Wednesday, September 23, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (विघटनकारी)

 विघटनकारी

कुंती को माँ बने लगभग तीन साल हो गए थे | वह अब अपनी ससुराल चन्दौसी में रह रही थी | राघवजी आगरा में तैनात थे | एक दिन वे अपनी आफिस के किसी काम से देहली में दौरे पर आए तो करण से मिलने, जैसा वह अक्सर किया करते थे, उसके घर आ गए | अपनी आदत अनुसार उन्होने तकिए का सहारा लिया और पलंग पर लेट गए | दुआ सलाम की औपचारिकता के बाद राघव जी ने अपने मन की व्यथा को बाहर निकालते हुए करण से प्रश्न किया, "भाई साहब आप बताओ क्या किया जाए |?" 

करण ने उल्टा प्रश्न किया, "किस बारे में ?"

“सागर तीन वर्ष का हो गया है |”

“हाँ बिलकुल हो गया है, तो ?

“उसे स्कूल में भर्ती करवाना है |” 

“इसमें समस्या क्या है, करवा दो | आजकल तो ढाई वर्ष के बच्चों को ही स्कूल भेजने का प्रचलन है |” 

“भाई साहब बात यह नहीं है |” 

“तो फिर क्या अड़चन है ?”

“भाई साहब बात यह है कि मैं तो अधिकतर घर से बाहर ही रहता हूँ | इसलिए चाहता हूँ कि सागर को चन्दौसी के ही किसी अच्छे से स्कूल में भर्ती करवा दूँ |” 

“बिलकुल ठीक है | घर के पास अच्छा रहेगा |”  

“परंतु कुंती यह नहीं चाहती |” 

“क्यों ?”

“क्योंकि उसके अनुसार वहाँ के स्कूल कोई खास प्रसिद्ध नहीं हैं |” 

“क्यों क्या आप वहाँ नहीं पढे, वहीं से पढ़कर तो आपने स्वर्ण पदक हासिल किया था |”  

“मेरी तरह वहां से सैकड़ों बच्चे हर वर्ष अच्छे नम्बरों से पास होकर उच्च ओहदों पर लगे हुए हैं | चंदौसी का श्याम सुन्दर मैमोरियल कालेज तो जगत प्रसिद्द है | यह १९०८ में स्थापित हुआ था | मैंने इसी कालेज से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की थी |”  

“फिर ?”

राघव निराशाजनक आवाज निकालते हुए बोले, "परंतु कुंती को कौन समझाए ?"

करण ने अपने साढू की दुखती रग को पहचानकर उससे पूछा, "केवल यही बात है या कुछ और भी है ?"

राघव, करण की निगाहों का आशय समझकर कुछ छुपा न सका | उसने कहना जारी रखते हुए कहा, “बात यह भी है कि कुंती न तो अपने लिए या सागर के लिए किसी से कुछ करवाना चाहती है न ही किसी का कुछ करना चाहती है |”

करण ने बात को स्पष्ट करके कहा, “मतलब वहाँ रहने से सागर को स्कूल से लाने ले जाने की समस्या रहेगी ?”

“आपने ठीक समझा क्योंकि कुंती अपने तक ही सीमित रहना चाहती है | वह केवल मुझे, सागर तथा अपने को ही एक परिवार का हिस्सा मानती है | और इस परिवार का कोई काम होता है तो वह मेरे घर के किसी भी सदस्य से करने को कभी नहीं कहती | उस काम को देर सवेर मुझे ही करना पड़ता है | शायद उसके लिए दूसरों द्वारा किया काम उसे उसके उपर एक एहसान महसूस होता है | जो वह अपने उपर चढाना नहीं चाहती |” 

"यह रवैया तो एक सयुंक्त परिवार की नींव हिलाकर रख देगा", करण ने अपना मत जाहिर किया |

“ऐसा कौन होगा जो अधिक दिनों तक ऐसा व्यवहार सहन करेगा | मुझे डर है कि इसकी वजह से अहिस्ता आहिस्ता हमारे परिवार के सदस्यों के दिलों में दरार इतनी चौड़ी हो जाएगी कि पाटनी मुशकिल हो जाएगी”, राघव ने ऐसे कहा जैसे उसके दिल के एक कोने में दर्द उठ रहा हो | 

“इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे ही व्यवहारों से तो परिवार एवं आपसी रिस्ते टूटते हैं |” 

“भाई साहब परिवार का टूटना दिल के टूटने से भी ज्यादा दुख की अनुभूति कराता है | दिल का टूटना तो केवल एक व्यक्ति तक ही सीमित होता है जबकि परिवार के टूटने की आवाज पूरे समाज में गूंजती है और उसकी प्रतिध्वनि व्यक्ति विशेष को विचलित कर देती है |”

राघव शायद बहुत दिनों से अपने अन्दर रखे हुए राजों से परेशान हो चुका था इसलिए करण के रिस्ते टूटने की बात पर कह उठा, “भाई साहब जब बताना शुरू ही कर दिया है तो आज आपके सामने अपना दिल खोल ही देता हूँ |”

"मैं कुंती - के- लायक- नहीं- था", राघव ने अपने दिल की गहराईयों से रूक रूककर हर शब्द पर जोर देकर कहा |

“आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, आप तो पढे लिखे, सभ्य, भद्र, बुरी लतों से दूर, राज्य में उच्च पदाधिकारी, आपको तो एक से एक अच्छी पढी लिखी लड़की मिल सकती थी | फिर भला आप अपने को कुंती के लायक क्यों नहीं समझते ?”

