Friday, October 20, 2017

मेरी आत्मकथा- 20 (जीवन के रंग मेरे संग) बड़ी बहू

जीवन के रंग मेरे संग  (मेरी आत्मकथा- 20 ) बड़ी बहू
गर्मी का प्रकोप दिन-ब-दिन बढ़ रहा था | सुबह से ही गर्म हवा चलनी शुरू हो जाती थी अत; घर से बाहर का काम लोग जितना जल्दी हो सके निपटाना चाहते थे जिससे उन्हें दोपहर की लू के थपेड़े न सहने पड़ें | २४ मई १९९८ का दिन रविवार था | नौकरी पेशा लोगों का अमूमन यह छुट्टी का दिन होता है | अत: सभी आराम से सोकर उठते हैं तथा नाश्ता पानी भी देर से ही होता है | इन दिनों मेरी मां तुल्या मेरी बड़ी बहन इन्द्रा भी मेरे यहाँ आई हुई थी | सुबह के ०९-३० बजे होंगे | अभी नाश्ते पानी की बातें हो ही रही थी कि नजफगढ से कृष्ण लाल जी एवम उनकी पत्नी ने घर में प्रवेश किया |
इतनी सुबह वह भी बिना कोई सूचना दिए दोनों को अपने सामने देख मुझे क्या सभी को बहुत आश्चर्य हुआ | हैरत की कोई प्रतिक्रया न दिखाते हुए मैनें कहा, आओ जी बैठो |
कृष्ण लाल की पत्नी ने बुरा सा मुहं बनाकर कहा, बैठना क्या है | चेतना  से मिल लें |
हालाँकि मुझे चेतना  की मम्मी कमला की भाषा में बेरूखी तो लगी फिर भी संयम रखते हुए ऊपर की और इशारा करके कहा, हाँ हाँ क्यों नहीं | चेतना  ऊपर कमरे में है जाकर मिल लो |
लगभग आधा घंटा चेतना  से बात करने के बाद दोनों नीचे आ गए जहां मेरा पूरा परिवार बैठा था | उन्हें देखकर बैठने की जगह देते हुए चेतना  की मम्मी जी से मैंने पूछा, क्यों जी बातें कर ली ?
कमला ने बड़े ही नीरसता से जवाब दिया, चेतना  का चेहरा बता रहा है कि उसे दुःख: है |
कमला के ऐसा कहने से मैं कुछ देर के लिए सकते में आ गया फिर संभलते हुए पूछा, दुःख:है ! उसे किस बात का दुःख है ! वैसे चेतना  को अगर कोई दुःख है तो उसने बताया भी होगा कि उसे किस बात का दुःख: है |” फिर चेतना  को आवाज देकर, चेतना ,बेटा, ज़रा नीचे आओ |  
जी पापा जी कहते हुए जब चेतना  नीचे उतर आई तो मैनें उससे पूछा, बेटा तुम्हारी मम्मी जी कह रही हैं कि तुम यहाँ दुखी हो क्या यह सच है ?            
आश्चर्य से अपनी मम्मी की तरफ देख कर चेतना  ने जवाब दिया, नहीं पापा जी कौन कहता है कि मुझे यहाँ किसी प्रकार का दुःख या तकलीफ है ?
तुम्हारी मम्मी जी ही ऐसी बेतुकी बातें कर रही हैं कि मेरी बेटी यहाँ दुखी है |
कमला उत्तेजित होकर बोली, परसों मेरी बड़ी लडकी यहाँ आई थी उसने फोन पर हमें बताया कि चेतना  यहाँ रोती  रहती है |
मैं अब चेतना  की मम्मी की उलजलूल बातों को बर्दास्त न करने की स्थिति में आ चुका था अत: थोड़ा गर्म होकर बोला, चेतना  यहाँ के दुःख के कारण नहीं रोती वह रोती है आपके कर्मों के कारण |
हमारे कर्मों के कारण, कृष्ण लाल ने अपने तेवर दिखाए |
मैंने उसी आवाज में जवाब दिया, हाँ आपके कर्मों के कारण |
वह कैसे ?
वैसे तो आप अपनी लड़की का इतना हेज दिखा रहे हो तथा कह रहे हो कि अभी लिवाकर ले जाएंगे | वैसे पिछले एक वर्ष में आपने उसे लिवाकर ले जाने की कई बार कही परन्तु आए एक बार भी नहीं | शुरू के दिनों में तो बच्चे का अपने घर वालों से मिलने को मन मचलता ही है परन्तु आपने अपने लालच के लिए उसका मन नहीं रखा और दोष हम पर मंढ रहे हो |
मेरा लड़का आया तो था छूछक लेकर |
उसे आप आना कहते हो | इससे अच्छा तो वह न आता | क्योंकि तुम्हारे किसी के पास इतना समय ही नहीं है कि अपनों की दुःख तकलीफ की खबर ले सको | अस्पताल में मिलने जाना तो दूर तुम्हारें पास इतनी भी फुर्सत नहीं कि इन छूछक जैसे चोचलों में समय बर्बाद करें | हाँ कान भराई कराके बेफिजूल लड़ने के लिए आपके पास बहुत समय है |
कमला ने वास्तव में ही कान भराई का उदाहरण पेश करके कहा, सुना है प्रवीण कह रहा था कि वह चेतना  को नजफगढ से लिवाकर नहीं लाएगा |  
इसके उत्तर में प्रवीण ने एक प्रश्न कर दिया, मम्मी जी मैनें ऐसा कहा है या नहीं आपको कैसे पता चला ?
