Wednesday, September 30, 2020

उपन्यास 'ठूंठ' (ठूंठता का अंत)

 ठूंठता का अंत

एक बार करण के जीजा जी ने उससे कहा था कि आपसी संबंधों में नाराजगी या मन मुटाव सदा के लिए बना नहीं रहता | कभी न कभी ऐसी घटना घटती है कि वह आपसी नाराजगी का अंत कर देती है तथा दोनों गुटों के बीच आपसी प्रेम फूट पड़ता है |‍ 

उनके ऐसा कहने पर अपने मन में कुंती के परिवार की तरफ से मन में भारी दुविधा के चलते मैनें उनसे प्रश्न किया था, “अगर किसी व्यक्ति की एक ठूंठ की तरह, जिसमें चेतना ही न हो अर्थात जिसकी आदत बन जाए कि वह हर बार गलती करे और फिर अपनी गलती का एहसास भी न करे तब प्रेम भाव कैसे उमड़ेगा ?”

इस पर मेरे जीजा जी ने एक साधू की तरह कहा था, “अगर आपका अहित न हो तो आप उस ठूंठ को हमेशा सींचते रहो | भगवान उसे कभी न कभी हरा कर ही देंगे और वह लहलाते हुए आपका अभिवादन करने को तैयार एवं लालायित हो जाएगा | यह परम सत्य है | इसे ही समय का परिवर्तन या ऊपर वाले का चमत्कार कहते हैं |”

एक दौर होता है उस समय जो कुछ हम करते हैं उसी को आख़िरी सत्य मान लेते हैं | हमें लगता ही नहीं कि दूसरे की सुन लेनी चाहिए | इस स्थिति में यह सोचना भी नहीं चाहते कि हम अपनी राह में सही हो सकते हैं लेकिन एक राह केवल वही है यह तो ठीक नहीं है | दूसरे की राह भी तो आजमा कर देख लेनी चाहिए | अपनी गलती न मान कर अपनी बात पर अङने का मतलब है अटक जाना और अटका हुआ आदमी ठूंठ के सामान हो जाता है | 

तब जब एक वर्ष पहले कुंती ने जो किया था उस पर ‘मुझे इस बात का अफसोस नहीं था कि मैं चुप क्यों रहा | बल्कि इस बात का था कि मेरा बेटा (प्रवीण) बोल क्यूं पड़ा था’|

परन्तु इस बात पर गहन विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जिस व्यक्ति का स्वभाव ही बार बार गलती करने का बन गया हो उसे सही राह पर लाने के लिए कभी कभी सामने वाले का अदब से बोलना भी कारगर सिद्ध हो जाता है | इस सोच के बाद मेरे मन से अपने बेटे के द्वारा अपनी मौसी के प्रति आचरण पर कोई खेद नहीं रहा |   

कहा गया है कि अशव सवार ही गिरने का अनुभव जानता है और गिरकर ही उससे संभलना सीखता है | और जब संभलना सीख जाता है तो फिर उसे घुडसवारी में खूब मजा आने लगता है | जिसने घुडसवारी ही न की हो वह क्या गिरेगा | ठीक इसी प्रकार कुछ करने वाला ही गलती करता है परन्तु जो अपनी गलतियों को पहचान कर समय पर उसका निवारण कर ले वही स्वछंद एवं खुशहाल जीवन जी सकता है | अन्यथा कोई कितना भी पत्थर दिल इंसान हो गलती करने वाला अपने को अंदर से दोषी महसूस करता रहता है | और यही भावना उसे ग्लानी और चुभन देती रहती है |

एक वर्ष बीत गया था | इस दौरान करण और कुंती के परिवार के बीच किसी प्रकार का कोई आना जाना नहीं हुआ था | यहाँ तक कि दूरभाष पर भी कोई वार्तालाप नहीं हुआ | उनके साथ साथ अच्छ्नेरा वालों ने भी शायद करण के परिवार से कन्नी काट ली थी | अचानक एक दिन रात को दस बजे के लगभग अच्छनेरा से करण के पास  टेलीफोन आया, “आपको कुछ खबर है ?”

