Wednesday, October 18, 2017

मेरी आत्मकथा- 19 (जीवन के रंग मेरे संग) बड़ी बहू

मेरे बड़े लड़के प्रवीण के रिश्ते आने शुरू हो गए थे | यह १९९० के दशक की बात है | समय लोगों की जीवन शैली में बड़ी तेजी से परिवर्तन ला रहा था | बेरोजगारी चरम सीमा पर थी | पढ़े लिखे नौजवान हाथों में डिग्रियां लिए नौकरी की तलाश में इधर उधर भटकते रहने पर मजबूर थे | प्राईवेट नौकरियों तो थी और अगर थी भी तो उसे कोइ करना नहीं चाहता था | सरकारी नौकरी थी नहीं और अगर थोड़ी बहुत होती भी थी तो अपनी किस्मत आजमाने उसके लिए लाखों की तादाद में लोग जाते थे | ऐसे में प्रवीण को जिसने अभी अभी बी.कोम पास किया था भाग्यवश सरकारी नौकरी पा गया | इसकी गूँज हवा की तरह हमारे सभी रिश्तेदारों में फ़ैल गयी | यही कारण था की उसके रिश्तों की एकदम बाढ़ सी गई | मेरी पत्नी संतोष वैसे तो किसी भी बातचीत में सामने नहीं आती थी परन्तु छिपकर रिश्ता लेकर आने वालों की हर गतिविधि पर नजर रखती थी | जब आने वाले कई एक दो बार चुके तो संतोष ने अपने मन की इच्छा जाहिर करते हुए कहा, "देखो जी रिश्ता ऐसा लेना जिसका व्यवहार शराफत से भरा हो |"
"शराफत से भरे से तुम्हारा क्या मतलब है ?"
"यही कि भोला भाला हो |"
अपने चहरे पर मुस्कान बखेरते हुए मैनें पूछा, "मेरे जैसा भोला ?"
संतोष तुनक कर, "अजी हाँ राम भजो, आप अपने को शरीफ समझते हो ?"
"तो क्या नहीं हूँ ?"
संतोष मेरे से थोड़ा दूर हटकर, "आप तो एक नम्बर के छटे........|" और वह खिलखिलाकर हंस पड़ी |
"रूक क्यों गई पूरा कह दो |"
"जब आप समझ ही गए हो तो पूरा कहना कहना एक ही बराबर है |" खैर, संतोष ने मुस्कराते हुए कहा, "अब तक तो आपने अंदाजा लगा ही लिया होगा कि किससे बात आगे बढानी है |"
"तुम्हारा क्या विचार है ?"
"मुझे तो वह, जो नजफ़गढ़ से आए थे काफी भोले भाले और शरीफ नजर रहे थे |"
"नजफ़गढ़ से तो दो तीन चुके हैं |"
"वही जो अपने को जीजा जी कृष्ण कुमार जी का भाई बता रहे थे |"
मैनें अपनी दुविधा बताई," वे भोले एवं शरीफ तो लग रहे थे परन्तु महा कंजूस और छिपे रूस्तम भी जान पड़ रहे थे |"
वे तो छिपे रूस्तम होंगे परन्तु आप से नीचे नीचे |
अच्छा जी |
संतोष हंसकर, "और क्या | वैसे यह बताओ कि आप ने कैसे जान लिया कि वे कंजूस हैं ?"
"उनके पहनावे से |"
"ऐसा आपने उनके पहनावे में क्या देख लिया ?"