राघव, करण का आशय समझकर अपने द्वारा कहे गल्त उच्चारण किए शब्दों को जानकर थोड़ा मुस्कराया और कहा, "ऐसा समझ लो कि कुंती मेरे लायक नहीं थी |"

“भाई साहब भाग्य के लेख को कौन मिटा सकता है”, करण ने अपने साढू को सांत्वना दी |

राघव एक लम्बी साँस लेकर बोला, "मैं भी यही सोचकर चुपचाप कुंती की सब सहन कर रहा हूँ |" 

करण को अपने साढू की घुटने टेकने जैसी बात पसन्द नहीं आई तो उसने तपाक से कह दिया, "भाई साहब यहाँ आप गल्ती कर रहे हैं |"

“मैं जानता हूँ परंतु मैं आपकी तरह अपनी पत्नि को सही रास्ते पर लाने में असमर्थ हूँ |” 

“राघवजी एक परिवार को संगठित रखने के लिए मनुष्य को कुछ बलिदान, पुरूषार्थ,  साहस एवं रौब दिखाना जरूरी है | अन्यथा बिखराव अनन्य है |”

“आप कुछ भी कहो, अपने ससुर तथा अपने बड़े साढू की तरह, मैं इसमें नाकाम रहा हूँ |” 

करण ने चुटकी ली, “धन्यवाद भाई साहब आपने मेरा नाम नहीं लिया |”

करण के मजाकिया अन्दाज से राघव के उदास चेहरे पर थोड़ी रौनक दिखाई दी | वह बोला, “मैं यहाँ कितनी ही बार आ चुका हूँ मैनें कभी महसूस नहीं किया कि भाभी जी आप से ऊपर होकर बोलती हैं तो फिर भला मैं आपका नाम क्योंकर लेता |”

“वैसे क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ |” 

“इसमें पूछने की क्या बात है, पूछिए |” 

“आपने अभी कहा था कि आप अपने ससुर तथा अपने साढू की तरह अपनी पत्नि को काबू में रखने में असमर्थ हैं ?”

“हाँ कहा था |”

“आपने बाबू जी को क्या सोचकर इस इस श्रेणी में रख दिया ?”

“क्योंकि उन्होने भी तो अपने लड़के से लड़झगड़ कर अलग रखा हुआ है |” 

“इसका मतलब आप इस बारे में कुछ नहीं जानते कि उनका लड़का उनसे अलग क्यों रह रहा है ?”

“मैं तो अभी तक यही सोच रहा था कि कुंती की तरह सासू जी भी बाबू जी के सिर चढ़कर बोलती होंगी |”

“भाई साहब मुझे इनके सम्पर्क में आए काफी समय हो गया है |” 

राघव ने अपनी याददाश्त पर जोर देकर कहा, “आपकी अपनी शादी पर ही तो इनसे सम्बंध जुड़े होंगे ?”

“नहीं उससे बहुत पहले से मैं इन्हें जानता हूँ |”

“वह कैसे ?”

“जब मैं ग्यारह वर्ष का रहा हूँगा तब मेरे भाई साहब की शादी डिबाई से हुई थी |”    

“फिर ?”

“बाबू जी भी उनके ताऊ चाचा के लड़कों में से ही हैं इसलिए मेरी भाभी जी के भाई लगते हैं |” 

“अच्छा ! यह तो मैं जानता ही नहीं था |” 

“उन दिनों आपस में प्रेम भाव बहुत होता था | इसलिए अपने भाई की ससुराल उसके छोटे भाई भी अक्सर जाते रहते थे |”

“हाँ यह प्रचलन तो था बल्कि दुल्हे के दोस्तों का भी आने जाने का रिवाज था |”

इस वजह से मैं अक्सर अपने भाई साहब के साथ डिबाई आता जाता रहता था | और बाबू जी अधिकतर वहाँ मिला करते थे | उन दिनों शादी में बारात तीन तीन दिन तक रूका करती थी | बाराती तो फुर्सत में होते ही थे घरातियों को भी आराम करने का काफी समय मिल जाता था | और इन्हीं फुर्सत के लम्हों में अपने अपने विचारों का आदान प्रदान होता था | हमारे बाबू जी सैंट्रल बैंक में नौकर थे | मुझे याद है उन्होने डाकुओं की एक दिलचस्प घटना सुनाई थी | क्या आप सुनना चाहोगे ?” 

राघव के हामी भरने पर करण ने अपनी बात चालू कर दी, “उन्होने बताया था कि जब वे भिंड(ग्वालियर)में नौकरी कर रहे थे तो एक छुट्टी वाले दिन जब एक व्यापारी की दुकान पर बैठे थे तो कुछ डाकू भी वहाँ आकर सुस्ताने लगे | 

उन सभी की पीठ पर बन्दूक लटक रही थी | कोई भी छ्ह फुट से कम न था | सभी की चौड़ी छाती तथा मुहँ पर घनी मुंछ और दाढी उनका चेहरा डरावना बना रही थी | 

उस संस्थान के सेठ ने राम सहाय को चेतावनी देनी के मनसूबे से डाकूओं की तरफ इशारा करते हुए पूछा, "क्या इन्हें जानते हो ?"

