Friday, October 16, 2020

लघु कहानी (ममता)

    ममता


दिनेश आज बहुत दिनों बाद अपने दोस्त राकेश से मिलने जा रहा था | इन दोनों ने सोलह साल एक साथ एक ही नौकरी में गुजारे थे | दिनेश राकेश से दो साल पहले ही नौकरी छोड़ आया था तथा अपने पैतृक मकान, जो देहली में था, रह रहा था | राकेश हाल ही में नौकरी छोड़कर आया था तथा एक वकील के तौर पर फरीदाबाद कोर्ट में कार्यरत हो गया था | फरीदाबाद पहुंच कर दिनेश ने दूर से देखा कि राकेश के घर के दरवाजे पर कई लोग मुँह लटकाए मातम करने जैसी मुद्रा में बैठे हैं | ऐसा देखकर दिनेश का माथा ठनका | एक अनजान आशंका ने उसे जकड़ लिया | तरह तरह के कई विचार उसके मन में उठने लगे | उसे ज्ञात था कि उसके बड़े लड़के की बहू को पूरे दिन चढे हुए थे | उसके मन में ख्याल आया कि कहीं उसके साथ तो कुछ गड़बड़ नहीं हो गई है | वह एक बार को काँप गया | उसने अपने आप को सम्भाला तथा तेज कदमों से राकेश के घर की और बढ़ने लगा | 

राकेश के घर के दरवाजे पर उसके मामा जी खड़े थे अतः दिनेश ने उन्हीं से पूछा, "क्या हुआ मामा जी ?"

मामा जी ने घूरती निगाहों से प्रताप की तरफ देखा तथा बोले, "क्या बताऎं , कुछ भी तो नहीं हुआ |"

इस पर दिनेश ने प्रताप की और मुखातिब होकर पूछा, "प्रताप कुछ तू ही बता | सब खामोश क्यों बैठे हैं ?"

प्रताप जो राकेश का लड़का  था जल्दी से उठकर  दिनेश के कंधे पर अपना सिर रखकर रोने लगा | 

दिनेश प्रताप के सिर पर हाथ फेरते हुए, "ऐसा क्या हो गया जो तू रो रहा है ? सभी रिस्तेदारों के चेहरे भी ढ़लके हुए हैं |”

प्रताप उसी दशा में रोते रोते कहने लगा, "अंकल मैं बर्बाद हो गया |"

दिनेश ने इधर उधर देखा अधिकतर रिस्तेदारों के चेहरे मुरझाए हुए थे |

परंतु जब उसे राकेश दिखाई नहीं दिया तो वह प्रताप से बोला, "तुम तो पहेलियाँ सी बुझा रहे हो | तेरे पापा कहाँ हैं ,मैं उससे ही पूछ लेता हूँ कि माजरा क्या है ?" 

दिनेश घर के अन्दर प्रवेश करते हुए कहता जा रहा था, “अरे वकील साहब कहाँ हो ? क्या बात हो गई ? घर में ऐसी मुर्दानगी क्यों बिखरी हुई है ?” 

अपने दोस्त की आवाज पहचान कर राकेश बाहर आते हुए बोला, " आओ दिनेश भाई | अबकी बार तो बहुत दिनों बाद आना हुआ |” 

“हाँ, बस कुछ काम ऐसे निपटाने पड़ गए कि आना ही न हो सका | वैसे सब कुशल से तो है ?”

“आओ बैठो | फिर बताता हूँ |”

“वकील साहब मैं बैठ तो जाऊँगा परंतु पहले मेरे मन की दुविधा को दूर करो |” 

“किस दुविधा की बात कर रहे हो, दिनेश भाई |”

“वकील साहब बाहर सभी मुहँ लटकाए बैठे हैं | बल्कि वह तुम्हारा प्रताप तो रो रहा है |”

राकेश थोड़ा तैश में आकर, “साले सब कमीने हैं | बेवकूफ हैं |” 

दिनेश ने बड़ी सरलता से कहा, “होंगे | परंतु वकील साहब बात बता कर मेरे मन का उतावलापन तो दूर करो |” 

राकेश ने ऐसे अन्दाज में कहा जैसे उसे अपने लड़के प्रताप की नासमझी पर शर्मिन्दगी उठनी पड़ गई हो, "दिनेश भाई बात कुछ भी नहीं है | प्रताप की बहू ने दूसरी लड़की को जन्म दिया है |"

दिनेश एक लम्बी साँस छोड़ते हुए, “मैं तो सभी की मुर्झाई हालत देखकर बहुत घबरा गया था कि न जाने क्या हादसा हो गया है |” 

