Thursday, August 27, 2020

उपन्यास ''आत्म तृप्ति' (भाग - XVIII)

 XVIII

अगले दिन की सुबह सुबह दरवाजे की घंटी बजने पर संतोष ने जब दरवाजा खोला तो वरूण को सामने खडा पाकर प्रसन्नता से खिल उठती है | उसके मुहँ से अचानक निकला, "अरे आप |” 

“क्यों क्या मुझे आना नहीं चाहिये था ?”

“पहले आप अन्दर तो आईये | आप तो अपने ही हैं | आपको क्या रोक टोक आप तो कभी भी आ सकते हैं |”

“धन्यवाद जो आपने मुझे अपना समझा |” 

संतोष, वरूण की बात पर मुस्कराते हुए पूछती है, "जीजी कैसी हैं ?”

“जच्चा बच्चा दोनों कुशल से हैं |”

“तो क्या ?”

“हाँ लड़का हुआ है |” 

संतोष खुश होकर तथा उतावलेपन में, "जीजी कहाँ हैं, अस्पताल में या घर पर ?”   

“घर पर ही है |”

अन्दर से सास की आवाज सुनाई दी, "बहू कौन आया है ?”

संतोष ने यह कहते हुए अन्दर प्रवेश किया, “माता जी देहली- सदर वाले, जीजा जी आए हैं |” 

हालाँकि संतोष को पता चल गया था कि उसकी नन्द कविता ने एक लडके को जन्म दिया है परंतु उसने यह उचित नहीं समझा कि अपनी सास को यह खुश खबरी उसके मुहँ से पता चले अतः वह इस बारे में मौन रही |

संतोष के पीछे पीछे वरूण भी अपनी सास के कमरे में आकर गुलाब छूने का इशारा करते हुए, "नमस्ते माता जी |”

सास बहुत ही प्रसन्न मुद्रा में अशिर्वाद देते हुए, "जीते रहो, सब कुशल तो हैं ?”

“आप सबकी दया है जी |”

सास बच्चा होने से अनभिज्ञ परंतु जानने को इच्छुक, "क्या खुश खबरी है ?”

“लड़का हुआ है |”

“कब ?”

“कल दोपहर |”

“क्या किसी को बुला लिया है देखभाल करने को ?”

“मेरा इस दुनिया में आप लोगों के अलावा है ही कौन जिसे बुला लेता |”

अपने दामाद की बात सुनकर संतोष की सास कुछ सोच में पड गई | फिर अचानक उन्होने संतोष की तरफ ऐसी निगाहों से देखा जैसे पूछ रही हों, "क्या तुम जा सकती हो?”

अपनी सास की नजरों का आशय समझकर संतोष एकदम ऊपर से नीचे तक काँप उठी तथा इससे पहले कि वे कुछ कहती संतोष ने वहाँ से जाना उचित समझ बाहर जाने को  अपना रूख किया ही था कि उसकी सास ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा, "बहू एक हफ्ते के लिये तुम चली जाओ |”

संतोष अपनी सास कि बात सुनकर हक्की बक्की रह गई, “मैं.....मैं..| माता जी मुझे किसी बात का कोई भी ज्ञान नहीं है | मैं भला वहाँ जाकर क्या करूंगी |”     

 कमरे में निःस्तब्धता छा जाती है | संतोष महसूस करती है कि उसकी सास थोड़ीउदास सी हो गई हैं | वरूण भी अपना सिर नीचा किये कुछ सोच रहे हैं | इस पर संतोष ने मन ही मन अपनी ससुराल के माहौल का जायजा लेते हुए अन्दाजा लगाया कि इस समय वही एक ऐसी है जो फालतू कही जा सकती है | इसलिए  जाना तो उसे पड़ेगा ही अतः ज्यादा हा-हुज्जत कराए बिना ही उसने मौन तोड़ते हुए तथा बनावटी हंसी चेहरे पर लाते हुए वरूण को सम्बोधित करते हुए कहा, "क्या हमसे नाराज हो, जीजा जी ?” 

संतोष के मौन तोड़ने पर वरूण को अपने मन की मुराद पूरी होती नजर आने लगी | वह अन्दर ही अन्दर बाग बाग हो रहा था | अपनी अन्दरूनी खुशी को जाहिर न करते हुए वह बड़ी सोच समझ कर बोला जिससे संतोष को अपनी प्रति आसक्त कर सके |

“आप से भला कौन नाराज हो सकता है |”

“ऐसी क्या खास बात है हम में ?”

“भाभी जी आपने भी एक शायर की यह कहावत सुनी होगी कि, "जो बात तुझ में है किसी और में नहीं |”

“क्यों उडा रहे हो | कोई और नहीं मिली क्या ?”

