Monday, October 23, 2017

मेरी आत्मकथा- 22 (जीवन के रंग मेरे संग) बड़ी बहू

चेतना के पति कभी कभी अपने आफिस  के काम की फाईलें घर ले आया करते थे | अक्सर यह मार्च अप्रैल के महीनों में ज्यादा होता था क्योंकि कर्मचारियों की तनखा में से सालाना खाते बंद करने के लिए इनकम टैक्स काटना पडता था | वह पढ़ी लिखी तो थी ही इसलिए इस काम में वह भी अपने पति का हाथ बटा देती थी | जो कागज़ भरे जाते थे उनमें सभी कर्मचारियो का पूरा विवरण होता था अर्थात नाम, पता, टेलीफोन नंबर, ब्रांच और तनखा इत्यादि | 
प्रवीण के साथ काम करते करते चेतना के मन में हमेशा एक द्वन्द चलता रहता था कि किसी तरह उस औरत का पता मिल जाए जो इतनी निर्ल्लज और बेहया है जो मेरे से ही मेरे पति पर पूरा इल्जाम थोप रही है | उसके दिमाग में उस औरत का टेलीफोन नंबर जैसे खुद चुका था | एक दिन टैक्स के कागजों को भरते हुए एक फ़ार्म पर चेतना को वही नंबर दिखाई दे गया | चेतना का पूरा शरीर कम्पायमान हो गया | माथे पर पसीने की बूँदें उभर आई | उसकी ऐसी हालत देख प्रवीण ने घबरा कर पूछा, क्यों क्या बात हुई |
चेतना अपने को संभालते हुए, कुछ नहीं, कुछ नहीं शायद अपचन के कारण हो गया है |
प्रवीण चेतना के माथे पर हाथ लगाकर, जाओ जाकर आराम करलो | मैं खुद कर लूंगा |
नहीं नहीं ऐसी चिंता की कोई बात नहीं है | मैं ठीक हूँ |
चेतना ने उड़ती नजर से उस औरत का नाम, रेखा तो जान लिया था परन्तु इतनी जल्दी घर का पूरा पता याद करना मुश्किल था | रेखा का पता पता करने का यह मौक़ा वह हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी | अत: हिम्मत बाँध कर अपने को सम्भाला और काम में लग गई | मौक़ा पाकर और अपने पति से आँख बचाकर उसने उसका पूरा विवरण ले लिया | अब वह अपने मकसद में कामयाब होने के लिए कुछ आश्वस्त हो गई थी | चेतना   अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में पहली सीढ़ी चढ गई थी |
एक दिन चेतना यह सोचकर की रेखा को हतोत्साहित करने के लिए उसे कठोर कदम उठाने के साथ साथ अपनी जबान भी कड़वी करनी पड़ेगी | इसकी के मद्देनजर चेतना ने रेखा का फोन मिलाया | दूसरी तरफ से आवाज आई, हैलो कौन बोल रहा है ?
मैं वह बोल रही हूँ जिसकी तुम सौत बनना चाह रही हो |
क्या बकवास कर रही हो ?
अभी तो मैं बकवास नहीं कर रही बल्कि तुम्हारे दिल की खावाहिस बयाँ कर रही हूँ |
क्या मतलब है तुम्हारा क्यों मेरे ऊपर झूठे लांछन लगा रही हो ?
यह लांछन नहीं हकीकत है |”
तू किस बिना पर यह कह रही है ?
अरी ओ मैडम तू यह मत सोच कि तू ही पढ़ी लिखी है | मैं भी तेरे से किसी मायने मैं कम नहीं हूँ | मै भी जानती हूँ कि मोबाईल पर कैसे अंगुली चलाई जाती हैं |
तो तू क्या कर लेगी ?
