Friday, October 6, 2017

मेरी आत्मकथा- 14 (जीवन के रंग मेरे संग) घर वापसी

 मेरी आत्मकथा- 1 (जीवन के रंग मेरे संग) घर वापसी पर 
भारतीय वायु सेना की नौकरी के रहते मैं जब भी छुट्टियों में घर आता था तो अमूमन सभी घर वालों के लिए कुछ न कुछ तोहफा जरूर लाता था | मेरी छोटी बहने तथा भाईयों के बच्चे तो तब तक मेरी अटैची के इर्द गिर्द ही चक्कर काटने लगते थे जब तक वह खुल नहीं जाती थी | घर में भाभियों द्वारा, खासकर मेरी बिचली भाभी, मेरी  बहुत आवभगत करती थी | वे मेरे खाने पीने, उठने बैठने, सोने जागने तथा आने जाने का पूरा ख्याल रखती थी | उनके साथ मेरे भाई साहब ज्ञान चंद भी मेरे ऐशो आराम का हर प्रबंध रखते थे | रूपये पैसे खरचने में वे किसी प्रकार कंजूसी नहीं बरतते थे | यह नहीं कि और भाई तथा भाभियां कुछ ख्याल नहीं रखती थी परन्तु उनका दिल इतना खुला नहीं था |
सम्मिलित परिवार में सब कुछ ठीक चल रहा था कि मेरी शादी के डेढ़ वर्ष बाद अचानक मेरे पिता जी का देहांत हो गया | पिता जी के स्वर्गवास ने हमारे घर के शांत वातावरण को झंकझोड दिया | मैं उस समय देवलाली में कार्यरत था | पिता जी की तेरहवीं करके मैं वापिस चला गया | थोड़े दिनों बाद पता चला कि सब भाईयों ने उसी दिन से अलग अलग रहना शुरू कर दिया था |
ज्ञान चंद ने तो, पहले ही से पिताजी के खाने की वजह से दुकान के ऊपर ही रहना शुरू कर दिया था | अब शिव चरण ने अपना आशीयाना अपने पुराने घर से बदल कर उस नए मकान में कर लिया जो वास्तव में मेरे लिए लिया गया था | उस समय ओम प्रकाश शायद यह सोचकर चुप रहा कि उसे पुराने घर का पूरा हिस्सा मिल रहा है | इस प्रकार तीनों भाईयों के पास अपने लिए अलग अलग मकान हो गए थे | उन्होंने इस बात पर विचार ही नहीं किया कि उनके चौथे भाई का हिस्सा भी होना चाहिए | यह तो गनीमत रही कि मेरी माता जी ने मेरे हिस्से के आभूषण तथा दो कोठों की चाबी मेरे लिए अपने पास रख ली थी जिससे छुट्टियों में घर आने पर मुझे सिर छुपाने की जगह मिल जाती थी |
अब तो घर का माहौल इतना दूषित हो गया था कि छुट्टियों पर घर जाने पर भी खाने पीने का अपना इंतजाम करना पता था | इसलिए खास मौकों पर ही घर जाने लगा था | मुझे उस समय बड़ा दुःख महसूस हुआ था जब मुझे अपनी लकी प्रभा की छठी के लिए पूरा खर्चा व इंतजाम खुद करना पड़ा था | मेरे सभी भाईयों के बच्चों के ऐसे कार्य तो सम्मिलित परिवार के रहते ही पूरे हो गए थे अब मेरी बारी आई थी तो मैं अकेला था | पूछना तो दूर किसी ने सान्तवना के दो शब्द भी मुहं से नहीं निकाले थे | ऐसे माहौल में अपने परिवार को उनके सहारे कैसे छोड़ सकता था | मुझे जबरदस्ती, हुक्मरानों की मर्जी के खिलाफ अपने परिवार को अपने साथ रखना पड़ा था | (पूरा विवरण ‘फ़ौजी की शादी’ कहानी में )
