Friday, August 21, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग -XIII)

 XIII

 20 नवम्बर 1968 का दिन गुलाब की संतोष के साथ शादी का दिन तय कर दिया गया | वर- वधु के घरों में शादी की तैयारियाँ जोर शोर से शुरू हो गई | बारात देहली से ग्वालियर जानी थी परंतु लाला नारायण जी के स्वास्थय को देखते हुए शादी देहली से ही करने का निर्णय हुआ | अतः दरियागंज के उसी मन्दिर में पाणिग्रहण होना निश्चित हुआ जिसमें गुलाब के बडॆ भाई शिव का हुआ था | 

इन दिनों गुलाब भारतीय वायु सेना में नौकरी कर रहा था तथा माहाराष्ट्र राज्य के नासीक जिले में देवलाली एयर फोर्स स्टेशन पर कार्यरत था | वहाँ का स्टेशन कमांडर एयर कोमोडोर गुप्ता जो एक बंगाली मूल का था, जवान की 25 साल की उम्र होने से पहले शादी के बहुत खिलाफ था | अतः गुलाब ने उसके रहते अपनी शादी कैसे की इसका विस्तार से विवरण इनकी लिखी कहानी "शादी फौजी की" में दिया गया है |

गुलाब, घोड़ी पर सवार, गाजे बाजे के साथ, अपनी  बारात लेकर निश्चित दिन मन्दिर के दरवाजे पर पहुंच गया | हर दुल्हे की मनोइच्छा अपनी होने वाली पत्नि के दर्शन की लालसा के विपरीत गुलाब के मन में दो को देखने की लालसा जागृत थी | वह अपने ख्यालों में इतना खोया हुआ था कि बारात के आगे बजते चल रहे अनेक प्रकार के बाजे तथा उसकी घोड़ी के आगे नाचते गाते उसके सगे सम्बंधियों एवं दोस्तों आदि का झुंड़ वह महसूस भी नहीं कर पा रहा था | उसकी प्यासी निगाहें तो बस एक अपनी प्रेयसी माला तथा दूसरी अपनी होने वाली पत्नि संतोष को ढूंढती नजर आ रही थी |

मन्दिर के दरवाजे पर औरतों तथा बच्चों की भारी भीड़ जमा थी | जो आगे खडे थे वे अपने को आगे ही रखने की जुगत कर रहे थे परंतु पीछे वाले भी आगे स्थान पाने की कोशिश में जुटे थे | घोड़ी पर बैठे बैठे ही गुलाब ने देखा कि उसकी माला पीछे से आगे आने की भरपूर कोशिश कर रही है परंतु अपने को असमर्थ पा रही है | गुलाब समय की नाजुकता को महसूस करते हुए माला की किसी प्रकार की कोई सहायता करने में अपने आप को भी मजबूर पा रहा था | एक बार दोनों की नजरें आपस में टकराई तो माला ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये | उसके चेहरे के भावों से प्रतीत हो रहा था जैसे कह रही हो, " मुझे माफ कर देना मैं सामाजिक रिति रिवाजों के खिलाफ जाकर आपका इंतजार न कर सकी |”

 इतने में औरतों का एक धक्का सा लगता है जिससे माला अपने को सम्भाल न सकी तथा गुलाब की आंखो से औझल हो गई | 

गुलाब को घोड़ी से उतार कर मन्दिर के दरवाजे पर खड़ा कर दिया गया | अन्दर से औरतों के मंगलाचार के गीत गाने की मधुर आवाज का गुंजन प्रारम्भ हो गया |  संतोष अपने कर कमलों में वरमाला लिये बालहंसिनी की तरह चाल चलती हुई सामने प्रकट हुई | गुलाब ने देखा कि उसके सभी आभूषण अपनी अपनी जगहों पर बहुत फब रहे थे | शायद उन्हें उसकी सुन्दर एवम चतुर सखियों ने बड़ी मेहनत करके उसके अंग अंग में भली भांति सजाकर पहनाया होगा | तभी तो आज की संतोष और उस दिन की संतोष, जब गुलाब उसे उसके घर देखने गया था, की सुन्दरता में जमीन आसमान का फर्क दिखाई पड़ रहा था | संतोष ने जैसे ही गुलाब के गले में वरमाला डाली कि नंगाडो, ताशे, ढोल तथा शहनाई इत्यादि का बजाना अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया | फिर गुलाब द्वारा संतोष को वरमाला पहनाने के बाद सभी मन्दिर के अन्दर दाखिल हो गए | 

