Sunday, October 22, 2017

मेरी आत्मकथा- 21 (जीवन के रंग मेरे संग) बड़ी बहू


स्वस्थ होकर घर आने के बाद चेतना  की सास ने उसकी बीमारी की वजह जानने के लिए पूछा, चेतना , मैंने कई बार कहा था कि तुम दिन पर दिन कमजोर होती जा रही हो कारण क्या था ?
माता जी पता नहीं मैं तो खूब खाती पीती थी फिर भी अंग नहीं लगता था |
परन्तु जहां तक मैं जानती हूँ तुमने कभी डाक्टर को भी नहीं दिखाया और किसको दिखाया था ?
दिल्ली कैंट में दिखाया था |
सास ने आश्चर्य से पूछा, दिल्ली कैंट ! क्यों वहाँ कोई खास डाक्टर है क्या ?
नहीं माता जी जब मैं अपनी बहन से मिलने गई थी तो वहीं दिखा दिया था |
कोई बात नहीं मैनें सोचा कि वैसे तो यहाँ सुखबीर अच्छा डाक्टर है और तुम हमेशा यहीं दिखाती थी तो इस बार वहाँ क्यों दिखाया ?
माता जी कोई खास कारण नहीं है बस यूं ही दवाई ले आई थी |
चेतना  की सास ने अपने बाल धूप में सफ़ेद नहीं किए थे | चेतना  जब बता रही थी तो सास ने समझ लिया था कि चेतना  की झुकी नजरें, उसका कांपता शरीर तथा चेहरे की उड़ी रंगत कुछ और ही बयान कर रही थी | वह असलियत को छुपा रही थी |
बिना किसी को बताए शाम को संतोष ने चेतना  की बड़ी बहन को फोन मिलाया, अनिता मैं चेतना  की सास बोल रही हूँ |
नमस्ते मौसी जी |
संतोष ने बिना नमस्ते का जवाब दिए सीधा प्रश्न दागा, चेतना  ने तुम्हारे यहाँ डाक्टर से किस बीमारी का इलाज कराया था ?
अनिता को एकदम ऐसे प्रशन की उम्मीद न थी, वह हकबका गई और एकबार को ठीक से जवाब न दे पाई |
क्यों क्या हुआ ?
मौ..सी...जी आपको क्या बताऊँ |
क्या बताऊँ, क्या मतलब | मेरी बहू की दिमागी बीमारी का मुझे भी तो पता होना चाहिए |
मौसी जी उसको दिमागी बीमारी कुछ नहीं थी..............|
अनिता चुप क्यों हो गई पूरी बात बताओ कि अगर दिमागी बीमारी नहीं थी तो क्या थी ?
मौसी जी मैनें अपने को बड़ी समझ कर बहुत बड़ी गल्ती कर दी थी |
हर बात से अनभिज्ञ संतोष ने जानना चाहा, कैसी गल्ती, कौन सी गल्ती |
मौसी जी मुझ माफ कर देना बिना किसी की सलाह लिए चेतना  के तीन महीने के गर्भ की सफाई.........|
हाय राम, इतनी बड़ी बात कर दी और तुम दोनों में से किसी ने कानों कान खबर भी नहीं होने दी |
..................................
