Thursday, September 28, 2017

मेरी आत्मकथा-11 (जीवन के रंग मेरे संग) अहंकार का अंत

मेरी आत्मकथा-11  (जीवन के रंग मेरे संग) अहंकार का अंत 
मेरा मकसद यह कतई नहीं था कि मैं पटनी को मात देना चाहता था | मेरा लक्ष्य तो पटनी के अहंकार को तोकर उसे सही रास्ता दिखाना मात्र था | जैसे एक बार वीर हनुमान महाबली भीम के रास्ते में अपनी पूंछ बिछाकर बैठ गए थे | जब भीम ने अपना रास्ता अवरूध्द देखा तो उसके मन में अहंकार आया कि एक अदना से बूढ़े बन्दर की यह औकात कि मेरे जैसे बलशाली का मार्ग रोककर एक तरफ पड़ा है | भीम ने गरज कर कहा, ओए बन्दर मेरे रास्ते से अपनी पूंछ हटा ले वरना इसे तोड़ दूंगा |
हनुमान ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया, महाशय देख रहे हो मैं बहुत बूढा हो गया हूँ | आप ही मेरी सहायता करें तथा मेरी पूंछ उठाकर एक तरफ रख दें और अपना रास्ता बना लें |
भीम ने सोचा कि रास्ता क्या बनाऊंगा इस बन्दर की पूंछ पककर इसे ही घुमाकर दूर फैंक देता हूँ | इसी मकसद से महाबली भीम ने झुककर वीर हनुमान जी की पूंछ पकड़ी और उसे झटके से उठाने का यत्न किया | परन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब वह, अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद, उस पूंछ को टस से मस न कर सका | बाद में यह पता चलने पर कि वह बन्दर वास्तव में वीर हनुमान जी हैं तो भीम ने उनसे अपने अपशब्दों के लिए क्षमा माँगी तथा कहा, मान्यवर आज आपने मेरा गरूर एवं अहंकार समाप्त कर दिया है |
इसी तरह पटनी भी अपने को विदेश व्यापार शाखा का बेताज बादशाह समझने लगा था | वह अहंकार से भर गया था तथा उसकी यह धारणा बन गयी थी कि उसके कहे को कोई टाल नहीं सकता, बदल नहीं सकता तथा किसी की हिम्मत नहीं कि कोई उसके सामने बोल सके | जब पटनी हर प्रकार से मेरा निर्णय बदलवाने में नाकामयाब हो गया तथा उसे महसूस हो गया कि अब इस बारे में उसकी कोई मदद नहीं कर सकता तो उसने मेरा समर्पण करवाने के लिए एक नीच तथा घिनौनी चाल चलने की रूप रेखा तैयार कर ली |
उसी प्लान के तहत एक दिन जब मैं रोजमर्रा की तरह सुबह अपनी डयूटी के लिए विदेश व्यापार शाखा के प्रांगण में जाने लगा तो गेट पर खड़े राम चन्द्र अरोड़ा ने मेरा रास्ता रोककर कहा, आप आज अंदर मत जाओ |  
मैनें आश्चर्य से पूछा था, क्यों आज क्या हो गया है ?
अरोड़ा ने मुझे बाजू से पकड़ा और गेट के एक तरफ ले जाकर बताया, आपके सारे साथी बैंक के पिछवाड़े वाले बस स्टैंड पर बैठे हैं |
मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था तथा इस बात से अनभिज्ञ था कि आखिर वे ऐसा क्यों कर रहे हैं अतः पूछा, परन्तु क्यों ?’
राम चन्द्र ने अपनी बात दोहराई, आप भी उनके पास चले जाओ |
मैनें पूछा, वहाँ कौन कौन है ?
उसने गिनवाया, चारों हैं, रिडला, जगदीश, नरेश गर्ग तथा डाल चंद |
उनके पास जाने से पहले मैनें एक बार फिर जानने हेतू पूछा, परन्तु उनके वहाँ बैठने का कारण क्या है ?
