनोज जी को उस दिन पता चल गया कि पवन एवं अंजू एक साथ ही रहना चाहते हैं तथा उनका तलाक लेने का कोई इरादा नहीं था | अंजू ने प्रभा को यह भी सूचना दे दी कि वह 3 महीने की गर्भवती है तथा उसने अपनी तरफ से एक माफी नामा लिखकर पापा जी को दे दिया है |
अब मुझे यह पता लगाना था कि घर के अन्य सभी सदस्यों के मन में अंजू के विषय में क्या चल रहा था | इसके लिए मैंने सभी को एक साथ इकट्ठा करके मनोज जी के घर आमने सामने बातचीत करने का फैसला लिया | इसमें अंजू शामिल नहीं थी |
अचानक सभी को एक साथ अपने घर आया देख प्रभा आश्चर्य करते हुए बोली, "अरे ! बहुत खूब ! आज अचानक सब एक साथ कैसे ?"
"बिटिया पहले बैठने दो | सब पता चल जाएगा", कहते हुए मैं घर के अन्दर प्रवेश कर गया |
मनोज जी असमंजस्ता से सभी के चेहरों को पढने का असफल प्रयास करके मन्द मन्द मुस्कराते हुए, "बैठो जी, बैठो | ला भई पानी ला |"
मैं बैठते ही बिना समय बिताए अपने मुद्दे पर आ गया, "आप सभी जानते हैं कि पवन और अंजू को अलग रहते हुए लगभग 10 महीने हो गए हैं | अब उनका क्या किया जाए ?"
सबसे पहले प्रवीण ने अपना मुँह खोला, "उन्हें तो घर में लाना नहीं है | अंजू ने जैसा किया है वह माफ करने योग्य नहीं है |"
मनोज जी ने कुछ दबी आवाज तथा मायूसी भरे लहजे में कहा, मैं तो अभी तक इन्हीं ख्यालों में था कि पवन तलाक लेगा परंतु शायद अब उसका मन फिर गया है | 6 जून को ये दोनों हमारे घर आए थे उसी दिन मुझे इस बात का पता चला | उससे पहले तो पवन मेरी हाँ में हाँ ही मिलाता रहता था | उसने कभी दर्शाया ही नहीं कि उसके मन में क्या था | वैसे मेरी राय में तो उनका अलग रहना ही बेहतर रहेगा | 
संतोष के साथ तो अंजू ने बहुत ही अभद्र व्यवहार किया था | इसलिए अंजू इतनी जल्दी उसके मन में कैसे चढती अतः उसने अपना फैसला सुनाते हुए कहा, "मैं तो उसे अपने घर में घुसने नहीं दूंगी | अगर वह आई तो मैं चली जाऊंगी |"
मैंने संतोष को धीरे से समझाया, "कुछ सोचकर बोला करो | तुम अपना घर छोड़कर क्यों चली जाओगी ? मैनें यह घर किस लिए बनवाया है ? इसलिए कि अपनी रिटायरमैंट के बाद खुशहाल जिन्दगी बीते |”                
मनोज ने अपने सास ससूर की बातों में कोई रूची न दिखाई | उनका दिमाग अभी भी शायद अंजू के साथ क्या होना चाहिए उसी में उलझा था | अतः दो टूक जवाब देते हुए बोले, "हमें तो अंजू से कोई रिस्ता रखना नहीं है |"
प्रवीण ने भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी |
जब मैंने जान लिया कि घर के दोनों मर्द अपनी बात पर अड़े हुए हैं तो उनकी बेकार की अड़ को समाप्त कराने हेतू मैंने उनसे एक प्रशन किया, "आप सभी बताओ कि अंजू ने या पवन ने आप लोगों के साथ ऐसी क्या बदसलूकी की है जो आप सब उनके साथ कोई रिस्ता न रखने की रट लगा रहे हो ?"
