Tuesday, October 6, 2020

उपन्यास 'अहंकार' (अहंकार का पतन)

 अहंकारी का पतन  

अग्रवाल ने बताना शुरू किया, ईश्वर की मेरे ऊपर बहुत कृपा रही है | उस परवरदिगार नें मेरी हर कदम पर सहायता की है | मैं पढना चाहता था तो मुझे स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करने में पूरा योग दान दिया | अगर भगवान की तरफ से चक्र न चलता तो मैं कभी भी इसमें कामयाब नहीं होता | मैंने भारतीय वायु सेना की नौकरी छोडना चाहा तो उसमें भी उसने मेरे लिए रास्ता बना दिया था | मुझे अपने बच्चों के साथ सिर छुपाने के लिए जगह चाहिए थी तो उसने मुझे दूकान में अच्छी आमदनी कराकर मुझे इस लायक बना दिया कि मैं मकान बनवाने में भी समर्थ हो गया | हालांकि अपने घर के सदस्यों द्वारा दिए गए आशवासन के अनुरूप मुझे उनसे सहायता नहीं मिली परन्तु भगवान पर मेरी अटूट आस्था होने के कारण मुझे इसका कोई मलाल नहीं हुआ था | 

०२-०३-१९८० की सुबह सोकर उठा तो मेरी पत्नी संतोष ने जन्म दिन मुबारक कहकर मेरा अभिवादन किया | मैनें भी अपने चहरे पर मुस्कान लाते हुए अपनी पत्नी को धन्यवाद दिया तथा नीचे दूकान खोलने चला गया | हालांकि थोड़ी देर बाद अपने चिरपरिचित अंदाज में अपनी खुशी जाहिर करने के लिए संतोष ने मेरे लिए गरमागरम देशी घी का हलुआ बनाकर भेज दिया था परन्तु मैं खुद महसूस कर रहा था कि इस बार का मेरा जन्म दिन उतनी खुशियाँ  नहीं दे पाएगा जितनी मेरे परिवार को उस समय मिलती थी जब मैं भारतीय वायु सेना में सेवारत था |

वायु सेना में रहते हुए किसी के भी जन्म दिन के तीन दिन पहले से ही प्रोग्राम बनाने लगते थे कि उस खास दिन सुबह नाश्ते में क्या बनेगा, दोपहर का खाना लेकर कौन से स्थान पर पिकनिक मनाने जाएंगे, शाम को कौन से सिनेमा हाल में कौन सी पिक्चर देखेंगे, रात को कौन से होटल में खाना खाकर वापिस घर लौटेंगे ..इत्यादि |

बच्चे सारा दिन इन्हीं बातों को सुलझाने में व्यस्त रहते थे | उनका चहकना देखकर मेरे मन में भी रह रहकर  खुशी की एक अजीब सी लहर दौड जाती थी | परन्तु इस बार तो घर में इनके बारे में कोई जिक्र ही नहीं हुआ | शायद बच्चे भी भांप गए थे कि इस बार उनके पापा जी इस स्थिती में नहीं हैं कि उनका जन्म दिन पहले की तरह धूमधाम से मनाया जा सके | बच्चों का चेहरा बुझा बुझा भांपकर भी मैं कुछ करने की स्थिति में नहीं था | इस बार मेरा जन्म दिन सुबह मेरी पत्नी द्वारा मुझे जन्म दिन की बधाई कहना तथा फिर हलुआ बना देने तक ही सीमित होकर रह गया था | यह सब महसूस करके मेरा मन मुझे कचोट रहा था कि देखो समय ने क्या पलटा खाया है | फिर भी भगवान में आस्था होने के कारण मेरे मन के किसी अनजान कौने में एक आशा जगी थी कि पुराने दिन अवशय लौट कर आएँगे | 

