Monday, October 9, 2017

मेरी आत्मकथा- 16 (जीवन के रंग मेरे संग) लक्षमण पिटा क्यों

मेरी आत्मकथा- 16   (जीवन के रंग मेरे संग) लक्षमण पिटा क्यों
  
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में बाल्य अवस्था से बुढापे तक हर अवस्था में कई प्रकार के दागों से पाला पड़ता है | बच्चा जब पैदा होता है तो उसके बाद दो तीन वर्ष तक तो वह कपड़ों में ही मल मूत्र करता है | ऐसा करने से वह अपने कपड़ों पर बार बार दाग बना देता है जिसको उसकी माता जी साफ़ करती है | इस अवस्था में बनाए गए दाग को सहज लेते हुए किसी के मन में किसी प्रकार की खीज या घृणा उत्पन्न नहीं होती | परन्तु ऐसे ही दाग अगर बच्चा चार या पांच वर्ष का होने पर बनाता है तो सभी को उसके प्रति रोष महसूस होता है |
जब बच्चा थोड़ा चलना सिखाता है या अपने आप कुछ खाने की कोशिश करने लगता है तो उसके ठीक से न खा पाने के कारण या चलते चलते गिर जाने के कारण वह अपने कपड़ों पर खाने के या मिट्टी वगैरह के दाग लगवा लेता है | अपने कपड़ों पर ही नहीं बल्कि कभी कभी तो अपने जिस्म पर भी ऐसे दाग लगवा बैठता है जिन्हें चोट के निशान कहते है |
जब बच्चा स्कूल पढने जाने लगता है तो कई बार पैन की स्याही उसके कपड़ों को रंगीन बना देती है और यह दाग बड़ी मुश्किलों से वह भी कपड़े की कई बार धुलाई करने के बाद ही फीका पड़ता है | आयु कुछ और बढ़ने के बाद भी दाग तो लगते हैं परन्तु उनकी किस्म बदलती रहती है | जैसे सिगरेट के दाग, गुटखे के दाग, पान के दाग, आम के दाग, मांस के पके मसाले के दाग, दारू के दाग, किताब के पन्नों के बीच रखे फूल के दाग, तली चीज खाते हुए पन्नों पर गिरे टुकड़े से बने तेल और घी के दाग या फिर किसी की लिपिस्टिक के दाग इत्यादि |  
इन दागों को मिटाने के लिए वर्त्तमान युग में एक पूरा महकमा काम करता है जिनमें लाखों लोग कार्यरत हैं | वे किसी भी प्रकार के दागों को मिटाने के लिए अपने द्वारा बनाए गए नए नए प्रकार के पदार्थों को इस्तेमाल करने की वकालत करते हैं तथा इन पदार्थों को बेचने के लिए कई प्रकार के एडवर्टईजमैंट, प्रलोभन एवं हथकंडे अपनाते हैं जिससे प्रभावित होकर दाग छुड़ाने की चाहत में लोग उनके पदार्थों को खरीदने की लालसा त्याग नहीं पाते | किसी हद तक ये दाग छूट भी जाते हैं या फीके पड़ कर धीरे धीरे गायब हो जाते हैं परन्तु जीवन में कुछ दाग ऐसी छाप छोड़ जाते हैं जो मृत्यु पर्यंत साथ देते हैं | उनके मिटने का तो सवाल ही नहीं उठता बल्कि समय के साथ वे फीके भी नहीं पड़ते |
ये किसी के घृणात्मक आचरण से दूसरे के दिल पर लगी चोट के दाग होते हैं | हालाँकि ऐसे दागों से निजात पाने के लिए संत माहात्मा योग साधना एवं ध्यान आदि का सहारा लेने की सलाह देते हैं परन्तु दिल पर लगे इन अंदरूनी घावों को मिटाने के लिए ये साधन भी कारगर सिद्ध नहीं हो पाते |
जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था तो हमारे इंगलिश के कोर्स में शेक्सपीयर की लिखी ‘मैकबथ’ नाम की एक किताब पढाई जाती थी | उसमें राज सत्ता पाने के लिए मैकबथ और उसकी पत्नी वर्त्तमान राजा का खून कर देते हैं | परन्तु बाद में रानी अपने इस कृत्य को भुला न पाई | और अपने अंत तक वह नींद में भी चलकर अपने हाथों पर लगे खून के दागों को साफ़ करने का यत्न करती दिखाई दी | कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरे के साथ की गई बुराई हमेशा तड़पाती रहती है उसी प्रकार जिसके साथ भलाई की गई हो अगर वही भलाई करने वाले पर, अपनी स्वार्थ सिद्धी को प्राप्त करने के लिए बे-वजह बिना समझे बूझे, लांछन लगा दे तो वह भलाई करने वाले शख्स के दिल पर एक अमिट छाप छोड़ देता है | (मेरी लिखी कहानी ‘अमिट छाप’) यह दूसरी बार हुआ है जब उस घर से मेरे दिल पर वज्रपात हुआ है |
दूसरा दाग लगा क्यों .....?