अबकी बार चेतना अपने बचपन के रंग में आ गई तथा एक जाटनी के पुट में रेखा को चेतावनी दी, तू जानती नहीं मैं जाटां के बीच रहण आली सूं |
जाटनी जानकर रेखा की आवाज में थोड़ी कम्पन्न महसूस हुई तभी उसने छोटा सा जवाब दिया, तो ?
गर तन्ने अपना रवैया ना बदला तो समझ ले मुझ तै बुरा कोय ना होगा |
 “तू क्या कर लेगी ?
तन्ने फाड़ क रख दूंगी |
मुझे फाड़ने की धमकी दे रही है पर अपने आदमी को नहीं समझाती ?
आदमी त अपने आप समझ जागा गर तू उसे ना उकसावे ओर ना बुलावे |
तेरा आदमी कोई बच्चा तो है नहीं जो मेरे बहकावे में आ जाता है ?
ओ अकल की मारी गर वो बच्चा होता तो ना मैं कुछ कहती, ना तू बुलाती और ना वो जाता |
तो मैं आने वाले को कैसे रोक सकती हूँ |
बेशर्म तू तो ऐसे कह रही है जैसे तू चकला चलाती है |
खबरदार |
खबरदार तो ईब तन्ने रहण की जरूरत सै | मन्ने पता चल गया तू राजी खुशी ना मानन आली | तेरा तो तीया पांचा करना ही पड़ेगा | 
अपने आदमी को वश में कर | मेरे पास आईन्दा फोन मत करना, कहकर रेखा ने फोन काट दिया |
कुलटा स्त्रियों को अपने पति से संतोष हो ही नहीं सकता |पर पुरूष का चस्का लगने पर उन्हें न कुल की मर्यादा, न जग हंसाई का डर, न किसी का बंधन और न ही किसी रोकटोक का असर पड़ता है | वे जान पर खेलने को तैयार हो जाती हैं | इसके विपरीत कुलीन कुटुम्ब की नारी अपने कुल की मर्यादा एवम अपने सम्बंधों को बचाने के लिए बड़े से बड़ा जोखिम उठाने को तत्पर हो जाती है |
अब चेतना के पास कोई चारा नहीं बचा था केवल इसके की वह रेखा से आमने सामने बात करे | परन्तु रेखा के सामने जाने से पहले वह आज के अपने वार्तालाप का असर अपने पति पर महसूस करना चाहती थी |
एक दो दिन चेतना ने महसूस किया कि उसके पति उसके सामने आकर कुछ विचलित से नजर आने लगे थे | ऐसा लगता था जैसे वे कुछ कहना चाहते थे परन्तु हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे | चेतना अपनी समस्या का समाधान शीघ्र करना चाहती थी | वह जानती थी कि जितनी देरी होगी समस्या उतनी ही गंभीर बनती जाएगी | छोटी सी फुंसी को नासूर बनने से पहले ही दबा देने में ही बुद्धिमानी है यही सोचकर चेतना   ने ही पहल करते हुए अपने पति से पूछा, क्या बात है आजकल आप खाना ठीक से नहीं खा रहे |
क्यों मुझे क्या हुआ है ?
पता नहीं मैं ऐसा महसूस कर रही हूँ |
अगर महसूस कर रही हो तो तुम्हें इसका कारण भी पता होगा ?
आप ऐसा क्यों कह रहे हो ?
क्योंकि तुम अंतरयामी जो हो |
आप ऐसा क्यों कह रहे हो ?
जैसा मैनें महसूस किया और.... और तुम्हारे कारण भोग रहा हूँ उससे |
मेरे कारण क्या भोग रहे हो ?
आफिस में जिल्लत |
मेरे कारण नहीं अपने कारनामों के कारण भोग रहे हो |
मैनें कुछ नहीं किया | यह केवल तम्हारा भ्रम है |
एक पराई औरत का आपके फोन पर आन मिलो....सजना का सन्देश क्या दर्शाता है ?