अपने मित्र राकेश के विचार सुनकर दिनेश को बहुत सांतवना मिली | हालाँकि उसे गुस्सा भी आया परंतु मौके की नजाकता को भाँपते हुए हल्कि सी झिड़की से ही काम चलाते हुए प्रताप को बहुत कुछ समझा दिया | मसलन, भगवान के दिए हुए दो ही रूप होते हैं | एक लड़का दूसरी लड़की | वैसे सभी यही आशा लगाए रहते हैं कि उनके यहाँ लड़का ही होगा परंतु हर एक को दूसरे रूप को भी सहर्ष स्वीकार करने को तैयार रहना चाहिए | फिर आजकल के जमाने में लड़का हो या लड़की सब बराबर है | यह तो बच्चे के माता-पिता के दम खम की बात होती है कि वह लड़की को पढ़ा  लिखा कर कितना ऊचाँ चढ़ा  सकता है | अतः ये दकियानूसी की बातें दिल से निकाल दो और खुशी खुशी सारे काम पूरे करो | और हाँ अगर एक बार फिर बच्चे की लालसा करो तो किसी भी तरह के परिणाम के लिए तैयार रहकर ही आगे बढ़ना | क्योंकि तुम्हारी किस्मत में जो लिखा है उससे अधिक तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला | तभी तो कहते हैं कि ‘होय वही जो राम रची राखा’ | 

इसके बाद प्रताप और दो लड़कों का पिता बन गया | प्रताप ने अपने दूसरे लड़के निरंजन के नाम एक मकान बनवा दिया था | एक मकान उसके पास पहले से ही था जो उसने अपने छोटे लड़के को देने के लिए सोच रखा था | 

जीवन सुचारू रूप से चल रहा था | दिन बितते रहे | बच्चे बड़े होते गए | लड़कों को हर प्रकार की छूट मिली थी | न उनके पहनने पर कोई रोक थी | न उनके खाने पर कोई पाबन्दी | दोनों लड़कों का न रात को घर आने का कोई समय था न सुबह सोकर उठने का | वे स्कूल या कालेज से आकर कहाँ जाते हैं तथा क्या करते हैं इसकी किसी को परवाह न थी | लड़कों द्वारा टेलिविजन पर आ रहे गानों पर मटकने पर प्रताप एवं पार्वती बहुत खुशी जाहीर करते थे | उन्हें महसूस होता जैसे उनके बेटे बड़े ही होनहार तथा बुद्धिमान हैं जो समय के साथ चल रहे हैं | अतः प्रताप या उनकी माता जी पार्वती ने उनके किसी भी काम में कभी भी कोई दखल अन्दाजी नहीं की | इसके विपरीत लड़कियों पर हर प्रकार की पाबन्दी थी | देर से आना तो दूर्, बचपन से ही थोड़ी देर के लिए भी घर से बाहर वे अपनी सहेलियों के साथ खेल भी नहीं सकती थी | स्कूल से आते ही वे घर की चार दिवारी के अन्दर बन्द होकर रह जाती थी | प्रताप की बड़ी लड़की प्रभा स्वछन्द विचारों की एक हंसमुख लड़की थी | किसी तरह अपने माता पिता को समझा बुझाकर उसने स्नातक की डिग्री हासिल कर ली | बचपन से ही उसमे ललक थी कि वह अपने जीवन में ऊचाँईयों को छूकर रहेगी | उन्नति के शिखर पर पहुँचने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी | स्नातक करने के बाद अब वह अपने मन में वर्षों से संजोई ड़गर पर चलना चाहती थी | अतः अपने मन की बात प्रभा ने अपनी माँ से कही, "माँ मैं अब एक कोर्स करना चाहती हूँ |" 

माँ ने सरल भाव से पूछा, "बेटी, कैसा कोर्स ?"

“उसके लिए मुझे पूना जाना होगा |”

अपनी बेटी की बात सुनकर माँ ऐसे लहजे में बोली जैसे प्रभा ने कोई बड़ी अनहोनी बात कह दी हो, "तू पूना जाएगी, अकेली जाएगी ?" 

प्रभा ने बड़े ही आत्म विशवास से कहा, "माँ, अकेली जाने में हर्ज ही क्या है ?"

माँ ने लगभग गिड़गिडाते हुए अपनी बेटी को समझाना चाहा, "बेटी तूने जिद करके कालेज पढ़ लिया | तू अपने बाप को तो जानती ही है | अगर उन्हें तेरे इरादों का पता चल गया तो घर में तूफान आ जाएगा |"

प्रभा अपनी माता पार्वती की बातों से विचलित नहीं हुई तथा अपने श्ब्दों की दृडता को कायम रखते हुए कहा, "माँ देखो मैं साफ साफ कहे देती हूँ | मैने वर्षों से मन में ठान रखी है कि मैं पूना के फिल्म आर्ट स्कूल में दाखिला लूंगी |"

प्रभा का निश्चय जानकर पार्वती कुछ काँपते हुए, "तू .. तू फिल्मों में काम करेगी ?"

