Tuesday, September 29, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (चिंतन)

 


चिंतन



अपने घर एकांत में बैठकर करण, सागर की शादी की तैयारियों से लेकर विदाई तक की प्रतिक्रियाओं पर चिंतन करने लगा | वह एक एक करके उन लाँछनों का विषलेशन करने लगा जो पिछले तीन दिनों में उसके या उसके परिवार के सदस्यों पर थोपे गए थे |    

1. कहा जा रहा था कि प्रवीण ने खुद तो शराब पी ही साथ में किशन को जबरदस्ती गाड़ी से उतार कर उसे भी पिला दी |

यह सरासर गल्त इलजाम था | जिस गाड़ी में किशन बैठा था उसमें भीड़ ज्यादा थी | प्रवीण के एक बार कहने से ही वह अपने आप उस गाड़ी से उतर आया था | फिर वह कोई दूध पीता बच्चा तो था नहीं जो उसे गोदी उठाकर लाया गया था | उसे यह भी नहीं पता था कि अशोक  ने उसे उस गाड़ी में रास्ता बताने के लिए बैठाया था | जैसा कि बाद में बात बनाई जा रही थी | वैसे भी बालकिशन उस गाड़ी से उतर कर अपने ससुर के साथ बैठ गया था | करण भी उसी गाड़ी में बैठा था तथा प्रवीण उस को चला रहा था | तब भी यह बात कैसे उड़ी कि दोनों ने पी रखी है | यह करण के परिवार को बदनाम करने की एक सोची समझी चाल नहीं थी तो क्या था ? जिसमें स्नेह ने जाने-अनजाने में कुंती का भरपूर साथ दिया | 

यह तो सभी जानते हैं कि कमल का फूल किचड़ में उगता है | उसके चारों तरफ बिखरी किचड़ से उसकी महक एवं सुन्दरता कम नहीं हो जाती | किचड़ के लाख कोशिश करने के बावजूद वह किचड़ को अपने उपर नहीं लगने देता | तथा किचड़ से बे परवाह खिलकर अपनी छटा बिखेरता रहता है | फूलों के प्रसश्कों को वह सम्मोहित तो करता है परंतु उसकी सुन्दरता से जलने वाले भी कम नहीं होते |

2.यह पहले ही तय हो गया था कि बारात जयमाला के स्थान पर रात दस बजे पहुँचनी चाहिए | सागर की घोड़ी रायल पैलेस के गेट पर पौने दस बजे ही पहुँच गई थी फिर भी प्रवीण को दोष दिया गया कि रास्ते भर उसने ही घोड़ी को आगे खिसकने नहीं दिया इसलिए देरी हो गई | कहना न होगा अगर प्रवीण उस बारात में न होता तो बारात की जगह ऐसा महसूस होता जैसे सभी किसी मातम में जा रहे हों | क्योंकि रास्ते भर न तो अशोक ने अपनी बुआ का दामन छोड़ा था न ही बुआ ने उसे घोड़ी के आगे नाचने को उकसाया | शराब न पीने पर भी स्नेह ने अपने आदमी किशन पर लाँछन लगा ही दिया था | अब अगर वह नाचकर अपनी देही तोड़ता तो स्नेह की शंका को आधार मिल जाता | रहे सागर के दोस्त तो वे सागर की अगल बगल से ही टस से मस न हुए | 

मान लो प्रवीण ने पी रखी थी तो क्या उसने किसी के साथ साथ बदतमीजी की थी या किसी को छेड़ा था | उसके बारे में यह किसी ने क्यों नहीं सोचा कि वह अपने में मस्त था तथा परिस्थिति का भरपूर आनन्द ले रहा था |

3.कहा गया था कि यह मैनेजरों तथा पढे लिखों की बारात है | उनकी बारात में ऐसा थोड़े ही चलता है | अगर ऐसा सोचना था तो अपने मेहमानों को बुलाया ही क्यों था | एक तो वे गिने चुने बीस थे | और देखा जाए तो उनमें करण का परिवार ही सबसे अधिक पढा लिखा था | जिस औरत को बी.पी.ओ. और विपरो कम्पनी में फर्क मालूम न हो वह अपने को पढी लिखी बताए तो क्या कोई मान लेगा | रही बात उसके बेटे की तो आजकल के जमाने के हिसाब से तो वह भी कोई खास पढा लिखा नहीं गिना जा सकता | बेशक से करण की पुत्र वधुएँ ग्रहणी थी परन्तु थी तो वे स्नात्कोतर |  

