Sunday, September 24, 2017

मेरी आत्मकथा-10 (जीवन के रंग मेरे संग) अहंकारी

मेरी आत्मकथा-10 (जीवन के रंग मेरे संग) अहंकारी 
२१ मार्च १९८० को जब मैं पहले दिन अपने आफिस गया तो वहां पर पहले से नौकरी कर रहे लोग, दो गुटों में, मुझे मेरी भारतीय स्टेट बैंक की नियुक्ति पर बधाई देने आए | ये गुट बैंक में दो विरोधी यूनियनों के खेमे से ताल्लुक रखते थे | फ़ौज में तो कोई युनियन होती नहीं है | इसलिए इन सब झंझटों से अनभिज्ञ मैंने किसी भी गुट में सम्मिलित न होने का फैसला कर लिया परन्तु ऐसा करने में भी लफड़ा होता नजर आता था | क्योंकि मैनें महसूस किया कि अगर मेरे जैसा व्यक्ति किसी एक संगठन के व्यक्ति से हंस बोलकर बातें कर लेता था तो दूसरे गुट के सदस्य सोचने लगते थे कि वह तो गया हमारे हाथ के नीचे से | शायद इन मामलों में छोटे नेताओं का दिमाग भी संकीर्ण होता है |
उन दिनों भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा की यूनियन का सैकरेटरी एस.के.पटनी था | उसकी सेहत मनुष्यों के हिसाब से एक हाथी से कम न थी | चलते हुए भी उसकी चाल एक झूमते हुए मस्त हाथी की तरह लगती थी | उसे कभी भी किसी प्रकार की कोई जल्दी नहीं होती थी | वह बैंक का खुद तो कोई काम करता नहीं था ऊपर से जहां भी वह बैठ जाता था तो आसपास की सीटों पर काम कर रहे कर्मचारियों का काम भी ठप्प करा देता था | जब बैंक के आला अधिकारी ही उसके सामने बोलने से कतराते थे तो भला बैंक के और कर्मचारियों की क्या बिसात थी कि उसके सामने अपना मुहं खोल सकते |
विदेश व्यापार शाखा का चीफ मैनेजर सुरेन्द्र सिहं भी पटनी की सलाह लिए बिना कर्मचारियों के बारे में कोई निर्णय नहीं लेता था | पटनी का शाखा में इतना दबदबा था कि उसको बताए बिना मैनेजर द्वारा एडमिनिस्ट्रेटिव निर्णय लेना तो दूर की बात थी उसमें इतना दम नहीं होता था कि किसी कर्मचारी की छुट्टियाँ तक भी मंजूर कर सके | पटनी को उस समय का, भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा का, बेताज बादशाह कहना अतिशयोक्ति न होगी | परन्तु भगवान ने अपनी रणनीति में बदलाव की ऐसी बिसात बिछा रखी है कि उससे कोई नहीं बच सकता | पटनी भी उस बिसात के मद्देनजर एक दिन राजा से रंक बन कर रह गया |      
१९८० के दशक में भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा में चलन था कि जब भी नई भर्ती के लोग उसमें नियुक्त होकर आते थे तो सबसे पहले उनसे खजाने के आधीन खजांची के रूप में काम लिया जाता था | बैंक में भर्तियाँ हर छ: महीने बाद होती थी | जब अगली भर्ती होती थी तो खजाने में पहले से काम कर रहे लोगों को वहाँ से हटा कर कलर्क के रूप में नियुक्त कर दिया जाता था और नए लोगों को उनके स्थान पर खजाने में लगा दिया जाता था | ऐसा इसलिए किया जाता था क्योंकि लोगों का मानना था कि खजांची की डयूटी जोखिम एवं पाबंदी की होती है इसके विपरीत कलर्क एक खुले वातावरण में बिना किसी जोखिम एवं पाबंदी के काम करता है |
जो व्यक्ति सोलह वर्ष फ़ौज की नौकरी करके आया हो, जहां हर कदम पर पाबंदी होती है, उसे भला बैंक में खजाने  की पाबंदी, पाबंदी कैसे महसूस होती | यही कारण था कि नए लोगों  की तीन चार भर्तियाँ आने के बावजूद मैनें  अपनी तरफ से सीट बदलवाने की कोई इच्छा व्यक्त नहीं की थी | मैं खुशी खुशी ढाई साल से खजानें में काम कर रहा था क्योंकि मुझे वहाँ किसी प्रकार की कभी दिक्कत महसूस नहीं हुई थी | मेरे साथ चार लके रिडला, जगदीश, गर्ग, तथा डाल चंद भी खजाने में काम कर रहे थे |
एक दिन गर्ग ने मेरे से कहा, गुप्ता जी मैं अब खजाने से बाहर जाना चाहता हूँ |
मैनें सीधे स्वभाव उत्तर दिया, तो जाओ |
वह तो ठीक है परन्तु”, कहकर गर्ग चुप सा हो गया |
मैं गर्ग की हर बात से अनजान था इसलिए बोला,  “परन्तु क्या ? अरे नई भर्ती के लोग आ गए हैं तुम्हें खजाने से बाहर जाने में कोई दिक्कत नहीं होगी |”
गर्ग ने डरते हुए से फिर वही राग अलापा, हाँ जा तो सकता हूँ परन्तु....|
इस परन्तु से आगे भी बढ़ो गर्ग जी | आपको क्या परेशानी आ रही है ?
