Monday, August 24, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग- XVI)

 XVI

एक दिन लीलावती अपनी बहू संतोष दोनों बैठी थी कि घर के दरवाजे की घंटी बजी | संतोष द्वारा दरवाजा खोलने पर उसे एक अनजान व्यक्ति बाहर खड़ा दिखाई दिया | वह अभी कुछ पूछना ही चाहती थी कि उस अपरिचित आदमी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा, "नमस्ते भाभी जी |”

नमस्ते का जवाब तो संतोष ने दे दिया परंतु वह दुविधा में पड़ गई कि आगे क्या करे | उसके लिये अन्दर जाने को रास्ता दे या नहीं | इतने में उसकी सास ने पूछा, "कौन आया है ?”

"मैं हूँ माता जी", कहता हुआ आगंतुक अन्दर धंसता चला गया और अपने चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कान लिये, साथ में इतनी धीमी आवाज में कि केवल संतोष को ही सुनाई पड़े बोला, "भगवान का शुक्र है सुबह सुबह सुन्दर चीज के दर्शन हो गए अब तो पूरा दिन अच्छा गुजरेगा |” 

“नमस्ते माता जी |”

“जीते रहो | बैठो ! आज अचानक सुबह सुबह कैसे आना हुआ ?”

बैठते हुए, “माता जी आपको पता तो है कि मेरी कोई बहन या भाभी तो है नहीं फिर ऐसे में क्या किया जाए बस यही सलाह आपसे लेने आया हूँ |”

“बहू जरा एक गिलास पानी तो दे जाना अपने नन्देऊ के लिए |” 

अपनी सास के आवाज देने से  संतोष अब जाकर समझ पाई थी कि आगंतुक कौन है | वैसे नन्देऊ के पहली मुलाकात के अवसर पर उनके अन्दाज के साथ साथ उनके द्वारा कहे शब्द संतोष को अच्छे नहीं लगे थे अतः अभी तक उसका चेहरा तमतमाया हुआ था | संतोष इंतजार कर रही थी कि वह अजनबी कब यहाँ से जाए और वह उसकी शिकायत अपनी सास से करे |परंतु उसकी सास की आवाज ने तो पासा ही पलट दिया था | उसने अपने आपको सम्भाला तथा एक ट्रे में दो गिलास पानी रखकर चली गई | वरूण (नन्देऊ) ललचाई नजरों से अपनी सलेज संतोष का आना देख रहा था | 

जब संतोष ने पानी का गिलास वरूण के सामने किया तो उसने संतोष की आखों में आंखे डालते हुए धीरे से उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, "आप तो बड़ी चुस्त, तन्दुरूस्त और सुन्दर हो  |”  

माता जी अपने काम में व्यस्त थी अतः वे शायद सुन नहीं पाई होंगी | जैसा अमूमन होता है कि एक औरत अपनी प्रशंसा सुनकर कुछ न कुछ अपना आपा खो बैठती है शायद उसी प्रकार अब संतोष के चेहरे की लालिमा से पता चलता था कि उसने अपने नन्देऊ द्वारा उसके बारे में कहे पहली मुलाकात के शब्दों को तूल देना बन्द कर दिया था | इसका कारण  यह भी हो सकता था कि संतोष को पहले पता नहीं था कि वरूण उसका सगा नन्देऊ था अतः उसे अजनबी समझ कर गुस्सा खा गई थी | पानी पिला देने के बाद संतोष ने मेहमान नवाजी बखारते हुए पूछा, "जीजा जी चाय लोगे या कुछ ठंडा ?”    

संतोष के बदले तेवर देखकर वरूण के मन में लड्डू फूटने लगे |  वह मन ही मन बुदबुदाया, "भाभी जी आप चाय-ठंडे की क्या बात कर रही हो अगर आप अपने हाथ से जहर भी पिलादो तो वह भी मुझे मंजूर होगा |” परंतु यह सब वह खुले आम नहीं कह सकता था | अतः मन में हिलोरे लेती अपनी एक पल की जीत जैसी खुशी के कारण उसने संतोष को अपने और नजदीक लाने के लिये कहा, "भाभी जी आपको भी मेरे साथ चाय पीनी पडेगी तभी मैं चाय पिऊंगा  |” 

जरूर, "संतोष ने हामी भरते हुए कहा  |”

“कितनी अच्छी हैं आप |”

संतोष अपने चेहरे पर बनावटी रोष लाते हुए, "क्या बात है जब से आए हो तारीफ ही किये जा रहे हो  |” इसके बाद न तो संतोष ने उत्तर की प्रतिक्षा की तथा न ही वरूण ने ही कोई जवाब दिया | परंतु जब संतोष पानी के खाली गिलास ट्रे में रखकर वापिस रसोई की तरफ जा रही थी तो पीछे से उसे सुनाई दिया,"तारीफ लायक चीज की तारीफ तो करनी ही चाहिए |” 