इस बार राम चन्द्र ने राज की बात बताई, आप लोगों को आफिसर की पावर नहीं मिलती, उसके लिए |
मुझे अपनी बात मनवाने का यह रास्ता मुनासिब नहीं लगा इसलिए अपने मन की बात कही, यह बात तो अंदर काम करते हुए भी सुलझाई जा सकती है |
राम चन्द्र ने एक नेताई अंदाज में अपना पक्ष रखा, भाई गुप्ता क्या सीधी अंगुली से कभी घी निकलते देखा है ?
परन्तु....... |
मेरी बात पूरी होने से पहले ही राम चन्द्र ने मुझे बाहर की और धकेलते से जोर दिया, परन्तु वरन्तु कुछ नहीं | आप चले जाओ | आज ही फैसला हो जाएगा |
मैं अपना मन मार कर बस स्टैंड की तरफ चल तो दिया परन्तु मुझे ऐसा आभाष हो रहा था जैसे कुछ गलत हो रहा है | मेरा यह संदेह और भी पक्का हो गया क्योंकि जाते हुए जब मैनें पीछे मुकर देखा तो राम चन्द्र और पटनी आपस में एक दूसरे के हाथ पर हाथ मारकर खूब जोर से हंस पड़े थे |  
बस स्टैंड पर पहुँच कर मैंने पाया कि मेरे चारों साथी वहाँ बैठे धूप सेक रहे थे | वे किसी प्रकार भी विचलित दिखाई नहीं पङ रहे थे | उनको निश्चिंत देखकर मैनें सवाल किया, आप सबको यहाँ किसने भेजा है ?
रिडला बोला, राम चन्द्र अरोड़ा ने | 
उसके कहने भर से आप सब यहाँ आकर बैठ गए, आखिर माजरा क्या है ?
पटनी कह रहा था कि वह हमें आफिसर की पावर दिलाएगा”, जगदीश ने तपाक से जवाब दिया | 
पटनी ने ही राम चन्द्र अरोड़ा को शाखा के गेट पर खड़ा कर रखा था तथा हिदायत दे रखी थी कि किसी भी खजांची को शाखा में प्रवेश न करने दे | उसके अनुसार जब खजाने का काम पूरी तरह ठप्प हो जाएगा तो मजबूरन अधिकारियों को हमारा भत्ता मंजूर करना पडेगा | ऐसा हमारी एकता से ही मुमकिन हो सकता है, यह कहकर रिडला ने अपनी मुट्ठी भींच कर यह जताने की कोशिश की कि हम सब को भी एक हो जाना चाहिए |
सो तो ठीक है परन्तु बैंक का काम ठप्प करना मुझे जंचता नहीं”, मैनें अपना मत प्रकट किया |
शायद पटनी ने उन चारों को अच्छी तरह सिखाकर भेजा था | इसलिए वे एक साथ बोले, हमें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है | ये पटनी जैसे नेता ही जानते हैं कि अधिकारियों से काम कैसे कराया जाता है | चिंता छोडो और चलो हमारे साथ पिक्चर देखने |
मेरे चारों साथी तो पिक्चर देखने चले गए परन्तु मैंने, मन में बगावत की ग्लानी समेटे, अपने घर की राह पकड़ ली | मैं कुछ निढाल सा होता जा रहा था अतः घर जाने से पहले रास्ते में मैनें अपने घरेलू डाक्टर को दिखाना ठीक समझ उसके पास चला गया | मुझे देखकर डाक्टर ने एक साथ कई सवाल पूछ लिए, कहो गुप्ता जी कैसे आना हुआ, आज आफिस नहीं गए, आज तुम्हारा चेहरा भी कुछ उदासीनता लिए है, तबीयत तो ठीक है ?
