मेरी आत्मकथा-9 (जीवन के रंग मेरे संग) सांत्वना
मैं सोचने लगा तथा मुझे महसूस हुआ कि ईश्वर की
मेरे ऊपर बहुत कृपा रही है | उस परवरदिगार नें मेरी हर कदम पर सहायता की है | मैं
पढना चाहता था तो मुझे स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने में पूरा योग दान दिया |
अगर भगवान की तरफ से चक्र न चलता तो मैं कभी भी इसमें कामयाब नहीं होता | मैंने
नौकरी छोड़ना चाहा तो उसमें भी उसने मेरे लिए रास्ता बना दिया था | घर आने पर मुझे
अपने बच्चों के साथ सिर छुपाने के लिए अपने पैतृक मकान में जगह भी मिल गई थी |
हालांकि अपने भाईयों द्वारा दिए गए आशवासन के अनुरूप मुझे उनसे सहायता नहीं मिली
परन्तु उनके स्वभाव से पहले से परिचित होने के कारण तथा भगवान पर मेरी अटूट आस्था
होने के कारण मुझे इसका कोई मलाल नहीं हुआ था |
असल में मैं जब भी घर छुट्टी आता था तो मेरे तीनों भाई मुझे सलाह
देते थे कि उसकी भारतीय वायु सेना की नौकरी में क्या रखा है, छोड़कर घर आ जाए तो अच्छा रहेगा | यहाँ वे उसे कुछ न कुछ काम करवा ही देगें | अतः मैं अपनी एयरफोर्स की नौकरी छोड़कर आ गया था | अब मैं अपने ओर तीनों भाईयों की तरह सिविल की जिन्दगी जीना चाहता था | घर आने पर मैं अपने भाईयों से सलाह लेने लगा कि अब उसे क्या करना चाहिए |
मैंने अपनी नौकरी छोड़ने
से पहले अपने तीनो भाईयो से सलाह की जरूर थी परन्तु उनके रवैये से पता चलता था कि वे
उसकी किसी प्रकार की सहायता नहीं करेंगे | फ़िर भी अपने बड़ों का सम्मान करते हुए सुधीर
मैंने अपना कुछ काम शुरू करने से पहले एकबार फ़िर उनसे ही सलाह लेना उचित समझा |
मैंने अपने बड़े भाई
शिवचरण से पूछा, “भाई साहब आप को पता तो चल ही गया होगा की मै
एयरफोर्स की नौकरी छोड़ आया हूं | अब आप मुझे नेक सलाह दे कि आगे मुझे क्या करना
उचित रहेगा |”
शिव चरण ने अपना
पल्ला छुडाने के लिहाज से मुझे समझाया, “भाई देख, मै भी जब एयर फोर्स छोड़कर आया था तो कुछ दिन
तो बहुत तकलीफ उठानी पड़ी थी | काम की तलाश में मुझे दिन भर, भूखा-प्यासा
दर दर भटकना पड़ता था | बहुत कोशिशों के बाद मुझे यह छोटी सी नौकरी मिली | तनखा जो मिलती है वह बच्चों का पेट पालने के लिए भी पूरी नहीं होती अतः आफिस
से आकर इधर उधर हाथ पैर मारने पड़ते हैं | वैसे तू तो बेकार ही इतनी अच्छी नौकरी को इस्तीफा
दे आया | वहां तो सारी सुविधाएं मिलती थी | खाने की, रहने की, आने-जाने की, बच्चों
की पढाई की इत्यादि | अब यहाँ कोई धन्ना सेठ तो है नहीं जो पैसा लगाकर तुझे कोई बड़ा काम करा देगा
| तुझे भी ख़ुद ही मेरी तरह हाथ पैर मारकर कुछ करना होगा |”
अब तक मैं अपने बड़े
भाई साहब की मंशा, जो वह पहले से ही जानता था, का
पूरा जायजा मिल चुका था | अतः अपने बड़े भाई साहब का धन्यवाद कहते हुए वापिस अपने घर आ गया |
फिर मैंने अपने मंझले
भाई ज्ञान चंद की मंशा जानने के लिए उनके पास जाकर कहा, “भाई साहब आप हमेशा, जब
भी मैं घर छुट्टियाँ आता था, यही कहते थे कि बेकार में ही घर से इतनी दूर
पड़ा है यहाँ क्या कम काम हैं | लो अब मैं आ गया हूँ तथा काम भी करना चाहता
हूँ | कोई सलाह दो कि क्या ठीक रहेगा ?”
