Saturday, October 3, 2020

उपन्यास 'अहंकार' (एक महल सपनों का)

 


एक महल सपनों का

आषाढ़ का महीना समाप्त होने को था | परंतु वर्षा का शुभारम्भ अभी तक नहीं हुआ था | इलाके की सारी जनता रह रह कर इसी आशा में ऊपर आसमान की और देखती थी कि कहीं कोई बादल बनने की स्थिति तो नहीं बन रही है परंतु व्यर्थ | श्रावन माह के शुरू होते ही लोगों ने वर्षा के दाता इंद्रदेव का आवाहन करने का मन बना लिया | इंद्र देव को रिझाने के लिये भारत में कई स्थानों पर महायज्ञ कराए जाने लगे | आखिर इंद्र देव ने लोगों की प्रार्थना सुन ही ली तथा पृथ्वी पर बसने वाले प्यासे प्राणियों की प्यास बुझाने की ठान ली | देखते ही देखते काले काले बादल उमड़  आए | पेड़ों पर बैठे मोरों की कूक दूर दूर तक गुंजायमान होने लगी | पुरवईया हवा के झोंको से पेड़  पौधे झूमने लगे | बादलों को उमड़ते देख सभी लोग खुशी से झूमने लगे तथा जैसे चकोर चाँद को एकटक देखता रहता है उसी प्रकार हर मनुष्य उन बादलों को निहारने लगा कि न जाने कब उनसे बून्दे टपक कर धरती माँ के साथ साथ उस पर रहने बसने वाले प्राणियों की प्यास बुझाएंगे | 

हरियाणा राज्य के गुड़गाँवा जिले के पालम विहार इलाके में अपने परिवार के साथ रह रहे राम सेवक  तिवारी को सुबह पाँच बजे ही घर से निकलना पड़ता है | क्योंकि उसकी  डयूटी देहली में सुबह छः बजे की होती है | उसकी पत्नि पुष्पांजलि   को उसका चाय नाश्ता तथा खाना बनाने के लिए कम से कम एक घंटा पहले तो उठना ही पड़ता है | अपने पति को विदा करने के बाद वह एक घंटा मुशकिल से ही आराम कर पाती होगी कि अपने बच्चों को भेजने की तैयारी करनी पड़ती है | उसका लड़का विनीत गुड़गाँवा में ही नौकरी करता है तथा लड़की विजया अभी बारहवीं कक्षा में पढ़ रही है | उनके काम से निपट कर पुष्पांजलि   को घर के अन्य कार्य पूरा करने में सुबह के लगभग ग्यारह बज जाते हैं | 

आज घर के काम निबटा कर जब वह बाहर आई तो उसकी नजर सामने खुली जमीन पर पड़ी | कच्ची जमीन गीली थी | अचानक उसके नथुनों को गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ साथ उसके द्वारा लगाए गए पौधों पर आए फूलों की भीनी भीनी सुगंध ने भर दिया | इसके साथ ही वर्षा के कारण हुई ठंडी समीर ने उसे स्पर्श कर उसके थके शरीर में एक नई स्फुर्ति जागृत कर दी | वह आनन्दित एवं पुलकित हो उठी | 

बहुत दिनों बाद आज बारिश हुई थी | पुष्पांजलि   ने देखा कि घर के बाहर लगाए गए फूल के पौधों के पत्तों पर से धूल धुल गई थी और वे सब अब एक पौंछी गई तस्वीर की तरह साफ नजर आ रहे थे | प्यासे फूलों ने भी अपनी प्यास बुझाकर जैसे अपनी पूरी छटा बिखेरने का मन बना लिया था | बारिश के पानी ने उनमें जान फूंक कर उन्हें पूरी तरह विकसित कर दिया था | उनकी खुशबू बहुत मनमोहक एवं मन लुभावनी बन गई थी | पुष्पांजलि   अपने को रोक न पाई अतः उचक कर वह पौधों के बीच उगी हरी घास पर जा बैठी | पुष्पांजलि   के चेहरे से झलकती संतुष्टता ने उसके चेहरे की लालिमा को और गरमा दिया | उसका गोरा चिट्टा गोल चेहरा ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे उसके चारों और महकते खिले फूलों के बीच एक कमल का फूल खिल उठा था | अचानक एक समीर का झोंका आया जिसने पुष्पांजलि   के चेहरे की रौनक पर चार चाँद लगा दिए | पुष्पांजलि   तो निश्चल बैठी रही परंतु समीर के झोंके का छोटे फूलों के पौधों पर प्रतिकूल असर  पड़ा | वे समीर के झोंके से झुक गए | ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे छोटे फूल उस बड़े पुष्पांजलि   रूपी कमल के फूल को नमन कर रहे थे |      