"उनके कपडे तो साफ़ सुथरे थे परन्तु फटी हालत में थे | उनकी पहनी हुई जुराबें भी नीचे से फटी हुई थी |"
"हमें उनकी कंजूसी से क्या लेना देना हमें तो बस लड़की अच्छी मिलनी चाहिए |"
"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ परन्तु दूसरे के यहाँ जाते समय कुछ तो मर्यादा रखनी चाहिए |"
"पुराने जमाने के लोग ऐसे ही हुआ करते हैं | देखना इनके बच्चों में आपको यह कमी नजर नहीं आएगी |"
"मैं भी तो इनके जमाने का हूँ |"
"हम तो हमेशा बाहर रहे हैं तथा देखा है कि थोड़े में भी सुखमय जीवन कैसे जीते हैं | ये तो बेचारे हमेशा उसी नून तेल लकड़ी में ही लगे रहे |"
"साफ़ क्यों नहीं कहती कि बेचारे रीफ समधी पसंद गए हैं |"
संतोष एकदम हाथ नचाकर बोली, "नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं है | मैं कुछ नहीं जानती | मैंने तो बस अपनी राय बताई है | पक्की तो आप अपनी समझ से करोगे |"
लड़के लड़की की देखा दिखाई हो गई | शादी १० फरवरी 1997 की तय हो गई | शादी के थोड़े दिनों पहले मेरे भतीजे अनील के एक पैर की हड्डी टूट गई थी | उनका घर गाँव के एक छोर पर था तो हमारा दूसरे छोर पर था | वह हमारे घर आने में असमर्थ था अत: सभी का विचार बना कि प्रवीण को उनके घर के पास वाले शिव मंदिर में ही पूजा कराई जाए जिससे रास्ते में अनील भी अपने मकान की पहली मंजिल से प्रवीण को आशीर्वाद दे सके
इस प्रोग्राम के कारण बारात को नजफ़गढ़ पहुँचने में काफी देर हो गई | जब हम नजफ़गढ़ पहुंचे तो चेतना  के पिताजी के चेहरे का रंग गिरगट की तरह बार बार बदल रहा था | हमें सामने पाकर उसने आव देखा ताव तथा समय की नाजुकता को परखते हुए बिफर पड़ा
उन्होंने मेरे बड़े भाई साहब के सामने लाल पिला होकर आग उगलते हुए कहा, "यहाँ अब आप क्या अपनी इसी-तीसी कराने आए हो |"
संतोष का शरीफ, भोला भाला और शांत स्वभाव वाले इंसान की  जबान शोले उगल रही थी | उनकी बात सुनकर मेरे भाई सकते में गए परन्तु अपना बडप्पन और संयम दिखाते हुए उन्होंने केवल इतना ही कहा, "लाला जी ऐसे मौकों पर देरी हो ही जाती है |" और आगे बढ़ गए |    
मेरे भाई मुझे अपने साथ लेजाना भूले थे क्योंकि वे जानते थे कि मैं किसी की बदतमीजी बर्दास्त नहीं कर सकता था | अपने बड़े भाई साहब के कहने के अनुसार  धर्मशाला में मैं अपने लड़के की शादी के हर नेग टहले तो निपटा रहा था परन्तु मेरा मन शांत था | जब चढत शुरू हुई तो मैनें कृष्ण लाल के बड़े लड़के को बुलाकर अपने मन का गुब्बार निकालना शुरू कर दिया, "शंकर, क्या आप वहां थे जब हम धर्मशाला पहुंचे थे | "
"नहीं मौसा जी मैं वहां नहीं था | मैं बर्फ का इंतजाम करने गया था |"
"तुम्हे पता है जब हम वहां थोड़ी देरी से पहुंचे तो आपके पिता जी ने हमारा कैसे अभिवादन किया था ?"
"मौसा जी क्या बात हुई क्या उनसे कोइ त्रुटि हो गई ?"
"किसी सामान की त्रुटि होती तो कोई कहना नहीं था परन्तु उनकी जबान इतनी कड़वी है कि कुछ कहा नहीं जाता तथा सहन हो नहीं रहा | उन्होंने तो हद ही कर दी |"
शंकर अपने पिताजी के द्वारा किसी अनहोनी घटना को जन्म देने की आशंका से हाथ जोड़कर बोला, "मौसा जी क्या बात हुई ?"   
“जब हम कुछ देरी से जनवासे में पहुंचे तो तुम्हारे पिताजी ने बिफर कर जैसे वह किसी ऐरे गेरे से कह रहे हों कहा, “ईब के यहाँ अपनी इसी-तीसी कराने आए हो |”
“मौसा जी मेरे पिता जी थोड़ी सी बात में ही गुस्सा खा बैठते हैं |”
“परन्तु यह कहाँ की शराफत है कि सभी को एक ही लाठी से हांकने लगें ?”