जैसा कि मैनें पहले भी बताया है कि मेरी हिन्दी कहानियों की एक किताब छपी थी | उसका शीर्षक था ‘मन की उड़ान’ | प्रकाशक ने मेरे पास उस किताब की आठ कच्ची प्रतिलिपियाँ भेजी थी | मुझे कहानियों की त्रुटियों को ठीक करवा कर वापिस भेजना था | परन्तु होनी को कौन टाल सकता है | जिस दिन ये पुस्तक मेरे पास आई उसी दिन महावीर एन्कलेव से चुन्नी लाल मिलने आ गए और एक किताब अपने साथ ले गए | मुझे किसी प्रकार का कोई अंदेशा नहीं था | 
कुछ दिनों बाद मैं वैश्य सभा इन्द्र्पुरी की वार्षिक सदस्यता की उगाही के लिए लक्षमन के द्वार पर गया तो वह अपने लड़के के साथ सामने कुर्सी पर बैठा था | उसने नीची निगाहों से मुझे बाहर खड़ा देख तो लिया परन्तु फिर  अपनी नजर हटा ली तथा ऐसा दर्शाने लगा जैसे उसने मुझे देखा ही नहीं | उसका व्यवहार मुझे बहुत अजीब लगा | खैर मैं अंदर चला गया और उसके पास जाकर खड़ा हो गया | उसने कोई प्रतिकिर्या नहीं दिखाई | मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि न तो वह कुर्सी से उठा, न मुझे बैठने की कही तथा न ही अभिवादन किया | मैंने उसकी और पर्ची बढ़ाई और उसने सौ रूपये निकाल कर मेरी और हाथ बढ़ा दिया | मैं रूपये लेकर चुपचाप वापिस आ गया |               
बहुत मगज पच्ची के बाद भी मैं न जान सका कि आखिर लक्षमन के अचानक ऐसे रूखेपन का कारण क्या था | एक दो दिनों बाद मैं इस बारे में जानने के लिए उसके घर घुस ही रहा था कि वह बाहर निकलता हुआ मिला | मैनें उससे बात करनी चाही तो वह यह कहता हुआ बाहर निकल गया कि मुझे अभी फुर्सत नहीं है | एक दो दिन बाद मैनें उससे बात करने की एक बार फिर कोशिश की परन्तु उसका वही रूखा जवाब था | लक्षमन द्वारा यह मेरी तौहीन की पराकाष्ठा थी | मेरा हमेशा से यही ध्येय रहा है कि किसी को सुधरने के दो मौकों से ज्यादा नहीं देने चाहिएं | इसी के मद्देनजर मैनें निश्चय कर लिया कि अब इसके बारे में लक्षमन से कोई बात नहीं करूँगा |
जब अपनों से किसी बात पर अनबन हो जाती है तो चेहरा दिल की बात बता ही देता है | मेरे चेहरे पर प्रशन वाचक लकीरों को भांप कर संतोष ने पूछा, क्या बात है क्या सोच रहे हो ?