“नहीं |”

“ये इस इलाके के मालिक हैं |”

राम सहाय अस्मंजस में पड़ गया कि क्या जवाब दे | उसके मुहँ से निकला, "होंगे |"

“अरे कैसे बेफिक्रि से बोल रहा है कि होंगे |”

“जब मैं किसी को जानता ही नहीं तो मैं और क्या कहता ?”

“इनसे सम्भल कर रहना ये तुझे उठा भी सकते हैं |”

सेठ की बात सुनकर राम सहाय अन्दर से कुछ भयभीत हो गया परंतु उसी समय एक डाकू जो सबसे रौबिला लग रहा था बोला, "अरे ओ सेठ इसे तो हम क्या उठाएँगे | यह तो बैंक का एक खजांची है | इसके पास से हमें क्या मिलेगा | तू अपनी बता | तू तो एक मालदार असामी है | तू कहे तो तुझे अभी अगवा कर लेते हैं |”

डाकूओं के वचन सुनकर सेठ खिसियाकर हँसने लगा | 

उठकर चलते हुए डाकूओं ने राम सहाय को ढाँढ़स बंधाते हुए कहा, "लाला चिंता मत करना | खुशी खुशी काम करो | अगर कोई समस्या आए तो हम हैं |"

उसके बाद राम सहाय ने उन डाकूओं को कई बार अपने घर के बाहर लगे नल पर पानी पीते देखा |

करण बताता जा रहा था, “कभी कभी तो मैं भी सोचता था कि इतने सरल स्वभाव, सादा जीवन जीने वाले, मृदुभाषी एवं सज्जन व्यक्ति होते हुए भी उनकी अपने लड़कों तथा नजदीकी रिस्तदारों से क्यों नहीं बन पाई परंतु कुछ अन्दाजा न लगा पाया था |” 

“वैसे आपने माता जी के रवैये के बारे में कुछ जिक्र नहीं किया”, राघव ने अपने मन की शंका का निवारण करने के लिए पूछ ही लिया |

“भाई साहब थोड़ी बहुत लड़ाई झगड़ा तथा कहा सुनी तो हर घर में होती है | परंतु यह आदमी की नियत पर या उसके व्यवहार पर निर्भर करता है कि वह किस से कितने दिनों तक बना कर चल सकता है | रही माता जी के रवैये के बारे में, तो दूसरों के लिए क्या अपनों के लिए भी वे उस पेड़ की तरह थी जो टूट बेशक जाएगा परंतु झुकेगा नहीं | इसी तरह वे भी किसी से अपने लिए कोई काम कराना पसन्द नहीं करती थी | वे भी कुंती  की तरह उनके लिए दूसरों द्वारा किया काम, चाहे वह अपना लड़का ही क्यों न हो, उन पर एक एहसान बन जाता था | जो वे किसी कीमत पर भी अपने उपर चढाना नहीं चाहती थी | उनके बेटे संत राम के अलग रहने का यह भी एक बहुत बड़ा कारण था |

वैसे भी ऐसे बिरले ही सम्बंध होते है जो जीवन भर नीभ पाते हों | कितनी भी सावधानी बरत लो कहीं न कहीं कभी न कभी रिस्तों में बहुत नहीं तो थोड़ी  दरार आ ही जाती है | बाबू जी के मित्र चौबे जी तथा मैनें कई बार कोशिश की कि संत राम अपने माँ बाप के साथ रहे | एक बार तो यह भी तय हो गया था कि संत राम मकान के अगले भाग से `

अलग झीना चढाकर पहली मंजिल के आगे वाले हिस्से में रहेगा | परंतु समझौता भी तो उसके लिए है जो मान जाए |” 

“बाबू जी अगर संत राम का दुख दर्द महसूस नहीं करते तो उसकी सहायता करने को एक दम आगे न आते जब वह एक व्यापरी के झूठे आरोपों में घिर गया था तथा उसकी नौकरी पर बन आई थी |”         

“संत राम की पत्नि आशा की औरों की तरह अपनी सास से न बन पाई परंतु यह कोई खास बड़ी बात नहीं थी | इस स्थिति को सम्भाला भी जा सकता था अगर संत राम की नीयत ठीक होती |” 

“अर्थात ?”

“असल में संत राम अपने लड़के अशोक के उपर होने वाले खर्चे से बचना चाहता था साथ ही साथ उसके अलग रहने से पूरे घर का खर्चा भी उसके जिम्मेदारी नहीं रही | कहने का तात्पर्य यह है कि संत राम की नीयत माड़ी थी इसलिए उसने अलग रहना मुनासिब समझा |” 

“अरे ! क्या माँ बाप ऐसे भी होते हैं ?”

