Wednesday, October 14, 2020

लघु कहानी (सहारा)

   सहारा 

टर्न - टर्न -टर्न - टर्न, सुरेंद्र सिहँ के फोन की घंटी टनटनाई |

उसने अपने नौकर बहादुर सिहँ से कहा ," देख बहादुर किसका फोन है?”  

फोन पर दूसरे छोर से सुरेंद्र का लड़का मंजीत बोल रहा था |

बहादुर के बताते ही सुरेंद्र के मुख पर रौनक आ गई | वह झटपट उठा तथा फोन पकड़ लिया | 

“पापा जी , सत-श्री-काल , मैं मनजीत .... |”

“हाँ पुत्र सत-श्री-काल | बोल पुत्र बोल,” सुरेंद्र का मन खुशी से उछल कर बाहर आने को हो रहा था | 

“पापा जी आपकी बहुत याद आ रही है |” 

“पुत्र मेरा भी यही हाल है | तीन साल हो गए हैं तेरा मुँह देखे | और हाँ यह तो बता कि मेरा पोता कैसा है ?”

“पापा जी आपको यही तो बताना चाहता हूँ कि वह ढाई महीने का हो गया है | आपको बहुत याद करता है |” 

सुरेंद्र सिहँ जानते हुए भी कि ढाई महीने का वह बच्चा उसे कैसे याद कर सकता है जिसके ऊपर अभी तक उसकी परछाई तक भी न पड़ी हो | फिर भी बेटे का यह कहना ही सुरेंद्र के दिल की गहराईयों में उतर गया | उसने गदगद होकर कहा,"पुत्र मेरे पोते से कह कि अब उसके याद करने की घडियाँ खत्म होने वाली हैं | उसका दादा जल्दी ही उसके पास अमरीका आने वाला है |” 

मनजीत तीन साल पहले शादी करके अमरीका जा बसा था | वह वहाँ एक अच्छी कम्पनी में इंजिनीयर लगा हुआ था | उसकी पत्नि भी नौकरी कर रही थी | अतः दोनों खुशहाल जिन्दगी जी रहे थे | 

सुरेंद्र यहाँ भारत में भारतीय स्टेट बैंक में एक आफिसर था | उसकी पत्नि का स्वर्गवास हो चुका था | मनजीत उसकी इकलौती संतान थी | अकेले होते हुए भी सुरेंद्र ने मनजीत की देखरेख में कोई कमी न रहने दी | उसने अपने लड़के के लिए अच्छा खाना, उसकी पसन्द के अच्छे कपडे, सब सुविधाओं से लैस मकान, तथा उच्च शिक्षा दिलाने के लिए मनजीत की इच्छानुसार खुलकर खर्च किया था | हालाँकि सुरेंद्र चाहता था कि मनजीत उसके पास ही रहे परंतु शायद वर्तमान युग की दौड़ में वह पिछड़ना नहीं चाहता था | सुरेंद्र के समझाने की लाख कोशिशों के बावजूद कि यहाँ भी उसे पैसों की कोई कमी नहीं रहेगी मनजीत का विदेश जाने का भूत न उतरा | अतः अपने और जवान साथियों की तरह जिद करके वह अपना भविष्य सुधारने के लिए विदेश चला गया | शुरू शुरू में बिलकुल अकेला सुरेंद्र बहुत उदास रहता परंतु समय ने उसके मन के घाव भर दिए तथा उसे अकेला रहने की आदत पड़ गई | अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी के कामों में  हाथ बटाने के लिए उसने एक छोटा सा लड़का बहादुर अपने पास रख लिया | बहादुर सुरेंद्र के घर की देखभाल करने के साथ साथ उसके कपडे धोना, खाना बनाना इत्यादि काम भी कर दिया करता था | 