“नहीं मौसा जी मैं उनको समझा दूंगा |”
“केवल समझाने से बात नहीं बनेगी उन्हें अच्छी तरह से बता देना कि सामने वाला किसी मायने में कम नहीं है तथा वह किसी की बदतमीजी बर्दास्त नहीं करता |”
“मौसा जी आपसे मैं उनकी तरफ से माफी मांगता हूँ |”
“आपके माफी माँगने से कुछ हल नहीं होता | उन्हें अगर रिश्ता निभाना है तो अपने को काबू में रखें | नहीं तो अभी भी कुछ नहीं बिगडा है |”
मेरी बातों का आशय समझकर शंकर गिडगिडाकर बोला, “नहीं मौसा जी ऐसा मत करना | मैं आपको आशवासन देता हूँ कि उनकी तरफ से फिर ऐसा नहीं होगा |”
“आप बहुत भाग्यवान हो कि मेरे साथ मेरे बड़े भाई साहब थे अन्यथा यह तो अब तक हो चुका होता |”
इसके बाद आगे के कार्यक्रम सुचारू रूप से चल रहे थे कि फेरों के समय बैठने की उचित व्यवस्था न् होने के कारण मनोज जी ने अपना आपा खो दिया | उनके द्वारा कुछ गुस्से में बोलने के कारण इंतजाम तो ठीक कर दिया गया परन्तु मनोज जी का व्यवहार मेरे बड़े भाई साहब जी के उसूलों के खिलाफ था |
शादी संपन्न हो गई और विदाई का समय आ गया | विदा लेते समय मेरे बड़े भाई साहब चेतना  के पिता जी श्री कृष्ण लाल जी के पास गए और बड़े ही कोमल शब्दों में बोले, लाला जी हम यहाँ जो करने आए थे उसे पूरा करके जा रहे हैं | अब आप जानो कि यह आपकी ‘ईसी-तिसी थी या कुछ और |
मेरे बड़े भाई साहब के सवाल का कृष्ण लाल के पास कोई जवाब नहीं था | वे बस अपनी आँख व् गर्दन नीची करके रह गए |
हालाँकि मैं अपने बड़े भाई साहब जी को अपना पूजनीय मानकर उनकी हर बात मानने का प्रयत्न करता था | परन्तु कभी कभी मुझे उनका रवैया अपने फायदे से प्रेरित एवम अपने तथा अपने बच्चों को हर प्रकार से समर्थ दिखाने का ढंग पसंद नहीं आता था | इन्हीं विचारों के चलते कभी कभी मेरा उनके विचारों से टकराव हो जाता था |
इस टकराव का मकसद यह कभी नहीं होता था कि मेरे मन में उनके प्रति स्नेह, श्रद्धा या आदर कम हो जाता था | बस उनके ऐसे व्यवहार के लिए मैं बच्चे की तरह थोड़ी देर के लिए तड़प कर रह जाता था तथा जल्दी ही सब भूल जाता था | और उनसे कोई शिकायत न कर अपना रास्ता चुन लेता था | प्रवीण की शादी के समय भी हमारे बीच एक ऐसा ही विचारों का टकराव हो गया था |
प्रवीण की  शादी के समय हम चारों भाईयों में से कार केवल मेरे बड़े भाई साहब जी के पास ही थी | इसलिए मैनें सोचा था कि प्रवीण की शादी की विदाई के बाद दुल्हन को उनकी गाड़ी में ही लिवाकर लाया जाए | मैनें जब अपने बड़े भाई साहब जी के सामने अपने मन की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने कहा, भाई ऐसा है, गाड़ी के लिए तो तुम्हें बच्चों से पूछना पड़ेगा |
मैं उनका जवाब सुनकर हैरत से सन्न रह गया | मेरी समझ में नहीं आया कि आखिर उनके ऐसा कहने का मतलब क्या था ? क्या वे चाहते थे कि मैं उनके बच्चों के सामने फ़रियाद करूँ क्योंकि वे खुद मजबूर थे | परन्तु मैं नहीं चाहता था कि उनको मजबूर देखूं | परन्तु शायद वे मजबूर नहीं थे बल्कि अपने बच्चों का रूतबा मेरे से ऊपर दिखाना चाहते थे | उनके कहने का मैनें कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप उठकर वापिस आ गया | रास्ते में ही मैनें एक दृड निश्चय कर लिया कि अपने लड़के की दुल्हन को अपनी खुद की गाड़ी में ही विदा करके लाऊंगा  और मैनें इसे निभाया भी |     
