Sunday, October 18, 2020

लघु कहानी (श्रवण बाप)

 श्रवण बाप

गुडगावां, हरियाणा प्रदेश का दिल्ली से सटा इलाका, किसानों के आगमन के साथ साथ खरीदारों की भारी भीड़ से पूरे दिन गुले गुलजार रहता था | सुबह भौर से ही आसपास के गावों से गुडगावां अनाज मंडी की और जाती बैल गाड़ियों के पहियों की गड़गडाहट, बैलों के गले में बंधी घंटियों की टनटनाहट तथा किसानों की हांकते हुए बैलों की गुनगुनाहट मन को मोहित कर लेती थी | 

गुडगावां के आसपास के गाँव से किसान अपना अनाज, फल तथा सब्जियां लाकर गाड़ियों को खाली करके, मंडी के बीच लम्बे चौड़े फर्श पर, ढेरियों में तबदील कर देते थे | जब तक बाजार के आढती अपनी पूजा अर्चना से निवृत हो अपनी अपनी गद्दियों पर विराजमान नहीं हो जाते थे तब तक किसान लोग अपने बैलों को चारा पानी देकर खुद भी सुस्ता लेते थे | इतने में ग्राहकों का आवागमन शुरू हो जाता था | 

सामान की ढेरियों की बोली लगती एक रूपया, एक रूपया...पांच रूपये, पांच रूपये......दस रूपये और जिसकी सबसे ज्यादा बोली होती माल उसका हो जाता | इसके बाद तराजुओं से माल की तुलाई शुरू हो जाती | यह अधिकतर पांच सेर की होती थी जिसे धड़ी कहते थे | याद रखने के लिए तौलने वाला, एकम, एकम..दोकम, दोकम..तीनकम, तीनकम....इत्यादी गुनगुनाता रहता था | तुलाई के बाद जब तक ढुलाई होती तब आढती लेने देने का हिसाब किताब करते और दोपहर तक मंडी का लम्बा चौड़ा मैदान साफ़ हो जाता |

इसी मंडी में रूप नारायण नाम का एक प्रसिद्द आड़ती था | उसके तीन पुत्र थे राम प्रसाद, शिव प्रसाद और गोपाल प्रसाद | तीनों पुत्र अपने व्यवहार में भी अपने नाम के अनुरूप ही थे | राम प्रसाद राम चन्द्र जी की तरह पक्का पितृ भक्त था, शिव प्रसाद शिव जी की तरह बिल्कुल भोला भंडारी था तो गोपाल प्रसाद श्री कृष्ण जी की तरह बहुत चंचल प्रवर्ति का लड़का था | 

रूप नारायण के ससुर मुंशी राम का सदर बाजार में एक जनरल स्टोर था | उसका काम बहुत अच्छा चल रहा था | उसके पास सुख सुविधा का हर सामान मौजूद था परन्तु उसके कोई संतान नहीं थी जो उनके बाद उनका कारोबार संभाल सकता | अपनी इकलौती बेटी की शादी करने के बाद अकेलेपन का एहसास करते करते मुंशी राम स्वर्ग सिधार गए | मुंशी राम की पत्नी अनारो बहुत दृड़ निश्चय एवम निडर महिला थी | अपने पति की मृत्यु के बाद उसने उसका कारोबार बिखरने नहीं दिया और बहुत अच्छे ढंग से चलाया | 

धीरे धीरे अनारो की बढ़ती उम्र उस पर हावी होने लगी | वह अब इतनी मेहनत करने में असमर्थ होती जा रही थी जितनी एक जनरल स्टोर को सुचारू रूप से चलाने के लिए चाहिए थी | इसलिए अनारो ने अपने बुढापे का सहारा ढूँढने की कवायद शुरू कर दी | अनारो की खोज अपने धेवते अर्थात अपनी लड़की के मंझले लड़के शिव प्रसाद पर जाकर खतम हो गई | अनारो ने शिव प्रसाद को गोद ले लिया | 

अनारो के पति को गुजरे हुए २० वर्ष हो चुके थे | वह तभी से अकेली रह रही थी | जनरल स्टोर से उसे फुर्सत नहीं मिलती थी इसलिए घर की देखभाल न होते देख उसने अपना आशियाना बेच दिया था तथा जनरल स्टोर के एक हिस्से में ही अपने खाने-पीने, रहने-सहने, नहाने धोने तथा सोने का प्रबंध कर लिया था | अब उसका जनरल स्टोर ही उसका संसार रह गया था | 

शिव प्रसाद अपनी नानी जी के काम में सहारा तो बन गया परन्तु रहने की उचित व्यवस्था न होने के कारण वह गुडगावां और सदर बाजार के बीच लुढकता पत्थर बन गया था क्योंकि कुंवारा होने की वजह से उसने अपने लिए सदर में किराए का मकान लेना उचित नहीं समझा था | शिव प्रसाद की परेशानियों को भांपकर उसके घर वालों ने एक सुयोग्य कन्या देखकर जल्दी ही उसकी शादी कर दी | शादी के बाद शिव प्रसाद अपनी पत्नी सहित सदर बाजार में एक किराए के मकान में रहने लगा | 