अपने छोटे से क्यारीनुमा बागीचे के बीच बैठी पुष्पांजलि   अपने अतीत और वर्तमान के बीच गोते खाने लगी | उसके मानस पटल पर साफ साफ उभरने लगा कि जब वह सात आठ वर्ष की रही होगी | वर्षा की फुहार उसके मन में तब भी कितनी स्फूर्ति भर देती थी | माँ के लाख मना करने के बावजूद वह उनकी आंख बचाकर वर्षा में पूरी भीग जाया करती थी | माँ बताया करती थी कि उसके पैदा होने का जशन उसके पूरे परिवार में मनाया गया था | उसे सब फूल जैसी कोमल कहा करते थे | अतः माँ ने उसका नाम पुष्पांजलि   रख दिया था | क्योंकि मैं दिपावली के शुभ पर्व के दिनों में पैदा हुई थी इसलिए मुझे घर में लक्ष्मी के रूप का आगमन भी माना गया | 

पुष्पांजलि   के पिता जी के पास गाँव में काफी जमीन थी जिसमें उन्होने आम, अमरूद, अनार इत्यादि के पेड़ लगा रखे थे जिनमें खूब फल लगते थे | मेरे पिता जी डाक्टर देवदत्त,  जिला गोरखपुर  में एक सरकारी अस्पताल में नौकरी भी करते थे | मेरी माँ सौभागय वती, चुल्हा चौका तथा बच्चों की देखभाल का काम बखूबी निभाने में सक्ष्म थी |  

पुष्पांजलि   को याद आए अपने गाँव, खेत, अमराई और नदी जिनके साथ उसका बचपन से रिस्ता है | उसका भावुक मन आज भी उनकी समीप्ता के प्रति लालायित रहता है | उसे याद आती है गाँव के पेड़ों पर पक्षियों की चहचाहट से संगीतमय होता हुआ सुबह का मन लुभावन खुबसूरत वातावरण, भीनी-भीनी सुगंध लिये प्रभात की ठंडी पवन, कठोर परिश्रम के पशचात शिखर दुपहरी में पेड़ों की ठंडी छाँव में सुस्ताते लोग, दिन ढ़लने के धुंधलके में अपने बसेरों की ओर पक्षियों के उड़ते झुंड़, सिमटती हुई मन भावन संध्या, कभी हाथ को हाथ न दिखने वाली निस्तब्ध अंधेरी तो कभी चाँदनी में नहाई रातें | 

उसे आज भी याद है वर्षा के दिनों में अपने गाँव के पास बहती उफनती सरजू नदी का विद्रोह | उसने उस नदी का रौद्र रूप भी देखा है तो उसके स्वछन्द निर्मल जल में सैकड़ों बार नहाने का सुख भी भोगा है | एक बार तो अपनी छोटी बहन के मुंड़न के दिन जब सब नदी पर स्नान कर रहे थे वह डुबते डुबते बच गई थी | उसको जल में बहते देख कैसे उसकी माँ ने अपनी जान जोखिम में डाल कर नदी में छल्लांग लगा दी थी | अगर उसके मामा जी समय पर देख न रहे होते तो आज कहानी कुछ और ही होती | यह याद करते करते पुष्पांजलि   के सारे शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़  गई | परंतु "जाको राखे साईयां मार सके न कोय " उस कृपा निदान की कृपा से वह आज भी जिन्दा है | 