अनिता तुम तीन बच्चों की माँ होकर इतनी ना समझ कैसे हो सकती हो |
मौसी जी मैं आपकी बहुत बड़ी गुनाहगार हूँ | मुझे बताते में अपने ऊपर गलानी एवम शर्मिंदगी महसूस हो रही है कि मैनें यह जन्घय काम अपने यहाँ चेतना  पर तीन बार करवाया है |
संतोष अपना सिर पकड़ कर बैठ गई और चिल्लाई, हे भगवान तुम ने तो मेरी बहू को मारने की पूरी तैयारी कर रखी थी | औरत एक गर्भपात को तो सहन कर नहीं पाती और तुमने उसके तीन तीन ...............हे भगवान | तुम औरत हो या जल्लाद |   
मौसी जी शायद मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे जो मुझे मेरे कृत्य से किसी अनहोनी होने का सपनों में भी ख्याल नहीं आया, मुझे माफ कर दो |
जब मुझे इस बात का पता लगा तो मैं इसके विशलेषण में तल्लीन हो गया कि आखिर चेतना  जैसी समझदार लड़की ऐसा कदम कैसे उठा सकती है | क्या वह अपनी  द्रड़ता, शक्ति, मनोबल, पक्का ध्येय को भूलकर एक बेबस, निढाल, उदासीन और समर्पण प्रवर्ति वाली हो गई है | या फिर अपने पति की काम पिपासा को भांपकर कि कहीं उनकी मनोपूर्ती न करने से उनके कदम बहक न जाएँ उसने सब कुछ खुद भोगने की ठान ली और इस स्थिति में पहुँच गई | परन्तु गर्भावस्था से बचने के वर्तमान समय में तो बहुत से विकल्प खुले हैं तो फिर ऐसा क्या था जो चेतना  इतनी मजबूर हो गई थी |



हालाँकि चेतना का स्वास्थ्य तो ठीक हो गया परन्तु उसके मन में अपने भविष्य के जीवन के प्रति कुछ ऐसे विचारों ने जन्म ले लिया जो उसके गृहस्थ जीवन में कलह का कारण बन सकते थे | शायद इसी वजह से चेतना ने अपने आपको स्वावलंबी बनाने के लिए कदम बढ़ाना शुरू कर दिया |
वह स्नातक तो थी ही अब उसने अपने मकसद में कामयाब होने के लिए स्नातकोत्तर की डिग्री भी हासिल कर ली | परन्तु वर्त्तमान युग में केवल स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल कर लेने से कोई बात बनती नहीं यही सोच चेतना ने बी.एड.की डिग्री प्राप्त करने का मन बना लिया | इस समय चेतना के बच्चे छठी और चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे | चेतना चौतीस बसंत देख चुकी थी | उसका पति प्रवीण सरकारी मुलाजिम था | घर में सुविधा का हर सामान मौजूद था | किसी प्रकार की कोई कमी न थी | उसकी गृहस्थी सुचारू रूप से चल रही थी | ऐसे में चेतना का बी.एड. करने की बात उसके सगे सम्बन्धियों के गले नहीं उतर रही थी | चेतना के पीहर वाले, उसकी नन्द का परिवार, उसकी बहनें तथा उसकी ससुराल के कुछ लोग भी चेतना के ऐसे माहौल में बी.एड.करने को निरर्थक बता रहे थे |
मैंने अपने जीवन में पढाई करने को सर्वोपरिय माना है | यही सोचकर कि पढाई करने की लग्न में उम्र आड़े नहीं आती मैंने भारतीय वायु सेना में नौकरी करते हुए भी तीस साल की उम्र में जोधपुर यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने में कामयाबी पाई थी | अपने इन्हीं विचारों के कारण सभी की नाराजगी सहन करते हुए, घर का मुखिया होते हुए, मैनें चेतना को हताश नहीं होने दिया | इसके साथ साथ जब मियाँ बीबी राजी तो क्या करेगा काजी वाली कहावत तो प्रवीण की सहमती से चरितार्थ हो ही रही थी | मेरे सगे सम्बन्धियों ने भी चेतना   के पढाई के प्रति विरोधाभास छोड़ यह सोचकर किनारा कर लिया कि ‘हाथी के पैर में सब का पैर’ |