पहले तो मनजीत के फोन यदा कदा ही आया करते थे परंतु अब दो तीन महीनों से जब से उसके लड़का हुआ था मनजीत का फोन हर दूसरे तीसरे दिन आ जाता है | हालाँकि मनजीत को पता था कि उसके पापा जी की रिटायरमेंट में अभी तीन साल बाकी हैं फिर भी अब हर बार वह फोन पर अपने पापा को अपनी नौकरी छोड़ आने की सलाह देने लगा था | सुरेंद्र की समझ में नहीं आ रहा था कि पिछले तीन सालों में तो मनजीत ने एक बार भी मुझे बुलाने की इतनी व्यग्रता नहीं दिखाई फिर अब तीन महीनों में ऐसा क्या हो गया जो मुझे बुलाने के लिए वह इतना उतावलापन दिखा रहा है | फिर यही विचार लगा कर उसके मन में गुदगुदी सी होने लगी कि जैसे वह अपने पोते को देखने को लालायित रहता है शायद वैसे ही मनजीत भी दादा पोते का मिलन देखने को बहुत उत्सुक होगा |   

सुरेंद्र 57 बसंत देख चुका था | उसके बाल धूप में सफेद नहीं हुए थे | वह जानता था कि एक मनुष्य का अचानक दूसरे को महत्व देना शुरू करने का क्या अर्थ हो सकता है | चाहे महत्व देने वाला उसका अपना सगा सम्बंधी ही क्यों न हो | मनजीत के रवैये के कारण पुराने जमाने से चली आ रही कहावत कि चापलूसों से सावधान रहना चाहिए सुरेंद्र के जहन में उभर आई | हालाँकि मनजीत उसका अपना बेटा था फिर भी उसके मन में अपने पापा के लिए अकस्मात उपजी हमदर्दी को भाँपते हुए सुरेंद्र ने अपने भविष्य के लिए एतियात बरतना जरूरी समझा | मनजीत उसे नौकरी छोड़कर अमरीका आने की जिद कर रहा था परंतु सुरेंद्र के मन में उपजी आशंका के चलते उसने 6 माह की छुट्टी ले अपने बेटे मनजीत के पास जाने का प्रोग्राम बना लिया |

जैसे जैसे जाने का समय नजदीक आता जा रहा था उसके मन का उतावलापन बढता जा रहा था क्योंकि वह पहली बार हवाई यात्रा पर जा रहा था | सुरेंद्र नियत समय पर हवाई अड्डा पहुँच गया | विमान में बैठते ही उसने वे सब एतियात बरतनी शुरू कर दी जो और अनुभवी लोगों द्वारा उसे समझाई गई थी | वह निश्चिंत होकर बैठ गया परंतु जब विमान ने उड़ने के लिए हवाई पट्टी पर दौड़ना शुरू किया तो मन में उपजे भय के कारण उसने अपनी सीट को कसकर पकड़ लिया | और जब विमान उड़ान भरने लगा तो उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे उसके अन्दर का सब कुछ उसके गले से बाहर आने की चेष्टा कर रहा है | परंतु जहाज ऊचाईयाँ पाकर जब समतल उड़ने लगा तब कहीं जाकर सुरेंद्र को चैन पड़ा | जब वह आशवस्त हो गया तो उसने जहाज की खिड़की से नीचे झांका | उसे जमीन पर लम्बी लम्बी सड़कें केवल आड़ी तिरछी रेखाओं की तरह दिखाई दी | उन सड़कों पर दौड़ रही गाडियाँ भी मात्र चिटियों के रेंगने जैसी प्रतीत हो रही थी | बड़ी बड़ी अट्टालिकाएँ बच्चों के खिलौनों के समान दिखाई दे रही थीं | उसे ये सब नजारे देखकर अपने मन में हँसी आ रही थी | वह इन दृश्यों का भरपूर आनन्द ले रहा था कि अचानक ये सब दृश्य उसकी आँखो से ओझल हो गए | उसकी समझ में नहीं आया कि वह कैसा जादू सा हो गया जो सब कुछ एकदम गायब हो गए | उसने अपने अगल-बगल झांका | सब सह यात्री शांत बैठे थे | किसी के चेहरे पर भी किसी प्रकार की कोई विस्मता नहीं थी | इसलिए उसने इस जादू के बारे में किसी से कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा तथा चुपचाप खिड़की से बाहर देखने लगा | सुरेंद्र आश्चर्य चकित रह गया जब एक बार फिर धीरे धीरे नीचे का दृश्य पहले की तरह साफ नजर आने लगा | अबकी बार वह अपने आप पर हँसने लगा जब उसने अपनी खिड़की के पास से गुजरते बादलों को देखा जो जमीन के नजारों के साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहे थे | उसे पता चल गया था कि वह क्या जादू था | 