मई का महीना था | दिन में सुबह से ही बदन को झुलसाने वाली लू चलने लगी थी | घर से बाहर निकलना दुस्वार प्रतीत होता था | सुबह के दस बजे ही बाजारों की सड़कें सुनसान हो जाती थी | बिजली की कटौती से हर व्यक्ति परेशान था | एक घंटे के नाम पर तीन चार घंटे बिजली गुल रहना आम बात थी |
२३ मई १९९८ को मेरे घर की बिजली को गए लगभग दो घंटे व्यतीत हो चुके थे | घर में लगा जनरेटर भी थक हार कर शांत होकर सो गया था | घर के सारे व्यक्ति हाथ का पंखा झलते झलते थक चुके थे | इसकी वजह से सभी के स्वभाव एवम बोलने में चिड-चिडेपन का आभाष हो रहा था | शुक्ल पक्ष चल रहा था अत: चारों और गुप्प अन्धेरा व्याप्त था | यह सोचकर घर में मोमबत्ती भी नहीं जलाई गई थी कि ऐसा करने से गर्मी और बढ़ जाएगी | आस पडौस में किसी का भी कूलर न् चलने से चारों और सन्नाटा था |
रात के लगभग दस बजे होंगे | मेरे घर के टेलीफोन की घंटी टनटना उठी | इस सन्नाटे के माहौल में मेरे डाईलिंग वाले टेलीफोन की बजती घंटी ने सभी के दिमाग पर हथौड़े मारने जैसा काम किया | मैनें बुदबुदाते हुए कि न् जाने इस समय किस का फोन होगा, टेलीफोन का चौगा उठाया और बोला, हैलो |
दूसरे छोर से, हैलो कौन बोल रहा है ? गुप्ता जी हैं क्या ?
हाँ बोल रहा हूँ | आप कौन हैं ?
मैं नजफगढ से कृष्ण लाल बोल रहा हूँ |
लाला जी नमस्ते ! कहिए कैसे याद किया ?
कृष्ण लाल कुछ उखड़े से अंदाज में, याद क्या ! बस मैं कल चेतना  को लेने आ रहा हूँ |
एक बार को मैं चेतना  के पिता जी द्वारा अचानक कहे इस वाक्य से अवाक रह गया | फिर संभल कर उनका वाक्य ही दोहराया, कल चेतना  को लेने आ रहा हूँ |
हाँ मैं कल चेतना  को लेने आ रहा हूँ |
मैंने अपने मन में उधर किसी अनहोनी घटना के घटित होने की सोचकर, वहाँ सब कुशल तो है ?
हाँ यहाँ सब ठीक है | मैं कल लेने आ रहा हूँ |
मुझे उनके ‘कल लेने आ रहा हूँ’ की रट से कुछ अटपटा सा लगा फिर भी संयम रखते हुए कहा, चेतना  को अस्पताल से आए अभी तो एक महीना भी नहीं हुआ ?
कृष्ण लाल उसी उखड़े अंदाज में, एक महीना तो बहुत होता है | वैसे कल एक महीना भी पूरा हो जाएगा |
परन्तु लाला जी चेतना  के जापे के लिए मेरी लड़की जो आई हुई है हमने उसे भी अभी तक विदा नहीं किया तो चेतना  को आपके साथ भेजना क्या उचित लगेगा ?
कृष्ण लाल अपनी आवाज ऊंची करके तथा लांछन लगाकर बोला, उचित अनुचित मुझे नहीं पता | मैं कल लेने आ रहा हूँ | क्योंकि हमारी लड़की वहाँ रोती है | जब से वह वहाँ गई है दुखी है |
शायद यह मेरा कसूर था कि मैं पहले भी दो तीन बार कृष्ण लाल की बदतमीजी बर्दास्त कर चुका था | आज तो उन्होंने मेरे परिवार पर झूठा लांछन लगाकर हद ही पार करने की कोशिश की थी जो मैं किसी भी हालत में पार करने नहीं दे सकता था | इसलिए उन्हें रोकने के लिए मुझे मजबूरन अपनी आवाज बुलंद करके कहना पड़ा, अपनी ये बेहूदा बकवास बंद करो और आवाज नीची करके इज्जत से बात करो |
अबकी बार कृष्ण लाल कुछ नरमाई से बोले, क्या बात करूँ ?