“किस बात की ?”

“नौएडा की ?”

“मुझे तो पता नहीं कि वहाँ एक साल से क्या हो रहा है, यह तो आप भी बखूबी जानते हो |”

थोड़ी देर की चुप्पी रहने के बाद करण ने फिर कहा, “वैसे आप से तो उनका विचार विमर्श होता ही रहता है फिर मेरे से आप क्यों ऐसा सवाल कर रहे हैं ?”

“नहीं...वो..तो..ठीक है | फिर भी बात ऐसी है कि शायद आपको पहले पता लग गयी हो |”

“नहीं मुझे किसी बात का नहीं पता |”

“पता चला है कि माया की तबियत ज्यादा खराब है |”

“आपको सूचना कहाँ से मिली ?”  

“अशोक का टेलीफोन आया था |”

“क्या कह रहा था ?”

“यही कि माया की तबियत अचानक बिगड़ गयी है और वह अस्पताल में भर्ती है |”

“तो आपका क्या कहना है |”

“उसका पता कर लेते |”

“पता करने की तो कोई बात नहीं है कर ही लूंगा | परन्तु इस समय मेरे पास वहाँ का फोन नंबर नहीं है |”

फिर जैसे करण को कुछ याद आया हो उसने कहा, “वैसे आप के पास उनका नंबर तो है तो क्यों न आप पूछकर मुझे भी सारी स्थिति बता दें |”

इसके बाद टेलीफोन कट गया | जब करण ने संतोष को टेलीफोन के बारे में बताया तो वे बेचैन सी हो उठी | हांलाकि उन्होंने कहा भी तथा उन्हें मलाल भी था कि हम नजदीक होते हुए भी हमें किसी बात की सूचना नहीं है फिर भी मन मुटाव को त्याग संतोष ने करण को अशोक के पास फोन करने को कहा |

करण ने रात के ग्यारह बजे फोन पर अशोक से पूछा, “क्या बात है ? पता चला है कि माया की तबियत कुछ ज्यादा खराब है ?”

“हाँ फूफा जी उसने आत्म ह्त्या कर ली है ?”

“अब कहाँ है ?”

“अस्पताल में है आप आ जाओ |”

“मैं इस समय गुडगांवा में हूँ | पवन कावङ लेने हरिद्वार गया हुआ है | अतः मैं तो सुबह ही आ पाऊंगा |” 

सुबह जितनी जल्दी हो सकता था करण एवं संतोष अस्पताल पहुँच गए | जैसा की ऐसे मामलों में अक्सर होता है | एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगने लगे | गरमा गर्मी भी हुई परन्तु आखिर में लाश को अग्नि के हवाले कर दिया गया | दाह संस्कार करके सब अपने अपने घर को विदा हो गए | अस्पताल तथा शमशान घाट पर सभी मौजूद थे परन्तु वहाँ का माहौल पेचीदा होने के कारण कहो या फिर अभी भी एक ठूंठ की तरह अपने मद में चूर होने से आपस में किसी ने कोई बात नहीं की | इसके बाद इतना अवश्य हुआ था कि कुंती ने एक बार फोन पर  संतोष से बात करने की इच्छा अवश्य जाहिर करी थी | जिससे लगा था कि कुंती के व्यवहार में कुछ परिवर्तन आने के लक्षण नजर आ रहे हैं | 

शायद कुंती का विवेक जाग्रत होने लगा था | और विवेक के जाग्रत होने से ही मनुष्य अपने अंदर अपनी की गयी गलतियों के प्रति ग्लानी और चुभन महसूस करता है | फिर विवेक गलती करने वाले के मन में सजगता पैदा करता है | यही सजगता मनुष्य को समर्पण करने को उकसाती है और अगर व्यक्ति विशेष समर्पण करने में कामयाब हो जाता है तो वह ग्लानी और चुभन से मुक्त हो जाता है | मुक्ति मिलने का अर्थ है द्वेष भाव, घृणा, निंदा, अहंकार आदि विकारों का समाप्त होकर प्रेम भाव, प्रसंशा, लगाव, एवं सुखद मेल मिलाप हो जाना है |     