मैं कुछ सुस्ताया सा कुछ अलसाया सा होने के बावजूद आज का पूरा विवरण अपने डाक्टर को समझा दिया | मेरा मुआवना करने पर डाक्टर ने पाया कि उन परिस्थितियों से उत्पन्न तनाव के कारण मुझे थोड़ी हरारत हो गयी थी | इसलिए कुछ दवाई देकर डाक्टर ने मुझे आराम करने की सलाह दे दी तथा एक सर्टिफिकेट भी बनाकर दे दिया कि मैं उसकी देख रेख में दवाई ले रहा हूँ | अपने तजुर्बे से डाक्टर ने मुझे सलाह भी दे दी कि मैं उस सर्टिफिकेट को संभालकर रखूँ क्योंकि हो सकता है वह काम आए | परन्तु उस समय मै उस सर्टिफिकेट की महत्ता से अनभिज्ञ था | 
अगले दिन जब मैं आफिस पहुंचा तो वास्तव में ही वहाँ तहलका मचा हुआ था | सभी कर्मचारियों की जबान पर सभी खजान्चियों के एक साथ छुट्टी लेने की चर्चा थी | हांलाकि मेरे खजाने के सभी साथी वहाँ मौजूद थे परन्तु उनमें से किसी से किसी ने कुछ नहीं पूछा | अलबत्ता मुझे देखते ही सभी मेरी और लपके और एक एक करके पूछने लगे |  
कमल : गुप्ता जी, कल क्या हो गया था ?
बीमार था |
रमण: परन्तु यहाँ तो कुछ और ही चर्चा हो रही है |
क्या ?
कि आपने ही सभी खाजान्चियों को उकसाया था |
मैनें ! किस बारे में ?
सिंघल: हाँ कहा जा रहा है कि तुमने ही उन्हें यह सलाह दी थी कि सब एक साथ छुट्टी मार लो तभी अधिकारियों को हमारा भत्ता बढाने की याद आएगी |
यह बात सुनकर कि मैनें ही सभी खजान्चियों को भकाया था मेरा माथा ठनका | मन ही मन मैनें विचार लगाया कि हो न हो यह पटनी द्वारा मुझे फ़साने कि कोई न कोई चाल है | मैं संभल गया और जैसे कल के बारे में कुछ जानता ही न था आशचर्य जताते हुए बोला, परन्तु कल तो मैं यहाँ आया ही नहीं | कल तो मैं बीमार था |
दिन के बारह बजते बजते सभी खजान्चियों को नोटिस थमा दिए गए जिसमें लिखा था,आप कल सभी खजान्चियों के साथ बैंक से अनुपस्थित रहे | इससे लगता है कि आप सब ने जानबूझ कर एक साथ मिलकर बैंक के काम को रोकना चाहा | यह एक जुर्म है | इस लिहाज से बैंक क्यों न आपके खिलाफ कार्यवाही करे | अपना जवाब एक सप्ताह के अंदर लिख कर दें |
मुझे दिए गए नोटिस में एक पंक्ति और जोड़ दी गयी थी, माना जाता है कि आप इस घटना के सरगना थे |    
मैंने महसूस किया कि बाकी के मेरे साथियों के चेहरों पर चिंता की कोई झलक नहीं थी | वे निश्चिन्त अपना काम करने में लग गए | मैं इसका कारण समझ नहीं पाया कि उन पर इतने बड़े इलजाम लगने के बाद भी वे बिना किसी डर भय के सहज भाव से काम कैसे कर रहे हैं | इस मामले में जितना दोषी मुझको ठहराया गया है उतने वे भी तो हैं | मेरी तरह उन्हें भी कारण बताओ नोटिस मिला है | फिर भला वे कैसे इतनी निश्चिन्तता लिए हैं जैसे उनके साथ कुछ हुआ ही नहीं |
अगले दिन से पटनी के गुर्गे एक एक करके मेरे पास आकर अपनी अपनी सहानुभूति जताने लगे | उन सभी का एक ही मकसद होता था कि मैं किसी तरह पटनी की शरण में चला जाऊं क्योंकि उनके मतानुसार वही एक ऐसा आदमी था जो मुझे मेरे बैंक से मिले नोटिस का सही जवाब देकर मेरे ऊपर छाए गर्दिश के बादलों का रूख बदल सकता था | मेरे प्रति खोखली सहानुभूति रखने वाले सभी लोगों ने सबसे पहले मेरे से यही सवाल किया था, गुप्ता जी क्या सोचा ?