इस पर करण ने एक बार तो राघवजी से कहना चाहा कि उनके सामने तो उनकी पत्नि कुंती का उदाहरण है कि किस तरह उसने उसे सागर से दूर रहने के लिए कह दिया था परंतु कुछ सोचकर केवल इतना ही कहा, "होते तो नहीं परंतु उनकी स्थिति या नियत उनको ऐसा बना देती है |"  

“रही बात बाबू जी के अपनी ससुराल से टूटे सम्बंधों की तो उसके बारे में मैं आपको एक घटना का जिक्र करता हूँ जिससे आप खुद ही अन्दाजा लगा लेंगे कि बाबू जी की ससुराल वाले कैसे रहे होंगे |”

यह बात उन दिनों की है जब अच्छनेरा वालों की स्नेह के रिस्ते की बात नारायणा से चल रही थी | एक दिन सुबह लगभग साढे आठ बजे एक व्यक्ति ने मेरी दुकान पर आकर मुझ से पूछा, "क्या आप करण सिहँ हैं ?"

“हाँ जी | कहिए क्या काम है, वैसे आप मेरा नाम कैसे जानते हैं ? मैनें तो आपको पहचाना नहीं |” 

आगंतुक ने मेरे प्रशनों की तरफ अधिक ध्यान न देकर अपना प्रशन पूछ लिया, "क्या आप बता सकते हैं कि गणेशी के लड़के अर्जून का घर कहाँ है ?" 

"आप कहाँ से आए हैं", मैनें यह सोचकर पूछ लिया कि हो न हो वह भी एक बनिया ही है |

“मैं उत्तर प्रदेश से आया हूँ | उनसे मिलना है |”

“किस बारे में ?”

“लड़की के रिस्ते के बारे में |”

“उनकी तो (सत्य प्रकाश) अच्छनेरा वालों से बात चल रही है |” 

“मैं जानता हूँ |”

“फिर ?”

“क्या पता वहाँ बात बनती भी है या नहीं |”

मैनें आगे बात करना ठीक न समझ उसे अर्जून के घर का रास्ता समझा दिया और वह वापिस चल दिया |

मुझे वह शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी | मैनें पीछे से उसे जाते हुए देखा तो वह कुछ लंगड़ाकर चल रहा था | अचानक मेरे ख्याल में आया कि हो न हों वह आदमी संतोष के मामा जी थे | क्योंकि एक बार जब मैं डिबाई गया हुआ था तो संत राम के साथ बाजार से निकल रहा था | उसने चलते चलते मुझे दूर से दिखाया था कि वे जो दुकान पर बैठे हैं वे उसके मामा जी है | 

यह जानकर मैंने संत राम से पूछा, “क्या आप उनके यहाँ जाते नहीं ?”

“नहीं क्योंकि वे हमारे यहाँ कभी नहीं आते |”

“क्यों, वे क्यों नहीं आते ?”

“खर्चे से ज्यादा डरते हैं |”

मैनें उस दिन दूर से ही उन्हें निगाह भर कर देख लिया था | अब मैनें अपने मन का बहम मिटाने के लिए संतोष से पूछ लिया, "क्या तुम्हारे मामा जी कुछ लंगड़ाकर चलते हैं ?"

“क्यों क्या बात है ?”

“पहले मेरी बात का उत्तर दो फिर बताऊँगा |”

“हाँ वे लंगड़ाकर चलते हैं, सिर पर टोपी पहनते हैं तथा हाथ में छतरी रखते हैं |”

“तुम्हारे मामा जी आए थे |”

“क्या !”

“हाँ | बालकिशन (अर्जून का लड़का) का घर पूछ रहे थे |”

“किसलिए ?”

“लड़की के रिस्ते के लिए |”

“अपनी पोती के लिए ढूंढ़ रहे होंगे ?”

“मैनें तो कहा भी था कि अछनेरा से सत्य प्रकाश जी की लड़की की बात चल रही है परंतु उन्होने जवाब दिया, “क्या पता वहाँ बात बनती भी है या नहीं |"

“वे हैं ही ऐसे आचरण के तभी तो मेरे पिता जी की उनसे नहीं बनती |”

“राघवजी अब आप ही बताओ, यह जानते हुए भी कि वह उनकी भाँनजी का घर है वे द्वार पर आकर लौट गए, वे कैसे आदमी होंगे ?”

“आपकी बातों को सुनकर तो ऐसा लगता है कि सम्बंधों को कायम रखना उनका इरादा नहीं था | तथा बाबू जी के बारे में मेरी जो धारणा बन गई थी वह निराधार थी | वे मेरी तरह नहीं थे |”

करण ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा, “मैनें बाबू जी को रिस्ते तोड़ते हुए कभी नहीं देखा | उन्होने हर सम्भव कोशिश की कि सभी से उनके सम्बंध मधुर बने रहें | परतु यह अवशय रहा कि वे, अपने घर से दूर ग्यालियर में शायद अपने रिस्तेदारों की बेरूखी के कारण, लगभग एकाकी सा जीवन व्यतीत कर रहे थे |      

रही बात अछनेरा वालों की सो उनके बारे में तो बच्चा बच्चा जानता है कि उनकी पत्नि उनको अपने सामने कुछ नहीं समझती | क्या जानना चाहोगे कि उनसे मेरी पहली मुलाकात कैसी रही थी |”

“हाँ हाँ क्यों नहीं | बताओ कैसे हुई थी | आपके कहने के अन्दाज से तो ऐसा लगता है कि बहुत रोचक किस्सा बना होगा |”

