Tuesday, September 15, 2020

उपन्यास 'आत्म तृप्ति' (भाग-XXX)

 

XXX

न जाने क्यों गुड़िया के पिता ने माला का कभी भी किसी भी बात का विरोध नहीं किया | शायद वे सीधे साधे, भोले भाले तथा एक किस्म के दब्बू प्रवृति के मनुष्य थे | तभी तो इतना कुछ हो गया और वे एक मूक प्राणी की तरह सब कुछ होते देखते रहे | उन्होने कभी भी अपनी राय जाहिर नहीं की | उनके अन्दर अपनी बहू तथा बेटे के साथ रहने की ललक तो थी परंतु इतनी हिम्मत न थी कि उनसे डंके की चोट पर कह सकें कि उन्हें किसी से डरने की कोई आवशयकता नहीं "मैं हूँ ना" | अपनी ललक को वे उनसे टेलिफोन पर बात करके ही मिटा लेते थे |

अपना मकान पा लेने के बाद राधे ने गिरगिट की तरह रंग बदलने शुरू कर दिए | उसने नौकरी छोड़ दी तथा पूरा समय घर पर ही बिताने लगा | तर्क यह दिया कि शादी के बाद लड़की जब ससुराल जाती है तो उसकी सारी जिम्मीदारी उसकी ससुराल वालों पर आ जाती है तो अब मैं जब अपनी ससुराल में रह रहा हूँ तो मेरी सारी जिम्मीदारी भी तो मेरी ससुराल वालों की होनी चाहिए | इसके अतिरिक्त मैं अपनी पूरी जिन्दगी मेहनत से कमाता तब भी अपना मकान नहीं बना सकता था | अब मैनें अपना मकान बना लिया है इसलिए समझ लो कि मैनें अपनी पूरी जिन्दगी की कमाई कर ली है | अतः मुझे अब नौकरी करने की कोई आवश्यकता नहीं है | उसने अपनी मम्मी जी का ख्याल भी रखना छोड़ दिया था | गुड़िया  ही खाना बनाकर नीचे भेज देती थी |

धीरे धीरे माला के मन पर अपनी लड़की गुड़िया तथा दामाद के छाए सदभावना के बादल छटने लगे | उसे महसूस होने लगा कि वह उनके सब्जबाग को समझ न पाई तथा उनकी बातों में आकर, बिना परखे, अपनी बहू को बेगाना समझ लिया | परंतु अब पछताने से क्या होने वाला था जब सब कुछ लूट चुका था |

इसके बावजूद माला ने कई तरीकों से अपनी बेटी तथा दामाद के चगुंल से निकलने के भरसक प्रयत्न किए परंतु वे तो जौंक की तरह चिपट कर रह गए थे | गुड़िया के रहते कावेरी माला के पास आने को तैयार न थी क्योंकि गुड़िया ने उसे इतना डरा दिया था कि वह उसकी छाया से भी डरने लगी थी | अपनी लड़की तथा दामद का विशवास घात, संजय का अपनी पत्नि की वजह से घर से दूर रहना तथा अकेले रहने की तन्हाई बुआ जी को अन्दर ही अन्दर छेदने लगी और वे बिमार रहने लगी |

इसके बाद संतोष थोड़ी रूकी | ऐसा लगा जैसे पूरी कोशिश करने के बावजूद वह अपनी जबान से आगे की बात कहने में अपने आप को असमर्थ पा रही थी | फिर भी अपने नयनों में छलछलाते अश्रुओं को पीते हुए उसने भर्राए स्वर में कहा, "बुआ जी ने यह तो सब कुछ सहन कर लिया परंतु अब उसके आखिरी समय में एक आदमी उन्हें अपार कष्ट पहुँचा रहा है |  वह बहुत दिनों से बिमार थी परंतु किसी तरह से जीवन की गाड़ी खींच रही थी |

तुम्हारे कहने से तो पता चलता है कि समस्या ने गम्भीर रूप धारण कर लिया है ?

हाँ यही सच्चाई है | क्योंकि अब तो डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया है |   

क्या ! ,गुलाब कुछ विचलित हो उठा |

आज शाम को माला को अपने घर ले जा रहे हैं |

गुलाब ने न तो कुछ जवाब  दिया तथा न ही कोई प्रशन किया | वह चुपचाप एकटक संतोष के चेहरे पर उतरते चढते भाव देखता रहा | संतोष थोड़ी देर चुप रही | ऐसा लग रहा था जैसे उसके दिमाग में कुछ उथल पुथल हो रही थी | संतोष शायद कुछ कहना चाहती थी परंतु कहने में उसे कुछ हिचकिचाहट हो रही थी | अपने अन्दर आए भूचाल को शांत करने के मकसद से उसने अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया | कुछ समय वातावरण शांत रहा | फिर संतोष ने साहस बटोरते हुए धीरे से कहा, "जी जरा ध्यान से सुनना |

हूँ |

जब मैं माला से मिलने के लिये उसके बिस्तर के पास जाकर खड़ी हुई तो उसकी आंखे बन्द थी |