मैं भी उनसे प्रश्न करता था, किस बारे में?
वे कहते, बैंक से मिले नोटिस के बारे में | 
मेरा भी सभी के लिए नपा तुला जवाब होता था, अभी तो जवाब देने में समय है इसलिए फिलहाल कुछ नहीं सोचा?
वे ऐसा दिखाते जैसे उन्हें मेरी असल में ही बहुत फ़िक्र थी और उनके पास इस दुविधा से बचाव का एक बहुत ही आसान रास्ता है | वे कहते, कुछ सोचने की जरूरत नहीं है |
मैं पूछता, तो फिर मैं क्या करूँ?
मेरे ऐसा पूछने पर उनके चहरे गुलाब की तरह खिल जाते थे जैसे उन्हें उनकी मंजिल मिल गयी हो और वे एकदम कहते, पटनी के पास चले जाओ क्योंकि दूसरे सभी खजान्चियों का जवाब उसने लिखकर जमा भी करा दिया है | वह तुम्हारा जवाब भी जमा करा देगा |
पटनी के इन आदमियों की बातों की वजह से इस बात का राज तो खुल गया था कि मेरे दूसरे साथियों को उन्हें मिले नोटिस की चिंता क्यों नहीं थी | कहते हैं न कि ‘सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का’ अर्थात मेरे दूसरे सभी साथियों को पहले से ही पटनी ने आशवासन दे दिया था कि उन्हें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है वह सब संभाल लेगा | पूरी प्रतिक्रिया पर चिंतन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि यह घिनौनी चाल मुझे पटनी के सामने झुकने पर मजबूर करने ले लिए रची गयी थी | परन्तु मुझे इस बात का भी मलाल था कि जिन व्यक्तियों की सहायता के लिए मैनें यह झंझट मोल लिया था वे ही पटनी के चलाए कुचक्र में फंस कर मुझे मात दिलाने में शरीक हो गए | परन्तु आखिर में उन्हें मिला क्या? सभी को चेतावनी |
माना जाता है कि पक्षियों में कौवा, जानवरों में सियार तथा मनुष्यों में नाई सबसे चतुर एवं चालाक होते हैं | परन्तु कभी कभी अपनी चालाकी और चतुराई से ये खुद ही विपत्ति में फंस जाते हैं | या अपने कारनामों से इन्हें दूसरों के सामने नीचा देखना पड़ जाता है | जैसे अपने को बहुत चालाक एवं चतुर समझने वाले एक नाई को बादशाह अकबर के दरबार में बहुत जिल्लत का सामना करना पड़ा था |
यह तो सर्व विदित है कि बादशाह अकबर के अधिकतर दरबारी बीरबल की वाकपाटुता एवं बुद्धिमानी से खार खाते थे तथा बादशाह के सामने दरबार में उसे नीचा दिखाने की फिराक में लगे रहते थे | एक बार सभी ने मिलकर दरबार के नाई से कहा कि वह कोई ऐसा रास्ता बताए जिससे बिरबल को बादशाह के सामने नीचा देखना पड़े |
नाई ने फ़टाफ़ट एक युक्ति सुझाते हुए दरबारियों से कहा कि वे बादशाह को सलाह दें कि उनके पूर्वजों को मरे कई वर्ष हो गए हैं अत उन्हें किसी को स्वर्ग भेजकर उनके कुशल क्षेम के बारे में तहकीकात करवा लेनी चाहिए | सभी दरबारियों के अनुरोध पर बादशाह अकबर ने बीरबल को इस काम के लिए नियुक्त भी कर दिया | बीरबल बिना किसी हुज्जत के इस कार्य को अंजाम देने के लिए तैयार हो गया तथा बादशाह से एक महीने का समय मांग कर अपने घर को चला आया | इस दौरान बिरबल ने खुफिया तौर पर यह पता कर लिया कि इस सारे प्रकरण का सूत्रधार दरबार का नाई था |
