Tuesday, September 22, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' ( ठूंठता )

 ठूँठता 

सन १९८५ का अप्रैल का महीना शुरू हो गया था | ज्यों ज्यों इस महीने के दिन व्यतीत होते जा रहे थे संतोष का उतावलापन बढ़ता ही जा रहा था | आधा माह बितने के बाद तो वह घर में लगे टेलीफोन की हर घंटी पर भागकर उसे सबसे पहले उठाने की होड़ में लग गयी थी | उसके लिए अब  कोई भी दिन, कोई भी पल बहुत ही महत्त्व पूर्ण  खुशी लाने वाला था | इन दिनों को देखने के लिए संतोष ने अपना तन, मन, धन, यहां तक की अपने विवाहित जीवन की खुशियों को भी ताक पर रख दिया था | आजकल में अर्थात किसी भी पल संतोष की छोटी बहन कुंती अपने विवाहित जीवन के बारह वर्ष व्यतीत करने के बाद माँ बनाने वाली थी | उसे पूरे दिन हो चुके थे तथा वह प्रसव के लिए ग्वालियर अस्पताल में भरती हो चुकी थी |  

जब कुंती सब और से निराश हो चुकी थी तो संतोष ने अपनी छोटी बहन की दुविधा तथा एक औरत के जीवन के खालीपन को भरवाने का बीड़ा उठाया था|  संतोष बहुत सी औरतों से मिली तथा पता किया की कहाँ, कैसे और कब इलाज कराना उचित रहेगा | ईश्वर की दया तथा संतोष के अथक प्रयासों से एक होनहार बुजूर्ग दाई मिल गयी | रानी बाग़ में रहने वाली यह दाई इस काम में बहुत दक्ष तथा दूर दूर तक प्रसिद्द थी | संतोष अपनी छोटी बहन कुंती को साथ  लेकर इलाज कराने की मंशा से रानी बाग़ पहुँच गयी | अनजान दो औरतों को अपने द्वार पर आया देख दाई भागवंती ने पूछा, "किससे मिलना है ?" 

संतोष ने आगे बढ़कर कहा, "भागवंती से मिलना है |"  

भागवंती ने पहले संतोष को फिर कुंती को सिर से पैर तक अपनी नज़रों से नापते हुए, " कहो क्या बात है, मैं ही भागवंती हूँ |" 

“आपका नाम सुनकर हम नारायणा से आई हैं |” 

“सो तो ठीक है परन्तु पता तो चले की आप किस कारण आई हैं ? वैसे मेरा नाम व पता आपको किसने बताया है ?” 

“नारायणा में ही रहने वाली मेरी एक सहेली उषा ने मुझे आपका नाम व पता बताया था | तथा कहा था की आपके द्वारा संतान होने का दिया नुख्सा बहुत कारगर सिद्ध होता है |” 

“आप किसके लिए आई हैं ?”

“यह मेरी छोटी बहन है, इसके लिए |” 

भागवंती ने दोनों बहनों को अन्दर बैठा कर उनसे कुछ जानकारी लेनी शुरू कर दी | उसने  कुंती से मुखातिब होकर पूछ, "आपकी शादी को कितने वर्ष हो गए हैं ?"

“बारह साल |”

“मासिक धर्म कैसा है ?”

“समय पर आता है |”

“आपका आदमी कहाँ है ?”

“आगरा में नौकरी करते हैं |”

“आप कहाँ रहती हो ?”

“ग्वालियर |”

“आपस में कितने दिन बाद मिलते हो ?”

“हर हफ्ते शनिवार और रविवार को |“

“पति पत्नी का रिश्ता कितने दिनों बाद निभाते हो ?”

“जब वे चाहें |”

“क्यों तुम्हे पहल करने की कभी इच्छा नहीं होती ?”

कुछ झिझकते हु, ”नहीं|”

“अच्छा मैं दवाई दे रही हूँ | शाम का खाना जल्दी खाकर सोने से एक घंटा पहले इसका सेवन कर लेना | फिर एक महीने बाद बताना कि तुम्हारे अन्दर कुछ जाग्रति पैदा हुई या नहीं ?”

इसके बाद भागवंती ने दो बार और दवाई दी परन्तु कुंती की जाग्रति में कोइ सुधार नहीं आया  | संतोष दिन प्रतिदिन हताश होती जा रही थी  | जब तीन महीने में भी कुंती में कोइ बदलाव नहीं आया तो संतोष ने बड़े उदास मन से भागवंती से पूछा, "क्या और कोई जरिया नहीं है जिससे   कुंती में जाग्रति पैदा हो सके  ?”   

“देखो तुम्हारी बहन तथा तुम्हारे जीजा जी में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है | दोनों बच्चा पैदा करने में सक्षम हैं |” 

“तो फिर क्या रूकावट है |“

“रूकावट है तुम्हारी बहन का ठूंठपन |”

“ठूंठपन अर्थात ?”