नतीजन कुंती एक कुएँ के मेंडक की तरह टर्र टर्र करके उसकी प्रति ध्वनी को सुनकर अपने एकाकी जीवन में बहार लाने का प्रयास करती है | उसने बाहर की दुनिया देखी कहाँ है | उसे क्या पता कि जिस पर वह दोष थोप रही है वह परिवार उसकी तरह एक नहीं बल्कि सैकडों शादियों का लुफ्त उठा चुका है |   

4.बात कानों में आई कि जब से संतोष आई है उसे तो बस ढोलक बजाने से ही फुर्सत नहीं है | 

यह तो कुंती बखूबी जानती थी कि उसकी बहन को छोटे से छोटा शोर भी नहीं सुहाता | उसने देखा था कि संतोष अपने पोते के कुआँ पूजन के मौके पर भी ढोलक की थाप को सहन न कर सकी थी | इतने खुशी के अवसर पर भी वह अकेली बन्द कमरे की खिड़की से झाँककर ही बाहर का नजारा देख रही थी | फिर भी कुंती ने यह कभी नहीं सोचा कि उसे यहाँ आकर ऐसी कौन सी राम बाण दवा मिल गई जो ढोलक की आवाज सुनना तो एक तरफ खुद ही ढोलक बजाने में अपार खुशी का अनुभव कर रही है | 

वास्तव में सागर की शादी का संतोष को अपने लड़कों की शादी से भी ज्यादा चाव था | कहते हैं कि अगर कोई इंसान सच्चे मन से भगवान की स्तूति में लीन हो जाए तो उसे दीन दुनिया की कोई खबर नहीं रहती | वह अपने दुख दर्द सब भूल जाता है | उसे तो बस एक ही सूरत याद रहती है, परमेशवर की | उसी प्रकार अपने सबसे छोटे एवं प्यारे बेटे सागर की शादी का खुमार उसके दिलो दिमाग पर ऐसा छाया हुआ था कि संसार का और कोई शोर उस पर हावी होने में असमर्थ प्रतीत हो रहा था | अर्थात संतोष शादी के अपने रंग चाव खुशी खुशी पूरे करना चाहती थी | इस बात को नजर अन्दाज करके कुंती ने अपना ठूंठपन दिखाते हुए उल्टा अपनी बहन पर लाँछन लगा दिया कि उसे तो ढोलक के सिवाय कुछ सुझता ही नहीं |

5. करण को इस सुरसुरी का भी पता चला कि कुंती यह कहती फिर रही है कि करण अपनी वाहवाही लूटने के लिए यह कहता फिर रहा है कि उसने राघवजी को ऋण दिला दिया वर्ना उनका मकान कभी न बनता |

यह संसार लेने देने की प्रतिक्रिया के कारण ही गतिमान है | बैंक से हजारों करोडों के ऋण का लेन देन नित्य प्रति होता है | अगर करण ने अपने किसी रिस्तेदार को ऋण दिला भी दिया तो कौन सा तीर मार दिया | ऋण बैंक ने दिया है तो वापिस भी बैंक में ही जमा हो रहा है | राघवजी के सामने तो क्या सागर की सगाई तक यह बात उजागर नहीं हुई कि करण ने कभी किसी को ऐसा कहा है कि राघवजी को ऋण उसने दिलवाया था | फिर अचानक शादी पर यह बात कैसे फैल गई | 

अगर यह बात सच थी तो राघवजी के सामने ही या उनके बाद अब तक दबाकर क्यों रखी गई | अगर सच झूठ का पता लगाना था तो उनके सामने ही यह बात उजागर करनी थी | चलो अब भी कुछ बात इतनी पुरानी नहीं हुई है अगर करण नें यह बात किसी को कही है तो राघवजी ने कुंती को तो बताई होगी कि वह इंसान कौन है | अब उसको करण के रूबरू करा कर दूध का दूध पानी का पानी कराए तो जानें | क्या कुंती का यह एक और षड़यंत्र ही नहीं है अपने ठूंठपन को बरकरार रखने का | उसे कौन समझाए कि केवल हँसने वाले के ही सभी साथी होते हैं रोने वाले के नहीं | रोने वाले का साथ देकर उसको हँसाने का हर सम्भव प्रयास करना तो करण के परिवार जैसा कोई विरला ही होता है |