सुनकर संतोष मन ही मन मुस्करा कर रह गई | उसने न तो पीछे मुड़कर देखने की जरूरत समझी तथा न ही कोई उत्तर देने की, वह सीधी रसोई में चाय बनाने के लिए चलती चली गई |             

थोड़ी देर में संतोष चाय बना लाई | वरूण पता नहीं वास्तव में पत्रिका पढ रहा था या केवल दिखावे के लिए ही उसके पन्ने पलट रहा था | प्यालों की खनखनाहट सुनकर उसने अपनी नजरें उठाई | संतोष ज्यों ही ट्रे रखने ले लिये थोड़ी मेज की और झुकी तो पतले आंचल से झाँकते उसके वक्ष के उभारों पर वरूण ने अपनी नजरें गड़ा दी | यह देखकर वरूण के बदन में एक हल्की सी झुरझुरी दौड़ गई | उसने छुपाने की लाख कोशिश की परंतु संतोष से यह छुपा न रह सका | संतोष ने वरुण के प्रति अपनी नजरों में कड़ाई का रुख लाते हुए तथा कुछ लजाते हुएअपना पल्लू कसकर अपने बदन के चारों ओर लपेट लिया | जैसे किसी की चोरी पकड़ी गई हो वरूण ने अपनी गर्दन तो नीची कर ली परंतु उसका मन तेजी से कहीं ओर दौड़ रहा था | "कमाल है कितनी सुगठित देह, मदमाती आंखे, भोला मासूम सा चेहरा, सुराहीदार गर्दन तथा गुलाबी होंठ | लगता है विधाता ने गढते समय फुर्सत में काम किया होगा तभी तो किसी बात की कसर नहीं छोड़ी | संतोष का यौवन उसे आमंत्रित करता सा नजर आया | संतोष चाय प्यालियों में डालकर एक तरफ बैठ गई | उसने वरूण को अपने ही ख्यालों में खोया तथा चुप्पी साधे देखकर, "जीजा जी चाय लिजिये  |”

वरुण अपनी सोच से बाहर आते हुए, “अं ... आं ...ले रहा हूँ |” 

“कहाँ खो गए थे, आप ?”

संतोष से नजरें मिलते ही वरूण के माथे पर पसीने की बून्दे छलछला आई | 

“क्या बात है जीजाजी आप इतने नर्वस क्यों दिख रहे हो ?” 

“जी ............नहीं.........नहीं.....ऐसा कुछ नहीं है |”        

इसके बाद वरुण गटागट, एक ही सांस में, चाय का प्याला खत्म करके खड़ा हो गया तथा चारों और देखकर बोला, "माता जी कहाँ चली गई ?”

“अभी आती हैं पडौस की एक औरत बुलाकर ले गई है | उसे माता जी से कुछ सलाह मशवरा करना है |”

संतोष की सास ने अन्दर प्रवेश करते हुए तथा वरूण को खड़ा देखकर, "आप खड़े  कैसे हो गए ? जल्दी में हो क्या ?”

“हाँ माता जी | वैसे गुलाब भाई साहब कहाँ है वह तो दिखाई ही नहीं दिये |” 

“वह तो अपनी डयूटी पर चला गया |”

“ड्यूटी पर चला गया ! इतनी जल्दी ?”

“हाँ उसकी छुट्टियाँ इतनी ही थी |”

“यहीं आकर फौजियों की जिन्दगी पर तरस आता है | देखो न दुल्हन के हाथ की मेहन्दी का रंग अभी फीका भी नहीं पड़ा कि चल दिये अकेला छोड़कर |” 

“इसमें भला उनका क्या दोष है ?”

“दोष है भाभी जी क्योंकि उन्होने ऐसी नौकरी की जिसके सामने उसके  अपने प्यार की भी कोई कीमत नहीं | उसका तो बस एक ही ध्येय होता है कि कुर्बानी |”

“जीजा जी यह कुर्बानी नौकरी के लिए नहीं बल्कि अपने देश के लिए होती है | अपनी मातृ भूमी के लिए होती है |” 

“भाभी जी यह उपदेश सिर्फ एक दिखावा मात्र है | गुलाब का साथ न पाकर क्या आपका मन आपको कचोटता न होगा ? आपको धिक्कारता न होगा ? आप खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी | मजबूरी में आप गुलाब की याद को भुलाने की कोशिश करती होंगी | परंतु जब आप अकेले में बैठती होंगी तो सन्नाटे में चारों और आपको गुलाब की मूरत ही नजर आती होगी |” 