“हाँ माँ ” ,प्रभा का छोटा सा जवाब था |

“परंतु तेरे बाबू जी तो तेरे हाथ पीले करने की जुगत लगा रहे हैं |” 

माँ के जवाब में प्रभा ने अपना अटल फैसला सुनाते हुए कहा, “माँ मुझे अभी इस झंझट में नहीं पड़ना | और सुनो माँ, अगर बापू ने मेरे साथ इस मामले में कोई जबर्दस्ती करनी चाही तो मैं घर छोड़कर चली जाऊँगी |”         

इतने में प्रभा के बाबू जी, प्रताप, घर के अन्दर प्रवेश करते हुए अपनी बेटी के आखिरी शब्दों "चली जाऊँगी" को सुनकर, " कहाँ जा रही हो बेटी ?"

प्रभा पहले अपनी माँ की तरफ देखती है जो डर से काँप रही थी | फिर भी अपना साहस कायम रखते हुए, "कोर्स में दाखिला लेने |"

प्रताप ने अपनी बेटी को घूरती सी निगाहों से देखकर कहा, "कैसा कोर्स | लड़कियों के लिए तो इतना पढ़ना भी ज्यादा है जो तू पढ़ चुकी है | अब आगे कोई कोर्स वोर्स नहीं |"

“परंतु बापू.........|”

प्रताप ने हाथ के इशारे से प्रभा को रोक कर उसे उसकी बात पूरी भी न करने दी तथा अपना फैसला सुना दिया, "अब तो मुझे तेरे हाथ पीले करने की फिक्र है | कोई खानदानी अच्छा सा लड़का मिल जाए तो मैं मुक्ति पा जाऊँ |"

प्रभा जो शायद अपने भावी जीवन का पक्का फैसला ले चुकी थी बड़ी निडरता से बोली, " बापू मुझे अभी इस बंधन में नहीं बंधना है |"

अपनी बेटी की बात सुनकर प्रताप को जैसे किसी बिच्छु ने डंक मार दिया हो वह तिलमिलाकर गुर्राया, "क्या कहा, तेरी इतनी हिम्मत हो गई कि तू अपने बापू से जबान लडाने लगी है |" 

बात को बढ़ता देख पार्वती आई और प्रभा को बाँह से पकड़ कर अन्दर ले गई | अगली सुबह आफिस जाते हुए प्रताप जोर जोर से कहता गया, “कोर्स पर जाकर मेरी नाक कटाएगी, देखता हूँ कैसे कोर्स करेगी |” 

अपने बापू के चले जाने के बाद प्रभा सुबक सुबक कर बहुत देर तक रोती रही परंतु ज्यों ज्यों उसके आँसू सुखते गए उसका निश्चय दृड होता गया | वह एक झटके से उठी | उसने अपना सारा रूपया जो उसने अभी तक बच्चों को टयूशन पढ़ा कर इकट्ठा किया था एक थैले में डाला | अपने एक दो जोड़ी कपड़े भी थैले में रखे और घर छोड़ने के इरादे से मौके का इंतजार करने लगी | 

दोपहर का समय था | उसके दोनों भाई बाहर गए हुए थे | माँ थककर सो गई थी | बापू आफिस में थे | गलियाँ सुनसान थी | प्रभा ने चुपके से तैयार थैला उठाया और घर से बाहर निकल गई | 

शाम को प्रताप जब आफिस से लौटा तो उसकी पत्नि ने रो रो कर अपना बुरा हाल कर रखा था | रोने से उसकी आँखे सूज गई थी | शायद वह बहुत देर से रो रही थी | प्रताप घबराकर पूछने लगा, " क्या बात है पार्वती ?"   

अपने पति को देखकर पार्वती उठी तथा उसके सीने से लगकर बेदम सी आवाज में बोली, " वो चली गई |"

प्रताप ने अपनी पत्नि की बात न समझ उसे झंझोड़ कर पूछा, " कौन चली गई ?" 

"वह घर छोड़कर चली गई | हमारी प्रभा हमें छोड़कर चली गई" ,रोते रोते पार्वती निढ़ाल हो रही थी |

प्रताप ने अपनी पत्नि को सहारा देकर एक बार फिर पूछा, "कहाँ चली गई ?" 