हूँ |

मेरे साथ और भी कई लोग थे | सबने माला का नाम लेकर पुकारा परंतु माला ने अपनी आंखे नहीं खोली और न ही उसके शरीर में किसी प्रकार की कोई हरकत हुई | 

हूँ |

परंतु जब मैनें बुआ जी कहा तो उनके शरीर में थोड़ी हरकत देखने को मिली |

हूँ |

मैने जब दोबारा बुआ जी कहा तो उन्होने धीरे धीरे अपनी आंखे थोडी सी खोली |

हूँ |

उन आंखो से बुआ जी ने पहले मुझे देखा फिर मेरे दोनों ओर निहारा |

हूँ |

उनकी खोई खोई सी आंखो से ऐसा प्रतीत होता था जैसे वे किसी खास अपने को ढूंढ रही थी |

हूँ |

और और.. जब माला की आंखो को वह दिखाई नहीं दिया तो उनमें आंसू छलछला आए , कहते कहते संतोष खुद भी रो पड़ी |

अरे यह क्या , गुलाब ने आगे बढकर संतोष का चेहरा अपनी और घुमा लिया तथा उसे अपने सीने से लगा लिया |

संतोष अचानक अपने हाथों का प्रहार गुलाब के सीने पर करते हुए सुबक पड़ी और बोली, "तुम बडे निर्दयी हो |

गुलाब सकते में आते हुए,मैं |

हाँ तुम |

यह तुम क्या कह रही हो ?

मैं एक औरत हूँ | एक औरत का दिल रखती हूँ और एक औरत के दिल के दर्द को पहचानने की क्षमता रखती हूँ | संतोष ने बड़ी दृडता से कहा, "मैं जो कह रही हूँ वही सच्चाई है | तुम ही उनके दुखों को बढा रहे हो |

तोषी तुम ये क्या अनाप सनाप कहे जा रही हो ?

यह अनाप सनाप नहीं है | हकीकत है | मैं तुम दोनों के बारे में सब कुछ जानती हूँ |

गुलाब आश्चर्य से,क्या ! और उसका मुँह खुला का खुला ही रह गया | 

हाँ जी ! मैं और माला हालाँकि रिस्ते में बुआ भतीजी हैं परंतु हम उमर होने के कारण आपस में अच्छी सहेली भी हैं | माला बुआ अपने प्रथम प्यार की सारी बातें, जो आपके साथ होती थी, मुझे बताती रहती थी | बदकिस्मती से उनकी शादी, आपके बड़े भाई साहब के कारण, आप से न हो पाई | वे उस समय आपके लिए बहुत तड़पी थी | भगवान की मर्जी तथा मेरी किस्मत से मैं आपके पल्ले पड़ गई | भाग्य ने माला का शरीर तो आपके हवाले नहीं किया परंतु  माला अपनी आत्मा आपके हवाले कर चुकी थी |

गुलाब अपने को थोड़ा सम्भालते हुए, "परंतु हमारी शादी को हुए तो 35 वर्ष बीत चुके हैं | तुमने आजतक कभी इस बात का इजहार भी न होने दिया | न ही तुमने हम दोनों पर कभी कोई शक किया जैसा कि अमूमन एक औरत करती है | मैं माला को अकेला ही उसे उसके घर तक छोड़ने गया | उस बात को भी तुमने सहर्ष स्वीकार कर लिया | तुम धन्य हो तोषी तुम धन्य हो |

धन्य मैं नहीं धन्य आप हैं | याद करो उस दिन को जब आप छुट्टी पर घर आए थे | मुझे अपने घर न पाकर आप अपने जीजा जी वरूण के घर पहुंच गए थे | रात का समय था | हम दोनों कमरे में अकेले थे | जब आपने दरवाजा खुलवाया तो आपको अचानक सामने पाकर वरूण के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगी थी तथा वे मुँह लटकाए एकदम बाहर चले गए थे | मै रोते हुए आपके सीने से लग गई थी | आपने मुझ पर बिना कोई शक किए बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा था |

एक बात और आपको याद होगी कि एक बार आपके किसी भतीजे ने मेरे बारे में कई अनर्गल बातें लिख कर आपको पत्र डाला था | उस बार आप अचानक ही छुट्टियों पर आ गए थे | मुझे वह पत्र आपकी जेब से मिला था | उस पत्र के बारे में आपने मुझ से कुछ नहीं पूछा था | परंतु आप अपने मामा जी के लड़के के साथ उस मास्टर की तलाश में मशगूल रहे थे जिसने मेरे साथ बदसलूकी करनी चाही थी| मैंने भी आपको कुछ नहीं बताया था क्योंकि मुझे अन्देशा था कि मेरे ऐसा करने पर घर में कलह हो जाएगी तथा भाईयों में फूट पड़ जाएगी क्योंकि असली मुजरिम वह मास्टर नहीं बल्कि आपकी समानता वाला खून ही था | इसको माता जी भाँप गई थी |