धीरे धीरे अंधेरा होने लगा था | नीचे जमीन पर ऊपर आसमान की तरह अनगणित तारे झिलमिलाने लगे थे | सुरेंद्र असमान से पृथ्वी की इस छटा को देखकर बहुत खुश हो रहा था | वह इस मनोहारी दृश्य का हर पल अपनी आँखो में समा लेना चाहता था | जब वह यह सब देखते देखते थक गया तो उसने अपना सिर पीछे सीट पर टिका लिया और आँखे बन्द कर ली | 

सुरेंद्र अतीत में खो गया जब मनजीत पैदा हुआ था | मनजीत के दादा जी को कितनी अपार खुशी हुई थी | मौहल्ले भर में खबर देने के लिए उन्होने कांशी की थाली बजवाई थी | थाली के बजते ही सभी को खबर हो गई थी कि मौहल्ले में फलाँ के घर पोता हुआ है | देखते ही देखते बधाईयाँ आनी शुरू हो गई थी | सभी खुशी दिखा रहे थे तथा मन ही मन एक पक्की दावत का इजहार कर रहे थे | मेरे पिता जी ने दावत भी कितनी शानदार दी थी | लोग आज भी उस दावत को याद करके उसका गुणगान करते हैं | पहले तो घर में पूरे पाँच दिनों तक औरतों के गाने बजाने होते रहे थे फिर आखिरी दिन आसपास के सभी गाँवो के लोगों को दावत दी गई थी | सुरेंद्र को फिर याद आया मनजीत का घुटनों चलना , फिर उसका ठुमक- ठुमक कर पैदल चलना , तुतलाकर बा..बा..,पा..पा..आदि बोलना तथा उसका मुझे बाहर जाते देख मचलना इत्यादि | सुरेंद्र ने सोचा कि उसके पिता जी कितने खुश नसीब थे जिन्होने अपने पोते की हर कला को उभरते हुए देखकर उसका पूरा आनन्द लिया था | परंतु यह सोचकर वह कुछ उदास सा हो गया कि शायद वह अपने पोते की इन सब अवस्थाओं को निहारने से वंचित ही रह जाएगा | ऐसा सब सोचते सोचते सुरेंद्र को नींद आ गई | जहाज में लगे छोटे से झटके ने सुरेंद्र की झपकी तोड़ दी | जहाज में बोल रहे लाउड स्पीकर से पता चला कि हवाई जहाज अमरीका न्यूयार्क हवाई अड्डे पर उतर गया है |  

आज सुखबीर 2महीने 27 दिन का हो गया था | वह भी अपने दादा जी को लेने हवाई अड्डे आया था | मनजीत की गोदी में उसे देखकर सुरेंद्र की खुशी का पारावार न रहा | उसने झटपट आगे बढकर सुखबीर को अपनी गोदी में लेते हुए कई बार चूम लिया | ऐसा लगता था जैसे अढाई महीने की कसर वह अभी पूरी कर लेना चाहता हो | 

