Monday, September 11, 2017

मेरी आत्मकथा -1 (जीवन के रंग मेरे संग) बचपन

मेरी आत्म कथा
जीवन के रंग मेरे संग
(1)

एक मार्च 1980 की रात के आठ बजे होंगे | बाहर घना अंधेरा छाया हुआ था | बादलों की गड़गड़ाहट तथा बिजली की चमक से पता चला कि शायद बारिश होने वाली है | घुप अंधेरा हो गया था | गली में चलने वाला दिखाई नहीं दे रहा था कि कौन जा रहा था केवल उसकी पदचाप ही सुनाई देती थी | सामने दादी के घेर में पड़ी टीन पर बून्दों के गिरने से टन टन की आवाज से पता चला कि बून्दा बान्दी शुरू हो गई थी | उसी घेर में घास फूंस से बने एक छप्पर की आड़ में दो दिन पहले ही एक कुतिया ने बच्चे दिए थे | वैसे तो थोड़ी ठंड का मौसम था परंतु वर्षा प्रारम्भ होने से शायद पिल्ले भीग गए थे अतः उनकी कूँ कूँ करने की आवाज सुनाई देने लगी थी | इतने में तेज चलती सैं सैं करती हवा के एक ठंडे झोंके ने अपनी दुकान में बैठे मेरी रूह को कपाँ दिया | मैं सिमट कर बैठ गया | बाहर हो रही बून्दा बान्दी तथा ठंडी हवा के चलने से दूकान पर ग्राहक आने भी बन्द हो गए थे |
मैं अकेला बैठा अपने अतीत के बारे में सोचने लगा | इस समय हम दस भाई बहन हैं | मेरी एक छोटी बहन का बचपन में ही देहांत हो गया था | इस प्रकार गिनती में मैं अपने परिवार में मध्य में आता था | अर्थात मैं नीचे से भी छठा था तो उपर से भी छठा था | अब मेरे से छोटी सभी बहनें हैं तथा मेरे से बड़े तीन भाई तथा दो बहनें हैं | मेरे पूज्य पिता जी, लाल राम नारायण मंगल, का स्वर्गवास मेरी शादी के दो वर्ष बाद 1970 में ही हो गया था | उन्हें हमारे गाँव नारायणा में रामलीला के मंचन का संस्थापक कहा जाता है क्योंकि पहली बार उनकी पहल पर ही गाँव में रामलीला का आयोजन किया गया था | पूज्य पिताजी के रहते तक हमारा परिवार एक सम्मिलित परिवार था | हालाँकि उनकी मृत्यु के बाद हम सभी भाई अलग अलग रहने लगे हैं परंतु बड़ों को पूरी इज्जत देते हुए सभी शादी, विवाह, भात आदि का लेन-देन, एक साथ मिलकर किया जाता है |
मेरे बड़े भाई साहब शिव चरण गवर्मैंट आफ इंडिया प्रैस में कार्यरत हैं | उनसे छोटे ज्ञान चन्द, गाँव में ही अच्छे खासे जनरल मर्चैंट का काम सम्भाले हुए हैं तथा मेरे से बड़े औम प्रकाश सरकारी स्कूल मास्टर लगे हुए हैं | उन सभी के पास घर में हर सुविधा उपलब्ध है | मसलन फ्रिज, कूलर, टी.वी., स्कूटर,सोफा इत्यादि | इस प्रकार उन तीनों का परिवार अच्छा खाता पीता परिवार है | परंतु मेरे पास इनमें से अभी कोई वस्तु नहीं है | मैं चार पाँच महीने पहले ही अपने भाईयों के उकसाने पर भारतीय वायु सेना की नौकरी छोड़कर आया हूँ | यहाँ आकर  यही गनीमत है कि मेरी पूज्य माता जी श्रीमति सरबती देवी की वजह से मुझे फिलहाल सिर छुपाने के लिये छत तथा अपने पिताजी की जायदाद में से कुछ हिस्सा मिल गया है |  जो भी मिला मैं उसी में खुश हूँ |
मेरे पैदा होने के समय में बच्चे के जन्म-मृत्यु का कोई हिसाब नहीं रखा जाता था | जब भी बच्चा स्कूल में भर्ती कराया जाता था अन्दाजा लगाकर उसकी जन्म तिथि दर्ज कर दी जाती थी | बच्चे की पढाई पर माँ बाप अधिक ध्यान नहीं देते थे | बच्चा स्कूल जाए या न जाए, पढे या न पढ़े, यहाँ तक कि उसके खाने-पीने पर भी कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती थी | भाई बहन आपस में मिलकर ही अपना जीवन निर्वाह कर लेते थे |