मेरी बात सुनकर प्रवीण ने पूरे जोश के साथ अपना प्रशन किया, "अंजू के घर वालों ने हमारी बहन एवं जीजा जी के साथ कैसे व्यवहार किया था क्या उसे आप उसे भूल गए ?"
"मैं भूला कुछ नहीं हूँ | मैं सब जानता हूँ | शायद तुम भी जानते होगे कि उन्होने अपने किए की माफी माँग ली थी तथा उन्हें उचित दंड़ भी दिया जा चुका है |"
"परंतु अंजू ने आपके और मम्मी जी के साथ कैसा अभद्र व्यवहार किया था क्या उसे भी आप भूल जाएँगे ?" मनोज ने पूछा |    
"कोई कुछ नहीं भूलता परंतु गृहस्थी की खुशहाली के लिए परिवार में ऐसी बातों को मन के किसी विरान कोने में दफना देना ही बेहतर होता है जबकि गल्ती करने वाला मन से अपनी गल्ती को समझ कर माँफी माँगने लगे", अपने ऐसे विचार मैंने सबके सामने रखे
मनोज, जो एक कुशल एवं सुलझे हुए अध्यापक थे, अपने ससूर का आशय समझते हुए बोला, "तो आप अपने मन की साफ साफ बताओ कि आपकी इच्छा क्या है ?" 
"मेरा तो हमेशा से यही नजरिया रहा है कि अगर सामने वाला गल्त काम करके पशचाताप करले तथा माफी माँगने लगे तो उसके साथ सदव्यवहार करने में कोई बुराई नहीं है |"
"पापा जी आपने तो इतिहास मैं मास्टर डिग्रि हासिल की है | आपको तो पता ही होगा कि ऐसे कितने ही मौके आए हैं जब माफ करने वाले को बाद में पछताना पड़ा था |"
"कैसे ?"
जैसे पृथ्वी राज चौहान द्वारा मुहम्मद गौरी को  माफ करके अपनी आँखे गवानी पड़ी थी और....|”
मनोज जी उन बातों में और हमारी बातों में जमीन आसमान का फर्क है | वहाँ आपस में दोनों के बीच कोई सम्बंध न था | मुहम्मद गौरी का अहम उसके आड़े आ रहा था | दोनों के मजहब अलग अलग थे तथा हिन्दुस्तान पर राज करने की तृष्णा मुहम्मद गौरी के मन में बलवती थी | आपके चाचा जी के कथन से यह तो साबित हो गया है कि तृष्णा तो यहाँ भी बलवती है देर सवेर ऐसी तृष्णा तो घर के हर सदस्य के मन में पैदा हो जाती है परंतु कई बार उसकी विधि उल्टा असर ड़ाल कर जग हँसाई का कारण बन जाती है  | जैसा कि अंजू के साथ हुआ है |”
"मैं तो अपने पापा जी के कथन से सहमत हूं," प्रभा बोल पड़ी |
संतोष जो अभी तक चुपचाप वहाँ हो रहे वार्तालाप को ध्यान से सुन रही थी प्रभा की बात सुनकर काँपकर बोली, "तो क्या उसे घर ले आओगे ? ऐसा किया तो मैं तो मर जाऊँगी | मुझे तो उसकी शक्ल देखने से ही डर लगता है |"
मैंने अपनी पत्नि को आशवासन देकर कहा, "प्रभा यह नहीं कह रही है कि उसे घर ले आओ |"
जब मुझे पता चला था कि अंजू घर से निकल कर थाने पहुँच गई है तो मेरे तो पाँव तले की जमीन ही खिसक गई थी", कहते कहते मनोज के बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई | “उस समय अगर अंजू यह ब्यान दे देती कि ये सभी मुझ पर दहेज लाने का जोर डाल रहे हैं तो हम कहीं के न रहते |फिर कुछ सोचकर मनोज ने प्रश्न किया, वैसे मान लो घर आकर अंजू के साथ कोई हादसा हो जाता है तो हम सब फंस नहीं जाएँगे ?