इस बार पार्वती एक कागज प्रताप को थमा देती है | प्रताप जल्दी जल्दी उस पर लिखा हुआ पढ़ता है |

पूज्य पिता जी एवं माता जी,

इस संसार में बहुत सी और औरतों की तरह मैं भी अपने जीवन में उन्नति करना चाहती हूँ | अपने पैरों पर खड़ा होकर अपने मकसद में कामयाब होना चाहती हूँ | मैं ऊचाँईया छूना चाहती हूँ | मैनें जान लिया है कि आपके यहाँ रहते हुए मैं अपने लक्ष्य को नहीं पा सकती अतः मैं जा रही हूँ | मुझे ढूढ़ने की कोशिश न करना | अगर मुमकिन हुआ तो मैं स्वयं किसी न किसी तरह आपकी खैर खबर लेती रहूँगी | अगर मुझे कभी ऐसा मालूम पड़ा कि आपने मुझे माफ कर दिया है तो मैं आपसे मिलने आ जाऊँगी अन्यथा मैं समझूंगी कि मैं इस दुनिया की भीड़ में अकेली हूँ | नमस्ते |

आपकी बेटी

प्रभा 

पत्र पढ़कर प्रताप अपना सिर पकड़ कर बैठ गया | उसका सार शरीर जड़वत सा हो गया | वह बड़बडाने लगा, “ऊचाँईया छूना चाहती है | छू ऊचाईयाँ और ऊचाईयाँ छूते छूते समा जा आसमान में | अब यहाँ जमीन पर तूझे किसी की खबर लेने की जरूरत नहीं | तू हमारे लिए मर चुकी है |” कहते कहते वह प्रभा की चिट्ठी के टुकड़े टुकड़े करके जमीन पर फेंक देता है | आस पडौस के लोगों तथा  रिस्तेदारों ने भी प्रभा की खुले दिल से भर्तसना करने में कसर न छोड़ी तथा उसे धिक्कारा |   

समय बीतने लगा | प्रभा को वहाँ के लोग क्या सगे सम्बधी भी भूलने लगे | प्रताप अपनी नौकरी से रिटायर हो गया | वह कुछ बिमार भी रहने लगा था | उसकी पत्नि के अलावा उसका दुख दर्द सुनने वाला तथा उसको सहारा देने वाला भी अब कोई नहीं था | क्योंकि प्रताप का बड़ा लड़का अरब देशों में ऐसा गया कि वहीं का होकर रह गया | उसका छोटा लड़का आवारा किस्म का निकला और मौहल्ले की ही एक लड़की से विवाह रचाकर न जाने किस देश में कहाँ जाकर रहने लगा था | 

प्रभा ने अपना कोर्स बहुत मेहनत तथा लग्न से पूरा कर लिया | उसकी काबिलियत के कारण उसे हॉलिवुड में फिल्मों के लिए चुन लिया गया | प्रभा ने दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करनी शुरू कर दी | ऐसा दिन कोई न जाता जब अखबारों में उसकी कोई खबर न छपी होती | 

एक तरफ प्रभा ऊचाईयाँ छूती जा रही थी दूसरी और उसके गाँव में उसके घर की हालत दिन ब दिन बदतर होती जा रही थी | प्रताप ने चारपाई पकड़ ली थी | घर में फाके होने शुरू हो गए थे | कोई उनकी खबर लेने वाला न था | मौहल्ले पडौस के लोगों के साथ साथ उनके रिस्तेदारों ने भी उनकी तरफ से अपनी नजरें चुरानी शुरू कर दी थी | 

एक दिन समाचार पत्रों में खबर छपी कि हॉलिवुड की मशहूर अभिनेत्री प्रभा दलित बच्चों के लिए भारत के फरीदाबाद कस्बे के पास एक "फन एंड फूड" संस्थान का उदघाटन करने आ रही है | खबर जानकर प्रभा के गाँव के लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गई | सब उस समय की उतावलेपन से इंतजार करने लगे जब वे प्रभा के दर्शन पाकर अपने को भाग्यवान समझेंगे जिससे आज से दस वर्ष पहले वे अचानक घृणा करने लगे थे | सभी लोगों ने एकमत होकर फैसला किया कि प्रभा को अपने गाँव लाया जाएगा | इसलिए पूरे गाँव की साफ सफाई खूब जोर शोर से प्रारम्भ कर दी गई | हर आदमी अटकलें लगाने लगा कि किसी तरह प्रभा उसके घर अवशय आए | देखते ही दखते वह दिन भी आ गया जिसके लिए गाँव दुलहन की तरह सज गया था | 

खबर से पार्वती का मन भी हिलौरें मार रहा था | उसने अपने बिमार पति से कहा, " क्यों जी ! आज तो हमारी प्रभा आ रही है |"

प्रताप ने बड़े ही बुझे मन से जवाब दिया, " हाँ, आ तो रही है | पर उससे क्या |"

पार्वती ने अपनी जिज्ञासा छिपाते हुए पूछा, "क्यो क्या वह हमसे मिलने नहीं आएगी ?"    

