Tuesday, October 13, 2020

लघु कहानी (दादा जी का तारा )

 '' दादा जी का तारा ''


धीरज अपने माँ-बाप का इकलौता लड़का था | वह अपने बाप का ही नही बल्कि अपने दादा जी का भी अकेला वारिश था | हालाँकि दादा जी अधिक पढे लिखे नही थे परंतु अपने जमाने के उच्चकोटि कॆ फुटबॉल के खिलाड़ी थे | अपने देश की टीम मे खेलते हुए उन्हे बहुत से पदक जीतने का श्रेय मिला था |    परंतु समय की मार ने उनकी आंखे छीन ली तथा अपने जीवन के आखिरी दिनों में वे अंधेपन के शिकार हो गए | फुटबाल के खेल प्रेम का जजबा उनकी रग रग में इस कदर भरा था कि आंखो की रोशनी न रहते हुए भी वे फुटबाल स्टेडियम में बैठकर वहाँ खेले जा रहे मैचों का भरपूर आन्नद लिया करते थे | ऐसा लगता था जैसे आंखो से देखने की अस्मर्थता उनके फुटबाल मैच देखने की लालसा को किसी प्रकार भी कम नहीं कर पाई थी | क्योंकि अपने तजूर्बे तथा कमंटेटर की कमेंटरी से वह खेल के हर पहलू को अच्छी तरह समझ जाते थे | 

धीरज के दादा जी की दिली ख्वाहिश थी कि वे अपने लड़के, राजेंद्र को ऐसी तालीम दें कि वह भी उनकी तरह एक उच्चकोटि का फुटबाल खिलाड़ी बने परंतु लाख कोशिशों के बावजूद उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी | उनका लड़का बहुत ही सीधे स्वभाव, भोला, ईमानदार परंतु पढाई लिखाई में बहुत ही प्रखर बुद्धि वाला इंसान था | वह शारीरिक मेहनत नहीं कर सकता था अपितु दिमाग की उसके पास कोई कमी न थी | वह इतना प्रतिभाशाली तथा गुणवान था कि उसने अपने राज्य की स्नातकोत्तर की परीक्षा में स्वर्ण पदक हासिल किया था | भगवान की इसी देन के कारण वह उत्तर प्रदेश राज्य में एक जिला विभाग का उच्च अधिकारी नियुक्त हो गया था |  

राजेंद्र की पत्नि, किरण अधिक पढी लिखी नहीं थी परंतु उसमें एक अग्रीणी किस्म की औरत होने के सभी गुण विध्यमान थे | वह सुन्दर, सुशील, मृदुभाषी एवं हर मायने में एक गुणवती नारी थी | वह हर प्रकार से सम्पन्न थी परंतु शादी के आठ वर्ष व्यतीत होने के बावजूद भी वह माँ न बन पाई थी |  एक औरत  को अपनी सामाजिक तथा आर्थिक सम्पन्नता  निराधार ही महसूस होती है अगर वह माँ नहीं है | इसे भगवान की कृपा ही कहा जाएगा कि किरण की बड़ी बहन के अथक प्रयास एवं निष्काम भावना से भागदौड़ करने के कारण वह धीरज की माँ बनने में सफल हो गई | 

राजेंद्र अधिकतर अपने इलाके से बाहर नौकरी पर रहने के कारण अपनी पैतृक जायदाद की देखभाल करने में असमर्थ था |  अपने पिता जी का अकेला लड़का होने की वजह से, अपनी शादी के बाद, उसने अपने पिता जी को भी अपने पास बुला लिया था क्योंकि उसकी माता जी का स्वर्गवास हो चुका था अतः घर पर उसके पिता जी की देखभाल करने वाला कोई जिम्मेदार व्यक्ति नहीं था | मौका पाकर राजेंद्र के पिता जी की सारी जायदाद उसके ताऊ-चाचाओं ने कब्जा ली | बेशक उनके रिस्तेदारों ने उन्हे घर से बेघर कर दिया परंतु राजेंद्र के माथे पर एक शिकन तक न आई तथा उसने यह सहर्ष स्वीकार कर लिया |         

पुराने जमाने में एक कहावत थी कि "जिसका काम उसी को साजे और करे तो डिंगा बाजे" | अर्थात सामाजिक ताने बाने में रहते हुए एक व्यक्ति को वही काम करना शोभा देता है या करना चाहिये जिसके लिए वह समाज ने मुकर्रर किया है | जैसे एक क्षत्रीय को निडरता, वैश्य को व्यापार, सुनार को गहने बनाना इत्यादि | इसके पीछे धारणा थी कि अगर कोई व्यक्ति अपने निर्धारित कार्य को छोड़कर कोई दूसरा काम करता है तो उस पर उसके दुष्परिणाम पड़ते हैं | राजेंद्र के साथ कुछ ऐसा ही हुआ | अपनी नौकरी के रहते उसने जन्म कुंडली बनाना, सटीक भविष्यवाणी करना, रूद्राक्ष, मणिक, मोती और रत्नों की जीवन में महत्ता, होमयोपैथी का इलाज आदि के बारे में भी पूरी दक्षता हासिल कर ली थी |  परंतु अचानक ही अभी जब धीरज 9वीं कक्षा में पढ रहा था तो राजेंद्र का देहांत हो गया | राजेंद्र के आकस्मिक स्वर्गवास से उसके परिवार के बाकी सदस्यों पर गमों का पहाड़ सा टूट पडा | घर से बेघर तो वे पहले ही हो चुके थे | धीरज खुद अभी नाबालिग था | उसके दादा जी देख नहीं पाते थे | अब घर का खर्च चलाने वाला कोई नहीं था | यह एक ऐसी स्थिति बन गई थी कि अगर कोई कमजोर औरत होती तो टूटकर रह जाती और तीन प्राणियों का उसका परिवार बिखर जाता | सभी सगे संबंधी बस यह कह कर रह गए कि भगवान अच्छे आदमियों को ज्यादा प्यार करता है अतः उन्हें जल्दी अपने पास बुला लेता है |

