Thursday, September 24, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (खुली लगाम की घोड़ी)

 खुली लगाम की घोड़ी

गर्मी का मौसम था | बाहर चिलचिलाती धूप बदन को झुलसा दे रही थी | प्रत्येक दिन अखबारों एवं रेडियो पर खबरें आ रही थी की लू से मरने वालों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है | इस के बारे में जनता से कई तरह के एतियात बरतने का भी प्रसारण किया जा रहा था कि लू के प्रकोप से कैसे बचा जा सकता है | करण ने गर्मी से बचने के लिए अपने घर के सारे दरवाजे एवं खिड़कियाँ  बंद करके परदे डाल रखे थे | कमरे में चल रहे  कूलर के बावजूद गर्मी इतनी थी कि कूलर भी दम तोड़ता नजर आ रहा था | 

शिखर दुपहरी में करण के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी | करण ने मन ही मन बड़बडाते  हुए कि इतनी गर्मी एवं लू के चलते कौन आया होगा दरवाजा खोला तो अपने साढ़ू राघव को सामने खड़ा देखकर अचंभित रह गया | दरवाजा खोलते ही लू के एक झोंके ने करण की रूह को हिला  कर रख दिया | उसने जल्दी से राघव का हाथ पकड़ कर अन्दर आने का इशारा किया तथा दरवाजा बंद कर लिया | अन्दर आने पर अपना पसीना पोंछते हुए राघव ने राहत की सांस ली |  

“अजी सुनती हो |”

“बोलो जी क्या बात है ?”

“राघव जी आए हैं | जल्दी से एक जग ठंडा पानी ले आऔ |”

संतोष हाथ में एक गिलास पानी लेकर कमरे के अन्दर आई और राघव से पूछा, "इतनी गर्मी में कैसे आना हुआ ? लो पानी लो फिर शर्बत बनाती हूँ |”

ठंडा पानी पीकर राघव की कुछ जान में जान आई |

राघव के तमतमाए हुए चेहरे को देखकर करण ने पूछा, “एयरकंडीशनर में रहने वाले आज इतनी गर्मी और भयंकर लू में बाहर कैसे निकल आए ?”

राघव जी जो शायद अपने अन्दर एक लावा दबा हुआ महसूस कर रहे थे उसी को बाहर निकालते हुए बोले, “भाई साहब आज मेरे अन्दर जो लावा उबल रहा है उसका आपको अन्दाजा नहीं है | बाहर की लू तो उसके सामने कोई मायने नहीं रखती |”

करण ने राघव जी का ऐसा रौद्र रूप आज तक नहीं देखा था | वह सकते में आ गया  कि कहीं उससे तो कोई इतनी बड़ी भूल या गल्ती तो नहीं हो गई जिसके कारण उन्होने ऐसा रूप अखतियार कर रखा है | करण ने थोड़ी देर सोचा परंतु उसे अपनी तरफ से ऐसा कोई कारण नजर नहीं आया | जब वह हर प्रकार से आसवस्त हो गया तो उसने अपने साढू की तरफ मुखातिब होकर पूछा, "भाई साहब आज से पहले मैनें आपको ऐसे रूप में कभी नहीं देखा | आप तो हँसमुख, मृदुभाषी, कोमल हृदय, पढे लिखे होने के कारण शुद्ध आचरण वाले इंसान हैं फिर आज यह ....... ?”  

राघव का चेहरा अब भी अपने माथे पर चढी त्यौरियाँ लिए था, “भाई साहब मेरे सामने जब सारे रास्ते बन्द हो गए हैं तो मुझे केवल आपका दरवाजा खुला मिला है |”

“देखो राघव जी मैं आपकी गूढ़ बातें समझने में असमर्थ हूँ | मैं तो सरल भाषा ही समझ सकता हूँ | अतः मुझे एक सरल भाषा एवं विस्तार से बताओ कि आपका इशारा किस और है”, करण के मन में अभी भी शंका थी कि शायद राघव उसकी तरफ से किसी त्रुटि के कारण खफा थे | 

अपने मन की आग को उगलते हुए राघव जी बोले, "कुंती एक खुली लगाम की घोड़ी है |"

करण को सपनों में भी कुंती के बारे में राघव से ऐसे शब्दों की उम्मीद नहीं थी | इसलिए उसने बड़े आश्चर्य से पूछा, “आप ऐसा क्यों कह रहे है ?”

राघव ने उसी कड़क आवाज में कहा, "जो सत्य है मैं वही कह रहा हूँ |"

“अगर ऐसा है तो लगाम कसनी चाहिए”, करण ने सलाह दी |      

इस पर राघव जी थोड़ा कमजोर पड़कर बोले, "भाई साहब, इस मामले में मैं अपने को असमर्थ पाता हूँ |"

“रास्ता सुझाने वाले बहुत मिल जाएँगे | किसी से पूछकर तो देखो |”

“परंतु उस रास्ते पर चलने वाले में भी तो हौसला और हिम्मत होनी चाहिए जो मुझ में नहीं है”, राघव ने ऐसा कहते हुए कोई शर्मिन्दगी महसूस नहीं की | 

“ऐसा आपने क्या कर देख लिया जो आपके हौसले इतने पस्त मालूम हो रहे हैं ?”