6.सागर ने यह बात फैलाई कि हमें अपने घर बुलाकर मौसी जी ने मेरी मम्मी जी को घास की सब्जी खिलाई |

कुंती सागर तथा अशोक के साथ करण के घर शादी का निमंत्रण देने आए थे | उस दिन प्रवीण ने अपने पूरे परिवार के साथ अपनी बहन प्रभा के यहाँ संकरात की भेंट देने का प्रोग्राम बना रखा था | उन सब का खाना वहीं था | करण तथा संतोष ने अपने लिए आलू पालक की सब्जी तथा लस्सी बनवा कर रखवा ली थी | प्रवीण घर से निकलने वाला ही था कि वे तीनों आ गए | घर में इतनी जल्दी खाना तो बन नहीं सकता था इसलिए प्रवीण ने होटल से खाना मँगवा लिया | होटल के खाने में प्याज होने की वजह से कुंती को संतोष ने अपने लिए बनवाई छाछ (लस्सी) तथा आलू पालक की सब्जी कुंती को परोस दी | उसको ही अब उड़ाया जा रहा था कि उसे घास खिला दी | 

ऐसा नहीं है कि कुंती इससे पहले कभी अपनी बहन के यहाँ नहीं आई | वह कई बार दो दो तीन तीन दिन उसके यहाँ रूकी भी थी | अगर घास खिलाने वाली बात करनी थी तो बहुत पहले ही उजागर कर देनी थी | अब शादी के मौके पर यह बात उठाने का एकमात्र तात्पर्य आगे से रिस्ता कायम न रखने के ध्येय से प्रेरित केवल एक और कड़ी मात्र हो सकता था | 

ये सब बे सिर पैर की बातें जानकर करण के हृदय में कुंती के आचरण के प्रति कोई पश्चाताप, घृणा, द्वेष, गुस्सा इत्यादि का कोई संचार नहीं हुआ क्यों कि वह पहले से ही उसके ऐसे व्यवहार के सत्य से वाकिफ था |

करण को उसके परिवार के प्रति कुंती की बगावत का बिगुल बजने का आभाष तो सागर की सगाई पर जाते समय ही हो गया था जब कुंती अपने भतीजे के परिवार एवं सागर के साथ अपनी गाड़ी में सवार होकर चल दी थी तथा करण को बेजान सामान की तरह  दूसरी गाड़ी की डिक्की में बैठा दिया गया था | क्या राघव के साथ ऐसा वर्ताव किया जा सकता था या राघव करण के साथ ऐसा आचरण कर सकता था ? कभी नहीं | यह करण के प्रति कुंती द्वारा अपमान करने की शुरूआत थी | परंतु इस अपमान के बाद भी करण सागर की शादी को सुचारू रूप से सम्पन्न कराने के लिए कटिबद्ध रहा | अन्यथा उसकी जगह अगर कोई और होता तो उसी समय अपने रिस्तों का अंत कर देता |

एक बार को यह तो माना जा सकता है कि ममत्व में बहकर सागर ने अपनी माँ के रूष्ट होने पर उसका अनुशरण किया होगा परंतु उसमें भी अपने को बुद्धिमान समझने वाले  सागर ने बिना कारण का विशलेषण किए अपनी माँ का अनुशरण करने में कोई बुद्धिमता तो दिखाई नहीं | बल्कि अपना अहंकार, गरूर तथा औछापन प्रदर्शित कर दिया | वह तो, उसके अनुसार, उन गँवार आदमियों से भी बदतर निकला जिन्होने उसके प्रति अपनत्व का इजहार करके अपने व्यापरिक संस्थानों को तीन दिन के लिए बन्द रखा था | 

महाभारत में दुर्योधन द्वारा कर्ण को अंग देश का राजा घोषित करने के बाद वह सदा के लिए दुर्योधन का हितैषी तथा वफादार बन गया था | कर्ण दुर्योधन के बारे में यह जानते हुए भी कि वह अधर्म का साथ देकर गल्त रास्ते पर अग्रसर है उसके खिलाफ नहीं गया | उसने मरते दम तक दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा था | कर्ण के लिए तो दुर्योधन ने कुछ त्याग किया था और उसी के वशीभूत कर्ण दुर्योधन का ऋणी हो गया था | परंतु यहाँ अशोक न जाने क्यों कर्ण से भी अधिक वफादार एवं पालतू बना हुआ था | उसने अपने माँ बाप को भी त्याग रखा था | 