परंतु विपदा की इस घड़ी में किरण एक सुलझी हुई तथा धैर्यवान नारी साबित हुई | किरण ने अपनी उस थोड़ी सी आमदनी में ही, जो उसे अपने पति की पेंशन के रूप में मिलनी थी, घर के खर्च के साथ साथ अपने लड़के धीरज को भी अपने स्वर्गवासी पति की तरह उच्च शिक्षा कराने का फैसला कर लिया |    क्योंकि यही उसके पति ने भी अपने लड़के को प्रेरणा देते हुए समझाया था कि उच्च शिक्षा ही उसका ध्येय होना चाहिए | धीरज भी अपने पिता जी की तरह एक तेज दिमाग का धनी था | वह अपनी कक्षा में हमेशा प्रथम आता था | व्यवहार में भी वह अपने पिता जी की तरह सादगी, बडों को इज्जत देने वाला एवं सुन्दर तथा सुडौल शरीर का मालिक था | जब से उसने होश सम्भाला था तथा उसके पिता जी ने उसे भविष्य के लिये प्रेरणा देना शुरू किया था वह उनके नक्शे कदम पर चलने लगा था | अतः धीरज ने अपने पिता जी की मनोइच्छा का पूर्ण रूप से स्वागत करते हुए पूरी लग्न से, अपने कालिज से वजीफा लेते हुए, बिरला इंस्टीच्युट आफ टैकनोलोजी से अपनी इंजिनियरिंग की डिग्री उच्च नम्बरों से पास कर ली | वह जल्दी ही एक बड़ी कम्पनी में इंजिनियर भी नियुक्त हो गया | अपनी इंजिनियरिंग की पढाई के दौरान धीरज अपने दादा जी की दबी आकांशाओं को भी नहीं भूला था | उसने अपने मन में एक दृड़ निश्चय कर लिया था कि वह अपने दादा जी की मनोकामना, जो उसके पिता जी पूरा न कर पाए थे , पूरी करने की जी जान से कोशिश करेगा |

वह कालिज की फुटबाल टीम का अभिन्न अंग बन गया था | जब भी समय मिलता था वह अपने खेल के स्तर को सुधारने का प्रयत्न करता रहता था | इंटर कालिज की प्रतिस्पर्धा के चलते  उसके सधे हुए खेल की वजह से उसका नाम काफी चर्चित हो गया था | उसी के आधार पर उसका नाम देश की फुटबाल टीम में सम्मिलित कर लिया गया था | 

फुटबाल के अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामैंट शुरू हो चुके थे | इसमें 12 देशों की फुटबाल टीमें हिस्सा ले रही थी | पहले दूसरे तीसरे फिर चौथे दौर के मैच समाप्त हो गए परंतु धीरज को अभी तक किसी भी मैच में खेलने का मौका नहीं दिया गया था | वह एक रिजर्व ही बना रहा | अब तक उसकी टीम ने अपने सभी मैचों में जीत दर्ज करके टूर्नामैंट के फाईनल में प्रवेश कर लिया था | 

धीरज जो हमेशा अपने नाम के अनुरूप धीरज से काम लेता था तथा हमेशा चुपचाप अपने सीनियरों की बात मानता रहता था, आज फुटबाल के फाईनल का मैच खेले जाने वाले दिन अपना धीरज खो बैठा | वह अचानक अधीर हो उठा | उसने बड़े आत्म विशवास से अपने फुटबाल के कोच से हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन करते हुए कहा,"साहब मुझे फाईनल का मैच खेलने दिया जाए |”

“धीरज ! तुम कैसी बात कर रहे हो ?”

“सर कृपा करके, सिर्फ एक मौका |”

“नहीं ऐसा नहीं हो सकता |”

“साहब पूरे टूर्नामैंट के दौरान मुझे एक बार भी खेलने का मौका नहीं दिया गया |” 

“यह हमारे देश के गौरव का सवाल है |” 

“मैं अच्छी तरह जानता हूँ सर |” 

“इसमें सिर्फ प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को ही मैदान में उतारा जाता है |” 

“साहब आपने मेरी प्रतिभा को आज तक जाँचा ही कहाँ है | आपने तो मुझे किसान के उस तरबूज की तरह कैद कर रखा है जिसको उसने लौटे में डाल दिया था |” 

“तुम्हारा कहने का क्या अभिप्राय है ?”  

