Tuesday, October 13, 2020

लघु कहानी (माँ का आँचल)

 


माँ का आँचल

नवम्बर का महीना था | थोड़ी थोड़ी ठंड पड़नी शुरू हो गई थी | दिन भी छोटे हो गए थे | शाम को सूरज देवता जल्दी सोने लगे थे | इसलिए छः बजते बजते अंधेरा घिरने लगता था | यही समय होता था जब नौकरी पेशा लोग अपने घरों को लौटते थे | गोरा और गायत्री भी अपने आफिस से कुछ देर पहले ही लौटी थी | गायत्री का घर गोरा के घर से पहले पड़ता था अतः उसे छोड़ते हुए गोरा आगे निकल जाती थी | 

आज गोरा को अपने घर जाकर याद आया कि उसकी घड़ी गायत्री के हैंड बैग में ही रह गई है | सुबह कहीं उठने में देर न हो जाए इसलिए गोरा उल्टे पाँव ही अपनी घड़ी लेने गायत्री के घर की और चल दी | गोरा ने ज्यों ही अपनी सहेली गायत्री के घर के अन्दर कदम रखा तो वहाँ का दृश्य देखकर वह ठगी सी खड़ी रह गई | गायत्री ने अपने चार वर्ष के लड़के गौरव को अपने वक्ष से चिपकाया हुआ था | ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे गायत्री उसे अपने अन्दर समा लेना चाहती हो | गायत्री की आँखे बन्द थी तथा उनसे अश्रुधारा बह रही थी जो रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी |  |   

गोरा की कुछ समझ नहीं आया कि माजरा क्या था | अभी कुछ समय पहले ही तो वह अपनी सहेली गायत्री को आफिस से आते हुए रास्ते में छोड़कर गई थी | फिर इतने में ऐसा क्या हो गया कि वह जार जार रो रही है | थोडी देर गोरा गायत्री को चुपचाप खड़ी निहारती रही | वह अपनी सहेली के हाव भाव से अन्दाजा लगाने की कोशिश करने लगी कि वास्तव में गायत्री के शांत स्वभाव रोने का कारण क्या हो सकता है | गायत्री को कुछ पता नहीं था कि कोई उसके सामने खड़ा था | क्योंकि वह आँखे बन्द किए तथा गौरव को अपने सीने से लगाए शांत स्वभाव अश्रु बहा रही थी | 

सामने खड़ी गोरा ने गायत्री की मुद्रा से इतना तो अन्दाजा लगा लिया कि वे आँसू किसी दुखः के कारण नहीं थे क्योंकि गायत्री के हाव भाव दिखा रहे थे कि जैसे उसके बहते अश्रु ममता से सराबोर थे तथा वे गौरव को उसके ममत्व के रस में नहला देना चाहते हों | गौरव भी अपनी मम्मी जी के वक्षों के बीच उसकी ममत्व की छाया में सिर छुपाए अपने को सुरक्षित एवं स्नेह प्राप्त करता हुआ अपनी आँखे बन्द किए निशचल बैठा था | फिर भी गोरा ने गायत्री को झकझोरते हुए पूछा, "क्या हो गया गायत्री ?"

गायत्री ने गोरा के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अश्रु बहाती रही |

गोरा ने एक बार फिर कोशिश की और पूछा, "गायत्री, गायत्री क्या हुआ ?" 

गायत्री जैसे सारे संसार का वैभव अपनी बाहों में समेटे उसका सुख भोगने में तल्लीन थी, अपनी आँखे बन्द किए हुए धीरे से बुदबुदाई," कुछ नहीं |"

"तो फिर अपनी ऐसी हालत क्यों बना रखी है ?"

"भगवान के दिए परम सुख का अनुभव कर रही हूँ |" 

गोरा उसकी गूढ़् बातों का कुछ मतलब न निकाल सकी अतः पूछा, "किस सुख की बात कर रही हो ?"

"भगवान जो एक माँ को प्रदान करता है |"

"माँ तो तुम बहुत पहले बन चुकी थी ?" 

"परंतु अभी तक मैं इस सुख से अनभिज्ञ थी |" 

"आज कैसी पागलों जैसी बातें कर रही हो | तुम्हारी यह पहेली तो मेरी कुछ समझ नहीं आ रही है |"

"इस पहेली का राज असल में मैं भी आज ही जान पाई हूँ |"

गोरा की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी इसलिए उसने बहुत ही उत्सुक्ता से जानना चाहा, "मैं भी तो जानूँ कि वह पहेली क्या है ?"