घर पर तीन दिनों तक सुरेंद्र की खुब सेवा सुश्रा हुई | तीसरे दिन बातों ही बातों में मनजीत ने कहा," पापा जी मैं और जीतो तो बहुत परेशान एवं चिंता ग्रस्त हो गए थे कि पता नहीं आप आओगे भी या नहीं |” 

सुरेंद्र अपने बेटे मनजीत की दिल की गहराईयों से अनभिज्ञ बडे सरल भाव से बोला,"इसमें चिंता करने की क्या बात थी ?” अपने पोते के पास आने का दिल तो मेरा तभी से कर रहा था जब से यह पैदा हुआ है | 

अपनी मनोइच्छा की पूर्ति होते जान मनजीत बहुत प्रसन्न होकर चहकते हुए बोला," पापा जी अब आप किसी प्रकार की कोई चिंता न करना | अब आराम से यहाँ हमारे साथ रहो हमारी भी सारी समस्यों का हल हो जाएगा |”

अपने पुत्र तथा पुत्र वधू का स्नेह भरा व्यवहार पाकर तथा अपने पोते के साथ खेल खाकर पता ही न चला कि तीन दिन कैसे गुजर गए थे |   

चौथे दिन सुबह सवेरे से ही घर में गहमा गहमी देखकर सुरेंद्र अचरज में पड़ गया | उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि आखिर आज उसका बेटा तथा बहू इतनी जल्दी उठकर तथा नहा धोकर कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हैं | 

सुबह के आठ बजते बजते तथ्य सुरेंद्र के सामने आ गए जब जीतो ने उसे हिदायतें देनी शुरू कर दी | “पापा जी मैनें सुखबीर को हग्गीज पहना दी है | वैसे तो मेरे आने तक आपको जरूरत नहीं पड़ेगी फिर भी अगर किसी कारण वश जरूरत हो भी जाए तो टायलैट पेपर का इस्तेमाल कर लेना | सुखबीर के दूध की बोतल भी भर कर रख दी है | एक बारह बजे पिला देना तथा दूसरी चार बजे पिला देना | आपकी कॉफी के लिए भी फ्रिज में दूध रख दिया है जब भी मन आए बना लेना | आपका खाना बना कर माईक्रोवेव ऊवन में रख दिया है | जब आपको भूख लगे तो गर्म करके खा लेना | झूठे बर्तन मशीन में डाल देना मैं आकर साफ कर लूंगी |” ऐसी ही कई और हिदायतें देने के बाद जितो ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को निहारा तथा यह कहते हुए,”अच्छा पापा जी मुझे देर हो रही है मैं जा रही हूँ, बाहर निकल गई |”

 सुरेंद्र का लड़का मनजीत पहले ही यह कहते हुए घर छोड़ चुका था कि आज मेरी मेटर्निटी छुट्टियाँ खत्म हो रही हैं अतः आफिस जा रहा हूँ | 

सुरेंद्र को एक झटके में ही पता चल गया था कि मेरे यहाँ न आने तक उसके पुत्र तथा पुत्र वधू को चिंता ने क्यों घेर रखा था | उसने समझ लिया कि वर्तमान मशीनी युग के नौजवानों ने पैसा कमाने की होड़ में अपनी संस्कृति,विवेक,अच्छे बुरे का ज्ञान,आपसी प्यार,सदभाव,मान-मर्यादा,आदर सत्कार इत्यादि सब कुछ भुला दिया है | जानदार होते हुए भी अब वे एक बेजान मशीन बन चुके हैं | 

अपनी बीती हुई जिन्दगी के बारे में सोचते हुए उसने पाया कि जो काम उसने इस उम्र तक कभी नहीं किए वे काम उसे अब इस उम्र में करने पडेंगे | सुरेंद्र ने याद किया कि कैसे उसकी पत्नि मनजीत को तैयार करके उसके बाबा के हवाले करती थी तथा अगर मनजीत कुछ गन्दा कर देता था तो उनकी आवाज के साथ ही वह मनजीत को दुरूस्त करने के लिए एकदम हाजिर हो जाती थी | यहाँ तक की मुझे भी उसने इस काम के लिए कभी भी हाथ नहीं लगाने दिया था | 