मैंने सभी को धीरज बंधाते हुए कहा कि अंजू ने तथा पवन ने अपनी तरफ से माफी नामा लिख दिया है | अब मैं अंजू से एक और लेख इसी आशय का लिखवा रहा हूँ कि "मैं, अंजू, यह प्रमाणित करती हूँ कि मैं अपनी पुरानी गल्तियों की माफी माँगते हुए अपने सास ससुर के साथ उनके मकान नम्बर 973 पर रहने जा रही हूं | वहाँ जाकर अगर मेरे साथ कोई अनहोनी घटना घट जाती है तो मेरे सास ससुर को किसी प्रकार का दोषी करार न दिया जाए |"
मनोज ने अपनी शंका जाहिर की, "ऐसा होने पर उनके घर वाले हमारे खिलाफ मुकदमा तो फिर भी दायर कर ही सकते हैं |"
चेतना ने भी अपने मन की दुविधा को उजागर किया, "पापा जी जीजा जी ठीक कह रहे हैं | अपना कदम अच्छी तरह सोच समझ कर ही उठाना कहीं इसमें भी कोई चाल न हो | हाँ अगर अंजू के घर वाले भी लिखकर दे रहे हों तो फिर डर की कोई गुंजाईश ही नहीं रहती |”
"मैनें अंजू से कह दिया है कि वह उस माफी नामें पर अपने घर वालों के भी दस्तख्त करा ले | वैसे अंजू ने तो दस्तख्त कर दिए हैं तथा पत्र पवन के पास है ", मैंने सभी को सूचित कर दिया |
सभी नरम पड़ते नजर आ रहे थी परंतु संतोष का दिमाग अभी भी अपने निर्णय पर अडिग था तभी तो वह बोली, "तुम सब का एक ही मतलब है कि अंजू को घर ले आऔ परंतु सब कान खोलकर सुन लो मैं उसके साथ नहीं रह सकती |"
मैंने अपनी पत्नि संतोष को समझाया, "हम कहाँ कह रहे हैं कि तुम्हे अंजू को अपने साथ रखना है या वह तुम्हारे साथ रहेगी | परंतु तुम उसे एक किराएदार की हैसियत से तो रख सकती हो ? अभी तुम्हारा लड़का किराए पर 5000 रूपये महीना खर्च कर रहा है और तुम्हारा अपना मकान खाली पड़ा है उसमें झाडू लगाना भी नसीब नहीं है |”
प्रभा ने अपने पापा जी के विचारों से सहमति दिखाई, "यह भी ठीक रहेगा कि अंजू को पहली मंजिल पर अलग रहने दिया जाए |"
"तुम सभी की चाल मैं अच्छी तरह समझ रही हूँ | सब मुझे बहला फुसला कर अंजू को घर में लाना चाहते हो | पहले मुझे यह बताओ कि वह घर छोड़कर बाहर गई क्यों थी ?” इस बार संतोष की जिद भी कुछ नरम दिखाई दी क्योंकि इस बार उसने अपने तकिया कलाम शब्द, मैं उसके साथ कतई नहीं रहूँगी, का इस्तेमाल नहीं किया था |
मनोज जी अपनी बात को मनवाने की आखिरी कोशिश करते हुए, "मेरे विचार से सब लालच छोड़कर अभी दोनों को कुछ महीने और बाहर ही रहने दो |"
परंतु मेरे विचार से अब इसकी कोई आवशयकता नहीं है | क्योंकि मेरे पास बचाव के पूरे प्रमाण हैं | मान लो अब भी अंजू या उसके घर वालों के मन में खोट है तो भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते | क्योंकि मैं उनके द्वारा लिखे माफी नामों को कोर्ट में रजिस्टर कराने जा रहा हूँ |
यह जानकर कि मैंने निशचय कर लिया है कि अब वे पवन को अपने घर में ही रखेंगे तो अपने हथियार डालते हुए मनोज ने कहा, "पिता जी, जब आपने विचार बना ही लिया है तो बहस करने की क्या आवशयकता है | हाथी के पैर में सब का पैर |"      
घर में पैसे की बढोतरी अर्थात पवन का बेफायदा बाहर रहकर किराया देने की सोचकर सभी का मन नरम पड़ गया था | खासकर संतोष का | हालाँकि संतोष उपरी मन से अभी भी अंजू को घर लाने का विरोध करती रहती थी परंतु अपने हाथ से नए नए तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर अपनी गर्भवती बहू को खिलाने की उसको बहुत उत्सुक्ता रहती थी |
आखिर थोडॆ बहुत उतार चढाव के चलते अक्तूबर 2005 में पवन एवं अंजू का घर में वापिस आना निश्चित हो गया | इस बीच मैंने पवन से यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसने अपनी ससुराल वालों से माफी नामें का पत्र लिखवा लिया है या नहीं पूछा, "अंजू तथा उसके घर वालों से माफी नामें का पत्र लिखवा कर दस्तखत तो करवा लिए होंगे ?"