और जब मैंनें भारतीय वायु सेना की नौकरी छोड़कर अपने घर बसने की कोशिश की तो मेरे जीवन में एक तरह का भूचाल सा आ गया था | जो भाई पहले, जब भी मैं कुछ दिनों के लिए छुट्टियों पर आता था, यह कहते नहीं थकते थे कि वायु सेना की नौकरी में क्या रखा है उसे छोड़कर यहीं आ जा | यहाँ करने को बहुत काम हैं मुझे काम कराने के नाम पर कन्नी काटते नजर आए | (संक्षेप में ‘सान्तवना’ कहानी में)
यह तो भगवान ने मेरी माता जी को सदबुद्धी दे दी जिसकी वजह से मैं अपने घर में घुसने का मौक़ा पा सका | अन्यथा मेरे तीनों भाई, मुझे भूल कर, एक एक मकान के मालिक बन बैठे थे | जब मैं नौकरी छोड़कर आया था तो मेरे तीनों भाई हर प्रकार से संपन्न थे | उनके पास सुख पूर्वक जीने का हर साधन मसलन सोफा, कूलर, फ्रिज, टेलीवीजन, गाड़ी इत्यादि सभी कुछ था जो मेरे पास एक भी नहीं था | धीरे धीरे मुझे महसूस होने लगा कि मेरे पास इन भौतिक वस्तुओं की कमी के कारण दो भाईयों के बीच, जो कभी एक थाली में रोटी खाए बिना खाते नहीं थे, एक गहरी खाई बन गई है | दिन पर दिन यह खाई चौड़ी होती गई और एक दिन ऐसा आया जब मुझे साफ़ कह दिया गया, तेरा मकान में रहने का कोई हक नहीं है | तू अपना कहीं और इंतजाम कर ले |
घर में कलह का वातावरण व्याप्त होने लगा था | घर से बाहर खदेडने के लिए हर कदम पर हमें तंग करना शुरू कर दिया गया था | मैं किसी प्रकार का कोई फिसाद खड़ा करना नहीं चाहता था | मैंने निजात पाने के लिए अपना मन बना लिया था कि मैं गुड़गांवा में अपने एक जमीन के टुकड़े पर मकान बना कर चैन से रहूँगा | परन्तु मेरे भाई ओम को शायद मेरा सुख चैन मंजूर न था | एक दिन उन्होंने माँ से कहा, माँ मैनें एक मकान बनवा लिया है | मैं उस में जाकर रहूँगा इसलिए इस मकान की एवज में मुझे चरण का प्लाट दिलवा दे |
कहाँ बनवा लिया है ?
चलो दिखा लाता हूँ |
और वास्तव में ही वे माँ को एक मकान दिखा लाए जो बनकर पूरा होने वाला था | मैनें माँ के कहने पर वह अपना प्लाट भाई के नाम कर दिया | ओम प्रकाश ने वह प्लाट बेचकर ठेंगा दिखाए हुए कहा, न तो मैं यह घर छोड़कर जाऊंगा तथा न ही प्लाट बेचे के पैसे लौटाऊंगा | जिसे जो करना है कर ले |
यही नहीं दो तीन और ऐसे प्लाट जो हम दोनों ने मिलकर खरीदे थे उनका भी तिकड़म भिड़ाकर मुनाफ़ा वे खुद ही हड़प कर गए | मैं जब वायु सेना में नौकरी करता था तो सिविल में कैसे जीवन व्यतीत करना बेहतर रहेगा अधिकतर इनसे ही सलाह लेता था | परन्तु नौकरी छोड़ने के बाद ये ही मेरे सबसे ज्यादा खिलाफ रहे | अपनी भाभी जी को, जब उनके रिश्ते मेरे भाई साहब जी के साथ ठीक नहीं चल रहे थे तो, मैनें ही उन्हें सान्तवना देने का फर्ज निभाकर उनके