गर्ग ने कुछ साहस बटोर कर अपनी जबान को आगे बढ़ाया, मैनें पटनी को अपनी बाहर जाने की बात कही थी |
फिर |”
पटनी ने कहा, गुप्ता को तो खजाने में काम करते हुए ढाई साल हो गए हैं उसने तो अब तक एक बार भी नहीं कहा कि वह खजाने से बाहर की ड्यूटी करना चाहता है |
मै कुछ सोचकर बोला, ये तो कोई तुक नहीं हुई | अगर मैं आगे नहीं बढ़ना चाहता तो इसका मतलब यह तो नहीं है कि अपने पीछे खड़े होने वालों का रास्ता रोक दूं |
गर्ग थोड़ा सहम कर बोला, मुझे तो पटनी ने डांटकर भगा दिया तथा कहा कि पहले गुप्ता खजाने से बाहर जाएगा फिर तुम्हारी बारी आएगी |
गर्ग की बात सुनकर मैनें उसे विश्वास दिलाते हुए बहुत ही साफ़ शब्दों में कहा, देखो गर्ग जी वैसे तो मुझे कोई फर्क नहीं पता कि मैं खजाने में काम करूँ या बाहर काम करूँ | परन्तु मैं आपके क्या किसी के भी रास्ते की अड़चन नहीं बनूंगा | अगर पटनी यह चाहता है कि आप से पहले मैं खजाने से बाहर जाऊं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है | मैं उससे कह देता हूँकि  मुझे भी खजाने की डयूटी से छुटकारा दे दे |
अगले दिन मैं युनियन के दफ्तर में चला गया | पटनी वहाँ अपने चमचों से घिरा बैठा गप्प सप्प में मशगूल था | मुझे देखकर वह बोला, हाँ गुप्ता जी, कहो कैसे आना हुआ ?
मैंने अपनी बात सीधे रखी, मैं अब खजांची की नौकरी त्यागना चाहता हूँ |
क्यों अचानक क्या बात हो गयी ?
बात कुछ नहीं है, तथा अचानक जैसी भी कोई बात नहीं है |”     
तो फिर ?
लोग तो छः महीने में ही खजाने से बाहर निकल जाते हैं, मैंने तो ढाई वर्ष काट दिए हैं |
ठीक है गुप्ता जी अबकी भर्ती आएगी तो आपकी ड्यूटी बदल दी जाएगी |
धन्यवाद कहकर मैं युनियन आफिस से बाहर आकर अपने काम में लग गया |
छः महीने बाद बैंक में नए लोगों की भर्ती कर ली गयी परन्तु मैं बाट जोहता ही रह गया कि कोई मेरे स्थान पर आएगा | और मैं खजाने से मुक्त कर दिया जाऊंगा | जब मुझे पता चला कि मेरी जगह अबकी बार आए लोगों में से कोई भी खजाने के लिए नियुक्त नहीं किया गया है तो मैं याद दिलाने के लिए एक बार फिर युनियन आफिस में  पटनी के पास जाकर बोला,पटनी जी नई नियुक्तियां तो हो चुकी हैं परन्तु आपने मुझे खजाने से मुक्त नहीं किया  ?