सुरेंद्र ने महसूस किया कि उसके बच्चे अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए उसके स्वाभिमान को गहरी ठेस पहुचाँ रहे हैं | उसने यह सोचकर कि अभी वह अपने आप में हर प्रकार से पूरा समर्थ है तथा किसी भी रूप में उनके आश्रित नहीं है मन में एक पक्का निश्चय कर लिया |

एक सप्ताह ऐसे ही बीत गया | सुरेंद्र पूरे दिन सुखबीर के साथ घर में अकेला रहता | वह पूरी तरह से सुखबीर की आया बन चुका था | सुरेंद्र बड़े  उतावलेपन से अपने बेटा-बहू का शाम होने तक इंतजार करता | वे आफिस से थके माँदे आते, डब्बे का खाना बनाते, खाते, दो चार बातें करते और सो जाते | सुरेंद्र एक तरह से बिलकुल अकेला रह गया था | घर के अन्दर ही क्या बाहर भी बोलने वाला कोई नहीं था |      

आज रविवार था | जहाँ रोज सुबह से ही गहमा गहमी होने लगती थी | आज सब कुछ शांत था | सड़कें सूनी थी | सुरेंद्र अपनी चाय बनाकर घर की बाल्किनी में बैठा उसकी चुस्की लेते हुए सोच रहा था कि चलो आज तो घर में बहू के हाथ का बना खाना खाने को मिलेगा | डब्बों का खाना खाते-खाते वह उकता चुका था | उसके बहू बेटा उठे | मनजीत ने अपने पापा के पास आकर कहा," पापा जी तैयार हो जाओ | बाहर घूमने चलेंगे | आज खाना भी बाहर का खाएँगे |”

मनजीत की बात सुनकर सुरेंद्र के मन में उपज रही घर के बने खाना खाने की सारी इच्छाएँ एकदम दब कर रह गई | वह अवाक अपने बेटे का मुँह ताकता रह गया | उसकी समझ में नहीं आया कि क्या वह पिछले छः दिनों से घर का खाना खा रहा था जो आज उसका लड़का कह रहा है कि पापा जी आज बाहर का खाना खाएँगे |

डेढ महीना तो सुरेंद्र ने अमरीका में किसी तरह रो-पीटकर गुजार लिया परंतु अब दिन प्रति दिन उसके लिए यहाँ ठहरना दूभर होता जा रहा था | हालाँकि वह छः महीनों की छुट्टी लेकर आया था परंतु अब आगे छः दिन भी काटने उसे नाकों चने चबाने जैसा प्रतीत हो रहा था | अतः दो महीने खत्म होने से पहले ही, अपने मन में लिए निश्चय के अनुसार, एक दिन उसने मनजीत से कहा," बेटा अब मुझे जाना होगा |”

मनजीत को जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो | उसके मुँह से निकला ‘क्या’ ! ओर उसका मुँह खुला का खुला रह गया | 

जीतो भी भागी हुई अन्दर से ऐसे आई जैसे उसे बिजली का करंट लग गया हो | वह काँपती सी बोली," पापा जी आप यह क्या कह रहे हैं ?”

“मैं जो कह रहा हूँ ठीक कह रहा हूँ |”

“पर पापा जी क्यों ?”

“क्योंकि मेरी छुट्टियाँ समाप्त हो गई हैं |” 

मनजीत ने बड़े  ही बुझे मन से पूछा," तो क्या पापा जी आप नौकरी छोड़कर नहीं आए थे?”

“नहीं मैने अभी ऐसा नहीं किया था |”

“क्या आप को यहाँ किसी चीज की कमी है, हमारे पास ऐशो आराम की हर वस्तु है | हमारे पास पैसा है जो जिवन में सबसे अहम भूमिका निभाता है |” 

“मेरे लिए पैसा इतनी अहमियत नहीं रखता |”

“तब फिर क्या है ?”