फिर पुष्पांजलि   का चंचल मन उसे ले गया अपने खेतों में लगे आम के घने छायादार वृक्षों की आमों से लदी डालियों पर | उन पेड़ों के अलग अलग नाम उसे आज भी याद हैं | उसने अमराईयों में आम से लदी बोझिल डालियों को छुकर देखा है | उन पेड़ों पर फुदकती कूकती कोयलों के मीठे स्वर को सुना है | तरह तरह के आमों का स्वाद लिया है | कभी नदी किनारे की रेत तथा कभी बाग की शीतल कोमल मिट्टी में घरोन्दे बनाना उसे बखूबी याद है | जब उसके द्वारा बनाए गये घरोंदो की सभी सराहना करते थे तो वह फूलकर कुप्पा हो जाया करती थी | 

मुझे पता ही न चला कि मैं कब जवान हो गई | मेरी शादी श्री राम धन तिवारी जी के सुपुत्र राम सेवक  तिवारी के साथ 1983 में सम्पन्न कर दी गई | मैं उस समय मात्र 16 वर्ष की थी | मेरे पति भी गोरखपुर के रहने वाले थे | मेरी शादी होते ही उनको देहली में सरकारी नौकरी के लिये सन्देशा आ गया | इसलिए 1983 से 1986 तक मुझे कभी पीहर तो कभी ससुराल में अकेला रहना  पड़ा था | अकेली ब्याहता औरत का पीहर या ससुराल में इस तरह रहना अपनों की बजाय दूसरों को ज्यादा बेचैन कर देता है | लोगों की वासना भरी पैनी नजर, नन्द-भावज के ताने इत्यादि अकेली औरत का जीना दुर्भर कर देती हैं | उसकी मजबूरी कोई नहीं समझता |  

1986 और 1989 के बीच पुष्पांजलि अपने पति के साथ दिल्ली में रहते हुए कई मकान बदलने पड़े | इसका कारण कहीं पानी की कमी, कहीं मकान में हयूमस, कहीं बाथरूम की कमी तो कहीं मकान मालिक का अडियल रवैया | अपनी मर्जी के मुताबिक किराए के मकान में न रह पाने के कारण पुष्पांजलि   के दिल में अपना खुद का मकान बनाने की इच्छा बलवती होती जा रही थी | 

1989 के अंत में पुष्पांजलि ने दिल्ली के एक गाँव में पंडित मोहन के मकान की पहली मंजिल पर एक कमरा किराए पर ले लिया | कमरे के आगे थोड़ी खुली छत थी | उसके सामने वाला मकान अग्रवाल   का था | अब तक पुष्पांजलि   दो बच्चों की माँ बन चुकी थी | घर के काम काज से फुर्सत पाकर शालिनी  (अग्रवाल  की पत्नि) तथा पुष्पांजलि   अपनी अपनी छत पर खड़े होकर थोड़ी बहुत बातें कर लेती थी | पुष्पांजलि   अड़ी-भीड़  में अग्रवाल  की दुकान से थोड़ा बहुत सामान उधार भी ले आती थी जिसका अग्रवाल  कभी तकाजा न करता था | एक अनजान आदमी को उधार दे देना पुष्पांजलि   के मन में अग्रवाल  के प्रति सम्मान बढ़ाता चला गया | वैसे अग्रवाल  किसी भी अनजान आदमी को, अगर वह भूखा है तो, आटा दाल दे देता था फिर पुष्पांजलि   तो उसके घर के सामने रहती थी अतः अधिक देने में भी कोई अड़चन न थी | 

1990 में पुष्पांजलि   अपने परिवार के साथ अग्रवाल  के मकान के साथ बने नए मकान में किराए पर रहने लगी | अब पुष्पांजलि   एवं शालिनी   का आपस में बातचीत करना आसान हो गया क्योंकि अब वे अपने अपने मकान के छज्जों पर खड़े होकर बातें कर सकती थी | उनके बीच अब कोई फासला नहीं रह गया था | धीरे धीरे इन दोनों की दोस्ती गाढ़ी होती गई और यह इतनी गाढ़ी हो गई कि शालिनी   ने अपने नए बनाए मकान जो गुड़गाँवा में था के गृह प्रवेश के मुहर्त पर पुष्पांजलि   को भी निमंत्रण दे दिया | शालिनी   द्वारा उसे इतना बड़ा सम्मान दिये जाने से वह बहुत खुश थी और उससे ज्यादा खुशी उसे तब हुई जब उसने अपनी सहेली का नया मकान देखा | इसके साथ ही पुष्पांजलि के मन में दबी अपने खुद के मकान की लालसा को हवा मिल गई |   