ज्ञान चंद ने बिना
किसी लाग लपेट के अपनी हकीकत ब्यान करते हुए कहा, “देख भाई ! मेरे पास तो ये दूकान है | संभाल इसे | जैसे हमारे खाने पीने
को दे रही है वैसे तुझे भी मिल जाएगा | इतना अंदाजा तो तू ख़ुद भी लगा सकता है कि
यह इतना तो नहीं दे सकती कि बच्चों के खर्चे भी इससे पूरे किए जा सकें |”
अपने भाई ज्ञान चंद
की बातों से यह तो साफ़ जाहीर हो गया था कि वे मुझे काम कराने के बदले खाना भर दे सकते
है जो उसके परिवार का पेट पालने में पूरक हो सकता था इसके अलावा वे और कुछ देने की
स्थिति में नहीं थे | इस बारे में गहन विचार करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर
पहुंचा कि अगर वह अपने भाई के
साथ काम करने लगा तो वह, अपना
भाग्य आजमाने के लिए, कहीं आने जाने का भी नहीं रहेगा | यही सोचकर उसने अपने
भाई से इतना ही कहा कि वह सोचकर बता देगा, तथा
वापिस अपने घर आ गया |
आखिर में, मैं
जिसने भारतीय वायुसेना की नौकरी छोडने से पहले अपने भाई औम प्रकाश से काफी चर्चा की थी बताया, “भाई साहब, मैनें एयरफोर्स
की नौकरी छोड्ने से पहले आपको कई पत्र लिखे तथा आपसे बातें भी की | अब मैं आ गया हूँ इसलिए जो आपने मेरे बारे में सोचा है वह बताइए ?”
औम प्रकाश, “हाँ----अ----सोचा---बहुत सोचा |”
“फिर मुझे क्या करना चाहिए ?”
औम ने सीधा जवाब न
देते हुए कहा, “देख भाई | कुर्सी पर बैठना भी किस्मत वालों को नसीब होता है |”
मैं अपने भाई की
गूढ़ बातों का तात्पर्य न समझकर बोला, “क्या मतलब ?
“मतलब साफ है | तू तो भरी थाली में लात मार आया |
अब भला मैं क्या बताऊँ ओर क्या सोचूँ |”
“परंतु आपने तो कभी भी मेरे लिए किसी भी पत्र में ऐसा कुछ नहीं लिखा | आपने हमेशा मेरे से यही कहा कि नौकरी छोड़ आओ यहाँ बहुत कुछ है करने को |”
“तू लिखने की बात करता है तो बता मैं क्या लिखता | तू खुद समझदार है | बाल बच्चों वाला है | पैसे पेड़ पर तो लगते नहीं कि उसका पेड़ लगा लिया जाए ओर जब मर्जी जितना चाहे तोड़ लिया जाए |”
“भाई
साहब आप यह सब क्या पहेलियाँ बुझा रहे हो मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा |”
“समझ नहीं आता तो साफ-साफ सुन |
आजकल नौकरी तो मिलती नहीं और खाने को सब को सब कुछ चाहिए |”
“यह तो सबको पता है |”
“पता है तो फिर पूछ्ता क्या है ? जो मन में आए कर | वैसे मेरी सलाह से, जब तक कोई काम ढंग का नहीं मिल जाता, सुबह अखबार बाँटने का काम कर ले | या फिर किसी एक्सपोर्टेर से कपड़े सिलाई का काम ले आया कर | तुम्हारी बहू तो सिलाई के काम में काफी चतुर है | वह सिलाई कर लिया करेगी |”
मैं अपने मन में समझ गया कि उसका भाई औम प्रकाश उसे कोई नेक सलाह देने वाला नहीं है अतः बात आगे बढानी उचित नहीं समझी | मैं बुझे मन से अपने कमरे की ओर चल दिया | दरवाजे पर उसकी पत्नि संतोष खडी
थी | मेरा चेहरा
पढ्कर वह मेरा ढांढस बंधाते हुए बोली, “आप अधिक चिंता न किया करें |”