अब शिव प्रसाद को अपना काम बढाने के लिए काफी समय मिलने लगा | वह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा | समय के साथ उसके घर दो रूपों में लक्ष्मी बढ़ने लगी | एक तरफ जहां उसके पास धन लक्ष्मी बढ़ रही थी वहीं उसके परिवार में लड़की रूपी लक्ष्मी की भी बढोतरी हो रही थी | मतलब यह कि शिव प्रसाद ५ वर्ष के अंदर ही तीन देवियों का पिता बन चुका था | शिव प्रसाद और उसकी पत्नी ने हर प्रकार की मन्नतें माँगी, डाक्टरों को दिखाया, नामी ग्रामी दाईयों के बताने के अनुसार आचरण किया परन्तु ईश्वर के आगे किसी की न चली | अनारो ने भी हताश होकर अपने भाग्य को कोसना शुरू कर दिया कि न तो उसने खुद अपने लड़के का मुंह देखा न अब अपने पोते का मुहं देख पा रही हूँ | वह अंदर ही अंदर घुलने लगी थी | 

भगवान की करनी की थाह कोई नहीं जानता कि किस के पिटारे में कब क्या भर दे | शायद अनारो देवी को अपनी खुद की वंश बेल को फलते फूलते देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं था | वह अपने पोते को देखने की अभिलाषा को मन में लिए ही स्वर्ग सिधार गई | 

परमपिता की अनुकम्पा से अनारो देवी की मृत्यू के एक वर्ष बाद शिव प्रसाद को पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गई | नवजात दीपक का आगमन बड़ी धूमधाम से मनाया गया | शिव प्रसाद तीन बहनों में एक भाई पर सब्र न कर सका | वह अपना परिवार बढाता रहा और इस प्रकार वह पांच लड़कियों और एक लड़के का बाप बन गया |

पांच दूसरों की अमानतों के बीच अकेला कुल का चिराग होने की वजह से ‘दीपक’ को हाथों पर रखा जाने लगा | उसकी हर छोटी बड़ी ख्वाहिश तत्काल पूरी कर दी जाती थी | घर के बाकी सात सदस्य सारा दिन दीपक की सेवा सुश्रा में लगे रहते थे | स्कूल में जाने लगा तो कोई उसके जूते पालिस करता, कोई कपड़े पहनाता, कोई नाश्ता लगाता, कोई बस्ता तैयार करता वह तो बस टूकुर टूकुर सब को काम करते देखता ही रहता | यह देख वह घर के दूसरे सदस्यों अर्थात अपनी बहनों से एक मालिक और नौकर जैसा व्यवहार करने लगा | धीरे धीरे, एक तानाशाह की सोच उसकी आदत में शुमार हो गई | अब वह घर में आए मेहमानों के साथ खुद भी एक मेहमान सा दिखाई पड़ता था | 

ऐसे मौज मस्ती, लाड-प्यार एवम आराम परस्ती के माहौल में वह अधिक पढ़ लिख न सका फिर भी गनीमत यह रही कि घर के लाड़ले ने कोई बुरी लत मसलन जुआ, शराब, बीड़ी. सिगरेट, गुटखा इत्यादी तो नहीं पाली अपितु उसने अपने माँ-बाप की सेवा करने की बजाय उनसे अपनी सेवा कराने की सबसे बुरी लत पाल ली | बड़े होने के साथ साथ वह अपने जन्म दाताओं को हीन भावना से देखने लगा | उसके इस आचरण पर उसके माँ-बाप ने कभी कोई प्रतिकूल प्रक्रिया जाहिर नहीं की जिससे वह उन पर दिन प्रतिदिन हावी होता चला गया | 

जवान होने पर दीपक की शादी कर दी गई | शुरू शुरू मे नई दुल्हन सुनीता ने अपने सास-ससुर की बहुत सेवा की | अपनी ननदों से भी उसका व्यवहार अपनी सगी बहनों की तरह रहा | परन्तु पति की संगत ने उसे बिगाड़ने में देर न लगाई और उसने भी अपने पति के पद चिन्हों पर चलना शुरू कर दिया | अब शिव प्रसाद, अरूणा तथा पाँचों लडकियां दीपक और सुनीता की सेवा में लगे रहते और वे दोनों मौज मस्ती करते रहते | 

दीपक जनरल स्टोर के काम को एक निम्न कोटि का काम समझता था इसलिए इसकी गद्दी सम्भालने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी | वह तो उच्च कोटि का काम करने की ख्वाहिश रखता था जिसमें उसे मेहनत न करनी पड़े और बैठे बिठाए अच्छी खासी कमाई हो जाए | 