“आपने ठीक समझा | असल में सत्य प्रकाश जी की पत्नि पार्वती अर्थात आपकी साली साहिबाँ मेरी भाभी जी से उम्र में बड़ी  हैं | जैसा कि मैनें आपको पहले भी बताया था कि मेरी भाभी जी उनकी बुआ लगती हैं फिर भी मेरी भाभी जी की शादी पार्वती के बाद हुई थी | सत्य प्रकाश जी हर टेहले ब्याह में डिबाई जाया करते थे | इधर अक्सर मैं ही अपने भाई साहब जी के साथ डिबाई जाता था इसलिए उनसे मुलाकात हो जाया करती थी | 

एक बार हम दोनों पंगत (जमीन पर कपड़ा बिछाकर उस पर बैठकर खाना) में खाना खाने साथ साथ बैठ गए | खाना परोसा जा चुका था | सभी खाना खाने में मशगूल हो गए | खीर बनाई गई थी | खीर में मीठा ठीक ही था | यह तो सर्व विदित है कि उत्तर प्रदेश के लोग अधिक मीठा खाना पसन्द करते हैं | सत्य प्रकाश भी शायद मीठा कुछ अधिक ही खाना पसन्द करते थे | उन्होने एक दो परोसने वालों से इशारे में, अपनी खीर के उपर हाथ फिरा कर इशारा भी किया कि उनकी खीर में मीठा और डाल दें परंतु व्यस्तता के कारण किसी ने ऐसा नहीं किया | पास में बैठा करण समझ नहीं पा रहा था कि अगर उनको कुछ चाहिए तो वे बोलकर क्यों नहीं कह रहे | क्या वे गूंगे हैं | करण ने उनकी समस्या के समाधान हेतू पास में रखी दो प्यालियों में से एक प्याली उठाई और उसमें से चुटकी भर भर के उनकी खीर में छिड़क दी | सत्य प्रकाश ने करण की और एक मधुर मुस्कान फेंक कर चम्मच से अपनी खीर को खूब अच्छी तरह घोंटा और एक लम्बा सा सुड्प्पा भर लिया | परंतु यह क्या वे हो हो की आवाज करते उठे और मोरी के पास जाकर अपने मुँह का पूरा निवाला उगल दिया | सभी चकित होकर अपना अपना अन्दाजा लगाने लगे कि क्या हुआ होगा |” 

राघव ने भी करण से जिज्ञासावश पूछा, “क्या हुआ था ?”

“बात ऐसे बनी कि सत्य प्रकाश खाना खाते हुए बोलते नहीं थे | करण  ने उनकी सहायता करने के लिए एक प्याली में से बूरा उनकी खीर पर छिड़क दी थी परंतु वास्तव में उस प्याली में बूरा नहीं बल्कि नमक था |”

ऐसा सुनकर राघवजी खूब खुलकर हँस दिए |

“बाद में वही सत्य प्रकाश मेरे साढू बन गए | इसके बाद ही मैं उनके बारे में पूरी जानकारी ले पाया था |”

“खर्चे के मामले में सत्य प्रकाश भी अपने साले की तरह भीचूँ थे | खर्चे का कोई भी काम होता था तो वे अपनी पत्नि को उसके मायके भेज देते थे और वहाँ कुछ ऊँच नीच हो जाती तो उनके गले पड़ जाते थे | यहाँ तक की पार्वती को छोड़ देने की धमकी तक दे देते थे |” 

“कैसे ?”

“पार्वती को जब भी कोई बच्चा होने वाला होता था या वह या कोई बच्चा बिमार हो जाता था तो वे उसे अपने घर भेज देते थे | एक बार ऐसा हुआ कि इनका लड़का इतना बिमार हुआ कि अछनेरा के डाक्टरों ने जवाब दे दिया | पार्वती उसे लेकर ग्यालियर चली गई क्योंकि वहाँ कई बड़े बड़े अस्पताल थे तथा माने हुए डाक्टर थे | परंतु भगवान की इच्छा के आगे किस का बस चलता है | वह बच्चा स्वस्थ न हो पाया और अपनी देह त्याग दी | इस पर सत्य प्रकाश जी ने अपनी ससुराल वालों को दोष देते हुए अपनी पत्नि का भी त्याग कर दिया | लगभग चार महिने बाद सत्य प्रकाश जी के बड़े भाई साहब भारत के प्रयाशों से उनका दोबारा मिलन हो सका था |”

“सत्य प्रकाश जी ने पार्वती को कभी भी काबू में करने की कोशिश नहीं की | वे जब भी बोलना शुरू करती थी उनका सामना करने की बजाय खुद पहली मंजिल से नीचे सटक जाते थे | जैसे एक कबूतर अपने सामने बिल्ली को देखकर अपनी आँखे मून्द लेता है तथा सोचता है कि अब तो मैं बच गया सत्य प्रकाश का भी ऐसा ही व्यवहार था | धीरे धीरे पार्वती उनके सिर चढ़कर बोलने लगी | यहाँ तक की दोनों का खाना भी अलग पकने लगा |” 

अपने मन की गुत्थी को सुलझाने के लिए राघव जी ने करण से जानजा चाहा, "वैसे भाई साहब मुझे आश्चर्य होता है कि भाभी जी अपनी दोनों बहनों से अलग मथन की कैसे पैदा हो गई ?" |

“पैदा तो वैसी ही हुई थी | उन्हें बाद में तराशा गया है |”

“क्या !”