कृष्ण लाल आपे से बाहर होकर बिना किसी लिहाज शर्म के अपने दामाद पर चिल्लाया, अरे तू अपने को ज्यादा होशियार समझता है | तू इतना कुछ कह दे और हम चुपचाप सुनते रहें |
कमला भी अपने पति से पीछे नहीं रही और दादागिरी दिखाते हुए गर्जी, हम भी देखते हैं कि तू कैसे लेने नहीं आएगा |
मेरी बड़ी बहन इन्द्रा जो सब कुछ देख और सुन रही थी कमला एवम कृष्ण लाल के कटु वचनों को पचा नहीं पाई और बड़े सयम से उन दोनों को लताड़ा, देखो जी आपकी यह भाषा एवम बोलने का तरीका बिलकुल गलत है |  लड़के ने आपसे ऐसे शब्द कहे तो हैं नहीं | मान लो अगर कहे भी हैं तब भी आपका यह फर्ज नहीं बनाता कि आप इतनी बेहूदगी से पेश आओ | आप सुनी हुई बातों पर इतना तैश दिखा रही हो क्या यह जायज है | आप पहले चेतना  को बुलाते तो सही | अगर वह बाद में लिवालाने में आनाकानी करता तब भी आपको थोड़ा नरमी से पेश आना बनता है | आप ने तो सूत न कपास कोरिया से लठा लठी वाली कहावत चरितार्थ कर दी |
मेरी बड़ी बहन की बात सुनकर दोनों बगलें झाकने लगे | परन्तु कमला को अपने दामाद तथा मेरे लड़के प्रवीण के लिए बेकार में तू-तड़ाक के शब्दों का इस्तेमाल सुन मेरा पारा चढ गया और कहा, अरे बेशर्मों कुछ तो शर्म करो | सीख लो कुछ मेरी बहन जी के शब्दों से कि व्यवहार व इंसानियत क्या होती है |
मैनें कमला की और इशारा करके कहना आरम्भ रखा, इस औरत ने अपनी तीसरी लड़की की शादी की है और इसे इतनी तमीज नहीं है कि अपने दामाद के लिए कैसी भाषा का इस्तेमाल किया जाता है | ऊपर से दादागिरी सी दिखा रही है कि हम भी देखते हैं कि लिवाने कैसे नहीं आएगा | लो अब मुझे भी इसकी दादागिरी ही देखनी है | यह अपने पूरे घोड़े दौडाले देखें हमारा क्या बिगाड़ती है |
फिर मैनें अपने लड़के प्रवीण की तरफ देखकर कहा, अरे तू देखता नहीं बेबी की शादी को ५-६ साल बीत गए हैं हम मनोज जी को कैसे संबोधित करते हैं | इसने औरों से भी बदतमीजी की होगी करती रहे परन्तु हम बर्दास्त नहीं करेंगे | हम इनकी दबेल में नहीं बसते | अगर मेरे साथ मेरी ससुराल वालों की तरफ से ऐसा व्यवहार हो जाता तो मैं जीवन भर उनकी दहलीज...........|
इतने में ही कृष्ण लाल जो शायद मेरी बातों का आशय समझ गए थे कि मैं क्या कहने वाला था, उठ कर मुझे रोकते हुए हाथ जोड़कर बोले, बस बस अब आगे कुछ न कहना |      
चेतना  भी रोकर बोली , पापा जी शांत हो जाईये |
मैनें अपने गुस्से को बरकरार रखकर कहा, शांत, यह तुम्हारी मम्मी जी इतनी बदतमीजी कैसे दिखा रही हैं | क्या तुमने इनसे कहा है कि तुम यहाँ किसी प्रकार से भी दुखी हो ?
पापा जी मेरी भी कुछ समझ नहीं आ रहा कि ये किस बिना पर ऐसा कह रहे हैं | आज आप सबके सामने मैं अपने मन की बात बताना चाहती हूँ | मैनें बचपन से अपनी शादी तक अपने मम्मी पापा के मुहं से अपने लिए अपने नाम ‘चेतना ’ के अलावा बेटा या बेटी का शब्द कभी नहीं सुना | मैं इन शब्दों को सुनने के लिए तरस गई थी | परन्तु यहाँ आपने जब मुझे बेटा कहकर बुलाया तो मेरा मन गदगद हो उठा था | मैं खुशी के कारण इतनी भाव विभोर हो उठी थी कि बहुत देर तक मैं अपनी आंखों के अश्रु थमा नहीं पाई थी |आप सब इसी से अंदाजा लगा लो कि मैं यहाँ दुखी हूँ या सुखी |
चेतना  का यह तर्क एवम गूढ़ वाक्य मेरे मन के उमड़ते उफान को रोकने के लिए एक रामबाण की दवा बन गया | मैं एकदम शांत हो गया | चेतना  के मम्मी पापा पर भी मानो घडों पानी पड़ गया था | अपनी बेटी के शब्द सुनकर वे कुछ बोलने लायक नहीं रहे तथा उनकी गर्दन जो अभी तक अकड़ी हुई थी, झुक गई | उनका अब वहाँ बैठना दुशवार होने लगा था इसलिए वे दोनों, बिना चेतना  को ले जाने की कहे, चुपचाप उठे और वापिस चल दिए | हालाँकि मेरा मन उनके व्यवहार से घृणा का एहसास करने लगा था फिर भी उनका मेरे घर से अकेले तनहा जाना मुझे कुछ जंचा नहीं | अत: मैनें अपने लड़के प्रवीण को उन्हें बस स्टैंड तक विदा करने के लिए साथ भेज दिया |
मैं अगले एक दो दिन इस उधेड़ बुन में लगा रहा कि आखिर चेतना  के मम्मी पापा का ऐसा व्यवहार करने का क्या कारण रहा होगा परन्तु मैं किसी ठोस निष्कर्ष पर न पहुँच सका | अंत में मैनें सोचा कि क्यों न चेतना  के नजदीकी रिश्तेदारों से मालूम किया जाए की नजफगढ वालों के दुःख का कारण क्या हो सकता है |
इस कड़ी में सबसे पहले मैनें चेतना  की बहन जो कैंट सदर में ब्याही थी को फोन किया, मैं नारायणा से प्रवीण  का पापा बोल रहा हूँ |
मैं अनीता, मौसा जी नमस्ते |
नमस्ते बिटिया नमस्ते |कहो सब कुशल है?
अनीता आश्चर्य से, हाँ मौसा जी सब ठीक है परन्तु आपने कैसे याद किया ?