दीपक का एक साढू था, संदीप, जिसके पास घी, तेल, नमक, आटा, बिस्कुट इत्यादि की बहुत सी एजेंसियां थी | जब कभी दीपक अपने साढू से मिलता वह दीपक के सामने फूली फूली हांकता और दिखाता कि उसके साथ सब कुछ ठीक चल रहा है तथा उसका काम तो केवल बैठकर एवम आराम करते हुए देखभाल करना है | सारा मेहनत का काम उसके नौकर ही करते हैं |   

अपने साढू की बात सुनकर दीपक बहुत प्रभावित हो जाता और मन ही मन सोचता कि काश उसे भी ऐसा कुछ करने को मिल जाता तो उसके भाग्य जाग जाते | दीपक का साढू संदीन बड़ा घाघ था | उसने दीपक की दुखती रग को पहचान लिया | संदीन की दो तीन एजेंसियां कुछ लाभ का सौदा नजर नहीं आ रही थी | उन पर उसकी लागत भी बहुत थी | इन एजेंसियों की वस्तुओं का नाम तो बहुत प्रचलित था बिकती भी बहुत थी परन्तु मेहनत, ऊपरी खर्च तथा लागत को मिलाकर मुनाफ़ा शिफर ही आता था | अर्थात नाम बड़े और दर्शन छोटे |

संदीन इन एजेंसियों से छुटकारा पाना चाहता था | जैसे गर्म लोहे को चोट मारने से उसे अपने तरीके से ढालने में अधिक जोर नहीं लगाना पड़ता उसी प्रकार दीपक की भावनाओं का फ़ायदा उठाने की गरज से संदीन ने उसके सामने प्रस्ताव रखा, “दीपक मेरे से सारी एजेंसियों का काम ठीक से संभल नहीं रहा | मैं दो तीन एजेंसियां छोडने का विचार कर रहा हूँ |”

संदीन की बात सुनकर दीपक विचारों में खो गया | सही समय और स्थिति को भांप संदीन बोला, “अगर चाहो तो उन एजेंसियों को आप ले लो |”

संदीन की बात सुनकर दीपक के मन में लड्डू फूटने लगे | उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था कि इतनी जल्दी उसे जनरल स्टोर से छुटकारा तथा मन की मुराद मिल जाएगी | परन्तु वह यह समझ कर सहम गया कि उसके जनरल स्टोर का क्या होगा | दीपक की मनोभावना को समझ कर संदीन ने एक और वार किया, “अरे भाई अपने जनरल स्टोर में सुबह से शाम तक खटते रहोगे | न ढंग का पहन पाओगे न कहीं मन के मुताबिक़ आ जा सकोगे परन्तु एजेंसियों की तो सप्लाई होती है अगर एक दिन न गई तो दूसरे दिन चली जाएगी | ग्राहक तो टूटेगा नहीं |”

दीपक असमंजसता में धीरे से बोला, “परन्तु मैं अकेला कैसे कर पाऊंगा ?”

संदीन जैसे जानता था कि दीपक यह प्रश्न करेगा उसने बिना कोई देर लगाए फट से रास्ता सुझाया, “अपने पापा को मनाना ही पड़ेगा | वैसे इसमें तुम्हें दिक्कत नहीं आएगी | क्योंकि तुम्हारे पापा तुम्हारी कोई बात नहीं टालते |”

संदीन का सुझाव सुनकर दीपक का हौसला बढ़ गया | उसने अपने पापा को सदियों पुराना बखूबी चलता कारोबार छोड़कर अपने साढू की एजेंसियां लेने की मंशा से कहा, “पापा जी आपके इस काम में मेहनत ज्यादा और मुनाफ़ा बहुत कम है |”            

“तूने कैसे जाना ?”

“अपने घर की हालत देख कर |”

“क्या मतलब ?”

“हमारे पास इतना पैसा भी नहीं है कि एक चार पहियों की गाड़ी भी खरीद सकें | बस खाने पीने का गुजारा तो किसी तरह चल रहा है |”

“क्या तुम्हें यह नहीं दीखता कि इसी धंधे की बदौलत मैनें छः बच्चों की शादी कर ली, अपना घर बना लिया, अच्छा खा पी रहे हैं | तुम्हें और क्या चाहिए ?”

दीपक अपनी बात पर जोर देकर बोला, “हाँ, यही तो मैं समझाना चाह रहा हूँ कि सुबह से रात तक मेहनत करने पर भी हम केवल खाने पीने लायक ही रह जाते हैं |”

“तो तू क्या चाहता है ?”

“मैं चाहता हूँ कि हम भी संदीन की तरह का कोई काम क्यों नहीं कर लेते ?”

शिव प्रसाद ने समझाना चाहा, “बेटा एक तो हमारे लिए वह नया काम होगा दूसरे उसके लिए पैसा भी बहुत लगाना पड़ेगा और तीसरे वह स्थान हमारे घर से बहुत दूर पड़ेगा |”

दीपक तो हसीन सपने संजोए था अत: बोला, “पापा जी हम वहीं रहकर अपना काम शुरू करेंगे |”

“वह कैसे ?”