“चिंता को गले लगाने का मुझे कोई शौक नहीं है | जब रोजी रोटी की बात सामने आ जाए तो यह् अपने आप ही लग जाती है |”
संतोष जिसने दोनों भाईयों की बातें सुन ली थी, “अखबार बेचने का काम तो ठीक नही है | हाँ अगर आप बुरा न मानों तो एक्सपोर्ट के कपड़े की सिलाई का काम देख लो |”
“मेरे से कपड़ों की सिलाई कहाँ आती है |”
संतोष बड़े आत्म
विश्वास से बोली, “मैं कर लिया करूंगी |”
मैंने आशंका जताते
हुए कहा, “घर की सिलाई में और एक्सपोर्ट की सिलाई में बहुत फर्क होता है | तुम्हारे से वह काम नहीं हो पाएगा |”
“कोशिश करने में हर्ज ही क्या है |”
“तोषी(संतोष) थोडा सब्र करो, मुझे कहीं न कहीं काम मिल ही जाएगा |”
संतोष अपने मन की
दुविधा को उजागर करके बोली, “घर से खाते-खाते पांच महीने बीत गये हैं | अब बच्चों के स्कूल भी खुल गए हैं | उनका खर्चा भी होगा |”
“सब हो जाएगा | देखो मैं रोज सुबह काम की तलाश में जाता हूँ | चार पाँच जगह बात चल रही है | कहीं न कहीं काम बन ही जाएगा |”
“जब काम बन जाएगा तब देखी जाएगी | फिलहाल मैं भी चौका बर्तन निपटाने के बाद ठाली रहती हूँ | अगर उस समय का इस्तेमाल करने से थोडा सा पैसा बन जाएगा तो हमारे ही काम आएगा | मेरे विचार से आप सिलाई के कपड़े ले आओ |”
मैंने हथियार डालने
की सी प्रतिक्रिया करके, “अच्छा भई | अगर तुम आजमाना चाहती हो तो सिलाई के लिए एक्सपोर्ट के कपड़े ले ही आता हूँ |”
अगले दिन
सुबह ही सुबह घर के
आँगन में एक आवाज गूंज गई, “तोषी ओ तोषी !”
संतोष रसोई से बाहर आते हुए, “ क्या बात है? आज सुबह सुबह कैसे चहक रहे हो |”
कपड़ों
का एक बण्डल अपनी पत्नी के हाथ में थमाकर मैं
बोला, “लो ये पाँच पीस लाया हूँ | इन्हें इस सैम्पल के अनुसार सिलना है |”
संतोष ने खुशी जाहिर की, “ क्या बात है रात को नीदं भी ली या सारी रात सुबह का इंतजार ही करते रहे जो सुबह होने से पहले ही ये काम लेने पहूँच गये | खैर इन्हें रख दो | मैं दोपहर में यह काम करूँगी | अब आप नाशता कर लो क्योंकि फिर आपको अपने काम की तलाश में भी जाना होगा |”
“आज मैं काम की तलाश में नहीं जाऊँगा |”
“क्यों भला ?”
“क्योंकि आज काम घर पर ही आ गया है | अब ढूढ्ने की क्या जरूरत है |”
संतोष मुस्कराते हुए,|” अच्छा
जी |” और रसोई की तरफ चली जाती है |
दोपहर को संतोष सिलाई मशीन ले कर बैठ गई | वह सैम्पल के अनुसार सिलाई करने लगी | मैं भी उसको काम करते देखता रहा | जो सलाह वह माँगती वह उसे बताता रहा | संतोष ने अपनी पूरी लगन से कपडों की सिलाई की थी परंतु मुझको पक्का विशवास था कि संतोष की सिलाई एक्सपोर्ट के लिहाज से पास नहीं हो पाएगी | फिर भी मैंने संतोष की काफी प्रशंसां की तथा तैयार पीस ले कर चला गया |
एक घंटा बाद मैं वापिस लौटा तो हाथ खाली थे | संतोष उसका इंतजार कर रही थी कि मैं उन कपड़ों को देकर और काम ले आऊंगा |
संतोष मेरे खाली हाथ देखकर, “क्या बात है , और कपड़े
नहीं लाए ?”