कल आपके मम्मी पापा यहाँ आए थे |
अनीता उनके आने के कारण से अनभिज्ञय खुश होकर बोली, अच्छा मम्मी पापा आए थे ? कैसे आए थे ?
उनके मन में एक दुविधा थी उसका निवारण करने आए थे |
अनीता की खुशी की आवाज आश्चर्य में बदल गई, दुविधा, कैसी दुविधा मौसा जी ?
चेतना  के यहाँ रहन सहन के बारे में उन्हें कुछ शिकायत थी |
बात को जानने का उतावलापन दिखाकर अनीता बोली, मौसा जी आप तो पहेलियाँ बुझा रहे हैं | साफ़ साफ़ कहो  न कि क्या बात है |
अच्छा पहले यह बात बताओ कि जब तीन चार दिनों पहले तुम चेतना  से मिलने यहाँ आई थी तो उसने अपने बारे में कुछ बताया था |
किस बारे में मौसा जी ?
यही कि उसे अपनी ससुराल में कुछ दुःख या तकलीफ है ?
नहीं मौसा जी अबकी बार क्या उसने तो कभी भी ऐसा कुछ दर्शाया भी नहीं |
अनीता हो सकता है तुम्हें कभी कुछ अपने आप महसूस हुआ हो और तुमने अपने मन का भ्रम अपनी मम्मी या पापा के सामने रख दिया हो |
नहीं मौसा जी मैनें चेतना  या नारायणा के बारे में उनसे कभी कोई बात नहीं की |
क्या चेतना  ने कभी तुम से यह कहा है कि हम उसे बाध्य करते हैं कि वह उन सभी के पैर पड़े जो हमारे घर आते हैं ?
अनीता थोड़ा हंसकर, मौसा जी यह तो भारतीय संस्कृति है तथा औरतों का तो यह अपने आप ही फर्ज बनता है कि वह अपने बड़ों के पैर छुए फिर इसमें बाध्य करने वाली बात कहाँ से आ गई ?       
अच्छा यह बताओ कि क्या तुम्हें अपने आप कभी ऐसा महसूस हुआ है कि चेतना  को यहाँ किसी प्रकार की कोई कमी है या फिर हमारे व्यवहार से कुछ तकलीफ तथा दुःख का अनुभव करती है ?
मौसा जी आप कैसी बात कर रहे हो ? मैं तो चेतना  की किस्मत को धन्य समझती हूँ कि उसे आपका घर मिला |मैं तो ऐसा अनुभव करती हूँ कि अगर चेतना  आपके यहाँ दुखी है तो संसार की कोई औरत सुखी नहीं होगी |
बस बेटी बस तुमने मेरे मन को बहुत बड़ी सांत्वना दी है | अच्छा खुश रहो, कहकर मैनें फोन का चोगा रख दिया |
हालाँकि चेतना  एवम अनिता के कथनों से मैं काफी हद तक शास्वत हो गया था परन्तु फिर भी मन के एक कौने में अभी भी बैचैनी अनुभव कर रहा था | मुझे अभी तक इस बात का समाधान नहीं मिला था कि आखिर चेतना  के मम्मी पापा ने यह सब करने को किसने उकसाया था | इसलिए यह जानने के लिए कि वास्तव में ही मेरी पुत्र वधू को किसी प्रकार की कोई परेशानी तो नहीं है मैनें एक बार फिर उससे पूछा, चेतना  तुम्हारे एवम तुम्हारी बहन अनीता के बताए अनुसार तुम्हें हमारे घर कोई तकलीफ या दुःख नहीं है ?
हाँ पापा जी | 
परन्तु मुझे यह बात पच नहीं रही कि जब तुम दोनों में से उन्हें कुछ नहीं कहा तो किसके उकसाने पर उन्होंने हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया |
पापा जी मेरी खुद समझ नहीं आ रहा कि उनके मन में क्या था ?
हो सकता है तुमने हमारी कुछ कमियां वहाँ बताई हों ?
नहीं पापा जी मैनें कभी ऐसा कुछ कहा ही नहीं |
एक बार फिर सोच लो | हो सकता है कभी भूले भटके उन्होंने तुम्हारी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो और प्रवाह में बहकर तुम कुछ कह गई हो ?
पापा जी मेरी कोई रग दुखती हो तभी तो कोई हाथ रख पाएगा | जब कोई दुखती ही न हो तो उसका क्या ?
हो सकता है तुमने अपनी बहन से कह दिया हो और उसने आगे बता दिया हो ?” ,मैंने आशवस्त होना चाहा |
नहीं पापा जी मैनें अपनी बहन से भी यहाँ के बारे में कुछ नहीं कहा |
इतने में मनोज जी भी आ गए | उन्होंने पूरे माहौल का जायजा लेने के बाद चेतना  से प्रश्न किया, क्या अपने मम्मी पापा जी के बात से तुम्हें कभी ऐसा लगा वे ठीक कह रहे थे ?    
जीजा जी वे तो मेरे दुःख के बारे में, जो मुझे कभी हुआ ही नहीं, सोचकर दुखी थे | ऐसे में उनका उचित बात करने का सवाल ही कहाँ उठता है |
मनोज जी ने खंगालने के लिए चेतना  से एक और प्रश्न किया, उन्होंने कुछ ऐसी बातें अवश्य कही होंगी जो आपको तर्क संगत लगी हों ?
मैनें मनोज जी की बात को आगे बढाते हुए कहा, हाँ चेतना  हो सकता उन बातों से हमें हमारी कमियों का पता चल जाए और हम उन्हें सुधार सकें | इसलिए अगर कोई बात है तो बे झिझक साफ़ साफ़ बता दो |
पापा जी मुझे आप लोगों की तरफ से कोई शिकायत नहीं है परन्तु मैं यह भी समझने में असमर्थ हूँ कि उन्हें ऐसा आचरण करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी |
चेतना  के ऐसा कहने पर मैंने कुछ सोचकर पूछा, क्या तुम्हारे मम्मी पापा तुम्हारी बड़ी बहन के यहाँ भी कभी गए थे ?