प्रवीण को जब कोई उत्तर न सूझा तो वह झुंझला कर बोला, तुम्हारी तो बाल की खाल निकालने की आदत पड़ गई है |
अगर मुझे यह आदत पड़ी है तो उसका  कारण भी आप ही हैं |
वो कैसे ?
अगर आप धीरे धीरे छुप छुपकर फोन पर बातें न करते तो मुझे कोई शक नहीं होता | न मुझे आपकी उस प्रेयसी का पता चलता | ना मुझे रेखा के इस झंझट में पडने की जरूरत पड़ती | ना आपको, जैसा आप कह रहे हैं,  जिल्लत उठानी पड़ती |
चेतना   के बेबाक शब्दों से प्रवीण ने समझ लिया कि अब चेतना   को बहकाना मुश्किल होगा फिर भी उसने एक कोशिश और करने की सोच कहा, देखो तुम जो समझ रही हो ऐसा कुछ नहीं है |
तो कैसा है ?
रेखा का पति भी हमारी दूसरी शाखा में काम करता है |
करता होगा |
वह बहुत नेक, रहम दिल, बुद्धिमान और दयालू इंसान है |
तभी तो रेखा उसका नाजायज फ़ायदा उठा रही है |
ओ हो तुम समझती क्यों नहीं हो ?
विश्वासघात करने वाले की मुझे कोई बात नहीं समझनी |”
तुमने बेकार का बखेडा खड़ा कर दिया है और कर रही हो |
जब तक आप अपना रवैया नहीं बदलोगे मैं भी नहीं बदलूँगी अपना रवैया |
तुमने जब मैं अपनी एक महिला आफिसर का घर गुडगांवा में बनवाने के लिए उसकी मदद कर रहा था तब भी मेरे ऊपर ऐसा ही इल्जाम लगाया था |
उस समय मैनें आप से केवल इतना ही तो पूछा था कि आपको इतनी भागदौड करने की क्या आवश्यकता है |
अपने शक के चलते ही तो पूछा था परन्तु क्या मिला, बाबा जी का ठुल्लू |
जब मुझे पता चला कि वह औरत रिटायर हो रही है तथा उसका आदमी बाहर सर्विस कर रहा है तो उसके बाद मैनें आपको उसके किसी काम को नहीं टोका था |
इसकी भी सहायता करने के अलावा मेरा कोई और मकसद नहीं है, मेरा यकीन करो |
उसका आदमी यहाँ है, रेखा खुद जवान है, उसका अपना घर है, फिर भला फोन पर चोरी छुप्पे उससे बातें करने तथा प्रेमी प्रेमिका की तरह आपस में सन्देश भेजने का क्या मकसद हो सकता है |
ओहो तुम मुझे बदनाम करके ही दम लोगी | मैं सच कह रहा हूँ कि मेरा उससे कोई नाजायज सम्बन्ध नहीं है |
अब तो मुझे तभी यकीन आएगा जब मैं उससे मिल लूंगी |
उससे मिलकर क्या करोगी ?
...........................................
तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी, समझी |
उससे बात करने से महसूस हुआ है कि न तो वह बदलने वाली है और न आप | इसलिए अपने परिवार को बचाने के लिए मुझे ही कुछ करना पड़ेगा |
ऋषि तथा महात्माओं का शाश्त्रों का ज्ञान स्त्रियों की बुद्धि के आगे बहुत तुच्छ माना जाता है और अगर स्त्री अपने पर आ जाए तो उसे कोई नहीं रोक सकता, कोई उसकी रक्षा नहीं कर सकता | इसीलिए प्रवीण ने जब देख लिया कि उसकी पोल खुल गई है तो वह अपनी पत्नी के द्रद्द निश्चय को भांपकर लड़खडाते हुए पैर पटकता हुआ कमरे से बाहर निकल गया |
चेतना अपने पति की तरह नौकरी करने लगी थी | जब उसके पति की छुट्टी होती थी उसकी भी छुट्टी होती थी | अत: उसको रेखा के घर जाने का समय नहीं मिल पा रहा था |वह उससे मिलने को बेचैन हो रही थी | एक दिन शनिवार को अपने लक्ष्य की और कदम बढाने के लिए उसने अपने पति से झूठ बोला, आज हमारे आफिस में काम होगा इसलिए सभी जाएंगे |
काम है तो जाओ |
आफिस में काम के बहाने चेतना ने रेखा के घर की राह पकड़ ली | ज्यों ज्यों वह रेखा के घर के पास पहुँच रही थी उसके मन में एक डर सा व्याप्त होता जा रहा था | कई विचार उसके मन में आने जाने लगे | वहाँ कौन मिलेगा, कैसे बात शुरू करूंगी, कैसे अपने मन की शंका को सबके सामने रखूँगी, ऐसा कर पाऊँगी भी या नहीं इत्यादि |     
ऐसे विचारों में ही खोई चेतना अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गई | उसने धडकते दिल तथा कांपते हाथों से दरवाजे की घंटी बजाई | दरवाजा एक बुजुर्ग महिला ने खोला | एक  अजनबी औरत को दरवाजे पर खड़ा देख वह बोली, आपको किससे मिलना है ?
जी, दीपक जी से |
वह अभी तो यहाँ नहीं है |
कब तक आएँगे ?
वह तो अक्सर रात को देर से ही आता है |
आप कौन हो ?
मेरे पति दीपक जी के साथ ही काम करते हैं |
तो दीपक से क्या काम है |
कुछ पारिवारिक मामला है |
फिर कल आ जाना क्योंकि कल रविवार है और वह घर पर ही रहेगा |
चेतना   ने पूछा, माता जी आपका परिचय ?
मैं दीपक की माँ हूँ |
अच्छा माता जी क्या आप अपना मोबाईल का नंबर दे सकती हैं जिससे आने से पहले मैं पता कर सकूं कि दीपक जी घर पर हैं या नहीं |
जी नहीं मेरे पास कोई मोबईल नहीं है |
तो क्या आप दीपक जी से कह कर मेरे पास फोन करा सकती हैं कि वे कब मिल सकते हैं ?
मैं कह दूंगी अगर मुझे याद रहा तो |
चेतना   ने महसूस किया जैसे वह बुजुर्ग महिला उसकी बात में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है इसलिए मन में यह सोच कर कि उसे खुद ही बिना बताए दोबारा आना पड़ेगा वापिस चलते हुए कहा, अच्छा माता जी मै फिर पता कर लूंगी |
चेतना   जब सीढियां उतरने लगी तो पीछे से आवाज सुनाई दी, रूकना ज़रा |
चेतना   ठिठक कर खड़ी हो गई| महिला ने बताया, कल शाम को दीपक एक हफ्ते के लिए बाहर जा रहा है |
ठीक है माता जी, कहकर चेतना   ने अपनी राह पकड़ी |
रास्ते भर चेतना   सोचती रही अब वह क्या करे | रोज रोज तो वह अपने पति से बहाना बना कर आ नहीं सकती | अब  अगर दीपक एक सप्ताह नहीं मिला तो जैसे अगर समय पर इलाज न किया गया तो एक छोटी सी फुंसी भी नासूर बन जाती है उसी प्रकार उसके पति और रेखा के बीच एक सप्ताह में न जाने कहाँ तक बात पहुँच जाएगी | उसे जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा इसी उधेड़ बुन में उसे रात भर नीद न आई |
चेतना का तकिया कलाम ‘जहां चाह वहाँ राह’ एक बार फिर काम कर गया | अगली शाम को चेतना घर के लिए सब्जियां खरीदने के बहाने दीपक के घर जा पहुँची | किस्मत से दीपक जी घर पर ही मिल गए, नमस्ते सर |
दीपक आश्चर्य से, आप कौन ?