“नहीं |”
“क्यों ?”
“मुझे यह काम पसन्द नहीं आया |”
संतोष ने अचरज से मेरी
तरफ देख कर पूछा, “इस काम में ऐसा क्या है जो आपको पसन्द नहीं आया ?”
मैंने संयम से कहना शुरू
किया, “देखो तोषी | वहाँ कपड़े लेने वालों की लाईन लगी रहती है | धोबी, चमार, कहार, लुहार इत्यादि सभी वहाँ बैठ्कर उस एक्सपोर्टर का इंतजार करते रहते हैं |”
“इसमें क्या बुराई है ?”
“तुम इसको ध्यान से समझो | मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि मैं भी उन सबकी तरह आखों एवं मन में एक प्रकार की निरीहता लिए वहाँ बैठ्कर उसका इंतजार करूँ |”
संतोष ने अपने ऊपर
जिम्मेवारी लेने के लिहाज से कहा, “आप से अगर यह बर्दाश्त नहीं होता तो मैं खुद कपड़े लेने चली जाया करूँगी |”
संतोष की बात सुनकर
मैं थोडा बनावटी
गुस्से में बोला, “ तोषी क्या तुम मुझे इतना कमजोर समझती हो कि मैं तुम्हारे लिए दो वक्त की रोटी भी न जुटा पाऊँगा | क्या तुम्हारे लिए पैसा कमाना ही सब कुछ है | अपनी इज्जत, मान-मर्यादा तथा अपना अहम कुछ मायने नहीं रखता | अभी हम इतने कमजोर तो नहीं | भगवान की दया से रोटी पानी का गुजारा तो मेरी पेंशन से ही हो जाएगा | फिर भी अगर तुम्हारी इच्छा है कि तुम खुद जाकर काम मागों तो तुम्हारी मर्जी |”
संतोष
झेंपते हुए, “आप तो नाराज हो गए | मैं तो बस यूँ ही कह रही थी |”
“कह तो रही थी परंतु कुछ सोच समझ कर कहा करो |”
संतोष ने अपनें कानों पर हाथ लगाकर कहा, “अच्छा बाबा गल्ती हो गई अब कभी नहीं कहूँगी |”
मैं अपना तीर
निशाने पर लगा जान झट से बोला, “ठीक है! ठीक है ! लाओ एक गिलास पानी दो |”
वास्तव में मैं संतोष का दिल नहीं दुखाना चाहता था, उसे यह बताकर कि उसकी सिलाई पास नहीं हुई थी तथा एक्सपोर्ट्रर ने सिलाई के लिए कपड़े देने को मना कर दिया था | मैंने अपनी तरफ से यह मन घडन्त कहानी बनाई थी कि उसे कतार में बैठकर इंतज़ार करना पसन्द नही क्योंकि मुझे संतोष को ‘सांत्वना’ देने का यही एक रास्ता नजर आया था |
भारतीय वायु सेना से रिटायर होकर आने के बाद शुरू
शुरू में मैं रोज सुबह अपनी साईकिल पर जगह जगह नौकरी के लिए साक्षात्कार देने जाता
था परन्तु कहीं सफलता न मिलने के कारण थक हार कर वापिस आ जाता था | एक बार तो मेरी
उच्च शिक्षा ही मुझे नौकरी मिलने में बाधा बन गयी | मुझे मदर डेयरी से पत्र मिला
कि मुझे मदर डेयरी के दूध का डिपो का आवंटन किया जा रहा है अतः साक्षात्कार के लिए
आ जाओ | मैं खुशी खुशी वहाँ पहुँच गया | परन्तु मेरी स्नातकोत्तर की डिग्री देखकर
उन्होंने यह कहते हुए मेरा आवंटन रद्द कर दिया कि इतनी उच्च शिक्षा रखने वालों के
लिए यह वैध नहीं है | इससे जहां एक बार को मुझे मायूसी महसूस हुई थी वहीं उनके