हाँ पापा जी, एक बार मेरी मम्मी वहाँ गई थी | अनीता की सास से लड़कर आई थी |
मैंने तपाक से पूछा, किस बात पर लड़ी थी ?
यही कि वहाँ अनीता को खाना ढंग से नहीं दिया जाता |
मैंने अपना निर्णय सुनाकर कहा, इसका मतलब तुम्हारी मम्मी कान की कच्ची हैं तथा  इतना अरसा तुम्हारे पिताजी के साथ बिताने के बाद भी उनका मथन ‘हींग लगे न फटकडी रंग भी चोखा’ न समझ सकीं | तुम्हारे पिता जी तुम्हें बुलाने के लिए कहते जरूर हैं परन्तु खर्चे की सोचकर आज तक लिवाने के लिए भेजा किसी को भी नहीं | तुम्हारी मम्मी जी उनके बहकावे में आकर अपनी लड़की की जिंदगी में बेकार का हस्तक्षेप करने लगती हैं | मेरा मतलब तो तुम समझ ही गई होगीं | अगर वे इस ख्याल में हैं कि उनकी तूती यहाँ बोले यह मेरे रहते ना मुमकिन है | मैं ऐसा कभी न सहन करूँगा तथा न होने दूंगा | अब अपने मम्मी पापा के प्रति अपना मार्ग तुम्हें खुद तय करना है |
इसके बाद सभी अपने अपने शयन कक्षों में चले गए | मैं भी अपने बिस्तर पर लेट गया परन्तु नींद आखों से कोसों दूर थी | मैं अपने ख्यालों में उलझता चला गया फिर भी इस समय इस बात का कोई सिर पैर न समझ सका कि आखिर चेतना  के मम्मी पापा किस बात से दुखी थे और क्यों ? अंत में मैं इतना ही बुदबुदाया कि वास्तव में दुखिया कौन है राम जाने और सो गया |
अगले दिन शाम को जब मैं आफिस से घर पहुंचा तो बताया गया कि ढांसा (नजफगढ) से किसी नरेश का फोन आया था | वह चेतना  के बारे में मुझ से कुछ बात करना चाहता था | फुर्सत पाकर मैनें नरेश को फोन मिलाया, 
हाँ नरेश जी, मैं नारायणा से बोल रहा हूँ | कैसे फोन किया था ?
नरेश ने मुझ से सीधा प्रश्न किया, आप चेतना  को क्यों नहीं भेजते ?
मैनें संयम बरत कर कहा, पहले मुझे अपना परिचय देवें कि आप हो कौन ?
चेतना  मेरी भतीजी है |
मतलब आप चेतना  के भाई हो ?
हाँ हूँ |
अबकी बार मैनें सीधा प्रश्न किया, क्या आप चेतना  को लिवाने कभी आए हो ?
मतलब ?
मेरा मतलब साफ़ है | चेतना  के तीनों भाईयों में से कोई भी कभी भी उसे लिवाने के लिए नहीं आया | अब आप भी मेरे ऊपर इल्जाम सा लगा कर पूछ रहें हैं कि हम चेतना  को क्यों नहीं भेजते |
नरेश ने एक बार फिर पूछा, “मतलब ?
जब आपको मेरी किसी बात का मतलब ही नहीं पता तो क्यों अपना तथा मेरा वक्त बर्बाद कर रहे हैं | पहले अपने प्रिय चाचा जी से इस मुद्दे की पूरी जानकारी हासिल करलें फिर मेरे से बात करना |
मुझे तो यही बताया गया था कि....... |
और आपने मान लिया | क्या ढांसा में सभी ऐसी ही प्रवर्ति के लोग बसते हैं जो चौदराहट तो दिखाते हैं परन्तु समझते या जानते कुछ नहीं |
नरेश ढीला पड़कर, माफ करना मौसा जी मैं वास्तव में ही सारी बातों से अनभिज्ञ हूँ |
क्या अभी तक आप इस बात से भी अनभिग्य थे कि आप अपने मौसा जी से बातें कर रहे थे और उनसे कैसे बातें शुरू करनी चाहिएं ?
नरेश झेंपकर, मौसा जी माफी चाहता हूँ | अच्छा नमस्ते, और फोन कट गया |
इन घटना क्रम के कुछ दिनों बाद कृष्ण लाल जी के मंझले लड़के की शादी हुई | मैनें भरसक प्रयत्न किए कि प्रवीण एवम चेतना  दोनों उसमें शरीक हों परन्तु प्रवीण अपनी सास के वचन ‘हम भी देखते हैं कि यह कैसे लेने नहीं आता के मद्देनजर शादी में नहीं गया तथा न ही बाद में चेतना  को लिवाने गया |
तनाव के चलते प्रवीण के लड़के नयन का छूछक नौतने भी मैं न गया | इस पर शायद कृष्ण लाल के दिमाग से भूत उतरने लगा था कि उनकी अपनी धारणा के विपरीत नारायणा वाले पैसों के भूखे नहीं बल्कि इज्जत एवम इंसानियत को ज्यादा तवज्जो देते हैं | उन्हें अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था | इसी वजह से मैनें प्रयास करके प्रवीण को उनके छोटे लड़के गोविन्द की शादी में, उसकी मंशा के विपरीत जबरदस्ती भेजा था |
कुछ ही समय बाद कृष्ण लाल के मंझले लड़के महेश की पत्नी का अचानक देहावशान हो गया | लड़की के घर वालों ने इलजाम लगा दिया कि उनकी लड़की को ढंग से रखा नहीं जा रहा था तथा इलाज भी ठीक से नहीं कराया गया है | इसी वजह से उसकी मौत हुई है | कृष्ण लाल पूरी तरह से पुरानी परिपाटी के अनुसार चलते थे तभी तो अपनी पुत्र वधू की अर्थी सजाने के लिए उन्होंने पुरानी टूटी चारपाई की बाहियों को लाकर रख दिया था | इसको देखकर लड़की वालों का पारा गर्म हो गया और उन्होंने हंगामा शुरू कर दिया | उन्होंने शादी पर जो खर्च हुआ था उसे वापिस लौटाने की बात रख दी | आए हुए रिश्तेदारों द्वारा किसी तरह बीच बचाव करके लड़की वालों का हिसाब कर दिया गया |
कृष्ण लाल का स्वास्थ्य कुछ बीमारियों की वजह से गिरता जा रहा था | अब इस घटना ने उन्हें बहुत आघात पहुंचाया जिसकी वजह से उन्होंने शैया पकड़ ली | उनका इलाज कई बड़े अस्पतालों में अच्छे काबिल डाक्टरों की देखरेख में कराया गया | इस दौरान प्रवीण तथा मैनें उनकी सेवा सुश्रा में कोई कमी न छोड़ी | एक बार अस्पताल से छुट्टी मिलने पर कृष्ण लालजी ने हमारे घर पर आने की इच्छा जाहिर की | वे हमारे घर के दरवाजे तक तो आ गए परन्तु अपने स्वास्थ्य के कारण वे कार से बाहर न निकले | इस पर मैं स्वयं उनके लिए चाय नाश्ता लेकर गया | अपने प्रति मेरी निश्छल सेवा भाव महसूस करके उनकी आँखों से अश्रु बह निकले | शायद वे उनके पश्चाताप के आसूं थे तभी तो उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा था, लगता है आप हमारी गलतियों को माफ करके हमारे घर नहीं आओगे ?