चेतना ने भाग दौड़ कर गुडगांवा में स्थित महाराणा प्रताप मेमोरियल महिला विद्यालय में दाखिला ले लिया | उसे अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी | वह सुबह अँधेरे उठती, बच्चों के स्कूल जाने का इंतजाम करती, अपने पति के आफिस ले जाने के लिए पूरा सामान  जुटाती, अपनी तैयारी करके फ़टाफ़ट बस पकड़ कर सुबह साढ़े आठ बजे अपने कालेज के लिए निकल जाती | शाम को चार बजे थकी हारी घर पहूँचती और घर का चूल्हा चौका संभाल लेती | उसे अपने कालिज का काम निबटाते रात का एक तो बज ही जाता था | इस प्रकार उसे आराम करने के लिए मुश्किल से चार घंटे मिलते थे | चेतना की रोजमर्रा की जिंदगी को देखकर मैं  आश्चर्य चकित था कि इतनी व्यस्त रहने के बावजूद उसके माथे पर थकावट की एक शिकन भी नहीं दिखाई देती थी | वह काम करती हुई हमेशा तरोताजा एवम खुश दिखाई देती थी | ऐसा महसूस होता था जैसे शिकायत शब्द उसके शब्द कोस में है ही नहीं | फिर अपने आप से कहकर धैर्य रख लेता कि यही दर्शाती है लक्ष्य प्राप्ति की लगन | 
बच्चे को जब स्कूल में भर्ती कराया जाता है तो उसके माता-पिता या घर का कोई और बड़ा व्यक्ति इस प्रकिर्या को पूरा करता है | परन्तु चेतना ने यह सारा जोखिम खुद ही उठाया | उसे ट्रेनिंग करते दो वर्ष बितने जा रहे थे परन्तु घर के किसी भी सदस्य ने यहाँ तक कि उसके पति ने भी, एक बार झूठ को भी झांककर देखने की प्रवाह नहीं की थी कि चेतना का पाठ्यक्रम कैसे चल रहा है | चेतना पूरी मेहनत, लगन, बिना किसी शिकायत लेने व करने के साथ बिना रुके अपना ध्येय पाने में जुटी थी | कभी कभी चेतना के मन में मुझे कुछ उदासीनता, कुछ कहने की चाहत का आभाष होता था | एक दिन मैनें पूछ ही लिया, बेटा आपकी टीचर ट्रेनिंग कब खत्म हो रही है ?
पापा जी अगले महीने |
आपकी फाईनल परीक्षाएं हो गई?
हाँ पापा जी |
परिणाम कब घोषित होंगें ?
अगले महीने की १५ तारीख को |
चरण को चुप देख चेतना ने अपना दिल खोला, पापा जी बी.एड. की डिग्री मिलने वाले दिन हमारे कालेज में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है |
बहुत अच्छी बात है होना भी चाहिए |
उन्होंने निमंत्रण पत्र भी भिजवाया है |
ठीक है प्रवीण को जाना चाहिए |
चेतना थोड़ा ठिठकते हुए बोली, पापा जी वे तो कह रहे हैं कि उन्हें समय नहीं है |
मैनें कुछ जोर देकर कहा, दो साल में क्या तुम्हारे लिए वह एक दिन भी नहीं निकाल सकता |
पापा जी मैंने काफी कहा अब उन पर जोर न देना | कोई बात नहीं |
मैं महसूस कर रहा था कि चेतना का अंतर्मन रो रहा था | शायद वह सोच रही थी कि उसने इतनी मेहनत की और उसकी सफलता पर जलसे में तालियाँ बजाने, उसका साहस बढाने वाला उसके अपने परिवार का कोई नहीं होगा | मेरे सामने से हटते हुए वह अपने पैर ऐसे उठा रही थी जैसे वे बेजान हैं तथा कभी भी उसके बोझ को सहन करने से इनकार कर देंगे | उसकी दशा देखकर मैंने अपने दिल पर हाथ रखकर बुदबुदाया ‘राज करेगा खालसा जब बाकी रहे न कोय’ अर्थात कोई नहीं पहुंचेगा तो मैं हूँ न |