जीवन की खुशियाँ लौटाने का काम किया था | परन्तु ये भी न जाने क्यों मेरे तथा मेरे परिवार के प्रति मेरे भाई के व्यवहार से दो कदम आगे ही दिखाई देती थी | मैं उनके इस घर्णात्मक रवैये का राज उनके आख़िरी दम तक समझ न पाया | फिर भी मैनें अपनी तरफ से कभी भी उनका प्रतिरोध नहीं किया तथा उन्हें हमेशा अपने बड़े भाई का दर्जा दिया |(मेरी कहानियां ‘करे कोई भरे कोई’ तथा ‘अमिट छाप’ में पूर्ण विवरण)
भाई ज्ञान चंद ने मुझे थोड़ा सामान का सहारा देते हुए मेरी जनरल मर्चेंट की दुकान खुलवा दी | उस समय मैनें भी यही सोचकर काम शुरू कर दिया था कि बेकार से बेगार भली जिस पर मेरे भाई ओम ने टोंट कसते हुए कहा था, कुर्सी पर बैठना सभी की किस्मत में नही होता नमक मिर्च की चुटकी उड़ाने वाले तो बहुत मिल जाते हैं | परन्तु भगवान की दया से मेरी दूकान का काम किसी की भी सोच से दस गुना ज्यादा फायदेमंद रहा | यही नहीं दुकान शुरू करे मुझे अभी छ: महीने ही हुए थे कि मुझे भारतीय स्टेट बैंक में नौकरी भी मिल गई | मेरी दुकान अच्छी चल रही थी इसलिए मैनें वह बंद नहीं की और दोनों काम करता रहा | अर्थात भगवान ने मुझे छप्पर फाड़ कर पैसा दिया | कुछ ही दिनों में मेरे पास भी ग्रहस्थी का हर प्रकार की सुविधा का सामान आ गया था |
अपने बड़े भाई साहब शिव चरण को मैं अपने तथा ओम के बीच पनप रहे तनाव से अवगत करा देता था परन्तु  उसे सुलझाने का उन्होंने कभी कोई कारगर कदम नहीं उठाया | मुझे उनका ऐसा रूखापन कई बार बहुत खटकता था परन्तु यही सोचकर चुप रह जाता था कि शायद वे केवल अपने परिवार में ही उलझे रहना चाहते थे | वैसे जब भी कभी ऐसा मौक़ा आता था जहां हम चारों भाईयों को मिल कर खर्च करना पड़ता था तो वे बड़े कायदे से उस काम को अंजाम देते थे | हालांकि मेरे दूसरे भाई उनके काम की नुक्ताचीनी कर भी देते थे परन्तु मैंने कभी भी उनसे किसी प्रकार का विरोध नहीं किया तथा अपनी हैसियत न होते हुए भी जो उन्होंने खर्चे का हिस्सा माँगा उन्हें चुकता कर दिया | मैं उन्हें अपने पिता के समान समझता था |
मेर दोनों बड़े भाई सुख चैन से अलग अलग अपने मकानों में रह रहे थे | इधर ओम प्रकाश तीसरे मकान पर अपना पूरा मालिकाना हक समझते हुए मुझे परेशान करता रहता था | आखिर मेरे जीजा जी कृष्ण कुमार ने हमारे पुराने मकान के दो हिस्से कराकर हम दो भाईयों के बीच दरार को पाटने का कार्य पूर्ण करने का बीड़ा उठाया | हम दोनों भाईयों के मकान को दुरूस्त कराने के लिए दोनों बड़े भाईयों ने हमदर्दी जताते हुए महज पांच पांच हजार रूपये सहयोग देने का ऐलान किया | ओम प्रकाश ने तो वे पांच हजार रूपये पकड़ लिए परन्तु मैनें हाथ नहीं फैलाए | वैसे मैं आज तक नहीं समझ पाया कि जो व्यक्ति जमीनों एवं मकानों के बड़े बड़े फैसले कराता हो वह भला अपने मकान का आधा हिस्सा महज पांच हजार में कैसे छोड़ सकता है | मेरे विचार से ऐसा केवल एक साजिस के तहत ही हो सकता है |
