Tuesday, September 19, 2017

मेरी आत्मकथा-6 (जीवन के रंग मेरे संग) पढने की ललक

मेरी आत्मकथा-6 (जीवन के रंग मेरे संग) पढने की ललक
दमे की बिमारी की वजह से बैंगलोर से मेरी मेडिकल ग्राउंड पर शुष्क इलाके के लिए जोधपुर बदली कर दी गई | जोधपुर मेरे लिए बहुत ही भाग्यवान सिद्ध हुआ तथा वहाँ का मौसम वास्तव में ही मेरे लिए बहुत खुशियाँ लेकर आया | एक तो वहाँ जाकर मेरा स्वास्थय ठीक रहने लगा दूसरे मेरे आगे पढ़ने की मन की मुराद मुझे पूरी होती नजर आई |
जोधपुर में मैनें जो पहला मकान किराए पर लिया उन दम्पति की दो लड़कियाँ थी | हमारे अलावा उसके यहाँ एक किराएदार और था | | एक दिन रात को हम सो रहे थे | रात के दो बजे थे | अचानक अन्दर डंडे से किसी की पिटाई का शोर सुनकर नीदं खुल गई तो देखा कि घर के चारों सदस्य उस दूसरे किराएदार की बेरहमी से पिटाई कर रहे थे | वह व्यक्ति खुनम खून हो रहा था | जब वह बेदम सा हो गया तो उन चारों ने मिलकर उसे बाहर फैंक दिया और देखते ही देखते घर की ऐसी सफाई कर दी जैसे वहाँ कुछ हुआ ही न था | लड़कियाँ बहुत सुन्दर थी परन्तु उनके ऐसे कारनामें देखकर उनको मैनें सुनहरी नागिन नाम दे दिया था | एतियात के तौर पर मैने वहाँ अधिक रहना उचित न समझ मकान बदल लिया |
मुझे एक मकान जो हाईकोर्ट के चपड़ासियोँ के लिए बने थे वह मिल गया | यह मकान मुझे खूब फबा | इसका मालिक दिलीप अपने खुद के मकान में रहता था अतः मुझे किसी की दखलन्दाजी नहीं सहनी पड़ी | जब तक मैं जोधपुर में रहा मैं उसी मकान में रहा | जब मैं वहाँ अच्छी तरह जम गया तो मैनें आगे पढ़ने की जुगत लगानी शुरू कर दी |    
जम्मू के बाद पिछले आठ वर्षों में मुझे ऐसा कहीं भी कोई मौका नहीं मिला था कि मैं कोई परीक्षा दे पाता | जोधपुर का ऐसा माहौल था कि मुझे पढ़ाई करने का बहुत समय मिल सकता था | इसलिए बिना समय गवाँए मैं आगे पढ़ने की इच्छा लिए जोधपुर यूनिवर्सिटी के आफिस पहुँच गया तथा पूछताछ वाली खिड़की पर जाकर पूछा, "भाई साहब मैनें जम्मू यूनिवर्सिटी से 1964 मेँ बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा पास की थी क्या मैँ अब(1972 में) आपकी यूनिवर्सिटी से द्वितिय वर्ष की परीक्षा दे सकता हूँ |"
जवाब मिला, "नहीँ आप यहाँ से द्वितिय वर्ष की परीक्षा में नहीं बैठ सकते |"
कानून से अनभिज्ञ मैनें उस कलर्क से पूछा,क्यों भाई साहब ?"  