गोरा की बात सुनकर गायत्री अपने अतीत में हिचकोले खाने लगी | उसने अपने जीवन की दाँस्तान सुनानी शुरू कर दी |

'जानती हो गोरा हम सात भाई बहन थे | आपस में लड़ते झगड़ते, हँसते खेलते तथा छीना झपटी करते न जाने कब बड़े हो गए | माँ बाप को कभी किसी की और इतना ध्यान देते पाया ही नहीं था क्योंकि हम बच्चे ही आपस में अपना दुख दर्द बाँट लिया करते थे | मुझे याद है मैं पाँच वर्ष की होने पर भी कभी कभी अपनी माँ के उघड़े स्तनों को चुसने लगती थी | जब मैं ऐसा करती थी तो मेरी माँ के चेहरे पर एक अजीब लालिमा साफ नजर आने लगती थी | उनका ममत्व उमड़ पड़ता था | एक दो घूंट पिला लेने के बाद बड़े प्यार से मेरे सिर पर ममतामयी हाथ फेरते हुए खुद शर्माकर हँसते हुए झिड़क कर मुझे दूर हटा देती थी | अपने चेहरे पर एक अजीब आभा लाते हुए वह कहती थी, "मर जानी इतनी बड़ी हो गई है फिर भी इसका बचपना नहीं गया | मुझे उनका दो घूंट पिला देना तथा सिर पर ममता से परिपूर्ण हाथ फेरना ऐसा महसूस होता जैसे मुझे अमरत्व मिल गया हो |”

उन दिनों लड़कियों की शिक्षा को भी अधिक महत्व नहीं दिया जाता था | मुश्किल से ही ऐसी कोई लड़की मिलती थी जो मैट्रीक पास होती थी | सातवीं या आठवीं कक्षा पास करने के बाद से ही लड़की को घर के काम काज में दक्ष करना अनिवार्य समझा जाता था | मौहल्ले पड़ौस के साथ साथ माँ बाप को भी फिकर सताने लगती थी अतः कहने लगते थे कि हमारी लड़की सयानी हो गई है इसलिए इसके हाथ पीले कर देने चाहिएँ | सभी के विचार रहते थे कि अधिक पढ़ लिखकर लड़की क्या करेगी, पढ़ाई लिखाई करके उसे नौकरी तो करनी नहीं फिर पैसौं के साथ साथ समय का भी खौ क्यों किया जाए | लड़की को  ससुराल जाकर तो केवल गृहस्थी ही सम्भालनी है | 

मैनें किसी तरह रो पीटकर अपने घर वालों के विरोध के बावजूद स्नातक की डिग्री हासिल कर ली |       

अचानक हमारे देश में लोगों के रहन सहन एवम विचारों में एक बहुत बड़ा परिवेर्तन आया | अपने देश की बे हिसाब बढ़ती आबादी को रोकने के लिए सरकार ने कई  कारगार कदम उठाने शुरू कर दिए | देसवासियों ने भी इनका पुरजोर समर्थन किया | हम दो हमारे दो का नारा देश के कोने कोने में गुंजायमान हो गया | यही नहीं लोगो ने इस पर अमल भी किया | इसके साथ साथ सरकार द्वारा चलाये गये साक्षरता अभियान से लड़कियों में शिक्षा ग्रहण करने की भावना को बहुत बल मिला | 

शिक्षा के क्षेत्र में जागृति आने से महिलाओं ने विभिन्न रोजगारों को अपनाना शुरू कर दिया | अपनी योग्यता, कार्यक्षमता तथा आत्म विशवास से राष्ट्र की उन्नति में योगदान देना शुरू कर दिया | गोरा, इस बहाव में मैं भी बह गई | 

मेरा विचार था कि रोजगार के क्षेत्र में आने से महिलाओं को कुछ आजादी मिल जाती होगी परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है | उल्टा पुरानी परम्परागत कठिनाईयों के साथ साथ कामकाजी महिलाओं को और भी बहुत सी समस्याओं से जूझना पड़ता है | 