“मिली लेकिन आप से अच्छी नहीं |(सिसकारी भरते तथा थोडा दांत पीसते हुए) आप तो बस.......|”

संतोष बीच में ही टोकते हुए तथा चेहरे पर थोड़ी नाराजगी जाहीर करते हुए, "देखो जीजा जी ये सब बातें मुझे पसन्द नहीं हैं |”

वरूण अपने कानों पर हाथ लगाते हुए, "अच्छा भाभी जी माफ करना अगर मुझ से आपकी शान में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो |”

संतोष की सास अन्दर प्रवेश करते हुए, "जमाई जी ऐसी क्या बात हो गई जो माफी मांगी जा रही है ?”

“माता जी ऐसी कोई बात नहीं है बस यूँ ही |”

अचानक सास ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा, "बहू जा तैयार हो जा और इनके साथ ही चली जा | एक हफ्ते की करके आ जाना |”

इस बार सास की बात सुनकर संतोष पर कोई असर नहीं हुआ | वरूण के साथ जाने की सुनकर वह विचलित नहीं हुई क्योंकि वह पहले से जान चुकी थी कि उसका मना करना बेकार रहेगा | उसे हर हाल में जाना तो पड़ेगा ही | अतः वह चुपचाप तैयार हुई तथा वरूण के साथ चली गई | 

 देहली के भीड़ भरे इलाके की गली में  पुराना परंतु कायदे से पुता तथा रंग रोगन किया  खुले आंगन वाला एक मकान था | यह चार किराएदारों के लिये एक सम्मिलित आंगन था | वरूण के पास चार कमरों का सैट था | एक कमरे में कविता(वरूण की पत्नि) अपने नवजात शिशु के साथ लेटी थी | बाकी कमरों में से एक कमरा ड्राईंग रूम की तरह इस्तेमाल होता था ,दूसरा सोने के लिये और तीसरा रसोई के लिये इस्तेमाल किया जाता था |

शाम का अंधेरा घिर आया था | वातावरण में हल्की ठंड समा गई थी | संतोष के हाथ का बना खाना खाते हुए वरूण, "बहुत दिनों बाद इतना स्वादिष्ट एवं मन पसन्द खाना खाने को मिला है |”

“रहने दो, रहने दो | मै भला खाना बनाना क्या जानूं |” 

“भाभी जी मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ | खाना बहुत ही स्वादिष्ट बना है | उपर से यह कि आपने वही सारी वस्तुएँ पकाई हैं जो मुझे सबसे ज्यादा पसन्द हैं | वैसे भाभी जी एक बात बताओ कि आपको मेरी पसन्द कहाँ से पता चली ?”

“जिसके बारे में पता न हो और सोचा भी न जाए परंतु वह हो जाए तथा अपने साथ साथ दूसरे का मन मोह ले तो उसे करने वाले का सौभाग्य ही कहा जाएगा | अतः यह मेरा सौभाग्य है कि आपको मेरा बनाया खाना इतना पसन्द आया |”

वरूण डकार लेते हुए और पेट पर हाथ फेरते हुए खाने की मेज से उठ कर बाहर चला गया | बाहर चहल कदमी करने के बाद जब वह वापिस आया तो संतोष भी हर काम से फारिग हो चुकी थी | वह आकर सोफे पर बैठ गया | रात के दस बजे होंगे | उसने अपनी कमर तथा गर्दन पूरी तरह सोफे पर लगा दी तथा आंखे मून्दकर आराम करने की मुद्रा में बैठ गया | थोड़ी देर तक संतोष ने जब यह देखा कि वरूण बिलकुल भी हिलाडुला नहीं है तो उसने निकट आकर यह जानने के लिये कि वह सचमुच सो तो नहीं गए हैं पूछा, " सो गए हैं क्या ?”  

वरुण ने उसी मुद्रा में जवाब दिया, “नहीं, सारे दिन की भागदौड से अब फुर्सत मिली है | खाना भी आज लाजवाब बना था जिसको खाकर तृप्ति सी हो गई है | अतः अपने को बहुत हल्का सा महसूस कर रहा हूँ | साथ में आपके बारे में भी सोच रहा हूँ |”

संतोष ने आश्चर्य से पूछा, “मेरे बारे में ! हम भी तो सुने कि आप मेरे बारे में क्या सोच रहे थे ?”

“यही कि आप की नन्द तो जच्चा है तथा अपने बच्चे के साथ मदहोश सो रही है |” 

“तो क्या हुआ ?”