पहली बार जब अशोक अपने माँ बाप से सम्बंध विच्छेद करने की जिद लगा बैठा था तो करण ने उसे समझाने की लाख कोशिश की कि माँ बाप से बढकर, खासकर माँ से, इस संसार में कुछ नहीं होता | अतः उसे माँ का त्याग किसी भी सूरत में नहीं करना चाहिए | परंतु कुंती द्वारा उसके उपर हाथ फेरने मात्र से उस पर कुछ ऐसा जादूई असर होता कि वह कुछ न कर पाता | इस तरह वह सदा के लिए अपनी माँ के आँचल के तले मिलने वाले ममत्व के आभाष से वंचित रह गया | हाँलाकि एक माँ अपने बच्चे का बुरा कभी नहीं चाहेगी फिर भी अप्रत्यक्ष तौर पर वह सुख शांति के लिए आजिवन तरसता ही रहता है | शायद यही वजह रही होगी कि अशोक अभी तक एक खुशहाल जीवन जीने के लिए लालायित है |  

करण ने अशोक की यह सोचकर कई बार हर तरह से सहायता की थी कि वह घर से बाहर रह रहा है | उसे कभी किसी बात के लिए दुतकारा नहीं परंतु वह भी शादी के मंडप में करण की बे-इज्जती करने में हिचकिचाया नहीं | करण को इस बात का मलाल तो हुआ परंतु अपने मन को यह सोचकर समझा लिया कि जो व्यक्ति कुंती के लिए अपने माँ बाप का न हो सका वह और किसी का कैसे हो सकता है |  

कुंती से तो करण को पहले से ही अच्छे आचरण की उम्मीद नहीं थी फिर भी उसे इतना भरोसा था कि वह अपने टेहले में ऐसा नहीं करेगी जिससे उसके घटिया आचरण  का पर्दाफाश हो | परंतु उसका वह विशवास भी धराशाही हो चुका था |

 

संतोष जो दो तीन वर्षों से मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बिमार चल रही थी और अब ठीक होने के कगार पर थी, तभी तो उसने ढोलक की थाप को सहन कर लिया था, कुंती के व्यवहार ने उसे झकझोर कर रख दिया | अपने घर आते आते उसकी हालत पहले जैसी खराब हो गई और वह बदहवास सी बिस्तर पर लेट गई | उसने पहले की तरह खाना पीना, हँसना बोलना छोड़ दिया | उसका सिर दर्द असहनीय हो उठा तथा बार बार रोना शुरू कर दिया | करण के तीन साल देखभाल एवं दवा कराने से संतोष को जो स्वस्थ लाभ हुआ था वह इन तीन दिनों के उत्सव ने बर्बाद कर दिया था | वह पहले से भी बदतर स्थिति में पहूँच गई थी | संतोष रोते रोते बड़बडाने लगी, “प्रवीण को थोडा संयम रखना था | चाहे उसका कसूर था या नहीं | सब कुछ निबट गया था | चुपचाप आ जाता | मैनें शीतल के लिए रोटी कराए में देने के लिए पूरी तैयारी कर रखी है | उसके गहने व कपड़े लाकर रखे हैं | वे अब कैसे दिए जाएँगे, उसके पास कैसे पहूँचेंगे |” 

अपनी पत्नि को सांत्वना देने के लिए करण ने समझाया, "पहले रोटी कराई का सन्देशा तो आने दो फिर चलेंगे |”

“अब वह सन्देशा देगी ही नहीं |”

“क्यों उसकी तुम्हारे से तो अनबन नहीं हुई ?”

“फिर भी वह नहीं बुलाएगी |” 

“देखते हैं | समय तो आने दो |”

यह सोचकर कि शायद अपनी बड़ी बहन से बात करके उसका मन शांत हो जाए संतोष ने कहा, “अच्छा मैं जीजा जी तथा अपनी बड़ी बहन से बात करना चाहती हूँ |”

“क्यों नहीं, अभी कराता हूँ”, कहकर करण ने उनका फोन मिला दिया |

संतोष ने बात करना शुरू किया, "बहन जी नमस्ते |"

“नमस्ते, ठीक तो है ?”