जब शालिनी ने अपना ज्यादा समय गुड़गाँवा बिताना शुरू कर दिया तो पुष्पांजलि   कुछ विचलित सी रहने लगी | जब भी शालिनी दिल्ली आती तो अधीरता से इंतजार करती पुष्पांजलि  उससे मिलने दौड़ी आती | वह शालिनी   के सामने बैठी घंटों अपने मन की व्यथा उड़ेलती रहती |     

हालाँकि अग्रवाल  को शालिनी   एवं पुष्पांजलि   के मेल मिलाप से कोई लेना देना न था परंतु पुष्पांजलि   के इतने दिनों के आने जाने से उसने इतना अन्दाजा अवश्य लगा लिया कि पुष्पांजलि   के चेहरे की आभा दिन प्रति दिन लुप्त होती जा रही है | अग्रवाल  को यह आभास हो गया कि पुष्पांजलि   के मन में कोई कसक है जिसके कारण उसका स्वास्थ्य गिरता जा रहा है | दिन प्रति दिन उसके बदलते रवैये से ऐसा महसूस होने लगा जैसे वह किसी डिप्रैशन का शिकार होती जा रही है | 

एक दिन शालिनी   ने अग्रवाल  को बताया कि पुष्पांजलि   का एक जमीन का प्लाट पालम विहार गुड़गाँवा में है | पुष्पांजलि   चाहती है कि उसकी चार दिवारी करा दी जाए | 

“तुम मुझे क्यों बता रही हो ?”,पूछा अग्रवाल  ने |

“उसका आदमी कुछ करने को तैयार नहीं है |”

“तो मैं क्या करूं ?”

“मैं जोर नहीं दे रही | अगर आप करा सको तो देख लो |” 

“अरे मुझे इससे क्या लेना देना | उसका आदमी है, लड़का है, वो कराएँ ये सब |” अग्रवाल  ने अपनी गर्दन झटकते हुए कहा," जान न पहचान तू मेरा मेहमान |” 

शालिनी   ने यह सोचते हुए कि उसका पति कहीं गुस्सा न हो जाए केवल इतना कहा, "देख लो अगर हो सके तो करा देना |”

इसके बाद बात आई गई हो गई | 

जैसे दबी आग कभी न कभी चिंगारी बन कर भड़क उठती है उसी प्रकार पुष्पांजलि   के दिल में दबी अपने मकान की लालसा ने उसे एक दिन फिर झकझोर कर रख दिया | वह ख्यालों में खो गई तथा सोचने लगी कि कैसे द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण गोकुल में रहने वाले ग्वाल-बालों के साथ खेल खाकर बड़े हुए थे | उनकी एक टोली थी जो बहुत नटखट भरे काम करती रहती थी | वे ग्वालिनों की गुलेल से मटकियाँ फोड़  देते थे | घरों से माखन चुरा कर खा लेते थे | सुबह से शाम तक वे खेत खलिहानों में गाएँ चराते रहते थे परंतु दुखियारों की मदद के लिये वे हमेशा तैयार रहते थे |  कृष्ण जी की उस टोली में सुदामा नाम का एक  ब्राम्हण का लड़का भी था | बचपन में बच्चों के बीच आपस में जाति, धर्म, वैभव, धन, दौलत इत्यादि का कोई भेद भाव नहीं होता | ज्यों ज्यों बच्चा बड़ा

