Saturday, October 7, 2017

मेरी आत्मकथा- 15 (जीवन के रंग मेरे संग) भेड़ चाल

मेरी आत्मकथा- 15   (जीवन के रंग मेरे संग) भेड़ चाल  

जहर के नाम से मुझे याद आ रही है एक साधू एवं सांप की कहानी |           
एक समय की बात है कि एक साधू नदी में स्नान कर रहा था | उसने एक सांप को नदी की जल की धारा में बहते देखा | सांप की पीठ पर उसका बच्चा भी चिपका हुआ था | साधू को उन पर दया आ गई | उसने अपना हाथ बढ़ाकर सांप को पकड़कर पानी से बाहर निकालने की चेष्टा की | सांप ने साधू का हाथ अपनी और बढ़ते देख बचने के लिए अपना फन उठाकर डंक मारने की कोशिश की | यह देख साधू ने अपना हाथ पीछे खींच लिया | सांप पानी के बहाव में बहता चला गया | साधू से रहा न गया | वह तैर कर फिर सांप के नजदीक चला गया तथा सांप को पकड़कर उसे बाहर फैकने का अपना प्रयास दोहराया | सांप ने भी फुफकार भरकर साधू के हाथ पर डंक मारने का यत्न किया | साधू की सांप को डूबने से बचाने की कोशिश एक बार फिर नाकामयाब रही | सांप पानी के साथ फिर आगे बढ़ गया |
सांप को पानी में डूबते उभरते देख साधू का मन एक बार फिर पसीज गया | वह अपनी आँखों के सामने किसी असाह जानवर की मृत्यु होते कैसे देख सकता था | साधू ने सांप को बचाने की एक बार फिर कोशिश की और बहते सांप को पकड़ लिया | इस बार सांप ने वास्तव में ही साधू को डस लिया जिससे साधू को अपने उपचार के लिए सांप को छोड़कर नदी के किनारे पर आना पड़ा |
एक व्यक्ति नदी के किनारे खड़ा साधू और सांप का यह खेल देख रहा था | साधू जब अपना उपचार कर रहा था तो उस व्यक्ति से न रहा गया और साधू से पूछा, संत जी यह जानते हुए भी कि सांप को पकड़ना घातक हो सकता है फिर भी बार बार आप उसे बचाने की कोशिश कर रहे थे, क्यों ?
साधू ने बड़ी नम्रता से जवाब दिया, मान्यवर, ईश्वर ने जैसा हमें बनाया है हम वैसा ही तो व्यवहार करेंगे |
उस व्यक्ति ने साधू की गूढ़ बात का मतलब न समझते हुए पूछा, संत जी आपका क्या तात्पर्य है मैं समझ नहीं पाया |
मान्यवर, भगवान ने सांप को जहर दिया है तो प्रवृति भी डसने की दी है | इसलिए वह वही कर रहा है जैसी उसे प्रवृति मिली है | मुझे परमात्मा ने सहन-शीलता, सोचने की बुद्धी, सेवा भाव एवं कृपालू विचारों से ओतप्रोत कर रखा है | इसलिए मैं सांप को बचाने की हर संभव चेष्टा कर रहा हूँ”, ऐसा कहते हुए साधू ने एक बार फिर गोता लगाया और बहते हुए सांप के पास पहुँच गया |
सांप ने जैसे ही  साधू को डसने की कोशिश में अपना फन उठाकर साधू पर प्रहार किया साधू ने अपने को बचा लिया | इससे सांप का फेन पानी की सतह पर लगा | इससे पहले कि सांप दोबारा अपना फन उठा पाता साधू ने उसे पककर पानी के बाहर फैंक दिया | मौत से जूझते सांप ने अचानक अपने को सुरक्षित स्थान पर पाकर बहुत अचरज हुआ | सांप को अब पता चला कि साधू उसका भक्षक नहीं अपितु उसका रक्षक है | सांप ने एक बार फिर अपना फेन उठाया और साधू की तरफ देखकर, पहले की तरह फुंफकार नहीं बल्कि धीरे धीरे, ऐसे नीचा किया जैसे साधू को नतमस्तक कर रहा हो और देखते ही देखते जंगल में विलीन हो गया | उसके बाद जंगल में आते जाते सांप और साधू का कई बार आमना सामना हुआ परन्तु सांप ने साधू को चोट पहुंचाने का प्रयास कभी नहीं किया |