मैनें उनके जुड़े हाथों को अपने दोनों हाथो में लेकर उनके मन की सी बात कही, आऊँगा जरूर आऊँगा पहले आप स्वस्थ हो जाओ |
और मेरा उनके घर जाना उस दिन हुआ जब कृष्ण लाल जी की आत्मा यह संसार छोड़कर परमात्मा में विलीन हो चुकी थी |   

मेरी आत्मकथा- 20 -A (जीवन के रंग मेरे संग)  बड़ी बहू
समय व्यतीत होने लगा | नजफगढ से कई बार कहा गया कि मैं उनके यहाँ आऊँ परन्तु बिना किसी काम या जाने का कोई बहाना न बनने के कारण मैं कभी नहीं गया | सन २०१० की सर्दियों की बात होगी कि अचानक नजफगढ से एक फोन आया जिससे पता चला कि गोविन्द की दुकान की तिजोरी से लगभग ग्यारह लाख रूपयों की चोरी हो गई है | अब तो मुझे जाना ही था क्योंकि गोविन्द के बड़े भाई शंकर का स्वर्गवास हो चुका था | मंझला भाई महेश दिमाग से थोड़ा कमजोर था | और कोई बड़ा व्यक्ति ऐसा था नहीं जो पूरा समय उसके साथ रह सकता हो तथा पुलिस वगैरह की कार्यवाही को संभालने के साथ साथ गोविन्द को सान्तवना दे सके |
नजफगढ के पुलिस थाने पहुँच कर मुझे यह पता चला कि उस दिन गोविन्द के साथ वाली दुकान में भी चोरी हुई थी | हालाँकि दूसरे का कोई खास नुकसान नहीं हुआ था फिर भी उसने रिपोर्ट में लिखवाया था कि उसके ढाई लाख रूपये गए हैं | मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि गोविन्द ने भी थाने में केवल ढाई लाख रूपये चोरी होने की रिपोर्ट लिखवाई है जबकि उसका ग्यारह लाख रूपया चोरी हुआ था | मुझे उसका ऐसा करना जंचा नहीं अत: मैनें उससे पूछा, आपने ग्यारह लाख न लिखवा कर ढाई लाख रूपये ही क्यों लिखवाए हैं ?
वह इधर उधर देखते हुए जैसे कोई सुन न ले धीरे से बोला, मौसा जी ज्यादा लिखवा दूंगा तो आयकर विभाग वाले पूछेंगे कि इतना पैसा आया कहाँ से |
तुम्हें यह सलाह किसने दी ?
बाजार वाले ही कह रहे थे |
मैंने उसे समझाया, मान लो चोरी किया हुआ पैसा मिल जाता है तो तुम तो ढाई लाख के हकदार ही रहोगे ?
मौसा जी एक बार गया हुआ पैसा मिलता कहाँ है और अगर मैं ग्यारह लाख लिखवाता हूँ तो आयकर का झंझट अलग गले पड़ जाएगा |
तुम अभी आयकर की चिंता छोड़ो वह तो तब भी आ सकती है जब पैसा मिल जाएगा | वैसे आजकल के जमाने में दस लाख की रकम कोई बड़ी भारी रकम नहीं मानी जाती |
गोविन्द डरता सा बोला, मौसा जी सोच लो बाद में कहीं कोई लफड़ा न खड़ा हो जाए |
मैनें आशवासन दिया, चिंता मत करो कोई लफड़ा नहीं पडेगा |
मेरे तथा एक दो और के कहने से गोविन्द अपना बयान बदलने के लिए हमारे साथ पुलिस इन्सपेक्टर के पास जाकर बोला, साहब मैं आपको एक सच्चाई बताना चाहता हूँ |
कैसी सच्चाई ?
यही कि मेरा ढाई लाख नहीं बल्कि ग्यारह लाख रूपया चोरी हुआ है |
गोविन्द की बात सुनकर पुलिस इन्सपेक्टर का मुहं आश्चर्य से खुला का खुला रहा गया, क्या ! फिर पहले तुमने ऐसा क्यों किया ?