मुझे अपने ईश्वर पर भरोसा था | मकान का काम धीरे धीरे रेंग रहा था | जो कमाई होती थी उससे थोड़ा थोड़ा बनवा रहा था | एक दिन बड़े भाई साहब आए और गली में खड़े होकर कहा, तू बेईमान है | मैं आश्चर्य चकित था कि आखिर मैनें ऐसा क्या कर दिया था जो वे मुझे यह उपाधी दे रहे हैं | मैनें उनसे पूछने की कोशिश की परन्तु जवाब न देकर वे वापिस मुड़े और चले गए | कुछ दिनों बाद मुझे उनकी इस हीन भावना का पता चल गया |
कुछ दिनों पहले वे एक राजी नामे का पत्र लाए थे | उसके अनुसार वे सभी भाईयों से उस मकान का मालिकाना हक चाहते थे जिसमें वे रह रहे थे | हालाँकि उस मकान पर मेरा हक था फिर भी मैनें उस पत्र पर दस्तखत कर दिए परन्तु ओम प्रकाश ने उस पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था | अब उनकी सहानुभूति बटोरने के लिए बड़े भाई को उनके सामने मुझे बेईमान कहने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई | आज मुझे उस बेरूखी का राज पता चल गया था जिसके कारण वे ओम प्रकाश के बारे में चुप्पी साध लेते थे | उस दिन मैं खुलकर रोया था फिर भी अपनी इंसानियत कायम रखी थी | और आखिर में बड़े भाई साहब भी अपनी इस करनी को लेकर बहुत पछताए  थे |
मैं अपने मन की व्यथा अपने बड़े भाई साहब के अलावा किसी के सामने नहीं उडेलता था | क्योंकि भाई ज्ञान चंद  को ओम प्रकाश अपने सामने कुछ समझते नहीं थे | बहनें ओम प्रकाश की लच्छेदार बात सुनकर ही ही करने के अलावा और कुछ करने में अपने को असमर्थ पाती थी | माँ भी स्वर्ग सिधार गई थी | अब कुछ दिनों के लिए बड़े भाई साहब का सहारा भी छूट गया था | जैसे जैसे दिन प्रति दिन ओम प्रकाश एवं भाभी जी का हमारे प्रति घर्नात्मक रवैया बढता जा रहा था, मेरे मन का गुब्बार भी भारी एवं असहनीय होता जा रहा था | समझ नहीं आ रहा था कि अपना मन हल्का कैसे करूँ | लड़ाई झगड़े एवं कोर्ट कचहरी से मैं कोसों दूर रहना चाहता था |
कोर्ट कचहरी से याद आया | जब हम भाईयों के बीच मन मुटाव चल रहा था तथा मेरे बड़े भाई साहब ने मुझे सरे आम बेईमान कहा था तो मेरे चाचा के लड़के ने मेरे प्रति सहानुभूति दिखाते हुए कहा, मेरा एक रिश्तेदार बहुत नामी वकील है तुम्हें तुम्हारा हक दिला देगा |
कौन सा हक, कैसा हक ?”, भाई साहब  मैं कुछ समझा नहीं |
चाचा के लड़के ने ऐसे कहा जैसे मैं एक बहुत बड़ा मूर्ख था, अरे यही बाप की जमीन जायदाद का हक |
परन्तु वह तो मुझे मिल गया है |
मिल गया, अपनी चाल सफल न होते देख उसने फिर कोशिश की, परन्तु पूरा कहाँ मिला है ?