कहने से मेरे अंदर आत्म विश्वास बढ़ा था | इसके बाद बेकार से बेघार बड़ी को सोचते
हुए मैंने अपने भाई ज्ञान चन्द की सहायता से अपनी एक परचून के दूकान अपने मकान में
ही खोल ली |
०२-०३-१९८० की सुबह सोकर उठा तो मेरी पत्नी संतोष
ने जन्म दिन मुबारक कहकर मेरा अभिवादन किया | मैनें भी अपने चेहरे पर मुस्कान लाते
हुए अपनी पत्नी को धन्यवाद दिया तथा नीचे दूकान खोलने चला गया | हालांकि थोड़ी देर
बाद अपने चिरपरिचित अंदाज में अपनी खुशी जाहिर करने के लिए संतोष ने मेरे लिए
गरमागरम देशी घी का हलुआ बनाकर भेज दिया था परन्तु मैं खुद महसूस कर रहा था कि इस
बार का मेरा जन्म दिन उतनी खुशियाँ नहीं
दे पाएगा जितनी मेरे परिवार को उस समय मिलती थी जब मैं भारतीय वायु सेना में
सेवारत था |
वायु सेना में रहते हुए किसी के भी जन्म दिन के
तीन दिन पहले से ही प्रोग्राम बनाने लगते थे कि उस खास दिन सुबह नाश्ते में क्या
बनेगा, दोपहर का खाना लेकर कौन से स्थान पर पिकनिक मनाने जाएंगे, शाम को कौन से
सिनेमा हाल में कौन सी पिक्चर देखेंगे, रात को कौन से होटल में खाना खाकर वापिस घर
लौटेंगे ..इत्यादि |
बच्चे सारा दिन इन्हीं बातों को सुलझाने में
व्यस्त रहते थे | उनका चहकना देखकर मेरे मन में भी रह रहकर खुशी की एक अजीब सी लहर दौड़ जाती थी | परन्तु
इस बार तो घर में इनके बारे में कोई जिक्र ही नहीं हुआ | शायद बच्चे भी भांप गए थे
कि इस बार उनके पापा जी इस स्थिती में नहीं हैं कि उनका जन्म दिन पहले की तरह
धूमधाम से मनाया जा सके | बच्चों का चेहरा बुझा बुझा भांपकर भी मैं कुछ करने की
स्थिति में नहीं था | इस बार मेरा जन्म दिन सुबह मेरी पत्नी द्वारा मुझे जन्म दिन
की बधाई कहना तथा फिर हलुआ बना देने तक ही सीमित होकर रह गया था | यह सब महसूस
करके मेरा मन मुझे कचोट रहा था कि देखो समय ने क्या पलटा खाया है | फिर भी भगवान
में आस्था होने के कारण मेरे मन के किसी अनजान कौने में एक आशा जगी थी कि पुराने
दिन अवशय लौट कर आएँगे |
रात को जब मैं अपनी दूकान बंद करके ऊपर गया तो
अपने कमरे की सजावट देखकर दंग रह गया था | कमरे को करीने से सजाया गया था | संतोष
मेरी पत्नी तथा बच्चे, प्रवीण, प्रभा, तथा पवन भी सजे धजे मेरा इंतज़ार कर रहे थे |
सभी के चेहरे सुबह के गुलाब की तरह खिले हुए थे | मेज पर एक केक रखा था | उसके साथ
चांदी की प्लेट में एक लिफाफा रखा था | पहले दिनों जैसा इंतजाम देखकर तथा सभी के
मुस्कराते चेहरे देखकर मैं दंग रह गया था तथा पूछना ही चाहता था कि माजरा क्या है
कि सभी ने जोर जोर से तालियाँ बजा बजाकर जन्म दिन मुबारक का गाना गाना शुरू कर
दिया | मेज पर परोसा गया खाना भी वैसा ही बनाया गया था जैसा कि वायु सेना की नौकरी के दिनों में बनाया जाता था