“हाँ जी |”

“कैसे ?”

“तो सुनो | ये भी उसी मथन की थी जैसी इनकी बहनें हैं |”

“फिर आपने.......  ?”

“फर्क यह रहा कि मैं आप दोनों जैसा नहीं निकला |”

“आपने क्या किया ?”

“मैनें आते ही बिल्ली मार दी थी”, कहकर करण जोर का ठहाका मार कर हँस पड़ा|

“क्या मतलब ?”

मतलब सुनो, “ जब मेरी शादी हुई थी | मैं उस समय देवलाली-नासिक में तैनात था | यह बहुत ही रमणीक स्थान है | रामायण की चर्चित पंचवटी नासिक में गोदावरी नदी के किनारे विध्यमान है | देवलाली में जहाँ हमारे रहने के मकान थे वह स्थान थोड़ी ऊँचाई पर था | मकानों के आगे एक घाटी सी बन गई थी | दूसरे छोर से एक रेलवे लाईन, जो बम्बई से देहली जाती थी, इस घाटी का मुहँ बन्द करने का काम करती थी |   बरसात के दिनों में वहाँ पानी भर जाता था तथा एक झील की तरह दिखने लगता था | रात के समय जब कोई रेलगाड़ी उस पटरी से गुजरती थी तो बहुत ही मनोहारी दृश्य बन जाता था | रेलगाड़ी के डिब्बों की खिड़कियों से रोशनी का पानी पर पड़ता प्रतिबिम्ब अपने घरों के बाहर टहलते लोगों का दिल लुभा लेता था | साथ में रेल की सीटी से घाटी में बनती ध्वनी से सुनने में कानों को बहुत ही दिलचस्प संगीत सा निकलता प्रतीत होता था |” 

“एक बार ये मेरे से लड़ झगड़ कर यह कह कर घर से बाहर निकल गई कि मैं रेल के नीचे कटकर अपनी जान दे दूंगी | मैनें इन्हें एक बार भी नहीं टोका कि वे ऐसा न करें | थक हार कर एक घंटे बाद ये खुद ही वापिस चली आई | मैनें न जाते हुए इन्हें टोका था तथा न आते हुए कुछ कहा |” 

”औरों की तरह मैं भी अपनी पत्नि को दिलो जान से चाहता था परंतु फिर भी मैने उसे रोका नहीं | जानते हो क्यों ? क्योंकि अपनी ससुराल के वातावरण एवं वहाँ के लोगों के वातावरण से मैं भलीभाँति परिचित हो चुका था | वहाँ सभी में बन्दर जैसी घुड़की दिखाने की आदत थी | जो व्यक्ति कोकरोच छिपकली या चूहे को देखकर भयभीत हो जाए तथा चिंटी के काटने के दर्द से अपनी आँखे भर लाए वह भला रेल के नीचे आकर अपनी जान देने की हिम्मत कैसे जुटा पाएगा | वह तो दूर से आती ट्रेन की सीटी सुनकर ही दूर दौड़ पड़ेगा | इसके बाद इन्होने कभी मरने का नाम नहीं लिया |” 

“आपने ठीक कहा भाई साहब और आपकी युक्ति काम कर गई |”

“दूसरी बार हम अछनेरा जा रहे थे | मथुरा जंक्शन पर हमें गाड़ी बदलनी थी | सुबह के नौ बजे थे | ताजा चाय पीने की इच्छा से हम बाहर एक पेड़ के नीचे बैठे चाय वाले के पास गए और दो चाय बनाने की कहकर इंतजार करने लगे | जब वह चाय बनाकर लाया तो संतोष ने चाय पीने से इंकार कर दिया | वे दोनों चाय मुझे ही पीनी पड़ी |यह देखकर  

मैनें संतोष से पूछा, “तुमने चाय क्यों नहीं पी ?"

“उसने साफ पानी में चाय नहीं बनाई थी”, संतोष ने जवाब दिया |

“तुम्हे कैसे पता ?”

“मैनें देखा था वह एक गन्दे से कनस्तर से पानी ले रहा था |”

“तो तुमने मुझे क्यों पीने दी ?”

इस पर वह मुस्कराकर रह गई कुछ बोली नहीं | बाद में यह किस्सा वह चटकारा लेकर दूसरों को सुनाने लगी |    

आपकी तरह मैनें भी महसूस किया था कि इनकी बड़ी बहन अपने पति को एक आँख नही देख सकती थी | वे उनके नहाने, पहनने, बोलने, खाने-पीने इत्यादि हर काम में मीन मेख निकालती रहती थी | वे हर मामले में अपने को अपने पति से अव्वल समझती थी | वे अपने को अच्छा खाने पीने वाली तथा पाक साफ समझती थी | संतोष के उस दिन के व्यवहार से मुझे भी ऐसा लगा जैसे वह भी अपनी बहन का अनुशरण करने की कोशिश कर रही है | 

जब उसने दो तीन बार लोगों के सामने वह चाय का किस्सा सुना दिया तो एक दिन मैनें बड़े प्यार से उसे समझाने के लिए पूछा, "तुम अच्छा खाना खाना पसन्द करती हो ?”