चेतना के कालिज में प्रोग्राम शुरू होने वाला था | सभी अथितिगण विराजमान हो चुके थे | उत्तीर्ण विद्यार्थियों के नाम पुकारे जाने लगे | चेतना बार बार कालेज के गेट की तरफ अपनी नजर दौड़ा रही थी कि शायद घर का कोई सदस्य उसकी हौसलाफजाई के लिए आए | उसका नाम पुकारा गया | वह थकी हारी सी स्टेज की तरफ बढ़ी | लग रहा था जैसे उसे अपनी डिग्री जिसे उसने इतनी लगन, मेहनत और अपना शुख चैन गवांकर प्राप्त किया था लेने की कोई उत्सुकता नहीं थी | इतने में उसके कानों में एक चिपरिचित आवाज सुनाई दी, बेटा बधाई हो ,मैं हूँ न |
इस एक आवाज ने चेतना को सारे ब्रह्माण्ड का सुख एवम खुशी एक साथ प्रदान कर दी थी तभी तो वह हर प्रकार से एकदम चेतन हो गई और एक पल में ही स्टेज पर चढ गई | आज एक साथ दोनों चेतना एवम उसके ससुर की आखों में खुशी के आंसू छलछला आए थे | 
इस प्रकार ईशवर के आशीर्वाद, अपने ससुर की जीवनी से प्रेरणा पाकर और उनके तथा अपने पति के सहयोग से चेतना अपनी ललक, भूख, लक्ष्य और मन की मुराद को पाने में कामयाब हो गई | आज एम.ए.-बी.एड. करने के बाद उसे मन की मुराद मिल गई है |



प्रवीण में एक बनिए के गुण पूरी तरह विद्यमान थे | उसके साथ साथ वह एक सरकारी मुलाजिम की निति में भी परिपक्व था | वह जानता था कि आफिसर के अगाडी तथा घोड़े के पिछाड़ी कभी नहीं चलना चाहिए | दो नावों में पैर रखकर दोनों को अच्छी तरह खेना भी वह अच्छी तरह जानता था | वर्तमान युग में दलित वर्गों के लोगों की तरह लड़कियों तथा औरतों को भी बहुत सुविधा प्रदान की गई हैं | वे उच्च शिक्षा प्राप्त करके हर महकमें में उन्नति कर रही हैं |
प्रवीण के आफिस में भी कई औरतें काम करती हैं | उसकी शाखा की प्रबंधक भी एक औरत ही है |
प्रवीण अपनी नौकरी के साथ साथ एक जनरल स्टोर की दुकान भी सम्भालता है | उसने अपने आफिस में दिखा रखा है कि वह गुडगांवा में रहता है जबकि वास्तव में वह नारायणा रहता है | प्रबंधक की नज़रों में दूर से आने के कारण उसे आफिस में देरी से आने तथा जल्दी जाने की छूट मिल जाती है | इस समय का सदुपयोग वह अपने स्टोर के लिए सामान खरीदने में इस्तेमाल कर लेता है | परन्तु जैसे ताली एक हाथ से नहीं बजती उसी प्रकार प्रवीण को अपनी छूट के एवज में अपने सीनियर के कुछ काम, जो गुडगावां के होते थे जैसे टेलीफोन बिल, बिजली के बिल इत्यादि निपटाने पड़ते थे | एक बार प्रबंधिका ने अपनी रिटायरमैंट के पहले प्रवीण को अपने गुडगावां वाले मकान को दुरूस्त कराने का काम सौंप दिया | प्रवीण ने यह काम बखूबी निभाया परन्तु उसके फोन पर बहुत धीरे धीरे एवम चोर दृष्टि से चारों और देखकर बातें करने के अंदाज ने प्रवीण की गृहस्थी में कलह पैदा कर दी |
मौहल्ले में, मेरी तरह, प्रवीण ही ऐसा लड़का था जो किसी भी तरह के फ़ार्म बखूबी भर सकता था | इस कारण उसके पास और लोगों की तरह कुछ जवान लड़कियां भी फ़ार्म भरवाने या कुछ और सूचना लेने आ जाती थी |     
बीच बीच में दुकान के काम से फुर्सत पाकर प्रवीण उनका काम कर देता था | इस लिए उन्हें वहाँ खड़े हुए थोड़ा वक्त लग जाता था | प्रवीण उन लड़कियों से बहुत धीरे एवम प्यार से बातें करता था | उसके इस व्यवहार ने चेतना के मन में शक का बीज बो दिया | और यह तो जगत प्रसिद्ध कहावत है कि बहम की दवा तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी तो फिर चेतना को कहाँ से मिलती |