आज भी एक नारी किसी भी कार्यक्षेत्र में अपनी मर्जी से नहीं रह सकती | उसका  ऐसा करना या तो अपने पीहर या फिर अपने ससुराल वालों की मर्जी पर निर्भर रहता है | हालाँकि देश में चहूँ और विकास तो हुआ है परंतु समाज में व्याप्त रूढिवादिता वहीं की वहीं हैं |

वर्तमान में लड़के उसी लड़की से शादी करना चाहते हैं जो नौकरी पेशा हो | कमाई तो औरत करती है परंतु उस पर अपना अधिकार नहीं जमा सकती | एक महिला स्वयं पर खर्च करने में भी हिचकिचाती है क्योंकि उसे अपने वेतन का पूरा पूरा हिसाब देना पड़ता है | 

सारा दिन दफ्तर में काम करने के बावजूद घर आकर घर के कामकाज का पूरा जिम्मा उसी का माना जाता है | घरेलू कार्यों के साथ साथ बच्चों की देखभाल भी उसे बखूबी निभानी पड़ती है | बच्चों की परवरिश में कोई कमी रहने से, उनमें गल्त आदत या कोई कुसंगती पनपती है तो उसकी जिम्मीदारी भी महिला पर ही थोप दी जाती है | 

यही नहीं अगर आफिस में काम करते करते देर हो जाए तो महिला के चरित्र  पर लांछन लगाने में, मौहल्ले पड़ौस वाले तो क्या,  उसके घर वाले भी नहीं चूकते | इसी तरह दफ्तर में सामुहिक मनोरंजन के कार्यक्रमों में एक महिला का हिस्सा लेना भी उसके परिवार वालों को नागवार गुजरता है |        

कहने को तो हमारा समाज महिलाओं को स्वतंत्रता देने की राह पर चल रहा है तथा हर कोई उसकी शेखी बघारता है परंतु विचारों का पिछड़ापन जहाँ का तहाँ है | आज जरूरत है स्वच्छ मानसिकता की जो कहीं भी दिखाई नहीं देती | 

गायत्री कहे जा रही थी तथा गोरा सुनती जा रही थी | जब गोरा से अपनी सहेली की और अनाप सनाप बातें सुनी न गई तो वह खीज कर बोली, "गायत्री तुम्हारे यह सब कहने का औचित्य क्या है मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा |"

"गोरा मैं तुम्हे बताना चाहती हूँ कि इन सब झमेलों को झेलते हुए भी मैं नौकरी क्यों करती हूँ ? क्यों अपने दूध मुहे बच्चे के हाथ से अपना आँचल खींचकर उसे रोता बिलखता, दूसरों के सहारे छोडकर, अपनी नौकरी को ज्यादा तवज्जो देती हूँ |"

पैसा कमाने के आज के परिवेश को देखते हुए मैं भी इस भीड़ में शामिल हो गई थी | वर्तमान युग में आदमी के लिए पैसा कमाना इतना महत्व पूर्ण हो गया है कि वह इस को पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है | आदमी की पैसा कमाने की प्रवृति इतनी बढ़ गई है कि वह इसे इकट्ठा करने के लिए अपने रिस्ते, नाते, इंसानियत इत्यादि सभी कुछ गवाँने में कोई शर्म महसूस नहीं करता | यही कारण है कि परिवार टूटते जा रहे हैं, रिस्ते बिखर रहे हैं, अपनों से अलगाव बढ़ता जा रहा है, यहाँ तक की अपने बच्चों की परवरिश भी ढ़ंग से नहीं हो पाती है | कमाई की होड़ में किसी को ख्याल नहीं आता कि उनका लाड़ला जो सुबह से शाम तक एक अनपढ़ गवाँर तथा शुद्र कही जाने वाली बाई की संगत में रहेगा वह किस प्रवृति को धारण करेगा | जीवन की इस महत्व पूर्ण बात को नजर अन्दाज करते हुए पूंजी के बढ़ने से आदमी भौतिक सुखों को ही वास्तविक सुख मान बैठा है | भौतिक साधन जैसे कार, टी.वी., एयर कंडीशनर इत्यादि मनुष्य के अंतर्मन को शक्ति प्रदान करने की बजाय उसमें अहंकार भर देते हैं | इसी अहंकार के वशिभूत  वास्तविक्ता में वह बहुत अकेला होता जा रहा है | और जब वह अपने अकेले पन का अहसास करता है तो दुखी हो उठता है | 