कहते हैं बचपन में मैं बहुत कमजोर सेहत का लड़का था परंतु पढ़ाई लिखाई में काफी अच्छा था | मुझे याद है कि हमारा स्कूल गाँव के बाहर एक चार दिवारी के अन्दर टैंटों में लगता था | पक्के के नाम पर मात्र एक कमरा था जिसमें स्कूल का हेड मास्टर बैठता था तथा ऐसा सामान रखा जाता था जिसका बाहर खुले में रखने से खराब हो जाने का डर था | बच्चों की स्कूल ड्रैस जरूर थी परंतु उसका पालन मुश्किल से ही किया जाता था | पढ़ने वाले बहुत से बच्चे तो नंगे पैर ही स्कूल में आते थे |
सुलेख लिखने के लिए लकड़ी की तख्तियों का इस्तेमाल किया जाता था रोजाना स्कूल से घर जाकर पहला काम यही होता था कि तख्ती को रगड़ रगड़ कर धोना | फिर उस पर मुल्तानी मिट्टी का लेप चढ़ा कर धूप में सूखने के लिए रखना |  जिससे उस पर अगले दिन फिर कलम द्वारा काली स्याही से लिखा जा सके | अगर तख्ती को जल्दी सुखाना होता था तो उसे मुल्तानी मिट्टी से पोतकर हवा में लहराते हुए बरबस मुंह से एक कविता सी फूट पड़ती थी ‘सुख-सुख पाटी, चन्दन घाटी’ |
तख्ती से याद आया | मेरे साथ मेरे ही नाम राशी का एक और लड़का पढ़ता था | मैं जितना डरपोक एवं कमजोर था वह उतना ही निडर तथा बलिष्ठ था | उसमें उदंडता कूट कूट कर भरी हुई थी | ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब उसकी शिकायत मास्टर या उसके घर वालों के पास न पहूँचती थी | इसी वजह से उसका नाम ही नटखट पड़ गया था | सुना गया है कि सचिन तेन्दुलकर जिस बैट से क्रिकेट खेलता है वह और सभी के बैटों से भारी होता है | उसी प्रकार नटखट के पास जो तख्ती थी वह और बच्चों की तख्तियों से लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई तथा वजन में दोगुनी ही बैठती थी | वह लड़का शरारत तथा लड़ाई झगड़े का एक चलता फिरता पुतला था | थोड़ी सी बात पर ही वह भड़ककर अपना आपा खो देता था | रोज एक दो बच्चों की तख्तियाँ फाड़ना तो उसका असूल सा बन गया था | पढ़ाई लिखाई में उसकी कोई रूचि नहीं थी |   
नटखट के कारनामों से तंग आकर एक बार मौह्ल्ले के सभी लड़कों  ने मिलकर उसको सबक सिखाने की योजना बनाई | शाम को सभी बच्चे मिलकर गाँव के बाहर मैदान में खद्दा-खोली का खेल खेला करते थे | उस दिन भी सभी खेल रहे थे | अपनी पूर्व योजना के अनुसार उस नटखट लड़के के खेल में बेईमानी करने पर सभी ने उसे पीटना शुरू कर दिया | परंतु थोड़ी देर में ही सभी यह देखकर दंग रह गए कि वह नटखट अकेला ही उन सभी बच्चों पर भारी पड़ने लगा था | इस पर सभी लड़के भागकर अपनी जान बचाने के लिए अपने घरों में घुस गए | उस नटखट लड़के ने वहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा तथा इस चक्कर में कई घरों के दरवाजों को बहुत नुकसान पहुँचाया | बड़ी मुश्किलों से उसके घर वाले उस पर काबू पा सके | उस दिन के बाद उस नटखट बच्चे ने स्कूल जाना ही छोड़ दिया | परंतु व्यस्क होते होते उस नटखट बालक में अप्रत्याशित एवं आश्चर्य जनक बदलाव आया | अब वह अपने व्यवहार में सभ्य, सुशील, कोमल एवं भद्र बन गया है |