चेतना के इसी बहम ने आज २५ अगस्त २०११ को उग्र रूप धारण कर लिया था | चेतना की सारी व्यथा सुनने के लिए हमें नारायणा जाना पड़ा | चेतना अपने पति के ऊपर इलजाम पर इल्जाम लगाए जा रही थी | उसकी मनोदशा भांपकर मैनें अंदाजा लगा लिया कि अभी उसे कोई सांत्वना देना उचित नहीं होगा अत: मैं चुपचाप उसके मन के लावे की गर्मी को सहन करता रहा | बल्कि उसको ठंडक पहुंचाने के लिए प्रवीण को समझाया कि यह उसकी गल्ती है कि वह टेलीफोन पर धीरे धीरे तथा चोरों की तरह चारों तरफ देखते हुए कि तुम्हारी बातें कोई सुन न ले, बातें करता है जिससे शक पैदा होता है | मैं जानता था कि इतने भयंकर लावे की गर्मी को शांत करने के लिए मेरे इतने से शीतल शब्द कोई मायने नहीं रखते और इसका एहसास मुझे चेतना ने करा दिया, जब उसने कहा, पापा जी आपने इनकी (प्रवीण की) बातों को सीरियसली कभी नहीं लिया |
पुराने जमाने के इतिहास से पता चलता है कि उस समय के ठाकुर और चौधरियों तथा आजकल के लोगों के रहन सहन में कितना अंतर आ गया है | उस समय एक औरत को केवल घर से मतलब होता था | उनका आदमी बाहर क्या करता है उनको उससे कोई मतलब नहीं होता था | सभी जानती थी कि ठाकुरों की कई रखैल होती थी परन्तु वे अपना मुहं खोलने का साहस नहीं कर पाती थी | आज समय बदल गया है | शिक्षा के क्षेत्र में औरतों के आ जाने से उनका दबदबा आदमियों पर बढ़ने लगा है | वे चहूँ और उन्नति कर रही हैं जिसमें शक, बहम और अहंकार भी शामिल हो गया है | 
मैनें अपनी पत्नी के साथ उज्जैन के महाकालेश्वर तथा इंदौर के ओंकारेश्वर के ज्योतिर्लिंग के दर्शनों का प्रोग्राम बना रखा था | अब चेतना की उग्रवादी मनोदशा को जल्दी शांत करने के लिए उसे भी अपने साथ ले जाने का मन बना लिया | एक औरत जितनी जल्दी उग्रवादी बन जाती है उतनी जल्दी ही उसके मन में समर्पण की भावना भी जाग्रत हो जाती है | खासकर अपने पति एवम बच्चों के प्रति | चेतना के साथ भी यही हुआ | उसने अपने मन के सारे विषाद मिटाते हुए प्रवीण को भी उज्जैन-इंदौर की यात्रा पर अपने साथ जाने को मना लिया | मैं तो कहूँगा कि भगवान शिव शंकर भोले नाथ की वजह से चेतना और प्रवीण का मतभेद चार दिनों में ही दूर हो गया |
परन्तु चेतना का विश्वास अपने पति प्रवीण पर अधिक दिनों तक कायम न रहा सका | मुश्किल से एक महीना बीता होगा कि भगवान शिव शंकर के आशीष एवम चरणों की आस्था का असर धूमिल पड़ गया | चेतना का शक्की दिमाग अपने पति के प्रति एक बार फिर चेतन हो गया | इससे पहले कि चेतना मुझे अपने लड़के को समझाने की दिशा में नकारा घोषित कर दे मुझे अपना एक उपन्यास आत्म तृप्ति जो मेरे जीवन पर आधारित था तथा हाल ही में मैनें उसे लिख कर पूरा किया था, चेतना को छपने से पहले ही पढ़ने को देना पड़ा | मेरे हस्तलिखित पन्नों को देखकर चेतना ने असमंजसता की स्थिति में पूछा, पापा जी यह क्या है ?
मेरे द्वारा लिखित एक उपन्यास है |
मैं इसका क्या करूँ ?
इसे पढ़ो |
इसे पढने से क्या होगा ?