“पापा जी गुडगांवा हमारा अपना मकान बाजार में है | उसमें नीचे अपना काम करेंगे और ऊपर रिहाईस रहेगी |”

“फिर यहाँ के मकान का क्या करेंगे ?”

“बेच देंगे |”

दीपक ने तो ऐसे कह दिया जैसे अब उस मकान की कोई अहमियत नहीं रह गई थी परन्तु शिव कुमार अपने लाडले की बात सुनकर एक बार को सुन्न हो गया | उसने कितने अरमानों से वह मकान बनवाया था और उसके लाड़ले लड़के ने कितनी आसानी से उसे बेचने को कह दिया था | अपने पिता जी को चुप देख दीपक ने झकझोरा, “क्या हुआ पापा जी ?”

शिव कुमार अपने होश मे आकर, “तुमने क्या कहा इसे बेच देंगे ?”

“हाँ पापा जी जब हम यहाँ रहेंगे ही नहीं तो मकान का क्या करेंगे ?”

“यह किराए पर भी तो दिया जा सकता है ?”

“आपके विचार दुरूस्त हैं परन्तु गुडगावां का मकान ठीक कराने और एजेंसी का माल भरने के लिए पैसा चाहिएगा वह कहाँ से आएगा ?”

“तेरी बात ठीक है परन्तु........?”

अपने पापा जी की बात पूरी न सुनकर दीपक ने टोका, “पापा जी इस मकान के लिए अपना मोह त्याग दो क्योंकि आने वाली तरक्की के लिए कार्यरत होना ही हितकर है | मकान तो भविष्य में और भी खरीदे जा सकते हैं |” 

“अच्छा इस दुकान का क्या होगा ?”, पूछा शिव प्रसाद ने |

“इसका भाग्य भी मकान जैसा ही बनेगा परन्तु अभी इसमें देर लगेगी |”

शिव प्रसाद ने दिल पर पत्थर रख कर अपने लाड़ले के सामने घुटने टेक दिए | चलती दुकान बंद कर दी गई, मकान बेच दिया गया तथा परिवार के सभी सदस्य गुडगांवा जाकर रहने लगे | संदीन ने तीन एजेंसियों का कारोबार दीपक को सौंप दिया | शिव प्रसाद की सारी जमा पूंजी एवम मकान का पूरा पैसा गुडगावां के मकान को रहने लायक बनाने में तथा एजेंसियों के माल भरने पर ही खर्च हो गया | जो थोड़ा बहुत पैसा बचा था वह सबके सामने उजागर हो गया था | 

एजेंसियों का काम शुरू हुआ तो दीपक के होश फाकता हो गए | सदर बाजार के जनरल स्टोर पर तो वह यदा कदा  ही जाता था और कभी जाता भी था तो बना ठना महाराजा की तरह गद्दी पर बैठ कर नौकरों को हरीदेता रहता था | परन्तु यहाँ तो गुडगावां के आसपास के इलाकों से उसे माल का आर्डर लाना, सप्लाई का सामान भिजवाना फिर उगाही के लिए जाना इत्यादि बहुत से काम निभाने पड़ते थे | हालाँकि शिव प्रसाद कहीं नहीं जाता था परन्तु उसे भी ठीये पर दिनभर के लिए बंध कर बैठना पड़ता था | दीपक के सारे सपने हवा बन कर जल्दी ही उड़ने लगे | जिसने सारी जिंदगी मौज मस्ती में गुजार दी हो वह कड़ी मेहनत का बोझ कैसे सहन कर सकता था | थोड़े दिनों में ही दीपक को दिन में तारे नजर आने लगे और वह पस्त होकर अपने पापा से बोला, “पापा जी नाहक ही आपने सदर का जनरल स्टोर बंद किया |”

शिव प्रसाद अपना सब कुछ गवांकर अपने ऊपर लगे इल्जाम को भांपकर बहुत आहत हुआ | उसने दीपक को बताया, “बेटा ऐसा करने के लिए तुमने ही तो मुझे मजबूर किया था |”

“पापा जी ठीक है इन्होने कहा था परन्तु आप तो बड़े थे | आपको तो सोचना चाहिए था कि ऐसे अच्छे चलते काम को बंद करना बुद्धिमानी नहीं होगी” ,पीछे खड़ी हुई दीपक की पत्नी सुनीता ने जवाब दिया |  

“बेटा मेरी तो उम्र हो गई है अगर दीपक तरक्की करना चाहता था तो इसमें मेरा क्या कसूर रहा ?”

सुनीता अपना माथा ठोककर, “कसूर तो किसी का नहीं मेरे भाग्य का है |”  

“इसमें तुम्हारा भाग्य कहाँ से बीच में आ गया जो कोस रही हो ?”

“और क्या करूँ | अब हमारा क्या होगा ?”

“सदर की दुकान तो अभी बेची नहीं है ?”