रात को जब मैं अपनी दूकान बंद करके ऊपर गया तो अपने कमरे की सजावट देखकर दंग रह गया था | कमरे को करीने से सजाया गया था | संतोष मेरी पत्नी तथा बच्चे, प्रवीण, प्रभा, तथा पवन भी सजे धजे मेरा इंतज़ार कर रहे थे | सभी के चेहरे सुबह के गुलाब की तरह खिले हुए थे | मेज पर एक केक रखा था | उसके साथ चांदी की प्लेट में एक लिफाफा रखा था | पहले दिनों जैसा इंतजाम देखकर तथा सभी के मुस्कराते चेहरे देखकर मैं दंग रह गया था तथा पूछना ही चाहता था कि माजरा क्या है कि सभी ने जोर जोर से तालियाँ बजा बजाकर जन्म दिन मुबारक का गाना गाना शुरू कर दिया | मेज पर परोसा गया खाना भी वैसा ही बनाया गया था जैसा कि  वायु सेना की नौकरी के दिनों में बनाया जाता था | 

केक काटने के बाद मेरी लडकी प्रतिभा ने चांदी की प्लेट जिसमें एक लिफाफा रखा था मेरे सामने कर दी | मैंने सोचा था कि हर वर्ष की तरह उसकी पुत्री ने जन्म दिन मुबारकबाद का एक कार्ड अपने हाथों से बनाकर लिफ़ाफ़े में रखा होगा | परन्तु इस बार वह चांदी की प्लेट में रखकर देने का औचित्य उसकी समझ से बाहर था | परन्तु जब मैंने जन्म दिन मुबारक वाले कार्ड के साथ लिफ़ाफ़े के अंदर रखे पत्र का मजबून पढ़ा तो आश्चर्य चकित ठगा सा रह गया | एकदम मेरी निगाह सामने टंगी अपने माता-पिता की तस्वीर के साथ साथ भगवान की टंगी तस्वीर पर पडी और मैं हाथ जोडकर उनके सामने नतमस्तक हो गया | 

भगवान ने एक बार फिर मेरा साथ देकर मेरे भविष्य की सारी समस्याओं का निवारण करने का फैसला कर लिया था | मुझे भारतीय स्टेट बैंक से नौकरी का निमंत्रण आया था | ईश्वर नें, जितनी खुशी इस परिवार को मेरे जन्मदिन पर भारतीय वायु सेना में मिलती थी उससे सैंकडों गुना अधिक आज प्रदान कर दी थी |     

२१ मार्च १९८० को जब मैं पहले दिन भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा में अपने आफिस गया तो वहां पर पहले से नौकरी कर रहे लोग, दो गुटों में, मुझे मेरी भारतीय स्टेट बैंक की नियुक्ति पर बधाई देने आए | ये गुट बैंक में दो विरोधी यूनियनों के खेमे से ताल्लुक रखते थे | फ़ौज में तो कोई युनियन होती नहीं है | इसलिए इन सब झंझटों से अनभिज्ञ मैंने किसी भी गुट में सम्मिलित न होने का फैसला कर लिया परन्तु ऐसा करने में भी लफडा होता नजर आता था | क्योंकि मैनें महसूस किया कि अगर मेरे जैसा व्यक्ति किसी एक संगठन के व्यक्ति से हंस बोलकर बातें कर लेता था तो दूसरे गुट के सदस्य सोचने लगते थे कि वह तो गया हमारे हाथ के नीचे से | शायद इन मामलों में छोटे नेताओं का दिमाग भी संकीर्ण होता है | 

उन दिनों भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा की यूनियन का सैकरेटरी एस.के.पटनी था | उसकी सेहत मनुष्यों के हिसाब से एक हाथी से कम न थी | चलते हुए भी उसकी चाल एक झूमते हुए मस्त हाथी की तरह लगती थी | उसे कभी भी किसी प्रकार की कोई जल्दी नहीं होती थी | वह बैंक का खुद तो कोई काम करता नहीं था ऊपर से जहां भी वह बैठ जाता था तो आसपास की सीटों पर काम कर रहे कर्मचारियों का काम भी ठप्प करा देता था | जब बैंक के आला अधिकारी ही उसके सामने बोलने से कतराते थे तो भला बैंक के और कर्मचारियों की क्या बिसात थी कि उसके सामने अपना मुहं खोल सकते | 