पवन के यह कहने पर कि पापा जी आप किसी बात की चिंता न करें | अंजू ने अपनी तरफ से पत्र लिखकर दस्तखत कर दिए हैं तथा अब वह कभी भी जाकर अपने घर वालों से भी दस्तखत करा लाएगी | मैं आस्वसत हो गया था क्योंकि उसका लड़का उसे आसवासन दे रहा था |
जब पवन तथा अंजू पालम विहार का मकान छोड़कर अपने पिता जी के मकान पर आकर रहने लगे तो मैंने उन्हें भविष्य में सुखद जीवन जीने के लिए समझाने हेतू कुछ हिदायतें देनी उचित समझी |
मैंने कहा, "मैं तुम दोनों को एक राम बाण मंत्र देता हूँ | दोनों ध्यान से सुनो | तुम्हारी मम्मी जी व्यवहार में अपने आप को बहुत शख्त जाहिर करेंगी परंतु अन्दर से वे बहुत नरम हैं | अगर तुम दोनों उनके हर काम की तारीफ करते रहोगे तो थोड़े दिनों में ही उनका दिल एवं विशवास जीत लेने में कामयाब हो जाओगे | मसलन, मम्मी जी आपके हाथ की बनी सब्जी बहुत स्वादिष्ट बनती है, हमारी बनाई हुई चाय में तो स्वाद ही नहीं आता, आपके द्वारा बनाए गए दही बडों का स्वाद तो कुछ अलग ही होता है, वे कितने नरम होते हैं, बाजरे की खिचड़ी तो आप जैसी कोई बना ही नहीं सकता, इत्यादि
अंजू ने 973 में प्रवेश तो कर लिया था परंतु वापिस आकर वह अपने व्यवहार की वजह से अपने सास ससुर के दिल में प्रवेश न कर पाई | या ये कहो कि उसने इस बारे में अपनी तरफ से अपने सास ससुर को रिझाने की कोई कोशिश नहीं करी |
अंजू मकान की पहली मंजिल पर रहने लगी थी | वह खाने के समय नीचे उतरती तथा पूरा होने पर फिर उपर चढ  जाती | उसके पास नीचे बैठने तथा वहाँ का और काम करने का मसलन झाडू, पौछा, साफ-सफाई वगैरहका समय नहीं था | वह न किसी से बोलती न हसँती न हसाँती थी | अपनी सास से बात करना तो दूर वह उनके पास बैठना भी नहीं चाहती थी | फिर भला वह अपने ससुर द्वारा सुझाए गए राम बाण मंत्र को अंजाम कैसे देती | ऐसा लगता था जैसे वह अपने मुहँ पर ताला लगाकर आई थी | ऐसे माहौल के मद्देनजर घर में सुख शांति कैसे आ सकती थी | अंजू और उसकी सास में दूरियाँ कम होने की बजाय बढती नजर आती थी |
जब मैंने भाँप लिया कि सास बहू दोनों में से झुकने वाला कोई नहीं है तो मैंने भविष्य के लिए अपने पक्ष को मजबूत करने के विचार से अपने लड़के पवन से उस पत्र के बारे में, जिस पर अंजू के घर वालों से दस्तख्त कराने की बात हुई थी पूछा, "पवन वह पत्र कहाँ है ?"