समय के साथ कुंती ऐसे दो राहे पर आकर अटक गयी थी जहां से उसके पास अब केवल एक ही विकल्प बचा था | पहले अपनी बातों पर अडिग रहकर वह ठूंठपन का रास्ता आजमा चुकी थी अब तो उसे समाज में जगह पाने के लिए अपनी गलतियों को मान लेना ही हितकर लगने लगा था | करण के विचार से कुंती के इस मानसिक परिवर्तन के कई कारण रहे होंगे |

१.कुंती के लड़के सागर की शादी हो जाने से और सागर के घर मे रहते हुए भी अब उसे सारी रात अकेले ही गुजारनी पड़ती थी | पहले तो वह किसी को, किसी प्रकार तथा कैसे भी अपने बेटे सागर पर हक जमाने या उसकी सहायता करके उस पर एहसान चढाने का कोई मौक़ा नहीं देती थी यहाँ तक कि वह किसी रिश्तेदार की परछाई से भी अपने बेटे को बचाकर रखती थी परन्तु अब वह उनके पति-पत्नी के रिस्ते को कैसे नकार सकती थी | रात का अकेलापन उसे काटने को दौड़ता होगा तथा सन्नाटा उसे अपनी पुरानी करनी का विशलेषण करने पर मजबूर करता होगा |  

२.कुंती की पुत्र वधु भी नौकरी करती थी इसलिए कुंती को अधिकतर समय अकेले ही बिताना पड़ता था | उसकी पुत्रवधू गर्भवती भी हो गयी थी | उसे चिंता सताने लगी होगी कि उसके किसी के साथ भी मधुर सम्बन्ध नहीं हैं अतः समय पर उसकी देखभाल कौन करेगा |

३.उसकी एकमात्र वफादार तथा सहारा माया, जो अशोक की पत्नी थी, ने आत्म ह्त्या कर ली थी इसलिए कुंती के दुःख दर्द को बांटने वाला कोई नहीं बचा था |

४.सागर की पत्नी शीतल के स्वाभाव को पहचान कर कुंती को यह सोचकर अपने पर ग्लानी होने लगी होगी कि दोनों औरतों के स्वभाव में कितना भारी अंतर है | 

५.कुंती को खुद यह भी एहसास होने लगा होगा कि उसकी बहन और छोटे जीजा जी ने उसके साथ क्या बुरा किया था जो वह उनके साथ ऐसे पेश आ रही है |

६. हो सकता है कि उसकी पुत्रवधू शीतल ने बड़ी शीतलता से कुंती को समझाया हो कि उसकी मौसी जी के व्यवहार में उसे कोई कमी नजर नहीं आई है | फिर नाहक क्यों कुंती ने उनसे बिछोह कर लिया तथा कुंती पर कोई जवाब न बना हो |

खैर कारण कुछ भी रहा हो | बड़े मनुष्य का अपने मुंह से माफी मांगना बहुत मायने रखता है क्योंकि बच्चों को भी माफी माँगने में दिक्कत होती है | शायद जीवन में पहली बार ऐसा हुआ था कि कुंती ने किसी से अपनी गलतियों पर रोते हुए माफी माँगी थी | कुंती का करण, संतोष एवं प्रवीण से माफी मांगना एक करिश्में से कम नहीं था | यही नहीं सागर का अपनी माँ का अनुशरण करना भी एक मिशाल थी | 

हालांकि कुंती के अब तक के आचरण के मद्देनजर करण का मन इस बात को नकार पाने में अपने को असमर्थ महसूस कर रहा था कि कहीं कुंती के ये आंसू भी घडियाली आंसू तो नहीं क्योंकि उसने ऐसे समय एवं परिस्थितियों  में यह सब किया है जिससे मेरे क्या प्रत्येक किसी के मन में भी यही शंका लाजमी उपजेगी |  

हुआ यूं कि एक दिन अछनेरा से भैरवी का फोन आया | उसने पूछा, “मौसी जी हैं क्या ?”