सर, मैं आपके एक सह कर्मचारी प्रवीण की पत्नी हूँ |
दीपक अपने दिमाग पर जोर देकर, प्रवीण ! अच्छा हाँ दूसरी सैक्शन में है एक प्रवीण |
हाँ सर, आपकी पत्नी रेखा उन्हीं के साथ काम करती हैं |
ठीक –ठीक |
इतने में दीपक की माता जी भी वहाँ आकर बैठ गई | यह सोचकर कि दीपक जाने की कहीं जल्दी में न हो बिना समय गवाएं साहस बटोर कर चेतना   अपने मुद्दे पर आई,सर आपको एक राज की बात बतानी है |
दीपक आश्चर्य से, मुझ से और राज की बात |
हाँ सर, शायद आपको यह पता नहीं कि आपकी पत्नी अनैतिकता पर उतर आई है |
यह कहकर चेतना थोड़ी रूकी क्योंकि वह दीपक की प्रतिक्रिया जानना चाहती थी परन्तु अपनी पत्नी पर एक पराई स्त्री द्वारा लांछन लगाए जाने के बाद भी वह निश्चल और सपाट चेहरा लिए आगे सुनने को आतुर दिखाई दिया | जब दीपक की माँ भी कोई प्रतिरोध करने की बजाय एक बार अपने बेटे की तरफ देखकर चुप रह गई तो चेतना   को बहुत आश्चर्य हुआ | उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वे कह रहे हो, तू क्या बता रही है रेखा के बारे में ऐसे किस्से तो हम बहुत बार सुन चुके हैं |
दीपक और उसकी माँ को रेखा की तरफ से मजबूर और बेबस समझ चेतना   ने खुद ही उससे निबटने की ठान पूछा, रेखा भी घर पर ही होगी ?
चेतना   के प्रशन का उत्तर न देकर माँ बेटे एक दूसरे को देखने लगे | इससे उसका शक पक्का हो गया कि उनका रेखा की दिनचर्या पर कोई काबू नहीं है | चेतना   ने उनके सामने ही रेखा की बखिया उधेड़ने का मन बना दीपक जी से उसका फोन मिलाने को कहा क्योंकि वह जानती थी कि उसका अपना फोन वह उठाएगी नहीं | अनमने मन से दीपक जी ने फोन मिलाकर चेतना   को थमा दिया | दूसरी और से हैलो की आवाज सुनकर चेतना   ने आदर सत्कार दिखाते हुए बोला, मैडम जी नमस्ते |
नमस्ते कौन ?
आपकी सौत |
तू यहाँ कैसे |
मुझे यहाँ आना ही पड़ा क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते |
इस बार रेखा की कांपती आवाज सुनाई दी, क्या मतलब ?
मतलब आप अच्छी तरह जानती हो और अब तुम्हारे घर वाले भी जान गए हैं |
रेखा धमकी देते हुए, मैं तुझे देख लूंगी |
मैं तुझे देखने ही आई थी परन्तु तेरी किस्मत अच्छी निकली जो तू मुझे नहीं मिली वरना जैसा मैंने तूझे चेतावनी दी थी आज तेरा तीया पांचा हो जाता | फिर भी अगर हसरत है तो आधा घंटा के अंदर यहाँ आजा मैं तेरे गढ़ में ही बैठी हूँ |
चेतना   ने रेखा के घर आधा घंटा इंतज़ार किया | इस बीच शांत स्वभाव दीपक ने चेतना   को आशवासन दिलाया कि वह अपनी तरफ से इस समस्या का समाधान करने का भरसक प्रयत्न करेगा | जब रेखा नहीं आई तो दीपक के वचनों से आश्वस्त चेतना   वापिस अपने घर आ गई |