“मेरा स्वाभिमान जो मैं यहाँ खोता जा रहा हूँ |”

मनजीत अपने स्वार्थ को सिद्ध होते न जान एकदम से बिफर पड़ा,"पापा जी आपने हमें गल्त फहमी में रखा | धोखा दिया |”

"मैनें तो नहीं अपितू तुम दोनों ने मुझे अवश्य यहाँ के बारे में अनभिज्ञ रखा |”

जितो ने बात आगे बढाते हुए कहा," पापा जी आप हमें मझ्धार में धकेल कर जा रहे हैं|”

“तुम दोनों तो खुद पहले से मझदार में बह रहे थे | मैं तो तुम्हें निकालने की नियत से यहाँ आया था | परंतु एक तो तुम उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहते दूसरे अब मेरे अन्दर इतना सामर्थ नहीं है कि मैं जबरदस्ती तुम्हें इस मझ्धार से निकाल सकूँ |”

खैर अधिक बात बढाने से कोई फायदा नहीं क्योंकि तुम दोनों की रगों में यहाँ का वातावरण, संस्कृति तथा दिनचर्या ऐसे रम गए हैं कि अब इस धरती को अपने आप छोड़ना तुम्हारे लिए मुमकिन नहीं | मैं स्वदेश वापिस जा रहा हूँ | अगर कभी याद आ जाए या आने का मन करे तो तुम्हारे लिए मेरे घर के दरवाजे हमेशा खुले रहेंगे | 

मनजीत ने भी अपना फैसला सुनाते हुए कहा," पापा जी जब आप यहाँ आए हुए ही वापिस जा रहे हो तो फिर हम यहाँ अपना काम छोड़कर वहाँ आकर क्या करेंगे |”

सुरेंद्र ने भारी मन से कहते हुए ," जैसी तुम्हारी मर्जी |" उनसे अलविदा ले ली | 

विमान में बैठने तक सुरेंद्र के मन पर मनों बोझ जैसा प्रतीत हो रहा था परंतु विमान जैसे ही उड़कर आसमान में पहुँचा तो उसे ऐसा लगा जैसे वह भी खुले आकाश में एक उन्मुक्त पक्षी की तरह उड़ान भर रहा है | सुरेंद्र का दिल प्रसन्नता से झूम उठा  और अचानक उसके मुख से निकला ," सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा |” 

सुरेंद्र को अचानक अपने सामने खड़ा पाकर बहादुर की आँखे फटी की फटी रह गई | थोड़ी देर तो वह स्तब्ध देखता रहा परंतु चेतना जागने पर उसने आगे बढकर अपने मालिक के चरण छू लिए | सुरेंद्र ने उसे बाँह पकड़ कर उठाया तो देखा बहादुर की आँखे नम थी | सुरेंद्र ने घर का मुआईना करने के लिए चारों ओर नजर घुमाई तो पाया कि उसकी अनुपस्थिति में भी बहादुर ने घर की देखरेख बहुत अच्छे ढंग से की थी | फिर सुरेंद्र को जैसे अपने पेट में चूहे कूदते महसूस हुए हों , अपने पेट पर हाथ फेरते हुए बोला," बहादुर, घर का खाना खाए बहुत दिन हो गए हैं |”

सुरेंद्र का इशारा एवं आशय समझते ही बहादुर हरकत में आ गया तथा थोड़ी ही देर में सुरेंद्र अब भरे पेट पर हाथ फेर रहा था |   