शिव प्रसाद के मुहं से सदर की दुकान का नाम सुनते ही सुनीता की बांछे खिल गई | उसे अपनी चाल कामयाब होती नजर आई | घर की पूरी धन राशी के साथ साथ अपने सास ससुर से अपना पिंड छुडाने का रास्ता साफ़ होता दिखाई दिया | वैसे तो उसकी बाछें खिल गई परन्तु अपनी भावनाओं को दबाकर उसने पूछा, “तो पापा जी  |”

“दोबारा उसे शुरू कर देते हैं |”

“परन्तु पापा जी घर तो हमने बेच दिया है ?”

“फिलहाल किराए पर ले लिया जाएगा |”

अपने मन की दबी इच्छओं को अमली जामा पहनाने का प्रयास करते हुए सुनीता बोली, “इतने बड़े परिवार के लिए मकान भी तो बड़ा चाहिएगा |”

“सुनीता के इरादों से अनभिज्ञ शिव प्रसाद ने उसका समर्थन किया, “हाँ वह तो है |”

शिव प्रसाद की भल्मान्सियत का फ़ायदा उठाकर सुनीता तपाक से बोली, “पापा जी हम ऐसा करेंगे |”

“कैसा ?”

मन में वर्षों से दबी लालसा को सुनीता ने बाहर निकालने में कोई देर न लगाई, “फिलहाल आप और मम्मी जी यहीं रहना | हम सदर जाकर छोटा सा मकान किराए पर ले लेंगे | जब दुकान का काम जम जाएगा तो बड़ा मकान ले लेंगे तब आप भी वहाँ आ जाना |”

सुनीता के मन में छुपी दुर्भावना को न समझ शिव प्रसाद ने हामी भरते हुए कहा, “हाँ यह ठीक रहेगा |”

एजेंसियों का काम बंद कर दिया गया | शिव प्रसाद और अरूणा को छोड़ दीपक का पूरा परिवार सदर जाने के लिए अपना बोरिया बिस्तर बाँध कर तैयार हो गया | शिव प्रसाद जनरल स्टोर तीस साल से चला रहा था | उसे पूरा मालूम था कि स्टोर को दोबारा शुरू करने में कितनी लागत लगेगी | उसी अनुसार उसने दीपक को रकम थमाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, “लो इनसे जनरल स्टोर के लिए माल खरीद लेना |”

दीपक अभी रकम पकड़ना ही चाहता था कि सुनीता ने जल्दी से अपना हाथ बढ़ाकर उन्हें पकड़ लिया और पूछा, “ये कितने है पापा जी ?”

“दस लाख |”

“बस दस लाख ?”

“हाँ बस दस लाख |”

अपने सपनों में अडंगा लगते देख सुनीता ने बिना किसी हिचकिचाहट के पूछा, “परन्तु आपके पास तो बीस लाख रूपये हैं ?”

“हाँ हैं, तो क्या ?”

सुनीता अपना हाथ बढ़ाकर बोली, “वे भी हमें दे दो |”

“क्यों ?”

“आप उनका क्या करोगे ?”

“क्या हमें अपने खर्चे के लिए पैसा नहीं चाहिएगा ?”

“खाने पीने की भरपाई हम करते रहेंगे |”

“खाने पीने के अलावा और भी बहुत से खर्चे होते हैं जैसे लड़कियों के तीज त्यौहारों का खर्चा, दवाईयों का खर्चा और घुमने फिरने का खर्चा इत्यादि |”

“लड़कियों के लेन देन के खर्च एवम अपनी दवाई की चिंता आप क्यों करते हैं वह हम करेंगे | हाँ घुमने फिरने का फिजूल खर्चा हम बर्दास्त नहीं करेंगे |”      

शिव प्रसाद ने अपनी पुत्र वधू से अधिक जबान लड़ाना ठीक न समझ अपने पुत्र दीपक की तरफ मुखातिब होकर बोला, “दीपक तू चुप क्यों खड़ा है, अपनी बहु को समझा न |”

“मैं उसे क्या समझाऊँ पापा जी, समझ तो आप नहीं रहे |”

दीपक के कहे शब्दों से साफ़ जाहिर था कि दीपक और सुनीता की, शिव प्रसाद और अरूणा से पूरा पैसा लेकर, अपना पिंड छुडाने की मिली भगत थी | वे उन्हें कंगाल छोड़कर सदर जाकर अलग बस जाना चाहते थे | शिव प्रसाद अपने बेटे के मुख से ऐसे शब्द सुनकर स्तब्ध रह गया और पूछा, “तेरा क्या मतलब है ?”

“मतलब साफ़ है कि आपको हम पर भरोसा नहीं है |” 

दीपक की कही शिव प्रसाद को अंदर तक आहत कर गई | उसने अपना माथा पकड़ कर पूछा, “तू यह क्या कह रहा है दीपक ?”