इसे पढ़ने के बाद शायद तुम्हें ज्ञान हो जाए कि अपने जीवन साथी पर किस हद तक विश्वास करना चाहिए |
परन्तु पापा जी मैंने खुद अपनी कानों से सुना है और आँखों से देखा है |
बेटा जैसे शक्की दिमाग को हिलती झाड़ी भी असली भूत दिखाई देता है उसी प्रकार उसकी आँखे और कान भी धोखा खा जाते हैं |
मैंने अपना उपन्यास चेतना की तरफ बढ़ाया तो वह अनमने मन एवम थके से हाथों से पकड़ कर ऊपर जाने के लिए सीढियां चढ़ने लगी | जाते जाते मैंने चेतना से कहा, बेटा आप ने तो हिन्दी में स्नातकोत्तर की डिग्री ली हुई है अत: इस उपन्यास को पढकर इसकी समीक्षा भी लिख देना क्योंकि अभी यह काम पूरा नहीं हुआ है |
चेतना ने जो लिखा उसका आशय था, आत्म तृप्ति उपन्यास ने पति पत्नी के आपसी विश्वास की चरम सीमा को छू लिया है | मेरा भ्रम उसके सामने क्षण भंगुर है |
चेतना उपन्यास पढकर आई और अपने सास ससुर के चरण पकड़ कर फफक फफक कर रो पड़ी | उसके आसुओं के साथ उसके दिल के अविश्वास का मैल, जो उसके दिल में अपने पति के प्रति पैदा हो गया था, घुलकर बह गया था तभी तो वह मूक दृष्टि लिए हाथ जोड़कर, माफी माँगने की मुद्रा में अपने पति के सामने खड़ी हो गई थी |
इसके कुछ दिनों बाद तक तो चेतना के जीवन में खुशहाली रही परन्तु प्रवीण की तरफ से फिर वही ढाक के तीन पात वाली कहानी बनने लगी |
एक दिन प्रवीण बाथरूम में नहाने गया था | उसका फोन बाहर रखा था | इतने में उस पर एक मैसेज आया | लिखा था, आन मिलो .................|
मैसेज पढकर चेतना   का रोम रोम जल उठा | उसकी अंतरात्मा से निकला की उसके पति नम्रता तथा समझाने से सत्य एवम कुलीन रास्ते पर चलने वाले नहीं हैं | उनकी शिकायत अपने सास-ससुर से करने में भी अब कोई औचित्य नहीं रह गया था क्योंकि एक तो वे अपनी ऐसी उम्र के पड़ाव पर थे जहां कोई शख्त कदम उठाने में असमर्थ थे दूसरे वे अपने लड़के को अब भी अपनी तरह शुद्ध विचारों वाला व्यक्ति समझते थे जो समझाने से समझ जाएगा | 
चेतना असमंजस में थी कि अपने पति की बार बार अपने सास-ससुर से शिकायत करना कहाँ तक जायज है | उसे अपना तथा अपने बच्चों का भविष्य कालिमा से भरा दिखाई देने लगा | वह सोचने लगी कि अगर इसका इलाज जल्दी नहीं किया गया तो इसका माहामारी बन जाने का अंदेशा है | और अगर इस महामारी पर अंकुश जल्दी नहीं लगा तो यह पूरे परिवार को निगल लेगी | उसके सास ससुर असमर्थ थे और कोई घर में ऐसा था नहीं जिसकी सहायता ली जा सकती थी | अत: यह सोचकर उसके शरीर में कम्पन्न समा गई कि अपने पति को सही रास्ते पर लाने का सारा भार उसे ही उठाना पड़ेगा |
अचानक उसकी मुट्ठी बंद हो गई तथा नशें तन गई | उसने सोचा यदि मैं शुरू से ही द्रद्द निश्चय एवम कड़ा प्रतिरोध जताती तो आज मेरी यह दशा न होती | मैं समर्पण करती रही, झुकती रही, टूटती रही क्यों | मेरी दोष क्या है | अब तो झुकते –झुकते मैं जमीन में लगने के कगार पर आ गई हूँ | अब यह तिरस्कार और नहीं सहा जाता | अब तो यह घर मुझे एक मतकल (जहां लाकर मूक मवेशियों का वध किया जाता है ) की तरह लगने लगा है जहां मुझे ब्याह कर लाए जाने के बाद तिल तिल मारा जा रहा है | मेरे पति जैसा पाषाण ह्रदय इनसान कोई बिरला ही होगा | अब मुझे कुछ करना ही होगा | चेतना ने आरती के आले में रखी माँ भगवती के सामने हाथ जोड़कर विनती की , हे देवी माँ मुझे हिम्मत दे और कोई रास्ता दिखा | 
यही सोचते सोचते कि वह अकेली कैसे कर पाएगी उसे निंद्रा ने अपने आगोश में समा लिया |