गोरा, आदमी को अपनों के बीच बैठकर तथा अपने बच्चों की सच्चे मन से परवरिश करने पर ही खुशी एवं संतुष्ठि प्राप्त हो सकती है |  पुराने जमाने के लोग ठीक ही कहा करते थे कि भगवान अगर किसी को इस संसार में अवतरित करता है तो उसके भोजन का इंतजाम पहले ही कर देता है | उनका यह भी मानना था कि हर मनुष्य अपनी किस्मत लिखवाकर आता है | लाख कोशिश करने के बावजूद कोई विधाता के द्वारा लिखे उस लेख को बदल नहीं सकता | 

गोरा, जानती हो एक बार महालक्षमी ने सुदामा की दारूण स्थिति देखकर श्री कृष्ण भगवान से आग्रह किया कि वे अपने मित्र का उद्धार क्यों नहीं कर देते तो श्री कृष्ण जी ने हँसते हुए कहा, "महालक्ष्मी मैं विवश हूँ क्योंकि उसकी किस्मत में ऐसा ही लिखा है |" 

इस पर महालक्ष्मी ने संशय जताया, "भगवन लगता है आप उसकी सहायता करने से कतरा रहे हैं |"

श्री कृष्ण जी ने साफ शब्दों में कहा, "तो आप खुद उसकी सहायता कर के देख लो |" 

उस दिन महालक्ष्मी के कारण सुदामा को बहुत अधिक भिक्षा मिली | वह खुशी खुशी अपने घर लौट रहा था कि एक साँड की वजह से भगदड़ मच गई | सुदामा लोगों की चपेट में आ गया और उसका सारा सामान सड़क  पर बिखर गया | यह देखकर कृष्ण जी ने महामाया से हँसते हुए कहा, "देख लिया महालक्ष्मी, यह उसकी किस्मत में नहीं था |" अर्थात भाग्य में लिखे से ज्यादा कोई कुछ भोग नहीं सकता | गोरा, आज इस का एहसास मुझे मेरे लड़के गौरव ने दिलाते हुए तथा मेरी पैसा कमाने की ललक को एक झटके में धराशाही करते हुए समझा दिया कि मैं अपने दायित्व से कितनी विमुख हो गई थी | 

गोरा, आज जब मैं आफिस से वापिस आई थी तो रोजमर्रा की तरह अपने साथ गौरव के लिए खाने पीने का काफी सामान खरीद कर लाई थी | वह गमगीन एवं उदास होकर मेरा इंतजार कर रहा था | मैंने उसके लिए लाया सामान उसकी तरफ बढ़ाया तो उसने लेने के लिए कोई प्रतिकिर्या नहीं दिखाई | मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके अन्दर कुछ प्रतिद्वन्द चल रहा है | मैने आगे बढ़कर बड़ॆ प्यार से उसे अपनी गोदी में बैठाकर पूछा, " बेटा क्या बात है आज आप इतने गमगीन क्यों दिख रहे हो ?"

शायद मेरे प्रशन का उस पर कोई असर नहीं पड़ा था | तभी तो उत्तर देने की बजाय वह अपनी ही सोच में डूबा रहा | मैं हाथ मुहँ धोकर वापिस आई तब भी गौरव सोच की गहन मुद्रा में था | उसकी स्थिति देखकर मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा कि न जाने आज गौरव को क्या हो गया है अन्यथा वह मुझे देखकर खिल उठता था |    

मेरे आकर उसके सामने खड़े हो जाने के एहसास से उसने अपनी नजरें उपर उठाई तथा बड़े ही संयम से बोला, "मम्मी जी आप आफिस में कितने घंटे काम करती हो ?"

मुझे गौरव का प्रशन सुनकर बहुत अटपटा सा महसूस हुआ तथा आश्चर्य भी हुआ | फिर भी उसकी मनोइच्छा को जानने के लिए कहा, "आठ घंटे |"

गौरव के दूसरे प्रशन ने तो मुझे और भी असमंजस में डाल दिया जब उसने जानना चाहा, "आपको इन आठ घंटों के कितने पैसे मिलते हैं ?"