समय व्यतीत होने लगा | सांप का बच्चा, जो सांप की पीठ पर चिपका हुआ था जब साधू ने उसे डूबने से बचाया था, बड़ा हो गया था | एक बार साधू जंगल से गुजर रहा था कि उसकी मुलाक़ात सांप के उस व्यसक बच्चे से हो गई | सांप का बच्चा साधू का रास्ता रोककर खड़ा हो गया | इस पर साधू ने उसे याद दिलाने की कोशिश की कि वह वही है जिसने उसका तथा उसके पिता का जल समाधि से उद्धार किया था | सांप का बच्चा उस साधू का उपकार एवं एहसान मानने की बजाय अपने बाप की सच्चाई जानकर साधू पर बिफर पड़ा और खुद तो खुद जंगल के अपने सभी साथियों को हुंकार मारकर अपने साथ मिलाने की कोशिश करने लगा |
साधू तो स्वभाव का निर्मल, द्वेषभाव से दूर, सहनशील, अहिंसा वादी एवं परोपकारी तो होता ही है | सांप एवं उसके साथियों की फुफंकार का साधू ने कोई प्रतिरोध करने की बजाय अपना रास्ता बदलकर, समय पर उन्हें समझाने की सोच, आगे बढ़ गया | साधू की तरह कोई मनुष्य चाहे कितना भी निष्ठावान, सहनशील, अहिंसावादी, मृदुल भाषी एवं परोपकारी क्यों न हो सांप की तरह प्रवृति रखने वाले उसकी खिलाफत करने वाले बहुत मिल जाते हैं |
मनुष्य के जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जब लोग बेवजह उसे नुकसान पहुंचाना चाहते हैं | उसके खिलाफ साजिस रचकर उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने में नहीं चूकते | एक बार मेरे खुशहाल जीवन में भी मेरे एक भतीजे ने मेरे खिलाफ ऐसा ही माहौल बना देने का प्रयास किया था | 
हुआ यूं, जैसा कि मैनें पहले भी लिखा है, मेरे बड़े भाई साहब अपने मकान के कब्जे की जुगत में, भाई ओम प्रकाश को जायज बात कहने में भी कतराते थे | उन्हें डर था कि कहीं उनके मकान के मामले में वे कोई बखेडा खड़ा न कर दें | मैं ऐसा कर सकता था परन्तु मैनें दस्तखत करने में कोई आपत्ति नहीं जताई थी | भाई ज्ञान को ओम कुछ समझते ही न थे | वैसे भी भाई ज्ञान माता पिता की इच्छानुसार दुकान के ऊपर बनें मकान पर पहले से ही अपनी गृहस्थी अलग बसाए थे | बहनों के इन्साफ का पलड़ा, भाईयों के लिए बराबर न रहकर, हमेशा ओम प्रकाश की और झुका रहता था | बहनों में मेरी बड़ी बहन इन्द्रा ही ऐसी थी जो मुझ से सहमती रखती थी परन्तु उनकी आर्थिक स्थिति, मेरी तरह, थोड़ी कमजोर होने की वजह से मेरे भाई उनको कोई तवज्जो नही देते थे | वे दिल्ली से दूर शामली में रहती थी |
घर में भाई ओम प्रकाश एवं भाभी जी की रोज रोज की कलह | बड़े भाई साहब का, अपनी लालसा पूरी करने के लिए, उनकी तरफ झुकाव | छोटी बहनों का मेरे प्रति रूखापन | मेरे मन के बोझ को दिन प्रति दिन बढ़ा रहा था | ऐसा कोई नजर नहीं आता था जिससे कहकर अपने मन का बोझ हल्का कर सकूं | और एक दिन अचानक बैंक में होने जा रही हिन्दी प्रतियोगिताओं के लिए अपने मन की व्यथा लिखकर मैनें अपने मन का बोझ उतारना शुरू कर  दिया था |
मेरी हिन्दी की कहानियों की किताब ‘मन की उड़ान’ छप चुकी थी | उसकी आठ कच्ची प्रतिलिपियाँ संशोधन के लिए मेरे पास आ चुकी थी | एक दिन मैं अपने मकान नंबर ९७३-सैक्टर २३ ए, हुड्डा-गुडगाँवा में बैठा था कि मैडम सुमन का फोन आया | सुमन, राम सम्हार तिवारी की पत्नी हैं तथा न्यू पालम विहार में अपना मकान बना कर रह रही थी | वैसे तो अक्सर मकान के बारे में उनका फोन आता रहता था परन्तु आज उनकी आवाज कुछ घबराई हुई सी महसूस हो रही थी | उनके लंबे सांस लेने की आवाज मुझे फोन पर साफ़ सुनाई दे रही थी | उनकी आदत थी कि मेरी और से हैलो कहते ही वह, भाई साहब नमस्ते कहना कभी नहीं भूलती थी परन्तु आज सीधे ही बोली, भाई साहब एक बुरी खबर है |
मैनें पूछा, क्यों क्या हो गया ?