विदेश व्यापार शाखा का चीफ मैनेजर सुरेन्द्र सिहं भी पटनी की सलाह लिए बिना कर्मचारियों के बारे में कोई निर्णय नहीं ले सकता था | पटनी का शाखा में इतना दबदबा था कि उसको बताए बिना मैनेजर द्वारा एडमिनिस्ट्रेटिव निर्णय लेना तो दूर की बात थी उसमें इतना दम नहीं होता था कि किसी कर्मचारी की छुट्टियाँ तक भी मंजूर कर सके | पटनी को उस समय का, भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा का, बेताज बादशाह कहना अतिशयोक्ति न होगी | परन्तु भगवान ने अपनी रणनीति में बदलाव की ऐसी बिसात बिछा रखी है कि उससे कोई नहीं बच सकता | पटनी भी उस बिसात के मद्देनजर एक दिन राजा से रंक बन कर रह गया | अपने अहंकार की वजह से उसने अपने साथियों की नज़रों में अपना वैभव, मान-मर्यादा तथा आदर सत्कार खो दिया |       

१९८० के दशक में भारतीय स्टेट बैंक की विदेश व्यापार शाखा में चलन था कि जब भी नई भर्ती के लोग उसमें नियुक्त होकर आते थे तो सबसे पहले उनसे खजाने के आधीन खजांची के रूप में काम लिया जाता था | बैंक में भर्तियाँ हर छ: महीने बाद होती थी | जब अगली भर्ती होती थी तो खजाने में पहले से काम कर रहे लोगों को वहाँ से हटा कर कलर्क के रूप में नियुक्त कर दिया जाता था और नए लोगों को उनके स्थान पर खजाने में लगा दिया जाता था | ऐसा इसलिए किया जाता था क्योंकि लोगों का मानना था कि खजांची की डयूटी जोखिम एवं पाबंदी की होती है इसके विपरीत कलर्क एक खुले वातावरण में बिना किसी जोखिम एवं पाबंदी के काम करता है | 

जो व्यक्ति सोलह वर्ष फ़ौज की नौकरी करके आया हो, जहां हर कदम पर पाबंदी होती है, उसे भला बैंक में खजाने  की पाबंदी, पाबंदी कैसे महसूस होती | यही कारण था कि नए लोगों  की तीन चार भर्तियाँ आने के बावजूद मैनें  अपनी तरफ से सीट बदलवाने की कोई इच्छा व्यक्त नहीं की थी | मैं खुशी खुशी ढाई साल से खजानें में काम कर रहा था क्योंकि मुझे वहाँ किसी प्रकार की कभी दिक्कत महसूस नहीं हुई थी | मेरे साथ चार लडके रिडला, जगदीश, गर्ग, तथा डाल चंद भी खजाने में काम कर रहे थे | 

एक दिन गर्ग ने मेरे से कहा, “अग्रवाल जी मैं अब खजाने से बाहर जाना चाहता हूँ |”

मैनें सीधे स्वभाव उत्तर दिया, “तो जाओ |”

“वह तो ठीक है परन्तु,” कहकर गर्ग चुप सा हो गया |

मैं गर्ग की हर बात से अनजान था इसलिए बोला,  “परन्तु क्या ? अरे नई भर्ती के लोग आ गए हैं तुम्हें खजाने से बाहर जाने में कोई दिक्कत नहीं होगी |”

गर्ग ने डरते हुए से फिर वही राग अलापा, “ हाँ जा तो सकता हूँ परन्तु....|”

“इस परन्तु से आगे भी बढ़ो गर्ग जी | आपको क्या परेशानी आ रही है ?”