एक महीने बाद बीरबल ने दरबार में हाजिर होकर बादशाह को सूचना दी, जहांपनाह के पूर्वज बिलकुल स्वस्थ एवं कुशलता पूर्वक सुखी जीवन का निर्वाह कर रहे हैं | परन्तु उनके सामने एक समस्या है |
समस्या का नाम सुनकर दरबार में सन्नाटा छा गया | समस्या के बारे में सुनने को सभी के कान खड़े हो गए | सभी की निगाहें बीरबल पर टिकी थी तथा सभी बात सुनाने को आतुर दिखाई दे रहे थे | चुप्पी तोड़ते हुए बीरबल ने कहना शुरू किया कि जहांपनाह उनकी दाड़ी और बाल बहुत बढ़ गए हैं क्योंकि वहाँ कोई नाई नहीं है |अतः महाराज आप से मेरा नम्र निवेदन है कि जल्दी से जल्दी वहाँ एक नाई को भेज दिया जाए | इस तरह नाई को अपने ही बुने जाल में फंसकर राज दरबार छोड़ना पड़ा था | उसका गिड़गिडाना, बच्चों की दुहाई देना तथा माफी माँगने का बादशाह पर कोई असर नहीं हुआ | इसी प्रकार पटनी के बुने जाल में फंसकर मेरे साथियों को नाहक में बैंक की तरफ से चेतावनी झेलनी पडी थी |         
मैं जानता था कि पटनी मुझे कारण बताओ नोटिस दिला कर बहुत खुश हो रहा होगा | वह, मुंगेरी लाल के सपनों की तरह, आस लगाए बैठा होगा कि मैं अब उसकी शरण में आऊंगा, उसके सामने गिड़गिडाउँगा, रोकर बच्चों की दुहाई दूंगा, हाथ जोड़कर माफी मांगूगां तथा पैर पकड़ कर कहूँगा कि मुझे इस इल्जाम से छुटकारा दिला कर इस  मुसीबत से बचाओ | पटनी मेरा इंतज़ार करता ही रह गया | वह सोचता ही रह गया कि मैं अब आया कि तब आया और नोटिस को मिले पांच दिन बीत गए |  
आज नोटिस के उत्तर देने का आख़िरी दिन था | विदेश व्यापार शाखा के गेट पर पटनी के खैर ख्वाह खड़े मेरा डयूटी पर आने का इंतज़ार कर रहे थे | वे आशा लगाए थे कि हो न हो आज तो गुप्ता अवश्य ही पटनी के सामने घुटने टेक देगा | जब मैं चुपचाप जाकर अपने काम में मशगूल हो गया तो वे इस भरम में मेरे इर्द गिर्द चक्कर लगाने लगे कि कहीं मैं उनसे कुछ कहूँगा | परन्तु मुझे न पटनी की शरण में जाना था न गया |
जो व्यक्ति फ़ौज के हुक्मरानों के सामने न झुका हो तथा निडरता से उनसे अपनी बात मनवा कर रहा हो वह भला बैंक के एक अदना से नेता के सामने कैसे झुक सकता है | जैसे यह बात प्रचलित है कि एक बार पंजाब के चीफ मिनिस्टर बंसी लाल के सामने उसके राज्य के शिक्षक अपनी बाहों पर उसके खिलाफ काली पटटी बांधकर रोष प्रकट करने खड़े हो गए | उनकी काली पटटी देखकर बंसी लाल ने कहा था, इन काली कातराँ तै तम मैनें के डराओ सो, जब मैं पैदा हुआ था तो मेरी माँ ने बीस गज काले कपड़े का घागरा पहन राखा था |  
मुझे अपनी कलम पर पूर्ण विश्वास था तथा अपने आप पर भरोसा था कि मैं अपने आप में नोटिस का जवाब देने में समर्थ हूँ | इसलिए मैनें नोटिस का जवाब लिखा और बिना किसी को बताए शाखा की डाक सैक्शन में जमा करा कर अपने घर का रास्ता पकड़ लिया | मैनें लिखा था:
श्री मान प्रबंधक जी |
आपका कारण बताओ नोटिस मिला | आपने जो लिखा कि मैनें जान बूझकर, सोलह तारीख को, बैंक का कार्य रोकने की कोशिश की थी वह इल्जाम बे-बुनियाद है | मैं उस दिन बीमार था तथा डाक्टर ने मुझे आराम करने की सलाह दी थी | सबूत के तौर पर डाक्टर का सर्टिफिकेट सलग्न है |
आपका
चरण सिहं गुप्ता
मेरे पत्र के जवाब में बैंक के हुक्मरानों ने मुझे एक चेतावनी पत्र थमा दिया | मेरे साथ सभी अन्य खाजान्चियों को भी उसी आशय का पत्र दिया गया था | पत्र में लिखा था, अबकी बार आपको माफ किया जाता है परन्तु यह चेतावनी दी जाती है कि भविष्य में ऐसी हरकत नहीं होनी चाहिए वरना शख्त कार्यवाही की जाएगी |
हालांकि मेरे सभी साथियों ने वह चेतावनी भरा पत्र कबूल कर लिया परन्तु मुझे कोई भी चेतावनी मंजूर न थी इसलिए मैंने बैंक के हुक्मरानों को एक पत्र और लिखा, मैं इस चेतावनी को स्वीकार नहीं करता अत: पूरे प्रकरण की छानबीन की जाए |
मेरा ऐसा जवाब पाकर भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा में हडकंप मच गया क्योंकि जांच होने के नाम पर पटनी की शरण में गए सभी खाजान्चियों की भी जांच होनी थी | और ऐसा होने से कलई खुलने का डर था | मामला रफा दफा करने के अलावा बैंक के हुक्मरानों के पास पटनी के पक्ष में रहने का और कोई चारा न था | फिर भी पटनी को महसूस हो गया था कि उसने बादशाह अकबर के दरबार के नाई की तरह मुहं की खाई थी |          
कहा गया है कि रस्सी के जल जाने पर भी उसके बल नहीं जाते परन्तु वह नरम पड़ जाती है तथा उसमें ताकत नहीं रहती | ऐसा ही पटनी के साथ हुआ | जिसके रौब के सामने कोई टिक नहीं पाता था तथा जिससे पहले सब माँगते थे अब उसने खुद मांगना व रिझाना शुरू कर दिया था | एक दिन दोपहर के खाने के समय पटनी ने अपने सहयोगियों से कहकर गुरूद्वारा बंगला साहिब के बाहर बागीचे में भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा के कुछ कर्मचारियों को इकट्ठा किया | उसमें आने वाले कुछ खास सदस्य पटनी, अरोड़ा, मनचंदा, अग्रवाल, रिडला, जगदीश, डाल चंद, रमण, कमल, सिंघल, गुप्ता और मैं था |
समय कम था अत: बैठते ही अरोड़ा ने मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा, पटनी कह रहा है कि अगर  आप चाहो तो हम आपको अपनी युनियन में, बिना खिलाफत के, खजांची का पद देने को तैयार हैं |  
मैंने बिना सोचे कहा, नहीं चाहिए |
रमण ने पटनी की तरफ से लालच दिया, और कोई पद चाहिए तो वह भी मिल सकता है |
नहीं चाहिए |
जैसे पुराने जमाने के नवाबों की फांके मारने की स्थिति आ जाने पर भी अंत तक उनकी अकड बरकरार रहती थी उसी प्रकार पटनी भी अपनी आदत से मजबूर दिखता था | मेरी दो बार ‘नहीं चाहिए’ सुनकर वह झुंझला उठा तथा चीखा, तो तुझे क्या चाहिए |
मैनें अपना संयम नहीं खोया और बड़ी निर्मलता से कहा, केवल एक दिन के लिए खजाने से बाहर जाना |