सुमन की घबराहट शायद बढ़ती जा रही थी इसलिए उसकी जबान लड़खड़ा रही थी | मैंने प्रशन किया, ऐसा क्या हो गया | क्या हम वहाँ आएं ?
नहीं आपको आने की जरूरत नहीं है |
फिर क्या बात है ?
दरअसल नारायाणा से लाला (जय सिहं का लड़का) का फोन आया था |
तो ?
वह कह रहा था कि मौहल्ले की सारी औरतें हमारे यहाँ इकट्ठा हो रही हैं | आप भी आ जाओ |
तो ?
उसने कहा कि आज वे टिंकू(प्रवीण) की पिटाई करेंगे |
इस प्रत्याषित बात ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया | मैंने उतावलेपन से पूछा, क्यों,उसने ऐसा क्या कर दिया ?
कह रहा था कि आपने कोई किताब लिखी है जिसमें मौहल्ले की औरतों के कई आपत्ति जनक नाम हैं, उसके कारण |
अच्छा ठीक है, कहकर मैंने फोन काट दिया तथा अपने लड़के प्रवीण को फोन मिलाया |
प्रवीण ने बताया कि तीन चार दिनों से हमारे खिलाफ यहाँ कोई षडयंत्र रचा जा रहा है | कभी सत्य प्रकाश के यहाँ, कभी लक्षमन के यहाँ तो कभी जय सिहं के यहाँ मौहल्ले की औरतों एवं आदमियों की बैठक हो रही हैं | अधिकतर औरतों ने बहिष्कार सा अपना कर मेरी दुकान पर आना छोड़ दिया है | आप सुबह एक बार यहाँ आ जाना |
सुमन के बताने तथा प्रवीण के कहने से मैंने अंदाजा लगाया कि मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर बन गया लगता है | परन्तु अंदाजा न लगा पाया कि इसका मूल कारण क्या हो सकता है | फिर यही सोच कि अफवाह या बुराई को पनपने से पहले ही दबा दिया जाए तो बेहतर होता है, मैं शाम को ही नारायणा के लिए निकल पड़ा | रास्ते में बाल किशन का फोन आया | कह रहा था, चाचा जी आप की किताब ने तो पूरे गाँव में धूम मचा दी है | उसकी फोटो कापियां करवा कर बांटी जा रही हैं | आपके पिंकी की बहु भी एक कापी माँगने आई थी | कह रही थी कि हम तो उनसे बोलते नहीं परन्तु मेरे पास तो किताब जरूर होगी |
बाल किशन के मुहं से ही मुझे पता चला कि पिंकी के घर वालों के हमारे प्रति ऐसे विचार बन चुके हैं | अन्यथा मैंने तो उनके साथ ऐसा कोई व्यवहार भी नहीं किया था जिससे रिश्तों ने ऐसा मो ले लिया था | आजकल तो जो जैसे में खुश उसे अपनी खुशी मान लेना चाहिए | मैंने इस और अधिक ध्यान नहीं दिया क्योंकि मैं तो अपनी समस्या का निवारण करने जा रहा था |
मैं गाँव के बाहर ही पहुंचा था कि एक व्यक्ति ने कहा, सेठ जी अंदर ज़रा संभल कर जाना |
क्यों भाई खून के जुर्म में मुझे पुलिस पकने के लिए बैठी है क्या ?