"कौन सा ?"
"वही, जिस पर महावीर एंकलेव वालों के दस्तख्त कराने थे ?"
"मेरे पास है |"
"मुझे लाकर दो |"
पवन पत्र लेने ऊपर जाता है परंतु थोड़ी देर बाद खाली हाथ वापिस आकर, "पापा जी, वह पत्र तो मिल नहीं रहा |"
"क्यों कहाँ रख दिया ?"
"पालम विहार से सामान सिफ्ट करते समय मैनें वह किसी किताब में रख दिया था जो अब मिल नहीं रहा है |"
मैंने बड़ी आत्मीयता से ऐसे कहा जैसे उसे अपने लड़के पर पूरा भरोसा था, "कोई बात नहीं, ढूंढकर दे देना |"
परंतु मैंने अन्दाजा लगा लिया था कि पवन झूठ बोल रहा था | वह अपने पापा जी को धोखा दे रहा था क्योंकि उसने अंजू तथा उसके घर वालों से ऐसा कोई पत्र लिखवाया ही नहीं था |
टोकने के बावजूद अंजू सुबह 08-30 बजे से पहले सोकर नहीं उठती थी | उसके ससुर को नौकरी पर जाने ले लिए सुबह आठ बजे वाली बस पकड़नी पड़ती थी | ऐसे में उसकी पत्नि संतोष को ही मेरे लिए चाय नाशता बनाना पड़ता था | परंतु अगर संतोष नारायणा होती थी तो मुझे स्वयं ही मन्दिर के सामने झाडू लगाना, नहाना धोना ,नाशता, चाय, भगवान की ज्योत, आदि का इंतजाम करना पड़ता था | अंजू को इससे कोई लेना देना नहीं था |
एक दिन मैं जब अपनी जाने की तैयारी में लगा था तो उसने पवन तथा अंजू दोनों को ही साढे सात बजे के लगभग नीचे आया देखकर पूछा, "आज क्या बात हो गई जो दोनों इतनी जल्दी नीचे आ गए ?"
"टंकी में पानी नहीं है |" फिर पवन कुछ सोचकर बोला, "वैसे अंजू तो रोज सुबह जल्दी उठ जाती है |"
"परंतु मैनें तो आठ बजे तक उसे कभी नीचे देखा ही नहीं |"
पवन ने अंजू का पक्ष लेकर कहा, "नहीं ऐसी तो बात नहीं है |"
मैंने अपनी बात पर जोर देकर कहा, "बात ऐसी ही है | देख मैं 06-30 बजे उठता हूँ | 07-30 बजे तक झाडू, नहाना वगैरह करके ज्योत जलाता हूँ | 0740 पर चाय पीता हूँ और 0750 पर तैयार होकर बाहर निकल जाता हूँ | शनिवार को तो मैं 08-10 ताला लगाकर बाहर जाता हूँ | तब भी मैं अंजू को नीचे नहीं देखता | (जब मैं कह रहा था कि मैंने अंजू को 8 बजे तक कभी भी नीचे नहीं देखा तो वह चुपके से वापिस ऊपर चढ गई थी) अगर तुझे यकीन न हो तो अंजू को बुला कर पूछ ले |"
पवन के सामने कहने के बावजूद अंजू के आचरण पर कोई असर नहीं पड़ा  | अपना सिक्का खोटा समझ कर ही मुझे संतोष करना पड़ा  | क्योंकि यह तीसरा मौका था जब पवन अपनी पत्नि अंजू को सही रास्ते पर लाने में असमर्थ दिखाई दिया था |    
एक बार मुझे तीन चार दिन नारायणा ही रूक जाना पड़ा  | जब मैं 973-गुड़गाँवा पर वापिस आया तो देखा कि नीचे की दोनों मेजों पर मिट्टी की परत जमी हुई थी | मैंने सुबह से शाम तक इंतजार किया कि शायद उन को कोई साफ कर देगा | परंतु रात होने पर जब मुझे उसी मेज पर खाना परोसा जाने लगा तो मेरे  सब्र का बाँध टूट गया | अतः मैंने अपनी आवाज पर थोड़ा जोर देते हुए कहा, "इस घर में क्या हो रहा है ?"