पटनी ने बड़े शांत स्वभाव जवाब दिया, मैं जानता हूँ |
मैनें भी सीधे स्वभाव पूछ लिया,क्या मैं जान सकता हूँ कि ऐसा क्यों.?
पटनी, शायद जिसके सामने सवाल जवाब करने की हिम्मत किसी में नहीं थी, अपने में आते हुए बोला, मैं सवाल जवाब पसंद नहीं करता | केवल कहता हूँ तथा सामने वाले को केवल सुनना पडता है |
उसके कहे की परवाह न करते हुए मैंने फिर एक प्रशन कर दिया, परन्तु आपने ही तो कहा था कि नई भर्ती आने पर मुझे खजाने से बाहर कर दिया जाएगा ?
मेरे दोबारा प्रशन करने पर पटनी खीज गया और दिमाग चढ़ाकर गुर्राया, कहा था परन्तु कोई पत्थर की लकीर तो नहीं खींच दी थी ?      
मैं, जो हमेशा से ही अपनी जबान से कही बात को पत्थर की लकीर से भी बढकर मानता था, पटनी के शब्दों से बहुत विचलित हो गया तथा उसे ताकीद दी, पटनी जी आपके लिए अपनी जबान से कही बात आपके लिए बेशक पत्थर की लकीर न हो परन्तु मेरे लिए यह पत्थर की लकीर से भी बढकर है |
पटनी हाथ घुमाकर बोला, मेरे सामने किसी की पत्थर की लकीर कोई मायने नहीं रखती |
मैनें भी उसकी तरफ अपनी ऊंगली से इशारा करके कहा, सुन लो मैं भी अपनी पत्थर की लकीर को खंडित नहीं होने दूंगा | क्योंकि मैं तुम्हारी तरह थूक कर चाटता नहीं |            
पटनी मुझे चेतावनी सी देते हुए बोला, तुम बैंक में नए आए हो, नए की तरह रहो |
मैनें उसके भ्रम को तोने के लिहाज से बताया,बेशक बैंक में मैं नया हूँ परन्तु पहले भी सोलह साल नौकरी कर के आया हूँ |
अबकी बार पटनी ने अहंकार भरा अपना असली रूप दिखाने की चेष्टा की, बैंक में नए हो इसलिए अभी तुम मुझे जानते नहीं ?
मैनें बेतकल्लुफ उत्तर दिया, मैं जानना भी नहीं चाहता |
पटनी आपे से बाहर होकर बोला, तुम क्या कर लोगे ?
वह तो समय ही बताएगा |
पटनी शायद और अधिक बर्दाशत नहीं कर सकता था अतः अपनी कुर्सी से उठ कर चिल्लाकर बोला, अबे तेरे जैसे हजारों देख चुका हूँ | जा चला जा, वरना |
मैं निर्भय पटनी के सामने खड़ा बोला, वरना क्या कर लेगा ? खड़ा हूँ करके दिखा ? एक और बात बता दूं, तमीज से बात करना सीख ले | तू जो गुर्राकर बोल रहा है न उसके लिए चेतावनी दे रहा हूँ | मैं तेरे बाप का नौकर नहीं हूँ | अच्छी तरह समझ ले जैसे तू यहाँ बैंक में नौकरी कर रहा है वैसे मैं भी कर रहा हूँ | अगर ज्यादा अबे-तबे  करी तो अपना मुहं छितवा बैठेगा |
शाखा में जिस पटनी के सामने बोलने से पहले हर कोई दस बार सोचता था फिर भी हिम्मत नहीं जुटा पाता था उसे मैनें आज खरी खोटी सुना दी थी | मेरी बातों से उसके इर्द गिर्द बैठे लोग सकते में आ गए | युनियन आफिस के बाहर खड़े लोगों के कारण विदेश व्यापार शाखा में यह बात आग की तरह फ़ैल गयी कि गुप्ता ने आज बेधड़क पटनी का सामना किया | मेरी बात सुनकर पटनी चोट खाए सांप की तरह फुंफकारता रह गया और मैं युनियन आफिस से बाहर आ गया |    
अपनी सीट पर आते ही मैंने अपनी शाखा के प्रबंधक को एक पत्र लिखा |
श्री मान प्रबंधक महोदय.