वरूण ने संतोष की दुखती रग को छू लिया था |  संतोष वरूण की इस बारे में और अधिक बातें  नहीं सुन सकती थी | वह अपने आप को कच्चा पड़ते नहीं दिखाना चाहती थी | अतः वह आखों में पानी भरे वहाँ से  उठकर अन्दर चली गई | कमरे में जाकर  निढाल हो वह बिस्तर पर गिर पड़ी और सिसकियाँ भरने लगी | 

बाहर वरूण अपने मन में अपनी काम वासना एवं हवस को पूरा करने के लिए  एक भयानक प्लान बनाने में विचार मग्न था | जब वह अपनी प्लान, जो संतोष को बर्बाद कर सकती थी, गढ चुका तो अपने मन में खुशी की लहरें लिए अपनी सास से बड़ी विनम्रता से बोला, "माता जी गुलाब अब कितने दिनों बाद आएगा "?

“कुछ बता कर नहीं गया | फिर भी शायद एक महीना तो लग ही जाएगा |” 

माता जी के कथन से वरूण का दिल बाग बाग हो गया | वह खुशी के मारे चीखना ही चाहता था कि समय रहते  उसने अपनी भूल सुधार ली | वह बडे धीरे से जैसे कहते हुए डर रहा हो अपनी सास से बोला, "माता जी अगर आपको कोई एतराज न हो तथा आप बुरा न मानो तो एक बात कहूँ ?”

“हाँ जी हाँ अपने दिल की  कहो |”

“मैं कहना चाहता था कि गुलाब तो अभी यहाँ है नहीं क्यों न आप संतोष को ही थोड़े दिनों के लिये अपनी लड़की की देखभाल को भेज दो |” 

वरूण की मनोदशा से ना वाकिफ तथा कुछ सोचकर सास ने जवाब दिया, "मैं इस बारे में घर वालों से पूछ्कर ही कुछ बता सकती हूँ |” 

वरूण उठकर हाथ जोडते हुए, "अच्छा ठीक है माता जी मैं एक दो दिनों बाद आकर फिर पता कर लूंगा  |”

“नहीं नहीं आप क्यों कष्ट करते हो अगर सलाह बनी तो मैं अपनी छोटी लड़की पूनम के साथ संतोष को खुद ही भेज दूंगी |” 

वरूण चलते हुए, "अच्छा माता जी जैसी आपकी इच्छा |”

अपने घर जाने से पहले वरूण ने संतोष के मन में अपनी शराफत का सिक्का बैठाने के लिहाज से उसके कमरे में जाना उचित समझा | वह संतोष का हमदर्द बनना चाहता था जिससे  आगे चलकर उसे अपने इरादे पूरे करने में अधिक कठनाई न उठानी पड़े |  

कमरे में संतोष औंधे मुहँ लेटी हुई धीरे धीरे सुबक रही थी | किसी के पाँव की आहट पाकर वह पल्टी तथा झटपट अपने आंसू पोंछने लगी | 

वरूण बड़ी मासुमियत से, “भाभी जी मुझे माफ कर दो | मैनें अनजाने में आपके कोमल हृदय को बहुत बड़ी ठेस पहुंचाई है  |” 

संतोष अपने चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए, “नहीं जीजा जी ऐसी कोई बात नहीं है | मुझे तो घर की याद आ गई थी |” 

“आपकी हालत देखकर मैं तो डर गया थ कि शायद मैने आपको नाराज कर दिया है |”

“इसमें नाराज होने की कोई बात है ही नहीं, जीजा जी |” 

“ठीक है अगर ऐसी ही बात है तो मैं जब जानू जब आप "लाईक ए गुड़ गर्ल "(एक अच्छी लड़की की तरह) मुस्करा कर मुझे विदा करेंगी |” 

“क्यों आप जा रहे हो क्या ? इतनी जल्दी क्या है खाना खाकर जाना |”

“नहीं भाभी जी आज नहीं | वैसे तो आपके हाथ का खाना खाने की बहुत इच्छा है परंतु आज मजबूर हूँ | माफ करना फिर कभी(अन्दर ही अन्दर अपने मन में तुम तो खाना खाने की कह रही हो मैं तो तुम्हे सारा का सारा ही खाने की सोच रहा हूँ, जरा मौका तो मिलने दो) | फिर वरूण हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए, "लाईक ए गुड़ गर्ल (एक अच्छी लड़की की तरह)|” 

इस बार संतोष मुस्कराए बिना न रह सकी |

वरूण बाहर जाते हुए तथा संतोष की मुस्कराहट के बारे में अपना अन्दाजा लगाकर यह सोचते हुए कि उसने अपनी सफलता की पहली सीढी पर कदम रख दिया है कहा, ”यैस दैट इज इट” (हाँ बिलकुल इसी तरह से)|


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