खिड़की पर बैठे व्यक्ति ने बताया, "क्योंकि यह कानून है कि जहाँ से प्रथम वर्ष की परीक्षा पास की गई है उसी यूनिवर्सिटी से द्वितिय वर्ष की परीक्षा पास करना अनिवार्य है |"
मैनें अपनी दलील देते हुए कहा, "परंतु फौज में रहने के कारण 1964 के बाद मुझे कोई मौका ही नहीं मिला कि मैं आगे परीक्षा दे पाता |"
"मुझे तो इतना ही पता है बाकी आप हमारे रजिस्ट्रार के आफिस से पूछताछ कर लो", खिड़की पर बैठे लिपिक ने नेक सलाह दी |
लिपिक की बात सुनकर एक बार तो मैं मायूस हो गया था तथा दोबारा प्रथम वर्ष पास करने से राजी न होकर आगे पढ़ना ही छोड देता | परंतु फिर यह बात सोचकर कि शायद रजिस्ट्रार कोई रास्ता सुझा दें मेरे कदम उनके आफिस की तरफ बढ गए |
जब मैं रजिस्ट्रार के आफिस पहुँचा तो रजिस्ट्रार श्री ए.के.चक्रवर्ती खाली बैठे थे | अच्छा मौका देख मैं दरवाजे पर दस्तक देकर उनके आफिस में सीधा घुस्ता चला गया  तथा अनजाने में अपनी आदत के अनुसार अपने सामने बैठे रजिस्ट्रार को फौजी अन्दाज में एक सल्यूट ठोक दी | रजिस्ट्रार मुस्कराए बिना न रह सका | उसने मुझे उपर से नीचे तक देखकर पूछा, "कहो जवान कैसे आना हुआ | मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ ?"
एक बार तो मैं अपनी मुद्रा पर झिझक गया परंतु रजिस्ट्रार द्वारा पूछे गए प्रेम भाव से भरे शब्दों को सुनकर सम्भल गया और अपनी आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर कर दी | मेरी बात सुनकर एक बार तो रजिस्ट्रार ने भी मना कर दिया कि मैं उनकी यूनिवर्सिटी से द्वितिय वर्ष की परीक्षा में नहीं बैठ सकता परंतु फिर न जाने क्या सोचकर उन्होने मेरे से पूछा, "क्या तुम्हारे पास एक अंतर्देशीय पत्र है ?"
मुझे रजिस्ट्रार का वह प्रश्न कुछ अटपटा सा लगा फिर भी कहा, "अभी तो नहीं है साहब जी, कहो तो ला देता हूँ ?"
"हाँ एक अंतर्देशीय पत्र ले आओ |"
मैनें रजिस्ट्रार को एक अंतर्देशीय पत्र लाकर तो दे दिया परंतु यह मेरी समझ के बाहर था कि आखिर वह उसका करेगा क्या ? पत्र लेकर रजिस्ट्रार ने उस पर कुछ लिखा तथा वापिस मुझे थमाते हुए हिदायत दी, "बाहर जाकर इसे अभी डाक बक्से में डाल दो |" और हाँ भगवान से प्रार्थना करो कि तुम्हारे लिए आगे पढ़ने का मार्ग प्रशस्त करे | मैं अपनी तरफ से कोशिश कर रहा हूँ आगे उसी की कृपा पर निर्भर रहेगा | आप 15 दिनों बाद आकर पता कर लेना कि आपकी किस्मत में क्या है |    
रजिस्ट्रार ने शायद जानबूझकर अपने खत को चिपकाकर बन्द नहीं किया था | इसलिए डाक बक्से में डालने से पहले मैनें उसका मजबून पढ़ लिया, लिखा था :-
श्री मान,
रजिस्ट्रार जी
जम्मू युनिवर्सिटी
सविन्य निवेदन है कि मेरी जोधपुर युनिवर्सिटी से एक सैनिक, जिसने 1964 में आपकी युनिवर्सिटी से बी.ए. प्रथम वर्ष पास किया था, बी.ए. द्वितिय वर्ष की परीक्षा में बैठना चाहता है | इस दौरान फौज की जिम्मेदारियों को निभाते रहने की वजह से इसे परीक्षा देने का कहीं मौका नहीं मिला | इस सैनिक की आगे पढ़ने की रूचि को जानकर ही मैं आपसे अनुरोध करने पर बाध्य हुआ हूँ | आशा है आप इसे अनुमति प्रदान करेंगे |