सविनय निवेदन है कि मुझे आपकी विदेश व्यापार शाखा के खजाना विभाग में कार्य करते हुए अढाई वर्ष बित गया है | इस शाखा के प्रचलन के अनुसार नई भर्ती के लोगों के आने पर पुराने लोग जो उस समय खजाना विभाग में कार्यरत होते हैं उनको खजाना विभाग से निकालकर नए लोगों को लगा दिया जाता है | अतः आप से अनुरोध है कि इस बार नई भर्ती आने पर मुझे खजाना विभाग से हटाकर बाहर किसी भी जगह पर तैनात कर दिया जाए |
धन्यवाद |
आपका
सी.एस.गुप्ता
भारतीय स्टेट बैंक में उस समय पटनी की तूती बोलती थी | उस तूती को बंद कराने में शाखा का प्रबंधक सुरेन्द्र सिहं भी अपने को असमर्थ पाता था | शायद इसीलिए मेरी पहली अर्जी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई | परन्तु थोड़े दिनों बाद जब मैनें मेरी उस अर्जी का रिमाईन्डर डाला तो शाखा प्रबंधक ने मुझे अपने आफिस में बुलाकर समझाने के लिहाज से वार्तालाप शुरू कर दी, आप खजाने में काम करते हो ?
हाँ जी |
कब से ?
साहब, तीन वर्ष से |
अभी तक खजाने से बाहर क्यों नहीं हुए ?
इससे पहले न मेरी इच्छा हुई थी न ही आपने अपने आप किया |
अब खजाना क्यों छोना चाहते हो ?
साहब, खजाने में जरूरत से ज्यादा काम कर लिया अब दूसरी सीटों का काम सीखने की लालसा है |
और कोई कारण”, कहकर सुरेन्द्र ने अपनी निगाहें मेरे चहरे पर ऐसे गड़ा दी जैसे वह मेरे चेहरे के हावभाव से कुछ पता करना चाहता हो |
मैनें सीधे स्वभाव कहा,और कुछ कारण नहीं है, साहब |
प्रबंधक ने भी बिना लाग लपेट के बताया,परन्तु आपका सैकेरेटरी नहीं चाहता कि आप खजाने से बाहर जाओ |
मैनें अपने प्रबंधक को साफ़ शब्दों में कहा, साहब, मेरी उससे झड़प के बाद तो वह कभी नहीं चाहेगा कि मैं खजाने से कभी बाहर जाऊं |
प्रबंधक ने मुझे मशवरा देते हुए कहा, आपको युनियन के लीडरों से बना कर रखना चाहिए |
साहब, न मैं गलत बोलता हूँ | न गलत सुन सकता हूँ | मैं नौकरी में दास की तरह दबकर भी नहीं रह सकता | और...|     
प्रबंधक को शायद पटनी के साथ मेरी झड़प का पूरा विवरण मिल चुका था, अब आप क्या चाहते हो ?
साहब जो मैनें अपनी अर्जी में लिखा है |
प्रबंधक अपनी मजबूरी समझकर, वह पटनी नहीं चाहता |
अभी तक प्रबंधक मुझे सलाह दे रहा था | अब मैंने प्रबंधक को उसकी ड्यूटी याद दिलाई,साहब, आप शाखा के प्रबंधक हो | शाखा आप चला रहे हो न कि पटनी | फिर उसके चाहने न चाहने का क्या मतलब ?