“क्यों, हाँ |”

“मुझे गन्दा खिलाकर तुम्हें खुशी होती है ?”

“नहीं, नहीं |” 

“ऐसा लगता है कि तुम साबित करना चाहती हो कि मैं गन्दा शन्दा भी खा लेता हूँ ?”

“नहीं तो | मैनें ऐसा कब कहा ?”

“तुम सभी को तो | मथुरा की चाय का किस्सा सुनाती रहती हो |”

“मैं तो वह मजाक के तौर पर कह देती हूँ |”

करण ने अपनी पत्नि की ना समझी पर गुस्सा नहीं दिखाया बल्कि उसे समझाने लगा, “  “तुम बड़ी ना समझ हो | वह किस्सा सुनकर तुम्हारी बेवकूफी पर सब अन्दर ही अन्दर हँसते होंगे कि देखो अपने पति को गन्दी चाय पिलाकर कितनी खुश हो रही है | इसका मतलब अपने आदमी को यह अपने सामने कुछ समझती ही नहीं होगी |” 

इतना कहकर करण ने संतोष को चेतावनी देते हुए कहा, “वैसे तुम अपने को कुछ भी समझो परंतु इतनी ताकीद तुम्हें अवशय देना चाहुंगा कि मुझे किसी के सामने कभी भी नीचा दिखाने की कोशिश मत करना वरना फेरों के समय लिए सात वचनों में से मैं एक वचन भूल जाऊँगा |” 

यह सुनने के बाद संतोष ने फिर कभी किसी के सामने वह किस्सा नहीं सुनाया तथा भविष्य के लिए मेरे प्रति अपने व्यवहार में सचेत हो गई | 

“वैसे इनमें सेवा भाव कूट कूटकर भरा है | मेरे विचार से ऐसी कोई बिरली ही पत्नि होगी जो अपने पति का इतना ख्याल रखती होगी | ये इतना स्वादिष्ट तथा लजीला खाना बनाती हैं कि खाने वाला अपनी ऊंगलियाँ चाटता रह जाता है | एक बात और मुझे ही नहीं औरों को भी खिलाकर जो शकुन इन्हें मिलता है वह इनको खुद के खाने पर भी नहीं मिलता |” 

“यह तो आप बिलकुल वजा फर्मा रहे हैं भाई साहब | इनके खाने का तो मैं भी कायल हो चुका हूं | तभी तो बार बार यहाँ आकर डेरा डाल लेता हूँ |” ( दोनों हँसते हैं )

“इन्हें अपने खाने का शौक नहीं है अपितू अगर मैं अच्छी तरह खा लेता हूँ तो इन्हें संतुष्टि हो जाती है | वैसे भी ये मेरी बहुत सेवा करती हैं अगर मुझे कभी जुकाम भी हो जाता है तो ये बेचैन हो जाती हैं | ये मेरे लिए हर मामले में एक नर्स के समान हैं | इन्हीं के उत्साह वर्धक रवैये के कारण ही मैं स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल कर पाया हूँ | इस मामले में ये शायद अपनी दोनों बहनों से बिलकुल भिन्न हैं | ये एक घर बनाऊ औरत हैं घर बिगाडू औरत नहीं |”

“भाई साहब अब मैं आपको क्या बताऊँ आप तो उड़ते पंछी के पर पहचान लेते हो |”

करण ने आगे कहा, “आपने यह भी महसूस किया होगा कि आपकी कुंती की तरह इनकी बड़ी बहन भी सत्य प्रकाश जी को अपने आगे कुछ नहीं समझती | उनको वे हर बात में झिड़कियाँ तो देती ही हैं अपने सामने बोलने का मौका भी नहीं देती | ठीक ऐसी आदत संतोष में भी थी | एक बार शुरू हो जाने पर ये घंटों भौंकती रहती थी तथा अपने मन की निकाल कर, सामने वाले को तड़पता छोड़कर, आराम से सो जाती थी | एक दिन मैं भी अड़ गया | जब वह बोलकर थक गई तथा सोने का उपक्रम करने लगी तो मैनें उसे सोने नहीं दिया | उसे उकसाता रहा कि तुम आज सारी रात बोलती रहो मैं सुनता रहूँगा देखता हूँ तुम्हारे अन्दर बोलने का कितना दम है | वह बार बार सोने के लिए लेटती मैं बार बार उसके मुहँ पर पानी के छींटे मार कर उसे जगा देता था |  मैं जानता था कि संतोष हाथापाई कर नहीं सकती थी | आखिर उन्होने हार मानते हुए फिर कभी ऐसा न करने की कहते हुए अपने दोनों हाथ जोड़ दिए | वह दिन है और आज का दिन हमारी गृहस्थी सुचारू रूप से खुशी खुशी कट रही है |”

करण ने माहौल को खुशनुमा बनाने के लिए एक बार फिर अपनी बात दुहराई कि इस तरह उसने शुरू में ही बिल्ली मार दी थी | ऐसा सुनकर इस बार करण के साथ राघव भी जोर का ठहाका लगाकर हँसने लगा |

इतने में संतोष ने गर्म गर्म पकौड़े तथा चाय की ट्रे मेज पर रखते हुए दोनों के इतने जोर से हँसने का सबब पूछा तो करण ने यह बात कहकर, बात को विराम दे दिया, “ पहले चाय और पकौड़े खत्म हो जाएँ फिर बताएँगे अन्यथा ठंडे होने से इनका जायका ही बदल जाएगा |” 

संतोष ने भी मजाक की चुटकी लेते हुए कहा, "और आपके देरी से बात बताने में मेरा जो पेट खराब होगा उसका क्या ?" 