नींद में चेतना को एक सपना दिखाई दिया | नव सवंत्सर एवम चैत्र के आगमन पर जन जीवन के माहौल को, व्यापारियों ने, भक्तिमय बनाने का पूरा इंतजाम कर लिया था | दुकानें पूजा पाठ की सामग्री, चन्दन, धूप, अगरबती, सामग्री, कपूर, सुपारी, काजू , बादाम, किशामिस, छुआरे, देवी माँ की तस्वीर, चुनरी, नारियल, श्रंगार का सामान, कुट्टू का आटा, सामक्या के चावल तथा सिंघाड़े इत्यादि से, जो चीजें नवरात्रों के दौरान इस्तेमाल होती हैं, लबालब हो चुकी थी | गलियों में ठेली वाले गुलाब, गेंदे, कनेर तथा मोगरा इत्यादि के फूलों से बनी मालाएं बेचने को आवाजें लगाने लगे थे | इन फूलों की मिली जुली सुगंध वातावरण को बहुत ही सुगन्धित एवम भक्तिमय बनाने में पूरा योगदान दे रही थी |
वैसे तो महाकाली, महालक्ष्मी व महा सरस्वती देवियों के तीन प्रमुख रूप हैं | इन्हीं देवियों एवम कुछ ऋषि पत्नियों जैसे अनुसुईया, सती सावित्री तथा की ऋषि कौशिक पत्नी के अदम्य साहस से प्रेरित होकर बहुत सी साधारण स्त्रीयों ने भी दुर्लभ कार्य किए | इनमें ऋषि कौशिक की पत्नी की कहानी बहुत प्रचलित है | ब्राह्मण कौशिक की पत्नी सर्वगुण सम्पन्न एक पतिव्रता नारी थी परन्तु उसके पति को एक पतिता से प्रेम हो गया | उसके संपर्क में आने से वे एक लाईलाज बिमारी से ग्रस्त हो गए परन्तु फिर भी उनका उस औरत के प्रति मोह भंग न हुआ और अपनी पत्नी से उससे मिलवाने का आग्रह किया | पत्नी ने अपने पति की आख़िरी इच्छा की पूर्ति करने हेतू उसकी बात सहस स्वीकार कर ली | जब वे एक जंगल से गुजर रहे थे तो कौशिक एक घायल मुनि से टकरा गया | गुस्से वश मुनि ने श्राप दे दिया कि कौशिक अगली सुबह का सूरज देखते ही मर जाए | जब  कौशिक की पतिव्रता स्त्री ने अपनी शक्ति से अगली सुबह का सूरज उगने ही नहीं दिया तो चारों ओर हा-हा कार मच गया | इस पर भगवान् को कौशिक को जीवनदान देना पड़ा था | 
माँ भगवती ने चेतना को सपने में ही आवाहन किया कि जैसे कौशिक की पतिव्रता स्त्री ने अपनी सूजबूझ एवम विवेक से अपने पति को एक पतिता तथा यमदूत के शिकनंजे से बचाया था उसी प्रकार तू भी धैर्य, विवेक और अपने परिश्रम से अपने पति को पराई स्त्री के साथ कामरूपी दलदल से छुटकारा दिलाने की हिम्मत दिखा | मेरा आशीर्वाद है तू भी अवश्य सफल होगी | चेतना सोकर उठी तो वह अपने को तरोताजा महसूस कर रही थी | उसके मन में अपने पति के कारनामें से जो कष्ट और पीड़ा का स्थान बन गया था वह पटता नजर आया | उसने अपने सपने को माँ भगवती का आशीर्वाद समझ कर दिल में एक संकल्प और प्रण लिया, जब कौशिक की पतिव्रता स्त्री कर सकती है तो मैं क्यों नहीं | और उसके दुखी चेहरे पर एक विजयी मुस्कान फ़ैल गई | 
संदेह, विश्वास और अविश्वास के मिलन बिंदु पर उपजता है | संदेहास्पद मन बड़ा आक्रांत और दुखी रहता है तथा चैन से बैठने नहीं देता | संदेह का दंश हरपल चुभता रहता है तथा कई मानसिक समस्याओं का जन्मदाता बन कर उभरता है | संदेह रिश्तों में दरार की जड़ होता है क्योंकि जिस पर शक होता है मन में उसके प्रति अनायास ही नकारात्मक सोच पैदा हो जाती है | संदेह मनुष्य के मन और मस्तिषक को संकुचित बना देता है | परन्तु कभी कभी संदेह परदे के पीछे छिपे रहस्यमय सत्य को प्रकट करने का साहस भी बन जाता है | अगर यह लक्ष्य प्राप्त करने का मार्ग बन जाए तो एक असाधारण घटना बन जाती है |
चेतना ने जिस टेलीफोन से सन्देश आया था उसका नंबर लिख लिया | प्रवीण के आफिस जाने के बाद उसने वह नंबर मिलाया | दूसरी तरफ हैलो की आवाज एक औरत की थी | चेतना ने पूछा, यह नंबर आपका ही है ?