आजकल की तरह उन दिनों गाँव के स्कूलों में बैंच या डैस्क नहीं होते थे | बच्चों को जमीन पर बीछे फर्शों पर ही बैठना होता था | जिसकी वजह से पहने हुए कपड़े एक ही दिन में गन्दे हो जाया करते थे | कपड़ों पर प्रैस करना तो कोई जानता ही न था |  अगर कहीं रिस्ते नाते में जाना पड़ता था तो धुले कपड़ों की सलवटें हटाने के लिए उनकी तह बनाकर रात को सोते समय उन्हें अपने तकिए के नीचे या बिस्तर के नीचे दबाकर सो जाते थे |       
स्कूल में कोई बिरला बच्चा ही होता था जो पैरों में जूते पहन कर आता था |
लिखने पढ़ने के लिए इस्तेमाल  होने वाली किताबें, कापियाँ वगैरह हमारे गाँव में नहीं मिलती थी | अगर किसी भी सामान की जरुरत पड़ती थी तो गाँव से लगभग तीन मील दूर सदर-देहली कैंट या फिर गोपी नाथ बाजार जाना पड़ता था |
एक बार हमारे स्कूल में जादूगर का तमाशा हुआ था | हमारी अध्यापिका ने उस पर एक लेख लिखकर लाने को कहा | मेरे पास कापी नहीं थी तथा मैं सदर से ला भी न सका था | अगले दिन जब स्कूल में अध्यापिका ने मुझे अपना लेख पढ़ने को कहा तो मैं अपनी पुरानी कापी खोलकर झूठ्मूठ ही पढ़ने लगा जैसे सचमुच में ही मैंने लिखा हुआ था | अध्यापिका ने मेरा लेख बहुत सराहा था | शायद उन्हें मेरी चालकी का पता भी न चलता अगर एक लड़के ने मेरा भंडाफोड़ न कर दिया होता | इस पर अध्यापिका ने चेतावनी देते हुए इतना ही कहा कि वैसे तुम्हारा प्रयास अति उत्तम है फिर भी आईन्दा ऐसा न करना |
उन दिनों आजकल की तरह बच्चों के खाने के लिए कुरकुरे, चिप्स, 5-स्टार चाकलेट, केडबरी, पतीशा, हाजमोला, कैम्पा इत्यदि नहीं मिलते थे | स्कूल के बाहर महज एक पंडित जी बैठते थे जो संतरे की टॉफी, पानी पताशे, और पिसे चूर्ण की पुड़िया रखते थे | गर्मियों में बर्फ की बनी चुस्की मिलती थी | बरसात के दिनों में तो ये सब चीजें मिलनी भी मुश्किल हो जाती थी |  |   
बरसात के दिनों में हमारी गली में पानी ऐसे भरकर चलता था जैसे कोई नदी बह रही हो | ऐसे में बड़े आदमी बच्चों को अपनी कमर पर लाद कर घर तक पहुँचाते थे |
घरों में पानी का कोई साधन नहीं था | पीने के लिए घर से लगभल एक किलोमीटर दूर स्थित बनिए वाले कुएँ से भरकर सिर पर ढोकर लाना पड़ता था | कपड़े धोने के लिए गाँव के चारों कौनों पर बने जोह्ड़ अर्थात तालाब या खेतों में चलते रहट अथवा बैलों द्वारा खींची जा रही मसक से आने वाले पानी का ही सहारा लेना पड़ता था | मसक खीचते हुए बैलों के गले में बंधी घंटियों की झनझनाहट तथा भरी मसक को पकड़ने वाले किसान की गुनगुनाहट बहुत ही मधुर एवं मनमोहक वातावरण बना देती थी |
उन दिनों में इक्का दुक्का खुला सिनेमा घर होता था वह भी गाँव से कोसों दूर | अतः जाना ही मुश्किल हो जाता था | टेलिविजन, कमप्यूटर की तो बात सपने में भी नहीं सोची जा सकती थी | यहाँ तक कि घरों में बिजली भी नहीं थी | रात को मोमबती, डिबरी या लालटेन का ही सहारा था | पखाने के लिए खुले में पहाड़ो पर जाना पड़ता था |