इन्हीं कारणो से जब मैं आपके साथ देवलाली जाने की जिद करते हुए कह रही थी कि अकेली औरत को दूसरे तो दूसरे अपने भी वासना की नजर से देखते हैं तब भी आपने एक बार भी नहीं पूछा था कि ऐसा अपना कौन है तथा उसने क्या किया | और कोई व्यक्ति होता तो बाल की खाल निकाल कर अपनी पत्नि को ही दोषी करार  दे देता परंतु आपने ऐसा कुछ नहीं किया |  आपको मेरे उपर पूर्ण विशवास था तभी तो आपने इन सब बातों को कोई महत्व नहीं दिया |

मैं उसी दिन से आपको भगवान स्वरूप मानने लगी थी | जब आप मेरे प्रति ऐसी स्थिति को जानकर भी नजर अन्दाज कर सकते थे तो क्या मुझे शोभा देता कि मैं आपके चरित्र पर शक की निगाह रखती | फिर यह भी मैं अच्छी तरह जानती थी कि माला के प्रति आपका लगाव वासना रहित एवं निश्छल था क्योंकि मैं यह भी जानती हूँ कि आपने अपने उपर संयम रखते हुए मेरी बुआ जी को कितने सरल स्वभाव से गर्त के गढ्ढे में गिरने से रोका था | | इसके बाद संतोष थोड़ा रूकी तथा बिलकुल शांत स्वभाव से बोली, " अच्छा अब मेरे उपर एक कृपा और कर दो |

क्या ?

आप मेरे साथ माला के घर चलो |

गुलाब कुछ झिझकते हुए,मैं वहाँ जाकर क्या करूंगा | तुम शालू भाभी जी के साथ ही चली जाओ |

संतोष जोर देते हुए बोली, आप समझते क्यों नहीं | माला में शेष अब कुछ बचा नहीं है | उसकी आत्मा भटक रही है | हो सकता है वह आप में ही..........|

गुलाब संतोष की बातों का आशय समझते हुए बीच में ही उसकी बात काटते हुए बस इतना ही बोल पाया, "तोषी |

यह मेरा अन्दाजा है | आगे उपर वाला जाने | चलो अब देर मत करो |

माला के घर ड्राईंग रूम  में अधिक लोग न थे | अकेला उसका पति राकेश था जो सोफे पर बैठा ऊंघ रहा था | माला की नन्द सामने पड़े पलंग पर सो रही थी | बड़ी लड़की ससुराल गई हुई थी | छोटी बाजार गई थी |

संतोष ने माला के पति से उसके बारे में पूछा, "बुआ जी कैसी हैं ?”

राकेश लम्बी साँस छोडते हुए, भगवान ही मालिक है |

गुलाब :- होश में तो हैं ?

राकेश :- नहीं गफलत सी में हैं |

राकेश यह कहता हुआ बाहर निकल गया कि आप बैठो, उसकी छोटी लडकी को बाजार गए काफी देर हो गई है अतः वह पता करके आता है कि क्या कारण है जो वह आई नहीं  |

संतोष जो अभी तक इस असमंजस में थी कि गुलाब को माला के पास कैसे भेजे, राकेश के बाहर चले जाने के बाद अच्छा मौका जानकर तथा चारों और किसी को न पाकर, अपने पति से बोली, आप अन्दर जाकर देख लो |

गुलाब झिझकते हुए,मैं अकेला ?

संतोष गुलाब के प्रशन का उत्तर न देते हुए अपनी स्वीकृति में आंखो को बन्द करते हुए हाँ कहने की मुद्रा में अपनी गर्दन एक तरफ थोड़ी झुका देती है | गुलाब भी इधर उधर देखता हुआ अन्दर कमरे में दाखिल हो जाता है |  माला को जमीन पर लिटाया हुआ था | गुलाब उसके पास उकडू बैठ जाता है | वह धीरे से माला के सिर पर हाथ फेरता है | गुलाब के स्पर्श मात्र से माला का शरीर हरकत में आया ठीक वैसे ही जैसे बुझते दिये में अगर तेल की एक बून्द डल जाए तो वह फिर जलने लगता है | आज कई दिनों से बन्द माला की आंखो ने रोशनी देखी परंतु उनमें अश्रु भर आए | गुलाब ने अपना रूमाल निकाल कर उनको पोंछ दिया | दूर कहीं से गाने की आवाज सुनाई पड़ती है "आ बैठ मेरे पास तुझे देखती रहूँ" |

गुलाब को माला के चेहरे पर लौटती रौनक से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे माला की आत्मा को तृप्ति मिल रही हो | उसके मुख पर संतोष जनक आभा देखकर गुलाब पूछना ही चाहता था कि माला कैसी हो कि अचानक माला के शरीर में आखिरी हरकत हुई | माला का हाथ थोड़ा उठा और गुलाब के चरणों पर ऐसा गिरा जैसे माला उन्हें छूने की कोशिश कर रही हो | माला की निर्जिव खुली आंखो को देखकर गुलाब जोर से चिल्लाया, "माला |

संतोष दौड़ी हुई अन्दर आई | उसने माला की खुली आंखो को अपने हाथों से बन्द कर दिया | फिर गुलाब को बाँह से पकड़ कर बाहर लाते हुए बोली, "उस परवर-दिगार को कोटि कोटि प्रणाम जिसने बुआ जी को दिला दी आत्म-तृप्ति |”            

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