पटनी अकड़कर बोला, वह नहीं मिल सकता |
अबकी बार मैं खडा होकर बोला, तो फिर क्यों सिर खपा रहे हो, जाओ |       
बात इतनी जल्दी बिगड़ते देख मुझे और कई प्रकार के झांसे देने की कोशिश की गयी परन्तु मैं अपने ध्येय से टस से मस न हुआ और सभा बर्खास्त कर दी गयी | इसके बाद अगले कुछ दिनों तक शाखा के बहुत से मौजिज व्यक्तियों ने मसलन शाखा के आफिसर, साथियों, कोषाध्यक्ष यहाँ तक कि शाखा के प्रबंधक ने भी मुझे पटनी के पक्ष में ढालने का नाकाम प्रयत्न किया | मैं भी अपनी जिद पर अड़ा रहा कि मुझे केवल एक दिन के लिए खजाने से बाहर की डयूटी करने के बाद फिर से खजाने में मनोनीत करने से कोई आपत्ति नहीं होगी |
पटनी और मेरे बीच चलते शीत युद्ध को कुछ और समय व्यतीत हुआ कि देहली में एशियाड १९८२ के खेलों का आयोजन प्रारम्भ हो गया | एशियाड ८२ की मैनेजिंग कमेटी ने खेलों के लिए टिकट बेचने के लिए बैंको से सहायता माँगी | समझौते के तहत भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा से छ: लोग नियुक्त होने थे | पटनी ने अपने को बेताज बादशाह समझकर, बिना किसी से सलाह मशवरा किए, अपना सिक्का चलाते हुए सभी अपने गुट के लोगों को टिकट बांटने के लिए मनोनीत कर दिया | बाद में जब औरों को पटनी के इस रवैये की भनक लगी तो उसके विरोध में आवाजें उठने लगी | मैनें भी इस बारे में एक अर्जी लगाकर अपनी दलील पेश कर दी |   
मान्यवर,
वैसे तो तीन साल से मुझे बाध्य किया जा रहा है कि मैं खजाने में ही काम करता रहूँ क्योंकि कहा जाता है कि मेरा पद एक खजांची का है | परन्तु अब जबकि एशियाड ८२ के खेलों के टिकट बेचने के लिए खाजान्चियों की आवश्यकता पडी है तो एक भी खजांची को इस काम के लिए मनोनीत नहीं किया गया | नेताओं का यह दोगला रवैया केवल अपने साथियों को आर्थिक लाभ पहुंचाने की एक सोची समझी चाल नहीं तो और क्या है ? मैं जानना चाहता हूँ कि समझौते के अनुसार टिकट बेचने के लिए खाजान्चियो की जरूरत होने के बावजूद एक भी खजांची को इस काम के लिए मनोनीत क्यों नहीं किया गया ?
धन्यवाद
***** 
एशियाड ८२ को लेकर पटनी के विरोध में कानाफूसी तो पहले से ही हो रही थी परन्तु मेरे अर्जी डालने से बहुत से लोग खुलकर सामने आ गए | पटनी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे कभी इतने भारी विरोधाभास का सामना भी करना पड़ सकता है | उसकी नाक में दम आ गया | उसने सोचा कि अपने खिलाफ बढ़ते विरोधाभास को खत्म करने के लिए उसका विरोध करने वाले पेड़ की जड़ को सींचने के अलावा उसके पास और कोई चारा नहीं बचा था | उसने मुझे खजाने से बाहर निकालने में ही अपनी भलाई समझी | शेर को बेदम होता जान भेड़िया भी उस पर झपटने की ताक में रहने लगते हैं | मेरी लक्ष प्राप्ति के साथ ही पटनी के रौब और अहंकार का पतन होना शुरू हो गया था |   

                     

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