नहीं ऐसी तो बात नहीं है, सेठ जी |
फिर कैसी बात है ?
घर जाकर देख लेना, कहकर वह आगे बढ़ गया और मैंने अपनी राह पकड़ी |
मैं चार कदम ही चला था कि दूसरे ने कहा, सेठ जी आपके घर के सामने वाली औरत कुछ अनाप सनाप बक रही थी |
मुझे इससे क्या, बोल रही होगी किसी के बारे में”, कहता हुआ मैं चलता गया |
तीसरे ने बताया, सेठ जी आपका नाम लेकर उलटा सीधा इल्जाम लगा रही थी |
मैंने समझाया, देखो इस मौहल्ले में मेरे नाम के और भी तो व्यक्ति रहते हैं | मैं क्यों मानूं कि वह मुझे ही कह रही थी |
आगे चलकर चौथे ने कहा, लाला जी सामने वाली जोर जोर से चिल्ला रही थी कि बनिए के को मैं बताऊँगी कि दूसरे का नाम कैसे उछालते हैं |
भाई साहब बनियों के तो साथ साथ कई मकान हैं फिर भला मैं कैसे मान लूं कि वह मुझे ही कोस रही है | और बेकार में झगड़ा मोल लूं | यह तो वही बात हुई कि आ बैल मुझे मार |
ऐसी कई आपत्ति जनक बातें सुनता सुनता मैं अपने घर पहुँच गया | वैसे मुझे भनक तो थी कि जैसा लोगों के मुहं से सुन रहा था वैसा ही कुछ हो रहा था परन्तु फिर भी निर्भीकता दिखाते हुए पहले अपने लड़के की ज़ुबानी सारा किस्सा सुनकर आशवस्त होना चाहता था |
मुझे प्रवीण ने बताया कि वास्तव में ही ऐसा हो रहा है जैसा मैंने रास्ते में लोगों के मुख से सुना था | उसने यह भी बताया कि दो दिनों से वह सामने औरतों का जमघट लगा कर बैठ जाती है तथा मेरे खिलाफ भड़का रही है | उसकी वजह से मौहल्ले की औरतों ने मेरी दुकान से सामान खरीदने का एक प्रकार से बहिष्कार सा कर दिया है |
प्रवीण से मौहल्ले की पूरी जानकारी लेकर मौहल्ले के आचरण का जायजा लेने के लिए मैं अपनी दुकान के बाहर चबूतरे पर खड़ा हो गया | मैं सोचने लगा कि बनियों और पंडितों के बीच तो हमेशा से ही चोली-दामन जैसा साथ रहा है | पुराने जमाने में पंडितों के घर का खर्चा तो अधिकतर अपने जजमान बनियों की दान दक्षिणा से ही चलता था | परन्तु अब नए परिवेश में पंडित रहे ही कहाँ हैं | बनियों ने तो अपना व्यापार का काम धंधा बदला नहीं तथा न ही अपनी दान दक्षिणा देने की आदत परन्तु आज पंडित बहुत बदल गए हैं | अब उन्होंने धर्म कर्म के काम छोकर नौकरी या फिर और काम अपना लिए हैं | उनके मतानुसार विद्या उपार्जन के बाद अब वे दूसरे के रहमो कर्म पर जीने में विश्वास नहीं रखते |
मौहल्ले में एक विधवा पंडिताईन, सुमित्रा, रहती थी | भगवान ने मेरे माध्यम से उस पर भी बहुत एहसान किए थे | उसके आदमी के रहते जब उसके परिवार पर फाके की नौबत आ गई थी तो मैंने ही उनके घर का खर्चा उठाकर उनको सहारा दिया था | पंडित भारतीय डाक घर में एक पक्का सरकारी मुलाजिम था | अगर वह सीधे राह चलता तो अपनी पारिवारिक नैया को आराम से खींच ले जाता | वह एक रंगीन मिजाज का व्यक्ति था | उसने अपनी एक अलग टोली बनाकर एक ड्रामैटिक क्लब की नीवं रख दी | इसमें मेरा भाई ओम प्रकाश एक मुख्य कार्यकर्ता था |