धन्यवाद |
आपका
ए.के.चक्रवर्ती
रजिस्ट्रार जोधपुर युनिवर्सिटी
पंद्रह दिनों बाद मैं जब रजिस्ट्रार से मिला तो उन्होने मुझे बधाई देते हुए बी.ए. द्वितीय वर्ष में दाखिला लेने की अनुमति दे दी | मेरी खुशी का पारावार न रहा | जितना जल्दी हो सका मैनें कालिज में दाखिला ले लिया |
कालिज खुलने का पहला दिन था | चारों और लड़के लड़कियों के झुंड नए नए परिधानों में हँसते चहकते वातावरण को खुशनुमा बना रहे थे | एक दूसरे से पहचान बनाने की कोशिश की जा रही थी | मैनें अपनी पहचान बनाने के लिए एक नायाब तरीका ढ़ूढ़ निकाला | ज्यों ही विद्यार्थी कक्षा में जाकर अपनी सीटों पर बैठे मैं मंच पर चढ़कर प्रोफेसर के लिए रखी गई कुर्सी के पास जाकर खड़ा हो गया | मंच पर 6 फुटे जवान को सामने खड़ा देख सभी बैठे हुए विद्यार्थी, यह सोचकर कि मैं प्रोफेसर हूँ, खड़े होकर मेरा अभिवादन करने लगे | मैनें लड़कों को बैठने का इशारा करके उन्हें नए कोर्स की शुरूआत होने की शुभकामनाएँ दे दी | अपने मन के मुताबिक होते देख मैनें भी सभी को एक एक करके अपना अपना परिचय देने के लिए कहा | परिचय की कसरत अभी चल ही रही थी कि असली प्रोफेसर कमरे में दाखिल हो गए | मैं चुपके से मंच से उतर कर पीछे एक खाली सीट पर जा बैठा | सभी विद्यार्थीयों की मुस्कान भरी नजर एकबार को मेरी और उठ गई | मैं कक्षा में अपनी पहचान बनाने के मकसद में सफल हो चुका था |    
अब तक मैं दो बच्चों का बाप बन चुका था | देवलाली रहते हुए बड़ी लड़की प्रभा का जन्म 1970 में गवालियर के एक अस्पताल में हुआ था | जबकि उससे छोटे लड़के प्रवीण का जन्म 1972 में बेस अस्पताल देवलाली में हुआ था | बचपन में मेरी लड़की इतनी मोटी थी कि उससे चला नहीं जाता था | हम मियाँ बीबी दोनों उसे गेन्द पकड़ने के बहाने धक्का देकर चलाने की कोशिश करते थे | वह बचपन में बहुत नटखट थी| कभी वह कक्षा में अपने आगे बैठे बच्चे की पीठ पर चित्रकारी कर देती थी तो कभी किसी बच्चे की कापी पर स्याही उड़ेल देती थी | अत: जोधपुर के स्कूल से उसकी शरारतों की शिकायत आती रहती थी |
मैने जोधपुर युनिवर्सिटी से स्नातक तथा स्नातकोत्तर की प्रथम वर्ष की परीक्षा पास कर ली | इन परिक्षाओं को पास कराने में मेरी पत्नि संतोष का बहुत बड़ा योगदान रहा | पहले तो उन्होने  पढ़ाई करने के लिए मुझे प्रेरित किया तथा फिर रात रात भर मेरे साथ जागकर मेरा हौसला बढ़ाया | रात को अगर किसी वस्तु मसलन चाय, पानी या कुछ खाने की जरूरत पड़ती तो वह हाजिर रहती थी वे अगर ऐसा व्यवहार न करती तो शायद मैं आगे पढ़ न पाता |