“यही कि हम तुम दोनों रात में अकेले बैठे बात कर रहे हैं |” 

वरूण की बात सुनकर संतोष का दिल जोर जोर से धडकने लगा | फिर भी अपनी आवाज में निडरता का पुट लाते हुए बोली, "तो क्या हुआ ?” 

वरूण ने अपनी बातों का मकसद बदलते हुए, "यही कि अगर आपके पति को बाद में पता चला कि आप मेरे पास रहकर गई हैं तो वे कहीं इसका बुरा न माने तथा एतराज जताने लगे |”

“अगर यही सोचना था तो मुझे लाने से पहले यह सब सोचना था | अब पछताए क्या होत है जब चिडिया चुग गई खेत | वैसे आप मेरे पति के स्वभाव एवं गुणों को शायद अभी अच्छी तरह जानते नहीं | वे धैर्यवान तथा अपनों पर पक्का विशवास रखने वाले इंसान हैं | ऐसे सीधे, सच्चे और शांत स्वभाव वाले व्यक्ति को अपने पति-परमेशवर के रूप में पाकर मुझे अपने आप पर गर्व होता है |” 

“बहुत विशवास है गुलाब पर ? आपको क्या मालूम कि बाहर रहकर वे क्या क्या करते होंगे ?”

“उन्हें मैं उनसे ज्यादा जानती हूँ |” 

“उनकी जिन्दगी में आए अभी आपको दिन ही कितने हुए हैं जो इतना विशवास से बोल रही हो |” 

“मैं उन्हें बचपन से जानती हूँ |”

“तो क्या कोई लव स्टोरी पूरी.....?”

“नहीं ऐसी भी कोई बात नहीं है |”

अपना काम तथा दिल की बात बनते न देख वरूण ने बातों का विषय बदलते हुए, "अरे हाँ, भाभी जी एक बात कहना तो मैं भूल ही गया |” 

“क्या ?”

“उस थैले में कल सुबह के लिये कुछ सब्जियाँ हैं |”

संतोष सब्जियाँ निकाल कर फ्रिज में रखने लगती है तो कटे बैंगन देखकर, "ये बैंगन कटवा कर क्यों लाए हो ?”

वरूण एक कड़वी हंसी हंसते हुए जैसे उसे अपने मन की मुराद पूरी होती नजर आने लगी हो, "भाभी जी क्या है कि आजकल बाजार में बैंगन कट कर ही बिक रहे हैं |”

वरूण की इच्छा एवम उसके दिल के कपट से बे-खबर संतोष ने बड़ी सादगी तथा मासूमियत से पूछा, "कट कर बिक रहे हैं ! भला क्यों ?”

“भाभी जी सुना है अस्पताल में एक ऐसा केस आया है जिसमें बैंगन के कारण एक औरत को बहुत तंगी उठानी पड़ी |”

वरूण की भावनाओं तथा मनोइच्छा से अनजान संतोष ने उसकी बातों का कोई मतलब न समझ एक बार फिर पूछा, "क्यों भला ?”

वरूण ने क्नखियों से देखते हुए तथा यह सोचकर कि संतोष भी उसकी इच्छाओं की भागीदार बनना चाहती है फट से बोला, "भाभी जी सुना है बहुत दिनों से उस औरत का आदमी घर पर नहीं आया था | मौसम और वातावरण कुछ ऐसा बना कि वह औरत अपने पर काबू न रख पाई..... और.......|”, कहते कहते वरूण ने कमरे की बत्ती बुझा दी | जवान सलेज के साथ अंधेरा एवं एकांत पाकर उसके अन्दर की कामनाएँ जो पहले से ही सिर उठा रही थी और बलवती होने लगी | उसका पौरूष जाग उठा |

 अचानक संतोष चौंक उठी | उसे लगा जैसे उसकी कमर पर कुछ रेंग रहा है | उसने महसूस किया कि वे किसी व्यक्ती की उंगलियाँ थी | परंतु बत्ती बुझने से पहले वरूण और उसके अलावा कमरे में कोई और तो था नहीं तो क्या वरूण ....| एक अनजान अनहोनी घटना को घटित होने से रोकने के लिये संतोष ने बड़े  आत्मविशवास एवं निडरता से कहा, "यह क्या अनर्थ करना चाह्ते हैं आप ?”