पंडित की ड्रामेटिक क्लब ने जगहों जगहों पर अपना मंचन शुरू कर दिया | लोगों को रिझाने के लिए बाहर से लकियों का भी इंतजाम किया गया और टिकट भी लगाए गए | परन्तु खर्चों को देखते हुए आमदनी बहुत कम हुई | मेरे भाई ने तो अपनी जात के कथानुसार अपने कदम फूंक फूंक कर रखे उसी प्रकार पंडित ने, जो अपने को बहुत बड़ा विद्वान समझता है इसी मत को सिर पर चढ़ाकर, सोचा कि वह तो एक बहुत बड़े ड्रामैटिक क्लब का मालिक बन गया है अत: डाकघर की नौकरी उसे शोभा नहीं देती | पंडित ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया था |
आर्थिक अभाव के कारण ड्रामैटिक क्लब अधिक दिन टिक न सका | पंडित के साथ भी वही कहावत हुई कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का | अर्थात नौकरी के त्याग पत्र तथा ड्रामैटिक क्लब के बंद हो जाने से धीरे धीरे वह कंगाल हो गया और इसी झटके के कारण वह बीमार होकर चल बसा | यही कारण रहा था कि इंसानियत के नाते मैनें बिना किसी लालच के पंडिताईन के छोटे छोटे बच्चों का कुछ दिनों के लिए भरण पोषण किया था | मेरे भाई ने जो कभी उसकी रोटी काटे का साथी था  इस मामले में न तो अपनी अधिक पूंजी लगाई थी और न ही अपनी नौकरी छोने की बेवकूफी की थी इसलिए अपने सारे नुकसान को झेल गया |    
पंडिताईन के बारे में सोचने के बाद मेरा ध्यान मेरे घर के सामने रहने वाले तंवर परिवार की और गया | इस समय इसका मुखिया सत्य प्रकाश था तथा उसकी पत्नी राज थी | सत्य प्रकाश बहुत ही शरीफ इंसान था | उसकी उंची बोल शायद ही किसी ने कभी सूनी होगी | सत्य प्रकाश के माता पिता बहुत ही मिलनसार प्रवृति के व्यक्ति थे | इसी वजह से हमारे परिवार के साथ उनके घर जैसे रिश्ते बनें हुए थे | मौहल्ले में सत्य प्रकाश की माँ दादी के खिताब से जानी जाती थी | हांलाकि दादी की पुत्र वधु देखने में अच्छी खासी सुन्दर, व्यवहार कुशल, नरम दिल एवं आदर सत्कार करने में निपुण थी परन्तु थोड़ा उकसाने पर उसका मिजाज गर्म हो जाता था और‌ इस स्थिति में  वह बिना वास्तविक कारण जाने किसी से भी उलझने को तैयार हो जाती थी | इसी बहाव में वह आस पडौस के सभी परिवारों के उस पर किए गुण एहसान भूलकर एक ही डंडे से हांकना शुरू कर देती थी | सारे मौहल्ले की औरतें, भेड़ों के झुण्ड में अपनी मुखिया भे की तरह, उसका अनुशरण करने लगती थी |
मैं भी सत्य प्रकाश की तरह शांत स्वभाव का व्यक्ति हूँ | अधिकतर अपने काम से काम रखता हूँ | मौहल्ले में किसी की किसी प्रकार की किसी से कोई नुक्ताचीनी नहीं करता हूँ | परन्तु मौक़ा मिलने पर दूसरों के दुःख दर्द में उनकी भरपूर सहायता करने से पीछे नहीं हटता | इसके साथ ‘नेकी कर कुँए में डाल’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए की हुई नेकी का गुणगान भी नहीं करता | इसका यह कतई मतलब नहीं कि मैं डरपोक, दब्बू, या किसी के दबेल में रहकर अपना जीवन निर्वाह करता हूँ | इससे पहले कि पानी सिर से ऊपर जाने लगे मैं उसका इंतजाम भी कर देने की क्षमता रखता हूँ |