मैं इसे गौरव की बेहूदगी समझते हुए डाँटना ही चाहती थी कि उसकी नजरों में एक आत्मविशवास की झलक देखकर सहम गई और जवाब दिया, "800 रूपये |"     

मेरा जवाब सुनकर गौरव ने धीरे से अपना तकिया उठाया तो मैं यह देख कर दंग रह गई कि उसके नीचे पाँच तथा दस रूपयों के कुछ नोट रखे थे | उन्हें देखकर एक बार तो मेरा दिल शंका से भर गया कि आखिर ये नोट उसके पास आए कहाँ से | मैं कुछ पूछना ही चाहती थी कि गौरव ने बड़े इत्मिनान से उन्हें गिनना शुरू कर दिया | वह गिनता जा रहा था, पाँच, दस,.....नब्ब और पिचानवे | जब उसने सारे नोट गिन लिए तो बड़ी दुख भरी नजरों से गौरव ने मेरी और देखा | परंतु अचानक ही उसके चेहरे पर एक विजयी मुस्कान बिखर गई तथा वे 95/-रुपये मेरी और बढ़ाते हुए बहुत ही मसुमियत से बोला, "लो मम्मी जी आप जो मुझे कल मेरी जेब खर्च के लिए पाँच रूपये दोगी उन्हें मिलाकर ये 100/-रूपये हो जाएँगे |” 

मैने आश्चर्य चकित उसे देखते हुए नोट पकड़ लिए | मुझे महसूस हो रहा था कि उसके अन्दर कुछ बड़ा रहस्यमय द्वन्द चल रहा है परंतु मैं अन्दाजा लगने में असमर्थ थी कि वह क्या है | जब मैने नोट पकड़कर उसकी तरफ प्रशन वाचक दृष्टि से देखा तो उसने अपने मन की बात खोल दी और कहा, "मम्मी जी अब कल आप एक घंटा मेरे साथ बिताएँगी ना |" 

अपने छोटे से गौरव की मनोइच्छा उसके मुख से सुनकर मैं अवाक निढ़ाल सी होकर रह गई | एक अबोध बालक ने मुझे उस कर्तव्य का बोध करा दिया था जो पैसा कमाने की होड़ में मैं बिलकुल भुला चुकी थी | यही सोचकर मेरा अंतर्मन रो उठा कि मेरा बच्चा एकाकी जीवन जीते हुए मेरा प्यार पाने के लिए कितना तड़पा होगा | और अंत में ममतामयी आँचल की छाँव पाने के लिए कितनी बेहतरीन युक्ति अपनाई है | 

गोरा मेरा मन यह भी सोचकर रो रहा है कि मेरे गौरव की तरह न जाने कितने लाखों बच्चे, आज माँ बाप की पैसा कमाने की ललक के कारण उनके स्नेह, प्यार, सहानुभूति और अच्छी परवरिश इत्यादि से वंचित रह जाते होंगे | वर्तमान युग में पैसों के पीछे जीवन का मुल्य ही बदल गया है | 

कमाई के चक्कर में जैसे माँ बाप अपने बच्चों की परवरिश खुद नहीं कर पाते तथा उनको अपने नौकरों के रहमों कर्म पर छोड़ने को अपनी मजबुरी समझने लगे हैं वैसे ही बड़े होकर बच्चे भी अपना फर्ज भूलकर बुजूर्ग माँ बाप को बे-सहारा छोड़कर विदेशों में बसने लगे हैं | 

आज गौरव ने मुझे जता दिया कि माँ द्वारा जेब खर्च के लिये दिया पैसा बच्चे को उस समय तक ही खुशी दे सकता है, जब तक वह उसे खर्च नहीं कर लेता.| बच्चों को पैसा देकर माँ बाप शायद निश्चिंत हो जाते हैं कि उन्होने अपना फर्ज निभाकर बच्चे के दिल को जीत लिया है | परंतु वे यह भूल जाते हैं कि इससे वे बच्चे की भावना, प्रेम, अपनत्व, एवं आदर नहीं पा सकते | क्योंकि बच्चों की परवरिश माँ द्वारा अपने हाथों से न करने से बच्चे अपने को अकेला तथा अनाथ सा महसूस करने लगते हैं | बच्चों को अपनी माँ के आँचल का अभाव हमेशा खलता रहता है | गोरा, आज की त्रासदी यही है कि अबोध बच्चे अपनी माँ के स्नेहिल आँचल की गरिमा को प्राप्त करने के लिए हमेशा बेताब एवं लालायित रहते हैं |      


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