“भाई साहब यह तो आपको बखुबी मालूम है कि भाभी जी के अथक प्रयासों से हमें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी | मैं बहुत खुश था जब उन्होने उसका नाम आशीष रखा था | परंतु कुंती को यह नाम एक आँख न भाया | इस नाम को सुनकर उसे अपना लड़का पराया सा महसूस होता था | उसने मेरी एक न सुनी और आशीष का नाम बदलवाकर सागर करवा कर ही रही |” 

संतोष जो खड़ी हुई दोनों की बातें सुन रही थी राघव जी को मायूस देखकर बोले बिना न रह सकी तथा कहा, “भाई साहब छोडो इन बातों को | नाम में क्या रखा है | बस हमारी तो ईशवर से प्रार्थना है कि वह हमेशा खुश रहे, फलता फूलता रहे |” 

“भाभी जी, कुंती के जहन में ऐसी बातें नहीं आती | आप बड़ी महान हैं जो आपके ऐसे विचार हैं |” 

राघव ने फिर कहना शुरू कर दिया, “यही नहीं उसके बाद कुंती ने हमारे सम्मिलित परिवार को नाकों चने चबवा कर विघटन करा दिया | उसे इतने से ही सब्र नहीं हुआ उसने मेरे ऊपर ही लाँछन लगा दिया | अब मैं अपने घर में ही मुँह दिखाने लायक नहीं रहा |” 

“ऐसी सब सुलगती बातों का अंत करने के विचार से मैनें उन पर पानी डालने का काम करते हुए कुंती को अपने साथ रखने का निर्णय ले लिया | उस समय मैं ऋषिकेश में तैनात था | आप तो जानते ही होंगे कि ऋषिकेश कितना मनोहारी स्थल है | आदमी अपनी पूरी जिन्दगी इन दृशयों को देखता रहे तो भी उबेगा नहीं | परंतु आपकी साली साहिबाँ को मेरे तथा  सागर के होते हुए भी वहाँ एक महीना काटना मुशकिल हो गया था |”  

“ऐसा क्यों हुआ”, करण ने पूछा ?

भाई साहब पहाड़ी इलाका होने के कारण मेरा आफिस तथा घर नजदीक नजदीक थे | वहाँ काम भी अधिक नहीं होता था | जब भी समय मिलता था मैं घर आ जाता तथा या तो सागर के साथ खेलने लगता या फिर उसे बाग में घुमाने ले जाता था | एक हफ्ता मुशकिल से बीता होगा कि एक दिन कुंती कुछ झल्लाए से स्वर में बोली, "आपको क्या हो गया है सागर के अलावा आपको कुछ सुझता ही नही है ?"

मैं अवाक कभी कुंती की और देखने लगा तो कभी सागर की और फिर थोड़ा संयम बरत कर बोला, "सूझता तो मुझे बहुत कुछ है परंतु..... |"

मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बिफर पड़ी, ”क्या सूझता है ? आप तो हमेशा  सागर के आगे पीछे चक्कार लगाते रहते हैं |”

मैं अपना मूढ़ खराब करना नहीं चाहता था इसलिए कुछ मजाकिया बनते हुए कह दिया आगे पीछे तो हम तुम्हारे भी घुमना चाहते हैं परंतु तुम ऐसा करने दो तब न | इतना कहकर मैं ज्यों ही एक कदम आगे बढ़ा तो वह दो कदम पीछे हट गई तथा चेतावनी देते हुए जोर से चिल्लाई, “खबरदार जो आगे बढे मेरे से बुरा कोई नहीं होगा |”  

“कुंती की प्रतिक्रिया देखकर मैं वहीं का वहीं एक काठ की मूर्ति की तरह खड़ा रह गया |”

कुंती फिर बोली, "देखो जी आप सागर से हद से ज्यादा मेलजोल बढ़ा रहे हो | यह ठीक नहीं है |"

मैं अचम्भित होकर बोला, "अरे यह मेरा बेटा है | मैं इससे मेलजोल नहीं बढ़ाऊँगा तो फिर और कौन बढ़ाएगा ?"

“नहीं आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो यह मुझे भूल जाए |”

“अजीब है ! तुम ये क्या कह रही हो ?”