एक बार राज का बड़ा लड़का बहुत शख्त बीमार हो गया था | मुझे जब पता चला तो उसे अस्पताल में भर्ती करवाकर उसके इलाज का पूरा प्रबंध करके हर संभव सहायता की थी | समय पर उचित कार्यवाही होने से लड़का जल्दी ही भला चंगा होकर घर आ गया था | इससे राज के मन में मेरे प्रति काफी श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी | दिन व्यतीत होने लगे | राज का वह लड़का बड़ा होकर नौकरी लग चुका था |  
विजेन्द्र, राज का जेठ, बहुत कम पढ़ा लिखा था तथा काम भी कुछ नहीं करता था | एक बार बैंक में नौकरियाँ निकली थी | मैं उसकी सहायता करने के लिए अपने सारे काम छोकर आगरा तक गया था | दुर्भाग्य से उसे नौकरी नहीं मिल सकी परन्तु बिना किसी लालच एवं उसकी हौसलाफजाई के लिए उसके साथ तो गया था |
पता चला कि पंडित नौनंद की कुछ पुत्र वधूवें भी मेरे खिलाफ आवाज उठा रही थी | मेरी समझ नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है ? सभी, पंडित, रये, कुम्हार, खाती, अपने भाई बंधू, यहाँ तक की उनके किराएदारों की औरतों का एक साथ मेरे खिलाफ इस अभियान को छेने की जड़ से मैं अनजान था |
मैं अपनी दुकान के चबूतरे पर लगभग आधा घंटा खड़ा रहा | परन्तु इस दौरान न तो मेरे खिलाफ किसी की जुबान खुली तथा न ही कोई मेरे सामने आया | वैसे मैंने भांप लिया था कि कोई अपने मकान की खिडकी से तो कोई दूर से टेढी एवं चोर निगाहों से मुझे खड़ा देख रहा था | जब थोड़ा सा अन्धेरा घिर आया तथा मेरे खिलाफ कोई आवाज नहीं उठी तो मैनें खुद ही सारे मामले की तहकीकात करने का मन बना लिया |
मैनें अपने लड़के प्रवीण को सत्य प्रकाश के घर से राज को, जो दो दिनों से सुबह से शाम तक अपने दरवाजे पर मौहल्ले की औरतों का जमघट लगाकर मेरे खिलाफ अनाप सनाप बोलते न थकी थी, बुलाने के लिए भेजा | प्रवीण ने आकर बताया कि वह रात के नौ बजे के बाद, जब उसका पति सत्य प्रकाश नौकरी से वापिस आ जाएगा तो उसके साथ आएगी |  
मैनें रात के दस बजे तक उनके आने का इंतज़ार किया और जब वे नहीं आए तो मैं खुद ही उनके घर चला गया | अपनी आशाओं के अनुकूल, दादी एवं मौहल्ले की मान मर्यादा रखते हुए, राज ने मुझे पूर्ण सम्मान दिया | मुझे सोफे पर बैठाकर जब वह मेरे चरण छूने को झुकी तो, दूसरों के मुख से सुनकर अपने मन में उसके प्रति मेरे मन में जो गलत विचार उत्पन्न हो गए थे उनसे मुझे अपने पर बहुत ग्लानी महसूस हुई | राज के इस कृत्य ने जाहिर कर दिया था कि उसके मन में मेरे प्रति अभी तक कोई दुर्भावना नहीं है तथा वह पूरा किस्सा जानकर ही आगे कुछ कदम उठाना चाहती है | राज ने घूंघट के पीछे से प्रशन किया, जेठ जी आपने यह कैसे लिख दिया ?
मैनें, मैनें क्या लिख दिया ?, मैनें उल्टा प्रशन किया |
आपने अपनी कहानी स्वर्ग में मेरा नाम लिख दिया |
आपका नाम तो राज कुवंर है ?
नहीं अब राज रानी कहते हैं |
मैनें अगला प्रशन किया,  “आप किसकी पत्नी हैं ?
सत्य प्रकाश की |
जो मैनें कहानी लिखी है उसमें आपके पति का नाम क्या लिखा है ?