|
केक काटने के बाद मेरी लड़की प्रभा ने चांदी की
प्लेट जिसमें एक लिफाफा रखा था मेरे सामने कर दी | मैंने सोचा था कि हर वर्ष की
तरह उसकी पुत्री ने जन्म दिन मुबारकबाद का एक कार्ड अपने हाथों से बनाकर लिफ़ाफ़े
में रखा होगा | परन्तु इस बार वह चांदी की प्लेट में रखकर देने का औचित्य उसकी समझ
से बाहर था | परन्तु जब मैंने जन्म दिन मुबारक वाले कार्ड के साथ लिफ़ाफ़े के अंदर
रखे पत्र का मजबून पढ़ा तो आश्चर्य चकित ठगा सा रह गया | एकदम मेरी निगाह सामने
टंगी अपने माता-पिता की तस्वीर के साथ साथ भगवान की टंगी तस्वीर पर पड़ी और मैं हाथ जोड़कर उनके सामने नतमस्तक हो गया |
भगवान ने एक बार फिर मेरा साथ देकर मेरे भविष्य की
सारी समस्याओं का निवारण करने का फैसला कर लिया था | मुझे भारतीय स्टेट बैंक से
नौकरी का निमंत्रण आया था | ईश्वर नें, जितनी खुशी इस परिवार को मेरे जन्मदिन पर
भारतीय वायु सेना में मिलती थी उससे सैंकडों गुना अधिक आज प्रदान कर दी थी |
अगली सुबह मैं तैयार होकर भारतीय स्टेट बैंक के
देहली स्थित हैडक्वार्टर में पहुँच गया | वहाँ पहुँचने वाला मैं प्रथम व्यक्ति था
| जाते ही मैनें अपना नियुक्ति पत्र राज कुमार चौपड़ा के हाथ में थमा दिया जिसको नए
व्यक्तियों को भर्ती करने का कार्यभार सौंपा गया था | चौपड़ा के कहने पर मैं बाहर
जाकर बैठ गया तथा उसके बुलाने का इंतज़ार
करने लगा | जब मुझे पता चला कि मेरे बाद आए दो तीन लड़के अपना नियुक्ति पत्र लेकर
चले भी गए हैं तो मुझ से चुपचाप बैठा रहा न गया | मेरे सब्र का बाँध टूट गया और
मैं चोपड़ा के सामने जाकर खड़ा हो गया |
जब चौपड़ा ने मुझे देखा तो उसने आँखें तरेर कर
पूछा, “यहाँ क्यों खड़े हो ?”
मैनें सहनशीलता बरतते हुए कहा, “आपको याद दिलाने आया हूँ कि मैं भी बाहर
इंतज़ार कर रहा हूँ ?”
चोपडा मुझे नीचे से ऊपर तक निहारते हुए
गुर्राया, “मैं जानता हूँ |”
“साहब मेरा.........|”
चोपड़ा ने मुझे बोलने का मौक़ा ही नहीं दिया
तथा खीजते हुए बोला, “आप बड़े बेसब्रे हो जो इतनी जल्दी पूछने
आ गए |”
मैं उसकी तरह बोल नहीं सकता था इसलिए
नरमी दिखाते हुए उसे याद दिलाने की कोशिश करने के लिए बोला, “साहब
जल्दी नहीं, मुझे बाहर बैठे हुए दो घंटे से ज्यादा हो गया है |”
चोपडा ने आँखें तरेर कर थोड़ी ऊंची आवाज
में जवाब दिया, “मैं भी ठाली नहीं बैठा हूँ | आप लोगों
का ही काम कर रहा हूँ |”
“साहब
यह तो दुरूस्त है कि आप हम लोगों का ही काम कर रहे हो परन्तु काम करने का कुछ तो
तरीका होना चाहिए |”
मेरी ऐसी सुनकर चौपड़ा बौखला उठा तथा
अपनी कुर्सी से उठ कर अपना हाथ नचाते हुए गुस्से में बोला, “क्या
मतलब, भर्ती हुए नहीं और चले तरीका सिखाने ?”