होता जाता है तथा कुछ समझने लगता है त्यों त्यों ये विकार उसके मन में पनपने लगते हैं | धीरे धीरे वे सब अपनी अपनी गृहस्थी में उलझकर एक दूसरे को भूल जाते हैं | बड़े होकर श्री कृष्ण जी द्वारकधीश बन गए | वे अब एक समृध एवं शक्तिशाली राज्य के स्वामी बन चुके थे | परंतु उनका बचपन का मित्र सुदामा एक दरिद्र ब्राह्मण ही रह गया | जहाँ कृष्ण   जी के पास अथाह सम्पत्ति थी वहाँ सुदामा के घर खाने के लाले पड़  रहे थे | कृष्ण   जी एक भव्य महल में रहते थे परंतु सुदामा के पास सिर छुपाने को ढंग की एक झोंपड़ी भी न थी | कृष्ण   जी हीरे जवाहरातों से लदे रहते थे उधर सुदामा के पास तुलसी की माला खरीदने के पैसे भी न थे | 

 अपनी गरीबी एवं भूखे बिलखते बच्चों को देखकर सुदामा की पत्नि अपने पति से कई बार मिन्नत करती थी कि वे जाकर अपने बचपन के मित्र कृष्ण   से कुछ सहायता करने की गुजारिश करे परंतु सुदामा का अहम उनके आड़े आ जाता था | दूसरे सुदामा यह सोचकर कि उनका बचपन का साथी जो अब द्वारकाधीश है भला इस दरिद्र ब्राहम्ण को अब वह क्या पहचानेगा, नहीं जाता था | परंतु एक दिन सुदामा ने अपनी पत्नि के आगे हथियार डाल दिए तथा अपने मित्र के द्वार खटखटा दिए | सुदामा की आशाओं के विपरित कृष्ण   ने उसका भव्य स्वागत किया तथा मेहमान नवाजी में कोई कसर न छोड़ी | विदा करते समय राज  जी ने सुदामा को खूब धन धान्य भी दिया | 

सुदामा जब अपने घर वापिस आया तो अपनी टूटी फूटी झोंपड़ी के स्थान पर एक भव्य इमारत खड़ी देखकर दगं रह गया | वह बाहर खड़ा अभी सोच ही रहा था कि अन्दर जाए या न जाए कि उसकी पत्नि सुन्दर कपड़े पहने तथा कीमती गहनों से लदी बाहर आई | उसने आश्चर्य चकित अपने पति की तंद्रा भंग करते हुए अन्दर ले गई | इस प्रकार अपनी पत्नि की जिद के सामने सिर झुकाने से सुदामा एवं उसके परिवार को उनके जीवन का हर सुख प्राप्त हो गया |  

इतना सब सोचने के बाद पुष्पांजलि   थोड़ी ठिठकी | आखिर उसके यह सब सोचने का औचित्य क्या है | अब द्वापर युग नहीं है बल्कि कलियुग है | आज जो प्यार और अपनापन है वह केवल बनावटी है | अब लोग सिर्फ औपचारिक्ता ही निभाते हैं | जल, थल और मन आज सब प्रदूषित हैं | निस्वार्थ सेवा एवं त्याग की भावना रखने वाले लोग अब अपने तक ही सीमित रह गए हैं | फिर भला मेरे मन में बसे मेरे अपने मकान के सपने को इस युग में कौन पूरा करेगा | इन सब विचारों के बावजूद पुष्पांजलि   ने भगवान से मन ही मन प्रार्थना की कि हे भगवान अगर आप खुद नहीं आ सकते तो मुझे किसी ऐसे व्यक्ति का सहारा दिला दे जिससे मेरे मन की इच्छा पूर्ण हो जाए |  

वैसे पुष्पांजलि   को याद है कि उसने अपने पति राम सेवक  तिवारी से पुरजोर कोशिश की थी कि वह शालिनी   के पति अग्रवाल  से अपना मकान बनवाने की सलाह मशवरा करे | परंतु वह टस से मस न हुआ था | असल में राम सेवक  सीधा-साधा, भोला-भाला तथा अपने काम से काम रखने वाला व्यक्ति था | उसे बस अपनी नौकरी की फिक्र रहती थी | बाकी किसी चीज या काम की परवाह न थी |  उसे पगार भी अच्छी खासी मिलती थी जो हर महीने वह लाकर अपनी पत्नि को सौंप कर निश्चिंत हो जाता था | उसके बाद उसे रोटी, कपड़ा और मकान, जो आज के युग की पुकार है, और किसी वस्तु की कोई चिंता न थी | वैसे अग्रवाल  और राम सेवक  के बीच राम-राम, श्याम-श्याम भी न के बराबर थी | इसके विपरित पुष्पांजलि   उसके घर आते जाते अग्रवाल  से नमस्ते कर ही लिया करती थी | 