प्रताप ने अपने मन की शंका उडेली, " वह हमसे घृणा करती होगी |"

माँ की ममता उफान ले रही थी, "आप ऐसा क्यों सोचते हो ? अगर बुरा न मानों तो एक बात कहूँ ?” 

प्रताप अपने को बहुत निर्बल महसूस कर रहा था | वह धीरे से बोला, " कहो ! अब अपने आखिरी समय में बुरा मान कर क्या करूंगा |"

पार्वती को अपने पति द्वारा आखिरी समय कहना अच्छ न लगा अतः तपाक से बोली, " ऐसा क्यों कहते हो जी | मैं तो पूछ रही थी कि मौहल्ले पडौस के सभी मर्द तथा औरतें यहाँ तक की बच्चे भी प्रभा को देखने जा रहे हैं | क्या मैं भी......?"

प्रताप ने बड़े टीस भरे अन्दाज में कहा, "अब वह तुम्हे क्या पहचानेगी ? लोगों को उसके पास तक फटकने भी नहीं दिया जाएगा | मिलना तो दूर तुम्हें दूर से भी उसके दर्शन नसीब नहीं होंगे |” 

"फिर भी मन में लालसा तो है ही",पार्वती का दिल अपने पति की आज्ञा पाने को आतुर होता जा रहा था | 

 मन तो प्रताप का भी बहुत था कि वह भी अपनी बेटी को देख आए परंतु वह अपने स्वास्थ्य के कारण लाचार था |  वह अपना मन मसोस कर बोला, "देख लो तुम्हारी मर्जी |"

 फिर अपनी पत्नि को हिदायत देते हुए कहा कि वह भीड़ से थोड़ा हट कर ही रहे कहीं बुढ़ापे में बेटी को देखने के चक्कर में अपनी हड्डी पसली न तुड़वा बैठे | और हाँ अगर उससे मिलन हो जाए तो मेरी और से माफी.....|” प्रताप के दोनों नेत्रों में पानी भर आता है और गला अवरूद्ध हो जाता है | वह हाथ के इशारे से अपनी पत्नि को जाने के लिए कह देता है | 

पार्वती ने अपनी सोटी उठाई | बगल में एक पोटली दबाई और निकल पड़ी उस राह पर जिस तरफ लोग सैकडों की तादाद में लपके जा रहे थे | चलते चलते पार्वती के मन में तरह तरह के विचार उमड़ रहे थे | आज उसके शरीर में एक नया जोश दिखाई दे रहा था तभी तो चलते हुए एक बार भी उसके पैर लड़खडाए नहीं थे | न ही उसकी चाल धीमी हुई थी | गंतव्य स्थान पर जाकर देखा तो वह आश्चर्य चकित रह गई | अपने जीवन में उसने पहली बार इतना हज्जूम देखा था | प्रत्येक व्यक्ति सबसे आगे पहुँचने की चेष्टा करता दिखाई दे रहा थ जिससे वह उसकी प्रभा को ठीक से निहार सके | इसलिए भीड़ में धक्का मुक्की सी होती प्रतीत हो रही थी | 

पार्वती का मन भी सबसे आगे जाने को  उतावला था परंतु उसके बूढे शरीर में इतनी सामर्थ नहीं थी कि वह अपनी बेटी तक पहुँचने के लिए वहाँ उमड़ी भीड़ को चीर पाती | अतः उसने पीछे से ही एक टीले पर चढ़कर प्रभा को निहारना उचित समझा |  

प्रभा को देखकर पार्वती का मन उमड़ पड़ा | अपने आप ही उसकी आँखे झरझर बहने लगी | पार्वती ने महसूस किया कि प्रभा की निराश सूनी नजरें इतनी भीड़ में किसी अपने को खोज रही हैं | उसका मन उद्दघाटन करने में बिलकुल भी उतावला प्रतीत नहीं हो रहा था |  न ही मौहल्ले पडौस के और लोगों को देखकर उसके चेहरे पर कोई लम्बी मुस्कान दिखाई दी थी | उसने बुझे मन से रीबन काट कर उद्दघाटन तो कर दिया परंतु उसकी आँखे भर आई | प्रभा ने ढीले हाथों से लोगों का अभिवादन स्वीकार किया और उनकी तरफ से अपना मुँह एकदम फेर लिया | 

लोगों की भीड़ छटने लगी | थोड़ी देर में ही मैदान खाली होता सा नजर आया | पार्वती दूर टीले पर खड़ी भीड़ को छँटता देख रही थी | प्रभा के नाश्ते पानी का प्रोग्राम भी समाप्त हो गया | वह वापिस जाने के लिए बाहर आई | इसी समय पार्वती अपने को सम्भालते हुए टीले से नीचे उतरने लगी | ढ़लान के कारण वह बगल में दबाई अपनी पोटली को सम्भाल न पाई | पोटली लुढ़क कर खुल गई | हवा के तेज झोंके के कारण उसमें से एक लाल साड़ी उड़कर साथ वाले पेड़ में अटक गई तथा लहराने लगी | 