संतोष ने सीधा प्रश्न किया, “क्या आप यहाँ एक दिन के लिए आ सकती हो ?”

“नहीं अब तो हम कल अछनेरा चले जाएँगे |”

संतोष अपनी बड़ी बहन से मिलकर अपने मन को सांत्वना देना चाहती थी अत: बड़े ही मार्मिक शब्दों में याचना की, “मैनें आपको इससे पहले कभी भी किसी काम के लिए नहीं कहा | आज पहली बार कह रही हूँ |”

“नहीं अब तो नहीं आ सकती |”

जब बहन ने बात नहीं मानी तो बोली, “अच्छा जीजा जी को फोन दो | जीजा जी आप से निवेदन है कि एक दिन के लिए यहाँ आ जाओ |” 

“संतो अब तो सुबह हम जाएँगे |” 

“मैं पवन को भेज देती हूँ वह अब तुम्हे वहाँ से ले आएगा तथा सुबह यहाँ से स्टेशन छोड़ आएगा |”

“नहीं अब तो जाने दो |”

अपने जीजा जी एवं बहन जी द्वारा उसके अनुरोध को ठुकराने से संतोष के मन पर और भारी आघात लगा | वह फोन को पटक कर धम्म से बिस्तर पर गिर कर फफक फफक कर रो पड़ी | 

संतोष को सम्भालना मुश्किल होता जा रहा था | ऐसा लग रहा था कि कुछ ही देर में वह सबके बे काबू हो जाएगी | किसी के भी समझाने का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था | करण  दुविधा में था कि वह क्या करे क्या न करे | ऐसी स्थिति थोड़ी देर और बनी रहने से संतोष का दिमागी संतुलन बिगड़ सकने का अन्देशा था | अचानक करण को एक युक्ति सूझी | उसने चुपके से कुंती  का टेलिफोन नम्बर मिला दिया परंतु उससे कोई बात नहीं की | कुंती के हैलो कहते ही करण ने टेलिफोन काट दिया | करण  की युक्ति काम कर गई | कुंती ने शायद यह सोचकर कि संतोष का फोन अपने आप कट गया है अपना फोन मिला दिया | सबके सामने घंटी बजने पर करण ने यह कहते हुए कि कुंती का फोन आया है उसका फोन संतोष के हाथ में थमा दिया | संतोष को बहुत राहत मिली | जो अब तक बदहवास स्थिति में थी बैठकर आँसू बहाते बहाते बात करने लगी | उसके चेहरे की रंगत बदल गई जैसे किसी ने दम तोड़ते हुए प्राणी को संजीवनी बूटी सूंघा दी हो | शायद संतोष को संतोष हो गया था कि उसकी बहन उससे नाराज नहीं है | 

जब संतोष कुछ होश में आई तो बोली, "जी, इस सारे फिसाद की जड़ अशोक  है |"

“छोडो भी होगा , हमें अब क्या लेना देना |”


“नहीं अब मैं अशोक के पास जाकर पूछना चाहती हूँ कि उसने ऐसा बखेड़ा क्यों किया ?”

“छोडो भी, वैसे भी वह अभी ग्यालियर गया हुआ है |” 

“कोई बात नहीं कभी तो आएगा |”

“जब आएगा तभी चलेंगे तब तक तुम चैन से तथा खुश रहो |” 

“नहीं मुझे अभी वहाँ छोड़कर आओ |” 

“अभी वहाँ जाकर क्या करोगी ?”

“मैं उनको कोई तकलीफ नहीं पहुँचाऊंगी | मैं अपना बिस्तर भी साथ ले जाऊँगी | खाना भी अपना खाऊँगी | यहाँ तक की पानी भी अपना पीऊँगी |” 

सभी घर वालों ने संतोष को लाख समझाने की कोशिश की परंतु उसने किसी की एक न सुनी | आखिर उसी रात संतोष को अशोक के घर छोड़कर आना पड़ा | अशोक के न आने पर हाँलाकि बीच में वे एक बार घर आ गई थी परंतु अशोक के माफी माँगने से ही उनके दिमाग को शांति मिली तथा तभी वे अपना बिस्तर वगैरह उसके घर से उठा कर लाई | 