पवन जो अंजू के साथ अभी अभी नीचे आया था तथा सामने वाली मेज की तरफ बैठ गया था पूछा, "क्या मतलब ?"
"तुझे दिखाई नहीं दे रही अपने सामने रखी हुई मेज ?"
"इसमें क्या हो गया ?"
"जरा इस पर अपना हाथ फेर कर देख तब तुझे पता चलेगा कि क्या हो गया है |"
पवन अपनी पत्नि का अप्रत्यक्ष पक्ष लेते हुए बोला, "अंजू तुमने आज मेज साफ नहीं की ?"
पहले तो मैं अपने बेटे की दलील सुनकर अवाक रह गया परंतु फिर उसे सही स्थिति से अवगत कराने के लिहाज से कहा, "पवन यह आज की धूल नहीं है | यह चार दिनों की धूल है क्योंकि जिस दिन मैं यहाँ से गया था उस दिन दोनों मेजों को खुद साफ करके गया था | उस दिन से तुम दोनों ही यहाँ उठ बैठ रहे हो | अगर ऐसे में कोई बाहर का आ जाता तो हमारे घर के बारे में क्या धारणा लेकर जाता ?"
पवन ने मेरी बात का कोई जवाब न देकर अंजू को कहा, "चल अंजू कपड़ा लाकर मेज साफ कर दे |"
मैं अब कुछ गर्मी खाकर बोला, "यह सब काम बता कर कराने के नहीं होते | यह तो खुद-ब-खुद होने चाहिए | परंतु होंगे तो तब जब तुम दोनों नीचे का हिस्सा भी अपना समझोगे |
आजकल अंजू तो घर की किसी बात में बोलती ही नहीं थी अतः पवन ही सारे जवाब सवाल खुद ही निबटाता है | इसलिए उसने कहा, "ऐसी बात तो नहीं है |"
इस पर मैंने तीसरी मेज दिखाई, "इस को देखो | इस पर कितना कुछ चिपका हुआ है | क्या कभी इस मेज पर गीला कपड़ा मारा गया है ? तुम दोनों आप मुरादे हो रहे हो | इस घर में एक पेईंग गैस्ट की तरह रह रहे हो | जिन्हे केवल रहने तथा खाने पीने से मतलब है और कोई काम उनके जिम्मे नहीं आता |" 
उस दिन तो अंजू तथा पवन मेरी बातें चुपचाप सुनते रहे | अगले दिन जब मैं नौकरी से वापिस आया तो शीशे वाली मेज, जिस पर धूल मिटी चढी हुई साफ नजर आ रही थी, कमरे से नदारद थी | वह ऊपर वाले कमरे में पहुँचा दी गई थी
अब अंजू ने नौकरी भी कर ली थी | वह सुबह नौ बजे चली जांती तथा शाम को छः बजे लौटती थी | इसी दौरान उसने एक बार फिर गर्भ धारण किया परंतु किसी खराबी के कारण मेडिकल में भर्ती कराने के बावजूद वह माँ न बन सकी | उसकी हालत देखने मैं तथा संतोष जब अस्पताल पहुँचे तो अंजू की माँ तथा भाई को वहाँ पहले से पहुँचा देखकर उन्हें बहुत असमंजस हुआ | घर आकर मैंने अपने मन की शंका को दूर करने के लिए पवन एवं अंजू को सम्बोधित करते हुए निम्न लिखित लिख कर उन्हें पढने तथा अमल करने को कहा |
पवन एवं अंजू |