प्रभा की नजर अचानक उस लहराती साड़ी पर जाकर टीक गई | उसके मानस पटल पर बचपन की बातें उभरने लगी | उसे याद आया कि उसकी माँ कभी कभी खास मौकों पर उसी तरह की साड़ी पहनती थी | साड़ी को लहराती तथा टीले से एक कंकाल जैसी मूर्ती को उतरते देखकर प्रभा के शरीर में एक दैव्य शक्ति का सा संचार हुआ और वह माँ कहती हुई उस दिशा की और दौड़ पड़ी | प्रभा के सभी साथी एवं सक्योरीटी गार्ड शक्ते में रह गए | 

प्रभा अपनी माँ से लिपट जाती है तथा माँ ..माँ कहते हुए रोने लगती है | 

पार्वती इतनी भाव विभोर हो जाती है कि अपनी बेटी के सिर पर केवल ममता भरा हाथ फेरती रहती है | उसकी आँखो से अश्रुधारा बहती रहती है परंतु मुख से एक शब्द भी नहीं निकल पाता |  

माँ बेटी का ऐसा हृदय स्पर्शी मिलन देखकर वहाँ जमा सभी अपने को रोक न सके तथा उनकी आँखे भी इस मधुर बेला को देखकर बहने लगी | 

थोड़ी आस्वस्त हो जाने पर प्रभा को अपने बापू की याद आई तो उसने पूछा , "माँ बाबू जी कहाँ हैं ?"

“क्या बताऊँ बेटी वे तो अवशय आते परंतु...... |”

प्रभा अपनी माँ के परंतु शब्द से अधीर होते हुए, "परंतु क्या ? बोलो न माँ ?" 

पार्वती ने बड़ी मुशकिल से बताया, “उन्होने बहुत दिनों से खटिया पकड़ रखी है |” 

“क्यों क्या हुआ मेरे बापू को ?”

“पता नहीं बेटी |”

प्रभा कहना ही चाहती थी कि क्या उन्होने डाक्टर को नही दिखाया परंतु अपनी माँ की हालत निहार कर वह ऐसा पूछ नहीं पाई और बात बदल कर पूछा, "माँ मेरे दोनों भाई कहाँ हैं ?"

पार्वती बेटी की बात सुनकर मुहँ पर अपना पल्लू लगा कर रोने लगती है तथा कुछ जवाब नहीं देती | 

प्रभा ने कुछ सोचकर अपनी माँ से पूछा, "क्या बाबू जी ने मुझे माफ कर दिया है माँ ?"

माँ जैसे अपनी बेटी के मन की बात समझ गई थी कि वह अपने बाबू जी से मिलने को बहुत व्याकुल है एक्दम बोली, "बेटी उन्होने तो मुझे खुद कहा था कि अगर प्रभा से भेंट हो जाए तो मेरी और से माफ..........|"

प्रभा अपनी माँ का आशय समझ कर उसके के मुहँ पर हाथ रख देती है जिससे  उसकी माँ का वाक्य अधूरा ही रह जाता है | प्रभा ने जल्दी से अपने ड्राईवर को बुलाया | वह माँ के साथ गाड़ी में बैठी और उसका काफिला उसके पुराने गाँव की और बढ़ गया | 

गाँव के अन्दर घुसते घुसते वहाँ की साफ सफाई तथा सजावट देखकर प्रभा ने अन्दाजा लगा लिया था कि गाँव वालों को उसके आने का बेसब्री से इंतजार था | उन्होने उसे माफ कर दिया था तथा उन्हें अपनी गल्ती का एहसास हो गया था कि केवल लड़कों को ही नहीं अपितू लड़कियों को भी अपनी प्रतिभा दिखाने का पूरा मौका मिलना चाहिए | 

प्रभा ने दूर से देखा उसका पुराना घर जर्जर हालत में हो गया था | उसके रख रखाव पर कोई ध्यान न देने से वह गिरने की हालत में था | अन्दर उसके बापू चारपाई पर बदहवाश से लेटे थे |  प्रभा भागकर अन्दर पहुँच गई | अपने बापू की आँखें बन्द सी देखकर वह थोड़ी ठिठकी परंतु शायद बापू भी अपनी बेटी के पदचाप की आहट अभी तक भूले नहीं थे अतः धीरे से उन्होने अपनी बाहें फैला दी | हालाँकि प्रताप ने उठने की कोशिश की परंतु प्रभा भागकर उनकी फैलाई बाहों में समा गई | जब प्रभा का मन शांत हो गया तो उसने काफिले के साथ आए डाक्टर को बुलाकर कहा, "डाक्टर साहब ! जरा जाँच करके बताओ कि मेरे बाबू जी की हालत कैसी है ?"