हाँ कहिए किस से मिलना है ?
मिलने की चाहत तो आपको है |
क्या मतलब ?
मतलब आप अच्छी तरह जानती हैं |
क्या पहेलियाँ बुझा रही हो | साफ़ साफ़ कहो ?
साफ़ बात यह है कि कल आपका एक सन्देश पढ़ा था, आन मिलो......सजना |
क्या बेतुकी बात कर रही हो उसमें सजना का तो जिक्र ही नहीं था |
तो फिर किससे मिलने का इरादा था |
आपसे मतलब, आप होती कौन हो |
मैं उसकी पत्नी हूँ जिसे आपने सन्देश भेजा था |
इस बार दूसरी तरफ की आवाज कुछ कांपती नजर आई परन्तु शीघ्र ही वह संभली और बोली, दूसरों पर इल्जाम लगाने से बेहतर है अपना घर संभालो |
वे तो संभल जाएंगे अगर तुम उनका पीछा छोड़ दो |
मैं उनका पीछा नहीं करती बल्कि वही मेरे पीछे पड़े हैं |
तुम बड़ी बेशर्म मालूम पड़ती हो जो निर्भीकता से ऐसे बोल रही हो |
मैं आपके मुंह नहीं लगना चाहती, कहकर फोन कट गया |
चेतना ने एक दो बार नंबर मिलाने की और कोशिश की परन्तु व्यर्थ | अब चेतना सोचने लगी कि उस औरत तक कैसे पहुंचा जाए | क्योंकि उसकी बातों से यह साबित हो गया था कि वह प्रवीण का पीछा आसानी से छोडने वाली नहीं है | चेतना ज्यों ज्यों सोच रही थी उसकी उस औरत को सबक सिखाने की इच्छा प्रबल होती जा रही थी | उसने अपने मन में जल्दी ही कुछ करने का सकल्प ले लिया |
और लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प या प्रण एक ऐसा बीज है जो पड़ते ही अंकुरित होने लगता है और समस्त परिस्थितियों को अपने अनुरूप परीवर्तित कर लेता है | संकल्प के पीछे सभी बरबस चलने लगते हैं | संकल्प निर्धारीत करता है कि हमें करना क्या है ? पाना क्या है ? कैसे करना है | संकल्प ही जीवन को निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुंचाता है |
जैसे आग अपनी जलन नहीं छोड़ सकती तथा चंद्रमा अपनी शीतलता नहीं छोड़ सकता उसी प्रकार एक मनुष्य अपना स्वभाव नहीं छोड़ पाता | किसी के मन में शंका या संदेह से जो अंधेरा पैदा होता है वह न तो चाँद से दूर होता है न अंनज से, न सूर्य की रोशनी से न ही दीपक से तथा न ही कोई हकीम या दवा उसे मिटा सकती है |
अपना उल्लू सीधा करने के लिए मनुष्य साम, दाम, दंड और भेद का रास्ता अपनाता है | समझदार व्यक्ति को सबसे पहले साम अर्थात समझाने बुझाने का रास्ता अपनाना चाहिए | जो काम साम के माध्यम से पूरे हो जाते हैं उनसे दिलों में कोई दुर्भावना पैदा नहीं होती | चेतना ने रेखा पर यह आजमाँ कर देख लिया था | जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने भेद निकाल रेखा तक पहुँच कर अपनी जाट भाषा में दंड देने की चेतावनी देने  की सोची | 


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