मैनें बड़े संयम से कहा, भाई साहब जो मिल गया मैं उसी में खुश हूँ | अगर मैं ज्यादा के लिए मुकदमें बाजी करूँगा तो सालों अपने मन की शांति के साथ साथ इतना पैसा बर्बाद कर दूंगा जितना मुझे मिलेगा भी नहीं | और फिर जो लिया है मेरे भाईयों ने ही तो लिया है | किस्मत में होगा तो ईश्वर मुझे और किसी रास्ते से दे देगा |
मेरी विचार सुनकर मेरे चाचा के लड़के को उठना भारी पड़ गया और उसने हताश सा होकर यह कहते हुए, मैं तो आपकी मदद करना चाहता था आगे आपकी मर्जीकहकर अपने घर की राह पकड़ी |    
आखिर मुझे एक नायाब तरीका मिल ही गया | मैनें पैन के सहारे, कागज़ के पन्नों पर अपने मन की व्यथा को उडेलकर, कहानियों का रूप देना शुरू कर दिया | यहीं से मेरे अंदर लिखने की ललक लग गई और मैनें अपने मन की भड़ास को कागज के पन्नों पर उतार कर कई कहानियों को जन्म दे दिया | मेरी यही कहानियां लगातार दस वर्ष तक बैंक में हिन्दी प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त करती रही |       
मेरी इन कहानियों के अधिकतर पात्रों के नाम वही थे जिनके अत्याचारों या कारनामों के वशीभूत मैं लिखने पर मजबूर हुआ था | अर्थात ये मेरे जीवन में घटित वास्तविक घटनाओं से कुछ कुछ मेल खाती थी | मेरे भारतीय स्टेट बैंक की नौकरी से निवृत होने के बाद एक दिन मेरे पास सुझाव आया कि क्यों न आपकी कहानियों के संग्रह को एक पुस्तक में परिवर्तित करवा दिया जाए | मुझे भला इसमें क्या एतराज होना था |
मैनें प्रकाशक को कहा, आप पुस्तक तो छपवा रहे हैं परन्तु उससे पहले मुझे अपनी कहानियों के पात्रों के नाम बदलने होंगे |
क्यों ?
यह जरूरी है क्योंकि अभी तक मेरी कहानियां गुमनामी के अँधेरे में छुपी थी परन्तु अब छपने के बाद ये उजाले में सबकी नज़रों में आ जाएँगी |
तो क्या ?
इससे पारिवारिक कलह पनपने का अंदेशा रहेगा |
ठीक है मैं आपको आठ कच्ची कापियां छपवा कर दे दूंगा | आप उनमें फेर बदल करवाकर मुझे वापिस कर देना फिर मैं उसी अनुसार आपकी किताब छपवा दूंगा |
समझौते के अनुसार मेरे पास ‘मन की उड़ान’ किताब की आठ प्रतिलिपियाँ छपकर आई | ईश्वर की लीला को कोई नहीं समझ सकता | तभी तो कहा गया है कि ‘बन्दा जोड़े पली पली और राम बढ़ाए कुप्पा‘| जिस बात का मुझे डर था, भगवान की इच्छा से, अनजाने में वही घटित हो गया | जिस दिन किताब की प्रतिलिपियाँ मेरे पास पहुँची उसी दिन महावीर एन्कलेव से मेरी पुत्र वधु अंजू के पिता जी अपने लड़के के साथ हमारे यहाँ मिलने के लिए आ गए | मेरे नाम से छपी किताबें देखकर पढने के लिए उन्होंने एक किताब अपने साथ ले जाने का आग्रह किया | विधि का विधान ही था कि मेरी बुद्धि में नहीं आया कि अभी उन किताबों में त्रुटियाँ एवं नामों को बदलना है | मैनें उनको एक किताब थमा दी |       

मेरी इस किताब में एक कहानी ‘करे कोई भरे कोई’ शिर्षक पर लिखी गई थी | जैसा कि मैनें पहले भी बताया है कि मेरी कहानियां मन घडन्त और अधिकतर मेरे साथ घटित घटनाओं पर आधारित थी इसलिए सत्यता लिए हुए थी | यह कहानी भी ऐसी ही थी | बचपन से ही अहंकारी वातावरण में रहने वाले के लिए सत्य को स्वीकार करना बहुत कड़वा होता है | मेरी इस कहानी की सत्यता ने मेरे अपनों ने, मेरे उज्जवल भूत एवं उज्जवल वर्त्तमान में जहर घोलने की चेष्टा करके, मेरे भविष्य को चुपके चुपके नष्ट करने का षडयंत्र रच डाला | 

No comments:

Post a Comment