रात के खाने के बाद फेरों का कार्यक्रम शुरू हुआ | दुल्हा दुल्हन को वेदी पर बैठा दिया गया | पंडित जी ने अपने मंत्रोचारण प्रारम्भ कर दिये | वे बीच बीच में दुल्हा दुल्हन से फूल ,पान, वस्त्र, मिठाई इत्यादि भगवान को अर्पित करने की हिदायत देते जाते थे | इस दौरान गुलाब की चोर निगाहें माला को खोजती रही परंतु उसे सफलता नहीं मिली | इसी खोजबीन में लगे रहने के कारण वह पंडित जी के कहे का अनुशरण ठीक प्रकार से नहीं कर पा रहा था | दुल्हन संतोष भी इस बात को समझ गई थी | उसे पता नहीं क्या सूझी कि उसने अपनी साड़ी से अपने पैर के अंगूठे को ठीक तरह से ढक कर उससे गुलाब के पैर को झकझोर दिया | इस अप्रत्यासित घटना से गुलाब की तंद्रा टूटी और उसने सम्भल कर बैठते हुए एकदम संतोष की तरफ निहारा | उसने सोचा कि उसकी दुल्हन शायद बहुत चालू है तभी तो इसे मेरे साथ छेडखानी करने की इतनी जल्दी है कि  फेरों की वेदी पर ही शुरू हो गई है | गुलाब ने घूंघट के अन्दर से झांकती शरारती आंखों को परखा | चेहरे पर एक कटु मुस्कान झलक रही थी |  गुलाब के अपने दिल में चोर होने की वजह से उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे संतोष की निगाहें कह रही हों, "मैं सब जानती हूँ कि थोड़ी   थोड़ी देर बाद आप कहाँ खो जाते हो |”

खैर इसके बाद गुलाब ने अपने आपको सम्भाले रखा तथा किसी को कुछ भी कहने का कोई मौका नहीं दिया |  

सात फेरों के सम्पूर्ण होने के बाद गुलाब आराम कर रहा था कि एक जाना पहचाना सा चेहरा उसके सामने आकर खड़ा हो गया | अरक लगा सफेद चमकता हुआ कुर्ता पायजामा पहने तथा सिर पर सफेद टोपी उसे बहुत फब रही थी | उसने आते ही अपने चेहरे पर मन्द मन्द मुस्कान लाते हुए सवाल किया, "मुझे पहचाना |"

गुलाब अपने दिमाग पर जोर देकर सोचने लगा कि आखिर वह है तो जाना पहचाना सा परंतु उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह असल में कौन है | गुलाब की इस दुविधा का समाधान उसकी भाभी शालू ने किया जब उन्होने बताया कि वह जाना पहचाना आदमी उसका बडा साढू है तथा वे पहली बार डिबाई में मिले थे | | इसके बाद गुलाब को वह खीर में नमक वाली बात भी याद आ गई इसलिए अब वे दोनों  ठहाका लगाए बिना न रह सके | 

गुलाब ने मजाक के तौर पर कहा, “आप तो बडे छुपे रूस्तम निकले |”

“वो कैसे |”

“चुपके चुपके अपनी खीर का बदला ले लिया |”

“वो कैसे |”

“बहुत भोले बन रहे हो |”

“मैं समझा नहीं | मैने क्या किया है ?”

“लो बदला लेने के लिए बिना सुराग दिये हथकड़ी तो पहनवा दी और अब कह रहे हैं कि मैनें क्या किया है ?”

हँसते हुए, " अच्छा अच्छा अब समझा कि आपके कहने का आशय क्या है |” 

“शुक्र है समझ तो गए परंतु अब इससे ज्यादा सजा मै भुगत नहीं पाऊंगा |”,गुलाब उठकर खुशी खुशी अपने साढू के गले लग जाता है |                


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