गर्ग ने कुछ साहस बटोर कर अपनी जबान को आगे बढ़ाया, “मैनें पटनी को अपनी बाहर जाने की बात कही थी |”

“फिर |”

पटनी ने कहा, “अग्रवाल  को तो खजाने में काम करते हुए ढाई साल हो गए हैं उसने तो अब तक एक बार भी नहीं कहा कि वह खजाने से बाहर की ड्यूटी करना चाहता है |”

मै कुछ सोचकर बोला, “ये तो कोई तुक नहीं हुई | अगर मैं आगे नहीं बढ़ना चाहता तो इसका मतलब यह तो नहीं है कि अपने पीछे खड़े होने वालों का रास्ता रोक दूं |”

गर्ग थोड़ा सहम कर बोला, “मुझे तो पटनी ने डांटकर भगा दिया तथा कहा कि पहले अग्रवाल  खजाने से बाहर जाएगा फिर तुम्हारी बारी आएगी |”

गर्ग की बात सुनकर मैनें उसे विश्वास दिलाते हुए बहुत ही साफ़ शब्दों में कहा, “देखो गर्ग जी वैसे तो मुझे कोई फर्क नहीं पडता कि मैं खजाने में काम करूँ या बाहर काम करूँ | परन्तु मैं आपके क्या किसी के भी रास्ते की अड़चन नहीं बनूंगा | अगर पटनी यह चाहता है कि आप से पहले मैं खजाने से बाहर जाऊं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है | मैं उससे कह देता हूँकि  मुझे भी खजाने की डयूटी से छुटकारा दे दे |”

अगले दिन मैं युनियन के दफ्तर में चला गया | पटनी वहाँ अपने चमचों से घिरा बैठा गप्प सप्प में मशगूल था | मुझे देखकर वह बोला, “हाँ अग्रवाल  जी, कहो कैसे आना हुआ ?”

मैंने अपनी बात सीधे रखी, “मैं अब खजांची की नौकरी त्यागना चाहता हूँ |”

“क्यों अचानक क्या बात हो गयी ?”

“बात कुछ नहीं है, तथा अचानक जैसी भी कोई बात नहीं है |”      

“तो फिर ?”

“लोग तो छः महीने में ही खजाने से बाहर निकल जाते हैं, मैंने तो ढाई वर्ष काट दिए हैं |”

“ठीक है अग्रवाल  जी अबकी भर्ती आएगी तो आपकी ड्यूटी बदल दी जाएगी |”

धन्यवाद कहकर मैं युनियन आफिस से बाहर आकर अपने काम में लग गया |

छः महीने बाद बैंक में नए लोगों की भर्ती कर ली गयी परन्तु मैं बाट जोहता ही रह गया कि कोई मेरे स्थान पर आएगा | और मैं खजाने से मुक्त कर दिया जाऊंगा | जब मुझे पता चला कि मेरी जगह अबकी बार आए लोगों में से कोई भी खजाने के लिए नियुक्त नहीं किया गया है तो मैं याद दिलाने के लिए एक बार फिर युनियन आफिस में  पटनी के पास जाकर बोला, “पटनी जी नई नियुक्तियां तो हो चुकी हैं परन्तु आपने मुझे खजाने से मुक्त नहीं किया ?”

पटनी ने बड़े शांत स्वभाव जवाब दिया, “मैं जानता हूँ |”

मैनें भी सीधे स्वभाव पूछ लिया, “क्या मैं जान सकता हूँ कि ऐसा क्यों.?”

पटनी, शायद जिसके सामने सवाल जवाब करने की हिम्मत किसी में नहीं थी, अपने में आते हुए बोला, “ मैं सवाल जवाब पसंद नहीं करता | केवल कहता हूँ तथा सामने वाले को केवल सुनना पडता है |”

उसके कहे की परवाह न करते हुए मैंने फिर एक प्रशन कर दिया, “परन्तु आपने ही तो कहा था कि नई भर्ती आने पर मुझे खजाने से बाहर कर दिया जाएगा ?”