कुंती की तरफ से रोटी कराई का निमंत्रण न आना था और न आया | संतोष के मन में इस बात का मलाल तो बहुत हुआ कि उसकी तरफ से बहू को देने वाला सामान यूँ ही रखा रह जाएगा परंतु उस मलाल की तिव्रता को करण  की युक्ति ने काफी हद तक कम कर दिया था | चाहे संतोष इसके कारण कई दिनों तक निढाल सी अवशय रही फिर भी वह बात संतोष की सेहत व दिमागी हालत पर अधिक असर न कर पाई |    

जहाँ तक करण को याद है जब से कुंती की शादी हुई थी उसके घर उसका कोई भी रिस्तेदार तीन घंटे से ज्यादा नहीं रूका होगा | उसने अपनी ससुराल, अपने पीहर, अपने रिस्तेदारों यहाँ तक की अपने पडौसियों तक से बना कर नहीं रखी थी | करण को उस दाई की बात याद आ गई जिसने कुंती को गर्भवती होने से पहले ठूंठ कहा था | 

वास्तव में ही कुंती ने अभी तक हर मायने में एक जीव होते हुए भी एक निर्जीव ठूंठ की भाँति जीवन व्यतीत किया था | करण  ने, यही सोचकर कि कुंती के मुश्किल से बीस मेहमान होंगे जिसमें से दस तो उसके खुद के परिवार के ही बैठते हैं, अपने पूरे परिवार के साथ तीन दिन उसकी खुशी में शामिल होने का मन बना लिया | इससे एक तीर से दो शिकार वाली बात बनती थी | एक तो  हँसी खुशी तथा चहल पहल से शादी समपन्न हो जाती तथा दूसरे कुंती अपने ठूंठपन से उभर जाती |  

बाद में पता चला कि कुंती के तो रोम रोम में ठूँठपन समा चुका है | और उसकी छत्रछाया में रहकर उसकी विचार धारा तथा संस्कारों का पूरा असर सागर पर भी छा चुका था | महान आत्माओं का मानना है कि मानव शरीर में कुछ शक्तियाँ तो प्रत्यक्ष हैं तथा कुछ परोक्ष हैं | वास्तविक शिक्षा वही है जो शारिरीक विकास, मानसिक विकास, भौतिक विकास और आध्यात्मिक विकास कराए | अर्थात शिक्षा द्वारा ही एक मनुष्य का पूर्ण विकास हो सकता है | परंतु इन सबसे अलग एक व्यक्ति की सबसे महत्व पूर्ण निधि होती है उसका स्वभाव और उसके संस्कार जो मात्र शिक्षा ग्रहण करने से नहीं पनपते | इस दोनों गुणो पर मनुष्य की संगत बहुत प्रभाव डालती है | इसीलिए कभी कभी मनुष्य की शिक्षा द्वारा बना उसका उन्नत व्यक्तित्व तथा मानसिक विकास उसकी गल्त संगत तथा किसी व्यक्ति विशेष के प्रति सहानुभूति उपजने के कारण नष्ट प्रायः हो जाता है |   

तभी तो अपनी मम्मी की तरह अपनी वाणी के प्रहारों से सागर ने अपने गिने चुने रिस्तेदारों से सम्बंध विच्छेद करने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट महसूस नहीं की थी | अपनी माँ की तरह वह भी अपने रिस्तेदारों की तरफ से ठूंठ बन गया | 

 कहते हैं सागर मंथन में जब एक विष का घड़ा निकला था तो देवता तथा राक्षसों में से किसी ने भी उस विष को ग्रहण नहीं किया था | डरावनी स्थिति से सभी को उभारने के लिए भगवान शिव ने उस विष को पीना स्वीकार कर लिया था | विष को पीते ही शिव जी के शरीर में कई प्रकार के विकार उत्पन्न होने लगे | विष के कारण शिव जी के शरीर में इतनी जलन होने लगी कि उनका शरीर काला पड़ने लगा था | इस जलन को शीतलता प्रदान करने के लिए उन्हें शीतल चंद्रमा को धारण करना पड़ा था | 

अब देखना यह है कि सागर के अन्दर जमा विकारों को शीतलता प्रदान करने के लिए  शिव की चंद्रमा समान 'शीतल' क्या युक्ति अपनाती है तथा कैसे विकसित करके बचा पाती है एक और बनते ठूंठ को |   


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