रात में जागने पर मुझे एक किस्सा याद आ रहा है | जब मैं भारतीय वायु सेना में बैंगलोर में ट्रेनिंग कर रहा था तो वहाँ एक ही बैरक में लगभग 30 जवानों के रहने का प्रबंध होता था | एक जवान की चारपाई दूसरे जवान की चारपाई से महज 3 फुट की दूरी पर रहती थी | हमारी क्लास में जो पढ़ाया जाता था उसको मैं वहीं दोहरा लेता था इसलिए मुझे रात को पढ़ने की जरूरत नहीं होती थी | अतः मैं जल्दी सो जाता था | आप सभी ने यह तो देखा ही होगा कि अमूमन बस में लिखा होता है कि अगली तीन सीटों पर सोना मना है वह शायद इसीलिए कि साथ वाले को सोता देखकर बस के ड्राईवर को भी नींद आने लगती है | इसी प्रकार मेरी चारपाई के आसपास वाले जवान रात को जागकर पढ़ना चाहते थे परंतु मुझे सोता देखकर उन्हें भी जम्हाई आने लगती थी और उनकी पढ़ाई में विघ्न पड़ता था | इससे निपटने के लिए उन्होने एक योजना बनाई | रात को मुझे जगाते रहने के लिए बैरक से प्रत्येक दिन बारी बारी से एक जवान की मुझे बाहर घुमाने की डयूटी लगने लगी थी | अतः मैं मानता हूं कि मेरी स्नातकोत्तर की डिग्री मुझे मेरी पत्नि की देन है |
स्नातकोत्तर की प्रथम वर्ष की परीक्षा पास करने के बाद मेरा तबादला देहली की एक नई यूनिट, जो दिचाऊँ कला-नजफगढ के खेतों के बीच स्थापित की गई थी, में हो गया | इस नए राडार पर काम करने के लिए सभी को बारी बारी से छ: महीने की ट्रेनिंग लेनी होती थी | इस यूनिट में आते ही उसके कमांडिंग आफिसर स्क्वाड्रन लीडर माथुर ने मेरा नाम कोर्स के लिए भेज दिया तथा मुझे बुलाकर ताकीद करते हुए कहा, "कल से आपको कोर्स की क्लासों में जाना है |"
मै अपने कमांडींग आफिसर को सूचना देते हुए बोला, "सर, मुझे जोधपुर युनिवर्सिटी से एम.ए.फाईनल की परिक्षाएँ देनी हैं |"
शायद माथुर मेरी बात कुछ समझ नहीं सका इसलिए पूछा, "तो इससे क्या ?"
"सर यह कोर्स छ: महीने का है और मेरी परिक्षाएँ तीन महीने के अन्दर कभी भी हो सकती हैं |"
"इससे कोई फर्क नहीं पड़ता |"
"सर मुझे कोर्स में जाने पर आपको कोई एतराज तो नहीं होगा ?"
"फिर आप कहना क्या चाहते हो", माथुर ने पूछा ?
इस पर मैनें अपनी बात खुलकर कही, "सर जब भी मेरी एम.ए. फाईनल परिक्षाओं की सूची आ जाए तो उसी अनुसार आप मुझे परीक्षा देने की अनुमति दे देना |"
फिर मैनें एक सुझाव भी दिया, "सर, बेहतर होगा अगर आप मेरा नाम अगले कोर्स के लिए निश्चित कर दें |"
कमांडिंग आफिसर माथुर ने मुझे आश्वासन देते हुए कहा, "नहीं नहीं छुट्टियों की परवाह मत करो | जब भी आपकी परिक्षाओं की तिथियाँ होंगी आपको छुट्टियाँ मिल जाएँगी |"
अपने कमांडिंग आफिसर का पक्का आश्वासन पाकर मैं खुशी खुशी राडार का नया कोर्स करने लगा | कोर्स को चलते अभी तीन ही महीने हुए थे कि जोधपुर यूनिवर्सिटी से मेरी स्नातकोत्तर की फाईनल परिक्षाओं की सूची आ गई | उसको अपने कमांडिंग आफिसर को दिखाते हुए मैं बोला, "सर, मेरी परिक्षाओं की सूची आ गई है अतः मुझे छुट्टियाँ प्रदान की जाएँ |" 
माथुर जैसे ऐसी किसी बात से अनभिज्ञ था आश्चर्य की मुद्रा दिखाकर, "छुट्टियाँ !"