गुप्ता जी आप समझ नहीं रहे |
साहब मैं सब समझता हूँ | इस जगह आप अपने को निर्बल समझ रहे हो |
मेरी बातों से अपने को कायल होते समझ प्रबंधक ने बात को विराम देने के लिए कहा, ठीक है आप जाओ | देखता हूँ मुझे क्या करना है |
साहब मैं आपसे वायदा करता हूँ कि मैं जीवन भर खजाने में काम करने को तैयार हूँ अगर आप मुझे अब केवल एक दिन के लिए खजाने से बाहर के आदेश कर दें”, कहता हुआ मैं प्रबंधक के आफिस से बाहर आ गया |
एक महीने बाद मुझे मेरी अर्जी का जवाब मिला लिखा था, आपको सूचित किया जाता है कि जो व्यक्ति इस समय खजाने में काम कर रहा है वह पांच वर्ष पूरे करने के बाद ही खजाने से बाहर की डयूटी पर बदला जाएगा | यह युनियन के साथ समझौते के तहत तय हुआ है | अतः अभी आपको अढाई वर्ष और खजाने में बिताने होंगे |
प्रबंधक के दिए जवाब से ही पता चल गया था कि पटनी का कितना दबदबा था | परन्तु मैं भी ऐसे हथियार डालने वालों में से नहीं था | यह समझते हुए कि मुझे दी गयी सूचना में जरूर कहीं कुछ खामी है तथा गलत है तो मैनें एक और अर्जी लिखकर प्रबंधक से पूछा, कृपया मुझे बताया जाए कि यह पांच वर्ष वाला आदेश कब से लागू किया गया था क्योंकि जब मैं इस शाखा में आया था तो इस तरह का कोई भी आदेश लागू नहीं था | तथा न ही मेरे आने के बाद युनियन ने ऐसा कोई समझौता किया है |       
मेरी इस अर्जी के जवाब में लिखा था, यह समझौता युनियन और प्रबंधक कमेटी के बीच १९७९ में हुआ था |
मैंने सोचा की १९७९ में तो मै बैंक की नौकरी में ही नहीं था | अतः एक और अर्जी देते हुए जवाब माँगा, अगर यह समझौता मेरे बैंक में भर्ती होने से पहले का है तो जब मैं बैंक की नौकरी में आया था तो उस समय खजाने में काम कर रहे कर्मचारियों को खजाने की ड्यूटी से बहाल कैसे कर दिया गया था जबकि उनके खजाने में पांच साल पूरे नहीं हुए थे |
साथ ही साथ मैनें उन्हें अपनी गलती को सुधारने की सलाह देते हुए अपना मत प्रकट किया कि उन सभी कर्मचारियों को जो मेरे आने पर खजाने से बाहर कर दिए गए थे उनको वापिस खजाने में लगाया जाए | लगता था विदेश व्यापार शाखा का प्रबंधक पटनी के दबाव के चलते न्याय का दामन नहीं थाम पा रहा था | पहले की तरह जो उसने इस बार जवाब दिया वह भी पटनी के साथ प्रबंधक की सांठ गाँठ दर्शा रहा था | उसने जवाब दिया था, जो कर्मचारी खजाने से बाहर निकाल दिए गए थे उनका पद कलर्क/खजांची से बदल कर केवल कलर्क कर दिया गया है इसलिए अब उन्हें खजाने में वापिस नहीं लिया जा सकता |
मैं क्या सभी जानते थे कि प्रबंधक पटनी के दबाव में आकर एक के बाद एक गलती कर रहा था | उधर किसी की परवाह न करते हुए मैनें भी मन में ठान ली थी कि सत्यता को उजागर करते हुए न्याय लेकर ही रहूँगा | अब पटनी के अहंकार को तोना ही मेरा ध्येय बन गया था | इसलिए मैंने एक और अर्जी भेजकर उसमें लिखा, बैंक में भर्ती होने के तहत समझौते में साफ़ लिखा है कि किसी भी कलर्क/खजांची का पद पांच साल की नौकरी पूरी  होने पर ही पक्की तरह बदला जा सकता है | इसलिए मेरे से पहले खजाने में काम कर रहे कर्मचारियों का अगर पद बदला गया है तो वह गलत है | कृपया उसे सुधारा जाए |

मेरी अर्जियों के दौर ने जहां एक और प्रबंधक तथा पटनी की नींद हराम कर दी थी वहीं भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा के साथ साथ पूरे पार्लियामेंट स्ट्रीट के काम्पलैक्स के माहौल को गरमा दिया था | जैसा कि अमूमन देखा गया है कि एक नेता चाहे वह छोटा हो या बड़ा उसके पिछलग्गू बहुत होते हैं | उन्हें नेता का सलाहकार कहना तो उचित नहीं होगा हाँ उनको नेता के चमचों की संज्ञा जरूर दी जा सकती है | पटनी के ऐसे ही लोग आकर मुझे उससे समझौता करने की सलाह देने लगे | उन सबके लिए मेरा एक ही जवाब होता था कि पहले मुझे खजाने से, चाहे वह एक दिन के लिए ही क्यों न हो, बाहर निकलना है | उसके बाद वह पूरी जिंदगी अपनी मर्जी से खजाने में ही काम करने को तैयार है | इस एक दिन में अहंकारी पटनी अपनी हार देखता था, जिस शब्द से वह शायद अनाजान था तथा जो उसने अभी तक चखी नहीं थी | यही कारण था कि वह मेरी बात मानने को राजी नहीं होता था | 

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