यहाँ एक पत्नि अपने पति को आत्म समर्पण कराने में नाकामयाब रही | उसने अपने पति की जिद के आगे घुटने टेक दिए | परंतु अपने मकसद में कामयाब होने हेतु दृड़ता से खुद खड़े होने की मन में ठान ली | अतः उसने फैसला कर लिया कि वह खुद ही अग्रवाल  के सामने अपना प्रस्ताव रखेगी | वैसे भी वर्तमान युग के परिवेश में औरतें ही अधिक उन्नति कर रही हैं | वे हर एक महकमें में पुरूषों को पछाड़  रही हैं |

एक दिन धैर्य करके पुष्पांजलि   ने शालिनी   के सामने अग्रवाल  से कहा था, "भाई साहब मेरे पास 80000 रूपये हैं | आप से विनती है कि हमारे पालम विहार वाले प्लाट की चार दिवारी तथा एक कमरा बनवा दो |  क्योंकि आप वहाँ के बारे में सब जानते हो |”

अग्रवाल  असमंजस से, “मैं बनवा दूँ ?”

“हाँ भाई साहब (हाथ जोड़ते हुए) आपकी अति कृपा होगी |”

“परंतु आपके पति यह काम क्यों नहीं करवाते ?”

“भाई साहब मैं उनको अच्छी तरह जानती हूँ | उनके बसका यह काम नहीं है |”

“मैं उनको सलाह देता रहूंगा | वे उसी तरह देखभाल कर लेंगे |”

“उनसे कोई उम्मीद नहीं है | देखभाल मैं कर लिया करूंगी | “

“क्या आप वहाँ रोज जा सकोगी ?”

“जाना ही पड़ेगा |”

“परंतु आप तो बिमार सी रहती हैं ?”

“देखा जाएगा | कोशिश तो करूंगी |”

 अग्रवाल  ने पुष्पांजलि   की जबान, उसके कहने के लहजे तथा चेहरे की भाव भंगिमा से अन्दाजा लगा लिया कि अपना मकान बनाने का वह दृड़ निश्चय कर चुकी है | फिर अग्रवाल  ने यह भी विचार लगाया, जैसे उसे पहले से ही शंका थी, कि पुष्पांजलि   केवल अपने स्वयं के मकान के लिये इतनी लालायित रहती थी कि उसे अपने शरीर की चिंता न रही और वह दिन प्रति दिन कमजोर होकर अस्वस्थ सी दिखने लगी है |  अतः अग्रवाल  ने यही सोचकर कि शायद मकान बनने की खुशी पुष्पांजलि   के स्वस्थ लाभ का कारण हो सकती है उसकी सहायता करने की ठान ली | फिर उसका (अग्रवाल  का) इसमें नुकसान भी क्या है, क्योंकि माया पुष्पांजलि   की है और वह ठाली है |  पंडितों की केवल निस्वार्थ सेवा हो जाए तो इससे बडा पुन्य क्या होगा यह सोचकर अग्रवाल  ने पुष्पांजलि   के मकान का शुभारम्भ कराने की हामी भर दी | 