डाक्टर ने जाँच करके बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है | उम्र के तकाजे के साथ साथ उनके बाबू जी को केवल थोड़ा सदमा है | 

इस पर प्रभा ने डाक्टर से जानना चाहा कि क्या उसके बाबू जी उसके साथ चलने में समर्थ हैं ?  

डाक्टर जैसे पहले से ही भाँप चुका था कि प्रभा उससे ऐसा प्रशन करेगी वह फट से बोला, "क्यों नहीं क्यों नहीं मैड़म | आप बहुत अच्छा निर्णय ले रही हैं | आपके साथ रहकर ये फिर से अपने खोए कुछ साल वापिस पा सकेंगे |"

डाक्टर का आशवासन पाकर प्रभा ने अपने बाबू जी को बड़ी आत्मियता परंतु दृड़ शब्दों में कहा कि उन्हें अब उसके साथ जाना है | प्रभा ने जब अपनी माँ से भी तैयार होने को कहा तो वह बड़े ही दीन शब्दों में बोली, "हमें तैयार क्या होना है बेटी, हमारे पास है ही क्या जो बटोरना है ?" 

अचानक जैसे प्रभा को कुछ याद आया | उसने घर के हर हिस्से में अपनी नजर दौडाई जैसे कुछ ढूंढ़ रही हो | जब उसने अपने मन की चाहत को कहीं नहीं पाया तो उसे  अधीर होकर अपनी माँ से पूछ्ना पडा, "माँ मेरे दोनों भाई नरेंद्र और सुरेंद्र कहाँ हैं ?"

अपनी बेटी प्रभा का प्रशन सुनकर पार्वती कुछ बोल न पाई अपितू अपने मुँह को अपने आँचल के पल्लू से ढ़ककर सुबक पड़ी | प्रभा किसी अनजान आशंका से विचलित होकर एकदम उठी तथा माँ को झकझोरते हुए बोली, "क्यों क्या हुआ माँ ?"

“कुछ नहीं |”

“तो फिर वे कहाँ हैं ?”

“वे अब यहाँ नहीं रहते |” 

“तो फिर कहाँ रहते हैं ?”

“बाहर के देशों में |”

“आप से कब मिले थे ?”

“नरेंद्र तो छः साल पहले तथा सुरेंद्र चार साल पहले जब हमने उन्हे विदेश जाने के लिए विदा किया था | उसके बाद.........(कहते कहते पार्वती की आवाज भर्रा गई और वह कुछ देर के लिए आगे कुछ कह न पाई) | 

अपने को सम्भालने के बाद पार्वती ने आगे कहा कि बेटी तुम तो जानती हो कि बचपन से ही तुम्हारे भाईयों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने में तुम्हारे पिता जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी | बेटी तुम्हारे पिता जी को उनकी रिटायर्मैंट पर जो पैसा मिला था उसके सहारे तुम्हारे बड़े भाई नरेंद्र को विदेश भेज दिया था | फिर तुम्हारा छोटा भाई भी अपनी पढ़ाई पूरी करके जिद कर बैठा कि वह भी विदेश जाकर नौकरी करेगा | हम मरते क्या न करते | अपने खेतों का कुछ हिस्सा बेचकर उसका भी इंतजाम कर दिया | परंतु बाहर जाकर उन्होने वह कहावत चरितार्थ कर दी कि "आँखों से ओझल मन से ओझल" | हमने उन्हें कई फोन किए, पत्र लिखे तथा सन्देशे भिजवाए परंतु उनका कोई जवाब नहीं आया | मैनें तेरे बाबू जी को बहुत समझाने की कोशिश की कि उनकी अधिक चिंता न करें परंतु ये माने ही नहीं तथा हृदय रोग लगा बैठे | एक साल पहले इनकी बाईपास सर्जरी करनी पड़ी थी | पैसे तो पल्ले थे नहीं इसलिए जमीन का जो आधा टुकड़ा बचा था वह धन सिहँ को, जो हमारी जमीन बटाई पर बोता था, बेच दिया | उसी की भलमानसता के कारण ही आज तुम्हारे बाबू जी जिन्दा हैं | क्योंकि उसी ने तुम्हारे बाबू जी का इलाज कराया तथा जी जान से उनकी सेवा की थी |    