कुंती ने अपने गर्म तेवर दिखाकर कहा, "मैं कोई फारसी नहीं बोल रही जो आपको समझ नहीं आ रहा |"

“यह तो मैं भी जानता हूँ कि तुम फारसी नहीं बोल रही हो परंतु तुम्हारी बातों का सिर पैर तो मेरी समझ नहीं आ रहा है |” 

“तो साफ सुनलो | मैं सागर का लगाव किसी के साथ भी बाँटना नहीं चाहती | आपके साथ भी नहीं |” 

कुंती के ऐसे वचन सुनकर मैं ठगा सा मूर्तिवत खड़ा रह गया | मेरी जबान पर ताला लग गया था | न जाने मैं इसी अवस्था में कब तक खड़ा रहता अगर कुंती का स्वर सुनाई न पड़ता | उसने अपना फैसला सुना दिया, “अब वह मेरे साथ नहीं रहेगी | अपने लड़के सागर को लेकर अकेले ग्वालियर रहेगी |” 

कुंती के वचनों से मुझे बहुत बड़ा झटका लगा | मैनें कभी नहीं सुना था कि कोई औरत ऐसे विचार भी रख सकती है | इसके बावजूद मैनें कुंती को लाख समझाने की कोशिश की कि वह अपनी ससुराल के मेरे पैतृक मकान में रहे परंतु उसने मेरी एक न सुनी | अब मैनें उसे एक मकान गवालियर में किराए पर ले दिया है वह वहीं सागर के साथ अकेली रह रही है | मेरा तो वहाँ मुश्किल से महीने में एक बार जाना हो पाता है | अब आप ही बताओ क्या मैनें गल्त कहा जो कुंती को ‘खुली लगाम की घोड़ी’ कहकर सम्बोधित कर दिया | 

करण ने राघव के कथन का कोई जवाब नहीं दिया अपितु एक अनपढ़ मल्लाह और उसकी नाव में बैठे उस विद्वान के बारे में सोचने लगा जो नदी की बीच मजधार के भंवर में फंस गई थी | 

विद्वान अपनी शिक्षा को सर्वोपरीय समझता था | वह समझता था कि उससे बड़ा विद्वान, चतुर एवं बुद्धिमान कोई नहीं है | उसने विद्या ग्रहण करके अपना जीवन सफल बना लिया है | अपने अहंकार वश उसने मल्लाह से पूछा, "क्या तुमने कुछ शिक्षा ग्रहण की है ?"

“नहीं साहब मैं तो अंगूठा टेक हूँ |”

विद्वान ने इतने निराश होकर कहा जैसे मल्लाह पर तरस खा रहा हो, "ओ हो फिर तो आपने अपना आधा जीवन यूँ ही गवाँ दिया |” 

इतने में नाव को भँवर में फंसते देख मल्लाह ने विद्वान से पूछा, "क्या आपको तैरना आता है ?"

जवाब में विद्वान ने कहा, "नहीं |"

मल्लाह ने उठकर नाव से बाहर छल्लांग लगाते हुए चिल्लाकर कहा, "तब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार है  क्योंकि मैं नाव से कूदकर अपना आधा जीवन तो बचा ही लूँगा |”

कहने का तात्पर्य है कि राघव जी के पढ़ाई में लिए स्वर्ण पदक हासिल करने का समझो कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि वे अपनी गृहस्थी चलाने में बिलकुल नाकामयाब रहे थे | उन्होने कुंती को खुली लगाम की घोड़ी तो कह दिया परंतु घोड़ी को लगाम लगाकर सही रास्ते पर लाना नहीं सीख सके |     

करण को अपने ख्यालों में खोया देख राघव ने उसकी तंद्रा भंग करते हुए कहा, "भाई साहब अब मेरी एक समस्या का निधान करो |"

“कहिए भाई साहब मेरे लायक क्या सेवा है |”

“जैसा कि मैनें अभी बताया था कि फिलहाल कुंती के लिए मैनें एक मकान किराए पर ले दिया है | परंतु मेरे विचार से एक अकेली औरत का किराए पर रहना ठीक नहीं रहेगा |”

“आप के विचार नेक हैं |”

“इसलिए मैं चाहता हूँ कि अपना एक मकान बनवा लूँ |” 

“अगर बसने का विचार वहीं का है तो बहुत अच्छा रहेगा |”

“परंतु.....” , कहकर राघव चुप होकर करण को निहारने लगा |

“परंतु, क्या भाई साहब ?”

“एक दुविधा है |”

“कैसी दुविधा ?”

 राघव ने सकुचाते हुए अपना दिल खोला, "मकान बनाने के लिए मेरे पास रूपये कुछ कम पडेंगे |”

“कितने ?”

“लगभग साठ पैंसठ हजार |”

“उसकी आप चिंता न करें |” 

“आप कैसे तथा कहाँ से करोगे ?”

“बैंक के हर कर्मचारी को दो लाख रूपए का ऋण मिल जाता है | उसमें से जितना आपको पैसा चाहिएगा उतना दिलवा दूँगा | आप हर महीने मूल राशी और उसका ब्याज जो बनेगा, देखकर बैंक में जमा करवा दिया करना |” 

“मैं हर महीने जमा नहीं कर पाऊँगा | मैं पैसा आपको भेज दिया करूँगा | आप खुद ही बैंक में जमा करवा दिया करना |” 

“जैसी आपकी मर्जी | मुझे किसी प्रकार का एतराज नहीं है |”

और राघव ने ग्वालियर में अपने साले संत राम की देखरेख में एक मकान बनवा दिया | इस तरह अपने सभी सगे सम्बन्धियों से नाता तोड़कर कुंती अकेली अलग रहने लगी | अब वास्तव में ही वह एक खुली लगाम की घोड़ी की तरह हो गई थी |    


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