जो भी आपको करनी है | परन्तु ध्यान रखना कि ऊंची आवाज में बोलना केवल आपके हिस्से में ही नहीं लिखा है | हमें भी ऊंची आवाज में बोलना आता है | मैं किसी भी तरह तुम्हारी दबेल को बर्दास्त नहीं करूँगा | और कान खोलकर सुन लो चेतना  यहाँ गठड़ी बांधे आपके आने का इंतज़ार नहीं कर रही है | बहू बेटी को भेजने के लिए वक्त चाहिए | समझे |
मेरी ऊंची आवाज सुनकर सभी घर वाले परेशान से हो गए तथा इशारों से मुझे फोन रख देने का आग्रह करने लगे | मैनें कृष्ण लाल को जो सुनाना था वह कह चुका था अत: घर वालों की बात मानना ही उचित समझ फोन रख दिया |
दिमाग में थोड़ी शान्ति आ जाने पर मैनें अपने जीजा जी श्री कृष्ण कुमार जी को, जिनकी थोड़ी मध्यस्थता के वशीभूत होकर अपने लड़के प्रवीण की शादी चेतना  से कर दी थी, सारी बातों से अवगत कराना उचित समझ उन्हें टेलीफोन किया, जीजा जी नमस्ते |
कृष्ण कुमार जी अपने चिरपरिचित अंदाज में बोले, नमस्ते साले साहब नमस्ते |
रात के ग्यारह बजने को थे अत: उनसे माफी माँगते हुए मैं बोला, आपको देर रात में जगाने के लिए माफी चाहता हूँ |
कैसी बात कर रहे हो साले साहब अभी तो हम सोए ही नहीं हैं | कहो कैसे याद किया?
मैनें शुरू से आखिर तक जो भी कृष्ण लाल से बातें हुई थी और हकीकत थी ब्यान करते हुए पूछा, जीजा जी अब आप ही बताईये कि कोई आदमी बार बार किसी की बदतमीजी कैसे सहन कर सकता है ?
क्यों क्या पहले भी कोई ऐसी बात हुई है ?
हाँ जीजा जी एक दो ऐसी बातें और हो चुकी हैं जो मैनें आपको क्या किसी को भी नहीं बताई |
वह क्या थी | अपने मन का बोझ हल्का करने के लिए अब बता दो |
जीजा जी बोझ तो क्या हल्का होना है फिर भी आप पता ही करना चाहते हैं तो बता ही देता हूँ | एक दिन लग्न से पहले मैनें शंकर को यह याद दिलाने के लिए फोन करना चाहा कि चढत के समय रास्ते में एक जगह पानी का इंतजाम हो जाए तो अच्छा रहेगा | परन्तु शंकर मिला नहीं | मुझे आफिस भी जाना था अत: सोचा कि फिर कभी शंकर को याद दिला दूंगा | शाम को जब मैं घर पहुंचा तो बताया गया कि नजफगढ से फोन आया था | फोन पर जो शब्द कहे गए थे उन्हें सुनकर दिमाग पर एक हथौड़े का प्रहार सा महसूस हुआ | मेरा शरीर गुस्से से काँप कर रह गया | 
ऐसा क्या कहा था नजफगढ वालों ने ?
उन्होंने बिना किसी से कुछ पूछे ही कहा, शंकर को किस लिए ढूंढ रहे हो पीसे वहाँ से नहीं पीसे तो मेरे पास से मिलेंगे जबकि मैनें पैसों के बारे में कभी उनसे कोई बात नहीं की है |
इतनी तो मुझे परख है कि आप में पैसों का लालच नहीं है | वैसे सचमुच उन्होंने बहुत गलत बात कही है |
अपने जीजा जी को आगे याद दिलाते हुए मैनें बताया, नजफगढ में जनवासे का ड्रामा तो आपने देखा ही होगा ?
हाँ वहाँ तो मैं खुद मौजूद था”, फिर वे कुछ सोचकर बोले,अब आप बताएं कि मैं क्या करूँ ?
जीजा जी मैं आपको सुझाव नहीं दे सकता | आप जैसा उचित समझें करें | कृष्ण लाल जी तो मेरी शराफात का नाजायज फ़ायदा उठाने की सीमा लांघ चुके हैं | आगे मुझ से बर्दास्त नहीं होगा तभी मैनें आपको सूचित करना उचित समझा कि कहीं बाद में आप यह न कह दें कि आपको कुछ पता नहीं था, और मैनें शुभ रात्री कहकर फोन रख दिया |
क्रमशः


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