इस पर तो तीनों ने ही हँसना शुरू कर दिया |

राघव जी शायद अपना मन बनाकर आए थे कि जो बातें उनके हृदय में दो तीन साल से घुटन का कारण बनी हुई थी आज उन सब को बाहर निकालकर उस घुटन से मुक्ति पाना चाहते थे | इसलिए चाय नाशते के बाद उन्होने फिर कहना शुरू कर दिया |

“भाई साहब आपकी साली साहिबाँ एक सुखे तरूवर के समान हैं |”

करण को राघव द्वारा अचानक कहे इन शब्दों से बहुत आश्चर्य हुआ | इसलिए वह अचरज भरे अन्दाज में बोला, "सुखे तरूवर के समान !"

“हाँ | क्योंकि उसकी डाल पर बैठकर कोई भी पक्षी चहक नहीं सकता |”

“सुखा तरूवर, पक्षी चहक नहीं सकता ! ये क्या पहेलियाँ बुझा रहे हो | जरा खुलासा करके बताओ”, करण ने राघव के कहने का कोई मतलब न समझकर उससे पूछा | 

“भाई साहब आपने कुंती का पहनावा तो देखा ही होगा |” 

करण बनते हुए, "क्यों उसमें क्या खामी है ?"

“बस रहने दो | जैसे आपने देखा नहीं कि कैसे एक बन्द बोरी में सामान की तरह पैक रहती है |”

“इसमें तो कोई बुराई नहीं है |”

“बुराई तो नहीं है पर अच्छाई भी क्या दिखती है ?”

अपने मुहँ से कुछ न कहकर बात को टालने के लिहाज से करण ने सिर्फ इतना ही कहा, “अपनी अपनी आदत बन जाती है |” 

राघव कुछ खीज कर बोल पड़े, "परंतु समय और माहौल के साथ साथ आदत को सुधारना भी तो जरूरी है |"

अब की बार करण ने अपनी सहमती जताई, “सो तो आपकी बात दुरूस्त है |” 

“अब कुंती एक विवाहिता एवं एक बच्चे की माँ है परंतु ह्युमर उसमें नाम मात्र को भी नहीं है |”

करण ने अपने मन में सोचा कि राघव जी आप क्या बता रहे हैं मैं सब जानता हूँ | वह तो ऐसी है कि मेरे से टेलिफोन पर भी बात नहीं करती जैसे मैं टेलिफोन पर ही उसे पकड़ लूंगा | फिर ध्यान आने पर उसने पूछा, "कैसे |"

राघव ने कुछ शर्मा कर कहा, “हम पति पत्नि जरूर हैं परंतु इस रिस्ते की गरिमा को बनाए रखने के लिए कुंती को मेरा उसके साथ हँसी मजाक तथा ठिठौली करना भी गँवारा नहीं | जब मेरे साथ उसका ऐसा व्यवहार है तो भला अपनी नन्द तथा देवर को क्या बखसेगी | इसलिए उसके कमरे में हमेशा मुर्दानगी सी छाई रहती है | इतना ही नहीं घर में अपनी भाभी तो दूर अगर मैं अपनी चाची जी से भी हँसकर बोल लेता हूँ तो कुंती  को जलन होने लगती है | वह अनाप शनाप विचार अपने मन में लाने लगती है और जुबान से कहने में भी बिलकुल नहीं हिचकिचाती | कुंती के कारण मैं अपने घर में ही बेगाना सा हो गया हूँ | अपने को अलग थलग तथा बँटा हुआ महसूस कर रहा हूँ |” 

फिर संतोष की तरफ इशारा कर कर कहने लगे, “ये भाभी जी भी तो हैं सभी से हँस कर बात करती हैं | मजाक करने पर मजाक भी कर लेती हैं | रूखापन तो मैनें इनके चेहरे पर आज तक नहीं देखा | आप भी इनके साथ उल्टे सीधे मजाक कर लेते हो | इनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती | बल्कि हँस कर उल्टा जवाब देती हैं |” 

संतोष जो अपनी तारीफ सुन रही थी कह उठी, "बस बस रहने दो बहुत हो गया | मेरा पेट तारीफों से नहीं भरने वाला इसे खाना भी चाहिए | बहुत तेज भूख लगी है और खाना मेज पर इंतजार कर रहा है |”  

सभी ने एक साथ बैठकर खाना खाया | राघव जी सुस्ताने के लिए पलंग पर लेटे ही थे कि खर्राटे भरने लगे | अब उनके चेहरे की आभा बता रही थी कि बहुत दिनों से मन पर रखा बोझ उतर गया था |

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