“तुम्हारी बहन एक ठूंठ के समान है |“

“मैं इसका मतलब नहीं समझ रही हूँ | आप कहना क्या चाहती हैं ?”

“तो ध्यान से सुनो | जैसे एक पेड़ जब सूख जाता है तो हम उसे ठूंठ कहते हैं |”

“हाँ |”

“ऊपर से सूखते सूखते पेड़ की जड़ें भी सूखने लगती हैं | “

“हाँ |”

“अगर समय पर सूखते पेड़ की देखभाल करके उसकी जड़ों की गहराईयों की नलाई, गुड़ाई तथा दवाई का ठीक से मिश्रण बनाकर सींच दिया जाए तो पेड़ फिर हरा होने लगता है |“

“हाँ, सो तो ठीक है | आप तो पहेलियाँ सी बुझा रही हो | साफ़ साफ़ बताओ की क्या बात है ?”

“मैं आपको पूरी स्थिति समझाने के लिए ही ऐसा कह रही हूँ |”

“ठीक है आगे समझाओ |”

“ठीक उसी तरह जैसे धीरे धीरे एक पेड़ ठूंठ बन जाता है उसी प्रकार तुम्हारी बहन भी ठूंठ बन गयी है |” 

भागवंती की बात सुनकर संतोष बहुत निराश हो गई तथा हतोत्साहित होकर उसने अपनी गर्दन नीची कर ली | उसका दिल भर आया | अभी उसकी आँख से दो आंसू टपके ही थे की उसे भागवंती के हाथों का स्पर्श अपने कंधो पर महसूस हुआ | भागवंती ने एक हाथ से संतोष का चेहरा ऊपर उठाते हुए कहा, "अभी इतना निराश होने की आवश्यकता नहीं है | अभी एक रास्ता है |" 

भागवंती के मुख से यह सुनकर की अभी एक रास्ता है संतोष का चेहरा एकदम खिल उठा | जैसे बुझते चिराग में घी डाल देने  से उसकी लौ फिर चमकने लगती है उसी प्रकार भागवंती के "रास्ता है" कहने मात्र से संतोष का दिल जोर जोर से धड़कने लगा | उसने बड़े उतावलेपन से पूछा की वह रास्ता क्या है और बड़ी बे-सब्री   से भागवंती का  उत्तर पाने के लिए उसका चेहरा निहारने लगी | 

भागवंती ने संतोष के चहरे पर अपनी नजरें गड़ाकर कहा, "शायद वह रास्ता तुम अपना न सको |"

संतोष जो अपनी बहन के लिए कुछ भी करने को तत्पर थी, बड़े आत्मविश्वास से बोली, " मैं अपनी बहन की गोद हरी देखने के लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ |"

संतोष को भावविभोर देखकर भागवंती सीधे अपने लक्ष्य पर आई तथा बोली, "संतोष इसके लिए तुम्हे अपनी शर्म-हया  उतारनी पड़ेगी |"

भागवंती की बात सुनकर पहले तो संतोष को एक झटका सा लगा कि न जाने वह क्या करवाएगी  परन्तु अपनी बहन के लिए सब कुछ करने को तैयार उसने झट से पूछा, " बताओ मुझे क्या करना होगा ?"

“पहले अपनी बहन के ठूंठ पन की वजह अच्छी तरह जान लो | फिर मैं बताऊंगी कि तुम्हे क्या करना है |”  

“ठीक है”, संतोष अपना ध्यान भागवंती की बातों पर केन्द्रित कर देती है | 

“अपने आदमी के साथ रहते हुए कुंती में जाग्रति नाम मात्र को भी नहीं आती |” 

“क्यों ?”

“क्योंकि, माफ़ करना,  उसका आदमी कुंती की उस जड़  तक पहुँचने में असमर्थ हो जाता है | अर्थात वह उस गहराई तक नहीं पहुँच पाता जो एक औरत को गर्भवती बनाने के लिए अति आवश्यक है | वैसे दोनों में कोई कमी नहीं है | अब अपनी बहन में जाग्रति  व चेतना जगाने के लिए तुम्हे क्या करना है उसे ध्यान से सुनो |”

“क्या कुंती तुम्हारे यही रहती है ?”

 “हाँ, अभी यहीं रह रही है |“

“उसका मर्द कब आएगा ?”