पता नहीं |
तो आपने यह कैसे मान लिया कि मेरी कहानी में आपका ही नाम है ?
परन्तु राज रानी तो मेरा ही नाम है |  
क्यों क्या इस संसार में राज रानी कोई और नहीं हो सकती ?
राज सकपका कर, हो सकती हैं |
अच्छा यह बताओ, क्या आप सत्य प्रकाश की बजाय धर्म प्रकाश की पत्नी कहलाना पसंद करोगी ?
राज थोड़ा विचलित हुई और पूछा, आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ?
उसके यह प्रशन करने से ही मैं समझ गया था कि उसने पूरी कहाने नहीं पढ़ी है और केवल नाम के चक्कर में  दूसरे के बहकावे में आकर बिना कुछ दरियाफ्त किए उसने मेरे खिलाफ झंडा बुलंद करने का मन बना लिया था | राज के प्रशन के उत्तर में मैनें उसे बताया, क्योंकि मेरी लिखी स्वर्ग कहानी में राज रानी का पति धर्म प्रकाश संबोधित किया गया है |
मेरी सुनकर अचानक राज एवं उसके पति सत्य प्रकाश के मुख से निकला, क्या ! इसका मतलब हमें तो बहकाया गया है |       
इतने में राज की जेठानी बोली, तो फिर आपकी कहानी में मेरा नाम अंगूरी कहाँ से आ गया ?
जब मैनें उसे बताया कि मेरी बहन का नाम भी अंगूरी है तो वह चुपचाप एक तरफ होकर ऐसे बैठ गई जैसे उसके ऊपर सैकड़ों घड़े पानी पड़ गया हो | आखिर में मैनें उन्हें समझाया, आप इतने समझदार होते हुए भी न जाने क्यों नाम के चक्कर में फंस गए | इतना हो हल्ला मचाने से पहले मेरे से एक बार पूछ तो लिया होता कि यह सब क्या है | और फिर इस दुनिया में न जाने इस नाम के कितने ही व्यक्ति होंगे | आपका नाम कोइ रजिस्टर्ड तो है नहीं फिर आपने यह कैसे मान लिया कि मैनें आपके बारे में ही लिखा है | इसको महज एक  कहानी के रूप में पढो तब आपको पता चलेगा कि मेरा मकसद क्या है |"
सभी एक साथ बोले, "हमें तो बताया गया था की यह हमारे बारे में लिखा गया है |"
"और आपने आँख बंद करके मान लिया कि ऐसा ही है जबकि लिखा हुआ आपके सामने था |"
"हमसे यही गलती हो गयी | हमें माफ़ कर दो |" उनको मेरी बात समझ गयी थी तभी तो उनके चेहरों पर संतुष्टी झलकने लगी थी
जब से मेरे पिता जी का स्वर्गवास हुआ था तभी से कनागदों में मैं पंडित नौ नन्द राम को ही खाने पर निमंत्र्ण देता हूँ | वे भी मेरे अलावा किसी और के यहाँ खाने पर नहीं जाते  | अत: वे मेरे लिए पूजनीय हैं | मुझे समाचार मिला था कि उनकी मंझली बहू भी मेरी किताब में छपे नाम 'ताई सरती'  को लेकर कुछ खफा थी | इसलिए उनकी नाराजगी जानने के लिए मैं उनके घर गया | मैनें उन्हें बताता कि वह सरस्वती की जगह सरती  छप जाने के कारण है | दूसरे राज और सरती ने तो एक दूसरे को देखा भी नहीं है क्योंकि सरती तो राज के यहाँ आने से पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थी  फिर आप ने कैसे मान लिया कि यह वही ताई सरती है |  वैसे नौनंद पंडित की बहु द्वारा मेरी किताब को उपन्यास संबोधित करने से ही मैंने अंदाजा लगा लिया था कि वे साहित्य के बारे में कितना जानती हैं | अब  इतना तो निशचित हो गया था कि किसी ने मौहल्ले वालों को मेरे खिलाफ बरगलाया है और वे सभी बहकावे में गए हैं
पंडित जी के घर से वापिस आते हुए रास्ते में पंडीताईन सुमित्रा से टकराव हो गया | मुझे देखते ही उसने हाथ जोड़कर कहा, "चाचा नमस्ते |"
नमस्ते का जवाब देकर मैनें उससे पूछा, "सुना है आप मेरे खिलाफ कुछ बोल रही थी ?"