पुष्पांजलि   के प्लाट पर काम शुरू हो गया | नींव भर दी गई | एक कमरे की दिवारें भी खड़ी हो गई | दिवारों के खड़े होते होते पुष्पांजलि   के स्वास्थ्य में भी आश्चर्य जनक परिवर्तन आता गया | वह अब एकदम स्वस्थ दिखती थी | इस दौरान अग्रवाल  ने पुष्पांजलि   से उसके घर की आमदनी का पूरा पूरा ब्यौरा ले लिया था | उनके बारे में जानकर अग्रवाल  को अचरज हुआ कि इतनी आमदनी होते हुए भी वे अभी तक अपना मकान क्यों नहीं बनवा सके | शायद उनके यहाँ पैसे को खर्च करने की प्लानिंग की कमी थी | अग्रवाल  ने हर पहलू से पूरा जायजा लेने के बाद तथा पुष्पांजलि   के व्यवहार, उसका पक्का इरादा तथा उसके चेहरे पर लौटती कांता को देखते हुए उसके सामने एक प्रस्ताव रख दिया | 

“क्या आप हर महीने 15000 रूपये दे सकती हैं ?”

“क्यों क्या बात है ?”

“आप का मकान पूरा बन जाएगा |”

“क्या ! सचमुच !”, जैसे पुष्पांजलि   को अपने कानों पर विशवास न हो रहा हो | 

“हाँ मैं सत्य कह रहा हूँ |” 

“परंतु इतना पैसा ..........|”

“वह मेरे उपर छोड़ो  |”

जैसे अंधे को दो आंखे मिल गई हों, पुष्पांजलि   फटाक से बोली, “हाँ मैं 15000 रूपये हर महीने दे सकती हूं |”

अग्रवाल  ने कर्ज पर पैसा ले लिया | पुष्पांजलि   प्रत्येक दिन दुख-सुख झेलती देहली से पालम विहार बन रहे अपने मकान की देखभाल के लिये आती रही | उसकी सेहत पर इसका अनुकूल असर पड़ा तथा वह स्वस्थ हो गई | राम सेवक  तो कभी कभार  मकान देखने आ जाता था परंतु उनके लड़के विनीत ने तो मौके पर कभी दर्शन दिये ही नहीं | हाँ पहली मंजिल की छत डलने के समय पूरा परिवार जरूर आया था | 

पहली मंजिल की छत डलने पर पुष्पांजलि   इतनी भाव-विभोर हो उठी थी कि आंखो में खुशी के आंसू लिए वह चुपके से आई तथा अग्रवाल  के चरण छू लिए | एक पंडिताईन द्वारा उसके चरण छूने से अग्रवाल  को अपने मन में बहुत पश्चाताप हुआ | परंतु पुष्पांजलि   के वचन सुनकर कि अपने जयेष्ठ(जेठ) के चरण छूने में कोई हर्ज नहीं है, अग्रवाल  को कुछ सांत्वना मिली | उस दिन पुष्पांजलि   ने अपने मन में भगवान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि हे ईशवर आज भी आप की कृपा से इस संसार में ऐसे लोग हैं जिनके दिलों में दूसरों के प्रति प्यार और अपनापन है | वे औपचारिकता नहीं निभाते परंतु उनके मन में प्रेम की मन्दाकिनी बहती है | जिसमें डुबोकर वे अपने साथ साथ दूसरों को भी पाक साफ कर लेते हैं | वे निस्वार्थ और त्याग की भावना दिखाते हुए देवता का दर्जा पा जाते हैं |      

 आज से यही दर्जा मेरे मन में जीजी शालिनी   के पति अग्रवाल का हो गया है | 

पुष्पांजलि   अपने बगीचे में बैठी इन्हीं सभी विचारों में मग्न थी कि उसकी लड़की स्कूल से आकर कब उसके सामने खड़ी हो गई उसे पता ही न चला | लड़की के पुकारने से जब पुष्पांजलि   की तंद्रा टूटी तो लड़की ने पूछा, "कहाँ सपनों में खोई थी मम्मी जी |"

अलसाई सी खोई खोई सी पुष्पांजलि उठते हुए बोली, “हाँ बेटी सपने में एक महल सपनों का कैसे पूरा हुआ वही ताना बाना बुन रही थी | “

“मम्मी जी तो क्या वह सपनों का महल पूरा हो गया ?”

हाँ बेटी, तेरे ताऊ जी का दिया (अन्दर प्रवेश करते हुए तथा दोनों जोर का ठहाका लगाते हुए) यही तो है मेरा “एक महल सपनों का”|

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