थोड़े दिनों बाद नजरें झुकाए और दोनों हाथ जोड़े प्रवीण अपनी पत्नी के सामने खड़ा होकर बोला, चेतना    मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ | तुमने रेखा के घर जाकर सबके सामने जिस साहस से अपना पक्ष रखा तथा मुझे वासना भरे दलदल में डूबने से समय पर बचा लिया वह काबिले तारीफ़ है | मेरे कदम बहक गए थे | जिसके कारण तुम्हें बहुत कष्ट उठाने पड़े | मुझे माफ कर दो |
चेतना   के साहस, दिलेरी, द्रद्द निश्चय, और सूझबूझ के कारण  अब उसका परिवार बिखरने से बच गया था |    
एक दिन सुबह काम से फुर्सत पाकर और सारे रहस्य को बेनकाब करने के बाद चेतना अकेली बैठ कर सोचने लगी | ढांसा में प्रत्येक प्रवीण का आगमन बहुत सुहावना, लुभावना एवम स्फूर्तिदायक महसूस होता था | ब्रह्म मुहर्त में मुर्गे की बांग, कन्धों पर हल रखे आते जाते किसानों का आपस में राम-राम शब्द का उच्चारण, चलते बैलों के गले में बंधी घंटी की टन-टन और चिड़ियों का चहचहाना ऐसा माहौल बना देता था जैसे किसी मंदिर में आरती हो रही हो | ऐसे में जब मंद मंद बहती समीर शरीर में ताजगी भर देती थी तो सारा वातावरण संगीतमय सा लगने लगता था | इसके साथ माँ का झाडू पकड़ कर प्यार से गुनगुनाना ‘उठ नारी दे बुहारी तेरे घर आए कृष्ण मुरारी’ सभी को खुशी खुशी अपने काम पर लगा देता था | यहाँ सभी को प्रवीण का इंतज़ार रहता था |   
परन्तु चेतना को अपनी ससुराल में पता ही न चलता था कि दिन कब ढला, कब रात हुई और कब प्रवीण | क्योंकि यहाँ न बांग देने वाले मुर्गे थे, न किसानों तथा बैलों की आवाजाही तथा न ही चिड़ियों की चहचाहट | समय का पता करने के लिए घड़ी का सहारा था और सुबह उठाने के लिए उसकी कान फाड़ देने वाली टर्न-टर्न की आवाज | ऐसा लगता था जैसे यहाँ प्रवीण की किसी के लिए कोई अहमियत ही न थी | सभी को रात के बारह बजे के बाद बिस्तर पर जाने की आदत थी तो उठने में भी अपनी मर्जी के मालिक थे |
चेतना अपने बचपन में पाए हुए संस्कारों के अनुसार, सुबह सवेरे उठ जाती और काम में लग जाती थी | प्रकर्ति की प्रभात खत्म होती तो अपने प्रवीण के सोकर उठकर बाहर उदय होने का इंतज़ार करने बैठ जाती | उसने अपने को अपनी ससुराल के वातावरण में पूरी तरह ढाल लिया था | अपने ससुर को चाय का एक प्याला पकड़ा कर वह फुर्सत के क्षणों में  सोच में डूब गई  | खुशहाल गृहस्त जीवन के १५ वर्ष कैसे बीत गए उसे पता ही न चला | उस मनहूस दिन की याद आते ही, जब उसने पहली बार अपने पति पर संदेह किया था, उसका पूरा शरीर काँप उठा | फिर शायद यह सोचकर कि उसने बहुत कुछ सहने के बाद अपने पति को सदमार्ग पर लाकर अपनी मंजिल पा ली है उसका मायूस चेहरा खील उठा और उस पर संतुष्टी के भाव उभर आए | चेतना के ससुर का (मेरा) मन, दूर से चाय की चुस्की लेते हुए अपनी पुत्र वधु के चेहरे के बदलते भावों को पढने के बाद, मन ही मन श्रद्धा से भर गया और बुदबुदाया वास्तव में तुम माँ भगवती की तरह निडर और साहसी हो, नमन है तुम्हें भगवती रूपी चेतना’ |
       

No comments:

Post a Comment