10 अगस्त 2006 को अपने साथ ही अंजू की माँ तथा छोटे भाई को अस्पताल में देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गया था तथा मेरे ख्यालों में वे पुराने दिन आने लगे जब मैं ग्वालियर जाया करता था | उस समय जब सीता राम जी की माता जी उससे कुछ कहा करती थी तो मैं सीता राम की आँखों मे देखने पर पाता था कि जैसे उनकी आँखों में शोले भड़क रहे हों | एक घृणा एवं नफरत के शोले तथा जैसे मन कह रहा हो कि तुम रहने दो कलिहारी, तुमने ही तो घर बर्बाद कर रखा है | सीता राम के माता पिता के जिन्दा रहते उनकी (सीताराम) ससुराल से ग्वालियर कभी कोई नहीं आया क्योंकि वे सीताराम के माता-पिता जी को ही कसूरवार समझते थे | परंतु सीता राम का पत्र व्यवहार उनसे हमेशा चलता रहता था | माता पिता के मरते ही सब कुछ दुरूस्त हो गया | सीता राम की ससुराल वाले ग्वालियर आने लगे क्योंकि सीता राम अब मकान मालिक बन गया था | सीता राम की पत्नि जिसे दबकर अर्थात अदब से रहना पड़ता था, आजाद हो गई थी | उसके मन की मुराद पूरी हो गई थी | कसूरवार ठहराए गए सीता राम के माँ-बाप | अतः मैं साफ कर देना चाहता हूँ |
मैनें भी पवन तुम्हारी आँखों में वही अर्थात उसी प्रकार के शोले तुम्हारी आँखों में भी देखे हैं | तुम्हारे अन्दरूनी मन से आग, घृणा एवं नफरत के शोले तुम्हारी आँखों के रास्ते बाहर निकलते महसूस किए हैं |
अंजू तुम्हारे बारे में मैं कुछ कह नहीं सकता था क्योंकि तुम्हारी आँखें मेरे सामने परदे से ढ़की रहती थी | परंतु तुमने भी यह प्रत्यक्ष कर दिया था कि तुम भी एक आजाद जिन्दगी जीना चाहती हो तथा किसी के साथ अदब की जिन्दगी नहीं जीना चाहती | क्योंकि तुम मेरे सामने एक चाण्डाल का रूप बनाकर तथा अपनी सास को उंगली दिखाती हुई अनाप सनाप बोलते हुए पवन के साथ घर से बाहर चली गई थी |
मेरे विचारों के विपरीत तुम दोनों पुलिस स्टेशन चले गए तथा उसके बाद जो कुछ हुआ तुम जानते ही हो | पवन तुम्हारे जीजा जी को पीटा गया, तुम्हारी बहन जी को गन्दी गन्दी गालियाँ दी गई यहाँ तक की तुम्हारे उपर भी हाथ उठाया गया | हो सकता है उनका तुम्हारे साथ ऐसा करना एक रची गई साजिस हो | मनोज जी एवं प्रभा के बारे में तो मुझे कुछ करने की उत्सुक्ता हुई तथा जो उचित था मैनें किया | तुम्हारे साथ जो वारदात हुई थी उसका फैसला मैनें तुम्हारी ससुराल वालों के ऊपर छोड़ दिया था | क्योंकि हमारी सस्कृति के हिसाब से तुम उनके घर की सबसे बड़ी इज्जत थे तथा उनके सामने तुम्हारी बे-इज्जती करने वाले से उन्हें ही सख्ती से पेश आना चाहिए था |
पवन, अपने साले की शादी में न जाने का निर्णय भी तुम्हारे दोनों का अपना था | तुम दोनों को एक साल के लिए अलग रखने का निर्णय मुझे लेने की मजबूरी थी | वैसे अंजू व उसके घर वालों के व्यवहार से भी लगता था कि वे इसमें खुश थे |
तुम्हारे अलग रहते हुए मैनें तुम्हे हर प्रकार की सहायता देकर वापिस घर में लाने के रास्ते बनाए परंतु तुमने फिर भी मेरे से कई बातों को छुपाया | मुख्यतः वह पत्र जो तुम किताब में रखकर भूल गए थे तथा हकीकत में जो तुमने लिखवाया ही नहीं था | इससे मेरे मन में एक बार फिर शंका जाग्रत हुई थी कि शायद तुम उनके साथ साजिश का हिस्सा हो |     