मैंने जब इंस्पेक्टर को बताया कि गोविन्द ने डर की वजह से सही नहीं बताया था तो वह मुस्कराए बिना न रह सका और उसने अपनी कच्ची डायरी में फेर बदल कर ली |
शाम के तीन बजे सूचना मिली कि रूपयों से भरा एक थैला खांडसा रोड़ पर एक स्कूल के बाहर उसके गेट के पास लावारिस पड़ा मिला है | थैला थाने लाया गया तो गोविन्द ने उसे पहचान लिया कि वह उसी का थैला था जो चोरी हुआ था | गिनने से पता चला कि उस थैले में कुल साढ़े नौ लाख रूपये थे | पुलिस वालों के पूछने पर गोविन्द ने अपने द्वारा बनाई नोटों की गद्दियों के निशान बता दिए परन्तु दूसरा व्यक्ति (जय भगवान) कुछ नहीं बता पाया क्योंकि शायद उसका कुछ गया ही नहीं था | इससे यह तो साफ़ जाहिर था कि बरामद किए गए सारे रूपये गोविन्द के थे परन्तु उसी थैले में जय भगवान की दुकान से चोरी हुई चाँदी के छोटे से लक्ष्मी गणेश के जोड़े ने उसे भी मिले हुए पैसों में भागीदार बनने का हक दे दिया था | 
बाजार के आस पडौस के दुकानदार एक दूसरे की नीयत, रहन सहन, तौर तरीके, चाल चलन एवम औकात के बारे में सब जानते हैं | सभी की सलाह मशवरा से रूपये के बंटवारे की सीमा तय कर दी गई | हांलाकि सभी गोविन्द के हक में थे कि सारा पैसा उसी का है परन्तु जय भगवान की लिखवाई गई रिपोर्ट के अनुसार उसे भी हिस्सा देना पड़ा |
पुलिस एवम समझौता करते करते थाने में ही रात घिर आई थी | गोविन्द के घर वालों द्वारा आग्रह करने पर मैं उनके घर चला गया | खाने का समय हो चुका था | मैनें चेतना के घर आज पहली बार खाना खाया था | आज मैं महसूस करता हूँ कि उस दिन मेरे से एक चूक हो गई | रस्म के अनुसार लड़के की ससुराल में मै पहली बार खाना खाने कि भेंट देना भूल गया |
इस घटना को लगभग दो महीने बीते होंगे कि मेरी बहन पिस्तो का गुडगांवा से मेरे पास फोन आया, भाई एक बात कहनी थी |
हाँ बहन जी ! ऐसी क्या बात है जो पूछकर कहना चाहती हो ?
मुझे दीपक की बहू ने बताया है कि प्रवीण उसके भाई को अपशब्द कह कर बोल रहा था |
परन्तु दीपक की बहू को कैसे पता चला ?
जय भगवान ने उसे फोन पर बताया था |
बहन जी प्रवीण ने ऐसा कब और क्यों कहा ?
वो गोविन्द और उसके यहाँ चोरी हुई थी और पैसे मिल गए थे तब |
बहन जी उस समय तो मैं भी वहाँ था |
पता नहीं वह ऐसा ही कह रही है |
बहन जी जब आपने बात छेड़ी ही है तो पूरी कहानी सुन लो कि वहाँ कैसे, कब, क्यों और क्या हुआ था, मैं जब नजफगढ पहुंचा तो पता चला कि गोविन्द की दुकान की तिजोरी से ग्यारह लाख की चोरी हो गई थी | उसी रात को जय भगवान की दुकान से भी चोरी हो गई थी | शाम के तीन बजे नोटों से भरा थैला मिल गया था | जो नोटों की गड्डियाँ मिली थी उन सभी पर गोविन्द के दस्तखत थे | ऐसा देखते हुए बाजार वालों का विचार था कि सारा पैसा गोविन्द को मिलना चाहिए | परन्तु जय भगवान की लिखवाई गई रिपोर्ट, कि उसके ढाई लाख रूपये चोरी हुए हैं, के अनुसार वह भी उन रूपयों का भागीदार था | यही सोच कर मैनें तय कराया कि:-
जय भगवान को डेढ़ लाख रूपया दिया जाए |
पुलिस वालों के जलपान पर जो भी खर्चा करना होगा वह गोविन्द के माध्यम से होगा तथा दोनों को आधा आधा खर्चा वहन करना होगा |    
जय भगवान ने अपनी दुकान की इंश्योरेंस करा रखी थी इस लिए यह तय हुआ कि जब भी उसे इन्शोरेंश का एक लाख रूपया मिलेगा तो वह आधा (५०,०००/-) गोविन्द को देगा |
इस समझौते के अनुसार जय भगवान को डेढ़ लाख रूपया मिल गया परन्तु बाद में वह इन्शोरेंश के पचास हजार रूपये देने से मुकर गया | उसने गोविन्द से ढाई हजार यह कहकर भी ले लिए कि उसने पुलिस वालों पर पांच हजार रूपये खर्च किए हैं | इतना ही नहीं उसने चौदह सौ रूपये और झटक लिए क्योंकि उसके अनुसार उसे जो नोटों की गड्डियाँ मिली थी उनमें से एक गड्डी में केवल बहात्तर नोट ही थे |
इस सारे प्रकरण में मैं शामिल था तथा मेरे सामने प्रवीण अपना मुहं कैसे खोल सकता था तथा उसने खोला भी नहीं | फिर भी यह उल्टी सीधी बात कहकर प्रवीण के ऊपर, जिसका बोलने का कोई मतलब ही नहीं था, इलजाम लगाने का क्या कारण हो सकता है | शायद जय भगवान अपनी कमजोरियों को छिपाना चाहता है परन्तु ऐसा होगा नहीं क्योंकि मैं खुद वहाँ मौजूद था |         
पूरी कहानी सुनकर मेरी बहन पिस्तो केवल इतना कह पाई, भाई मुझे जो बताया गया था मैनें तो वही आपसे कह दिया |
सो तो ठीक है बहन जी परन्तु जय भगवान को अगर कोई शिकायत थी तो नजफगढ में ही मुझे बताता उसे बात को इतना लंबा खींचने की क्या जरूरत थी ? उसके ऐसा रूख अपनाने से उसकी सारी खामियां सबके सामने आ गई अन्यथा यह मेरे तक ही सीमित रहती |
आपकी बात ठीक है | अच्छा भाई नमस्ते | और फोन कट गया |
इसके बाद फिर कभी इस बारे में कहीं भी कोई चर्चा नहीं हुई |

प्रवीन और चेतना का गृहस्थ जीवन सुखमय चल रहा था | अचानक एक दिन जब वे किसी काम का निपटारा करके वापिस आए तो प्रवीण बहुत चिंताजनक था | उसने आकर सांस भी नहीं लिया और चेतना की तरफ इशारा करके बोला, पापा जी इसे समझा दो |
क्या समझा दूं, हुआ क्या है ?