दीपक तो मुंह फेरकर खड़ा हो गया परंतु सुनीता ने आगे बढ़कर प्रश्न किया, “आप भरोसे की बात कह रहे हैं तो हम आप पर भरोसा कैसे कर लें की आप ये रूपया बेफिजूल नहीं उड़ाओगे |”

”तुम ऐसा किस बिना पर कह रही हो ?”

”थोड़े दिनों पहले आपकी लड़की सरोज आपको 35000/- रूपये देने आई थी | हमें तो पता नहीं की आपने यह रकम उसे कब, क्यों और कितनी दी थी |”

”उसे जरूरत थी तो मैंने दे दिए थे |”

”हमें भी तो अब जरूरत है |”

”तुम्हारी जरूरत के अनुसार तुम्हें भी दे तो दिए हैं |”

”नहीं हमें सारे रूपये दो वरना पता नहीं तुम कहाँ कहाँ लुटा दोगे |”

अपनी पुत्र वधू को अपने ससुर के सामने बेधड़क बोलते देख अरूणा को नागवार गुजरा वह आगे बढ़ी और बहू के सामने खुद मोर्चा संभाल कर तैश में बोली, “बदतमीज लुटाती तो तू है अपनों पर |”

”आप ये कैसे कह रही हो, मैंने ऐसा कब क्या कर दिया?”

”जब धैर्य का कुआं पूजन हुआ था तो तेरी मौसियां उसके लिए लाई तो धेले का भी नहीं और तुमने उन्हें साड़ियाँ, बच्चों के कपड़े और भाजी भर भर दे दी थी |”

”तो क्या उन्हे भाजी न देकर खाली हाथ भेज देती ?”

”देनी तो थी परंतु तुम्हारी तरह लुटाकर नहीं |”

सुनीता तिलमिलाकर, ”मम्मी जी आप यह बेकार का इलज़ाम लगा रही हो |”

अरूणा आग बबूला हो अपना आपा भूल गई और उसके मुंह से गाली निकलते निकलते रह गई | वह चिल्लाई, ”बाप की....तू क्यों ज्यादा जबान चला रही है | बाप बेटा आपस में सुलट लेंगे |”

”ये सुलटते नही तभी तो मुझे जुबान चलानी पड़ रही है |”

”तुझे काहे की चिंता है जो इतनी बेशर्मी पर उतर आई है कि सारी लिहाज शर्म ही ताक पर रख दी ?”

”हर माँ की तरह मुझे अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है |”

”चिंता करने से ही काम नहीं चलता और न ही दूसरे के पैसों पर आँख गड़ाने से, कुछ मेहनत करो जैसी हमने की थी |”

धीरे धीरे पैसे के पीछे सास बहू में तकरार इतनी बढ़ गई कि दोनों ने आपस में बोलना छोड़ दिया | बहू ने अपने ससुर को भी नहीं बक्सा और यहाँ तक कह दिया, ”बूढ़े इन पैसों को तू अपनी अर्थी के साथ ले जाना |”

शिव प्रसाद के पोता पोतियों ने भी अपने दादा दादी से किनारा कर लिया या उनसे करवा दिया गया | सुनीता ने सास ससुर का चाय, पानी, खाना, पीना, कपड़े इत्यादि धोना बंद कर दिया | दीपक ने अपनी पत्नी के साथ अपने बूढ़े माँ बाप से पिंड छुड़ाने का अच्छा अवसर पा लिया था | सास बहू की आपसी लड़ाई का सहारा लेकर वह केवल अपने परिवार के साथ सदर जाकर बस गया |

जैसे शुरू शुरू में गुम चोट का पता नहीं चलता है परंतु दो चार दिनों में ही वह इतनी दुखने लगती है कि उसके दर्द को सहन करना मुश्किल हो जाता है उसी प्रकार थोड़े दिन तो शिव प्रसाद ने अपने लाडले को बिना देखे गुजार लिए परंतु धीरे धीरे उसके मन में दीपक के प्रति मोह पनपने लगा | और मोह की भावना इतनी प्रबल हो गई कि वह अपने ऊपर दीपक एवं सुनीता द्वारा लगाए गए लांछनों एवं घर्णात्मक रवैये को दर किनार करके उनसे मिलने को तड़पने लगा |

जैसे हर मायनों में समर्थ होते हुए भी एक भौंरा अगर कमल के फूल में बंद हो जाता है तो भी मोह वश वह कमल के फूलों की पंखुड़ियों को चीर कर बाहर निकलने की कोशिश नहीं करता और फूल को नुकसान पहूंचाने की बजाय अंदर ही प्राण त्यागना बेहतर समझता है उसी प्रकार शिव प्रसाद भी अपने बेटे बहू के द्वारा तिरस्कार किए जाने के बावजूद चाहकर भी एवं जीवन को अकेले सुचारू रूप से चलाने में समर्थ होते हुए भी अपने पुत्र के प्रति मोह का त्याग न कर सका |