भैरवी का अचानक अपनी मौसी को याद करना करण को दाल में कुछ काला नजर आया | संतोष मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं रहती है करण ने यही सोचकर कि भैरवी शायद कुंती के साथ घटित पुरानी बातों को कुरेदना चाहती है जिससे संतोष के दिमाग पर बुरा असर पङ सकता है, कह दिया कि वह घर पर नहीं है | 

अगले दिन पार्वती का फोन आया | उन्होंने कहा, ”कुंती के पैर की हड्डी टूट गयी है | संतोष से कह देना कि वह उससे मिल आए क्योंकि कुंती संतोष की याद करके रो रही है |”

पार्वती की सूचना पाकर करण सोचने लगा कि आखिर कुंती की तरफ की हर खबर मेरे पास अछनेरा की और से घूम  कर ही क्यों मिलती है | माया की आत्म ह्त्या की खबर भी उनके द्वारा ही मिली थी और अब कुंती की सूचना भी वे ही दे रहे हैं | जबकि अशोक, कुंती एवं सागर तीनों के पास ही हमारा सभी का टेलीफोन नंबर है | वे सीधे हमें फोन क्यों नहीं करते | क्या उनकी गलतियों की ग्लानी और चुभन हमें फोन करते हुए उनके गले में अटक जाती है जो हमारे सामने उनकी आवाज को अवरुद्ध कर देती हैं | या फिर वे हम से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते तो पार्वती क्यों हमको उनके बारे में अवगत कराती रहती है |                  

इतने में सागर का फोन आया | वैसे तो करण उससे बात न भी करता परन्तु जब कुंती के पैर की बात का पता ही चल गई थी तो यही सोचकर कि ‘दुःख में अपनों को ही याद किया जाता है’ करण ने बात करना ही उचित समझा “हैलो |”

मौसा जी मैं सागर, “नमस्ते |”

“नमस्ते ! कहो क्या बात है ?”

सागर ने एक ही सांस में कह डाला, “ममी जी के घुटने की हड्डी टूट गयी है, वे मैक्स अस्पताल नौएडा में भर्ती हैं, कल सुबह आपरेशन होगा, उनकी इच्छा है कि आपरेशन से पहले एक बार मौसी जी से मिल लें |”

करण ने जवाब दिया, “ठीक है मैं बता दूंगा |”

और जब सागर की बात करण ने संतोष को बताई तो उनके भाव ऐसे बदल गए जैसे उन के मन की कोई मुराद पूरी हो गयी हो | काफी देर तक वे हाथ जोड़े भगवान की स्तुति की मुद्रा में खड़ी रही | उनके मुरझाए रहने वाले चेहरे पर नूर उभर आया था | अपनी बहन को दुःख में झूझते रहते जानकर भी संतोष का मुख मंडल खुशी के कारण खिल उठा था | संतोष से अपनी खुशी छिपाए नहीं छुप रही थी | 

करण ने उसकी खुशी का राज जानते हुए भी पूछा, “क्या बात है अपनी बहन की दुःख की बात सुनकर भी तुम जरूरत से ज्यादा खुश नजर आ रही हो ?” 

“आपने बात ही ऐसी बताई है |”

“मैनें तो दुःख की बात बताई है |”

“भगवान ने बिछ्ड़े हूओं को मिलाने का शायद यही रास्ता उचित समझा है |”

“तो क्या तुम......?”

करण की बात का आशय समझ कर संतोष फट से बोली, “हाँ अवश्य मिलने जाऊंगी | जब उसने याद किया है चाहे दुःख में किया या सुख में किया | वैसे भी यह तो प्रचलित कहावत है कि दुःख में सुमरिन सब करें सुख में करे न कोई |”

करण ने एक बार फिर कोशिश करनी चाही, “वो तो ठीक है परन्तु....?”