"कुछ नहीं....आज की रात हम दोनों प्यासे हैं तथा अकेले हैं", कहते हुए वरूण ने संतोष को अपनी ओर खींचना चाहा |      

संतोष एक झटके से वरूण की बाहों से बाहर होकर एक कौने में खड़ी हो गई | उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा | किसी अनिष्ट की आशंका से वह अन्दर ही अन्दर काँप गई तथा उसके माथे पर पसीने की बून्दे झलकने लगी | इस स्थिति से उभरने तथा वरूण का दिमाग ठिकाने लगाने के लिये संतोष ने मेज पर रखा टेबल लैम्प उठाते हुए दृडता से कहा, "खबरदार, मुझे आप से ऐसी आशा न थी | मेरे मन में आपके लिए बहुत सम्मान था | आपने मेरे पति को मोहरा बना कर शायद अपने बारे में ठीक कहा था कि पुरूषों का कोई भरोसा नहीं", कहते कहते संतोष ने दूसरे हाथ से कमरे की बत्ती जला दी |

जैसे वरूण ने संतोष की आशाओं एवं उम्मीदों को तोड़ा था उसी प्रकार संतोष ने वरूण की आशाओं एवं उम्मीदों पर पानी फेर दिया था | परंतु दोनों की आशाओं एवं उम्मीदों में जमीन आसमान का फर्क था | जहाँ संतोष की आशाएँ तथा उम्मीद वरूण के प्रति विशवास तथा वफादारी लिये थी वहीं वरूण की आशाएँ तथा उम्मीद संतोष के प्रति वासना से लिप्त थी | इसीलिए तो जब संतोष ने कमरे की बत्ती जलाई तो उसकी आंखे एक शेरनी की आंखों की तरह लाल जल रही थी जब की वरूण ने उसके सामने एक भेड़िये की तरह अपना सिर झुका लिया था | 

वरूण के चेहरे का रंग उड़ गया था | वह सकपका रहा था फिर भी संतोष को पाने की लालसा उसके मन से गई नहीं थी अतः बोला, "मैं क्या करूँ भाभी जी, जब से तुम्हें देखा है मेरा मन मेरे बस में नहीं है | मेरी रातों की नींद उड़ गई है | सच भाभी जी मैं तुम्हें चाहने लगा हूँ | तुम्हें प्यार करने लगा हूँ |” 

वरूण की ऐसी अनर्गल बातें सुन कर संतोष के चेहरे पर गहरा विषाद घिर आया | अन्दर से वह रो रही थी परंतु बाहर से अपनी दृडता कायम रखते हुए बोली, "आप भी आखिर वही बगुला भगत  निकले | आप से अपने रिस्ते-नाते की वजह से दो घड़ी हंस बोल क्या ली कि आप मुझे ऐसी वैसी औरतों का दर्जा देने की कोशिश करने लगे | क्या इन सब बातों का अंजाम जानते हो आप ?”

“भाभी जी आप मेरा मतलब नहीं समझी |” 

“पहले तो बिलकुल नहीं समझती थी परंतु अब अच्छी तरह समझ चुकी हूँ | किसी गैर महिला की कमर में हाथ डालकर उसे अपनी और खिंचने का एक मर्द का क्या उद्देश्य हो सकता है | जीजा जी हमारा कुटुम्ब परिवार एक विश्वास के उपर खड़ा रहता है | इसी के आधार पर मैं आपके यहाँ हूँ | मुझे अपने पति पर तथा उन्हें मेरे उपर पूरा एतबार है | यदि मैं उनके साथ विशवास घात करूंगी तो हमारी गृहस्थि एक रेत का घरोन्दा बन कर रह जाएगी | अभी तो हमारे गृहस्थ जीवन की शुरूआत है | इसलिये आप से अनुरोध है कि इसे बरबाद करने में सहायक मत बनो |” 

फिर कड़े श्ब्दों में वरूण को चेतावनी देते हुए, "एक बात और ध्यान से सुन लो मैं गुलाब  से कभी भी विशवासघात नही करूंगी चाहे मुझे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े  |”   

वरूण ने चकित भाव से संतोष की तरफ देखा | उसने सोचा भी न था कि संतोष जैसी कोमल, हसीना, हंसमुख अबला नारी इतनी दृडता दिखा सकती है | उसके बुने जाल को एक ही झटके में काटने की वह क्षमता रखती है | उसके समझोते एवं याचना को ठोकर मार कर उसे हरा सकती है | वरूण को ऐसे घटनाक्रम की उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी | वह हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाए आगे बढा और संतोष के पास जाकर उसके पैरों में गिरकर गिड़गिडाने लगा, "भाभी जी मेरी बुद्धी खराब हो गई थी |  जो मैने अपने साथ आपको भी गर्त के गड्ढे में धकेलने में कोई कसर न छोड़ी थी | वास्तव में ही आप पूजनीय हो | आपने मेरी आंखे खोल दी हैं | भाभी जी अब मैं अपने अन्दर के अपराधी को मारना चाहता हूँ जिसने एक निश्छल नारी को कलंकित करने की कोशिश की | कृप्या मुझे माफ कर दो |”


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