शिव प्रसाद यह बखूबी जानता था कि जनरल स्टोर जो सुबह से रात तक खुलता है उसमें कितनी मेहनत करनी पड़ती है | एक अकेले व्यक्ति को इसे चला पाना असंभव सा हो जाता है | यही सोचकर उसने अपने लड़के की सहायता करने की ठान ली | अपने गिरते स्वास्थय तथा बढ़ती उम्र की परवाह न करते हुए शिव प्रसाद रोजाना भौर सवेरे उठकर, तीन बसों को बदल कर, दो घंटे का सफर तय करके गुड्गांवा से सदर जाने लगा |

अपने ससुर को बिना बुलाए मेहमान की तरह जान सुनीता की बौहे चढ़ गई | शिव प्रसाद की भावनाओं की कद्र न करके उसने ऐलान कर दिया कि वह उनके लिए खाने वगैरह का इंतजाम नहीं करेगी | यहाँ तक की उसने दीपक को भी ताकीद कर दी कि वह भी उन्हे चाय वगैरह की फिजूल खर्ची के लिए भी पैसा न दें |

इतनी जिल्लत और यातनाएँ सहने के बाद भी शिव प्रसाद का अपने पुत्र के प्रति मोह भंग नहीं हुआ | वह बेनागा आंधी, तूफान, बारिश, गरमी, सर्दी आदि की परवाह किए बिना गुडगावां घर से खाना बनवा कर जाता रहा | जब सुनीता ने महसूस किया कि उसका ससुर तो जोक की तरह उनसे चिमट गया है तो उसने एक घिनौनी चाल का मसौदा बना लिया | अपनी मंशा को कार्यान्वित करने के लिए उसने सास ससुर को रहने के लिए अपने पास बुला लिया |

सास बहू में बोलचाल अब भी नहीं थी | सुनीता ने खाना देने के लिए जेल में कैदियों की तरह रवैया अपना लिया, थाली में रखा और सरका दिया | अपनी सोची समझी चाल के अनुसार एक दिन जब शिव प्रसाद और अरूणा सुबह की सैर पर गए थे तो सुनीता ने डुप्लीकेट चाबी का प्रयोग करके उनकी अलमारी से सारे गहने निकाल लिए |घर में हंगामा खड़ा हो गया | दीपक दुकान पर शिव प्रसाद का इंतजार कर रहा था |जब शिव प्रसाद बहुत देर तक दुकान पर नहीं पहुंचा तो वह दुकान नौकरों के सहारे छोड़ भुनभुनाता हुआ घर आ धमका और अपने पिता को खड़ा देख गुस्से में गुर्राया, ”आज दुकान क्यों नहीं आए ?”

“अपनी बहू से पूछ |”

“बहू से क्या पूछूं, खाना खाकर आराम फरमा रहे होंगे | दूसरे के बारे में कुछ सोचने की क्या जरूरत है कि उसे भी खाना चाहिए |”

”आज अभी खाना मिला ही कहाँ है ?”

सुनीता आगे बढ़कर शिव प्रसाद के सामने खड़ी हो हाथ नचाकर बोली, “मिलेगा भी नहीं | आज दुकान पर काम ही नहीं किया तो खाने को कहाँ से आएगा ?”

अपनी पुत्र वधू के कड़वे शब्द सुनकर शिव प्रसाद जलभुन गया परन्तु कुछ बोलता इससे पहले ही दीपक ने जले पर नमक छिडकते हुए कहा, “मुफ्त की रोटी तोड़ने की आदत पड़ गई है |”

अपने बेटे बहू द्वारा अपने पति के साथ बदतमीजी अरूणा बर्दास्त न कर सकी और वह भडक उठी, “अरे बेशर्मों कुछ तो इंसानियत रखो | ये तुम्हारे बाप हैं | जो भी आज तुम हो इनके कारण ही हो | इतनी उम्र में स्वास्थ्य ठीक न रहते हुए भी ये तुम्हारा पूरा सहयोग कर रहे हैं | फिर भी तुम्हें उनका कोई गुण एहसान नजर नहीं आता | उनकी सेवा करने के बजाय तुम तो उनके साथ एक दास से भी बदतर सलूक कर रहे हो |”

सुनीता ने अपनी सास की आवाज से थोड़ी ऊंची आवाज में जवाब दिया, “कौन सा बाप किसका बाप होगा जिसका होगा | और फिर मैनें क्या गलत कह दिया, हम भी तो सारा दिन खटते रहते हैं तब जाकर कहीं दो जून की रोटी नसीब होती हैं |”

“नहीं गलती तुम दोनों ने नहीं हमने किया है जो तुम्हें पूरी दुकान संभाल दी |”

सुनीता हाथ मटका कर बोली, “छूछा छूछा हमें दे दिया माल तो अपनी अंटी में लगा रखा है |”

दीपक ने अपनी पत्नी की जबान तो बंद करवाई नहीं ऊपर से उसकी मन की भाषा एवम भावना को उजागर कर दिया जब उसने सुनीता का समर्थन करते हुए कहा, “पापा जी आप वे दस लाख इसे दे क्यों नहीं देते ?”