मेरे दोबारा प्रशन करने पर पटनी खीज गया और चेहरे पर बल चढ़ाकर गुर्राया, “कहा था परन्तु कोई पत्थर की लकीर तो नहीं खींच दी थी ?”       

मैं, जो हमेशा से ही अपनी जबान से कही बात को पत्थर की लकीर से भी बढकर मानता था, पटनी के शब्दों से बहुत विचलित हो गया तथा उसे ताकीद दी, “पटनी जी आपके लिए अपनी जबान से कही बात आपके लिए बेशक पत्थर की लकीर न हो परन्तु मेरे लिए यह पत्थर की लकीर से भी बढकर है |”

पटनी हाथ घुमाकर बोला, “मेरे सामने किसी की पत्थर की लकीर कोई मायने नहीं रखती |”

मैनें भी उसकी तरफ अपनी ऊंगली से इशारा करके कहा, “सुन लो मैं भी अपनी पत्थर की लकीर को खंडित नहीं होने दूंगा | क्योंकि मैं तुम्हारी तरह थूक कर चाटता नहीं |”             

पटनी मुझे चेतावनी सी देते हुए बोला, “तुम बैंक में नए आए हो, नए की तरह रहो |”

मैनें उसके भ्रम को तोडने के लिहाज से बताया, “बेशक बैंक में मैं नया हूँ परन्तु पहले भी सोलह साल नौकरी कर के आया हूँ |”

अबकी बार पटनी ने अहंकार भरा अपना असली रूप दिखाने की चेष्टा की, “बैंक में नए हो इसलिए अभी तुम मुझे जानते नहीं ?”

मैनें बेतकल्लुफ उत्तर दिया, “मैं जानना भी नहीं चाहता |”

पटनी आपे से बाहर होकर बोला, “तुम क्या कर लोगे ?”

“वह तो समय ही बताएगा |”

पटनी शायद और अधिक बर्दाशत नहीं कर सकता था अतः अपनी कुर्सी से उठ कर अपने हाथ से चांटा मारने के अंदाज में चिल्लाकर बोला, “अबे तेरे जैसे हजारों देख चुका हूँ | जा चला जा, वरना |”

मैं निर्भय पटनी के सामने खडा बोला, “वरना क्या कर लेगा ? खडा हूँ करके दिखा ? एक और बात बता दूं, तमीज से बात करना सीख ले | तू जो गुर्राकर बोल रहा है तथा चांटा मारने का इशारा कर रहा है उसके लिए चेतावनी दे रहा हूँ | मैं तेरे बाप का नौकर नहीं हूँ | अच्छी तरह समझ ले जैसे तू यहाँ बैंक में नौकरी कर रहा है वैसे मैं भी कर रहा हूँ | अगर ज्यादा अबे-तबे  करी तो अपना मुहं छितवा तथा अपने को छँटवा बैठेगा |”  

शाखा में जिस पटनी के सामने बोलने से पहले हर कोई दस बार सोचता था फिर भी हिम्मत नहीं जुटा पाता था उसे मैनें आज खरी खोटी सुना दी थी | मेरी बातों से उसके इर्द गिर्द बैठे लोग सकते में आ गए | युनियन आफिस के बाहर खड़े लोगों के कारण विदेश व्यापार शाखा में यह बात आग की तरह फ़ैल गयी कि अग्रवाल  ने आज बेधड़क पटनी का सामना किया | मेरी बात सुनकर पटनी चोट खाए सांप की तरह फुंफकारता रह गया और मैं युनियन आफिस से बाहर आ गया |     