बेटी इतनी अच्छी शिक्षा देने के बावजूद न जाने हमसे क्या कमी रह गई कि उन्होने हमारे साथ ऐसा सलूक किया | शायद बचपन से ही उनके दिल में पनपती पश्चिमी देशों की सस्कृति को हमने रोका नहीं | जब वे कोई मैच देख रहे होते थे या कोई खेल खेल रहे होते थे तथा उनसे या उनकी टीम के किसी साथी से कोई गल्ती हो जाती थी तो उनके मुँह से निकलता था "ओ शिट" | पहले तो हमें समझ ही नहीं आती थी कि वह "ओ शिट" क्या होती है परंतु जब समझ भी आई तो भी हमने उन्हें नहीं समझाया कि उस शब्द के बजाय "ओ गॉड" या "हे राम" का उच्चारण करना अच्छा रहेगा |  हम खुद ही अंग्रेजी धुनों पर उनके थिरकते पैरों को देखकर लुत्फ उठाया करते थे तथा हँस हँस कर उनका प्रोत्साहन बढ़ाया करते थे | फिर उनकी शिक्षा पूरी होने के एकदम बाद हमने यहाँ के संस्कारों की शिक्षा सिखाए बिना ही उन्हें विदेश भेज दिया | शायद यही कारण रहा कि उन्होने विदेश के संस्कार पाल लिए और हमें भूल गए | 

अपनी माँ के वचन सुनकर प्रभा अवाक, सन्न तथा ठगी सी रह गई | माँ ने अब भी कितनी सरलता से अपने लड़कों का पक्ष लेकर उनको दोष मुक्त कर दिया था | 

एक औरत(माँ) की आँखों में जब दुसरी औरत(बेटी प्रभा) ने झाँका तो उन मासूमियत भरी आँखो से उसे महसूस हुआ  जैसे कह रही हों कि बेटी मैं मानती हूँ कि एक बेटे का दायित्व होता है कि वह अपने माँ-बाप की सेवा करके उनका ऋण चुकाए परंतु हर इंसान को अपने कर्मों का फल भी तो भोगना पड़ता है | इसके लिए हमें दूसरों में अवगुण निकालकर उनको कसूरवार नहीं ठहराना चाहिए | अब देखो न शायद हमारे भाग्य में यही तय था कि तुम्हारे माध्यम से ही हमारी मुक्ति होगी | प्रभा ने महसूस किया कि उसकी माँ की आँखो में उसके भाईयों के प्रति कोई मलाल नहीं था |    

 फिर भी अपनी माँ के दिल की दर्द भरी आवाज को पहचान कर तथा उसके खोए सम्मान को प्रतिष्ठित करने के लिए प्रभा ने एकदम उठकर अपनी माँ के कंधों को पकड़ कर कहा, "माँ अभी भी तुम्हारे पास बहुत कुछ है | बाहर चलो मैं दिखाती हूँ |"

अन्दर से सभी लोग प्रभा तथा उसकी माँ के साथ बाहर आ जाते हैं | बाहर पहले से ही गाँव के बच्चे, औरते, जवान तथा बुजूर्ग लोग भारी मात्रा में एकत्रित हो चुके थे | प्रभा ने भीड़ में से, हाथ जोड़कर विनती करते हुए, एक बुजूर्ग को अपने पास आने का इशारा करते हुए कहा, " बाबा जी इधर तो आना |"

बूढ़ा आगे बढ़कर, "कहो बेटी |"

प्रभा ने बैंक का एक चैक और कुछ कागजात बूढे की तरफ बढ़ा दिए | 

बूढे ने उनको थामते हुए बड़े विस्मय से पूछा, "बेटी यह क्या है ? "     

प्रभा ने उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए कहना शुरू किया कि मेरे बाबू जी अपना घर सभी गाँव वालों के इस्तेमाल के लिए दान में देते हैं और मेरी माँ इसके साथ एक लाख का चैक दे रही हैं जिससे इस जमीन पर एक धर्मशाला जिसका नाम ‘प्रताप घर ‘ रखा जाएगा, बनवाई जाएगी | इस धर्मशाला के नाम पर मैं एक लाख रुपया बैंक में और जमा करा रही हूँ जिसके ब्याज से धर्मशाला के रख रखाव का काम हमेशा सुचारू रूप से चलता रहे | 

सभी जमा व्यक्तियों ने प्रताप की जय, पार्वती की जय के नारों से आसमान गुंजा दिया | इसके बाद प्रभा ने अपने बाबू जी और अपनी माँ को साथ लिया तथा उनका विमान चन्द मिंटों में ही आसमान की ऊँचाईयों में विलीन हो गया |   

लोग कहते हैं कि पृथ्वी सहनशीला है, सागर अथाह है, आकाश अनंत है परंतु शायद ये कहावते वही कहते हैं जो माँ की ममता से वंचित रहे होंगे | क्योंकि जैसे ब्रह्मांण्ड में आसमाँ का कोई अंत नहीं उसी प्रकार संसार में माँ की ममता का समापन नहीं |     

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