मैनें अपनी बात पर जोर दर्शाते हुए, "हाँ सर, छुट्टियाँ |"
मेरे कहने की परवाह न कर माथुर ने कहा, "परंतु तुम तो कोर्स कर रहे हो ?"
मैनें अपने कमांडिंग आफिसर को याद दिलाने की चेष्टा की, "हाँ सर, परंतु यह कोर्स शुरू होने से पहले ही मैनें आपको इस बारे में अवगत करा दिया था |"
माथुर को जैसे कुछ याद ही न हो, "किस बारे में अवगत करा दिया था ?"
"सर, यही कि लगभग तीन महीने बाद मेरी एम.ए. की परीक्षा होंगी तथा मुझे जोधपुर जाकर परीक्षा देने के लिए छुट्टियाँ चाहिएंगी |"
माथुर के लिए जैसे मेरी एम.ए. की परीक्षा कोई मायने नहीं रखती पूछा, "परीक्षा देना क्या जरूरी है ?"
मैने अपना दृड़ निश्चय जाहिर किया, "हाँ सर, यह परीक्षा मेरे लिए बहुत जरूरी है क्योंकि मैनें आगे नौकरी न करने की मंशा जाहिर कर रखी है |"
माथुर ने भी अपनी मजबूरी जताई, "शायद मैं आपको कोर्स बिना पूरा किए छुट्टियाँ प्रदान न कर सकूँ |"
मैनें अपने कमांडिंग आफिसर को एक बार फिर उसका वचन याद दिलाने की कोशिश की, "सर, आपने मुझे वचन दिया था कि आप मुझे मेरी परिक्षाओं के लिए छुट्टियाँ प्रदान कर देंगे |"
"मैं मजबूर हूँ", माथुर ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपनी असमर्थता जाहिर कर दी |
मैं किसी कीमत पर भी परीक्षा में बैठने का मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता था | इसके लिए मैनें अपने कमांडिंग अफसर को एक युक्ति सुझाई | इसके तहत मैनें बताया कि मेरी चार परिक्षाएँ होनी हैं जो हर शनिवार को दोपहर दो बजे होनी है | अगर मुझे हर शनिवार को छुट्टी मिल जाए तो मैं अपनी परीक्षा देने में सफल हो सकता हूँ |
"वह कैसे ?"
"सर मैं हर शुक्रवार की शाम को जोधपुर मेल से जाकर, शनिवार को पेपर देकर, वापिस रविवार को आ सकता हूँ और सोमवार को अपना कोर्स भी कर सकता हूँ अतः मुझे केवल चार दिनों की छुट्टियों की ही जरूरत पड़ेगी |"
माथुर को कुछ सोचते देख मुझे लगा था कि शायद वह मेरी युक्ति पर राजी हो जाएगा परंतु मुझे बहुत धक्का सा लगा जब माथुर ने इसके लिए भी मना कर दिया | यह जानते हुए भी कि उसकी फरियाद अगर उसका अपना कमांडिंग अफसर ही नहीं सुनता है तो स्टेशन कमांडर से याचना करना बेकार होगा क्योंकि चोर चोर मौसेरे भाई | फिर भी यह सोचकर कि शायद काम बन जाए मैनें सुझाया, "सर, तो क्या स्टेशन कमांडर से आज्ञा ली जा सकती है ?"