यह चलते स्कूटर से कूद गई |
क्या ! चलते स्कूटर से कूद गई ?संतोष ने आश्चर्य से पूछा |
कारण जानने से पहले मैंने पूछा, कहीं चोट तो नहीं आई ?
नहीं पापा जी भगवान का शुक्र है कि चोट तो नहीं लगी |
क्यों कूद पड़ी थी चलते स्कूटर से ?
उसी से पूछ लो |
संतोष ने चेतना से पूछा, ऐसा क्या हो गया था जो तूझे चलते स्कूटर से कूदना पड़ा ?
चेतना ने डरते हुए बताया, मुझे इनके तेज स्कूटर चलाने से डर लग रहा था |
तो |
मैनें इनसे कहा भी कि धीरे चलाएं परन्तु ये माने ही नहीं |
इसका मतलब तुम्हारी कोई बात न माने तो तुम ऐसा रास्ता अखतियार करोगी ?
तुम्हें चोट फेट लग जाती तो क्या होता ?
मैनें बात को समाप्त करने के लिए समझाया, चेतना तुम किसी कारण स्कूटर रूकवा कर उससे उतर भी तो सकती थी ?
पापा जी मेरे से गल्ती हो गई | आईन्दा से ऐसा नहीं होगा |
ठीक है जाओ |
चेतना तो चली गई परन्तु मैं विचारों में खो गया कि क्या चेतना को इतनी भी समझ नहीं है कि ऐसी छोटी मोटी स्थितियों से कैसे निपटा जाता है | इसकी जीवन नैया कैसे पार होगी | क्या यह गवारूपन कभी छोड़ पाएगी ? समय व्यतीत होने लगा | यदा कदा चेतना ऐसे किस्से कर ही बैठती थी जिससे उसकी नासमझी सामने आ ही जाती थी |
१९९७ की बात है | मेरे साढू की लड़की डोली की शादी थी | हम सभी उसमे सम्मिलित होने आगरा गए थे | डोली की शादी सुचारू रूप से संपन्न हो गई | कृष्णा जो मेरी पत्नी की छोटी बहन हैं उसकी हम से अनबन चल रही थी | जब प्रवीण की शादी का कार्ड देने मैं ग्वालियर गया था तो कृष्णा ने अपने घर का दरवाजा भी नहीं खोला था | मुझे कार्ड उसके दरवाजे के कुंदे में फसांकर आना पड़ा था | मेरी समझ नहीं आया था कि वह किस बात पर नाराज थी |
कृष्णा प्रवीण की शादी में नहीं आई थी इसलिए उसने चेतना को पहले देखा भी नहीं था | हम विदा लेकर चलने लगे तो चेतना ने अपनी सास को बताया कि कृष्णा मौसी उसे १०१ रूपया मुहं दिखाई दे गई हैं | कृष्णा जा चुकी थी | संतोष ने चेतना से थोड़ी ऊंची आवाज में कहा, तू अब बता रही है जब वह चली गई | वैसे तूने मुझे बिना बताए रूपये ले कैसे लिए ?
संतोष के इतना कहते ही चेतना ने रोना शुरू कर दिया | आसपास खड़े रिश्तेदार तथा वहाँ खड़े लोग चेतना के रोने का अपने अलग अलग ढंग से बात का बतंगड बनाने लगे | संतोष के पास चेतना का रोना देखने का समय नहीं था | वह बाहर की तरफ झपटी परन्तु कृष्णा कहीं दिखाई न दी | अलबत्ता राजेन्द्र जी मिल गए | संतोष ने चेतना की तरफ से १०१ रूपये कृष्णा के पैर पड़ाई के नाम के उन्हें दे दिए |
घर आकर संतोष ने चेतना को आड़े हाथों लेने के लिहाज से पूछा, तुम आगरा में मेरे कहने पर क्यों रोई थी ?
चेतना आखों में आंसू लाकर, मैं क्या करूँ मम्मी जी मुझे अगर कोई कुछ कहता है तो रोना आ जाता है |
इसका मतलब तुम्हें तुम्हारी किसी गल्ती के लिए समझाया भी नहीं जा सकता ?
नहीं मम्मी जी ऐसी बात नहीं है |
तो फिर कैसी बात है ? तुम जब चलते स्कूटर से कूद पड़ी थी और तेरे ससूर ने तुझे समझाते हुए कहा था कि स्कूटर से उतरने के और भी कई तरीके हो सकते थे | तब भी उनकी बात न समझ कर तूने टसूए बहाने शुरू कर दिए थे |
चेतना कुछ जवाब न दे पाई परन्तु मैनें यही सोचकर कि अश्रु बहाना औरत का एक बहुत सफल हथियार होता है जिन्हें देखकर अच्छे से अच्छा योद्धा भी धराशाही हो जाता है, बात यहीं खत्म करने का इशारा कर दिया |      
समय निर्बाध गती से चला जा रहा था | चेतना की लड़की अब छठी कक्षा में पढ़ रही थी तथा लड़का चौथी में था  संसार में चहूँ और उन्नती हो रही थी | मोबाईल फोन के जरिए एक स्थान पर बैठे बैठे एक सेकेंड में विश्व के किसी भी कौने में बैठे इंसान से बात की जा सकती थी | चंद घंटों में ही भारत से अमेरिका पहुंचा जा सकता था अर्थात नाश्ता देहली में तो दोपहर का खाना अमरीका में लिया जा सकता था | छोटे कच्चे पक्के मकानों की जगह ऊंची ऊंची इमारतें ले रही थी | शिक्षा के साथ नौकरियों की भी बाढ़ सी आ गई थी | इसके साथ ही लोगों के रहन सहन, खाने-पीने, पहनने और विचारों में बहुत बड़ा बदलाव नजर आने लगा था | पुराने जमाने के लोगों की तरह अधिक से अधिक रूपया बचाकर रखने की प्रवर्ति अपना वर्चस्व खोती जा रही थी | इन्हीं विचारों के चलते प्रवीण ने अपना पैतृक मकान जिसमें वह रह रहा था एक किस्म से नए सिरे से बनवाने का विचार बना लिया | काम  शुरू करने से पहले उसने मेरे से पूछा, पापा जी मैं मकान में कुछ तबदीली करवाना चाहता हूँ |
मेरे विचार में मकान बिल्कुल ठीक बना था इसलिए जानना चाहा, मसलन |”
संगमरमर के दानों के फर्श की बजाय पत्थर लगवाना, बिजली के तारों तथा पानी के पाईपों को दीवारों में लेना, छतों तथा दीवारों पर प्लास्टर आफ पेरिस लगवाना इत्यादि |
मैनें अंदाजा लगाते हुए बताया, इस काम को पूरा होने में लगभग छह: महीने तो लग जाएंगे |
प्रवीण ने हामी भरी, हाँ पापा जी सो तो है |
अपनी दुकान का सामान कहाँ रखेगा ?