मैनें लक्षमन के आचरण का सारा चिट्ठा खोल दिया | ये बातें मेरी पुत्र वधु चेतना भी सुन रही थी | चेतना और दीपिका (लक्षमन की पत्नी) रोज सुबह पार्क में घुमने साथ साथ जाया करती थी | चेतना ने मेरी किताब की कहानियां पढ़ ली थी | उसमें एक कहानी ‘करे कोई भरे कोई’ दीपिका के नाम से छपी थी | चेतना को यह नहीं पता था कि इन कहानियों में अभी बदलाव करना है | सत्य घटित के आधार पर होते हुए भी वह कहानी चेतना को बेचैन कर रही थी | फिर भी अपनी पक्की सहेली तथा जिठानी जी के ऊपर विश्वास करके चेतना ने वह किताब दीपिका को पढने के लिए दे दी | और कहा, देखो यह मेरे और आपके बीच से कहीं और नहीं जानी चाहिए | वैसे मैं पापा जी से कह कर इसके पात्रों के नाम बदलवाने की कोशिश करूंगी |
हमारी बात सुनकर चेतना सामने आकर कांपकर रोते हुए एक अपराधी की तरह बोली, पापा जी शायद यह मेरे कारण हुआ है | फिर उसने दीपिका को किताब देने की बात कहकर कहा, मुझे नहीं पता था कि दीपिका भाई साहब को इस बारे में बता देगी | और अब तो उसने किताब वापिस देने से भी मना कर दी है |
चेतना का मेरे बिना बताए दीपिका को किताब देने पर मुझे रोष भी आया परन्तु संयम रखते हुए मैनें पूछा, तुमने किताब कब दी थी |    
परसों |
चेतना के परसों कहने से मैं चौंका और मुहं से निकला, परसों ! इसका मतलब लक्ष्मण की बेरूखी की जड़ को सींचने वाला कोई और ही है |
मेरे कहने से चेतना का चेहरा ऐसे खिल गया जैसे वह अब अपने को अपराध बोध से मुक्त समझ रही थी | फिर भी अपने को आश्वस्त करने के लिए उसने पूछा, वो कैसे पापा जी ?
क्योंकि आज से पांच दिन पहले से ही लक्षमन ने बे-रूखी दिखानी शुरू कर दी थी |
लक्षमन की घिनौनी चाल.........|
हालाँकि मेरी लिखी कहानी में दीपिका के नाम के अलावा मेरे भाई के घर के किसी भी और सदस्य का नाम नहीं था परन्तु चोर की दाडी में तिनका वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए लक्षमन मेरी कहानी में केवल दीपिका का नाम देखकर ही जलन की ज्वाला में दहक उठा | क्योंकि सत्य बहुत कड़वा होता है और उसे झेलने की क्षमता हर किसी में नहीं होती | 
मेरी किताब ‘मन की उड़ान’ में एक ‘स्वर्ग’ शीर्षक की कहानी और थी | उसमें मैनें आजकल के गुरूओं की मन:स्थिति तथा पुराने समय के अनपढ़ लोगों की आस्था एवं भावनाओं का किस प्रकार नाजायज फ़ायदा उठाया जाता है, को उजागर करने का प्रयास किया था | उस कहानी के पात्रों के नाम वही रखे गए थे जो उस समय प्रचलित थे जब मैंने वह कहानी लिखी थी | अत: इस कहानी में कई ऐसे नाम भी थे जो हमारे मौहल्ले में रहने वालों के थे | लक्षमण ने उनकी भलमान्सियत एवं अविकसित मानसिक स्थिति का फ़ायदा उठाकर उनको मेरे खिलाफ भड़का दिया | उसने दलील यह दी कि वास्तव में ही मैनें उनके आचरण पर धब्बा लगाने की कोशिश की है |
लक्षमन ने ऐसा जाल फैलाया कि जिनका मेरी कहानी से कोई लेना देना नहीं था वे भी भेड़ों की तरह एक दूसरे का अनुशरण करके मेरे खिलाफ कतारबद्ध खड़े हो गए | सभी ने मिलकर मेरे खिलाफ नारे बुलंद, पुतला फूंकना, वैश्य सभा की सभा जिसका मैं मंत्री था, में जाकर हाय हाय करना इत्यादि कार्यक्रमों का प्रारूप तैयार कर लिया | किसी ने यह नहीं सोचा कि जैसे लक्षमन उन्हें बता रहा था वैसे ही कोई मेरे से तो जानले कि वास्तविकता क्या है | पूरे गाँव में एक दूसरा खुद ही अपने ऊपर कलंक लगने की बात कर रहा था |
एक दिन मेरे जीजा जी श्री कृष्ण कुमार का फोन आया | उन्होंने पूछा, सुना है आपने एक किताब लिखी है ?
उनके मुख से अपनी किताब के बारे में जानकर आशचर्य हुआ क्योंकि मैनें अभी तक इसके बारे में किसी को कुछ नहीं बताया था | मैनें पूछा, आपको कैसे पता चला ?
लक्षमन का फोन आया था वही शिकायत कर रहा था |
कैसी शिकायत ?