भारतीय स्टेट बैंक में उस समय पटनी की तूती बोलती थी | उस तूती को बंद कराने में शाखा का प्रबंधक सुरेन्द्र सिहं भी अपने को असमर्थ पाता था | मेरी यह सलाह कि मै जीवन भर खजाने में काम करने को तैयार हूँ अगर इस समय आप मुझे एक दिन के लिए खजाने से बाहर निकाल दें का भी वह निर्णय न ले सका |

इस एक दिन में भी पटनी अपनी हार देखता था, जिस शब्द से वह शायद अनाजान था तथा जो उसने अभी तक चखी नहीं थी | यही कारण था कि वह मेरी बात मानने को राजी नहीं होता था |   

मेरा मकसद यह कतई नहीं था कि मैं पटनी को मात देना चाहता था | मेरा लक्ष्य तो पटनी के अहंकार को तोडकर उसे सही रास्ता दिखाना मात्र था | जैसे एक बार वीर हनुमान महाबली भीम के रास्ते में अपनी पूंछ बिछाकर बैठ गए थे | जब भीम ने अपना रास्ता अवरूध्द देखा तो उसके मन में अहंकार आया कि एक अदना से बूढ़े बन्दर की यह औकात कि मेरे जैसे बलशाली का मार्ग रोककर एक तरफ पड़ा है | भीम ने गरज कर कहा, “ओए बन्दर मेरे रास्ते से अपनी पूंछ हटा ले वरना इसे तोड़ दूंगा |” 

हनुमान ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया, “महाशय देख रहे हो मैं बहुत बूढा हो गया हूँ | आप ही मेरी सहायता करें तथा मेरी पूंछ उठाकर एक तरफ रख दें और अपना रास्ता बना लें |”

भीम ने सोचा कि रास्ता क्या बनाऊंगा इस बन्दर की पूंछ पकडकर इसे ही घुमाकर दूर फैंक देता हूँ | इसी मकसद से महाबली भीम ने झुककर वीर हनुमान जी की पूंछ पकड़ी और उसे झटके से उठाने का यत्न किया | परन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब वह, अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद, उस पूंछ को टस से मस न कर सका | बाद में यह पता चलने पर कि वह बन्दर वास्तव में वीर हनुमान जी हैं तो भीम ने उनसे अपने अपशब्दों के लिए क्षमा माँगी तथा कहा, “मान्यवर आज आपने मेरा गरूर एवं अहंकार समाप्त कर दिया है |”

इसी तरह पटनी भी अपने को विदेश व्यापार शाखा का बेताज बादशाह समझने लगा था | वह अहंकार से भर गया था तथा उसकी यह धारणा बन गयी थी कि उसके कहे को कोई टाल नहीं सकता, बदल नहीं सकता तथा किसी की हिम्मत नहीं कि कोई उसके सामने बोल सके | जब पटनी हर प्रकार से मेरा निर्णय बदलवाने में नाकामयाब हो गया तथा उसे महसूस हो गया कि अब इस बारे में उसकी कोई मदद नहीं कर सकता तो उसने मेरा समर्पण करवाने के लिए एक नीच तथा घिनौनी चाल चलने की रूप रेखा तैयार कर ली | 

उसने मुझे बैंक से बिना छुट्टी मंजूर कराए उसके अपने गुर्गों के साथ बैंक में न आने पर कारण बताओ नोटिस दिलवाया, युनियन में ओहदा देने का लालच दिया परन्तु व्यर्थ | 

माना जाता है कि पक्षियों में कौवा, जानवरों में सियार तथा मनुष्यों में नाई सबसे चतुर एवं चालाक होते हैं | परन्तु कभी कभी अपनी चालाकी और चतुराई से ये खुद ही विपत्ति में फंस जाते हैं | या अपने कारनामों से इन्हें दूसरों के सामने नीचा देखना पड़ जाता है | जैसे अपने को बहुत चालाक एवं चतुर समझने वाले एक नाई को बादशाह अकबर के दरबार में बहुत जिल्लत का सामना करना पड़ा था |