मैंने साथ वाले मकान मालिक से बात कर ली है वह अपनी नीचे वाली बैठक मुझे किराए पर दे देगा |
घर का सामान कहाँ रखेगा तथा बच्चे कहाँ रहेंगे ?
मैं एक एक मंजिल ठीक कराऊंगा अत: जो मंजिल ठीक रहेगी उसमें रह लेंगे |
मकान की रूप रेखा सवारने का काम शुरू कर दिया गया परन्तु प्रवीण के ख्यालो के अनुसार कुछ न हो सका | मकान का पिछला हिस्सा पूरा गिराना पड़ा | सारा मकान खंडहर सा प्रतीत होते हुए भी प्रवीण ने उसमें रहना न छोड़ा |मैं सुबह से शाम तक वहाँ की देखभाल करता और शाम को वापिस गुडगांवा आ जाता था | चेतना को हर दिन अपनी रसोई का स्थान बदलना पड़ता था | न नहाने का स्थान था न सोने का | दिन भर धूल मिट्टी से जूझना पडता था | रात को तो वह भूतिया महल सा प्रतीत होता था | उस खँडहर में रहते रहते चेतना   के व्यवहार में कुछ तबदीली दिखाई देने लगी | चेतना   की सेहत पहले से ही कमजोर रहती थी अब जब से मकान बनना शुरू हुआ था वह दिन प्रतिदिन और भी कमजोर होने लगी थी | एक दिन उसे तेज बुखार आया और कुछ से कुछ बड़बबड़ाने लगी |
चेतना की स्थिति को देखते हुए उसे कल्याणी अस्पताल-गुड़गावां में भर्ती करा दिया गया | बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी उनकी बुआ को संभालनी पड़ी | चेतना को अपना कुछ होश न था | वह घर वालों को भी ठीक से नहीं पहचान पाती थी | किसी से कुछ भी बातें करने लगती थी | वह मुहं फट हो गई थी | वैसे तो घर में वह घूंघट जैसी प्रथा निभाती थी परन्तु एक दिन उसने मुझे अस्पताल के कमरे के दरवाजे पर खड़ा देखकर हाथ के इशारे से अपने पास आने को कहा | मैं ज्योंही उसके नजदीक गया उसने दोनों हाथ मेरी गर्दन में डालकर पूछा, पापा जी आपने मुझे यहाँ क्यों डाल रखा है |
मैनें उसके हाथों की पकड़ छुड़ाकर कहा, आपकी सेहत ठीक नहीं है इसलिए |
क्यों मुझे क्या हो गया है ?
कुछ नहीं थोड़ा बुखार हो गया था |
पापा जी आपको एक बात बताऊँ, आप की आँखे बड़ी अच्छी लगती हैं, बड़ी बड़ी और सुरमेंदार |
इससे पहले की चेतना कुछ और बेतुकी बातें करती मैं कमरे से बाहर आ गया | उसको स्वस्थ होने में लगभग एक महीना लग गया |
चेतना  के जेठ की एक वधु थी, दीपिका | वैसे तो दीपिका चेतना  की जेठानी लगती थी परन्तु आपस में दोनों की बहुत पक्की  दोस्ती थी | जब दीपिका अस्पताल में मिलने गई तो चेतना  ने उसकी बांह पकड़कर उसे बहुत खरी खोटी सुनाना शुरू कर दिया |
‘तू अब मिलने आई है इतने दिनों बाद ‘
‘बच्चे जन कर मोटी हो गई है ‘
‘जैसे जैसे मोटी हो रही है तेरी अक्ल भी मोटी होती जा रही है’
‘लगता है तू सब गुण अहसान भूल गई है’
‘वह तू ही है न जिसके लिए मैंने अस्पताल में तीन तीन रातें जमीन पर सो कर काटे थे’
‘तूझे तीन मिनट भी भारी पड़ गए’
जब प्रभा  ने देखा कि चेतना  कहते कहते उग्र होती जा रही है तो उसने उससे दीपिका का हाथ छुडाया और बाहर भेज दिया |

जब मैं पढ़ता था तो हमारे कोर्स में अंग्रेजी की एक कहानी ‘होम कमिंग’ पढाई जाती थी | उसमें दर्शाया गया था कि बच्चों को कितनी भी सुख सुविधा में रखा जाए परन्तु वे अपने मम्मी पापा से, अपने घर से अधिक दिन दूर नहीं रह सकते | यही चेतना के बच्चों के साथ हुआ | हर प्रकार की रहने की सुख सुविधा, अच्छा खाना पीना और खेलने के लिए बच्चों का साथ होते हुए भी पन्द्रह बीस दिनों में ही उनका मन अपनी बुआ के यहाँ रहने से ऊब गया | उन्हें अपने घर की याद सताने लगी | अत: चेतना के अस्पताल से छुट्टी मिलते ही बच्चों को भी ले आया गया | 

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