हालाँकि मनजीत तथा जितो ने सुरेंद्र पर लाछन लगाए थे इसलिए वह अमरीका से कुछ रूष्ठ होकर आया था परंतु एक पिता चाहे वह कितना भी कठोर दिल क्यों न हो अपने बच्चों , खासकर अपने पोते, के लिए अन्दर से लालायित तो रहता ही है | इसी तरह सुरेंद्र बाहर से तो अपने आपको बहुत सुखी तथा खुशहाल दिखाता था परंतु वास्तव में अन्दर ही अन्दर उसके मन को कुछ कचोटता रहता था | शायद इसी वजह से धीरे धीरे उसे हृदय रोग लग गया | एक रात उसकी इतनी हालात खराब हो गई कि बहादुर की सहायता से उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा | बहादुर के अलावा सुरेंद्र को सहारा देने वाला कोई न था | बहादुर ने भी अपने मालिक की जी जान से सेवा की तथा किसी प्रकार की कोई कसर न छोड़ी | सुरेंद्र स्वास्थ्य लाभ पाकर जब वापिस घर आया तो अमरीका से मनजीत का फोन आया | कह रहा था," पापा जी काम की व्यस्तता के कारण आपके बिमार होने पर मेरा आना न हो पाया तथा अभी निकट भविष्य में भी आने की कोई सम्भावना नहीं है |” 

सुरेंद्र चुपचाप अपने बेटे की बात सुनता रहा | मनजीत अब भी कहे जा रहा था," आप वहाँ अपनी सेवा सुश्रा के लिए किसी को रख लेना क्योंकि अभी आपको सहारे की जरूरत है | आप हमारी चिंता बिलकुल न करना | आप तो यहाँ आकर देख ही गए हैं कि हम यहाँ कितने मजे में हैं |” 

बेटे की बात सुनकर सुरेंद्र का मन रो पड़ा | उसकी जबान को जैसे काठ मार गया था | सुरेंद्र को कुछ जवाब देते न बन रहा था कि अचानक डाक्टर की कही बातें उसे याद आ गई | अतः धैर्य रखते हुए उसने मनजीत से कहा ," बेटा तुम्हारे कहने से तो मेरी चिंताएँ खत्म न होती परंतु डाक्टर साहब के कहने से मैनें चिंता करना बिलकुल छोड़ दिया है | और हाँ रही सहारे की बात तो वह मुझे मिल गया है |” 

मनजीत ने बड़ी उत्सुक्ता से पूछा," पापा जी वह कौन है ?” 

सुरेंद्र ने बिना किसी हिचकिचाहट के," तुम्हारा सौतेला भाई |” 

क्या ! जैसे मनजीत को अपने कानों पर विशवास न हुआ हो," मेरा सौतेला भाई |”

“हाँ, तेरा सौतेला भाई”, कहते हुए सुरेंद्र ने बड़ी आत्मीयता से बहादुर की तरफ देखा | 

मनजीत अभी भी जो अस्मंजस्ता से बाहर न आ पाया था," परंतु आपने तो आज तक नहीं बताया कि मेरा कोई सौतेला भाई भी है |”  

"मुझे खुद पता नहीं था | हालाँकि वर्षों से वह मेरे सामने ही रह रहा था परंतु मैं भी अब तक उसे पहचान नहीं पाया था |”

मनजीत ने अधीरता दिखाते हुए, "पापा जी प्लीज जल्दी बताईये कि वह कौन है?”

सुरेंद्र ने बड़े  ही संयम तथा पक्के इरादे से धीरे धीरे ऐसे कहा जिससे उसका बेटा मनजीत अच्छी तरह सुन ले, " ब-हा-दु-र  सि-हँ  क-पू-र |”     

इतना कहकर सुरेंद्र ने टेलिफोन का चोगा रख दिया तथा अपने बिस्तर से उठकर पास खड़े  बहादुर को अपने सीने से लगा लिया | फिर उसके कंधे का सहारा लेते हुए, अपना सिर उस पर टिका कर , फफक-फफक कर रो पड़ा | आज, सुरेंद्र के विचलित मन को सांत्वना मिल गई थी, उसने अपने बुढापे का सहारा चुन लिया था |          


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