स्थिति को भांपकर मैं संभला और नम्रता
से बोला, “साहब मेरा यह मतलब कतई नहीं है |”
चौपड़ा अपनी नाक मुहं टेढी करके बोला, “तो
फिर आपका मतलब क्या था ?”
मैनें उसे याद दिलाने के लिएं बताया, “साहब,
मैं कहना चाहता था कि मैं यहाँ सबसे पहले आया था | परन्तु मेरा ही काम नहीं हुआ |
जबकि मेरे से बाद आने वाले अपना काम करा कर जा चुके हैं |”
चौपड़ा तपाक से बोला, “उनका
काम इसलिए हो गया क्योंकि उनके सभी प्रमाण पत्र पूरे थे |”
मैंने आशचर्य से चौपड़ा का चेहरा ताका और
पूछा, “आपने तो मुझे बताया ही नहीं कि मेरे प्रमाणों में क्या कमियां
रह गई हैं |”
चौपड़ा पहेलियाँ बुझाने के अंदाज में
बोला, “आपके कागजों में वह कमी है जो बताई नहीं जाती केवल कागज़ जमा
करने वाले को वह खुद ही समझनी पड़ती है |”
मैनें उसकी बात का रहस्य न समझते हुए
उससे प्रश्न किया, “और अगर सामने वाला ना समझ हो तो ?”
यह मानकर कि वास्तव में ही मैं उसकी कोई
भाषा नहीं समझ पाऊंगा चौपड़ा बोला, “फ़ौजी हो ना | तुम नहीं समझोगे | खैर
आपको दो चरित्र प्रमाण पत्र लानें हैं |”
“कहाँ कहाँ से ?”
“एक स्कूल से तथा दूसरा उस यूनिट से जहां से आप फ़ौज में से
रिटायर हुए थे |”
“परन्तु फ़ौज वाला प्रमाण पत्र तो सलंगन है |”
चौपड़ा ने अपनी दलील देते हुए कहा, “फ़ौज
का चरित्र प्रमाण पत्र पुरानी तारीख में दस्तखत किया हुआ है | वह छ: महीने से
पुराना नहीं चलता |”
मैनें थोड़ा सोचकर पूछा, “स्कूल
को छोड़े तो मुझे सोलह वर्ष बीत चुके हैं | वहाँ से प्रमाण पत्र कैसे मिलेगा ?”
चौपड़ा ने मेरे कागज़ मेरे हवाले करते हुए
और अपना पिंड छुटाने के लिए दो टूक जवाब दिया, ”यह
मेरा सिर दर्द नहीं है कि आप कहाँ से लाओगे या कैसे लाओगे |”
अपने को आश्वस्त करने के लिए मैनें
पूछना उचित समझा, “ कृपया एक बार अच्छी तरह जांच कर देख लें
कि बस इन दो ही प्रमाण पत्रों की कमी है या
कुछ और भी है ?”
चौपड़ा ने एक बार फिर अपनी पहेली को मुझे
समझाने का असफल प्रयास किया,
“कुछ और करने की आपकी मंशा लगती नहीं
इसलिए फिलहाल ये दो प्रमाण पत्र ही ले आओ |”
मुझे कानपुर जाकर फ़ौज से नया चरित्र
प्रमाण पत्र लाने में एक सप्ताह लग गया | इसके बाद अपने स्कूल से सोलह वर्ष बाद
चरित्र प्रमाण पत्र बनवाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था | इन दोनों को
प्राप्त करने में मुझे पन्द्रह दिन लग गए | इसके बाद ही चौपड़ा ने मुझे भारतीय स्टेट बैंक में
लिपिक/खजांची का पद भार संभालने का फरमान सौंपा था |
भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार
शाखा में काम करते हुए बाद में मुझे औरों के मुहं से पता चला कि राज कुमार चौपड़ा की वह ‘कुछ और
वस्तु’ का मतलब क्या था जो वह मुझे मेरे प्रमाण पत्रों के साथ देने के लिए कह रहा
था | उसी नासमझी के कारण मुझे अठारह दिनों बाद नियुक्ति मिल पाई थी |
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