तुम्हारी मम्मी के दिमाग में पुराने जमाने के रहन सहन की संस्कृति कूट कूट कर भरी है | वे उसको बदलना नहीं चाहती तथा जहाँ तक मेरा अनुभव है वे अपने ख्यालों को बदलेंगी भी नहीं | यही विचार मुझे तुम्हारे दोनों के अपने व्यवहार के लगते हैं | तुम दोनों हालाँकि इतने वर्तमानी नहीं हो फिर भी पूरे वर्तमान जमाने की तरह जीना चाहते हो | तभी तो घर वापिस आने पर भी तुम्हारे रहन सहन में कोई बदलाव नहीं दिखता | तुम दोनों एक पेईंग गैस्ट की तरह रह रहे हो जिसमें समय पर केवल दो समय के खाने का प्रावधान है | अगर समय पर वह न खाया गया तो उसकी भी छुट्टी |
मैं तुम दोनों को कई बार समझा चुका हूँ कि अपनी मम्मी जी से किस प्रकार पेश आऔ जिससे उनका मन प्रसन्न रहे तथा उनके दिल से तुम्हारे प्रति आशिर्वाद निकले | परंतु शायद तुम दोनों को उनके आशीर्वाद का कोई मतलब नहीं लगता तभी तो तुमने मेरी सिखाई एक भी बात को अमल में लाने की कोशिश नहीं की |
हो सकता है तुम दोनों अपनी मम्मी जी को अनपढ़ गंवार समझकर तथा अपने को ज्यादा पढ़ा लिखा समझ कर ऐसा करते हो | परंतु इतना तो तुम दोनों भी महसूस करते होगे कि दूख के समय तुम्हारे कौन काम आता है | वही औरत जिसे तुम दोनों जाहिल तथा गंवार समझते हो | वही औरत जिसे अंजू अपने पास बैठाने में भी कतराती है तथा जिसको अंजू इस लायक भी नहीं समझती कि उनको अपने पास बैठने के लिए भी कहा जाए |
अब भी समय है अपने अहंकार एवं बदले की भावना को मन से निकालकर अपनी मम्मी जी की दुआएँ, आशीर्वाद तथा बलाएँ लेने का मार्ग अपना लो | सुख पाओगे | यह मेरी एक राय है बाध्यता नहीं |
पवन तुम्हारी ससुराल में भी मैनें तुम्हे कई बहानों से भेजना चाहा परंतु मुझे पता नहीं कि तुम गए या नहीं | अब इतना आभास अवशय हो गया है कि तुम्हारी वहाँ से सूचना लेने देने की प्रक्रिया चल रही है | इस बारे में भी मैं तुम्हे बता देना चाहता हूँ कि वहाँ न जाने का फैसला भी तुम्हारा था | मेरी और से तुम्हारे वहाँ आने जाने में कोई रोक टोक नहीं है | तुम दोनों महावीर एंकलेव वालों से जैसा व्यवहार रखना चाहो रख सकते हो मुझे कोई एतराज नहीं होगा | बल्कि मैं तो चाहता हूँ कि तुम्हारी जिन्दगी खुशियों से भरी रहे |

परंतु इतना अवशय कहूँगा कि सिर झुकाकर, अपनी इज्जत को पैरों तले रूंदवा कर या दास की तरह बन कर फैसला मत कर लेना | जिससे जिन्दगी भर शर्मिन्दगी तथा जिल्लत का जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हो जाओ |        

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