“परन्तु वरन्तु कुछ नहीं | मेरा असूल रहा है कि अगर कोई याद करता है तो एक बार को सुख में बेशक मत जाओ परन्तु दुःख की घड़ी में अवश्य जाना चाहिए |” 

करण ने अपना समर्पण करना ही उचित समझा इसलिए कहा, “ठीक है कल सुबह सुबह चलेंगे |”

करण के सुबह कहने से संतोष कुछ सोच में पड़ गई | शायद वह सोच रही थी कि सुबह होने में तो अभी बहुत देर है | या हो सकता है कि सुबह कुंती के आपरेशन से पहले अस्पताल में पहुँचने में देर हो जाए और कुंती अपने दिल के हाल मुझे बता न सके | इसलिए उसने सलाह दी, “जी, अभी चलते हैं |”

करण ने घड़ी दिखाकर कहा, “रात के दस बज गए हैं |”

“तब क्या हुआ रात अपनी है |”

करण ने रात को जाने से टालने की कोशिश की, “बाहर ठण्ड भी काफी है |”

 इतनें में प्रवीन आ गया तथा उसने अपना मत प्रकट किया कि अभी जाना ठीक रहेगा | संतोष के लिए यह सोने पर सुहागा जैसी बात हो गयी |अब दो के आगे एक मत को तो हारना ही था | वैसे सच्चाई यही थी कि मेरी दिली इच्छा भी यही थी कि मैं इस मामले में हार जाना चाहता था |  क्योंकि किसी कीमत पर भी मैं संतोष के मन के उफान को दबाना नहीं चाहता था | मैं प्रत्यक्ष देख रहा था कि जो स्वास्थ्य लाभ उन्हें एक साल की दवाई खाने के बाद भी न हो सका था उससे कहीं अधिक लाभ उनको उनकी बहन की दुःख भरी सूचना ने कर दिया था | 

अपनी बहन की खबर सुनते ही संतोष उससे मिलने को इतनी बेताब तथा आतुर हो गयी थी कि उसके पैरों से स्थिरता समाप्त प्राय हो गयी थी | ऐसा लग रहा था कि जैसे वह बिना कोई वक्त गवाए उडकर अपनी बहन के पास पहुंच जाने को आतुर थी |   

संतोष, प्रवीण तथा करण रात के ग्यारह बजे मैक्स अस्पताल पहुँच गए | दर्द से निढाल कुंती पलंग पर लेटी थी | अपनी बहन को देखते ही कुंती की आँखो से अश्रुधारा बहने लगी | उसने अपनी दोनों बाहें फैला दी | संतोष के पास आते ही कुंती ने उसका हाथ जकड कर पकड़ लिया तथा बार बार अपनी गल्तियों का इजहार करते हुए माफी माँगने लगी | इसके बाद कुंती ने करण से तथा प्रवीण से भी माफी माँगने में कोई परहेज या शर्म महसूस नहीं की थी | कुंती को प्रवीण से माफी माँगते देख करण को बहुत अटपटा सा लगा तथा उसने कुंती को ऐसा करने से मना कर दिया | सागर ने भी अपनी मम्मी का अनुशरण करते हुए सभी के चरण छूने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की थी | 

कुंती के आचरण से भरोसा हो रहा था कि इस बार उसके आंसू घडियाली आंसू नहीं थे बल्कि सत्य में पश्चाताप के आंसू थे क्योंकि ४२ वर्ष में आज पहली बार करण ने देखा था कि कुंती ने किसी से अपने किए पर माफी माँगी थी  | फिर भी करण ने भगवान से प्रार्थना करते हुए यही माँगा कि हे परवर दिगार जो मैनें सोचा है वही सत्य हो तथा  कुंती एवं सागर के विवेक को जगाए रखना जिससे आज के सुखद मेल मिलाप का अंत न हो | क्योंकि मनुष्य का  जागृत विवेक ही उसमें व्याप्त मनुष्यता के ठूंठपन का अंत करने में सक्षम है |  


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