Sunday, September 20, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' सारांश

 सारांश

विश्व में हर समय कोई न कोई नई घटना होती रहती है और ये घटनाएं ही एक लेखक को लिखने के लिए प्रेरित करती हैं | इन घटनाओं के आधार पर एक लेखक घटना के हर पहलू को अच्छी तरह जानकर और परख कर अपने मन की भावनाओं को उजागर करने की कोशिश करता है | लेखक लिखते समय किसी की मन की भावनाओं को आघात नहीं पहुंचाना चाहता परन्तु कभी कभी लेखक की रचनाओं को पढने वाले व्यक्ति को ऐसा लगने लगता है कि लेखक उसके निजी जीवन में दखलंदाजी कर रहा है | इस तरह के विचार रखने वाले व्यक्ति और लेखक के बीच रिश्तों में स्वाभाविकता दरार पड़ जाती है | 

व्यक्ति विशेष यह नहीं सोचता कि साहित्य का सर्जन तभी संभव है जब कोई लेखक इस संसार में घटित होने वाली घटनाओं को क्रम बद्ध करके किसी भी माध्यम मसलन पुस्तक, सिनेमा, उपन्यास इत्यादि के रूप में सबके सामने उजागर करे | मेरा यह उपन्यास ‘ठूंठ’ भी मेरी तरफ से एक ऐसा ही प्रयास है जिसको एक छोटी सी घटना ने जन्म दिया है तथा मेरे विचारों ने उसे पंख लगा दिए हैं |

अपने इस उपन्यास, जो वास्तव में एक पूरा किस्सा है, को रोचक बनाने के लिए मैनें इसे छोटी छोटी कहानियों में विभाजित कर दिया है | ठूंठ में बड़े ही आसान तरीके से समझाया गया है कि जैसे एक तरूवर बिना नलाई, गुडाई तथा सिंचाई के ठूंठ बन जाता है वैसे ही एक सम्पूर्ण औरत उसके अंदर इच्छा जाग्रति की कमी के कारण बाँझपन को धारण कर लेती है | परन्तु जहां एक ठूंठ बने तरूवर को दोबारा हरा नहीं किया जा सकता वहीं एक औरत की इच्छा शक्ति जाग्रत करा कर उसका बांझपन अर्थात ठूंठपन दूर किया जा सकता है | 

एहसान फरामोश के माध्यम से बताया गया है कि जिस औरत ने वर्षों बांझपन सहा हो वह माँ बनने के बाद अपने बच्चे का स्नेह किसी से भी बांटने को तैयार नहीं होती चाहे वह उसका पति ही क्यों न हो | विघटनकारी के तहत यह तथ्य सामने आता है कि किस प्रकार अपने बच्चे को केवल अपने तक ही सीमित रखने के लिए एक औरत अपने सभी रिश्तेदारों का त्याग करने पर उतारू हो जाती है | 

जब खुली लगाम की घोड़ी को काबू करना ही मुश्किल हो जाता है तो बे लगाम की घोड़ी को रास्ते पर लाना तो ना-मुमकिन हो जाना स्वभाविक है | बे-लगाम की घोड़ी पर तो पार तभी पाया जा सकता है जब वह ठोकर खाकर या थककर चूर होकर अपने आप रूकने पर मजबूर हो जाए | 

एक माँ अपने हर बच्चे की जीवन शैली बखूबी पहचान लेती है | इसीलिए संतो की माँ ने ‘अपने पूत के पाँव पालने में देखकर’ अपनी बेटियों को पहले ही आगाह कर दिया था कि उसके बाद अगर उन्हें पीहर नसीब न हो तो दिल से मत लगाना | और उनका कथन सत्य निकला | 

एक कहावत है नेकी कर कुँए में डाल | इसी उद्देश वाले बहुत से मनुष्य मिल जाते हैं | संतो और उसका पति करण भी उन्हीं में से एक हैं | इसी असूल को अपनाते हुए करण एवं संतो ने कुंती के एक बार कहने मात्र से ही पुरानी रंजिश की बातों पर मिट्टी डालकर उसके लड़के सागर का विवाह सुचारू रूप से सम्पन्न करवाने की ठान ली | 

कुंती के घर पर विवाह का खुशनुमा माहौल बनाने के लिए पहुंचा करण का परिवार उसे एक आँख न भाया | घर में आए मेहमानों से पार पाने के लिए कुंती ने ‘खाऊँ पाडू मानस की सी बांस’ का रूख अपनाकर स्वंय, अपने वफादार अशोक तथा पुत्र सागर द्वारा उनका अनादर कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी | परन्तु मेहमान अपना ध्येय सम्पन्न होने तक सब कुछ चुपचाप सहन करते रहे | यहाँ तक कि कुंती के घर से विदा लेते समय उसके तथा सागर द्वारा प्रदर्शित नंगपने का भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया |            

अपने घर आकर करण ने एकांत में बैठकर पूरे प्रकरण पर चिन्तन किया तथा अपने आप में संतुष्ट हो गया कि उसकी तरफ से कोई प्रतिरोधक रवैया नहीं अपनाया गया था | कुंती के व्यवहार से संतो की दिमागी हालत पर गहरा प्रभाव पड़ा | एक बार फिर वह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बीमार हो गई | और उसे संभालना मुश्किल हो गया | परन्तु निस्वार्थी एवं निर्दोष व्यक्तियों की सहायतार्थ भगवान हमेशा कुछ ऐसा चक्र चलाता है कि दोषी व्यक्ति अपने ऊपर ग्लानी महसूस करने लगता है और मजबूर होकर अपनी गल्ती का इजहार करके पश्चाताप करने लगता है | अंत में ऐसे ही कुछ घटना चक्रों के घटने से कुंती अपना अकेलापन सहन न कर सकी और एक बार फिर अपना ठूँठपन छोड़ उसे अपनी बहन संतो को मिलने का संदेशा भेजना पड़ा |   


लेखक 


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