मुझे वैसा ही जवाब मिला जिसकी मुझे आशा थी, "स्टेशन कमांडर मेरी मर्जी के खिलाफ नहीं जाएँगे |"
अपने कमांडिंग आफिसर माथुर के कहने के अन्दाज से साफ जाहिर हो गया था कि उसकी मंशा नहीं थी कि मुझे परीक्षा में बैठने का कोई मौका दिया जाए | उसकी प्रवृति  से साफ पता चल गई थी कि वह एक सैनिक को उन्नति करते नहीं देख सकता था |  
मैं हताश निराश तथा दुखी मन से वापिस घर आ गया था | रात को आँखो से नीदं गायब थी | बिस्तर पर करवट बदलते हुए सोचने में मशगूल था कि कैसे इस समस्या का निवारण हो | सोच रहा था कि मुझे भारतीय वायु सेना की नौकरी तो छोड़कर जाना ही है अतः एयरफोर्स के इस कोर्स का न तो मेरे लिए कोई महत्व है न ही एयरफोर्स के लिए मुझे कोर्स करवाना किसी लाभ का है | परंतु स्नातकोत्तर की डिग्री बाहर सिविल में मेरे लिए बहुत महत्व रखेगी | इसी उधेड़ बुन के चलते थक हारकर भगवान के भरोसे छोड़कर मैं सो गया था | रात को नीदं में एक सपने के माध्यम से मुझे एक सलाह मिली |
उसी सलाह अनुसार मैं सुबह अपने कमांडिंग आफिसर माथुर से जाकर बोला, "सर, अगर आप मुझे परीक्षा में बैठने की अनुमति देने में असमर्थ हैं तो मेरी फीस के पैसे जो मैनें जोधपुर युनिवर्सिटी में परीक्षा के लिए जमा करवा रखे हैं वे तो बचवा सकते हैं |"  
माथुर आश्चर्य से तथा चेहरे पर मुस्कान लाकर सुनने के लिए अधीर होते हुए, "जल्दी बताओ वह कैसे ?"
"सर आपको मुझे एक सर्टिफिकेट देना होगा |"
"कैसा सर्टिफिकेट ?"
"यही कि फौज की इमरजैंसी डयूटी चलते रहने के कारण सैनिक को उसकी परिक्षाओं के लिए छुट्टियाँ प्रदान नहीं की जा सकती अतः आप से निवेदन है कि उसकी इस वर्ष की भरी हुई फीस अगले वर्ष के लिए मुकर्रर कर दी जाए और मैं जाकर आपका पत्र युनिवर्सिटी में जमा करवा दूंगा |
"बहुत सुन्दर आपकी यह युक्ति बहुत कारगर रहेगी, मुस्कराकर माथुर ने पूछा, "कब जाना होगा ?"
"सर, परसों मेरी परीक्षा का पहला दिन है इसलिए आपका पत्र उससे पहले ही जमा कराना होगा |"
माथुर के मन में जैसे लड्डू फूट रहे हों वह उतावला होकर बोला, "फिर देर किस बात की है छुट्टियों के लिए अर्जी लाओ | मैं अभी मंजूर कर देता हूँ |" 

माथुर की मनः स्थिति को भाँपकर, कि देखो यह माथुर परिक्षाओं में बैठने के लिए मुझे चार दिनों की छुट्टियाँ देने की मनाही कर रहा था जबकि इस काम के लिए तीन दिनों की छुट्टियाँ देते हुए कितना खुश प्रतीत हो रहा हैमेरे अंतर्मन में एक बार को बहुत भारी गुस्से का संचार हुआ था | क्योंकि माथुर का यह रवैया अपने सैनिकों के प्रति एक घृणात्मक दृष्टिकोण दर्शा रहा था | मैनें इधर उधर की बातों में उलझने से बेहतर अपना काम सिद्ध किया और रात को जोधपुर मेल पकड़ ली |                                                                                                                                                                 क्रमशः

No comments:

Post a Comment