कह रहा था कि आपने दीपिका पर बहुत लांछन लगाए हैं |
वैसे तो मैं अभी संशोधन करके ही इस किताब को छपवाता परन्तु जब आप तक सारी खबर पहुँच ही गई हैं तो संशोधन करवाने का कोई तर्क नहीं रहा | जब भी मिलेंगे मैं आपको भी एक किताब दे दूंगा जिससे आप अच्छी तरह पढ़ सकें |
इसी तरह भीम सैन, जय प्रकाश एवं अन्य रिश्तेदारों के फोन आने पर ही मैनें उनको एक एक किताब मुहैया कराई फिर भी इल्जाम मेरे ऊपर ही आया कि मैनें ही सभी रिश्तेदारों को किताब बांटकर उन्हें(लक्षमन को) जलील करने की कोशिश की है | अगर लक्षमन बहकावे में आकर बात न फैलाता तो कहानी का प्रारूप ऐसा होता जैसा मैनें अपने ब्लॉग www,jeevankerang-charan.blogspot.com में दर्शाया है |     
जब सलमान रसदी ने इस्लाम के खिलाफ कुछ लिख दिया था तो संसार के अधिकतर मुस्लिम खलीफा उसके खिलाफ आवाज बुलंद करने से नहीं चूके थे | रसदी के खिलाफ उन्होंने फतवा निकाल दिया था जिससे अपनी आत्म रक्षा के लिए रसदी को अपना वतन छोडकर विदेश में शरण लेनी पड़ी थी | इसी प्रकार लक्ष्मण एवं उसको उकसाने वालों ने गाँव में सभी के दिमाग में यह बैठा दिया गया था कि अब मैं डर एवं शर्म से गाँव में कभी प्रवेश नहीं करूँगा |
शायद वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि ‘सांच को आंच नहीं’ तथा एक फ़ौजी अपनी पीठ कभी नहीं दिखाता | इसलिए जब मैं बेधड़क अपने घर के सामने जाकर खड़ा हो गया तो मुझे महसूस हुआ कि कहानी पलट गई है | मौहल्ले में किसी की हिम्मत नहीं हुई कि मेरे सामने आकर कुछ कहे | साजिस के तहत फैलाई गई गलत फहमी को, सच्चाई बताकर मुझे ही उसका निवारण करना पड़ा | 
इस सारे प्रकरण की वास्तविकता यह थी कि महावीर एन्कलेव में, जिस घर में मेरा लड़का पवन ब्याहा था, दीपिका की बहन ब्याही थी | उसने मेरी किताब पढकर बिना सोचे समझे दीपिका के कान भर दिए और उस किताब की फोटो कापी भी भेज दी | कहते हैं न कि ‘अकेला चना भा नहीं फो सकता’ लक्षमन ने अपने शैतानी दिमाग पर जोर डाला और मौहल्ले के भोले भाले लोगों को फुसलाकर मेरे खिलाफ भकाकर अपने साथ मिला लिया | ऐसे कामों के लिए ऐसे और भी बहुत मिल जाते हैं जिनको एक दूसरे को भिडाने के अलावा कोई काम नहीं होता | यही नहीं वे ऐसे कामों पर पैसा खर्च करने से भी पीछे नहीं हटते | कहना न होगा कि लक्षमन को ऐसे दोस्तों की संगत मिली जो अपने बाप को भी अपने घर में घुसने नहीं देते थे फिर भला लक्षमन के दिल में उसके चाचा की उसके लिए क्या इज्जत हो सकती थी | परन्तु जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय बाल न बांका कर सके चाहे जग बैरी होय | भगवान ने एक बार फिर मेरी मदद की और मैं मौहल्ले में, अपनों को छोकर, सबका चहेता बना रहा | पुराने जमाने में जैसे परिवार के सभी लोग एक साथ मिलकर रहते थे तथा एक ही मुखिया होता था उसी प्रकार भाईयों के एक दूसरे के मकानों के बीच की दिवार भी अधिकतर एक ही होती थी | उस समय सीमेंट तो होती नहीं थी इसलिए दीवारें चूने से ही चिनी जाती थी | दीवारें कमजोर होने की वजह से उन्हें बहुत मोटा रखा जाता था | ऐसी ही अठारह इंच मोटी एक दीवार ओम प्रकाश एवं राज कुमार (पिंकी) के मकानों के बीच में थी जो कभी उनके पूर्वजों ने बनवाई होगी | ओम प्रकाश ने दो मंजिला मकान पहले बनाते हुए अपनी नौ इंच की दीवार उस अठारह इंच की दीवार के बाहरी हिस्से पर टिका दी थी | यही नहीं जब उसने तीसरी मंजिल बनाई तो उसने केवल साढ़े चार इंच की दीवार उठाई वह भी उस नौ इंच की दीवार के बाहरी हिस्से पर | अर्थात तीसरी मंजिल पर जाकर वह बीच की दीवार अब केवल ओम प्रकाश की हो गई थी | कुछ अरसे बाद लक्षमन को अपना वारिस छोड़ ओम प्रकाश का निधन हो गया |  