यह तो सर्व विदित है कि बादशाह अकबर के अधिकतर दरबारी बीरबल की वाकपाटुता एवं बुद्धिमानी से खार खाते थे तथा बादशाह के सामने दरबार में उसे नीचा दिखाने की फिराक में लगे रहते थे | एक बार सभी ने मिलकर दरबार के नाई से कहा कि वह कोई ऐसा रास्ता बताए जिससे बिरबल को बादशाह के सामने नीचा देखना पड़े | 

नाई ने फ़टाफ़ट एक युक्ति सुझाते हुए दरबारियों से कहा कि वे बादशाह को सलाह दें कि उनके पूर्वजों को मरे कई वर्ष हो गए हैं अत उन्हें किसी को स्वर्ग भेजकर उनके कुशल क्षेम के बारे में तहकीकात करवा लेनी चाहिए | सभी दरबारियों के अनुरोध पर बादशाह अकबर ने बीरबल को इस काम के लिए नियुक्त भी कर दिया | बीरबल बिना किसी हुज्जत के इस कार्य को अंजाम देने के लिए तैयार हो गया तथा बादशाह से एक महीने का समय मांग कर अपने घर को चला आया | इस दौरान बिरबल ने खुफिया तौर पर यह पता कर लिया कि इस सारे प्रकरण का सूत्रधार दरबार का नाई था | 

एक महीने बाद बीरबल ने दरबार में हाजिर होकर बादशाह को सूचना दी, “जहांपनाह के पूर्वज बिलकुल स्वस्थ एवं कुशलता पूर्वक सुखी जीवन का निर्वाह कर रहे हैं | परन्तु उनके सामने एक समस्या है |” 

समस्या का नाम सुनकर दरबार में सन्नाटा छा गया | समस्या के बारे में सुनने को सभी के कान खड़े हो गए | सभी की निगाहें बीरबल पर टिकी थी तथा सभी बात सुनाने को आतुर दिखाई दे रहे थे | चुप्पी तोड़ते हुए बीरबल ने कहना शुरू किया कि जहांपनाह उनकी दाड़ी और बाल बहुत बढ़ गए हैं क्योंकि वहाँ कोई नाई नहीं है |अतः महाराज आप से मेरा नम्र निवेदन है कि जल्दी से जल्दी वहाँ एक नाई को भेज दिया जाए | इस तरह नाई को अपने ही बुने जाल में फंसकर राज दरबार छोड़ना पड़ा था | उसका गिड़गिडाना, बच्चों की दुहाई देना तथा माफी माँगने का बादशाह पर कोई असर नहीं हुआ | इसी प्रकार पटनी के बुने जाल में फंसकर मेरे साथियों को नाहक में बैंक की तरफ से चेतावनी झेलनी पडी थी |          

मेरे कारण से बहुत से लोग खुलकर सामने आ गए | पटनी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे कभी इतने भारी विरोधाभास का सामना भी करना पड़ सकता है | उसकी नाक में दम आ गया | उसने सोचा कि अपने खिलाफ बढ़ते विरोधाभास को खत्म करने के लिए उसका विरोध करने वाले पेड़ की जड़ को काटने के अलावा उसके पास और कोई चारा नहीं बचा था | उसने मुझे खजाने से बाहर निकालने में ही अपनी भलाई समझी | 

शेर को बेदम होता जान भेड़िये भी उस पर झपटने की ताक में रहने लगते हैं | मेरी लक्ष प्राप्ति के साथ ही पटनी के रौब का पतन होना शुरू हो गया था | उसका अहंकार वश कहे जाने वाला तकिया कलाम ‘मैं केवल सुनाता हूँ सुनता नहीं’ उसकी जबान के साथ उसके गले में अटक कर रह गया था | कुछ ही दिनों में उसे शाखा छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया | और इस प्रकार एक अहंकारी का युग समाप्त हो गया था |    


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