“साहब ऐसा हुआ कि एक किसान के खेत में एक तरबूज की बेल पर फल लगने शुरू हुए तो किसान ने एक फल को लोटे में डाल दिया तथा बाकियों को खुले वातावरण में फलने फुलने दिया | खुले वातावरण में पनपने वाले तरबूज तो फुटबाल की गैद से भी बड़े हो गए परंतु लोटे वाला तरबूज उस लोटे में ही समाकर रह गया | उसे बढने का अवसर ही नहीं मिला |”  

फुटबाल का कोच धीरज की बात सुनकर हतभ्रत सा रह गया | हमेशा शांत स्वभाव से रहने वाले खिलाड़ी की आत्मा के उदगार सुनकर कोच सन्न रह गया | उसे आज धीरज बहुत उत्साहित नजर आ रहा था | धीरज की बातों से कोच ने अन्दाजा लगा लिया कि उसके मन में आज फाईनल मैच के दौरान कुछ कर दिखाने का जज्बा है | अपनी गल्ती का एहसास करते हुए कोच ने सोचा कि वास्तव में धीरज सही बयाँ कर रहा था | हो सकता है वह फुटबाल के महानतम खिलाड़ी पेले की तरह अपने अचरज भरे खेल से सभी को स्तम्भित कर दे | फिर भी मन के किसी एक कोने में शंका के रहते हुए तथा बावजूद् और सभी का विरोध सहन करते हुए भी कोच ने धीरज को फुटबाल के फाईनल मैच में खेलने की अनुमती दे दी | 

मैच के शुरू होने की पहली सीटी के साथ ही धीरज ने अपने करतब दिखाने शुरू कर दिए | एक के बाद एक तीन गोल दागकर उसने विरोधी खेमे में हलचल पैदा कर दी | मैदान के चप्पे चप्पे पर धीरज ही धीरज दिखाई देता था | पलक झपकते ही वह फुटबाल के मैदान के एक कौने से दूसरे कोने में पहुंच जाता था | ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसके पंख उग आए हों तथा वह मैदान में दौड़ने की बजाय  उड़ रहा हो | धीरज वाली टीम फुटबाल का फाईनल मैच जीत गई | मैच जीतने के बाद चारों और से धीरज की जय-जयकार के नारे बुलन्द होकर गूंजने लगे | धीरज की चारों और से प्रशसां हो रही थी | औरों की तरह उसका कोच भी आशचर्य चकित था | उसने अपने मन की जिज्ञासा मिटाने के लिये धीरज से पूछा, " मैने आज तक तुम्हें इस प्रकार का प्रदर्शन करते पहले कभी नहीं देखा | आखिर वह कौन सी शक्ति थी जिसके कारण आज तुम इतना अच्छा खेले ?

धीरज ने बड़ी ही मासुमियत से उत्तर दिया, " आज मेरे दादा जी मुझे खेलते हुए देख रहे थे |”   

तुम्हारे दादा जी तो रोज स्टेडियम में वहाँ सामने बैठते थे, कहते हुए कोच ने अपनी नजरें उस और घुमाई जहाँ से धीरज के दादा जी उसे खेलते हुए देखते थे | परंतु आज वहाँ कोई नहीं था | 

जब कोच ने अपनी प्रशन वाचक नजर धीरज पर डाली तो वह बोला, " वे आज यहाँ नहीं आ सकते थे |”

“तो फिर तुमने अपना खेल किसे दिखाया ?”

धीरज ने आसमान की और अपनी उंगली उठाकर इशारा करते हुए कहा, " अपने दादा जी को |”

“क्या मतलब ?”

मतलब यह है कि  हालाँकि मेरे दादा जी प्रत्येक दिन यहाँ आकर बैठते जरूर थे परंतु वे देख पाने में असम्रर्थ थे | उनकी आंखो की रोशनी चली गई थी |  चार दिन पहले उनका स्वर्गवास हो गया था | अतः वे तारा बन कर आसमान में चमकने लगे | आज वहीं से वे मुझे खेलते हुए देख रहे थे |

मैच जीतने के उपलक्ष में पारितोषिक के रूप में टीम के कप्तान को जब ट्राफी दी गई तो उसने धीरज को स्टेज पर बुलाकर यह कहते हुए कि इसको ग्रहण करने का असली हकदार धीरज है, उसको ट्राफी थमा दी |  

धीरज ने ट्राफी को अपने सिर से ऊचाँ उठाकर तथा आकाश की और देखते हुए जोर से पुकारा, " दादा जी |”

सूरज की किरणें ट्राफी पर पड़कर ऐसा आभाष करने लगी जैसे सैकड़ों तारों के साथ धीरज के "दादा जी का तारा" भी, आशिर्वाद देने के रूप में,आसमान से उतर कर ट्राफी पर बैठा झिलमिला रहा हो |   


No comments:

Post a Comment