खेलों में, पहाडू, पिट्ठू, खद्दा खोली, कंचे, गिल्ली डंडा, लट्टू तथा ताश ही मुख्य थे | आजकल के बच्चों को तो इनमें से कई खेलों के बारे में तो पता ही नहीं होगा कि वे खेले कैसे जाते हैं | और हमारे जैसों के लिए वे केवल यादें ही बन कर रह गई हैं | पहाडू खेलने से बच्चों में निडरता आ जाती थी तथा वे अंधेरे में कहीं भी जाने में किसी प्रकार का डर महसूस नहीं करते थे | इस खेल में दो पार्टियाँ बन जाती थी | एक पार्टी के बच्चे गाँव के बाहर खेतों तक में जाकर छिप जाते थे और उसके बाद उनका एक साथी पहाडू कहकर भागकर उनसे जा मिलता था | दूसरी पार्टी के सदस्य उन्हें ढूढ़ने निकल पड़ते थे | खेतों में छुपे बच्चे वहाँ बोई गई गाजर, मूली, खरबूजे तथा खीरे आदि का खुब लुत्फ उठाते थे | इस तरह रात को खेले जाने वाले इस खेल से बच्चे निडर हो जाते थे |
बच्चों के मन में केवल एक ही चीज का डर बसा रहता था वह था भूत | उन दिनों भूतों की कहानियाँ बहुत प्रचलित थी | इस लिए शमशान घाट अर्थात चौहानी के रास्ते का इलाका शाम ढ़लते ढ़लते विरान हो जाता था |      
गाँव के स्कूल से पाँचवीं पास करने के बाद साईंस लेने के लिए मुझे आई.ए.आर. आई पूसा के स्कूल में दाखिला लेना पड़ा था | यह स्कूल मेरे घर से छः मील दूर था | आने जाने के लिए कोई सवारी न थी अतः पैदल ही आना जाना पड़ता था | गाँव से स्कूल जाने का रास्ता शमशान घाट तथा इन्द्रपुरी होकर जाता था | इन्द्र्पुरी और मेरे गाँव के बीच एक छोटी सी पहाड़ी पडती थी | सर्दियों के दिनों में शाम को जब मैं स्कूल से लौटता था तो अन्धेरा घिर आता था | इन्द्रपुरी की पहाड़ी से शमशान घाट नजर आते ही पैर आगे चलने के लिए मना कर देते थे | फिर वहाँ बैठकर वह टुकड़ा पार करने के लिए किसी व्यस्क राहगीर की इंतज़ार करनी पडती थी |
गाँव के स्कूल और इस स्कूल के वातावरण में बहुत भारी अंतर था | फिर भी किसी तरह मैनें अपने को उस वातावरण में ढ़ालने में अधिक देर न लगाई | दसवीं कक्षा तक मेरी पढ़ाई बहुत अच्छी चली |
मेरा नया स्कूल को.एजूकेशन था | अर्थात यहाँ लड़के और लड़कियाँ साथ साथ पढ़ते थे |
वैसे तो ज़माना बदल गया है परन्तु एक चीज रत्ती भर भी नहीं बदली | वह है लड़के लड़की का एक दूसरे के प्रति खिंचाव | उस जमाने में भी १३-१४ वर्ष का होते होते ऐसे कई किस्से सुनने को मिल जाते थे और आज तो इनकी  भरमार है | मेरे स्कूल के दिनों में मैं महसूस करता था की बहुत सी लड़कियां मेरी और आकर्षित हो रही हैं परन्तु यह सोचकर रह जाता था की शायद यह मेरी गलत फहमी है | क्योंकि  तो मेरा रंग गोरा था ही मैं अपने को इतना खूब  सूरत समझता था | मैं तो गांव का रहने वाला एक सीधा साधा सांवले रंग का लड़का था |
उन्ही दिनों मेरे भाई साहब ज्ञान चंद  की शादी हुई | मै अकसर उनके साथ उनकी ससुराल जाया करता थावहां मै इस आकर्षण से बच सका और उस कच्ची उम्र में मुझे भी एक  लड़की ने अपनी और आकर्षित कर लिया | हांलाकि एक समय वह सीमा लांघने को तैयार थी परन्तु मैंने अपना संयम खोया और दोनों को मजधार में बहने से बचा लिया | (पूरी कहानी मेरे उपन्यास 'आत्म तृप्तिमें पढ़ें)

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