वह छूटते ही बोली, "ना चाचा भगवान जानता है मैंने तो कुछ नहीं कहा |"
"परन्तु मैंने सुना है कि आप कह रही थी कि मेरे खिलाफ ढोल बजवाओगी और उन्हें पैसे भी आप चुकता करोगी |"
वह इस बात से साफ़ मुकर गयी और बोली, "ना चाचा मैं भला ऐसा क्यों करूंगी | आपके तो हम पर बहुत एहसान हैं |'
मुझे अपने मुहं से सुमित्रा को याद दिलाने की जरूरत नहीं पडी | जबकि उसने कबूल ही लिया था तो मैंने भी आगे कुछ कहना उचित समझ अपने घर की राह पकड़ी |    
नाई जात को तो सदा से ही माना गया है कि वे रिश्तों में दरार डालने में बहुत माहिर होते है | अपने फायदे के लिए वे एक के खिलाफ दूसरे के कान भरने से कभी चूकते नहीं |  एक नाईन लक्षमण के यहाँ काम करती थी | पता चला था कि मेरे खिलाफ भड़की ज्वाला में वह भी आग में घी का काम कर रही थी | मैनें अपने भतीजे राकेश के साथ उसके घर जाकर जब पूछा तो वह भी सुमित्रा की तरह मुकर गयी | मैनें भी आगे अपनी कोई प्रतिक्रिया दिखाई और वापिस घर चल दिया
चौराहे से ही दिखाई दिया कि मेरे घर के सामने काफी भीड़ इकट्ठी थी | मेरे वहां पहुंचते ही सामने वाली राज बोली, "जेठ जी मैं कह रही हूँ कि मेरा इस किस्से से कोई लेना देना नहीं है फिर भी जाने क्यों मौहल्ले वाले मुझे भड़काकर आपके खिलाफ ड़ा करना चाहते हैं |"
मेरे एक बार कहने से ही, "आप आराम से जाकर अपने घर बैठो", वह अपने बच्चों को लेकर अपने घर के अन्दर चली गयी
इसी प्रकार पंडित नौनंद का परिवार भी अपने घर की तरफ मुड़ गया | उन्हें चुपचाप जाता देख तथा अपने मन की मुराद पूरी होते जान लक्षमण अचानक भड़क उठा | वह आगे बढकर मेरे सामने ड़ा हो गया और गुर्राकर बोला, "तो तू बता ये दीपिका कौन है ?"
मैनें संयम बरता और जवाब दिया, "मैं तूझे बताना जरूरी नहीं समझता |"
मैनें देखा लक्षमण की सारी मांशपेशियां तनी हुई थी | एक झटके से अपनी उंगली का इशारा मेरी और करके वह चिल्लाया, "तू बताएगा भी कैसे | मैं जानता हूँ कि तूने किसके बारे में लिखा है |"
मैंने अबकी बार भी शांत स्वभाव कहा, "जब तू जानता ही है तो मेरे से पूछता ही क्यों है ?"
एक भतीजा राकेश जो दूसरे भतीजे लक्षमण का चाचा के प्रति सभी के सामने नीचता का व्यवहार देखकर चुप रह सका और आँखे तरेर कर बोला , "अरे लक्षमण कुछ तो शर्म कर |"
राकेश का इतना ही कहना था कि जय सिहं लक्षमण के सामने आकर ऐसे ड़ा हो गया जैसे उस पर वार होने से  वह ढाल बनकर लक्षमण को बचा लेगा | परन्तु उसके इस कृत्य से यह उजागर हो गया था कि फिसाद की जड़ कौन है और उसे कौन सींच रहा है | इतने में, बनिए परिवार की सारी शर्म हया उतार कर,  दीपिका गली में आई और मेरी तरफ इशारा करके जोर से बोली, "शर्म काहे की | इन्होंने ही तो हमें पिटवाया था |”    



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