शिव प्रसाद ने पहले तो दीपक की अपनी पत्नी के सामने चुप्पी साधने फिर दस लाख मांग कर उसकी मनोइच्छा को उजागर करने से भांप लिया कि अब उसका बेटा उसका नहीं रहा अत: पूछा, “अभी तुम्हारा हमारे साथ इतना घिनौना सलूक है अगर मैनें दस लाख तुम्हें दे दिए तो तुम तो हमें धक्के मार कर बाहर का रास्ता दिखा दोगे ?

सुनीता जिसके अंदर का लावा उबलकर अभी तक बाहर नहीं निकला था, यह जानकर कि उसे दस लाख नहीं मिलने वाले हैं, फूटकर बाहर निकल आया और वह चिल्लाकर आगे बढ़ी तथा अपने ससुर की अटैची को उठाकर कमरे से बाहर फेंकते हुए गुर्राई, “लो अब बाहर तो तुम्हें वैसे भी जाना ही होगा | समेटो अपना बोरिया बिस्तर और दफ़ा हो जाओ यहाँ से |”

दीपक ने सुनीता को एक बार भी नहीं टोका कि वह अपनी जबान पर लगाम ले | जब शिव प्रसाद ने उसकी तरफ देखा तो दीपक ने अपनी नजरें फेर ली | इससे शिव प्रसाद को आभाष हो गया कि उसके बेटे की भी सुनीता से सहमती थी | यह शिव प्रसाद और अरूणा के जीवन पर दीपक और सुनीता के प्रहार की पराकाष्ठा थी | आज उसे महसूस हुआ कि उसका मकान, दुकान, पुत्र, पुत्र वधू, पौत्र और पौत्री होते हुए भी कुछ नहीं था | 

अपने पुत्र की खुशी के लिए तथा उसके प्रति अपना मोह कायम रखते हुए शिव प्रसाद ने सब कुछ उनको सौंप कर सभी का त्याग करने की मन में ठान ली | अपने पुत्र की चाहत को अमली जामा पहनाने के लिए वह अपनी पत्नी के साथ किराए का मकान लेकर रहने लगा | वह टेलीफोन पर यदाकदा अपने पुत्र की कुशलक्षेम पूछ लेता था परन्तु दीपक की तरफ से ऐसा प्रयास कभी नहीं किया गया |

दीपक अपने परिवार में मग्न एवम खुश था परन्तु शिव प्रसाद को चैन न था | वह अंदर ही अंदर घुट रहा था | उसकी रातों की नींद उड़ चुकी थी | वह हमेशा दीपक के बारे में ही सोचता रहता था कि न जाने उसे समय पर खाना, नहाना, सोना आदि मिल रहा होगा या नहीं | कुछ ही दिनों में वह अपनी मान, मर्यादा, आदर, सत्कार जो उसने खोया था उसे भूल चुका था केवल उसे अहसास हो रहा था अपने लाड़ले दीपक की अदृश्य कठिनाईयां का जो वास्तव में वह झेल ही नहीं रहा था |

अपने मन की व्यथा को शांत करने तथा अपने पुत्र की सहायता करने के विचार से शिव प्रसाद ने एक दिन दीपक को टेलीफोन मिलाया, “दीपक मैं वापिस आना चाहता हूँ |”

दीपक ने साफ़ शब्दों में टका सा जवाब देते हुए कहा, “यहाँ से जाने का फैसला भी आपका ही था आने का भी आप पर निर्भर करता है | और हाँ सुनलो मैं आपको लेने नहीं आऊँगा और न आने में किसी प्रकार की सहायता करूँगा |”

एक दिन शिव प्रसाद के सब्र का बाँध टूट गया और मोहवश वह बिना किसी को बताए, अपने बेटे को गले लगाने को दौड़ पड़ा | शिव प्रसाद तो गले लगकर फूट फूट कर रोने लगा परन्तु दीपक की आँखों में खुशी के आंसू तो दूर उस  के मुहं से सांत्वना का न तो कोई शब्द निकला तथा न ही उसके हाथ अपने बूढ़े पिता को अपने सीने से लगाने को उठे | वह मूर्ति बना निश्छल खड़ा रहा | थोड़ी देर में शिव प्रसाद ने अलग होकर दीपक का चेहरा अपने हाथों के बीच लेकर भावानात्मक पूछा, “तू कैसा है, दीपक ?”

दीपक ने उल्टा प्रश्न दागा, “आपको यह गलत सूचना किसने दी कि मुझे कुछ हो गया है ? आपको दिख नहीं रहा कि मैं स्वस्थ आपके सामने खड़ा हूँ ?” 

एक पिता अपने पुत्र के प्रति मोहवश एक बार फिर जीवन रूपी दलदल में फंस गया |

यह यही दर्शाता है कि वर्त्तमान युग में श्रवण पुत्र नहीं मिलते बल्कि श्रवण बाप मिलने लगे हैं |         


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