“परसों यानी शनिवार को |”

“तो ऐसा करना कि शुक्रवार को तुम दोनों बहने एक कमरे में साथ साथ चारपाई डालकर सोना |“

“हम दोनों तो रोज ही एक कमरे में सोती हैं |” 

“ठीक है | अब शुक्रवार को अपने आदमी से कहना कि वह चुपके से रात को तुम्हारे पास आ जाए |” 

संतोष शर्मा कर, "मै..ड...म........ |"   

“मैंने पहले ही कहा था कि अपनी बहन की खातिर  तुम्हे अपनी शर्म हया उतारनी पड़ेगी अत: जैसा मैं कह रही हूँ सुनती जाओ तथा उस पर अमल भी करना है | तुम दोनों को उस रात वहां एक पति व पत्नी का रिश्ता पूरे जोश के साथ निभाना होगा | अगर तुम्हारे ऐसा करने से कुंती के शरीर में कुछ बेचैनी तथा हलचल होने लगती है तो समझ लेना कि तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होने में कोई संदेह नहीं रहेगा | तुम्हारी बहन की सूखती जड़ को सिंचाई मिल जाएगी और उसके फलने फूलने का रास्ता साफ़ हो जाएगा |”  

अपनी बहन को संतान देने को हर प्रकार से तत्पर संतोष ने अपनी शर्म हया को भी न्यौछावर कर दिया | और राघव जी, कुंती के पति, के आने के एक महीने बाद जब यह पक्का हो गया कि कुंती गर्भवती हो गई है तो उसकी खुशी का पारावार न रहा था |    

पिछली रात को संतोष आराम से सो भी न पाई थी | हर छोटी सी आहट पर वह उठ बैठती | उसकी नजर व कान  टेलीफोन की घंटी पर केन्द्रित थे | सुबह के साढ़े सात बजे थे की घर के टेलीफोन की घंटी टन टनाई | संतोष जो सारी रात से इसका इंतज़ार कर रही थी ने भागकर टेलीफोन का चोगा उठा कर अपने कान पर लगा लिया | उसकी साँस धौकनी की तरह चल रही थी | पता नहीं क्या खबर मिलने वाली है सोचकर वह टेलीफोन का चोगा थामे  चुपचाप ऐसे ही खड़ी रही | 

जैसे ही उधर से आवाज सुनाई पड़ी कि लड़का हुआ है | संतोष सब कुछ भूलकर नाच नाचकर जोर जोर से चिल्लाने लगी, मैं माँ बन गयी, मैं बड़ी माँ बन गयी | भगवान ने मुझे एक और बेटा दे दिया है | उसकी गर्दन तथा दोनों हाथ ऊपर आकाश की और उठ गए और मुंह से निकला, "तेरा लाख लाख शुक्र है भगवान |" 

अब संतोष जल्दी से जल्दी ग्वालियर पहुँचना चाहती थी | उसने अपने पति करण से कहा, "अब मुझे ग्वालियर जाना होगा |" 

“क्यों ?”

“कुंती  की देखभाल करने वाला वहां कोई नहीं है |”

“तुम चिंता क्यों करती हो | उसकी देखभाल करने को वहां बहुत से लोग हैं |”

“नहीं वहां इस समय अकेली मेरी माँ ही है |”

“और सब कहाँ गए ?”

“आपको तो मालूम है कि मेरी भतीजी सुनीता की शादी आगरा से हो रही है | इसलिए सभी आगरा गए होंगे |” 

“अरे हाँ ! तुम्हें भी तो आगरा जाना होगा ?” 

“हाँ वहीं से मैं ग्वालियर चली जाऊंगी | क्योंकि और तो सभी एक दो दिन रूककर सारा काम निबटा कर ग्वालियर पहुंचेंगे |”

अपनी भतीजी की शादी  में सम्मिलित होकर संतोष अपनी बहन कुंती की देखभाल करने ग्वालियर चली गयी तथा उसके लड़के को देखकर भाव विभोर हो गयी |  

लड़के की छटी पूजने का दिन था | सब और खुशी का माहौल था | आज लड़के का नाम करण संस्कार भी होना था | संतोष ने अपनी बहन कुंती से पूछा, "अपने मुन्ने का क्या नाम सोचा है ?" 

“उनसे ही पूछ लो |”

जब संतोष ने राघव जी से पूछा तो उन्होंने बड़ी ही आत्मीयता से बोला, "यह लड़का आपकी ही देन है अत: आप जो भी नाम सुझाओगी मुझे मंजूर होगा |"    

“यह मैनें  नहीं भगवान ने इसे कुंती की झोली में डाला है |”

“फिर भी आप ही के अथक प्रयासों से यह हमें हासिल हुआ है | इसलिए आपको पूरा हक़ बनता है कि इस लड़के का नाम आप ही रखें |” 

संतोष ने अपनी दुविधा का निवारण अपने पति करण की सलाह से लड़के का नाम  ‘आशीष’ रखकर कर दिया | आशीष नाम सभी को पसंद आया क्योंकि वास्तव में ही इस लड़के के लिए सैंकड़ों  लोगों की दुवाओं ने काम किया था और शायद उन सभी की प्रार्थना के कारण ईश्वर ने आशीष के रूप में कुंती को यह रत्न प्रदान किया था | 

  


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