थोड़े दिनों बाद पिंकी ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपना मकान बनवाना शुरू कर दिया | उसने अपना पूरा मकान गिरवा कर उसे नए सिरे से बनवाना शुरू कर दिया | उसकी पहली छत डालने की पूरी तैयारी हो चुकी थी | जब पिंकी ने पहले की तरह ओम प्रकाश(लक्षमन) की दीवार पर अपने मकान की छत टिकानी चाही तो लक्षमन ने एतराज उठा दिया | उसने कहा कि राज कुमार नीचे से अपनी दीवार अलग उठाकर अपनी छत उस पर टिकाए क्योंकि मौजूदा दीवार केवल उसकी बनवाई हुई है |
मेरे पिताजी, स्वर्गीय राम नारायण एवं मेरे चाचा जी स्वर्गीय दीप चंद दो भाई थे | इस समय अपने परिवार में मैं सबसे बड़ा बचा था तो दूसरी तरफ से बुध राम एवं उसके चार भाई थे | राज कुमार का लेंटर डलवाने की पूरी तैयारियां हो चुकी थी | अब अगर उसका काम रुक जाता तो उसको काफी नुकसान झेलना पड़ता | इसलिए राज कुमार ने सलाह मशवरा करने के लिए मुझे तथा अपने भाईयों को बुला लिया | राज कुमार की तरफ से कई सुझाव आए, पुरानी दीवार में हमारा भी हिस्सा है, हमें उतनी जगह के पैसे दे दो जितने में दीवार लगेगी, अभी छत का लैंटर डलवा लेने दो बाद में दीवार कर देंगे, लेंटर इसी दीवार पर टिका लेने दो हम इस दीवार का आधा पैसा दे देंगे, इत्यादि | लेकिन लक्षमन सभी की मान मर्यादा को दरकिनार करके एक ही रट लगाए रहा कि पहले अलग दीवार होगी तभी लैंटर डलेगा |         
मरता क्या न करता | राजकुमार ने अपनी अलग दीवार बनवाकर लैंटर डलवा लिया | कहते हैं कि जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता तो उंगली टेढी करनी पड़ती है | उसी को ध्यान में रखकर तथा लक्षमन की जिद का जवाब देने के लिए राज कुमार ने अपनी तरफ की दीवार कच्ची बनवा दी | और लैंटर बनाने के बाद उस दिवार को  निकलवा दिया |
जब लक्षमन को इस बात की भनक लगी तो उसके शैतानी दिमाग में एक फतूर ने जन्म ले लिया | उसने यह जानने के लिए कि वास्तविक में ही राज कुमार ने अपनी बनाई दीवार हटा ली है, उसने अपने तरफ बनाई गई साढ़े चार इंच की दीवार का थोड़ा सा हिस्सा हटा दिया | ऐसा करने से दोनों घरों के बीच एक झंकाला (रास्ता) बन गया | इससे रुष्ट होकर, एक दिन लक्षमन को अकेला पाकर, राज कुमार तथा उसके भाई अशोक के परिवार ने मिलकर उसकी पिटाई कर दी | पुलिस रिपोर्ट होने पर दोनों पक्ष थाने पहुँच गए |
उनके पिटने पीटने का समाचार पाकर मैं गुडगाँवा से नारायणा पहुंचा | सुलह सफाई करने के अलावा कोई चारा न था क्योंकि लक्षमन के मन में भविष्य के लिए, अशोक से अपने बच्चों के प्रति व्याप्त डर तथा सभी रिश्तेदारों की सुलह की सहमति के बनते और कुछ किया भी नहीं जा सकता था | इस झगड़े से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था | यह लक्षमन की अपनी करतूत का नतीजा था | फिर भी दीपिका ने सारे मौहल्ले के सामने, मेरे सामने पड़ते हुए, यह कहकर कि ‘मैनें ही उन्हें पिटवाया है’ मेरे चरित्र पर एक और दाग लगाने की कोशिश की थी | इसके बावजूद मेरे दिल में उन अपनों के लिए दुआएं ही निकलती हैं कि वे जहां रहो, जैसे रहो, खुश रहो-आबाद रहो | 
    


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